भाषा की परिभाषा : अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध

Bhasha Ki Paribhasha : Ayodhya Singh Upadhyay Hariaudh

द्वितीय खण्ड

साहित्य

हिन्दी भाषा साहित्य के विकास पर कुछ लिखने के पहले मैं यह निरूपण करना चाहता हूँ कि साहित्य किसे कहते हैं। जब तक साहित्य के वास्तविक रूप का यथार्थ ज्ञान नहीं होगा, तब तक इस बात की उचित मीमांसा न हो सकेगी कि उसके विषय में अब तक हिन्दी संसार के कवियों और महाकवियों ने समुचित पथ अवलम्बन किया या नहीं और साहित्य विषयक अपनेर् कर्तव्य को उसी रीति से पालन किया या नहीं, जो किसी साहित्य को समुन्नत और उपयोगी बनाने में सहायक होती है। प्रत्येक समय के साहित्य में उस काल के परिवर्तनों और संस्कारों का चिद्द मौजूद रहता है। इसलिए जैसे-जैसे समय की गति बदलती रहती है, साहित्य भी उसी प्रकार विकसित और परिवर्तित होता रहता है। अतएव यह आवश्यक है कि पहले हम समझ लें कि साहित्य क्या है, इस विषय का यथार्थ बोध होने पर विकास की प्रगति भी हमको यथातथ्य अवगत हो सकेगी।

“सहितस्य भाव: साहित्यम्” जिसमें सहित का भाव हो, उसे साहित्य कहते हैं। इसके विषय में संस्कृत साहित्यकारों ने जो सम्मतियाँ दी हैं, मैं उनमें से कुछ को नीचे लिखता हूँ। उनके अवलोकन से भी साहित्य की परिभाषा पर बहुत कुछ प्रकाश पड़ेगा। 'श्राध्द विवेककार' कहते हैं-

“ परस्पर सापेक्षाणां तुल्य रूपाणां युगपदेक क्रियान्वयित्वं साहित्यम् “ ।

“शब्दशक्ति-प्रकाशिका” के रचयिता यह लिखते हैं-

“ तुल्यवदेक क्रियान्वयित्वं वृध्दिविशेष विषयित्वं वा साहित्यम्। “

शब्द कल्पद्रुमकार की यह सम्मति है-

“ मनुष्य-कृत श्लोकमय ग्रन्थ विशेष: साहित्यम्। “

कवीन्द्र “रवीन्द्र” कहते हैं-

“सहित शब्दों से साहित्य की उत्पत्तिा है-अतएव, धातुगत अर्थ करने पर साहित्य शब्द में मिलन का एक भाव दृष्टिगोचर होता है। वह केवल भाव का भाव के साथ, भाषा का भाषा के साथ, ग्रन्थ का ग्रन्थ के साथ मिलन है। यही नहीं,वरन् यह बतलाता है कि मनुष्य के साथ मनुष्य का, अतीत के साथ वत्तामान का, दूर के सहित निकट का अत्यन्त अन्तरंग योग साधान साहित्य व्यतीत और किसी के द्वारा सम्भव पर नहीं। जिस देश में साहित्य का अभाव है। उस देश के लोग सजीव बन्धान से बँधो नहीं, विच्छिन्न होते हैं।”1

“श्राध्दविवेक” और “शब्द-शक्ति-प्रकाशिका” ने साहित्य की जो व्याख्या की है, “कवीन्द्र” का कथन एक प्रकार से उसकी टीका है। वह व्यापक और उदात्ता है। कुछ लोगों का विचार है कि साहित्य शब्द काव्य के अर्थ में रूढ़ि है। 'शब्द-कल्पद्रुम' की कल्पना कुछ ऐसी ही है। परन्तु ऊपर की शेष परिभाषाओं और अवतरणों से यह विचार एकदेशीय पाया जाता है। साहित्य शब्द का जो शाब्दिक अर्थ है, वह स्वयं बहुत व्यापक है, उसको संकुचित अर्थ में ग्रहण करना संगत नहीं। साहित्य समाज का जीवन है, वह उसके उत्थान-पतन का साधान है, साहित्य के उन्नत होने से उन्नत और उसके पतन से समाज पतित होता है। साहित्य वह आलोक है जो देश को अन्धाकार रहित, जाति-मुख को उज्ज्वल और समाज के प्रभाहीन नेत्रों को सप्रभ रखता है। वह सबल जाति का बल, सजीव जाति का जीवन, उत्साहित जाति का उत्साह, पराक्रमी जाति का पराक्रम, अधयवसायशील जाति का अधयवसाय, साहसी जाति का साहस औरर् कर्तव्य-परायण जाति का कर्तव्य है।

इनसाईक्लोपीडिया ब्रिटैनिका में साहित्य की परिभाषा इस प्रकार की गई है-

"Literature, a general term which in default of precise definition, may stand for the best expression of the best thought reduced to writing. Its various forms are the result of political circumstances securing the predominance of one social class which is thus enabled to propagate its ideas and sentiments."

-Encyclopedia Britannica.

“साहित्य एक व्यापक शब्द है जो यथार्थ परिभाषा के अभाव में सर्वोत्ताम विचार की उत्तामोत्ताम लिपिबध्द अभिव्यक्ति के स्थान में व्यवहृत हो सकता है। इसके विचित्रा रूप जातीय विशेषताओं के, अथवा विभिन्न व्यक्तिगत प्रकृति के अथवा ऐसी

1. देखिए 'साहित्य' नामक बँगला ग्रन्थ का पृ. 50।

राजनीतिक परिस्थितियों के परिणाम हैं जिनसे एक सामाजिक वर्ग का आधिापत्य सुनिश्चित होता है और वह अपने विचारों और भावों का प्रचार करने में समर्थ होताहै।”

- इनसाईक्लोपीडिया ब्रिटैनिका

"As behind every book that is written lies the personality of the man who wrote it, and as behind every national literature lies the character of the race, which produced it, so behind the literature of any period lie the combined forces-personal & impersonal-which made the life of that period, as a whole, what it was. Literature is only one of the many channels in which the energy of an age discharges itself; in its political movements, religious thought, philosophical speculation, art, we have the same energy overflowing into other forms of expression."

The study of literature, William Henery Hudson.

जैसे प्रत्येक ग्रन्थ की ओट में उसके रचयिता का और प्रत्येक राष्ट्रीय साहित्य की ओट में उसको उत्पन्न करने वाली जाति का व्यक्तित्व छिपा रहता है, वैसे ही काल विशेष के साहित्य की ओट में उस काल के जीवन को रूप विशेष प्रदान करने वाली व्यक्तिमूलक और अव्यक्तिमूलक अनेक संयुक्त शक्तियाँ काम करती रहती हैं। साहित्य उन अनेक साधानों में से एक है जिसमें काल विशेष की स्फूर्ति अपनी अभिव्यक्ति पाकर उन्मुक्त होती है; यही स्फूर्ति परिप्लावित होकर राजनीतिक आन्दोलनों,धार्मिक विचार, दार्शनिक तर्क-वितर्क और कला में प्रकट होती है।

- स्टडी ऑफ लिटरेचर , विलियम हेनरी हडसन

वह धार्मभाव जो सब भावनाओं का विभव है, वह ज्ञान-गरिमा जो गौरव-कामुक को सगौरव करती है, वह विचार-परम्परा जो विचारशीलता की शिला है, वह धारणा जो धारणी में सजीव-जीवन धारण का आधार है, वह प्रतिभा जो अलौकिकता से प्रतिभासित हो पतितों को उठाती है, लोचन-हीन को लोचन देती है और निरावलम्ब का अवलम्बन होती है। वह कविता जो सूक्ति-समूह की प्रसविता हो, संसार की सारवत्ता बतलाती है। वह कल्पना जो कामद-कल्प लतिका बन सुधा फल फलाती है,वह रचना जो रुचिर रुचि सहचरी है, वह धवनि जो स्वर्गीय-धवनि से देश को धवनित बनाती है साहित्य का सम्बल और विभूति है। वह सजीवता जो निर्जीवता संजीवनी है, वह साधाना जो समस्त सिध्दि का साधान है, वह चातुरी जो चतुर्वर्ग-जननी है, एवं वह चारु चरितावली, जो जाति चेतना और चेतावनी की परिचायिका है, जिस साहित्य की सहचरी होती है, वास्तव में वह साहित्य ही साहित्य कहलाने का अधिाकारी है। मेरा विचार है कि साहित्य ही वह कसौटी है जिस पर किसी जाति की सभ्यता कसी जा सकती है। असभ्य जातियों में प्राय: साहित्य का अभाव होता है इसलिए उनके पास वह संचित सम्पत्तिा नहीं होती जिसके आधार से वे अपने अतीत काल का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर सकें और उसके आधार से अपने वर्तमान और भावी सन्तानों में वह स्फूर्ति भर सकें, जिसको लाभ कर सभ्य जातियाँ समुन्नत-सोपान पर आरोहण करती हैं, इसीलिए उनका जीवन प्राय: ऐसी परिमित परिधिा में बध्द होता है जो उनको देश काल के अनुकूल नहीं बनने देता और न उनको उन परिस्थितियों का यथार्थ ज्ञान होने देता है जिनको अनुकूल बनाकर वे संसार-क्षेत्रा में अपने को गौरवित अथवा यथार्थ सुखित बना सकें। यह न्यूनता उनके प्रतिदिन अधा:पतन का कारण होती है, और उनको उस अज्ञानान्धाकार से बाहर नहीं निकलने देती, जो उनके जीवन को प्रकाशमय अथवा समुज्ज्वल नहीं बनने देता। सभ्य जातियाँ सभ्य इसीलिए हैं और इसीलिए देश कालानुसार समुन्नत होती रहती हैं कि उनका आलोकमय वर्ध्दमान साहित्य उनके प्रगति-प्राप्त-पथ को तिमिर-रहित करता रहता है। ऐसी अवस्था में साहित्य की उपयोगिता और उपकारिता स्पष्ट है। आज दिन जितनी जातियाँ समुन्नत हैं, उन पर दृष्टि डालने से यह ज्ञात होता है कि जो जातियाँ जितनी ही गौरव प्राप्त और महिमामयी हैं, उनका साहित्य भी उतना ही प्रशस्त और महान है। क्या इससे साहित्य की महत्ता भली-भाँति प्रकट नहीं होती?

जो जातियाँ दिन-दिन अवनतिर्-गत्ता में गिर रही हैं, उनके देखने से यह ज्ञात होता है कि उनके पतन का हेतु उनका वह साहित्य है जो समयानुसार अपनी प्रगति को न तो बदल सका और न अपने को देश-कालानुसार बना सका। मानवी अधिाकांश संस्कारों को साहित्य ही बनाता है। वंशगत विचार परम्परा ही मानव जाति के संस्कारों की जननी होती है। जिस जाति के साहित्य में विलासिता की ही धारा चिरकाल से बहती आई हो, उस जाति में यदि शूरता और कर्मशीलता का अभाव प्राय: देखा जाय तो क्या आश्चर्य? इसी प्रकार जिस जाति के साहित्य में विरागधारा प्रबलतर गति से प्रवाहित होती रहे, यदि वह संसार-त्यागी बनने का मंत्रा पाठ करे तो कोई विचित्राता नहीं, क्योंकि जिन विचारों और सिध्दान्तों को हम प्राय: पुस्तकों में पढ़ते रहते हैं, विद्वानों के मुख से सुनते हैं अथवा सभा-समाजों में घर और बाहर जिनका अधिाकतर प्रचार पाते हैं, उनसे प्रभावित हुए बिना कैसे रह सकते हैं? क्योंकि सिध्दान्त और विचार ही मानव के मानसिक भावों का संगठन करते हैं।

इन कतिपय पंक्तियों में जो कुछ कहा गया उससे यह सिध्द होता है कि साहित्य का देश और समाज पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। यदि वे साहित्य के आधार से विकसित होते, बनते और बिगड़ते हैं तो साहित्य भी उनकी सामयिक अवस्थाओं पर अवलम्बित होता है। जहाँ इन दोनों का सामंजस्य यथारीति सुरक्षित रहता है और उचित और आवश्यक पथ का त्याग नहीं करता, वहाँ एक-दूसरे के आधार से पुष्पित, पल्लवित और उन्नत होता है, अन्यथा पतन उसका निश्चित परिणाम है। मेरा विचार है कि इन बातों पर दृष्टि रखने से साहित्य-विकास का प्रसंग अधिाकतर बोधागम्य होगा।

हिन्दी-साहित्य का पूर्व रूप और आरम्भिक काल

आविर्भाव-काल ही से किसी भाषा में साहित्य की रचना नहीं होने लगती। भाषा जब सर्वसाधारण में प्रचलित और शब्द-सम्पत्तिा-सम्पन्न बनकर कुछ पुष्टता लाभ करती है, तभी उसमें साहित्य का सृजन होता है। इस साहित्य का आदिम रूप प्राय: छोटे-छोटे गीतों अथवा साधारण पद्यों के रूप में पहले प्रकटित होता है और यथाकाल वही विकसित होकर अपेक्षित विस्तार-लाभ करता है। हिन्दी भाषा के लिए भी यही बात कही जा सकती है। इतिहास बतलाता है कि उसमें आठवीं ईस्वी शताब्दी में साहित्य-रचना होने लगी थी। इस सूत्रा से यदि उसका आविर्भाव-काल छठी या सातवीं शताब्दी मान लिया जाय तो मैं समझता हूँ असंगत न होगा। हमारा विषय साहित्य का विकास ही है इसलिए हम इस विचार में प्रवृत्ता होते हैं कि जिस समय हिन्दी भाषा साहित्य रूप में गृहीत हो रही थी, उस समय की राजनीतिक धार्मिक और सामाजिक परिस्थिति क्या थी।

हमने ऊपर लिखा है हिन्दी-साहित्य का आविर्भाव-काल अष्टम शताब्दी का आरम्भ माना जाता है। इस समय हिन्दी-साहित्य के विस्तार-क्षेत्रा की राजनीतिक, धार्मिक एवं सामाजिक दशा समुन्नत नहीं थी। सातवें शतक के मधयकाल में ही उत्तारीय भारत का प्रसिध्द शक्तिशाली सम्राट् हर्षवर्धान स्वर्गगामी हो गया था और उसके साम्राज्य के छिन्न-भिन्न होने से देश की उस शक्ति का नाश हो गया था जिसने अनेक राजाओं और महाराजाओं को एकतासूत्रा में बाँधा रखा था। उस समय उत्तारीय भारत में एक प्रकार की अनियन्त्रिात सत्ताा राज्य कर रही थी और स्थान-स्थान पर छोटे-छोटे राजे अपनी-अपनी क्षीण-क्षमता का विस्तार कर रहे थे। यही नहीं, उनमें प्रतिदिन कलह की मात्राा बढ़ रही थी और वे लोग परस्पर एक-दूसरे को द्वेष की दृष्टि से देखते थे। जिससे वह संगठन देश में नहीं था जो उनको सुरक्षित और समुन्नत बनाने के लिए आवश्यक था। यह बात सर्वजन विदित है कि जहाँ छोटे-मोटे राजे परस्पर लड़ते रहते हैं वहाँ की साधारण जनता न तो अपना शान्तिमय जीवन बिता सकती है और न वह विभूति लाभ कर सकती है, जिसे पाकर प्रजा-वृन्द समुन्नति-सोपान पर आरोहण करता रहता है। राजनीतिक अवस्था जैसी दुर्दशाग्रस्त थी, धार्मिक अवस्था उससे भी अधिाक संकटापन्न थी। इन दिनों बौध्द-धार्म का अपने कदाचारों के कारण प्रतिदिन पतन हो रहा था और प्राचीन वैदिक धार्म उत्तारोत्तार बलशाली बन रहा था। इस कारण वैदिक धार्मावलम्बियों और बौध्दों में ऐसा संघर्ष हो रहा था जो देश के लिए वांछनीय नहीं कहा जा सकता।

जिस समय विशाल दो धार्मिक दलों में इस प्रकार द्वन्द्व चल रहा था उस समय उत्तारीय भारत की सामाजिक अवस्था कितनी दयनीय होगी, इसका अनुभव प्रत्येक विचारशील सहज ही कर सकता है। सामाजिकता अधिाकतर धार्मिक भावों और पारस्परिक सम्बन्धा सूत्राों, व्यवहारों एवं रीति-रिवाजों पर निर्भर रहती है। जिस स्थान की धार्मिकता कलह जाल में पड़कर प्रतिदिन उच्छृंखलित और आडम्बरपूर्ण बनती रहती है, जहाँ का पारस्परिक सम्बन्धा, व्यवहार, अथच रीति-नीति कपटचरण का अवलम्बन करती है, वहाँ की सामाजिकता कितनी विपन्न अवस्था को प्राप्त होगी, इसके उल्लेख की आवश्यकता नहीं। भारतवर्ष का पतन उस समय से आज तक जिस प्रकार क्रमश: होता आया है, वही उसका प्रबल प्रमाण है।

जिस समय उत्तारीय भारत इस प्रकार विपत्तिाग्रस्त था उस समय विजयोन्मत्ता अरब-निवासियों की विजय-वैजयन्ती ईरान में फहरा चुकी थी और वे क्रमश: भारत की ओर विभिन्न मार्गों से अग्रसर होने का पथ ढूँढ़ रहे थे। इस समय के बहुत पहले से अरब के व्यापारियों के साथ भारत का व्यापारिक सम्बन्धा चला आता था और इस सूत्रा से अरब के मुसलमानों को स्वर्णप्रसू भारत-वसुन्धारा का बहुत कुछ ज्ञान था। वे वाणिज्य-विस्तार के लिए भारत के किसी सामुद्रिक प्रदेश में एक बन्दरगाह बनाना चाहते थे। इसलिए सिन्धा प्रदेश पर पहले पहल उनकी ऑंखें गड़ीं और ईस्वी नौवीं शताब्दी में मुहम्मद-बिन-क़ासिम ने नाना प्रपंचों से उस पर अधिाकार कर लिया। कहते बड़ी व्यथा होती है कि वैदिक-धार्मावलम्बियों और बौध्दों का पारस्परिक कलह ही मुसलमानों के इस विजय का कारण हुआ। इस विषय में अरब के ग्रन्थकारों के आधार से मौलाना मुहम्मद सुलेमान नदवी ने अपने व्याख्यान में जो कुछ कहा है, उसके हिन्दी अनुवाद का कुछ अंश 'अरब और भारत के सम्बन्धा' नामक पुस्तक से नीचे उध्दाृत किया जाता है

“सिन्धा का सबसे पहला और पुराना इस्लामी इतिहास जो साधारणत: 'चचनामा' के नाम से प्रसिध्द है (जिसके दूसरे नाम तारीखुल-हिन्द वल् सन्द और मिनहाजुल ममालिक हैं) उसको देखने से भली-भाँति यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उस समय सिन्धा में बौध्दों और ब्राह्मणों के बीच विरोधा और शत्राुता चल रही थी। यह भी पता चलता है कि कुछ घरानों में ये दोनों धार्म इस प्रकार फैले हुए थे कि उनमें से एक हिन्दू था तो दूसरा बौध्द। सिन्धा के राजाओं के विवरण पढ़कर इसी आधार पर मुझे यह निर्णय करना पड़ा है कि राजा चच हिन्दू ब्राह्मण थे। उन्होंने लड़-भिड़कर छोटे-छोटे बौध्द राजाओं को या तो मिटा दिया था या उन्हें अपना करद बना लिया था। यह राजा ई. छठी शताब्दी के अन्त में सिन्धा का शासक था, उसके बाद उसका भाई चन्द्र राजा हुआ। यह बौध्द मत का कट्टर अनुयायी था। जिन लोगों ने पहले अपना धार्म छोड़ दिया था,उन्हें इसने बलपूर्वक बौध्द बनाया था, यह देख हिन्दू ब्राह्मणों ने सिर उठाया, वह विवश होकर लड़ने के लिए निकला, पर सफल नहीं हुआ। उसके बाद चच का लड़का दाहर उसके स्थान पर राजा हुआ।”

“ऐतिहासिक अनुमानों से यह जान पड़ता है कि जिस समय मुसलमान लोग सिन्धा की सीमा पर थे, उस समय देश में इन दोनों धाम्र्मों में भारी लड़ाई हो रही थी और बौध्द लोग ब्राह्मणों का सामना करने में अपने आपको असमर्थ देखकर मुसलमानों की ओर मेल और प्रेम का हाथ बढ़ा रहे थे। हम देखते हैं कि ठीक जिस समय मुहम्मद-बिन-क़ासिम की विजयी सेना नयरूँ नगर में पहुँचती है, उस समय वहाँ के निवासियों ने अपने बौध्द पुजारियों को उपस्थित किया था। उस समय पता चला था कि इन्होंने अपने विशेष दूत इराक़ के हज्जाज़ के पास भेजकर उससे अभय दान प्राप्त कर लिया था, इसलिए नयरूँ के लोगों ने मुहम्मद का बहुत अच्छा स्वागत किया। उसके लिए रसद की व्यवस्था की। अपने नगर में उसका प्रवेश कराया और मेल के नियमों का पूरा-पूरा पालन किया। इसके बाद जब इस्लामी सेना सिन्धा की लहर को पार करके सदउसान पहुँचती है,तब फिर बौध्द लोग शान्ति के दूत बनते हैं। इसी प्रकार सेवस्तान में होता है कि बौध्द लोग अपने राजा विजयराम को छोड़कर प्रसन्नतापूर्वक मुसलमानों का साथ देते हैं और उनका मान हृदय से करते हैं।” ऐसा जान पड़ता है कि जब सिन्धा के बौध्दों ने एक ओर मुसलमानों को और दूसरी ओर ब्राह्मण्ाों को तौला, तब उन्हें मुसलमान अच्छे जान पड़े। दूसरा कारण यह हो सकता है कि इससे पहले तुर्किस्तान और अफगानिस्तान के बौध्दों के साथ मुसलमानों ने जो अच्छा व्यवहार किया था और उनमें से बहुत अधिाक लोगों ने जिस शीघ्रता से इस्लाम धार्म ग्रहण किया था, उसका प्रभाव इस देश के बौध्दों पर भी पड़ा था।”

सिन्धा पर अधिाकार होने के बाद अरब विजेताओं ने भारत के विभिन्न प्रान्तों पर आक्रमण करना प्रारम्भ किया। इस कारण से उस समय भारत का कुछ उत्तारीय और दक्षिणी प्रान्त रणक्षेत्रा बन गया और ऐसी अवस्था में आक्रमित प्रान्तों में युध्दोन्माद का आविर्भाव होना स्वाभाविक था। ये झगड़े नौवीं और दशवीं शताब्दी में उत्तारोत्तार वृध्दि पाते रहे। इसीलिए हिन्दी-साहित्य की अधिाकांश आदिम रचनाएँ वीर-गाथाओं से ही सम्बन्धा रखती हैं। इन दोनों शताब्दियों में जितने साहित्य-ग्रन्थ रचे गये, उनमें से अधिाकतर में रण-भेदी-निनाद ही श्रवणगत होता है। खुमानरासो आदि इसके प्रमाण हैं। वीर गाथाओं का काल आगे भी बढ़ता है और तेरहवीं शताब्दी तक पहुँचता है। कारण इसका यह है कि विजयी मुसलमानों की विजय-सीमा ज्यों-ज्यों बढ़ती गई त्यों-त्यों वे प्रबल होते गये और क्रमश: भारत के अनेक प्रदेश उनके अधिाकार में आते गये, क्योंकि उस समय हिन्दू जाति असंगठित थी और उसमें कोई ऐसा शक्ति-सम्पन्न सम्राट् नहीं था जो जाति-मात्रा को केन्द्रीभूत कर दुर्दान्त यवन दल का दलन करता। इसलिए विजयोत्साही मुसलमान विजेताओं और विजित भारतीयों का युध्द क्रम लगातार चलता ही रहा और इसी आधार से वीर गाथाओं की रचना भी होती रही क्योंकि उस समय हिन्दी जाति की लुप्त-शक्ति को जागरित करने की आवश्यकता थी। मेरे इस कथन का यह भाव नहीं है कि नौ सौ से तेरहवीं शताब्दी तक साहित्य के दूसरे ग्रन्थ रचे ही नहीं गये, वरन् मेरा कथन यह है कि इस काल के जितने प्रसिध्द और मान्य काव्य-ग्रन्थ हैं, उनमें वीर-गाथामय ग्रन्थों ही की अधिाकता और विशेषता है। हिन्दी साहित्य का पहला उल्लेखनीय ग्रन्थ खुमान रासो है, जो नौवें शतक में लिखा गया। इसके पहले का पुष्प कवि कृत एक अलंकार ग्रन्थ बतलाया जाता है, जो आठवीं शताब्दी में रचा गया है। किन्तु उसका उल्लेख मात्रा है, ग्रन्थ का पता अब तक नहीं चला। यह नहीं कहा जा सकता कि पुष्प का अलंकार ग्रन्थ किस रस में लिखा गया। कविराज भूषण के “शिवराज भूषण” ग्रन्थ के समान उसका ग्रन्थ भी केवल वीर रसात्मक हो सकता है। यदि अनुमान सत्य हो तो यह कहा जा सकता है कि हिन्दी भाषा के साहित्य का आरम्भ वीर रस से ही होता है, कारण वे ही हैं जिनका निर्देश मैंने ऊपर किया है। ब्रह्मभट्ट कवि का खुमान रासो, चन्द कवि कृत पृथ्वीराज रासो, जनिक का आल्हा खंड, नरपति नाल्ह कृत वीसलदेव रासो और सारंगधार-कृत हम्मीर रासो नामक उल्लेखनीय ग्रन्थ भी इसके प्रमाण हैं।

