Bhavishya Ke Liye Likhne Ki Baat (Hindi Nibandh) : Ramdhari Singh Dinkar
भविष्य के लिए लिखने की बात : रामधारी सिंह 'दिनकर'
रामचरितमानस के मंगलाचरण में तुलसीदास जी ने कहा है कि रामायण की रचना मैं अपने अन्त:सुख के लिए कर रहा हूँ। प्रत्येक कलाकार यही कहता है और यह ठीक भी है; क्योंकि रचना की प्रक्रिया से आनन्द नहीं मिले तो कोई भी कलाकार कला-निर्माण की वेदना भुगतने को तैयार नहीं होगा। संसार में जो भी श्रेष्ठ कृतियाँ हैं, चाहे वे ताजमहल के रूप में हों, रामचरितमानस के रूप में हों अथवा भारतीय स्वाधीनता के रूप में हों, वे सब-की-सब अत्यन्त परिश्रम के बाद तैयार हुई हैं। घोर परिश्रम के बिना सुन्दरता का छोटे-सेछोटा रूप भी प्रस्तुत नहीं हो पाता। कविता और चित्र भी इस नियम के अपवाद नहीं हैं।
कलाकार का कार्य भी प्रतिभा से कम, परिश्रम से अधिक सम्पन्न होता है। किन्तु इस परिश्रम को कलाकार परिश्रम इसलिए नहीं मानता कि अपनी रचना से उसे बेहद प्यार होता है और जहाँ प्यार होता है, वहाँ पसीने से भी अमृत की गन्ध निकलने लगती है। हाँ, जिस कृति की रचना में कलाकार को आनन्द नहीं मिलता, कभी-कभी उसे भी वह अपने अभ्यास और कौशल से पूर्ण कर देता है। किन्तु ऐसी कृतियाँ पाठकों को आनन्द नहीं दे पातीं। इसी कारण आलोचक उन्हें परिश्रम-जनित अथवा लेबर्ड (Laboured) कहकर उनकी निन्दा करता है।
आनन्द एक ऐसा तत्त्व है जो सोददेश्य और निरुददेश्य-दोनों ही प्रकार के कलाकारों की प्रेरणा का मूल है। एक प्रकार की समाधि की शीतलता, एक प्रकार की आत्मविस्मृति का आनन्द, एक प्रकार की मग्नता, एक प्रकार का संतोष जो केवल आत्माभिव्यक्ति की पूर्णता से उत्पन्न होता है-ये ही वे निराकार सुख हैं, जो कलाकार को किसी कृति की रचना में लगाए रहते हैं। आनन्द कला की पहली शर्त है। कविता रचने के समय कवि को आनन्द होता है। कविता पढ़ने के समय पाठक को आनन्द होता है। कुछ भी सीखने के पूर्व पाठक कविता से आनन्द की लहर चाहता है। कोई भी उपदेश भरने से कवि अपनी कविता में आनन्द का ओज भरता है। कहने को तो बहुत से लोग कहते हैं कि कविता समाज और देश का उद्धार करने को की जानी चाहिए और साहित्य का विकास यह मानकर किया जाना चाहिए कि वह सर्वहारा के हाथ की तलवार है; किन्तु जिस कविता में आनन्द की शक्ति नहीं, वह देशोद्धार करने में भी असमर्थ होगी और जिस साहित्य में मानस-कमल को उत्फुल्ल करने की सामर्थ्य नहीं, उसे सर्वहारा भी अपनी तलवार नहीं मानेगा। कविता के बारे में आचार्य मम्मट ने कहा है : ‘कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे'अर्थात् उपदेश देनेवाली कविता भी पंडित नहीं, प्रिया के समान आचरण करती है। सबसे अच्छा संगीत वह है जिस पर और कोई रीझे या नहीं रीझे, किन्तु आत्मदेवता अवश्य रीझ जाए। सबसे अच्छी कविता वह है जिससे देश और समाज निहाल हों या नहीं, किन्तु कवि का अपना हृदय अवश्य निहाल हो जाए। और सबसे अच्छा नृत्य वह है जबकि नर्तकी के भीतर यह अनुभूति हो कि उसे कोई भी देख नहीं रहा है; वह हृदय के मन्दिर में कपाट बन्द करके अपने सामने आप ही नाच रही है।
ये दलीलें इस बात की हुईं कि कलाकार की प्रेरणा का मूलस्रोत उसका अपना आनन्द है, उसकी अपनी शान्ति और अपना सन्तोष है। किन्तु कलाकार के सम्बन्ध की सारी बातें यहीं खत्म नहीं हो जातीं। यह तो कला का मात्र वैयक्तिक पक्ष है। उसका एक सामाजिक पक्ष भी है जिसकी अवहेलना कलाकार नहीं कर सकता। तुलसीदास जी ने भी केवल 'स्वान्तःसुखाय' कहकर कलाकार के धर्म की इतिश्री नहीं की। आगे चलकर उन्होंने यह भी कहा कि-
जेहि प्रबन्ध बुध नहीं आदरहीं, सो स्रम बादि बाल कवि करहीं।
तथा
कीरति भनिति भूति भलि सोई, सुरसरि सम सब कह हित होई।
ये 'बुध' और ये ‘सब' कौन हैं? क्या वे लोग जो अभी नहीं जन्मे हैं? अथवा वे लोग जिनकी पीढ़ी में बैठकर कलाकार अपनी कृति की रचना कर रहा है?