आरम्भिक काल मैंने आठवीं शताब्दी से तेरहवीं शताब्दी तक माना है। इन पाँच सौ वर्षों में वीर-गाथा-कार कवियों और लेखकों के अतिरिक्त अन्य विषयों के ग्रन्थकार और रचयिता भी हुए हैं, अतएव मैं उन पर भी विचार करना चाहता हूँ। जिससे यह निश्चित हो सके कि हिन्दी-साहित्य की आरम्भिक रचनाओं के विषयमें मेरा जो कथन है वह कहाँ तक युक्तिसंगत है। मिश्र-बन्धाुओं का विवरण यह है। 1

दसवीं शताब्दी में भुआल कवि ने भगवद्गीता का अनुवाद पद्यबध्द हिन्दी भाषा में किया। यह ग्रन्थ उपलब्धा है।

ग्यारहवीं शताब्दी में कालिंजर के राजा नन्द ने कुछ कविताएँ की हैं, किन्तु पुस्तक अब अप्राप्य है।

बारहवीं शताब्दी में जैन श्वेताम्बराचार्य जिन वल्लभ सूरी ने “वृध्द नवकार” नामक ग्रन्थ बनाया जो जैन हिन्दी साहित्य में सबसे प्राचीन माना जाता है। इसी शताब्दी में महाराष्ट्र में चालुक्य वंशी सोमेश्वर नामक राजा, मसऊद कुतुब अली,

1. देखिए 'मिश्र बंधु विनोद', पृ. 92

साँईदान चारण और अकरम फैज ने भी रचनाएँ कीं। इनमे से सोमेश्वर, मसऊद और कुतुब अली के ग्रन्थ नहीं मिलते। शेष लोगों में से साँईंदान चारण ने “सामन्तसार” नामक ग्रन्थ की रचना और अकरम फ़ैज़ ने 'र्'वत्तामाल” नामक ग्रन्थ बनाया एवं संस्कृत के वृत्तारत्नाकर नामक ग्रन्थ का अनुवाद किया।

डॉक्टर जी. ए. ग्रियर्सन ने भी इस काल के कुछ कवियों के नाम लिखे हैं। 1 वे हैं केदार, कुमारपाल और अनन्यदास। 1.केदार कवि का समय सन् 1150 ई. के लगभग है। डॉक्टर साहब ने इसके किसी ग्रन्थ का नाम नहीं लिखा, किन्तु कहा जाता है कि इसने “जय-चन्द्रप्रकाश” नामक महाकाव्य की रचना की थी, जो अब नहीं मिलता। 2. कुमारपाल बारहवें शतक में हुआ। इसने “कुमारपाल चरित्रा” की रचना की, जो उपलब्धा है। 3. अनन्यदास बारहवीं शताब्दी में हुआ, इसका “अनन्य-जोग” नामक ग्रन्थ प्राप्य है।

पं. रामचन्द्र शुक्ल ने अपने “हिन्दी-साहित्य का इतिहास” नामक ग्रन्थ में एक नवीनकवि मधाुकर का भी नाम बतलाया है, जो बारहवीं शताब्दी में था। वे कहते हैं, इसने “जय मयंकजस चन्द्रिका” नामक ग्रन्थ की रचना की, किन्तु वह ग्रन्थ प्राप्य नहीं है।

जिन ग्रन्थकारों का नाम ऊपर लिया गया, इनमें से कुछ तो ऐसे हैं जिनके किसी ग्रन्थ का नाम तक नहीं बतलाया गया,कुछ ऐसे हैं जिसके ग्रन्थों का नाम लिखा गया पर वे अप्राप्य हैं, जिन लोगों के ग्रन्थ मिलते हैं, जिनका नाम भी बतलाया गया, वे उस कोटि के कवि और ग्रन्थकार नहीं ज्ञात होते, जिनकी रचनाओं का विशेष स्थान होता है। भुआल कवि की भगवद्गीता ही को लीजिए। प्रथम तो वह अनुवाद है, दूसरे उसके अनुवाद की भाषा ऐसी है कि जिस पर दृष्टि रखकर पं. रामचन्द्र शुक्ल2 उसे दसवीं शताब्दी का ग्रन्थ मानने को तैयार नहीं हैं। अन्य प्राप्य ग्रन्थों के विषय में भी ऐसी ही बातें कही जा सकती हैं; उनमें कोई ऐसा नहीं जो उल्लेखयोग्य हो अथवा जिसने ऐसी ख्याति लाभ की हो जैसी वीर गाथा सम्बन्धाी ग्रन्थों को प्राप्त है। किम्वा जिनमें वे विशेषताएँ हों जो किसी काव्य अथवा कृति को विद्वन्मण्डली में वा सुपठित जनता की दृष्टि में समादृत बनाती हों। इसलिए मेरा यह कथन ही युक्ति-संगत ज्ञात होता है कि हिन्दी-साहित्य के आरम्भिक काल में वीर गाथा सम्बन्धाी ग्रन्थों की ही प्रधानता रही और इन बातों पर दृष्टि रखकर डॉ. जी. ए. ग्रियर्सन आदि विद्वानों ने जो आरम्भ काल को वीर गाथा-काल माना है, वह असंगत नहीं। इन समस्त ग्रन्थों में 'खुमान रासो' ही ऐसा है जो सबसे प्रचीन और उपलब्धा ग्रन्थ है, उसमें वीर-रस की ही प्रधानता है, अतएव यह कौन नहीं स्वीकार करेगा कि हिन्दी साहित्य की आदि रचना वीर-गाथा से ही प्रारम्भ होती है।

1. देखिए माडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ दी हिन्दुस्तान, पृ. 2

2. देखिए हिन्दी-साहित्य का इतिहास, पृ. 30

कहा जाता है कि खुमान रासो में सोलहवीं शताब्दी तक की रचनाएँ सम्मिलित हैं, जैसा कि ग्रियर्सन साहब के निम्नलिखित उध्दरण से सिध्द होता है। 1

“यह (खुमान रासो) मेवाड़ का अत्यन्त प्राचीन पद्य-बध्द इतिहास है, नौवींशताब्दी में लिखा गया है। इसमें खुमान रावत और उनके परिवार का वर्णन है। महाराणा प्रताप के समय में (सन् 1575) इसमें बहुत से परिवर्तन किये गये।र् वत्तामान रूप में इसमें अकबर के साथ प्रतापसिंह के युध्दों का वर्णन भी मिलता है। तेरहवीं शताब्दी में चित्ताौड़ पर किये गये अलाउद्दीन ख़िलजी के आक्रमण का भी इसमें विस्तृतवर्णनहै।”

परन्तु इस कथन का यह अर्थ नहीं है कि खुमान रासो की आदिम रचना की भाषा आदि भी बदल दी गई है। ग्रियर्सन साहब के लेख से इतना ही प्रकट होता है कि उसमें अलाउद्दीन खिलजी और अकबर के समय तक की कथाएँ भी सम्मिलित कर दी गई हैं। ऐसी अवस्था में न तो उसके आदिम रचना होने का महत्तव नष्ट होता है और न उसकी भाषा को सन्दिग्धा कहा जा सकता है। जिस समय उसकी रचना हुई थी, उस काल का वातावरण ही ऐसा था कि इस प्रकार के ग्रन्थों की सृष्टि होती। क्योंकि यह असम्भव था कि उत्तारोत्तार मुसलमान पवित्रा भारत वसुन्धारा के विभागों को अधिाकृत करते जावें और जिन सहृदय हिन्दुओं में देशानुराग था, वे अपने सजातियों को देश और जाति-रक्षा के लिए विविधा रचनाओं द्वारा उत्तोजित और उत्साहित भी न करें। यह सत्य है कि भारतवर्ष की सार्वजनिक शक्ति किसी काल में मुसलमानों का विरोधा करने के लिए कटिबध्द नहीं हुई, और न समस्त हिंदू जाति कभी उनसे लोहा लेने के लिए केन्द्रीभूत हुई। किन्तु यह भी सत्य है कि मुसलमानों की विजय-प्राप्ति में कम बाधाएँ नहीं उपस्थित की गईं और यह इस प्रकार की कृतियों और रचनाओं का ही अंशत: परिणाम था। जिस काल में हिन्दू-जाति की संगठन-शक्ति सब प्रकार छिन्न-भिन्न थी, उस समय वीरगाथा सम्बन्धी रचनाओं ने जो कुछ लाभ पहुँचाया, उसको अस्वीकार नहीं किया जा सकता। इन्हीं बातों पर दृष्टि रखकर मैं पहले कह आया हूँ कि वे तात्कालिक वातावरण और संघर्षण से ही उत्पन्न हुई थीं। वास्तव बात यह है कि सामाजिक रुचियों और भावों ही का परिणाम किसी काल का साहित्य होता है। उनका वीररस प्रधान होना भी हमारे कथन की पुष्टि करताहै।

अब मैं भाषा विकास सम्बन्धाी विषय पर प्रकाश डालना चाहता हूँ, अतएव इसी कार्य में प्रवृत्ता होता हूँ। भाषा-विकास के प्रकरण में मैं यह लिख आया हूँ कि

1. "This is the most ancient poetic chronicle of Mewar, and was written in the ninth century. It gives a history of Khuman Raut and of his family. It was recast during the reign of Partap Singh (fl. 1575), and, as we now have it, carrie, the narrative down to the wars of that prince with Akbaras devoting a great portion to the seige of Chitour by Alauddin Khilji in the thirteenth century," Modern Vernacular Literature Hindustan, p. 3.

अपभ्रंश भाषा से क्रमश: विकसित होकर हिन्दी भाषा वर्तमान रूप में परिणत हुई। इसलिए पहले मैं कुछ पद्य आप लोगों के सामने रखता हूँ जो अपभ्रंश भाषा के हैं। इन पद्यों की रचना-प्रणाली और उनके शब्द-विन्यास का ज्ञान हो जाने पर आप लोग उस रीति से अभिज्ञ हो जावेंगे जिसको ग्रहण कर हिन्दी साहित्यकारों ने हिन्दी भाषा को आधाुनिक रूप दिया। अपभ्रंश के निम्नलिखित पद्यों को देखिए-

1. बिट्टीए मइ भणिय तुहुँ मा कुरु बुङ्की दिट्ठि।

पुत्तिा सकर्णी भल्लि जिवँ मारइ हियइ पविट्ठिड्ड

बिट्टीए = बिटिया। मइ = मैंने। भणिय = कहा। तुहुँ = तू। मा = मत। कुरु = कर। बङ्कीं = बाँकी। दिट्ठी = दृष्टि। पुत्तिा = पुत्राी। सकर्णी = कानवाली, नुकीली। भल्लि = भाला। जिवँ = जैसे। मारइ = मारती है। हियइ = हिये में। पविट्ठि = प्रविष्ट होकर, पैठकर।

बेटी! मैंने कहा, तू बाँकी दृष्टि न कर, हे पुत्रिा! नुकीला भाला हृदय में पैठ कर मार देता है।

2. जे महुँ दियणा दियहड़ा दइये पवसन्तेण।

तात गणन्तिय अंगुलिउ जज्जरियाउ नहेणड्ड

जे = जो। महुँ = हमको। दियणा = दिया। दियहड़ा = दिवस। दइये = दयित, प्यारा। पवसन्तेण = प्रवास में जाता हुआ। ताण = तिन्हें, तिनको। गणन्तिय = गिनती हुई। अंगुलिउ = ऍंगुली। जज्जरियाउ = जर्जरित हो गई। नहेण = नखसेड्ड

प्रवास करते हुए प्यारे ने जो दिन मुझको दिये उनको उँगलियों पर गिनने से वे नखों से जर्जर हो गईंड्ड

3. सायर उप्परि तणु धारइ तलि घल्लै रैणाइँ।

सामि सुभुच्चुभि परिहरइ सम्माणे खल्लाइँड्ड

सायर = सागर। उप्परि = ऊपर। तणु = तृण। धारइ = रखता है। तलि = नीचे। घल्लै = डालता है। रैणाइँ = रत्नों को। सामि = स्वामी। सुभुच्चुभि = सुन्दर भृत्य को। परिहरइ = त्यागता है। सम्माणे = सम्मान करता है। खल्लाइँ = खलों को।

सागर ऊपर तृण धारण करता है और नीचे रत्नों को डाल देता है। इसी प्रकार स्वामी सुन्दर भृत्यों को छोड़ देता है और खलों का सम्मान करता है।

4. वायसु उववन्तिए पिउ दिट्ठउ सहसत्तिा।

अध्दा बलया महिहि गय अध्दा फुट्टु तड़त्तिाड्ड

वायसु = कौवा। उववन्तिए = उड़ाती हुई। पिउ = पति। दिट्ठउ = देखा। सहसत्तिा = सहसा इति, एक-ब-एक। अध्दा = आधा। बलया = कड़ा (चूड़ी)। महिहि = पृथ्वी पर। गय = गिर गई। फुट्टु = फूट गई। तड़त्तिा = तड़ से।

कौआ उड़ाने वाली स्त्राी ने सहसा प्यारे को देखा, आधाी चूड़ी पृथ्वी पर गिर गई और आधाी तड़ से टूट गई।

5. भमरु म रुणिझुणि अण्णदइ सा दिसि जोइ मरोइ।

सा मालइ देसन्तरिय जसु तुहुँ मरइ वियोइड्ड

भमरु = भ्रमर। म = मत। रुणिझुणि = रुनझुन शब्द कर। अण्णदइ = अरण्य में। सा = वह। दिशि = दिशा। जोइ = देखकर। रोइ = रो। मालइ = मालती। देसन्तरिय = देशान्तरित हो गई। जसु = जिसके लिए। तुहुँ = तू। मरइ = मरता है। वियोइ = वियोग में।

भ्रमर! अरण्य में रुनझुन मत कर। उस दिशा को देखकर मत रो। वह मालती देशान्तरित हो गई जिसके वियोग में तू मरता हैड्ड

सबसे प्राचीन पुस्तक पुण्ड या पुष्प के अलंकार ग्रन्थ अथवा खुमान रासो के पद्यों का कोई उदाहरण अब तक प्राप्त नहीं हो सका। इसलिए इनकी रचनाओं के विषय में कुछ लिखना असम्भव है। भुआल कवि का गीता का अनुवाद दसवें शतक का बतलाया जाता है, परन्तु उसकी भाषा बिलकुल माधयमिक काल की मालूम होती है। इसलिए पं. रामचन्द्र शुक्ल से सहमत होकर मैं उसको आरम्भिक काल का कवि नहीं मानता। सबसे पहले आरम्भिक काल की प्राप्य रचना का उदाहरण, मेरे विचारानुसार, जिन बल्लभ सूरि का है, जो बारहवें शतक के आरम्भ में हुआ। उसकी रचना के कुछ पद्य ये हैं-

किं कप्पतरुरे अयाण चिन्तउ मणभिन्तरि।

किं चिंतामणि कामधोनु आराहउ बहुपरि।

चित्रााबेली काज किसे देसंतर लंघउ।

रयण रासि कारण विसेइ सायर उल्लंघउ।

इस पद्य को आप ऊपर के उन पद्यों से मिलाइए जो अपभ्रंश भाषा के हैं, तो यह ज्ञात हो जायगा कि किस प्रकार अपभ्रंश से क्रमश: हिन्दी भाषा का विकास हो रहा था। प्राकृत और अपभ्रंश में नकार के स्थान पर णकार हो जाता है। इस पद्य में भी आप देखेंगे कि 'अयाण' 'मण', 'रयण' आदि में इसी प्रकार का प्रयोग हुआ है। अपभ्रंश पाँचवें पद्य में 'देसन्तरिय' का जैसा प्रयोग हुआ है, इस पद्य के 'देसन्तर' का भी वैसा ही प्रयोग है। 'भिंतरि', 'लंघउ', 'उल्लंघउ', 'सायर' इत्यादि शब्दों का भी व्यवहार अपभ्रंश रचना के अनुसार ही हुआ है। प्राकृत में, और अपभ्रंश में भी 'धा' का 'ह' हो जाता है। इस पद्य में भी'आराधाउ' का 'आराहउ' लिखा गया। 'कल्पतरु' के स्थान पर 'कप्पतरु' का प्रयोग भी प्राकृत भाषा के नियमानुसार है। यह सब होने पर भी उक्त पद्य में हिन्दीपन की झलक भी 'कामधोनु' 'काज' और 'किसे' आदि शब्दों में मिलती है, जो विकास प्रणाली का प्रत्यक्ष उदाहरण्ा है।

इसी शताब्दी के दूसरे कवि नरपति नाल्ह की भी कुछ रचनाओं को देखिए। यह कवि बीसलदेव रासो नामक ग्रन्थ का रचयिता है। अधिाकतर विद्वानों ने इसकी रचना को कुछ तर्क-वितर्क के साथ बारहवें शतक का माना है।

“ एक उड़ीसा को धानी बचन हमारइ तू मानि जु मानि।

ज्यों थारइ सांभर उग्गहइ राजा उणि भरि उगहइ हीरा खानि

जीभ न जीभ विगोयनो दव दाधा का कुपली मेल्हइ।

जीभ का दाधा नुपाँगुरइ नाल्हकहइ सुण जइ सब कोइ। “

इस पद्य में भी अपभ्रंश की झलक बहुत कुछ मौजूद है। इसमें अधिाकांश राजस्थानी भाषा का रंग है। इसी कारण अपभ्रंश की भाषा से वह बहुत कुछ मिलती-जुलती है। अब तक राजस्थानी भाषा पर अपभ्रंश भाषा का बहुत कुछ प्रभाव अवशिष्ट है। फिर भी उसमें ब्रजभाषा के शब्दों का इतना मेल है कि उसको अन्य भाषा नहीं कह सकते। पंडित रामचन्द्र शुक्ल वीसलदेव रासो की भाषा के विषय में यह लिखते हैं-

“भाषा की परीक्षा करके देखते हैं तो वह साहित्यिक नहीं राजस्थानी है, जैसे 'सूकइ छै' (सूखता है), पाटण थीं (पाटन से),भोजतण (भोज का), खंड-खंड रा (खंड-खंड का), इत्यादि। इस ग्रन्थ से एक बात का आभास अवश्य मिलता है। वह यह कि शिष्ट काव्य-भाषा में ब्रज और खड़ी बोली के प्राचीन रूप का ही राजस्थान में भी व्यवहार होता था। साहित्य की सामान्य भाषा हिन्दी ही थी, जो पिंगल भाषा कहलाती थी। वीसलदेव रासो में बीच-बीच में बराबर इस साहित्यिक भाषा (हिन्दी) को मिलाने का प्रयत्न दिखाई पड़ता है। भाषा की प्राचीनता पर विचार करने से पहले यह बात धयान में रखनी चाहिए कि गाने की चीज होने के कारण इसकी भाषा में समयानुसार बहुत कुछ फेरफार होता आया। पर लिखित रूप में रक्षित होने के कारण इसका पुराना ढाँचा बहुत कुछ बचा हुआ है। उदाहरण के लिए देखिए 'मेलवि' = मिलाकर, जोड़कर। चितई = चित्ता में। रणि = रण में। प्रापिजयि = प्राप्त हो या किया जाय। ईणी विधिा = इस विधिा। ईसउ = ऐसा। बालहो = बाला का। इसी प्रकार नयर (नज़र), पसाउ (प्रसाद), पयोहर (पयोधार) आदि प्राकृत शब्द भी हैं, जिनका प्रयोग कविता में अपभ्रंश काल से लेकर पीछे तक होता रहा।”1

1. देखिए हिन्दी साहित्य के इतिहास का पृष्ठ 30 और 31

आरम्भिक काल का प्रधान कवि चन्द है जो हमारे हिन्दी संसार का चासर है। वह भी इसी शताब्दी में हुआ। मैं कुछ उसकी रचनाएँ भी उपस्थित करना चाहता हूँ, जिससे यह स्पष्टतया प्रकट होगा कि किस प्रकार अपभ्रंश से हिन्दी भाषा रूपान्तरित हुई है। कुछ विद्वानों की यह सम्मति है कि चन्द कवि कृत पृथ्वीराज रासो की रचना पन्द्रहवीं या सोलहवीं शताब्दी की है। पृथ्वीराज रासो में बहुत-सी रचनाएँ ऐसी हैं जो इस विचार को पुष्ट करती हैं। परन्तु मेरा विचार है कि इन प्रक्षिप्त रचनाओं के अतिरिक्त उक्त ग्रंथ में ऐसी रचनाएँ भी हैं जिनको हम बारहवीं शताब्दी की रचना निस्संकोच भाव से मान सकते हैं। इस विषय में बहुत कुछ तर्क-वितर्क हो चुका है और अब तक इसकी समाप्ति नहीं हुई। तथापि ऐतिहासिक विशेषताओं पर दृष्टि रखकर पृथ्वीराज रासो की आदि रचना को बारहवीं शताब्दी का मानना पड़ेगा। बहुत कुछ विचार करने पर मैं इस सिध्दान्त पर पहुँचा हूँ कि पृथ्वीराज रासो में प्राचीनता की जो विशेषताएँ मौजूद हैं, वे वीर गाथा काल की किसी पुस्तक में स्पष्ट रूप से नहीं पायी जातीं। कुछ वर्णन इस ग्रन्थ के ऐसे हैं जिनको प्रत्यक्षदर्शी ही लिख सकता है। कोई इतिहासज्ञ यह नहीं कहता कि चन्द बरदाई पृथ्वीराज के समय में नहीं था। कुछ ऐतिहासिक घटनाएँ इस ग्रन्थ की ऐसी हैं जो पृथ्वीराज और चन्दबरदाई के जीवन से विशेष सम्बन्धा रखती हैं। जब तक उनको असत्य न सिध्द किया जाय तब तक पृथ्वीराज रासो को कृत्रिाम नहीं कहा जा सकता। किसी भाषा की आदिम रचनाओं में जो अप्रांजलता और शब्द विन्यास का असंयत भाव देखा जाता है वह पृथ्वीराज रासो में मिलता है। इसलिए मेरी यह धारणा है कि इस ग्रन्थ का कुछ आदिम अंश अवश्य है जिसमें बाद को बहुत कुछ सम्मिश्रण हुआ। इस आदिम अंश में से ही उदाहरण स्वरूप कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं-

1. उड़ि चल्यो अप्प कासी समग्ग

आयो सु गंग तट कज्ज जग्ग

सत अट्ठ खण्ड करि अंग अब्बि , ओमें सु अप्प वर मध्दि हब्बि

मंग्यो सुईस यँहि बर पसाय , सत अध्दपुत्ता अवतरन काय।

2. हय हथ्यि देत संख्य न मन खग्ग मग्ग खूनी बहै।

3. छपी सेन सुरतान , मुट्ठि छुट्टिय चावध्दिसि।

मनु कपाट उध्दरयो , कूह फुट्टिय दिसि विद्दिसि।

मार मार मुष किन्न , लिन्न चावण्ड उपारे।

परे सेन सुरतान , जाम इक्कह परि धारे।

गल वत्थ घत्ता गाढ़ो ग्रहौ , जानि सनेही भिंटयौ।

चामण्डराइ करवर कहर , गौरी दल बल कुट्टियौ।

पहले मैं जिन अपभ्रंश पद्यों को लिख आया हूँ उनसे इनको मिलाइए देखिए, कितना साम्य है। ज्ञात होता है कि ये उन्हीं की छाया हैं। इन पद्यों में यह देखा जाता है कि जहाँ प्राकृत अथवा अपभ्रंश के 'समग्ग' 'कज्ज', 'जग्ग', 'अट्ठ', 'अप्प', 'मध्दि', 'पसाय', 'अध्द', 'पुत्ता', 'हथ्थि', 'खग्ग', 'मग्ग', 'मुट्ठि' आदि प्रातिपदिक शब्द आये हैं वहीं 'छुट्ठि', 'फुट्टिय', 'भिंटयौ', 'कुट्टियौ' आदि क्रियाएँ भी आई हैं। इनमें 'हय', 'कपाट', 'दल', 'बल', इत्यादि संस्कृत के तत्सम शब्द भी मौजूद हैं और यह कवि द्वारा गृहीत उसकी भाषा की विशेषता है। प्राकृत अथवा अपभ्रंश में प्राय: संस्कृत के तत्सम शब्दों का अभाव देखा जाता है। विद्वानों ने प्राकृत और अपभ्रंश की यह विशेषता मानी है कि उसमें संस्कृत के तत्सम शब्द नहीं आते। परन्तु चन्द की भाषा बतलाती है कि उसने अपने पद्यों में संस्कृत तत्सम शब्दों के प्रयोग की चेष्टा भी की है। उसने 'नकार' के स्थान पर'णकार' का प्रयोग प्राय: नहीं किया है और यह भी हिन्दी भाषा का एक विशेष लक्षण है। प्राकृत और अपभ्रंश में नकार का भी एक प्रकार से अभाव है। डिंगल अथवा राजस्थानी में भी प्राय: नकार का प्रयोग नहीं होता देखा जाता। इन पद्यों में कुछ ऐसी क्रियाएँ भी आई हैं जो ब्रजभाषा की मालूम होती हैं, वे हैं 'उड़ि चल्यो', 'आयो', 'करि', आदि और ये सब वे ही विशेषताएँ हैं जो प्राकृत और अपभ्रंश से हिन्दी भाषा को अलग करती और शनै:-शनै: विकसित होने का प्रमाण्ा देती हैं। मैं कुछ ऐसे पद्यों को भी उपस्थित करना चाहता हूँ जिनकी रचना इन पद्यों से सर्वथा भिन्न है। वे पद्य ये हैं-

दूहा

सरस काव्य रचना रचौँ , खल जन सुनि न हसन्त।

जैसे सिंधाुर देखि मग , श्वान स्वभाव भुसन्त।

तौ यनि सुजन निमित्ता गुन , रटये तन मन फूल।

जूं का भय जिय जानि कै , क्यों डारिये दुकूल।

पूरन सकल विलास रस , सरस पुत्रा फल दान।

अन्त होय सह गामिनी , नेह नारि को मान।

जस हीनो नागो गनहु , ढंक्यो जग जस बान।

लम्पट हारै लोह छन , तिय जीतै बिनु बान।

समदर्शी ते निकट है , भुगति मुकति भर पूर।

विषम दरस वा नरन ते , सदा सर्वदा दूर।

मेरा विचार है, ये पद्य सोलहवीं शताब्दी के हैं और बाद को ग्रन्थ की मुख्य रचना में सम्मिलित किये गये हैं। परन्तु कोई भाषा मर्मज्ञ भिन्न प्रकार के दोनों पद्य समूहों को देखकर यह न स्वीकार करेगा कि वे एक काल की ही रचनाएँ हैं। मेरा तो यह विचार है कि ये दोनों भिन्न प्रकार की रचनाएँ ही इस बात का प्रमाण हैं, कि उनके निर्माण-काल में शताब्दियों का अन्तर है। डॉक्टर ग्रियर्सन साहब कहते हैं कि इस ग्रन्थ में 1,00,000 पद्य हैं। 1 क्या पद्यों की यह बहुलता यह नहीं प्रमाणित करती कि इस ग्रन्थ में धीरे-धीरे बहुत अधिाक प्रक्षिप्त अंश सम्मिलित किये गये हैं। हिन्दी भाषा में अब तक इतने बड़े ग्रन्थ का निर्माण नहीं हुआ है। संस्कृत में भी महाभारत को छोड़कर कोई ऐसा विशाल ग्रन्थ नहीं है। महाभारत में भी जब क्रमश: बहुत से सामयिक श्लोक यथा समय सम्मिलित होते गये, तभी उसका विस्तार हुआ। यही बात पृथ्वीराज रासो के विषय में भी कही जा सकती है। जैसे बाद के प्रक्षिप्त अंशों की उपस्थिति में भी महाभारत प्राचीन श्लोकों से रहित नहीं हो गया है, उसी प्रकार रासो में भी प्राचीन रचनाओं का अभाव नहीं है।

इस विषय में अनेक विद्वानों की सम्मतियाँ मेरे विचारानुकूल हैं। हाँ, कुछ विद्वान उसको सर्वथा जाली कहते हैं। यह मत-भिन्नता है। डॉ. ग्रियर्सन साहब की इस विषय में क्या सम्मति है और उसकी भाषा के विषय मे। 2 उनका क्या विचार है उसको मैं नीचे उध्दाृत करता हूँ।

“उसकी (चन्दबरदाई की) रचनाओं का मेवाड़ के अमरसिंह ने सत्राहवीं शताब्दी के आरम्भ में संग्रह किया। यह भी असम्भव नहीं है कि उसी समय किसी-किसी अंश को नवीन रूप दे दिया गया हो। जिससे इस सिध्दान्त का भी प्रचार हो गया है कि कुल का कुल ग्रन्थ जाली है।”

“इस कवि (चन्दबरदाई) के ग्र्रन्थों के अधययन ने मुझे उसके कवित्व-सौन्दर्य पर मुग्धा बना दिया है परन्तु मुझे सन्देह है कि राजपूताना की बोलियों से अपरिचित कोई व्यक्ति इसे आनन्दपूर्वक पढ़ सकेगा। तथापि वह भाषा-विज्ञान के विद्यार्थी के लिए अत्यन्त मूल्यवान् है, क्योंकि यूरोपीय अनुसन्धाानकत्तर्ााओं को आधाुनिकतम प्राकृत और प्राचीनतम गौड़ीय कवियों के मधय में रिक्त स्थान की पूर्ति करने वाली कड़ी एकमात्रा यही है। हमारे पास चन्द का मूल ग्रन्थ भले ही न हो, फिर भी उसकी रचनाओं में हमें शुध्द अपभ्रंश, शौरसेनी प्राकृत रूपों से युक्त, गौड़ साहित्य के प्राचीनतम नमूने मिलतेहैं!”3

1. देखिए माडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान, पृ. 3

2-3. "His poetical works were collected by Amar Singh (e.f. no. 191), of Mewar in the early part of the Seventeenth Century. They were not improbably recast and modernised in parts at the same time, which has given rise to a theory that the whole is a modern forgery."

"My own studies of this poet's work have inspired me with a great admiration for its poetic beauty, but I doubt if anyone not prefectly master of the various Rajputana dialects could even read it with pleasure. It is, however, of the greatest value to the student of philology, for it is at present the only stepping stone available to European explorers in the chasm between the latest Prakrit and the earliest Gaudiam authors. Though we may not possess the actual text to Chand, we have certainly in his writings some of the oldest known Specimens of Gaudian literature, abounding in pure Apabhransha, Shaurseni Prakrit forms."

पद्यों की आदिम रचना इतनी प्रांजल और उतनी प्रौढ़ नहीं होतीं जितनी उत्तारकाल की, यह मैं पहले लिख आया हूँ। चन्द वरदाई की रचनाओं में ये बातें पाई जाती हैं, जो उन्हें आरम्भिक काल की मानने के लिए विवश करती हैं। किसी विषय का दोष गुण उस समय ही यथा-तथ्य सामने आता है, जब उस पर अधिाकतर विचार दृष्टि पड़ने लगती है, नियम उसी समय निर्दोष बन सकते हैं, जब कार्यक्षेत्रा में आने पर उन पर विवेचना का अवसर प्राप्त होता है। आदिम रचनाओं में प्राय: अप्रांजलता और अनियमबध्दता इसलिए पाई जाती है कि उनका पथ विचार-क्षेत्रा में आकर प्रशस्त नहीं हो गया होता और न आलोचना और प्रत्यालोचनाओं के द्वारा उनकी प्रणाली परिमार्जित हो गई होती। जिस काल में पृथ्वीराज रासो की मुख्य रचना प्रारम्भ होती है, उस समय साहित्य की अवस्था ऐसी ही थी और यह दूसरा प्रमाण है जो उसके आदि अंश को आरंभिक काल की कृति बतलाता है। उदाहरण लीजिए-

चले दस्सहस्सं असव्वार जानं।

मदं गल्लितं मत्तासै पंच दंती।

रँगं पंच रंगं ढलक्कन्त ढालं।

सुरं पंच सावद्द वाजित्रा बाजं।

सहस्सं सहन्नाय मृग मोहि राजं।

मँजारी चखी मुष्ष जम्बक्क लारी A

एराकी अरब्बी पटी तेज ताजी।

तुरक्की महाबान कम्मान बाजी।

रजंपुत्ता पज्चास जुध्दे अमोरं।

बजै जीत के नद्द नीसान घोरं।

सामना सूर सब्बय अपार।

झटं जाहु तुम कीर दिल्ली सुदेसं।

कंद्रप्प जाति अवगार रूप।

जो चिद्दित शब्द हैं उनमें कवि की निरंकुशता और मनमानी रीति से शब्द गढ़ लेने की प्रवृत्तिा स्पष्टतया दृष्टिगत होती है। मैं यह स्वीकार करूँगा कि उत्तारकाल की कुछ रचनाओं में भी इस प्रकार का प्रयोग मिलता है किन्तु मैं उसको चन्द वरदाई की ही रचनाओं का अनुकरणमात्रा समझता हूँ। इस निरंकुशता के प्रवर्तक पृथ्वीराज रासोकार ही हैं। यह अप्रांजलता और अनियमबध्दता जो उनकी रचना में आई है उसका कारण उनका आरम्भिक काल का होना है। निम्नलिखित शब्द विदेशी भाषा के हैं-

'असव्वार', 'सहन्नाय', 'अरव्वी', 'तुरक्की', 'कम्मान', इत्यादि।

इनका ग्रहण अनुचित नहीं, परन्तु इनका मनगढ़न्त प्रयोग उचित नहीं। इन शब्दों का शुध्द रूप 'सवार', 'शहनाई', 'अरबी', 'तुरकी', 'कमान' है, किन्तु उनका जो रूप कवि ने बनाया है, वह न तो उस भाषा के व्याकरण पर अवलम्बित है न हिन्दी भाषा अथवा प्राकृत या अपभ्रंश के नियमों के अनुकूल है। ऐसी अवस्था में उनका प्रयोग जिस रूप में हुआ है वह अप्रौढ़ता और अनियमबध्दता का ही परिचायक है, जो तात्कालिक हिन्दी भाषा की अपरिपक्वता का सूचक है। शेष शब्द हिन्दी भाषा अथवा प्राकृत किंवा अपभ्रंश के हैं। उनका भी मनमाना प्रयोग किया गया है, जैसे 'गलित' को 'गल्लित', 'ढलकत' को'ढलक्कंत', 'सब्द' को 'साबद', 'वादित्रा' को 'बाजित्रा', 'मुख' को 'मुष्ष', 'जम्बुक' को 'जम्बक्क', 'राजपूत' को 'रंजपुत्ता', 'पचास'को 'पच्चास', 'नाद' को 'नद्द', 'सब' या 'सब्ब' को 'सब्बय', 'झटिति' या 'झट' 'झटं', 'कंदर्प' को 'कंद्रप्प' इत्यादि। ये शब्द हिन्दी, प्राकृत, अथवा अपभ्रंश व्याकरण के अनुकूल न तो बने हैं और न इनमें साहित्य-सम्बन्धाी को नियमबध्दता पाई जाती है। इसलिए मेरा विचार है कि ये कवि के गढ़े शब्द हैं और इसी कारण से इनकी सृष्टि हुई है कि आरंभिक काल में इस प्रकार की उच्छृंखलता का कोई प्रतिबन्धा नहीं था। अतएव मैं यह कहने के लिए बाधय हूँ कि जिन रचनाओं में इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग हुआ है, वे अवश्य रासो की आदिम अप्रक्षिप्त रचनाएँ हैं।

पृथ्वीराज रासो के कुछ छन्द भी इस बात के प्रमाण हैं कि उसकी मुख्य रचनाएँ बारहवीं शताब्दी की हैं। आजकल हिन्दी साहित्य में गाथा छन्द का व्यवहार नहीं होता, किन्तु चन्दबरदाई इस छन्द से काम लेता है। वैदिककाल से प्रारम्भ करके बौध्दकाल तक गाथा में रचनाएँ हुई हैं, अपभ्रंश काल में भी गाथा में रचना होती देखी जाती है। 1 ऐसी अवस्था में जब देखते हैं कि चन्दबरदाई भी गाथा छन्द का व्यवहार करता है तो इससे क्या पाया जाता है? यही न कि पृथ्वीराज रासो की रचना आरम्भिक काल की ही है, क्योंकि अपभ्रंश के बाद ही हिन्दी भाषा का आरम्भिक-काल प्रारम्भ होता है। रासो का एक गाथा छन्द देखिए, और उसकी भाषा पर भी विचार कीजिए-

पुच्छति बयन सुबाले उच्चरिय करि सच्च सज्जाए।

कवन नाम तुम देस कवन पंथ करै परवेस।

अब तक मैंने पृथ्वीराज रासो के प्राचीन अंश के विषय में जो कुछ लिखा है उससे मैं नहीं कह सकता कि अपने विषय के प्रतिपादन में मुझको कितनी सफलता मिली। यह बड़ा वादग्रस्त विषय है। यदि डॉक्टर ग्रियर्सन की सम्मति पृथ्वीराज रासो की प्राचीनता के अनुकूल है तो डॉक्टर वूलर की सम्मति उसके प्रतिकूल। वे इस

1. देखिए, पालि प्रकाश, पृष्ठ 62, 63, 64।

ग्रन्थ की यहाँ तक प्रतिकूलता करते हैं कि उसका प्रकाश तक बंद करा देना चाहते हैं। यदि पंडित मोहनलाल विष्णुलाल पंडया अनेक तर्क-वितर्कों से पृथ्वीराज रासो की प्राचीनता का पक्ष-ग्रहण करते हैं तो जोधापुर के मुरादिदान और उदयपुर के श्यामल दास भी उसका विरोधा करने के लिए कटिबध्द दिखलाई पड़ते हैं। थोड़ा समय हुआ कि रायबहादुर पं. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने भी अपनी प्रबल युक्तियों से इस ग्रन्थ को सर्वथा जाली कहा है। परन्तु, जब हम देखते हैं कि महामहोपाधयाय पं. हरप्रसाद शास्त्राी सन् 1909 से सन् 1913 तक राजपूताने में प्राचीन ऐतिहासिक काव्यों की खोज करके पृथ्वीराज रासो को प्राचीनता की सनद देते हैं तो इस विवर्ध्दित वाद की विचित्राता ही सामने आती है। इन विद्वान् पुरुषों ने अपने-अपने पक्ष के अनुकूल पर्याप्त प्रमाण दिये हैं। इसलिए इस विषय में अब अधिाक लिखना बाहुल्य मात्रा हो। मैंने भी अपने पक्ष की पुष्टि के लिए उद्योग किया है। किन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि मैंने जो कुछ लिखा है, वह निर्विवाद है। हाँ, एक बात ऐसी है जो मेरे विचार के अधिाकतर अनुकूल है। वह यह कि बहुत कुछ तर्क-वितर्क और विवाद होने पर भी किसी ने चन्दबरदाई को सोलहवें शतक का कवि नहीं माना है। विवाद करने वालों ने भी साहित्य के वर्णन के समय उसको बारहवें शतक में ही स्थान दिया है। यदि पृथ्वीराज रासो की प्राचीनता की सत्यता में सन्देह है तो उसको बारहवें शतक में क्यों स्थान अब तक मिलता आता है। मेरा विचार है कि इसके पक्ष में ऐसी सत्यता अवश्य है जो इसको बारहवें शतक का काव्य मानने के लिए बाधय करती है। इसके अतिरिक्त जब तक संदिग्धाता है तब तक उस पद से किसी को कैसे गिराया जा सकता है जो कि चिरकाल से उसे प्राप्त है।

चन्दबरदाई का समसामयिक जगनायक अथवा जगनिक नामक एक ऐसा प्रसिध्द कवि है जिसकी वीरगाथामय रचनाओं का इतना अधिाक प्रचार सर्वसाधारण में है जितना उस समय की और किसी-कवि-कृति का अब तक नहीं हुआ। इसकी रचनाएँ आज दिन भी उत्तार भारत के अधिाकांश विभागों के हिन्दुओं की सूखी रगों में रक्त-धारा का प्रवाह करती रहती है। पश्चिमोत्तार प्रान्त के पूर्व और दक्षिण के अंशों में इसके गीतों का अब भी बहुत अधिाक प्रचार है। वर्षाकाल में जिस वीरोन्माद के साथ इस गीति-काव्य का गान ग्रामों के चौपालों और नगरों के जनाकीर्ण स्थानों में होता है, वह किसके हृदय में वीरता का संचार नहीं करता? इसके गीतों में महोबा के राजा के दो प्रधान वीर आल्हा और ऊदल के वीर कम्र्मों का बड़ा ही ओजमय वर्णन है यद्यपि यह बात बड़ी ही मर्म्म-भेदी है कि इन दोनों वीरों के वीर कम्र्मों की इतिश्री गृहकलह में ही हुई। महोबे के प्रसिध्द शासक परमाल और उस काल के प्रधान क्षत्रिाय भूपाल पृथ्वीराज का संघर्ष ही गीति-काव्य का प्रधान विषय है। यह वह संघर्ष था कि जिसका परिणाम पृथ्वीराज का पतन और भारतवर्ष के चिर-सुरक्षित दिल्ली के उस फाटक का भग्न होना था जिसमें प्रवेश करके विजयी मुसलमान जाति भारत की पुण्य भूमि में आठ सौ वर्ष तक शासन कर सकी। तथापि यह बात गर्व के साथ कही जा सकती है कि जैसा वीर रस का ओजस्वी वर्णन इस गीति काव्य में है हिन्दी साहित्य के एक दो प्रसिध्द ग्रन्थों में ही वैसा मिलता है। यह ओजस्विनी रचना, कुछ काल हुआ, आल्हा खंड के नाम से पुस्तकाकार छप चुकी है, परन्तु बहुत ही परिवर्तित रूप में। उसका मुख्य रूप क्या था, इसकी मीमांसा करना दुस्तर है। जिस रूप में यह पुस्तक हिन्दी-साहित्य के सामने आई है उसके आधार से इतना ही कहा जा सकता है कि इस कवि का उस काल की साहित्यिक हिन्दी पर, जैसा चाहिए, वैसा अधिाकार नहीं था। प्राप्त रचनाओं के देखने से यह ज्ञात होता है कि उसमें बुन्देलखंडी भाषा का ही बाहुल्य है। हिन्दी भाषा के विकास पर उससे जैसा चाहिए वैसा प्रकाश नहीं पड़ता, विशेषकर इस कारण से कि मौखिक गीति-काव्य होने से समय के साथ उसकी रचना में भी परिवर्तन होता गया है। किन्तु हिन्दी भाषा के आरम्भिक काल में जो परिवर्तन जो संघर्ष यहाँ के विद्वेषपूण्र्ा राजाओं में परस्पर चल रहा था उसका यह ग्रंथ पूर्ण परिचायक है। इसीलिए इस कवि की रचनाओं की चर्चा यहाँ की गई। मैं समझता हूँ कि जितने ग्रामीण गीत हिन्दी भाषा के सर्वसाधारण में प्रचलित हैं, उनमें जगनायक के आल्हा खंड की प्रधानता है। उसके देखने से यह अवगत होता है कि सर्वसाधारण की बोलचाल में भी कैसी ओजपूर्ण रचना हो सकती है। इस उद्देश्य से भी इस कवि की चर्चा आवश्यक ज्ञात हुई। उसकी रचना के कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं-

कूदे लाखन तब हौदा से , औ धारती मैं पहुँचे आइ।

गगरी भर के फूल मँगाओ सो भुरुही को दओ पियाइ।

भांग मिठाई तुरतै दइ दइ , दुहरे घोट अफीमन क्यार।

राती भाती हथिनी करि कै दुहरे ऑंदू दये डराय।

चहुँ ओर घेरे पृथीराज हैं , भुरुही रखि हौ धार्म हमार।

खैंचि सरोही लाखन लीन्ही समुहें गोलगये समियाय।

साँकर फेरै भुरुही दल में , सब दल काट करो खरियान।

जैसे भेड़हा भेड़न पैठे , जैसे सिंह बिड़ारै गाय।

वह गत कीनी लाखन ने , नद्दी बितवै के मैदान।

देवि दाहिनी भइ लाखन को , मुरचा हटौ पिथौरा क्यार।

उस समय युध्दोन्माद का क्या रूप था और किस प्रकार मुसलमानों के साथ ही नहीं, हिन्दू राजाओं में भी परस्पर संघर्ष चल रहा था, इस गीतिकाव्य में इसका अच्छा चित्राण है। इसलिए उपयोगिता की ही दृष्टि से नहीं, जातीय दुर्बलताओं का ज्ञान कराने के लिए भी यह ग्रन्थ रक्षणीय और संग्रहणीय है। इन पद्यों की वर्तमान भाषा यह स्पष्टतया बतलाती है कि वह बारहवीं ई. शताब्दी की नहीं है। हमने तेरहवीं शताब्दी तक आरम्भिक काल माना है। इसीलिए हम इस शतक के कुछ कवियों की रचनाएँ लेकर भी यह देखना चाहते हैं कि उन पर भाषा सम्बन्धाी विकास का क्या प्रभाव पड़ा। इस शतक के प्रधान कवि अनन्यदास, धार्मसूरि, विजयसूरि एवं विनय चन्द्र सूरि जैन हैं। इनमें से अनन्यदास की रचना का कोई उदाहरण नहीं मिला। धार्मसूरि जैन ने जम्बू स्वामी रासा नामक एक ग्रन्थ लिखा है उसके कुछ पद्य ये हैं (रचनाकाल 209 ईस्वी)-

करि सानिधिा सरसत्तिा देवि जीयरै कहाणउँ।

जम्बू स्वामिहिं गुण गहण संखेबि बखाणउँ।

जम्बु दीबि सिरि भरत खित्तिा तिहि नयर पहाणउँ।

राजग्रह नामेण नयर पुहुवी बक्खाणउँ।

राज करइ सेणिय नरिन्द नरखरहं नुसारो।

तासु वट तणय बुध्दिवन्त मति अभय कुमारो।

विजय सेन सूरि ने 'रेवंतगिरि रासा' की रचना की है। (रचनाकाल, 1231 ई‑) कुछ उनके पद्य भी देखिए-

परमेसर तित्थेसरह पय पंकज पणमेवि।

भणि सुरास रेवंतगिरि अम्बकिदिवि सुमिरेवि।

गामा गर पुर वरग गहण सरि वरिसर सुपयेसु।

देवि भूमि दिसि पच्छिमंह मणहर सोरठ देसु।

जिणु तहिं मंडण मंडणउ मर गय मउव् महन्तु।

निर्म्मल सामल सिहिर भर रेहै गिरि रेवन्तु।

तसु मुंहुं दंसणु दस दिसवि देसि दिसन्तर संग।

आबइ भाइ रसाल मण उडुलि रंग तरंग।

विनय चन्द्रसूरि ने नेमनाथ चौपई और एक और ग्रन्थ लिखा है (रचनाकाल 1299 ई.), कुछ उनके पद्य देखिए-

“ बोलइ राजल तउ इह बयणू। नत्थि नेंमबर समवर रयणू A

धारइ तेजु गहगण सलिताउ। गयणि नउग्गइ दिणयर जाउ

सखी भणय सामिणि मन झूरि। दुज्जण तणमनवंछितपूरि “ ।

ऊपर के पद्यों में जो शब्द चिद्दित कर दिये गये हैं, वे प्राकृत अथवा अपभ्रंश के हैं। इससे प्रकट होता है कि तेरहवीं शताब्दी तक अपभ्रंश शब्दों का हिन्दी रचनाओं में अधिाकतर प्रचलन था। अपभ्रंश में नकार के स्थान पर णकार का प्रयोग अधिाकतर देखा जाता है। उल्लिखित पद्यों में भी नकार के स्थान पर णकार का बहुल प्रयोग पाया जाता है।

जैसे तणय, मणहर, मण,गयण, दिणयर, दुज्जण इत्यादि। अपभ्रंश भाषा का यह नियम है कि अकारान्त शब्द के प्रथम और द्वितीया का एक वचन उकारयुक्त होता है। 1इन पद्यों में भी ऐसा प्रयोग मिलता है जैसे देसु, महन्तु, रेवन्तु, तेजु इत्यादि। प्राकृत और अपभ्रंश में शकार और षकार का बिलकुल प्रयोग नहीं होता, उसके स्थान पर सकार प्रयुक्त होता है2। जैसे श्रमण: समणो, शिष्य: सिस्सो। इन पद्यों में भी ऐसा प्रयोग मिलता है। परमेसर, देस, सामल दस, दिवसि, देसि, दिसन्तरु, देसणु इत्यादि। अपभ्रंश का यह नियम है कि अनेक स्थानों में दीर्घ स्वर Ðस्व एवं Ðस्व स्वर दीर्घ हो जाता है। इन पद्यों में बयणू,और रयणू का ऐसा ही प्रयोग है। इनमें जो हिन्दी के शब्द आये हैं जैसे करि, राज कर सारो, तासु, मुँह, दस, आबइ, रंग,बोलइ, धारइ, मन इत्यादि। इसी प्रकार जो संस्कृत के तत्सम शब्द आए हैं, जैसे गुण, राजग्रह, मति, अभय, पंकज, गिरि,सरि, सर, भूमि, रसाल, तरंग, सम, सखी, इत्यादि वे विशेष चिन्तनीय हैं। हिन्दी शब्द यह सूचित कर रहे हैं कि किस प्रकार वे धीरे-धीरे अपभ्रंश भाषा में अधिाकार प्राप्त कर रहे थे। संस्कृत के तत्सम शब्द यह बतलाते हैं कि उस समय प्राकृत नियमों के प्रतिकूल वे हिन्दी भाषा में गृहीत होने लगे थे। इन पद्यों में यह बात विशेष दृष्टि देने योग्य है कि इनमें एक शब्द के विभिन्न प्रयोग मिलते हैं जैसे मन के मण आदि। प्राय: 'न' के स्थान पर णकार का प्रयोग देखा जाता है, जैसे कि ऊपर लिखा जा चुका है, परन्तु न का सर्वथा त्याग भी नहीं है। जैसे नयर नायेण, नेमि इत्यादि।