ऐसा पूछने का कारण यह है कि लेखक और कवि अकसर यह कहकर वर्तमान की अवहेलना कर बैठते हैं कि हमारे समकालीन हमें समझें तो ठीक, नहीं तो हम उनके लिए लिखते ही नहीं हैं। हमारे पाठक वे हैं, जो अभी जन्मे नहीं है। अपरिचित और अज्ञात के प्रति एक प्रकार की प्रेमपूर्ण उत्सुकता, एक प्रकार की सहज आसक्ति और विश्वास-ये कलाकारों के लक्षण हैं और इसी के कारण वे बहुधा वर्तमान की अपेक्षा भविष्यत् को अधिक अनुकूल मान लेते हैं। जर्मन कवि गेटे के महाकाव्य 'फॉस्ट' के आमुख में नाटक का मैनेजर कवि से यह कहता है कि जो लोग नाटक देखने के लिए रंगशाला में आ रहे हैं, वे सब-के-सब कविता के उच्च गुणों के पारखी नहीं हैं, न वे ऊँची कविता का आनन्द ही ले सकते हैं। ऐसी अवस्था में उचित यह है कि कवि जनता के बौद्धिक स्तर को देखते हुए कुछ ऐसी चीज लिख दे जिससे उसका मनोरंजन हो, उसके रक्त में आनन्द का उबाल आए और वह तृप्त होकर घर लौटे। किन्तु कवि को यह बात पसन्द नहीं आती। वह भावुक है; सूक्ष्म भावों और विचारों का सृष्टा है। अतएव जन-समूह के कोलाहल से वह घबराने लगता है। कवि कहता है, 'इस भीड़ की ओर मेरी आँखों को मत ले जाओ। ऐसी भीड़ को देखते ही हम कवियों की आत्मा कहीं दूर भाग जाना चाहती है। मेरे और इस भीड़ के बीच में कोई परदा डाल दो; कहीं ऐसा न हो कि इस भीड़ की छूत मुझे भी ऊँचाई पर से नीचे उतार ले। मैनेजर! मुझे मुक्त करो और अपने लिए कोई और गुलाम ठीक कर लो। प्रकृति ने बड़ी पवित्र शक्ति मुझे सौंपी है। उस शक्ति का उपयोग मैं तुम्हारा तुच्छ व्यवसाय के लिए नहीं कर सकता। मैं स्वर्ग के उस शान्त प्रदेश में जाना चाहता हूँ जहाँ कवि का निर्दोष आनन्द फूल की तरह खिल रहा है। वर्तमान को प्रसन्न करने के लिए जो चीज लिखी जाती है, वह तुच्छ होती है। शुद्ध सोना तो वह है जिसे भविष्यवाले जुगाकर रखेंगे।'
ये भाव कुछ-कुछ प्रत्येक लेखक और कवि में होते हैं। लेखक और कवि, एक ही युग में जीते हुए, अन्य मनुष्यों की अपेक्षा कुछ अधिक जीवित और चैतन्य होते हैं। जो भाव जनसाधारण के अन्तर्मन में छिपा रहता है, उसका पता जनसाधारण से पूर्व उसके लेखकों और कवियों को चल जाता है। अपने जानते ये कलाकार इन भावों के अत्यन्त सूक्ष्म रूपों को पकड़ते हैं एवं उन्हें अपनी रचनाओं में स्थान देते हैं। किन्तु जब ये रचनाएँ जनता को हिला नहीं सकतीं अथवा उतना नहीं हिला सकतीं जितना कि रचयिता चाहते हैं, तब इन रचयिताओं को समकालीन जनता से कुछ विरक्ति-सी हो जाती है और वे वर्तमान को लात मारकर अपने-आपको भावी सन्ततियों के काल्पनिक प्रेम के भरोसे छोड़ देते हैं अथवा यह कहने लगते हैं कि उन्होंने केवल अपनी प्रसन्नता के लिए रचना की है।