मैं समझता हूँ, आरम्भिक काल में किस प्रकार अपभ्रंश भाषा परिवर्तित होकर हिन्दी भाषा में परिणत हुई, इसका पर्याप्त उदाहरण दिया जा चुका। उस समय की परिस्थिति के अनुकूल जो सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन हुए, उनका वर्णन भी जितना अपेक्षित था उतना किया गया। आरम्भिक काल में कुछ ऐसे ग्रन्थ भी लिखे गये हैं, जिनका सम्बन्धा वीरगाथाओं से नहीं है, परन्तु प्रथम तो उन ग्रंथों का नाम मात्रा लिया गया है, दूसरे जो ग्रन्थ उपलब्धा हैं वे थोडे हैं और उनकी प्राय: रचनाएँ ऐसी हैं जो उस काल की नहीं, वरन् माधयमिक काल की ज्ञात होती हैं। इसलिए उनका कोई उध्दरण नहीं दिया गया। अन्त में मैंने जैन सूरियों की जो तीन रचनाएँ उध्दाृत की हैं वे वीर-रस की नहीं हैं। तथापि मैंने उनको उपस्थित किया केवल इस उद्देश्य से कि जिसमें यह प्रकट हो सके कि वीर-गाथा सम्बन्धाी रचनाओं में ही नहीं आरम्भिक काल में ओज लाने के लिए प्राकृत और अपभ्रंश शब्दों का प्रयोग किया गया है, अन्य रचनाओं में भी इस प्रकार के प्रयोग मिलते हैं, जो यह बतलाते हैं कि उस काल की वास्तविक भाषा वही थी जो विकसित होकर अपभ्रंश से हिन्दीभाषा के परवर्ती रूप की ओर अग्रसर हो रही थी।

1-2. देखिए, पाली प्रकाश, पृ. 2

हिन्दी साहित्य का माधयमिक काल

हिन्दी साहित्य का माध्यमिक काल, मेरे विचार से चौदहवीं ईस्वी शताब्दी से प्रारम्भ होता है। इस समय विजयी मुसलमानों का अधिकार उत्तार भारत के अधिकांश विभागों में हो गया था और दिन-दिन उनकी शक्ति वर्ध्दित हो रही थी। दक्षिण प्रान्त में उन्होंने अपने पाँव बढ़ाये थे और वहाँ भी विजय-श्री उनका साथ दे रही थी। इस समय मुसलमान विजेता अपने प्रभाव विस्तार के साथ भारतवर्ष की भाषाओं से भी स्नेह करने लगे थे और उन युक्तियों को ग्रहण कर रहे थे जिनसे उनके राज्य में स्थायिता हो और वे हिन्दुओं के हृदय पर भी अधिकार कर सकें। इस सूत्रा से अनेक मुस्लिम विद्वानों ने हिन्दी भाषा का अधययन किया, क्योंकि वह देश-भाषा थी। मुसलमानों में राज्य-प्रसार के साथ अपने धर्म-प्रचार की भी उत्कट इच्छा थी। जहाँ वे राज्य-रक्षण अपनार् कर्तव्य समझते, वहीं अपने धर्म के विस्तार का आयोजन भी बड़े आग्रह के साथ करते। उस समय का इतिहास पढ़ने से यह ज्ञात होता है कि जहाँ विजयी मुसलमानों की तलवार एक प्रान्त के बाद भारत के दूसरे प्रान्तों पर अधिकार कर रही थी, वहीं उनके धर्म-प्रचारक अथवा मुल्ला लोग अपने धर्म की महत्ता बतला कर हिन्दू जनता को भी अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे। यह स्वाभाविक है कि विजित जाति विजयी जाति के आचार-विचार और रहन-सहन की ओर खिंच जाती है। क्योंकि अनेक कार्य-सूत्रा से उनका प्रभाव उनके ऊपर पड़ता रहता है। इस समय बौध्द धर्म का प्राय: भारतवर्ष से लोप हो गया था। बहुतों ने या तो मुसलमान धर्म स्वीकार कर लिया था या फिर अपने प्राचीन वैदिक धर्म की शरण ले ली थी। कुछ भारतवर्ष को छोड़कर उन देशों को चले गये थे जहाँ पर बौध्द धर्म उस समय भी सुरक्षित और ऊर्ज्जित अवस्था में था। इस समय भारत में दो ही धर्म मुख्यतया विद्यमान थे, उनमें एक विजित हिन्दू जाति का धर्म था और दूसरा विजयी मुसलमान जाति का। राज-धर्म होने के कारण मुसलमान धर्म को उन्नति के अनेक साधन प्राप्त थे, अतएव वह प्रतिदिन उन्नत हो रहा था और राजाश्रय के अभाव एवं समुन्नति-पथ में प्रतिबन्ध उपस्थित होने के कारण हिन्दू धर्म दिन-दिन क्षीण हो रहा था। इसके अतिरिक्त विविध-राज कृपावलंबित प्रलोभन अपना कार्य अलग कर रहे थे। इस समय सूफी सम्प्रदाय के अनेक मुसलमान फकीरों ने अपना वह राग अलापना प्रारम्भ किया था, जिस पर कुछ हिन्दू बहुत विमुग्धा हुए और अपने वंशगत धर्म को तिलांजलि देकर उस मंत्रा का पाठ किया, जिससे उनको अपने अस्तित्व-लोप का सर्वथा ज्ञान नहीं रहा। ऐसी अवस्था में जहाँ हिन्दुओं की क्षीण शक्ति प्रान्तिक राजा-महाराजाओं के रूप में अपने दिन-दिन धवंस होते छोटे-मोटे राजाओं की रक्षा कर रही थी, वहाँ पुण्यमयी भारत-वसुन्धारा में ऐसे धर्मप्राण आचार्य भी आविर्भूत हुए, जिन्होंने पतनप्राय वैदिक धर्म की बहुत रक्षा की। डॉक्टर ईश्वरी प्रसाद ने बंगाल प्रान्त में सूफियों में धर्म प्रचार के विषय में अपने (मेडिबल इंडिया) नामक ग्रंथ में जो कुछ लिखा है, उसमें इस समय का सच्चा चित्रा अंकित है। अभिज्ञता के लिए उसका कुछ अंश मैं यहाँ उद्धृत करता हूँ। 1

“चौदहवीं शताब्दी बंगाल में मुसलमान फष्कीरों की क्रियाशीलता के लिए प्रसिध्द थी। पैण्डुआ में अनेक प्रसिध्द और पवित्रा सन्तों का निवास था। इसी कारण इस स्थान का नाम हजशरत पड़2 गया था।

अन्य प्रसिध्द सन्त थे अलाउल हक और उनके पुत्र मूर कष्ुतुबुल-आलम। अलाउल हकष् शेख निजशमुद्दीन औलिया का शिष्य था। बंगाल का हुसेन शाह (1485-1519 ई.) सत्यपीर नामक एक नये पंथ का प्रवर्तक था, जिसका उद्देश्य था हिन्दुओं और मुसलमानों को एक कर देना। सत्यपीर एक समस्त शब्द है, जिसमें सत्य संस्कृत का और पीर अरबी भाषा का शब्द है।”3

यह एक प्रान्त की अवस्था का निदर्शन है। अन्य विजित प्रान्तों की भी ऐसी ही दशा थी। उस समय सूफी सिध्दान्त के मानने वाले महात्माओं के द्वारा उनके उद्देश्यों का प्रचुर प्रचार हो रहा था, और वे लोग दृढ़ता के साथ अपनी संस्थाओं का संचालन कर रहे थे। यह धार्मिक अवस्था की बात हुई, राजनीतिक अवस्था भी उस समय ऐसी ही थी। साम दान दण्ड विभेद से पुष्ट होकर वह भी कार्य-क्षेत्र में अपने प्रभाव का विस्तार अनेक सूत्रों से कर रही थी। मैं पहले लिख आया हूँ कि जैसा वातावरण होता है साहित्य भी उसी रूप में विकसित होता है। माध्यमिक काल

1-3. The fourteenth century was remarkable for the activity of the Muslim faquirs in Bengal,....There were several saints of reputed sancetity in Pandua, which owing to their presence, came to be called Hazarat....other noted saints were Alaul Haq and his son Nur Qutbul Alam, Alaul Haq was also disciple of Saikh Nizamuddin Aulia, Hussain Shah of Bengal (1493-1519 A. D.) was the founder of a new cult called Satyapir, which aimed at uniting the Hindus and the Muslims Satyapir, was compounded of Satya, a Sanskrit word and Pir which is an Arabic word.

के साहित्य में भी यह बात पाई जाती है। चौदहवीं ईस्वी शताब्दी से सत्राहवीं शताब्दी तक मुसलमान साम्राज्य दिन-दिन शक्तिशाली होता गया। इसके बाद उसका अचानक ऐसा पतन हुआ कि कुछ वर्षों में ही इतिश्री हो गई। यह एक संयोग की बात है कि हिन्दी-संसार के वे कवि और महाकवि जिनसे हिन्दी-भाषा का मुख उज्ज्वल हुआ इसी काल में हुए। इस माध्यमिक काल में जैसा सुधावर्षण हुआ, जैसी रस धारा बही, जैसे ज्ञानालोक से हिन्दी संसार आलोकित हुआ, जैसा भक्ति-प्रवाह हिन्दी काव्य-क्षेत्र में प्रवाहित हुआ, जैसे समाज के उच्च कोटि के आदर्श उसको प्राप्त हुए, उसका वर्णन बड़ा ही हृदय-ग्राही और मर्म-स्पर्शी होगा। मैंने इस कार्यसिध्दि के लिए ही इस समय की धार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक अवस्थाओं का चित्रा यहाँ पर चित्रिात किया है। अब प्रकृत विषय को लीजिए।

चौदहवें शतक में भी कुछ जैन विद्वानों ने हिन्दी भाषा में कविता की है। इनके अतिरिक्त नल्ल सिंह भाट सिरोहिया ने विजयपाल रासो, शारंगधार नामक कवि ने शारंगधार-पध्दति, हम्मीर काव्य और हम्मीर रासो नामक तीन ग्रंथ बनाये, जिनमें से हम्मीर रासो अधिक प्रसिध्द है, बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी में जैसे शब्दों से युक्त भाषा लिखी गयी है, उससे इन लोगों की रचनाओं में हिन्दी का स्वरूप विशेष परिमार्जित मिलता है। प्रमाण्स्वरूप कुछ पद्य नीचे उद्धृत किये जाते हैं।

कवि शारंगधार (रचनाकाल 1306 ई.)

1. ढोलामारियढिल्लिमहँ मुच्छिउ मेच्छ सरीर।

पुर जज्जल्ला मंत्रिावर चलिय वीर हम्मीर।

चलिअ बीर हम्मीर पाअभर मेंइणि कंपइ।

दिग पग डह अंधार धूलि सुरिरह अच्छा इहि।

ग्रंथ-संघपति समरा रासो, कवि अम्बदेव जैन, (रचना काल 1314 ई.)

2. निसि दीवी झलहलहिं जेम उगियो तारायण।

पावल पारुन पामिय बहई वेगि सुखासण।

आगे बाणिहिं संचरए सँघपति सहु देसल।

बुध्दिवंत बहु पुण्यवंत पर कमिहिं सुनिश्चल।

ग्रंथ थूलि भद्र फागु, कवि जिन पर्सिूंरि (रचनाकाल 1320 ई.)

3. अह सोहग सुन्दर रूपवंत गुण मणिभण्डारो।

कंचण जिमि झलकंत कंति संजम सिरिहारो।

थूलिभद्र मणिराव जाम महि अलो बुहन्तउ।

नयर राम पाउलिय मांहि पहुँतउ बिहरंतउ।

ग्रन्थ विजयपाल रासो (रचना काल 1325 ई.) नल्लसिंह भाट सिरोहिया।

4. दश शत वर्ष निराण मास फागुन गुरु ग्यारसि।

पाय-सिध्द बरदान तेग जद्दव कर धारसि।

जीतिसर्व तुरकान बलख खुरसान सुगजनी।

रूम स्याम अस्फहाँ फ्रंग हवसान सु भजनी।

ईराण तोरि तूराण असि खौसिर बंग ख्रधार सब।

बलवंड पिंड हिंदुवान हद चढिब बीर बिजयपालसब।

जिस क्रम से कविताओं का उध्दरण किया गया है, उसके देखने से ज्ञात हो जायेगा कि उत्तारोत्तार एक से दूसरी कविता की भाषा का अधिकतर परिमार्जित रूप है। शारंगधार की रचना में अधिक मात्रा में अपभ्रंश शब्द हैं। ऐसे शब्द चिद्दित कर दिये गये हैं। उसके बाद की नम्बर 2 और 3 की रचनाओं में इने-गिने शब्द ही अधिकतर दिखलाई देते हैं। जिससे पता चलता है कि इस शताब्दी की आदि की रचनाओं पर तो अपभ्रंश शब्दों का अवश्य अधिक प्रभाव है। परन्तु बाद की रचनाओं में उनका प्रभाव उत्तारोत्तार कम होता गया है। यहाँ तक कि अमीर खुसरो की रचनाएँ उनसे सर्वथा मुक्त दिखलाई पड़ती हैं।

अमीर खुसरो इस शताब्दी का सर्वप्रधान कवि है। यह अनेक भाषाओं का पंडित था। इसके रचे फारसी भाषा के अनेक ग्रंथ हैं। इसकी हिन्दी रचनाएँ बहुमूल्य हैं। वे इतनी प्रांजल और सुन्दर हैं कि उनको देखकर यह आश्चर्य होता है कि पहले-पहल एक मुसलमान ने किस प्रकार ऐसी परिष्कृत और सुन्दर हिन्दी भाषा लिखी। मैं पहले लिख आया हूँ कि माध्यमिक काल में मुसलमान अनेक उद्देश्यों से हिन्दी भाषा की ओर आकर्षित हो गये थे। ऐसे मुसलमानों का अग्र-गण्य मैं अमीर खुसरो को मानता हूँ। इसके पद्यों में जिस प्रकार सुन्दर ब्रजभाषा की रचना का नमूना मिलता है, उसी प्रकार खड़ी बोली की रचना का भी। इस सहृदय कवि की कविताओं को देखकर यह अवगत होता है कि चौदहवीं शताब्दी में भी ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों की कविताओं का समुचित विकास हो चुका था। परन्तु उसके नमूने अन्य कहीं खोजने पर भी नहीं प्राप्त होते। इसलिए इन भाषाओं की परिमार्जित रचनाओं का आदर्श उपस्थित करने का गौरव इस प्रतिभाशाली कवि को ही प्राप्त है। मैं उनकी दोनों प्रकार की रचनाओं के कुछ उदाहरण नीचे लिखता हूँ। उनको पढ़कर यह बात निश्चित हो सकेगी कि मेरा कथन कहाँ तक युक्ति-संगत है।

1. एक थाल मोती से भरा , सबके सिर पर औंधा धारा।

चारों ओर वह थाली फिरे , मोती उससे एक न गिरे।

2. आवे तो ऍंधोरी लावे , जावे तो सब सुख ले जावे।

क्या जानूं वह कैसा है , जैसा देखा वैसा है।

3. बात की बात ठठोली की ठठोली।

मरद की गाँठ औरत ने खोली।

4. एक कहानी मैं कहूँ तू सुन ले मेरे पूत।

बिना परों वह उड़ गया , बाँधा गले में सूत।

5. सोभा सदा बढ़ावन हारा , ऑंखिन ते छिन होत न न्यारा।

आये फिर मेरे मनरंजन ऐ सखि साजन ना सखि अंजन।

6. स्यामबरन पीताम्बर काँधो , मुरलीधार नहिं होइ।

बिन मुरली वह नाद करत है , बिरला बूझै कोइ।

7. उज्जल बरन अधीनतन , एक चित्ता दो धयान।

देखत में तो साधु है , निपट पाप को खान।

8. एक नार तरवर से उतरी , मा सो जनम न पायो।

बाप को नांव जो वासे पूछयो आधो नाँव बतायो।

आधो नाँव बतायो खुसरो कौन देस की बोली।

बाको नाँव जो पूछयो मैंने अपने नांव न बोली।

9. एक गुनी ने यह गुन कीना हरियल पिंजरे में दे दीना।

देखो जादूगर का हाल डाले हरा निकाले लाल।

इन पद्यों में नम्बर 1 से 4 तक के पद्य ऐसे हैं जो शुध्द खड़ी बोली में लिखे गये हैं, नम्बर 5 और 6 शुध्द ब्रजभाषा के हैं और नम्बर 7 से 9 तक के ऐसे हैं कि जिनमें खड़ी बोलचाल और ब्रजभाषा दोनों का मिश्रण है। मैं समझता हूँ कि इस अन्तर का कारण उस भेद की अनभिज्ञता है जो खड़ी बोली को ब्रजभाषा से अलग करती है। इसके प्रमाण वे पद्य भी हैं जिनमें दोनों भाषाओं का मिश्रण है। उस समय खड़ी बोली या ब्रजभाषा का कोई विवाद नहीं था और न ऐसे नियम प्रचलित थे जो एक को दूसरे से अलग करते। वे हिन्दी भाषा के सब प्रकार के प्रयोगों को एक ही समझते थे। इसलिए इतना सूक्ष्म विचार न कर सके। यह संयोग से ही हो गया है कि कुछ पद्य शुध्द खड़ी बोली के और कुछ ब्रजभाषा के बन गये हैं। उनकी दृष्टि इधार नहीं थी। इस समय जब खड़ी बोलचाल और ब्रजभाषा की धाराएँ अलग-अलग बह रही हैं, उनकी रचनाओं की इस त्राुटि पर चाहे विशेष दृष्टि दी जावे, परन्तु उस समय उन्होंने हिन्दी भाषा सम्बन्धी जैसी मर्मज्ञता, योग्यता और निपुणता दिखलाई है, वह उल्लेखनीय है। उनके पहले के कवियों की रचनाओं से उनकी रचनाओं में अधिकतर प्रांजलता है, जो हिन्दी के भण्डार पर उनका प्रशंसनीय अधिकार प्रकट करती है। उनकी रचनाओं में फारसी और अरबी इत्यादि के शब्द भी आये हैं, परन्तु वे इस सुन्दरता से खपाये गये हैं कि जिसकी बहुत कुछ प्रशंसा की जा सकती है। चन्द बरदाई के समय से ही हिन्दी भाषा में अरबी,फारसी और तुर्की के शब्द गृहीत होने लगे थे और यह सामयिक प्रभाव का फल था। परन्तु जिस सावधानी और सफाई के साथ उन भाषाओं के शब्दों का प्रयोग इन्होंने किया है, वह अनुकरणीय है। उन भाषाओं के अधिकतर शब्द अन्य कवियों द्वारा तोड़-मरोड़कर या बिगाड़कर लिखे गये हैं, किन्तु यह कवि प्राय: इन दोषों से मुक्त था। एक विशेषता इनमें यह भी देखी जाती है कि अरबी में इन्होंने हिन्दी पद्यों की रचना सफलतापूर्वक की है, साथ ही फारसी के वाक्यों के साथ हिन्दी वाक्यों को अपने एक पद्य में इस उत्तमता से मिलाया है, जो मुग्धा कर देता है। मैं उस पद्य को यहाँ लिखता हूँ। आप लोग भी उसका रस लें-

“ जेहाले मिस्कीं मकुन तग़ाफुलदुराय नैना बनाय बतियाँ।

कि ताबे हिज्रां दारमऐजां न लेहु काहें लगाय छतियाँ।

शबाने हिज्रां न दराज़ चूँ जुल्फ व रोजे वसलत चूँ उम्र कोतह।

सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ ऍंधोरी रतियाँ।

एकाएक अज़दिल दो चश्मे जादू बसद फ़रेबम् बेबुर्द तस्कीं।

किसे पड़ी है जो जा सुनावे पियारे पी को हमारी बतियाँ।

चूँ शमा सोज़ां चूँ ज़र्रा हैरां हमेशा गिरियाँ बइश्क़ ऑंमह।

न नींद नैना न अंग चैना न आप आवें न भेजैं पतियाँ।

बहक्क रोजे विसाल दिलवर दि दाद मारा फ़रेब खुसरों।

सुपीत मन को दुराय राखूँ जो जान पाऊँ पिया की घतियाँ।

इस पद्य का अरबी शब्द है फ़ऊल फ़ेलुन फ़ऊल फ़ेलुन फ़उल फ़ेलुन फष्ऊल फ़ेलुन। पहले दो चरणों में हिन्दी शब्दों का प्रयोग निर्दोष हुआ है यद्यपि वे शुध्द ब्रज भाषा में लिखे गये हैं। केवल 'नैना' का 'ना' दीर्घ कर दिया गया है। किन्तु यह अपभ्रंश और ब्रज भाषा के नियमानुकूल है। शेष पद्यों की भाषा खड़ी हिन्दी की बोलचाल में है। केवल 'रतियाँ', 'बतियाँ', 'पतियाँ', 'घतियाँ' का प्रयोग ही ऐसा है, जो ब्रजभाषा का कहा जा सकता है। उनके इस प्रकार के मिश्रण के सम्बन्धा में मैं अपनी सम्मति प्रकट कर चुका हूँ। हाँ, मात्रिाक छन्दों के नियमों की दृष्टि से खड़ी बोली के पद्य निर्दोष नहीं हैं। अनेक स्थानों पर लघु के स्थान पर गुरु लिखा गया है यद्यपि वहाँ लघु लिखना चाहिए था। जैसे सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ ऍंधोरी 'रतियाँ' इस पद्य में 'जो' के स्थान पर 'जु' तो के स्थान पर 'त', कैसे के स्थान पर 'कैस' और ऍंधोरी के स्थान पर 'ऍंधोर', पढ़ने से ही छन्द की गति निर्दोष रहेगी। ऐसी ही हिन्दी भाषा के शेष पद्यों की पंक्तियाँ सदोष हैं, परन्तु जब हम वर्तमान काल की उन्नति प्राप्त उर्दू पद्यों को देखते हैं तो उनके इस प्रकार के पद्य-गत हिन्दी भाषा के शब्द-विन्यास को दोषावह नहीं समझते, क्योंकि अरबी शब्दों में हिन्दी शब्दों का व्यवहार प्राय: विवश होकर इसी रूप में करना पड़ता है। वरन् कहना यह पड़ता है कि उर्दू कविता के प्रारम्भ होने से 200 वर्ष पहले ही इस प्रणाली का आविर्भाव कर उन्होंने उर्दू संसार के कवियों को उस मार्ग का प्रदर्शन किया जिस पर चलकर ही आज उर्दू पद्य-साहित्य इतना समुन्नत है। इस दृष्टि से उनकी गृहीत प्रणाली एक प्रकार से अभिनन्दनीय ही ज्ञात होती है, निन्दनीय नहीं। खुसरो ने हिन्दुस्तानी भावों का चित्राण करते हुए कुछ ऐसे गीत भी लिखे हैं जो बहुत ही स्वाभाविक हैं। उनमें से एक देखिए-

ड्डसावन का गीतड्ड

अम्मा मेरे बाबा को भेजो जी कि सावन आया।

बेटी तेरा बाबा तो बुङ्ढा री कि सावन आया।

अम्मा मेरे भाई को भेजो जी कि सावन आया।

बेटी तेरा भाई तो बालारी कि सावन आया।

अम्मा मेरे मामूं को भेजो जी कि सावन आया।

बेटी तेरा मामूँ तो बाँकारी कि सावन आया।

दो दोहे भी देखिए, कितने सुन्दर हैं-

1. खुसरो रैनि सुहाग की , जागी पी के संग।

तन मेरो मन पीउ को , दोऊ भये इक रंग।

2. गोरी सोवै सेज पर , मुख पर डारे केस।

चल खुसरो घर आपने , रैनि भई चहुँदेस।

इच्छा न होने पर भी खुसरो की कविता के विषय में इतना अधिक लिख गया। बात यह है कि खुसरो की विशेषताओं ने ऐसा करने के लिए विवश किया। यदि उन्होंने सबसे पहले बोलचाल की साफ सुथरी चलती हिन्दी का आदर्श उपस्थित किया तो शब्द भी तुले हुए रक्खे। न तो उनको तोड़ा-मरोड़ा, न बदला और न उनके वर्णों को द्वित्ता बनाकर उन्हें संयुक्त शब्दों का रूप दिया। अपनी रचना में भाव भी वे ही भरे जो देश भाषा के अनुकूल थे। प्राकृत शब्दों का प्रयोग भी उनकी रचनाओं में पाया जाता है। परन्तु वे ऐसे हैं जो सर्वथा हिन्दी के रंग में ढले हुए हैं, जैसे पीत, उज्जल और रैन इत्यादि। प्राकृत में शकार के स्थान पर स हो जाता है। इन्होंने भी अपनी रचना में इस नियम का पालन किया है, जैसे 'सोभा', 'स्याम', 'केस', 'देस'इत्यादि। संस्कृत के तत्सम शब्द भी इनकी रचना में हैं परन्तु चुने हुए। हिन्दी आरम्भिक काल से ही इस प्रणाली को ग्रहण करती आई है। यह बात इनके इस प्रकार के प्रयोगों से भी प्रकट होती है। यह उनके कवि-हृदय की विशेषता है कि जो तत्सम शब्द संस्कृत के इनके पद्य में आये हैं, वे कोमल और हिन्दी के तद्भव शब्दों के जोड़ के हैं जैसे सुख, मुरलीधार, रंजन,अधीन, नाद, धयान, साधु, पाप इत्यादि। ये सब ऐसी ही विशेषताएँ हैं, जो माध्यमिक काल के रचयिताओं में खुसरो को एक विशेष स्थान प्रदान करती हैं। खुसरो का निवास दिल्ली में था। मेरा विचार है कि उसके अथवा मेरठ के आसपास जो बोली उस समय बोली जाती थी, उसी पर दृष्टि रखकर उन्होंने अपनी रचनाएँ कीं। इसीलिए वे अधिकतर बोलचाल की भाषा के अनुकूल हैं और इसी से उनमें विशेष सफाई आ गई है। उनकी कविता में ब्रजभाषा के कुछ शब्दों और क्रियाओं का प्रयोग भी पाया जाता है। जैसे बढ़ावनहारा, वासे, बनायो, वाको, पूछयो, दुराय, बनाय, बतियाँ इत्यादि। मैं समझता हूँ कि इन शब्दों का व्यवहार आकस्मिक है और इस कारण हो गया है कि उस समय ब्रजभाषा फैल चली थी और उसकी मधुरता कवि हृदय को अपनी ओर खींचने लगी थी।