'मैं अपने आनन्द के लिए लिखता हूँ'-लेखक का यह दावा अपनी जगह पर बिलकुल ठीक है। लेकिन इसके बाद एक दूसरा प्रश्न भी उठता है कि अपनी प्रसन्नता के बाद लेखक किसी और को भी प्रसन्न करना चाहता है या नहीं? इस प्रश्न का उत्तर देना सभी लेखक पसन्द नहीं करेंगे; किन्तु जो उत्तर देना चाहेंगे उनके मुख से भी शायद यह बात नहीं निकलेगी कि हम उनके लिए लिखते हैं जो अभी जन्मे नहीं हैं, उनके लिए नहीं जो हमारे समकालीन हैं। यदि कोई लेखक ऐसा कह भी दे तो लोग उसकी बात पर हँस देंगे, क्योंकि ऐसा समझने का कोई निश्चित आधार नहीं है कि आनेवाले युग के सभी लोग उस लेखक के मित्र ही होंगे जो अपने समकालीन लोगों से चिढ़ा हुआ अथवा अप्रसन्न है। भवभूति की ‘उत्पत्स्यते च मम कोऽपि समानधर्मा' वाली उक्ति एक ओर जहाँ कवि के प्रगाढ़ आत्मविश्वास को व्यंजित करती है, वहाँ दूसरी ओर बहुधा वह ऐसे लोगों की कुंठा और विफलता का आवरण भी बन जाती है जो जनरुचि से परास्त होकर उसे निकृष्ट मान लेते हैं और भवभूति के इस श्लोक का पाठ करके यह समझने लगते हैं कि भविष्य का अमरतासेवित कुंज सचमुच उन्हीं के विहार के लिए है।
केवल लेखक और कवि ही नहीं, सन्त और महात्मा भी उस काल की आवश्यकता से उत्पन्न होते हैं, जिस काल में उनका जन्म होता है। कोई भी जीवित लेखक किसी ऐसी चिन्ताधारा का परिणाम नहीं कहा जा सकता जो अतीत के किसी गह्वर में उठी थी सकते हैं कि लेखकों और कवियों का सम्बन्ध उस विचारधारा से होना चाहिए जो भविष्य में फूटनेवाली है तथा आज जिसका कहीं पता भी नहीं है। इसके विपरीत, वर्तमान की जो शंकाएँ और प्रश्न हैं, उनका प्रभाव जीवित कलाकारों पर पड़कर रहता है। असल में हम जो कुछ लिखते हैं, वह उन समस्याओं का विश्लेषण या समाधान है जो हमारे समकालीन बन्धुओं के हृदय को झकझोर रही हैं। साहित्य के सबसे प्रमुख श्रोता वे ही लोग होते हैं जिनके बीच में रहकर साहित्यकार साहित्य की रचना करता है। भविष्य के श्रोता बहुत दूर के श्रोता हैं, जो साहित्यकार को नहीं देखते, उसकी रचना को काल-रूपी डाकिए के हाथों प्राप्त करते हैं।
इसलिए यह बात ठीक से समझ में आने की नहीं है कि कोई लेखक यह क्यों कहता है कि वह भविष्य का मनोरंजन करने को लिख रहा है। यदि सभी लेखक भविष्य का मनोरंजन करने को लिखने लगें तो फिर वर्तमान का मनोरंजन कौन करेगा? और भविष्य के साथ यह अनुचित पक्षपात क्यों? आखिर वर्तमान ने कौन-सा ऐसा कसूर किया है कि लेखक उसका मनोरंजन करने में लज्जा का अनुभव करें? कहीं आलोचकों की यह फब्ती सही तो नहीं है कि ये लेखक एक ऐसी सफलता से घृणा करने का स्वांग भर रहे हैं जिसे वे लाख कोशिश करने पर भी प्राप्त नहीं कर सके? जिस लेखक की वर्तमान समाज के साथ ठीक से नहीं पटती, क्या पता है कि भविष्य का समाज उससे प्रेम करनेवाला होगा? भविष्य भी तो आखिर एक दिन वर्तमान ही बनेगा और उस काल के लोगों की भी धारणाएँ भिन्न-भिन्न होंगी, कुछ ऐसी जो हमारे अनुकूल पड़ेंगी और कुछ ऐसी जो हमारे विरुद्ध भी पड़ सकती हैं, जैसा कि आज भी जीवित है। इसी प्रकार वर्तमान की भी कुछ बातें मिट जाएँगी और कुछ भविष्य में जीवित रहेंगी। जो लोग वर्तमान के द्रोही और भविष्य के अन्धभक्त हैं, उनकी स्थिति यह होगी कि वर्तमान का जीवित अंश तो भविष्य में भी उनका विरोधी रहेगा और भविष्य का जो अनिश्चित अंश है, उसके बारे में निश्चयपूर्वक कुछ कहा नहीं जा सकता। संक्षेप में जो बात दिखलाई पड़ती है, वह यह है कि भविष्यवादी लेखक उन्हें तो अपना शत्रु मानता है जिनसे उसकी पूरी जान-पहचान है, किन्तु उन लोगों को वह अपना मित्र मानकर चल रहा है जिनसे उसकी कोई जान-पहचान नहीं है।
लेखक अपनी जिस कमजोरी के कारण वर्तमान से भागकर भविष्य में छिपना चाहता है, वह कमजोरी भविष्य में भी उसका पीछा छोड़नेवाली नहीं है। भविष्य कोई ऐसी चीज नहीं है जो एक दिन अचानक आकाश से टपक पड़े। आज का वर्तमानकाल भविष्य था और कल का भविष्य आज के वर्तमान के पेट में है। इसके सिवा, भविष्य का निर्माण बहुत कुछ वर्तमान के हाथों होता है। जो लोग वर्तमान को अपने अधिकार में लाए हुए हैं, उनकी इच्छा, उनकी नीति और अपने युग को लाँधकर उनके आगे बढ़ने के प्रयास से भविष्य की रूप-रेखा तैयार होती है। सन्तति बाप से बिलकुल भिन्न नहीं, बहुत कुछ उसके समान होती है। और अगर यह कहें कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी बहुत आगे चलकर कोई ऐसी पुश्त आनेवाली है जो ठीक उस लेखक के समान होगी जो आज उपेक्षा झेल रहा है, तो यह बिलकुल आकस्मिक घटना है जिसका विवेक से पूरा सम्बन्ध नहीं है। ऐसे सन्त और सुधारक हुए हैं जो अपने जीवनकाल में बहुत अधिक अनुगामी नहीं पा सके, किन्तु मरने के बाद जिनके अनुगामियों की संख्या विशाल हो गई। किन्तु यहाँ यह भी देखना होगा कि ये सन्त और सुधारक अपने समय में भी काफी प्रसिद्ध थे और सबसे बड़ी बात तो यह है कि वे भविष्य की सन्ततियों को सम्बोधित नहीं करके अपने ही काल के मनुष्यों को उपदेश दे रहे थे। उन्हें हम उपेक्षित नहीं कह सकते; क्योंकि उनके जीवनकाल में भी उनका अस्तित्व अत्यन्त प्रत्यक्ष था। फिर भी लोगों ने उनकी बात अगर देर से मानी तो इसका कारण यह था कि उनके उपदेश या तो अत्यन्त ऊँचे थे जहाँ तक पहुँचने के लिए मनुष्य को अभी कुछ और प्रगति की आवश्यकता थी अथवा तत्कालीन राज्यसत्ता उनके विरुद्ध थी। असल में, ये लोग जब वर्तमान पर कब्जा - करने की कोशिश कर रहे थे, तब उसी कोशिश के भीतर से उनका भविष्य भी जन्म ग्रहण कर रहा था। मगर ऐसे सुधारक अपवाद होते हैं और उनका अवतार कभी-कभी ही होता है। सामान्य नियम यही है कि साहित्यकार का सुयश कभी बिलकुल विलुप्त और कभी अत्यन्त जाज्वल्यमान नहीं होता। वर्तमान और भविष्य की भूमि में वह जब-तब घटता-बढ़ता रहता है। यह भी है कि प्रत्येक जीवित काल अपनी परिधि को अपनी सीमा से कुछ बाहर तक फैला देता है और यही वह घेरा है जिसके भीतर बैठकर साहित्यकार अपनी चीजों की रचना करता है। इसलिए उसकी चीजें, एक हद . तक वर्तमान और भविष्य-दोनों को प्रतिफलित करती हैं। लेकिन जब वर्तमान मरता है तब उसके घेरे का यह भविष्य भी मर जाता है और जिन चीजों को एक समय का मनुष्य उत्साह, प्रेम अथवा घृणा और क्रोध से देखता था, उन्हीं चीजों को दूसरे युग का मनुष्य एक प्रकार की तटस्थता से देखने लगता है।