अमीर खुसरो का समकालीन एक और मुल्लादाऊद नामक ब्रजभाषा का कवि हुआ। कहा जाता है कि उसने नूरक एवं चन्दा की प्रेम कथा नामक दो हिन्दी पद्य-ग्रन्थों की रचना की, किन्तु ये दोनों ग्रन्थ अप्राप्त-से हैं। इसलिए इसकी रचना की भाषा के विषय में कुछ लिखना असम्भव है। इसके उपरान्त महात्मा गोरखनाथ का हिन्दी साहित्य-क्षेत्र में दर्शन होता है। हाल में कुछ लोगों ने इनको ग्यारहवीं ई. शताब्दी का कवि लिखा है, किन्तु अधिकांश सम्मति यही है कि ये चौदहवीं शताब्दी में थे। ये धार्म्माचार्य ही नहीं थे, बहुत बड़े साहित्यिक पुरुष भी थे। इन्होंने संस्कृत भाषा में नौ ग्रन्थों की रचना की है, जिनमें से'विवेक-मार्तण्ड', 'योग-चिन्तामणि' आदि प्रकाण्ड ग्रन्थ हैं। इनका आविर्भाव नेपाल अथवा उसकी तराई में हुआ। उन दिनों इन स्थानों में विकृत बौध्द धर्म का प्रचार था, जो उस समय नाना कुत्सित विचारों का आधार बन गया था। इन बातों को देखकर उन्होंने उसका निराकरण करके आर्य धर्म के उत्थान में बहुत बड़ा कार्य किया। उन्होंने अपने सिध्दान्त के अनुसार शैव धर्म का प्रचार किया, किन्तु परिमार्जित रूप में। उस समय इनका धर्म इतना आद्रित हुआ कि उनकी पूजा देवतों के समान होने लगी। इनका मन्दिर गोरखपुर में अब तक मौजूद है। गोरखपंथ के प्रवर्तक आप ही हैं। इनके अनुयायी अब तक उत्तार भारत में जहाँ-तहाँ पाये जाते हैं। इनकी रचनाओं एवं शब्दों का मर्म समझने के लिए यह आवश्यक है कि उस काल के बौध्द धर्म की अवस्था आप लोगों के सामने उपस्थित की जावे। इस विषय में 'गंगा' नामक मासिक पत्रिाका के प्रवाह 1, तरंग9 में राहुल सांकृत्यायन नामक एक बौध्द विद्वान् ने जो लेख लिखा है उसी का एक अंश मैं यहाँ प्रस्तुत विषय पर प्रकाश डालने के लिए उद्धृत करता हूँ-

“भारत से बौध्द धर्म का लोप तेरहवीं, चौदहवीं शताब्दी में हुआ। उस समय की स्थिति जानने के लिए कुछ प्राचीन इतिहास जानना आवश्यक है।”

'आठवीं शताब्दी में एक प्रकार से भारत के सभी बौध्द सम्प्रदाय वज्रयान-गर्भित महायान के अनुयायी हो गये थे। बुध्द की सीधी-सीधी शिक्षाओं से उनका विश्वास उठ चुका था और वे मनगढ़न्त हजारों लोकोत्तार कथाओं पर मरने लगे थे। बाहर से भिक्षु के कपड़े पहनने पर भी वे भैरवी चक्र के मजे उड़ा रहे थे। बड़े-बड़े विद्वान् और प्रतिभाशाली कवि आधो पागल हो,चौरासी सिध्दों में दाखिल हो, सन्धया-भाषा में निर्गुण गा रहे थे। सातवीं शताब्दी में उड़ीसा के राजा इन्द्रभूति और उसके गुरु सिध्द अनंग, वज्र स्त्रिायों को ही मुक्तिदात्राी प्रज्ञा, पुरुषों को ही मुक्ति का उपाय और शराब को ही अमृत सिध्द करने में अपनी पंडिताई और सिध्दाई खर्च कर रहे थे। आठवीं शताब्दीसे बारहवीं शताब्दी तक का बौध्द धर्म वस्तुत: वज्रयान या भैरवी चक्र का धर्म था। महायान ने ही धारणीयों और पूजाओं से निर्वाण को सुगम कर दिया था। वज्रयान नेतो उसे एकदम सहज कर दिया। इसीलिए आगे चलकर वज्रयान सहजयान भी कहा जाने लगा।'

“वज्रयान के विद्वान् प्रतिभाशाली कवि, चौरासी सिध्द, विलक्षण प्रकार से रहा करते थे। कोई पनही बनाया करता था,इसलिए उसे पनहिया कहते थे, कोई कम्बल ओढ़े रहता था, इसलिए उसे कमरिया कहते थे, कोई डमरू रखने से डमरुआ कहलाता था, कोई ओखली रखने से ओखरिया आदि। ये लोग शराब में मस्त, खोपड़ी का प्याला लिए श्मशान या विकट जंगलों में रहा करते थे। जन-साधारण को जितना ही ये फटकारते थे, उतना ही वे इनके पीछे दौड़ते थे। लोग बोधिसत्तव प्रतिमाओं तथा दूसरे देवताओं की भाँति इन सिध्दों को अद्भुत चमत्कारों और दिव्य शक्तियों के धानी समझते थे। ये लोग खुल्लम-खुल्ला स्त्रिायों और शराब का उपभोग करते थे। राजा अपनी कन्याआें तक को इन्हें प्रदान करते थे। ये लोग त्राोटक या hypnotismकी कुछ प्रक्रियाओं से वाक़िफ थे। इसी बल पर अपने भोले-भाले अनुयाइयों को कभी-कभी कोई-कोई चमत्कार दिखा देते थे। कभी हाथ की सफाई तथा श्लेषयुक्त अस्पष्ट वाक्यों से जनता पर अपनी धाक जमाते थे। इन पाँच शताब्दियों में धीरे-धीरे एक तरह से सारी भारतीय जनता इनके चक्कर में पड़कर कामव्यसनी, मद्यप और मूढ़ विश्वासी बन गयी थी।”

महात्मा गोरखनाथ ही ऐसे पहले ब्राह्मण हैं, जिन्होंने संस्कृत का विद्वान् होने पर भी हिन्दी भाषा के गद्य और पद्य में धार्मिक ग्रन्थ निर्माण किये। जनता पर प्रभाव डालने के लिए उसकी बोल-चाल की भाषा ही विशेष उपयोगिनी होती है। सिध्द लोगों ने इसी सूत्रा से बहुत सफलता लाभ की थी, इसलिए महात्मा गोरखनाथ जी को भी अपने सिध्दान्तों के प्रचार के लिए इस मार्ग का अवलम्बन करना पड़ा। उनके कुछ पद्य देखिए-

आओ भाई धारिधारि जाओ , गोरखबाला भरिभरि लाओ।

झरै न पारा बाजै नाद , ससिहर सूर न वाद विवादड्ड 1 ड्ड

पवनगोटिकारहणिअकास , महियलअंतरिगगन कविलास।

पयाल नी डीबीसुन्नचढ़ाई , कथतगोरखनाथ मछींद्रबताईड्ड 2 ड्ड

चार पहर आलिंगन निद्रा संसार जाई विषिया बाही।

उभयहाथों गोरखनाथ पुकारै तुम्हैंभूलमहारौ माह्याभाईड्ड 3 ड्ड

वामा अंगे सोईबा जम चा भोगिबा सगे न पिवणा पाणी।

इमतो अजरावर होई मछींद्र बोल्यो गोरख वाणीड्ड 4 ड्ड

छाँटै तजौगुरु छाँटै तजौ लोभ माया।

आत्मा परचै राखौ गुरु देव सुन्दर कायाड्ड 5 ड्ड

एतैं कछु कथीला गुरु सर्वे भैला भोलै।

सर्बे कमाई खोई गुरु बाघ नी चै बोलैड्ड 6 ड्ड

हबकि न बोलिबा ठबकि न चलिबा धीरे धारिबा पाँवं।

गरब न करिबा सहजै रहिबा भणत गोरखरावंड्ड 7 ड्ड

हँसिबा खेलिबा गाइबा गीत। दृढ़ करि राखै अपना चीत।

खाये भी मरिये अणखाये भी मरिये।

गोरख कहे पूता संजमही तरियेड्ड 8 ड्ड

मध्दि निंरतर कीजै वास। निहचल मनुआ थिर ह्नै साँस।

आसण पवन उपद्रह करै। निसदिन आरँभ पचिपचि मरैड्ड 9 ड्ड

इनकी भाषा अमीर खुसरो के समान न तो प्रांजल है, न हिन्दी की बोलचाल के रंग में ढली, फिर भी बहुत सुधारी हुई और हिन्दीपन लिये हुए है। उसके देखने से यह ज्ञात होता है कि किस प्रकार पन्द्रहवीं ईसवी शताब्दी के आरम्भ में हिन्दी भाषा अपने वास्तविक रूप में प्रकट हो रही थी। गोरखनाथ जी की रचना में विभिन्न प्रान्तों के शब्द भी व्यवहृत हुए हैं, जैसे गुजराती, 'नी' मरहठी 'चा' और राजस्थानी 'बोलिबा' धारिबा, चलिबा इत्यादि। उस समय के महात्माओं की रचना में यह देखा जाता है कि अधिकतर देशाटन करने के कारण उनकी रचनाओं में कतिपय प्रान्तिक शब्द भी आ जाते हैं। यह बात अधिकतर उस काल के और बाद के सन्तों की बानियों में पाई जाती है। मेरा विचार है, गोरखनाथ जी ही इसके आदिम प्र्रवत्ताक हैं,जिसका अनुकरण उनके उपरान्त बहुत कुछ हुआ। इन दो-एक बातों को छोड़कर इनकी रचनाओं में हिन्दी भाषा की सब विशेषताएँ पाई जाती हैं। उनमें संस्कृत तत्सम शब्दों का अधिकतर प्रयोग है। जो प्राकृत प्रणाली के अनुकूल नहीं। धार्मिक शिक्षा-प्रसार के लिए अग्रसर होने पर अपनी रचनाओं में उनका संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग करना स्वाभाविक था। हिन्दी कविता में आगे चलकर हमको प्रेमधारा, भक्ति-धारा एवं सगुण-निर्गुण विचारधारा बड़े वेग से प्रवाहित होती दृष्टिगत होती है, किन्तु इन सबसे पहले उसमें ज्ञान और योगधारा उसी सबलता से बही थी, जिसके आचार्य महात्मा गोरखनाथजी हैं। इन्हीं के मार्ग को अवलम्बन कर बाद को अन्य धाराओं का हिन्दी भाषा में विकास हुआ। योग और ज्ञान का विषय भी ऐसा था जिसमें संस्कृत तत्सम शब्दों से अधिकतर काम लेने की आवश्यकता पड़ी। इसीलिए उनकी रचनाओं में सूर्य, 'वाद-विवाद', 'पवन', 'गोटिका', 'गगन', 'आलिंगन', 'निद्रा', 'संसार', 'आत्मा', 'गुरुदेव', 'सुन्दर', 'सर्वे' इत्यादि का प्रयोग देखा जाता है। फिर भी उनमें अपभ्रंश अथवा प्राकृत शब्द मिल ही जाते हैं जैसे 'अकास', 'महियल', 'अजराबर' इत्यादि। हिन्दी तद्भव शब्दों की तो इनकी रचनाओं में भरमार है और यही बात इनकी रचनाओं में हिन्दी-पन की विशेषता का मूल है। वे अपनी रचनाओं में 'ण'के स्थान पर 'न' का ही प्रयोग करते हैं और यह हिन्दी भाषा की विशेषता है। कभी-कभी 'न' के स्थान पर णकार का प्रयोग भी करते हैं। यह अपभ्रंश भाषा का इनकी रचनाओं में अवशिष्टांश है अथवा इनकी भाषा पर पंजाबी भाषा के प्रभाव का सूचक है,जैसे 'पिवण', 'पाणी', 'अणखाए', 'आसण' इत्यादि।

वेदान्त धर्म के प्र्रवत्ताक स्वामी शंकराचार्य थे। उनका वेदान्तवाद अथवा अद्वैतवाद व्यवहार-क्षेत्र में आकर शिवत्व धारण कर लेता है। इसीलिए उनका सम्प्रदाय शैव माना जाता है। भगवान शिव की मूर्ति जहाँ गम्भीर ज्ञानमयी है, वहीं विविधा विचित्रातामयी भी। इसलिए उसमें यदि निर्गुणवादियों के लिए विशेष विभूति विद्यमान है तो सगुणोपासक समूह के लिए भी बहुत कुछ दैवी ऐश्वर्य मौजूद है। यही कारण है कि शैव सम्प्रदाय का वह परम अवलम्ब है। गोरखनाथ की संस्कृत और भाषा की रचनाओं में वेदान्तवाद की विशेष विभूतियाँ जहाँ दृष्टिगत होती हैं, वहीं शिव के उपासना की ऐसी प्रणालियाँ भी उपलब्धा होती हैं, जो सर्वसाधारण को उनकी ओर आकर्षित करती हैं। इन्हीं विशेषताओं के कारण गोरखनाथ जी ने शैव धर्म का आश्रय लेकर उस समय हिन्दू धर्म के संरक्षण का भगीरथ प्रयत्न किया और बहुत कुछ सफलता भी लाभ की। नेपाल में आज भी शैव धर्म का बहुत बड़ा प्रभाव है। जिस समय सिध्द लोग अपने आडम्बरों द्वारा सर्व-साधारण को उन्मार्गगामी बना रहे थे, उस समय गोरखनाथ जी ने किस प्रकार सन्मार्ग का प्रचार सर्वसाधारण में किया, उसका प्रमाण उनका धर्म और उनकी वे सुन्दर रचनाएँ हैं जिनमें लोक-हितकारी शिक्षाएँ भरी पड़ी हैं। गोरखनाथ जी की महत्ता इतनी प्रभावशालिनी थी कि उसने पाप-प( में निमग्न अपने गुरु मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) का भी उध्दार किया। जो पद्य ऊपर उद्धृत किये गये हैं,उनमें से तीसरे, चौथे, और पाँचवें तथा छठे पद्यों को देखिए। उनके देखने से आप लोगों को यह ज्ञात हो जायेगा कि उन्होंने किस प्रकार अपने गुरु को सांसारिक व्यसनों से बचने की शिक्षा दी और कैसे उनको स्त्रिायों के प्रपंच से विरत रहने का उपदेश दिया। उन्होंने आत्म-परिचय और अजरामर होने का मार्ग उन्हें बड़े सुन्दर शब्दों में बतलाया और कभी-कभी उनमें आत्मग्लानि उत्पन्न करने की चेष्टा भी की, जैसा छठे पद्य के देखने से प्रकट होता है। उनका यह उद्योग अपने गुरुदेव के विषय में ही नहीं देखा जाता, सर्वसाधारण पर भी उनकी शिक्षाओं ने बड़ा प्रभाव डाला, और इस प्रकार उस समय के पतन-प्राय हिन्दू समाज का बहुत बड़ा उपकार किया। उनकी रचनाओं में योग-सम्बन्धी बहुत-सी बातें पाई जाती हैं। उद्धृत पद्यों में से पहले-दूसरे पद्य ऐसे ही हैं। उनके सातवें, आठवें, नौवें पद्यों में ऐसी शिक्षाएँ हैं जिन्हें सब सन्मार्ग के पथिकों को ग्रहण करना चाहिए। हिन्दी-साहित्य में इस प्रकार की धार्मिक शिक्षाओं के आदि प्रचारक भी गोरखनाथ जी ही हैं। इन सब बातों पर दृष्टि रख उनकी रचनाओं पर विचार करने से वे बहुमूल्य ज्ञात होती हैं और उनसे इस बात का भी पता चलता है कि किस प्रकार आदि में हिन्दी अपने तद्भव रूप में प्रकट हुई।

इसी चौदहवीं ईसवी शताब्दी में विनय-प्रभु जैन और छोटे-छोटे कई दूसरे जैन कवि हो गये हैं, जिनकी रचनाएँ लगभग वैसी ही हैं जैसी ऊपर लिखे गये जैन कवियों की हैं। उनमें कोई विशेषता ऐसी नहीं पाई जाती कि जिससे उनकी पृथक् चर्चा की आवश्यकता हो। इसलिए मैं उन लोगों को छोड़ता हूँ। इसके बाद पन्द्रहवीं शताब्दी प्रारम्भ होती है। चौदहवीं शताब्दी का अन्त और पन्द्रहवीं शताब्दी का आदि मैथिल-कोकिल विद्यापति का काव्यकाल माना जाता है। अतएव अब मैं यह देखूँगा कि उनकी रचनाओं में हिन्दी भाषा का क्या रूप पाया जाता है। उनकी रचनाओं के विषय में अनेक भाषा-मर्मज्ञों का यह विचार है कि वे मैथिली भाषा की हैं। किन्तु उनके देखने से यह ज्ञात होता है कि जितना उनमें हिन्दी भाषा के शब्दों का व्यवहार है, उतना मैथिली भाषा के शब्दों का नहीं। अवश्य उनमें मैथिली भाषा के शब्द प्राय: मिल जाते हैं, परन्तु उनकी भाषा पर यह प्रान्तिकता का प्रभाव है, वैसा ही जैसा आजकल के बिहारियों की लिखी हिन्दी पर बंगाली विद्वान् विद्यापति को बंगभाषा का कवि मानते हैं,यद्यपि उनकी भाषा पर बंगाली भाषा का प्रभाव नाममात्रा को पाया जाता है। ऐसी अवस्था में विद्यापति को हिन्दी भाषा का कवि मानने का अधिक स्वत्व हिन्दी-भाषा-भाषियों ही को है और मैं इसी सूत्रा से उनकी चर्चा यहाँ करता हूँ। उन्होंने अपभ्रंश भाषा में भी दो ग्रंथ लिखे हैं। उनमें से एक का नाम 'कीर्तिलता' और दूसरी का नाम 'कीर्तिपताका' है। कीर्तिलता छप भी गई है। उनकी संस्कृत की रचनाएँ भी हैं जो उनको संस्कृत का प्रकाण्ड विद्वान् सिध्द करती हैं। जब इन बातों पर दृष्टि डालते हैं तो उनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा सामने आ जाती है, जो उनके लिए हिन्दी भाषा में सुन्दर रचना करना असम्भव नहीं बतलाती। मेरी ही सम्मति यह नहीं है। हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने वाले सभी सज्जनों ने इनको हिन्दी भाषा का कवि माना है। फिर मैं इनको इस गौरव से वंचित करूँ तो कैसे करूँ?

मेरा विचार है कि विद्यापति ने बड़ी ही सरस हिन्दी में अपनी पदावली की रचना की है। उनके पद्यों से रस निचुड़ा पड़ता है। गीत गोविन्दकार वीणापाणि के वरपुत्र जयदेव जी की मधुर कोमल कान्त पदावली पढ़कर जैसा आनन्द अनुभव होता है वैसा ही विद्यापति की पदावलियों का पाठ कर। अपनी कोकिल-कण्ठता ही के कारण वे मैथिल कोकिल कहलाते हैं। उनके समय में हिन्दी भाषा कितनी परिष्कृत और प्रांजल हो गई थी, इसका विशेष ज्ञान उनकी रचनाओं को पढ़कर होता है। उनके कतिपय पद्यों को देखिए-

1. माधाव कत परबोधाब राधा।

हा हरि हा हरि कहतहिं बेरि बेरि अब जिउ करब समाधा।

धारनि धारिये धानि जतनहिं बैसइ पुनहिं उठइ नहिं पारा।

सहजइ बिरहिन जग महँ तापिनि बौरि मदन सर धारा।

अरुण नयन नीर तीतल कलेवर विलुलित दीघल केसा।

मन्दिर बाहिर कर इत संसय सहचरि गनतहिं सेसा।

आनि नलिनि केओ रमनि सुनाओलि केओ देईमुख पर नीरे।

निस बत पेखि केओ सांस निसारै केओ देई मन्द समीरे।

कि कहब खेद भेद जनि अन्तर घन घन उतपत साँस।

भनइ विद्यापति सेहो कलावति जोउ बँधाल आसपास।

2. चानन भेल विषम सररे भूषन भेल भारी।

सपनहुँ हरि नहिं आयल रे गोकुल गिरधारी।

एकसरि ठाढ़ि कदम तर रे पथ हेरथि मुरारी।

हरि बिनु हृदय दगधा भेल रे आमर भेल सारी।

जाह जाह तोहिं ऊधाव हे तोहिं मधुपुर जाहे।

चन्द बदनि नहिं जोवत रे बधा लागत काहे।

3. के पतिया लए जायतरे मोरा पिय पास।

हिय नहिं सहै असह दुखरे भल साओन मास।

एकसर भवन पिया बिनुरे मोरा रहलो न जाय।

सखियन कर दुख दारुनरे जग के पतिआय।

मोर मन हरि हरि लै गेल रे अपनो मन गेल।

गोकुल तजि मधुपुर बसि रे कति अपजस लेल।

विद्यापति कवि गाओल रे धानि धारु पिय आस।

आओत तोर मन भावन रे एहि कातिक मास।

इन पद्यों को पढ़कर यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इनमें मैथिली शब्दों का प्रयोग कम नहीं है। विद्यापति मैथिल कोकिल कहलाते हैं। डॉक्टर ग्रियर्सन साहब ने भी इनको मैथिल कवि कहा है। 1बँगला के अधिकांश विद्वान् एक स्वर से उनको मैथिल भाषा का कवि ही बतलाते हैं और इसी आधार पर उनको बँगला का कवि मानते हैं क्योंकि बँगला का आधार मैथिली का पूर्व रूप है। वे मिथिला-निवासी थे भी। इसलिए उनका मैथिल कवि होना युक्ति-संगत है। परन्तु प्रथम तो मैथिली भाषा अधिकतर पूर्वी हिन्दी भाषा का अन्यतम रूप है, दूसरे विद्यापति की पदावली में हिन्दी शब्दों का प्रयोग अधिकता, सरसता एवं निपुणता के साथ हुआ है। इसलिए उसको हिन्दी भाषा की रचना स्वीकार करना ही पड़ता है। जो पद्य ऊपर लिखे गये हैं वे

1. देखिए वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ् हिन्दुस्तान पृष्ठ 9 पंक्ति 34

हमारे कथन के प्रमाण हैं। इनमें मैथिली भाषा का रंग है, किन्तु उससे कहीं अधिक हिन्दी भाषा की छटा दिखाई पड़ती हैं। इस विषय में दो एक हिन्दी विद्वानों की सम्मति भी देखिए। अपने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में (59, 60 पृष्ठ) पं. रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं-

“विद्यापति को बंगभाषा वाले अपनी ओर खींचते हैं। सर जार्ज ग्रियर्सन ने भी बिहारी और मैथिली को मागधी से निकली होने के कारण हिन्दी से अलग माना है। पर केवल भाषा शास्त्रा की दृष्टि से कुछ प्रत्ययों के आधार पर ही साहित्य-सामग्री का विभाग नहीं किया जा सकता। कोई भाषा कितनी दूर तक समझी जाती, इसका विचार भी तो आवश्यक होता है। किसी भाषा का समझा जाना अधिकतर उसकी शब्दावली (Vocabulary) पर अवलम्बित होता है। यदि ऐसा न होता तो उर्दू हिन्दी का एक ही साहित्य माना जाता।

“खड़ी बोली, बाँगड़ई, ब्रज, राजस्थानी, कन्नौजी, वैसवाड़ी, अवधी इत्यादि में रूपों और प्रत्ययों का परस्पर अधिक भेद होते हुए भी सब हिन्दी के अन्तर्गत मानी जाती हैं! बनारस, गाजीपुर, गोरखपुर, बलिया आदि जिलों में आयल-आइल, गयल-गइल, हमरा तोहरा आदि बोले जाने पर भी वहाँ की भाषा हिन्दी के सिवाय दूसरी नहीं कही जाती। कारण है शब्दावली की एकता। अत: जिस प्रकार हिन्दी साहित्य बीसलदेव रासो पर अपना अधिकार रखता है, उसी प्रकार विद्यापति की पदावली पर भी।”