जीन पाल सत्रे का इस सम्बन्ध में यह विचार है कि कला उन लोगों के साथ वार्तालाप का रूप नहीं ले सकती जो या तो मर चुके हैं या अभी पैदा ही नहीं हुए हैं। ये दोनों काम जितने मुश्किल दीखते हैं, उतने ही आसान भी हैं। अतीत और भविष्य भी सत्य हो सकते हैं, किन्तु इन दो में से एक तो सत्य का वह रूप है जो मर चुका है और दूसरा वह जिसका अभी जन्म ही नहीं हुआ है। जीवित सत्य तो वही काल हो सकता है जो अभी जी रहा है। प्रसव-वेदना को सहकर यह जीवित युग ही उन घटनाओं को जन्म देता है जिन्हें बाद के इतिहासकार अपनी पोथियों में दर्ज करनेवाले हैं। जिस उत्साह और आशय के ताने-बाने को बाद का इतिहास अलग करके सुलझाएगा, उस उत्साह और आशय की असली जिन्दगी तो वह है जिससे हमारा जमाना जी रहा है। इतिहास मरे हुए युगों का समूह होता है। जब भी कोई शताब्दी मरती है, वह तुरन्त अपने ही समान अनेक मृत शताब्दियों की पंक्ति में जा खड़ी होती है। तब उस पर भी नई रोशनी फेंकी जाती है तब उसे भी नए ज्ञान चुनौती देते हैं; और तब उसकी समस्याओं का भी नए ढंग से समाधान खोजा जाता है। मरा हुआ युग बराबर गलत समझा जाता है, किन्तु प्रत्येक युग अपने जीवनकाल में सत्य ही रहता है।
कोई भी ग्रन्थ सम्पूर्ण सत्य का प्रतिनिधित्व अपने ही समय में कर सकता है। अच्छी किताबों की हलचल ठीक उसी तरह की होती है जैसे महामारी या दुर्भिक्ष से फैलनेवाला आतंक। यह ठीक है कि इस हलचल का दायरा जरा सीमित होता है; लेकिन कैफियत दोनों की एक होती है। ऐसी किताब के निकलते ही लेखक और पाठकों के बीच प्रेम, घृणा या क्रोध और आक्रोश के तार बँध जाते हैं। किताबों की असली जिन्दगी यही है, जब वे समाज में हलचल मचा सकती हैं, जब वे अपने लिए दोस्त और दुश्मन पैदा कर सकती हैं। पुस्तक जब लोगों का ध्यान आकृष्ट करने में सफल हो जाती है, तब हजारों लोग उसका अनादर भी करते हैं; क्योंकि अंगारे तभी तक जलाने का काम करते हैं जब तक कि काल उन्हें बुझाकर कोयला न बना दे। अपनी रचना के समय अच्छी पुस्तक पूर्ण रूप से जीवित और क्रियाशील रहती है। उसके प्रकाशन से उत्साह ही नहीं, आतंक भी फैलता है; लोग उसे भुलाना चाहते हैं, मगर भुला नहीं सकते; लोग उसे उखाड़ना चाहते हैं, मगर उखाड़ नहीं सकते। कलम के जोर से जितने भी अच्छे या बुरे कार्य हो सकते हैं, उन्हें पुस्तकें अधिकतर अपने रचनाकाल में ही कर डालती हैं। बाद को चलकर जब पुस्तकों का रचनाकाल समाप्त हो जाता है, तब वे भी सापेक्ष मूल्यों के वृत्त में पहुँचकर सन्देश बन जाती हैं। फिर उनके लिए जनता में वह जोश नहीं रहता, जो प्रकाशन के समय में जगता है। अब लोग अनेक विचारों में से उन्हें भी कुछ के प्रतिनिधि मान लेते हैं और इस कारण वे इन किताबों को जरा निरपेक्ष भाव से ही पढ़ते हैं। लेकिन आनेवाली सन्ततियों की राय से वे रायें खारिज नहीं होतीं जो रचनाकाल में उन पुस्तकों पर दी जा चुकी हैं। पुस्तकों का जो असली स्वाद है, वह तो उन्हें ही मिलता है जिनके समय में उनकी रचना की जाती है। इसके विपरीत, पुस्तकें जब एक पीढ़ी के द्वारा दूसरी पीढ़ी में पहुंचाई जाने लगती हैं, तब उनका स्वाद बिगड़कर उन फलों का-सा हो जाता है जो मर चुके हैं, जिनमें रंग की थरथराहट और ताजगी का निशान बाकी नहीं है। वैसे तो विचारों के संघर्ष काफी बाद तक चलते हैं। किन्तु जब नए विचार पहले-पहल आते हैं. तब उनकी वीरता कछ और ही होती है।