हिन्दी भाषा और साहित्यकार यह लिखते है। 1-

“सारे बिहार-प्रदेश और उसके आसपास संयुक्त प्रदेश, छोटा नागपुर और बंगाल में कुछ दूर तक बिहारी भाषा बोली जाती है। यद्यपि बँगला और उड़िया की भाँति बिहारी भाषा भी मागधा अपभ्रंश से ही निकली है तथापि अनेक कारणों से इसकी गणना हिन्दी में होती है और ठीक होती है।”

“बिहारी भाषा में मैथिली, मगही और भोजपुरी तीन बोलियाँ हैं। मिथिला या तिरहुत और उसके आसपास के कुछ स्थानों में मैथिली बोली जाती है। पर उसका विशुध्द रूप दरभंगे में पाया जाता है। इस भाषा के प्राचीन कवियों में विद्यापति ठाकुर बहुत ही प्रसिध्द और श्रेष्ठ कवि हो गये हैं, जिनकी कविता का अब तक बहुत आदर होता है। इस कविता का अधिकांश सभी बातों में प्राय: हिन्दी ही है।”

आजकल बिहार हिन्दी भाषा-भाषी प्रान्त माना जाता है। वहाँ के विद्यालयों और साहित्यिक समाचार पत्रों अथच मासिक पुस्तकों में हिन्दी भाषा का ही प्रचार है। ग्रन्थ रचनाएँ भी प्राय: हिन्दी भाषा में ही होती हैं और वहाँ के पठित-समाज की भाषा भी हिन्दी ही है। ऐसी अवस्था में बिहारी भाषा पर हिन्दी भाषा का कितना अधिकार है, यह अप्रकट नहीं।

मैं समझता हूँ विद्यापति की रचनाओं पर हिन्दी भाषा का कितना स्वत्व है,

1. देखिए 'हिन्दी भाषा और साहित्य' का पृष्ठ 39

इस विषय में पर्याप्त लिखा जा चुका। मैंने उनकी रचना इसीलिए यहाँ उपस्थित की है, कि जिससे आप लोगों को यह ज्ञात हो सके कि उस समय हिन्दी भाषा का क्या रूप था। उनकी कविता को देखने से यह ज्ञात होता है कि उनके समय में हिन्दी भाषा प्राय: प्राकृत शब्दों से मुक्त हो गई थी और उसमें बड़ी सरस रचनाएँ होने लगी थीं। मुझको विश्वास है कि उनकी रचना के अधिकांश शब्दों और प्रयोगों को हिन्दी मानने में किसी को आपत्तिा न होगी। वे ब्रजभाषा के चिर परिचित शब्द हैं जो अपने वास्तविक रूप में पदावली में गृहीत हुए हैं। श्रीमती राधिका की विरह-वेदना का वर्णन होने के कारण उन पर और अधिक ब्रजभाषा की छाप लग गई है। जो शब्द चिद्दित हैं, उन्हें हम ब्रजभाषा का नहीं कह सकते। किन्तु उनमें से भी 'हेरथि' इत्यादि दो-चार शब्दों को छोड़कर शेष को निस्संकोच भाव से अवधी कह सकते हैं और यह अविदित नहीं कि अवधी भाषा हिन्दी का ही रूप है।

मेरा विचार है कि पन्द्रहवें शतक में प्रान्तिक भाषाओं में हिन्दी वाक्यों और शब्दों के प्रवेश का सूत्रापात हो गया था, जो आगे चलकर अधिक विकसित रूप में दृष्टिगत हुआ।

मैं इस प्रणाली का आदि प्रवर्तक विद्यापति को ही मानता हूँ। यदि गुरु गोरखनाथ हिन्दी भाषा में धार्मिक शिक्षा के आदि प्र्रवत्ताक हैं और उसको ज्ञान और योग की पुनीत धाराओं से पवित्रा बनाते हैं तो मैथिल कोकिल उसको ऐसे स्वरों से पूरित करते हैं जिसमें सरस शृंगार-रस की मनोहारिणी धवनि श्रवणगत होती है। सरसपदावली का आश्रय लेकर उन्होंने भगवती राधिका के पवित्रा प्रेमोद्गारों से अपनी लेखनी को रसमय ही नहीं बनाया, साहित्य क्षेत्र में अपूर्व भावों की भी अवतारणा की। यहाँ पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि विद्यापति स्वयं इस प्रणाली के उद्भावक हैं या उनके सामने इससे पहले का और कोई आदर्श था। मैं यह स्वीकार करूँगा कि उनके सामने प्राचीन आदर्श अवश्य था। परन्तु हिन्दी भाषा में राधा-भाव के आदि प्र्रवत्ताक विद्यापति ही हैं। पदावली में राधाकृष्ण के संयोग और वियोग शृंगार का जैसा भावमय और हृदयग्राही वर्णन विद्यापति ने किया है, हिन्दी भाषा में उनसे पहले इस प्रकार का भावुकतामय वर्णन किसी ने नहीं किया।

श्रीमद्भागवत में गोपियों का प्रेम भगवान कृष्ण चन्द्र के प्रति जिस उच्चभाव से वर्णित है, वह अलौकिक है। प्रेम त्यागमय होता है, स्वार्थमय नहीं। रूप-जन्य मोह क्षणिक और अस्थायी होता है। उसमें सुख-लिप्सा होती है, आत्मोत्सर्ग का भाव नहीं पाया जाता। किन्तु वास्तविक प्रेम अपना आदर्श आप होता है। उसमें जितनी स्थायिता होती है, उतना ही त्याग। वह आन्तरिक निस्स्वार्थ भावों पर अवलम्बित रहता है, स्वार्थमय प्रवृत्तिायों पर नहीं। उसमें प्रेमी पर अपने को उत्सर्ग कर देने की शक्ति होती है, और वह इसी में अपनी चरितार्थता समझता है। भागवत में गोपियों को ऐसे ही प्रेम की प्रेमिका वर्णित किया गया है। विद्यापति संस्कृत के विद्वान थे। साथ ही सहृदय और भावुक थे। इसलिए भागवत के आदर्श को अपनी रचनाओं में स्थान देना उनके लिए असम्भव नहीं था। मेरा विचार है कि जयदेवजी की मधुर रचनाओं से भी उनकी कविता बहुत कुछ प्रभावित है,क्योंकि वे उनसे कई शतक पूर्व संस्कृत भाषा में इस प्रकार की सरस पदावली का निर्माण कर चुके थे। श्रीमद्भागवत में श्रीमती राधिका का नाम नहीं मिलता। परन्तु ब्रह्म वर्ैवत्ता पुराण में उनका नाम मिलता है और उसमें वे उसी रूप में अंकित की गई हैं जिस रूप में गीत गोविन्दकार ने उनको ग्रहण किया है। यह सत्य है कि गीत गोविन्द में सरल शृंगार ही का श्रोत बहता है, परन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि जयदेव जी नेउस ग्रन्थ की रचना भक्ति भाव से की है और वे भगवती राधिका और भगवान कृष्ण में उतना ही पूज्य भाव रखते थे, जितना कोई बल्लभाचार्य के सम्प्रदाय का भक्त रख सकता है। उनके ग्रन्थ में ही इसके प्रमाण विद्यमान हैं। विद्यापति की रचनाओं के देखने से पाया जाता है कि जयदेवजी का यह भक्ति-भाव उनमें भी भरित था। 1 डॉक्टर जी. ए. ग्रियर्सन लिखते हैं : “मैथिली भाषा में अमूल्य पदावली-रचना केलिए ही उनका (विद्यापति का) श्रेष्ठ गौरव है। अपने समस्त पदों में उन्होंने श्रीमती राधिका का प्रेम भगवान कृष्णचन्द्र के प्रति वर्णन किया है। इस रूपक के द्वारा उन्होंने यह विज्ञापित किया है कि किस प्रकार आत्मा का परमात्मा के प्रति प्रेम सम्बन्धा है।”

विद्यापति शैव थे। इसलिए सम्भव है कि यह तर्क उपस्थित किया जाय कि एक शैव की राधा-कृष्ण की मूर्ति में भक्ति कैसी? किन्तु इस विचार में संकीर्णता है। कवि का हृदय इतना संकीर्ण नहीं होता। गोस्वामी तुलसीदास यदि सीताराम के अनन्य उपासक होकर भगवान भूतनाथ की भक्ति कर सकते हैं तो शिव के अनन्य भक्त होकर कविवर विद्यापति राधा-कृष्ण की भक्ति क्यों नहीं कर सकते। वास्तव बात यह है कि अधिकांश गृहस्थ हिन्दू विद्वान् प×चदेवोपासक होता है। उसमें वह भेद-भावना नहीं होती जो किसी कट्टर शैव या वैष्णव में पाई जाती है। मैं समझता हूँ, विद्यापति इस दोष से मुक्त थे और इसीलिए उनको इस प्रकार राधा-कृष्ण का प्रेम वर्णन करने में कोई बाधा नहीं हुई। उनके पद्यों में ही युगल मूर्ति के भक्ति भाव के प्रमाण मौजूद हैं। उनके पद में जो माधार्ुय्य विद्यमान है उसको माधार्ुय्य-उपासना का मर्मज्ञ ही प्राप्त कर सकता है। मैं सोचता हूँ कि उस समय पौराणिक धर्म विशेषकर श्रीमद्भागवत जैसे वैष्णव ग्रन्थों के प्रभाव से वैष्णव धर्म का जो उत्थान देश में नाना रूपों से हो रहा था, उसी के प्रभाव से बंगाल प्रान्त में चण्डीदास की, और बिहार-भूमि में विद्यापति की रचनाएँ प्रभावित हैं।

1. "But his chief glory consists in his matchless sonnets (Pad s) in the Maithili dialect dealing allegorically with the relations of the soul to God under the form of love which Radha dore to Krishna."

-Modern Vernacular Literature of Hindustan By Dr. Grierson.

जो कुछ अब तक विद्यापति के विषय में लिखा गया उससे यह पाया जाता है कि पन्द्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में उन्होंने अपनी अभूतपूर्व कविताओं की रचना करके जहाँ पदावली-रचना की प्रणाली हिन्दी भाषा में चलायी, वहाँ उसको राधा-कृष्ण की प्रेममयी लीलाओं के सरस वर्णन से भी अलंकृत किया। हिन्दी में भावमय शृंगारिक रचनाओं का आरम्भ भी उन्हीं से होता है और उन्हीं से ऐसे सरस सुन्दर पद-विन्यास हिन्दी को प्राप्त हुए हैं जैसे उसको आज तक कतिपय हिन्दी आकाश के उज्ज्वल नक्षत्रों से ही प्राप्त हो सके हैं।

यह पन्द्रहवीं शताब्दी कबीर साहब की कविताओं का रचना-काल भी है। कबीर साहब की रचनाओं के विषय में अनेक तर्क-वितर्क हैं। उनकी जो रचनाएँ उपलब्धा हैं उनमें बड़ी विभिन्नता है। इस विभिन्नता का कारण यह है कि वे स्वयं लिखे-पढ़े न थे। इसलिए अपने हाथ से वे अपनी रचनाओं को न लिख सके। अन्य के हाथों में पड़कर उनकी रचनाओं का अनेक रूपों में परिणत होना स्वाभाविक था। आजकल जितनी रचनाएँ उनके नाम से उपलब्धा होती हैं उनमें भी मीन-मेख है। कहा जाता है कि सत्यलोक पधार जाने के बाद उनकी रचनाओं में लोगों ने मनगढ़न्त बहुत- सी रचनाएँ मिला दी हैं और इसी सूत्रा से उनकी रचना की भाषा में भी विभिन्नता दृष्टिगत होती है। ऐसी अवस्था में उनकी रचनाओं को उपस्थित कर इस बात की मीमांसा करना कि पन्द्रहवीं शताब्दी में हिन्दी का क्या रूप था, दुस्तर है। मैं पहले लिख आया हूँ कि भ्रमणशील सन्तों की बानियों में भाषा की एकरूपता नहीं पाई जाती। कारण यह है कि नाना प्रदेशों में भ्रमण करने के कारण उनकी भाषा में अनेक प्रान्तिक शब्द मिले पाये जाते हैं। कबीर साहब की रचना में अधिकतर इस तरह की बातें मिलती हैं। इन सब उलझनों के होने पर भी कबीर साहब की रचनाओं की चर्चा इसलिए आवश्यक ज्ञात होती है कि वे इस काल के एक प्रसिध्द सन्त हैं और उनकी वानियों का प्रभाव बहुत ही व्यापक बतलाया गया है। कबीर साहब की रचनाओं में रहस्यवाद भी पाया जाता है, जिसको अधिकांश लोग उनके चमत्कारों से सम्बन्धिात करते हैं और यह कहते हैं कि ऐसी रचनाएँ उनका निजस्व हैं, जो हिन्दी संसार की किसी कवि की कृति में नहीं पाई जाती। इस सूत्रा से भी कबीर साहब की रचनाओं के विषय में कुछ लिखना उचित ज्ञात होता है, क्योंकि यह निश्चित करना है कि इस कथन में कितनी सत्यता है। विचारना यह है कि क्या वास्तव में रहस्यवाद कबीर साहब की उपज है या इसका भी कोई आधार है।

काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने 'कबीर-ग्रंथावली' नामक एक ग्रन्थ कुछ वर्ष हुए, एक प्राचीन ग्रन्थ के आधार से प्रकाशित किया है। यह प्राचीन ग्रन्थ सम्वत् 1561 का लिखा हुआ है और अब तक उक्त सभा के पुस्तकालय में सुरक्षित है। जो ग्रन्थ सभा से प्रकाशित हुआ है, उससे इसलिए कुछ पद्य आगे उद्धृत किये जाते हैं, जिससे उनकी रचना की भाषा के विषय में कुछ विचार किया जा सके-

1. षूणैं पराया न छुटियो , सुणिरे जीव अबूझ।

कबिरा मरि मैदान में इन्द्रय्यांसूं जूझ।

2. गगनदमामा बाजिया परया निसाणै घाव।

खेत बुहारया सूरिवाँ मुझ मरने का चाव।

3. काम क्रोधा सूँ झूझणां चौड़े माड़या खेत।

सूरै सार सँवाहिया पहरया सहज सँजोग।

4. अब तो झूझ्याँ हा बणै मुणि चाल्याँघर दूरि।

सिर साहब कौं सौंपता सोच न कीजै सूरि।

5. जाइ पूछौ उस घाइलैं दिवसपीड़ निस जाग।

बाहण हारा जाणि है कै जाणै जिस लाग।

6. हरिया जाणै रूखणा उस पाणी का नेह।

सूका काठ न जाणई कबहूँ बूठा मेंह।

7. पारब्रह्म बूठा मोतियाँ घड़ बाँधी सिष राँह।

सबुरा सबुरा चुणि लिया चूक परी निगुराँह।

8. अवधू कामधोनु गहि बाँधी रे।

भाँड़ा भंजन करै सबहिन का कछू न सूझै ऑंधीरे।

जो ब्यावै तो दूधा न देई ग्याभण अमृत सरवै।

कौली घाल्यां बीदरि चालै ज्यूँ घेरौं त्यूँ दरवै।

तिहीं धोन थैं इच्छयाँ पूगी पाकड़ि खूँटै बाँधी रे।

ग्वाड़ा माँ है आनँद उपनौ खूँटै दोऊ बाँधी रे।

साँई माई सास पुनि साईं साईं याकी नारी।

कहै कबीर परमपद पाया संतो लेहु बिचारी।

कबीर साहब ने स्वयं कहा है 'बोली मेरी पुरुब की', जिससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उनकी रचना पूर्वी हिन्दी में हुई है और इन कारणों से यह बात पुष्ट होती है कि वे पूर्व के रहने वाले थे और उनकी जनम भूमि काशी थी। काशी और उसके आसपास के जिलों में भोजपुरी और अवधी-भाषा ही अधिकतर बोली जाती है। इसलिए उनकी भाषा का पूर्वी भाषा होना निश्चित है और ऐसी अवस्था में उनकी रचनाओं को पूर्वी भाषा में ही होना चाहिए। यह सत्य है कि उन्होंने बहुत अधिक देशाटन किया था और इससे उनकी भाषा पर दूसरे प्रान्तों की कुछ बोलियों का भी थोड़ा-बहुत प्रभाव हो सकता है। किन्तु इससे उनकी मुख्य भाषा में इतना अन्तर नहीं पड़ सकता कि वह बिलकुल अन्य प्रान्त की भाषा बन जाये। सभा द्वारा जो पुस्तक प्रकाशित हुई है उसकी भाषा ऐसी ही है जो पूर्व की भाषा नहीं कही जा सकती, उसमें पंजाबी और राजस्थानी भाषा का पुट अधिकतर पाया जाता है। ऊपर के पद्य इसके प्रमाण हैं। कुछ लोगों का विचार है कि कबीर साहब के इस कथन का कि 'बोली मेरी पुरुब की' यह अर्थ है कि मेरी भाषा पूर्व काल की है, अर्थात् सृष्टि के आदि की। किन्तु यह कथन कहाँ तक संगत है,इसको विद्वज्जन स्वयं समझ सकते हैं। सृष्टि के आदि की बोली से यदि यह प्रयोजन है कि उनकी शिक्षाएँ आदिम हैं तो भी वह स्वीकार-योग्य नहीं, क्योंकि उनकी जितनी शिक्षाएँ हैं उन सबमें परम्परागत विचार की ही झलक है। यदि सृष्टि की आदि की बोली का यह भाव है कि उस काल की भाषा में कबीर साहब की रचनाएँ हैं तो यह भी युक्ति संगत नहीं, क्योंकि जिस भाषा में उनकी रचनाएँ हैं वह कई सहò वर्षों के विकास और परिवर्तनों का परिणाम है। इसलिए यह कथन मान्य नहीं। वास्तव बात यह है कि कबीर साहब की रचनाएँ पूर्व की बोली में ही हैं और यही उनके उक्त कथन का भाव है। अधिकांश रचनाएँ उनकी ऐसी ही हैं भी। सभा द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ के पहले उनकी जितनी रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं या हस्तलिखित मिलती हैं, या जन साधारण में प्रचलित हैं, उन सबकी भाषा अधिकांश पूर्वी ही है। हाँ, सभा द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ का कुछ अंश अवश्य इस विचार का बाधाक है, परन्तु मैं यह सोचता हूँ कि जिस प्राचीन-लिखित ग्रन्थ के आधार से सभा की पुस्तक प्रकाशित हुई है,उसके लेखक के प्रमाद ही से कबीर साहब की कुछ रचनाओं की भाषा में विशेष कर बहुसंख्यक दोहों में उल्लेख-योग्य अंतर पड़ गया है। प्राय: लेखक जिस प्रान्त का होता है अपने संस्कार के अनुसार वह लेख्यमान ग्रन्थ की भाषा में अवश्य कुछ न कुछ अन्तर डाल देता है। यही इस ग्रन्थ लेखन के समय भी हुआ ज्ञात होता है अन्यथा कबीर साहब की भाषा का इतना रूपान्तर न होता।

मैं कबीर साहब की भाषा के विषय में विचार उन्हीं रचनाओं के आधार पर करूँगा जो सैकड़ों वर्ष से मुख्य रूप में उनके प्रसिध्द धर्म स्थानों के ग्रन्थों में पाई जाती हैं अथवा सिक्खों के आदि ग्रन्थ साहब में संगृहीत मिलती हैं। यह ग्रन्थ सत्राहवीं ईस्वी शताब्दी में श्री गुरु अर्जुन द्वारा संकलित किया गया है। इसलिए इसकी प्रामाणिकता विश्वसनीय है। कुछ ऐसी रचनाएँ देखिए-

1. गंगा के सँग सरिता बिगरी ,

सो सरिता गंगा होइ निबरी।

बिगरेउ कबीरा राम दोहाई ,

साचु भयो अन कतहिं न जाई।

चन्दन के सँग तरवर बिगरेउ ,

सो तरुवरु चंदन होइ निबरेउ

पारस के सँग ताँबा बिगरेउ ,

सो ताँबा कंचन होइ निबरेउ।

संतन संग कबिरा बिगरेउ ,

सो कबीर रामै होइ निबरेउ।

2. माथे तिलकु हथि माला बाना ,

लोगनु राम खिलौना जाना।

जउ हउँ बउरा तउ राम तोरा ,

लोग मरम कह जानइँ मोरा।

तोरउँ न पाती पूजउँ न देवा ,

राम भगति बिनु निहफल सेवा।

सति गुरु पूजउँ सदा मनावउँ ,

ऐसी सेव दरगह सुख पावउँ।

लोग कहै कबीर बउराना

कबीर का मरम राम पहिचाना।

3. जब लग मेरी मेरी करै ,

तब लग काजु एक नहिं सरै।

जब मेरी मेरी मिटि जाइ ,

तब प्रभु काजु सँवारहि आइ।

ऐसा गियानु बिचारु मना ,

हरि किन सुमिरहु दुख भंजना।

जब लग सिंघ रहै बन माहिं ,

तब लगु बनु फूलै ही नाहिं।

जब ही सियारु सिंघ कौ खाइ ,

फूलि रही सगली बनराइ।

जीतो बूड़ै हारो तिरै ,

गुरु परसादी वारि उतरै।

दास कबीर कहइ समझाइ ,

केवल राम रहहु जिउलाइ।

4. सभुकोइ चलन कहत हैं ऊहां ,

ना जानौं वैकुण्ठु है कहाँ।

आप आप का मरम न जाना ,

बात नहीं वैकुण्ठ बखाना।

जब लगु मन बैकुण्ठ की आस ,

तब लग नाहीं चरन निवास।

खाईं कोटु न परल पगारा ,

ना जानउँ बैकुण्ठ दुवारा।

कहि कबीर अब कहिये काहि ,

साधु संगति बैकुण्ठै आहि।

सभा की प्रकाशित ग्रन्थावली में भी इस प्रकार की रचनाएँ मिलती हैं। मैं यहाँ यह भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि सिक्खों के आदि ग्रन्थ साहब में कबीर साहब की जितनी रचनाएँ संगृहीत हैं वे सब उक्त ग्रन्थावली में ले ली गई हैं। उनमें वैसा परिवर्तन नहीं पाया जाता है जैसा सभा के सुरक्षित ग्रन्थ की रचनाओं में मिलता है। मैं यह भी कहूँगा कि उक्त सुरक्षित ग्रन्थ की पदावली उतनी परिवर्तित नहीं है जितने दोहे। अधिकांश पदावली में कबीर साहब की रचना का वही रूप मिलता है जैसा कि सिक्खों के आदि ग्रन्थ साहब में पाया जाता है। मैं इसी पदावली में से तीन पद्य नीचे लिखता हूँ-

1. हम न मरैं मरिहैं संसारा ,

हमकूं मिल्या जियावन हारा।

अब न मरौं मरनै मन माना ,

तेई मुए जिन राम न जाना।

साकत मरै संत जन जीवै ,

भरि भरि राम रसायन पीवै।

हरि मरिहैं तो हमहूं मरिहैं ,

हरि न मरैं हम काहे कूं मरिहैं।

कहै कबीर मन मनहिं मिलावा ,

अमर भये सुख सागर पावा।

2. काहे रे मन दह दिसि धावै ,

विषया सँगि संतोष न पावै।

जहाँ जहाँ कलपै तहाँ तहाँ बँधाना ,

रतन को थाल कियो तै रँधाना।

जो पै सुख पइयत इन माहीं ,

तौ राज छाड़ि कत बन को जाहीं।

आनन्द सहत तजौ विष नारी ,

अब क्या झीषै पतित भिषारी।

कह कबीर यहु सुख दिन चारि ,

तजि बिषया भजि चरन मुरारि।

3. बिनसि जाइ कागद की गुड़िया ,

जब लग पवन तबै लगि उड़िया।

गुड़िया को सबद अनाहद बोलै ,

खसम लिये कर डोरी डोलै।

पवन थक्यो गुड़िया ठहरानी ,

सीस धुनै धुनि रोवै प्रानी।

कहै कबीर भजि सारँग पानी ,

नहिं तर ह्नै है खैंचा तानी।

मेरा विचार है कि जो पद्य मैंने ग्रन्थ साहब से उद्धृत किये हैं और जो पद्य कबीर ग्रन्थावली से लिये हैं, उनकी भाषा एक है, और मैं कबीर साहब की वास्तविक भाषा में लिखा गया इन पद्यों को ही समझता हूँ। वास्तव बात यह है कि कबीर ग्रन्थावली की अधिकांश रचनाएँ इसी भाषा की हैं। उसके अधिकतर पद ऐसी ही भाषा में लिखे पाये जाते हैं। बहुत से दोहों की भाषा का रूप भी यही है। इसलिए मुझे यह कहना पड़ता है कि कबीर साहब की रचनाएँ पन्द्रहवीं शताब्दी के अनुकूल हैं। आप देखते आये हैं कि क्रमश: हिन्दी भाषा परिमार्जित होती आई है। जैसा उसका परिमार्जित रूप पन्द्रहवीं शताब्दी की अन्य रचनाओं में मिलता है वैसा ही कबीर साहब की रचनाओं में भी पाया जाता है। इसलिए मुझे यह कहना पड़ता है कि उनकी रचनाएँ पन्द्रहवीं शताब्दी के भाषा जनित परिवर्तन सम्बन्धी नियमों से मुक्त नहीं हैं, वरन क्रमिक परिवर्तन की प्रमाण भूत हैं। हाँ, उनमें कहीं-कहीं प्रान्तिकता अवश्य पाई जाती है और पश्चिमी हिन्दी से पूर्वी हिन्दी का प्रभाव उनकी रचना पर अधिक देखा जाता है। किन्तु यह आश्चर्यजनक नहीं। क्योंकि प्रान्तिक भाषा में कविता करने का सूत्रापात विद्यापति के समय में ही हुआ था, जिसकी चर्चा पहले हो चुकी है।