प्रत्येक लेखक को सबसे पहले अपने ही समय के लिए लिखना चाहिए और यही वह धर्म है जिसका पालन संसार के सभी बड़े लेखकों ने किया है। लेकिन अपने समय के लिए लिखने का अर्थ यह नहीं है कि हम अपने युग के भीतर अपने-आपको बन्द कर लें। इसका यह भी अर्थ नहीं है कि हम आँख मूंदकर, तटस्थ भाव से अपने युग की अवस्थाओं का सिर्फ ध्यान किया करें। उलटे, अपने युग के लिए लिखने का अर्थ है उस युग के मूल्यों की रक्षा करने अथवा उन्हें बदलने का प्रयास और इसी प्रयास के क्रम में हम वर्तमान से निकलकर भविष्य की ओर बढ़ते हैं; क्योंकि वर्तमान अपनी रूढ़ियों का निश्चल समूह नहीं है, वह बराबर प्रगति करता है, वह बराबर बढ़कर अपनी सीमाओं के पार पहुँचना चाहता है। जो अपनी सीमित परिधि के परे एक अन्य क्षितिज की रेखा नहीं खींच सकता, वह न तो मनुष्य बन सकता है, न लेखक या कलाकार। किन्तु अपनी परिधि को लाँघने का यह कार्य शून्य में कूदने के समान लक्ष्यहीन नहीं होता। हम अपनी परिधि से क्यों और कहाँ निकलना चाहते हैं, यह सोच लेने का विषय है। लेखक परिधि को लाँघकर अपने-आपको अतिक्रमित करना चाहता है, इसका कारण यह है कि उसके भीतर संसार के किसी अंग को बदलने का संकल्प काम कर रहा है और जब वह अपने घेरे को लाँघने का साहस करता है, तब भी वह जानता होता है कि अपनी सीमा से निकलकर वह कहाँ जा रहा है; कौन वे मूल्य हैं जो उसे पसन्द नहीं आते और कौन वे मूल्य हैं जिन्हें वह पाना चाहता है।
कुछ लोग यह भी कहते हैं कि मनुष्य अपने युग का अतिक्रमण इसलिए भी करना चाहता है कि उसके भीतर अमरता का लोभ है। किन्तु यह अतिक्रमण मिथ्या कोटि का अतिक्रमण है। जिस परिस्थिति को हम बर्दाश्त नहीं करना चाहते, उसे बदलने के बदले, अगर हम शरण खोजते हुए भविष्य में भाग जाएँ तो यह शुद्ध पलायनवाद कहा जाएगा; क्योंकि यह भविष्य हमारी निर्मिति का भविष्य नहीं है। असल में, यह हमारा भविष्य नहीं, बल्कि हमारी सन्ततियों का वर्तमान है जिस पर हम कोई प्रभाव नहीं डाल सकते। तब भी अगर इस भविष्य के लोग हमारी रचनाओं को पढ़ेंगे तो एक ऐसे उद्देश्य के लिए जो हमारा नहीं, बिलकुल उनका अपना उद्देश्य है और जिनके सम्बन्ध में हमने कभी कोई बात सोची भी नहीं थी। ऐसी हालत में हम अगर अपनी आयु बढ़ाने का जिम्मा उनके ऊपर डालते हैं तो यह कोई अच्छी बात नहीं है। और इन अजनबी सन्ततियों को प्रभावित करने में असमर्थ होते हुए भी अगर हम उनके दरवाजों पर अपनी जिन्दगी की भीख माँगें और कहें कि चाहे जिस मन से भी पढ़ो, मगर हमें पढ़ते रहो जिससे हम कुछ दिन और जी सकें, तो क्या इस दैन्य से हमारा गौरव बढ़नेवाला है?
('रेती के फूल' पुस्तक से)