मैं यह स्वीकार करूँगा कि कबीर साहब की रचनाओं में पंजाबी और राजस्थानी भाषा के कुछ शब्दों, क्रियाओं और कारकों का प्रयोग मिल जाता है। किन्तु, उसका कारण उनका विस्तृत देशाटन है, जैसा मैं पहले कह भी चुका हूँ। अपनी मुख्य भाषा में इस प्रकार के कुछ शब्दों का प्रयोग करते सभी संत कवियों को देखा जाता है और यह इतना असंगत नहीं जितना अन्य भाषा के शब्दों का उतना प्रयोग जो कवि की मुख्य भाषा के वास्तविक रूप को संदिग्धा बना देता है। मैंने कबीर ग्रन्थावली से जो एक पद और सात दोहे पहले उठाये हैं, उनकी भाषा ऐसी है जो कबीर साहब की मुख्य भाषा की मुख्यता का लोप कर देती है। इसीलिए मैं उनको शुध्द रूप में लिखा गया नहीं समझता। परन्तु उनकी जो ऐसी रचनाएँ हैं जिनमें उनका मुख्य रूप सुरक्षित है और कतिपय शब्द मात्रा अन्य भाषा के आ गये हैं, उन्हें मैं उन्हीं की रचना मानता हूँ और समझता हूँ कि वे किसी अल्पज्ञ लेखक की अनधिकार चेष्टा से सुरक्षित हैं। उनके इस प्रकार के कुछ पद्य भी देखिए-

1. दाता तरवर दया फल उपकारी जीवन्त।

पंछी चले दिसावरां बिरखा सुफल फलन्त।

2. कबीर संगत साधु की कदे न निरफल होय।

चंदन होसी बावना नीम न कहसी कोय।

3. कायथ कागद काढ़िया लेखै बार न पार।

जब लग साँस सरीर में तब लग राम सँभार।

4. हरजी यहै विचारिया , साखी कहै कबीर।

भवसागर मैं जीव हैं , जे कोइ पकड़ै तीर।

5. ऐसी वाणी बोलिये , मन का आपा खोइ।

अपना तन सीतल करै , औरन को सुख होइ।

इन पद्यों के जिन शब्दों पर चिद्द बना दिये गये हैं वे पंजाबी या राजस्थानी हैं। इस प्रकार का प्रयोग कबीर साहब की रचनाओं में प्राय: मिलता है। ऐसे आकस्मिक प्रयोग उनकी मुख्य भाषा को संदिग्धा नहीं बनाते, क्योंकि जिस पद्य में किसी भाषा का मुख्य रूप सुरक्षित रहता है, उस पद्य में आये हुए अन्य भाषा के दो-एक शब्द एक प्रकार से उसी भाषा के अंग बन जाते हैं। अवधी अथवा ब्रजभाषा में 'वाणी' को 'बानी' ही लिखा जाता है, क्योंकि इन दोनों भाषाओं में 'ण' का अभाव है। पंजाब प्रान्त के लेखक प्राय: 'न' के स्थान पर 'ण' प्रयोग कर देते हैं, क्योंकि उस प्रान्त में प्राय: नकार णकार हो जाता है। वे'बानी' को 'बाणी' 'आसन' को 'आसण' 'पवन' को 'पवण' इत्यादि ही बोलते और लिखते हैं। ऐसी अवस्था में यदि कबीर साहब के पद्यों में आये हुए नकार पंजाब के लेखकों की लेखनी द्वारा णकार बन जावें तो कोई आश्चर्य नहीं। आदि ग्रन्थ-साहब में भी देखा जाता है कि प्राय: कबीर साहब की रचनाओं के नकार ने णकार का स्वरूप ग्रहण कर लिया है, यद्यपि इस विशाल ग्रन्थ में उनकी भाषा अधिकतर सुरक्षित है। इस प्रकार के साधारण परिवर्तन का भी मुख्य भाषा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसलिए कबीर साहब की रचनाओं में जहाँ ऐसा परिवर्तन दृष्टिगत हो, उसके विषय में यह न मान लेना चाहिए कि जो शब्द हिन्दी रूप में लिखा जा सकता था, उसको उन्होंने ही पंजाबी रूप में दिया है, वरन सच तो यह है कि उस परिवर्तन में पंजाबी लेखक की लेखनी की लीला ही दृष्टिगत होती है।

कबीर साहब कवि नहीं थे, वे भारत की जनता के सामने एक पीर के रूप में आये। उनके प्रधान शिष्य धर्मदास कहते हैं-

आठवीं आरती पीर कहाये। मगहर अमी नदी बहाये।

मलूकदास कहते हैं-

तजि कासी मगहर गये दोऊ दीन के पीर 1

1. हिन्दुस्तानी, अक्टूबर सन् 1932, पृ. 451

झाँसी के शेख़ तक़ी ऊंजी और जौनपुर के पीर लोग जो काम उस समय मुसलमान धर्म के प्रचार के लिए कर रहे थे,काशी में कबीर साहब लगभग वैसे ही कार्य में निरत थे। अन्तर केवल इतना ही था कि वे लोग हिन्दुओं को नाना रूप में मुसलमान धर्म में दीक्षित कर रहे थे और कबीर साहब एक नवीन धर्म की रचना करके हिन्दू मुसलमान को एक करने के लिए उद्योगशील थे। ठीक इसी समय यही कार्य बंगाल में हुसैन शाह कर रहे थे जो एक मुसलमान पीर थे और जिसने अपने नवीन धर्म का नाम सत्यपीर रख लिया था। कबीर साहेब के समान वह भी हिन्दू मुसलमानों के एकीकरण में लग्न थे। उस समय भारतवर्ष में इन पीरों की बड़ी प्रतिष्ठा थी और वे बड़ी श्रध्दा की दृष्टि से देखे जाते थे। गुरु नानकदेव ने भी इन पीरों का नाम अपने इस वाक्य में 'सुणिये सिध्द-पीर सुरिनाथ' आदर से लिया है। जो पद उन्होंने सिध्द, नाथ और सूरि को दिया है वही पीर को भी। पहले आप पढ़ आये हैं कि उस समय सिध्दों का कितना महत्तव और प्रभाव था। नाथों का महत्तव भी गुरु गोरखनाथजी की चर्चा में प्रकट हो चुका है। सूरि जैनियों के आचार्य कहलाते थे और उस समय दक्षिण में उनकी महत्ता भी कम नहीं थी। इन लोगों के साथ गुरु नानक देव ने जो पीर का नाम लिया है, इसके द्वारा उस समय इनकी कितनी महत्ता थी, यह बात भली-भाँति प्रकट होती है। इस पीर नाम का सामना करने ही के लिए हिन्दू आचार्य उस समय गुरु नाम धारण करने लग गये थे। इसका सूत्रापात गुरु गोरखनाथ जी ने किया था। गुरु नानकदेव के इस वाक्य में गुरु ईसर गुरु गोरख बरम्हा गुरु पारबती माई इसका संकेत है। गुरु नानक के सम्प्रदाय के आचार्यों के नाम के साथ जो गुरु शब्द का प्रयोग होता है, उसका उद्देश्य भी यही है। वास्तव में उस समय के हिन्दू आचार्यों को हिन्दू धर्म की रक्षा करने के लिए अनेक मार्ग ग्रहण करने पड़े थे। क्योंकि बिना इसके न तो हिन्दू धर्म सुरक्षित रह सकता था, न पीरों के सम्मुख उनको सफलता प्राप्त हो सकती थी। क्योंकि वे राजधर्म के प्रचारक थे। कबीर साहब की प्रतिभा विलक्षण थी और बुध्दि बड़ी ही प्रखर। उन्होंने इस बात को समझ लिया था। अतएव उन दोनों से भिन्न तीसरा मार्ग ग्रहण किया था। परन्तु कार्य उन्होंने वही किया जो उस समय मुसलमान पीर कर रहे थे अर्थात् हिन्दुओं को किसी प्रकार हिन्दू धर्म से अलग करके अपने नव प्रवर्तित धर्म में आकर्षित कर लेना उनका उद्देश्य था। इस उद्देश्य-सिध्दि के लिए उन्होंने अपने को ईश्वर का दूत बतलाया और अपने ही मुख से अपने महत्तव की घोषण् बड़ी ही सबल भाषा में की। निम्नलिखित पद्य इसके प्रमाण हैं-

काशी में हम प्रगट भये हैं रामानन्द चेताये।

समरथ का परवाना लाये हंस उबारन आये।

कबीर शब्दावली , प्रथम भाग पृ. 71

सोरह संख्य के आगे समरथ जिन जग मोहि पठाया

कबीर बीजक , पृ. 20

तेहि पीछे हम आइया सत्य शब्द के हेत।

कहते मोहिं भयल युग चारी

समझत नाहिं मोहि सुत नारी।

कह कबीर हम युग युग कही।

जबहीं चेतो तबहीं सही।

कबीर बीजक , पृ. 125, 592

जो कोई होय सत्य का किनका सो हमको पतिआई।

और न मिलै कोटि करि थाकै बहुरि काल घर जाई।

कबीर बीजक , पृ. 20

जम्बू द्वीप के तुम सब हंसा गहिलो शब्द हमार।

दास कबीरा अबकी दीहल निरगुन कै टकसार।

जहिया किरतिम ना हता धारती हता न नीर।

उतपति परलै ना हती तबकी कही कबीर।

ई जग तो जँहड़े गया भया योग ना भोग।

तिल तिल झारि कबीर लिय तिलठी झारै लोग।

कबीर बीजक , पृ. 80, 598, 632

सुर नर मुनि जन औलिया , यह सब उरली तीर।

अलह राम की गम नहीं , तहँ घर किया कबीर।

साखी संग्रह , पृ. 125

वे अपनी महत्ता बतलाकर ही मौन नहीं हुए वरन हिन्दुओं के समस्त धार्मिक ग्रन्थों और देवताओं की बहुत बड़ी कुत्सा भी की। इस प्रकार के उनके कुछ पद्य प्रमाण-स्वरूप नीचे लिखे जाते हैं-

योग यज्ञ जप संयमा तीरथ ब्रतदाना

नवधा वेद किताब है झूठे का बाना।

कबीर बीजक , पृ. 411

चार वेद षट् शा ò ऊ औ दश अष्ट पुरान।

आसा दै जग बाँधिया तीनों लोक भुलान।

कबीर बीजक , पृ. 14

औ भूले षट दर्शन भाई। पाख्रड भेष रहा लपटाई।

ताकर हाल होय अघकूचा। छदर्शन में जौन बिगूचा।

कबीर बीजक , पृ. 97

ब्रह्मा बिस्नु महेसर कहिये इनसिर लागी काई।

इनहिं भरोसे मत कोइ रहियो इनहूँ मुक्ति न पाई।

कबीर शब्दावली , द्वितीय भाग , पृ. 19

माया ते मन ऊपजै मन ते दश अवतार।

ब्रह्म बिस्नु धोखे गये भरम परा संसार।

कबीर बीजक , पृ. 650

चार वेद ब्रह्मा निज ठाना।

मुक्ति का मर्म उनहुँ नहिं जाना।

कबीर बीजक , पृ. 104

भगवान कृष्णचन्द्र और हिन्दू देवताओं के विषय में जैसे घृणित भाव उन्होंने फैलाये, उनके अनेक पद इसके प्रमाण हैं। परन्तु मैं उनको यहाँ उठाना नहीं चाहता, क्योंकि उन पदों में अश्लीलता की पराकाष्ठा है। उनकी रचनाओं में योग, निर्गुण-ब्रह्म और उपदेश एवं शिक्षा सम्बन्धी बड़े हृदयग्राही वर्णन हैं। मेरा विचार है कि उन्होंने इस विषय में गुरु गोरखनाथ और उनके उत्ताराधिकारी महात्माओं का बहुत कुछ अनुकरण किया है। गुरु गोरखनाथ का ज्ञानवाद और योगवाद ही कबीर साहब के निर्गुणवाद का स्वरूप ग्रहण करता है। मैं अपने इस कथन की पुष्टि के लिए गुरु गोरखनाथ की पूर्वोद्धृत रचनाओं की ओर आप लोगों की दृष्टि फेरता हूँ और उनके समकालीन एवं उत्ताराधिकारी नाथ सम्प्रदाय के आचार्यों की कुछ रचनाएँ भी नीचे लिखता हूँ-

1. थोड़ो खाय तो कलपै झलपै , घड़ों खाय तो रोगी।

दुहूँ पर वाकी संधि विचारै , ते को बिरला जोगीड्ड

यहु संसार कुवधि का खेत , जब लगि जीवै तब लगि चेत।

आख्याँ देखै काण सुणै , जैसा बाहै तैसा लुणैड्ड

- जलंधार नाथ

2. मारिबा तौ मनमीर मारिबा , लूटिबा पवन भँडार।

साधिबा तौ पंचतत्ता साधिबा , सेइबा तौ निरंजन निरंकार

माली लौं भल माली लौं , सींचै सहज कियारी।

उनमनि कलाएक पहूपनि , पाइले आवा गबन निवारीड्ड

- चौरंगी नाथ

3. आछै आछै महिरे मंडल कोई सूरा।

मारया मनुवाँ नएँ समझावै रे लोड्ड

देवता ने दाणवां एणे मनवैं व्याह्या।

मनवा ने कोई ल्यावैं रे लोड्ड

जोति देखि देखो पड़ेरे पतंगा।

नादै लीन कुरंगा रे लोड्ड

एहि रस लुब्धाी मैगल मातो।

स्वादि पुरुष तैं भौंरा रे लोड्ड

- कणोरी पाव

4. किसका बेटा किसकी बहू , आपसवारथ मिलिया सहू।

जेता पूला तेती आल , चरपट कहै सब आल जंजालड्ड

चरपट चीर चक्रमन कंथा , चित्ता चमाऊँ करना।

ऐसी करनी करो रे अवधू , ज्यो बहुरि न होई मरनाड्ड

- चरपट नाथ

5. साधी सूधी के गुरु मेरे , बाई सूंव्यंद गगन मैं फेरे।

मनका बाकुल चिड़ियाँ बोलै , साधी ऊपर क्यों मन डोलैंड्ड

बाई बंधया सयल जग , बाई किनहुं न बंधा।

बाइबिहूण ढहिपरै , जोरै कोई न संधिड्ड

- चुणाकर नाथ

कहा जा सकता है कि ये नाथ सम्प्रदाय वाले कबीर साहब के बाद के हैं। इसलिए कबीर साहब की रचनाओं से स्वयं उनकी रचनाएँ प्रभावित हैं न कि इनकी रचनाओं का प्रभाव कबीर साहब की रचनाओं पर पड़ा है। इस तर्क के निराकरण् के लिए मैं प्रकट कर देना चाहता हूँ कि जलंधार नाथ मछंदर नाथ के गुरुभाई थे जो गोरखनाथ जी के गुरु थे! चौरंगीनाथ गोरखनाथ के गुरु-भाई, कणेरीपाव जलंधारनाथ के और चरपटनाथ मछन्दरनाथ के शिष्य थे। चुणाककरनाथ भी इन्हीं के समकालीन थे1। इसलिए इन लोगों का कबीर साहब से पहले होना स्पष्ट है। कबीर साहब की रचनाओं पर, विशेष कर उन रचनाओं पर, जो रहस्यवाद से सम्बन्धा रखती हैं, बौध्द धर्म के उन सिध्दों की रचनाओं का बहुत बड़ा प्रभाव देखा जाता है,जिनका आविर्भाव उनसे सैकड़ों वर्ष पहले हुआ। कबीर साहब की बहुत-सी रचनाएँ ऐसी हैं जिनका दो अर्थ होता है। मेरे इस कहने का यह प्रयोजन है कि ऐसी कविताओं के वाच्यार्थ से भिन्न दूसरे अर्थ प्राय: किये जाते हैं। जैसे-

1. देखिए नागरी प्रचारिणी पत्रिाका भाग 11, अंक 4 में प्रकाशित 'योग-प्रवाह' नामक लेख।

घर घर मुसरी मंगल गावै , कछुवा संख बजावै।

पहिरि चोलना गदहा नाचै , भैंसा भगत करावैड्ड

इत्यादि। इन शब्दों का वाच्यार्थ बहुत स्पष्ट है, किन्तु यदि वाच्यार्थ ही उसका वास्तविक अर्थ मान लिया जाय तो वह बिलकुल निरर्थक हो जाता है। ऐसी अवस्था में दूसरा अर्थ करके उसकी निरर्थकता दूर की जाती है। बौध्द सिध्दों की भी ऐसी द्वयर्थक अनेक रचनाएँ हैं। मेरा विचार है कि कबीर साहब की इस प्रकार की जितनी रचनाएँ हैं, वे सिध्दों की रचनाओं के अनुकरण से लिखी गई हैं। सिध्दों ने योग और ज्ञान सम्बन्धी बातें भी अपने ढंग से कही हैं। उनकी अनेक रचनाओं पर उनका प्रभाव भी देखा जाता है। जून सन् 1931 की सरस्वती के अंक में प्रकाशित चौरासी सिध्द नामक लेख में बहुत कुछ प्रकाश इस विषय पर डाला गया है। विषय-बोधा के लिए उसका कुछ अंश मैं आप लोगों के सामने उपस्थित करता हूँ-

“इन सिध्दों की कविताएँ एक विचित्रा आशय की भाषा को लेकर होती हैं। इस भाषा को संध्या भाषा कहते हैं, जिसका अर्थ ऍंधेरे (वाम मार्ग) में तथा उँजाले (ज्ञान मार्ग, निर्गुण) दोनों में लग सके। संध्या भाषा को आजकल के छाया वाद या रहस्यवाद की भाषा समझ सकते हैं।”

“भावना और शब्द-साखी में कबीर से लेकर राधास्वामी तक के सभी सन्त चौरासी सिध्दों के ही वंशज कहे जा सकते हैं। कबीर का प्रभाव जैसे दूसरे संतों पर पड़ा और फिर उन्होंने अपनी अगली पीढ़ी पर जैसे प्रभाव डाला, इसको शृंखलाबध्द करना कठिन नहीं है। परन्तु कबीर का सम्बन्धा सिध्दों से मिलाना उतना आसान नहीं है, यद्यपि भावनाएँ, रहस्योक्तियाँ, उल्टी बोलियों की समानताएँ बहुत स्पष्ट हैं।”

इसी सिलसिले में सिध्दों की रचनाएँ भी देख लीजिए-

मूल

1. निसि अंधारी सुसार चारा।

अमिय भखअ मूषा करअ अहारा।

मार रे जोइया मूषा पवना।

जेण तृटअ अवणा गवणा।

भव विदारअ मूसा रवण अगति।

चंचल मूसा कलियाँ नाश करवाती।

काला मूसा ऊहण बाण।

गअणे उठि चरअ अमण धाण।

तब से मूषा उंचल पाँचल।

सद्गुरु वोहे करिह सुनिच्चल।

जबे मूषा एरचा तूटअ।

भुसुक भणअ तबै बांधान फिटअ।

- भुसुक

छाया

निसि ऍंधियारी सँसारा सँचारा।

अमिय भक्ख मूसा करत अहारा।

मार रे जोगिया मूसा पवना।

जेहिते टूटै अवना गवना।

भव विदार मूसा खनै खाता।

चंचल मूसा करि नाश जाता।

काला मूसा उरधा नवन।

गगने दीठि करै मन बिनु धयान।

तबसो मूसा चंचल वंचल।

सतगुरु बोधो करु सो निहचल।

जबहिं मूसा आचार टूटइ।

भुसुक भनत तब बन्धान पू फाटइ।

मूल

जयि तुज्झे भुसुक अहेइ जाइबें मारि हसि पंच जना।

नलिनी बन पइसन्ते होहिसि एकुमणा।

जीवन्ते भेला बिहणि मयेलण अणि।

हण बिनु मासे भुसुक प िर्बंन पइ सहिणि।

माआ जाल पसरयो ऊरे बाधोलि माया हरिणि।

सद गुरु बोहें बूझिे कासूं कहिनि।

- भुसुक

छाया

जो तोहिं भुसुक जाना मारहु पंच जना।

नलिनी बन पइसंते होहिसि एक मना।

जीवत भइल बिहान मरि गइल रजनी।

हाड़ बिनु मासे भुसुक पदम बन पइसयि।

माया जाल पसारे ऊरे बाँधोलि माया हरिणी।

सदगुरु बोधो बूझी कासों कथनी।

- भुसुक

अणिमिषि लोअण चित्ता निरोधो पवन णिरुहइ सिरिगुरु बोहें

पवन बहइ सो निश्चल जब्बें जोइ कालु करइ किरेतब्बें।

छाया

अनिमिष लोचन चित्ता निरोधाइ श्री गुरु बोधो।

पवन बहै सो निश्चल जबै जोगी काल करै का तबै।

- सरहपा

मूल-

आगम बेअ पुराणे पंडिउ मान बहन्ति।

पक्कसिरी फल अलिअ जिमि बाहेरित भ्रमयंति।

अर्थ : आगम वेद पुराण में पंडित अभिमान करते हैं। पके श्री फल के बाहर जैसे भ्रमर भ्रमण करते हैं। करहपा1

कबीर साहब स्वामी रामानन्द के चेले और वैष्णव धार्मावलम्बी बतलाये जातेहैं। उन्होंने इस बात को स्वीकार किया है वे कहते हैं-'कबीर गुरु बनारसी सिक्ख समुन्दर तीर'। उन्होंने वैष्णवत्व का पक्ष लेकर शाक्तों को खरी-खोटी भी सुनाई है।-यथा

मेरे संगी द्वै जणा एक वैष्णव एक राम।

वो है दाता मुक्ति का वो सुमिरावै नाम।

कबीर धानि ते सुन्दरी जिन जाया बैस्नव पूत।

राम सुमिरि निरभय हुआ सब जग गया अऊत।

साकत सुनहा दोनों भाई। एक निंदै एक भौंकत जाई।

किन्तु क्या उनका यह भाव स्थिर रहा? मेरा विचार है, नहीं, वह बराबर बदलता रहा। इसका प्रमाण स्वयं उनकी रचनाएँ हैं। उन्होंने गोरखनाथ की गोष्ठी नामक एक ग्रन्थ की रचना भी की है। वे शेख तक़ी के पास भी जिज्ञासु बनकर जाते थे और ऊँजी के पीर से भी शिक्षा लेते थे। ऐसा करना अनुचित नहीं। ज्ञान प्राप्त करने के लिए अनेक महात्माओं का सत्संग करना निन्दनीय नहीं-किन्तु यह देखा जाता है कि कबीर साहब कभी वैष्णव हैं, कभी पीर, कभी योगी और कभी सूफी और कभी वेदान्त के अनुरागी। उनका यह बहुरूप श्रध्दालु के लिए भले ही उनकी महत्ता का परिचायक हो, परन्तु एक समीक्षक की दृष्टि इस प्रणाली को संदिग्धा हो कर अवश्य देखेगी। मेरा विचार है कि अपने सिध्दान्त के प्रचार के लिए उन्होंने समय-समय पर उपयुक्त पध्दति ग्रहण की है और जनता के मानस पर अपनी सर्वज्ञता

1. देखिए, सरस्वती, जून सन 1931 का पृ. 715, 717, 718, 719

की धाक जमा कर उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने का विशेष धयान रखा है। इसीलिए वे अनेक रूप रूपाय हैं। मैंने उनकी रचनाओं का आधार ढूँढ़ने की जो चेष्टा की है, उसका केवल इतना ही उद्देश्य है कि यह निश्चित हो सके कि वास्तव में उनकी रचनाएँ उनके कथनानुसार अभूतपूर्व और अलौकिक हैं या उनका श्रोत किसी पूर्ववर्ती ज्ञान-सरोवर से ही प्रसूत है। 'सरस्वती' में'चौरासी सिध्द' नामक लेख के लेखक बौध्द विद्वान राहुल सांकृत्यायन ने कबीर साहब की रचनाओं पर सिध्दों की छाप बतलाते हुए यह लिखा है कि “कबीर का सम्बन्धा सिध्दों से मिलाना उतना आसान

नहीं है।” किन्तु मैं समझता हूँ कि यह आसान है, यदि सिध्दों के साथ नाथ-सम्प्रदाय वालों को भी सम्मिलित कर लिया जाय। मैं नहीं कह सकता कि इस बहुत ही स्पष्ट विकास की ओर उनकी दृष्टि क्यों नहीं गई।

महात्मा ज्ञानेश्वर ने अपने ज्ञानेश्वरी नामक ग्रन्थ में अपनी गुरु-परम्परा यह दी है-1. आदिनाथ, 2. मत्स्येन्द्रनाथ 3.गोरखनाथ, 4. गहनी नाथ, 5. निवृत्तिानाथ, 6. ज्ञानेश्वर1 ज्ञानेश्वर के शिष्य थे नामदेव2। उनका समय है 1370 ई. से 1440 ई. तक। इसलिए उनका कबीर साहब से पहले होना निश्चित है। उन्होंने स्वयं अपने मुख से उनको महात्मा माना है। वे लिखते हैं-

“ जागे सुक ऊधाव औ अक्रूर।

हनुमत जागे लै लंगूर। “

संकर जागे चरन सेब।

कलि जागे नामा जयदेव।

सिक्खों के ग्रन्थ साहब में भी उनके कुछ पद्य संग्रहीत हैं। ज्ञानेश्वर जैसे महात्मा से दीक्षित होकर उनकी वैष्णवता कैसी उच्च कोटि की थी और वे कैसे महापुरुष थे, उसे निम्नलिखित शब्द बतलाते हैं-

बदो क्यों न होड़ माधो मोसों।

ठाकुर ते जन जनते ठाकुर खेल परयो है तोसों।

आपन देव देहरा आपन आप लगावै पूजा।

जलते तरँग ते है जल कहन सुनन को दूजा।

आपहि गावै आपहि नाचै आप बजावै तूरा।

कहत नामदेव तू मेरे ठाकुर जन ऊरा तू पूराड्ड

दामिनि दमकि घटा घहरानी बिरह उठे घनघोर।

चित चातक ह्नै दादुर बोलै ओहि बन बोलत मोर।

1. देखिए, हिन्दुस्तानी, जनवरी सन् 1932 के पृ. 32 में डॉक्टर हरि रामचन्द्र दिवेकर एम‑ए‑डी‑लिट‑कालेख।

2. देखिए, मिश्रबन्धाु विनोद, प्रथम भाग का पृ. 223।

प्रीतम को पतिया लिख भेजौं प्रेम प्रीति मसि लाय।

वेगि मिलोजन नामदेव को जनम अकारथ जाय।

हिन्दू पूजै देहरा , मुस्सलमान मसीत।

नामा सोई सेविया , ना देहरा न मसीत।

मेरा विचार है कि कबीर साहब की रचनाएँ नामदेव के प्रभाव से अधिक प्रभावित हैं। फिर यह कहना कि सिध्दों के साथ कबीर की शृंखला मिलाना आसान नहीं, कहाँ तक संगत है। गुरु गोरखनाथ के मानस के साथ अपने मानस को सम्बन्धिात कर कबीर साहब उनकी महत्ता किस प्रकार स्वीकार करते हैं, उसको उनका यह कथन प्रकट करता है-

गोरख भरथरि गोपीचंदा। तामनसों मिलि-करैं अनंदा।

अकल निरंजन सकल सरीरा। तामन सों मिलि रहा कबीरा।

वास्तव बात यह है कि कबीर साहब के लगभग समस्त सिध्दांत और विचार वैष्णव-धर्म और महात्मा गोरखनाथ के ज्ञान-मार्ग और योग मार्ग अथच उनकी परम्परा के महात्माओं की अनुभूतियों पर ही अधिकतर अवलम्बित हैं और उन सिध्दों के विचारों से भी सम्बन्धा रखते हैं, जिनकी चर्चा ऊपर की गई है।

सारांश यह है कि जैसे स्वयं कबीर साहब सामयिकता के अवतार और नवीन धर्म-प्रवर्तन के इच्छुक हैं, वैसे ही उनकी रचनाएँ भी पूर्ववर्ती सिध्द और महात्माओं के भावों और विचारों से ओत-प्रोत हैं। किन्तु उनमें कुछ व्यक्तिगत विलक्षणताएँ अवश्य थीं, जिनका विकास उनकी रचनाओं में भी दृष्टिगत होता है। उनकी इन्हीं विशेषताओं ने उन्हें कुछ लोगों की दृष्टि में निर्गुण धारा का प्र्रवत्ताक बना रखा है। परन्तु यदि सूक्ष्म दृष्टि और विवेचनात्मक बुध्दि से निरीक्षण किया जाय तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जिन सिध्दान्तों के कारण उनके सिर पर सन्तमत के प्र्रवत्ताक होने का सेहरा बाँधा जाता है वे सिध्दान्त परम्परागत और नवीनतम ही है। हाँ, उनको जनता के सामने उपस्थित करने में उन्होंने कुछ चमत्कार अवश्य दिखलाया। कबीर साहब के रहस्यवाद को पढ़कर कुछ श्रध्दालु यह कहते हैं कि ईश्वर-विद्या के अद्वितीय मर्मज्ञ थे। वे भी अपने को ऐसा ही समझते हैं। लिखते हैं-

सुर नर मुनि जन औलिया ए सब उरली तीर।

अलह राम की गम नहीं , तहँ घर किया कबीर।

किसी के श्रध्दा विश्वास के विषय में मुझको कुछ वक्तव्य नहीं। कबीर साहब स्वयं अपने विषय में जो कुछ कहते हैं,उसका उद्देश्य क्या था, इस पर मैं बहुत कुछ प्रकाश डाल चुका हूँ। इष्ट सिध्दि के लिए वे जो पथ ग्रहण करना उचित समझते थे, ग्रहण कर लेते थे। प्रत्येक धर्म प्र्रवत्ताक में यह बात देखी जाती है। इसलिए इस विषय में अधिक लिखना पिष्टपेषण है,किन्तु यह मैं स्वीकार करूँगा कि कबीर साहब हिन्दी संसार में रहस्यवाद के प्रधान स्तम्भ हैं। उनका रहस्यवाद कुछ पूर्व महज्जनों की रचनाओं पर आधारित हो, परन्तु उनके द्वारा वह बहुत कुछ पूर्णता को प्राप्त हो गया। उनकी ऐसी रचनाओं में बड़ी ही विलक्षणता और गम्भीरता दृष्टिगत होती है। कुछ पद्य देखिए-

1. ऐसा लो तत ऐसा लो मैं केहि विधि कथौं गँभीरा लो।

बाहर कहूँ तो सत गुरु लाजै भीतर कहूँ तो झूठा लो।

बाहर भीतर सकल निरन्तर गुरु परतापै दीठा लो।

दृष्टि न मुष्टि न अगम अगोचर पुस्तक लखा न जाई लो।

जिन पहचाना तिन भल जाना कहे न कोऊ पतिआई लो।

मीन चले जल मारग जोवै परम तत्तव धौं कैसा लो।

हुपुपबास हूँ ते अति झीना परम तत्तव धौं ऐसा लो।

आकासे उड़ि गयो बिहंगम पाछे खोज न दरसी लो।

कहै कबीर सतगुरु दाया तें बिरला सतपद परसी लो।

2. साधो सतगुरु अलख लखाया जब आप आप दरसाया।

बीज मधय ज्यों बृच्छा दरसै वृच्छा मध्दे छाया।

परमातम में आतम तैसे आतम मध्दे माया।

ज्यों नभ मध्दे सुन्न देखिए सुन्न अंड आकारा।

निह अच्छर ते अच्छर तैसे अच्छर छर बिस्तारा।

ज्यों रवि मध्दे किरन देखिए किरन मधय परकासा।

परमातम में जीव ब्रह्म इमि जीव मधय तिमि साँसा।

स्वाँसा मधये सब्द देखिए अर्थ सब्द के माहीं।

ब्रह्म ते जीव जीव ते मन यों न्यारा मिला सदाहीं।

आपहि बीज वृच्छ अंकूरा आप फूल फल छाया।

आपहिं सूर किरन परकासा आप ब्रह्म जिव माया।

अंडाकार सुन्न नभ आपै स्वाँस सब्द अरु छाया।

निह अच्छर अच्छर छर आपै मन जिउ ब्रह्म समाया।

आतम में परमातम दरसै परमातम में झांई।

झांई में परछांई दरसै लखै कबीरा सांई।

3. जीवन को मरिबो भलो , जे मरि जानै कोय।

मरने पहिले जे मरैं , तो अजरावर होय।

मन मारा ममता मुई , अहं गई सब छूट।

जोगी था सो रम रहा , आसणि रही विभूति।

मरता मरता जगमुआ , औसर मुआ न कोय।

कबिरा ऐसे मर मुआ , बहुरि न मरना होय।

रहस्यवाद की ऐसी सुन्दर रचनाओं के रचयिता होकर भी कहीं-कहीं कबीर साहब ने ऐसी बातें कहीं हैं जो बिलकुल ऊटपटांग और निरर्थक मालूम होती हैं। इस पद को देखिए-

ठगिनी क्या नैना झमकावै।

कबिरा तेरे हाथ न आवै।

कद्दू काटि मृदंग बनाया नीबू काटि मँजीरा।

सात तरोई मंगल गावैं नाचै बालम खीरा।

भैंस पदमिनी आसिक चूहा मेड़क ताल लगावै।

चोला पहिरि गदहिया नाचै ऊँट बिसुनपद गावै।

आम डार चढ़ि कछुआ तोड़ै गिलहरि चुनचुनि लावै।

कहै कबीर सुनो भाई साधो बगुला भोग लगावै।

ऐसे पदों के अनर्गल अर्थ करने वाले मिल जाते हैं। परन्तु उनमें वास्तवता नहीं, धींगा-धींगी होती है। मेरा विचार है उन्होंने ऐसी रचनाएँ जनता को विचित्राता-समुद्र में निमग्न कर अपनी ओर आकर्षित करने ही के लिए की हैं। उनकी उलटवाँसियाँ भी विचित्राताओं से भरी हैं। दो पद्य उनके भी देखिए-

देखौ लोगो घर की सगाई।

माय धारै पितुधिय सँग जाई।

सासु ननद मिलि अदल चलाई।

मादरिया गृह बेटी जाई।

हम बहनोई राम मोर सारा।

हमहिं बाप हरि पुत्र हमारा।

कहै कबीर हरी के बूता।

राम रमैं ते कुकुरी के पूता।

- कबीर बीजक , पृ. 393

देखि देखि जिय अचरज होई।

यह पद बूझै बिरला कोई।

धारती उलटि अकासहिं जाई।

चिंउटी के मुख हस्ति समाई।

बिन पौनेजहँ परबत उड़ै।

जीव जन्तु सब बिरछा बुड़ै।

सूखे सरवर उठै हिलोर।

बिन जल चकवा करै कलोल।

बैठा पंडित पढै पुरान।

बिन देखे का करै बखान।

कह कबीर जो पद को जान।

सोई सन्त सदा परमान।

- कबीर बीजक , पृ. 394

कबीर साहब ने निर्गुण का राग अलापते हुए भी अपनी रचनाओं में सगुणता की धारा बहाई है। कभी वे परमात्मा के सामने स्वामी सेवक के भाव में आते हैं, कभी स्त्राी पुरुष अथवा पुरुष प्रेमी और प्रेमिका के रूप में, कभी ईश्वर को माता-पिता मानकर आप बालक बनते हैं और कभी उसको जगन्नियंता मानकर अपने को एक क्षुद्र जीव स्वीकार करते हैं। इन भावों की उनकी जितनी रचनाएँ हैं, सरस और सुन्दर हैं और उनमें यथेष्ट हृदयग्राहिता है। जनता के सामने कभी वे उपदेशक और शिक्षक के रूप में दिखलाई देते हैं, कभी सुधारक बनकर। मिथ्याचारों का खंडन वे बडे क़टु शब्दों में करते हैं और जिस पर टूट पड़ते हैं उसकी गत बना देते हैं। उनकी यह नाना-रूपता इष्ट-साधान की सहचरी है। उनकी रचनाओं में जहाँ सत्यता की ज्योति मिलती है, वहीं कटुता की पराकाष्ठा भी दृष्टिगत होती है। वास्तव बात यह है कि हिन्दी संसार में उनकी रचनाएँ विचित्रातामयी हैं। उनका शब्द-विन्यास बहुधा असंयत और उद्वेजक है, कहीं-कहीं वह अधिकतर उच्छृंखल है, छन्दों के नियम की रक्षा भी उसमें प्राय: नहीं मिलती। फिर भी उनकी कुछ रचनाओं में वह मन मोहकता, भावुकता, और विचार की प्रांजलता मिलती है जिसकी बहुत कुछ प्रशंसा की जा सकती है।

कबीर साहब के समकालीन कुछ ऐसे सन्त और महात्मा हैं जिनकी चर्चा हुए बिना पन्द्रहवीं ईसवी शताब्दी की न तो सामयिक अवस्था पर पूरा प्रकाश पड़ेगा न साहित्यिक परिवर्तनों पर। अतएव अब मैं कुछ उनके विषय में भी लिखना चाहता हूँ। किन्तु उनके यथार्थ परिचय के लिए यह आवश्यक है कि स्वामी रामानन्द के उस समय के धार्मिक परिवर्तनों और सामाजिक सुधारों से अभिज्ञता प्राप्त कर ली जावे। इसलिए पहले मैं इस महापुरुष के विषय में ही कुछ लिखता हूँ। जिस समय स्वामी शंकराचार्य के अद्वैतवाद ने भारतवर्ष में वैदिक-धर्म का पुनरुज्जीवन किया और जब उसकी विजय-वैजयन्ती हिमालय से कुमारी अन्तरीप तक फहरा रही थी। उस समय केवल ज्ञान मार्ग से संतोष न प्राप्त कर अनेक सन्त-महात्मा एक ऐसी भक्ति-धारा की खोज में थे जो दार्शनिक जीवन को सरस बना सके। निर्गुण ब्रह्म अनुभव गम्य भले ही हो किन्तु वह सर्वसाधारण का बोधागम्य नहीं था। बड़े-बड़े महात्माओं की विचारधारा जिस पंथ में चलकर पद-पद पर कुण्ठित होती थी, उस पथ का पथिक होना साधारण विद्या-बुध्दि के मनुष्य के लिए असम्भव था। आधयात्मिक आनन्द के उपभोग का अधिकारी तत्तवज्ञ ही हो सकता है, अल्पज्ञ नहीं। इसके लिए किसी प्रत्यक्ष आधार वा अवलम्बन का होना आवश्यक है। दूसरी बात यह है कि संसार की स्वाभाविकता किसी ऐसे आधार का आश्रय ग्रहण करना चाहती है जो उसका जीवन-सहचर हो। समाधि में समाधिस्थ होकर ब्रह्मानन्द सुख का अनुभव करना लोकोत्तार हो, परन्तु उससे वह मनुष्य क्या लाभ उठा सकता है, जो न तो ऐसी साधानाएँ कर सकता है जो सर्वसाधारण के लिए सुलभ हों और न ऐसी सिध्दि प्राप्त कर सकता है जो उसको सांसारिक नाना कष्टों से छुटकारा दे सके। लोक साधारणत: पारमार्थिक नहीं है, वह अधिकतर स्वार्थ ही का दास है। वह सुख का कामुक और कष्टों से निस्तार पाने का अधिक इच्छुक होता है। वह अपनी कामना की पूर्ति के लिए ऐसी साधानाएँ करना चाहता है जो सीधी और सरल हों और जिनमें पद-पद पर जटिलताएँ सामने आकर न खड़ी हो जाएँ। परमात्मा सर्वलोक का स्वामी हो, प्राणी मात्रा का लालन-पालन करता हो, परन्तु उसका इतना ही होना पर्याप्त नहीं। लोक चाहता है कि वह दीनबन्धाु,दु:खभंजन, आनन्दस्वरूप और विपत्तिा में सहायक भी हो। मानवता की इस प्रवृत्तिा को संसार की महान आत्माओं ने प्रत्येक समय समझा है और देशकालानुसार उसके संतोष उत्पादन की चेष्टा भी की है। यदि भारतवर्ष के धार्मिक परिवर्तनों पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाय तो उनमें इस प्रकार के अनेकश: उदाहरण् प्राप्त होंगे। जब स्वामी शंकराचार्य के सर्वोच्च ज्ञान का अधिकारी सामयिक महात्माओं ने देशकालानुसार सर्वसाधारण जनता को नहीं पाया, तो उन्होंने ऐसा मार्ग ग्रहण करने की चेष्टा की जिससे उन प्राणियों का भी यथार्थहित हो सके, जो तत्तवबोधा के उच्च सोपान पर चढ़ने की योग्यता नहीं रखते। इसीलिए निर्गुण ब्रह्म के स्थान पर सगुण ब्रह्म की कल्पना होती आई है और इसी हेतु से एक अनिर्वचनीय शक्ति के स्थान पर ऐसी शक्ति की उद्भावना महज्जन करते आये हैं जो बोधागम्य हो और मानव-जीवन का स्वाभाविक सहचर बन सके। ज्ञान में गहनता है, साथ ही जटिलता भी। भक्ति में सरलता और सहृदयता है। इसीलिए ज्ञान से भक्ति अधिकतर बोधासुलभ है। अपने-अपने स्थान पर दोनों ही का महत्तव है। इसीलिए हिन्दू धर्म में अधिकारी भेद की व्यवस्था है। ज्ञानाश्रयी सिध्दान्त जब व्यावहारिक बनते हैं तो उनको भक्ति को साथ लेना पड़ता है, क्योंकि संसार अधिकतर क्रियामय जीवन का प्रेमिक है। जिन महात्माओं ने इन रहस्यों को समझ कर यथाकाल दोनों की व्यवस्था उचित रूप से की, उन्हीं महात्माओं में स्वामी रामानुज का स्थान है। उन्होंने स्वामी शंकराचार्य के ज्ञान-मार्ग को भक्तिमय बना दिया और उनके अद्वैतवाद को विशिष्टताद्वैत का रूप दिया। उन्होंने निर्गुण ब्रह्म को स्वीकार करते हुए भी उसके सगुण रूप को ग्रहण किया और बतलाया कि यदि यह सत्य है कि'सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन' तो विश्व को हम ब्रह्म का स्वरूप क्यों न मानें और क्यों न भक्ति से आर्द्र होकर उसकी उचित परिचर्या में लगें? उन्होंने इस विश्वात्मक सत्ता को विष्णु-स्वरूप बतलाया जिसकी सहकारिणी शक्ति लक्ष्मी है, विष्णु त्रिागुणात्मक हैं और उनमें सृजन, पालन और संहार तीनों शक्तिाँ विद्यमान हैं। वे कोटि काम कमनीय और अव्यक्त होने पर भी नील नभोमण्डल-समान श्याम हैं। वे चतुर्भुज अर्थात् चार हाथ से सृष्टिकार्य परायण हैं और अनन्त ज्ञानमय होने के कारण चतुर्वेदजनक हैं। वे सत्यावलम्बी के रक्षक और पापपरायण प्राणियों के शासक हैं। उनकी दीन-वत्सलता जहाँ अलौकिक है वहीं विपत्तिा निवारण उनका स्वाभाविक धर्म। वे शरणागतपालक और पतित जनपावन हैं। उनका स्थान बैकुण्ठ है, जो सर्वदैव अकुण्ठ रहता है और जिसमें वे उन लोगों को स्थान देते हैं जो प्रेम के पावन पथ पर चलने में कुण्ठित नहीं होते। उनकी सहधार्मिणी लोक-विमोहिनी शक्ति रमा है। जो उन्हीं के समान सांसारिक प्रत्येक कार्य में रमणशीला है। परमात्मा के ऐसे सगुण रूप को सांसारिक प्राणियों के सामने लाकर स्वामी रामानुज ने समयानुसार भारतीयजन का जो हित-साधान किया, उसका प्रमाण उनके धर्म की व्यापकता है, जो आजकल भारत वसुंधारा में विस्तृत रूप में व्याप्त है। उनका आविर्भावकाल ग्यारहवीं ईस्वी शताब्दी है। स्वामी रामानन्द उनकी गद्दी के पाँचवें अधिकारी थे। स्वामी रामानन्द ने वैष्णव धर्म को कुछ विशेष नियमों से नियमित बनाया। इसका कारण तात्कालिक समाज था। स्वामी रामानन्द का आविर्भाव-काल चौदहवीं शताब्दी है। इस समय मुसलमान धर्म वर्ध्दनोन्मुख था। मुख्यत: नीच जातियों में उसका प्रचार बड़े वेग से हो रहा था। वैदिक धर्म में समदर्शिता की पर्याप्त शिक्षा होने पर भी कुछ रूढ़ियों के कारण इस भाव का विकास नहीं हो पाता था। इसके विरुध्द मुसलमान पीर वचन-द्वारा ही नहीं, आचरण द्वारा भी यह दिखला रहे थे कि किस प्रकार मनुष्य मात्रा परस्पर भाई हैं। स्वधार्मी होने पर धर्म-क्षेत्र में वे किसी से कोई भिन्नता नहीं रखते थे। स्वामी रामानन्द ने वैष्णव धर्म की इस न्यूनता को समझा और शास्त्राों की उन आज्ञाओं को व्यावहारिक रूप दिया जो इस प्रकार कीथीं-

' शुनी चैव श्वपाके च पंडिता: समदर्शिन: '

' आत्मवत् सर्व भूतेषु य: पश्यति स पण्डित: '

उनके विशाल हृदय ने वैष्णव धर्म को समयानुसार बहुत उदार बनाया और उन बंधानों को दृढ़ता के साथ तोड़ा जो मानव-मात्रा के परस्पर सम्मिलन में बाधाक थे। वे उस समय मुक्त कंठ से यही कथन करते दृष्टिगत होते हैं-

' जाति पांति पूछै नहिं कोई। हरि को भजै सो हरि का होई। '

उन्होंने विष्णु के अव्यक्त रूप को व्यक्त रूप दिया और भगवान रामचन्द्र में विष्णु भगवान के समस्त गुणों का आरोप कर उन्हें विष्णु भगवान का अवतार बतलाया। पहले जो विष्णु भगवान कल्पना-क्षेत्र में विराजमान थे, उनको राम रूप में लाकर उन्होंने जिज्ञासुओं के सम्मुख उपस्थित किया और उनके उदार चरित्रों के आधार से मानव जाति को, विशेष कर हिन्दू जाति को, उस लोक धर्म की शिक्षा दी जो काल पाकर उसके लिए संजीवनी शक्ति बन गई। वैष्णव धर्म में जितनी जटिलताएँ थीं, उनको उन्होंने इस प्रकार व्यवहार-सुलभ बनाया कि उसकी ओर लोग बड़े उल्लास के साथ आकर्षित हो गये। उनके हृदय की विशालता देखिए कि जो जातियाँ ठुकराई हुई थीं, उन्हीं में से उन्होंने ऐसे लोगों को चुना जो हिन्दू-संसार-गगन में चमकते तारे बन कर चमके। उन्हीं के आधयात्मिक बल का वह महत्तव है कि जिससे कबीर कबीर बन गये। ये थे कौन?एक जुलाहे, हिन्दू भी नहीं, मुसलमान। रविदास का जन्म चमार के घर में हुआ था। सेन नाई और धान्ना जाट थे। परन्तु स्वामी रामानन्द के प्रभाव से ही आज दिन सन्त समाज में इनको उच्चस्थान प्राप्त है। सिक्खों के ग्रन्थ साहब में जिन सोलह प्रधान भक्तों की बानी संगृहीत है उनमें ये लोग भी हैं। कहा जाता है, उन्होंने अपने बारह शिष्य ऐसी ही जातियों में से चुन लिये जिनकी पतितों में गणना थी। इस पन्द्रहवीं शताब्दी में स्वामी रामानन्द ने ही वह भक्ति श्रोत बहाया जिसमें प्रवाहित होकर ऐसे लोग भी उस स्थान पर पहुँचे जिस स्थान पर पहुँचकर लोग सन्तपद के अधिकारी होते हैं। स्वामी रामानन्द जी के प्रधान शिष्य कबीर साहब की रचनाओं को मैं उपस्थित कर चुका हूँ। अब उनके अन्य शिष्यों की कुछ रचनाएँ भी देखिए-

1. नरहरि चंचल है मति मेरी

कैसे भगति करूँ मैं तेरी।

तू मोहिं देखै हौं तोहिं देखूँ ,

प्रीति परस्पर होई।

तू मोहिं देखे तोहि न देखूँ ,

यह पति सब विधि खोई।

सब घट अन्तर रमसि निरन्तर ,

मैं देखन नहिं जाना।

गुन सब तोर मोर सब अवगुन ,

कृत उपकार न माना।

मैं तैं तोर मोर असमझिसों ,

कैसे करि निस्तारा।

कह रैदास कृष्ण करुणा मय ,

जय जय जगत अधारा।

2. फल कारन फूलै बनराई।

उपजै फल तब पुहुप बिलाई।

राखहिं कारन करम कराई।

उपजै ज्ञान तो करम नसाई।

जल में जैसे तूंबा तिरै।

परिचै पिंड जीव नहिं मरै।

जब लगि नदी न समुद्र समावै।

तब लगि बढ़े हंकारा।

जब मनमिल्यो राम सागर सों ,

तब यह मिटी पुकारा।

- रैदास।

3. एक बूंद जल कारने चातक दुख पावै।

प्रान गये सागर मिलै पुनि काम न आवे।

प्रान जो थाके थिर नहीं कैसे बिरमाओं।

बूड़ि मुये नौका मिलै कहु काहि चढ़ाओंड्ड

मैं नाहीं कछु हौं नहीं कछु आहि न मोरा।

औसर लज्जा राखिलेहु सदना जन तोराड्ड

- सदना।

4. भ्रमत फिरत बहुत जनम बिलाने तनु मनु धानु नहिं धीरे।

लालच बिखु काम लुबधा राता मन बिसरे प्रभु हीरे।

बिखु फल मीठ लगे मन बउरे चार विचार न जान्या।

गुनते प्रीति बढ़ी अन भाँती जनम मरन फिर तान्या।

जुगति जानि नहिं रिदै निवासी जलत जाल जम फंदपरे।

बिखु फल संचि भरे मन ऐसे परम पुरख प्रभु मन बिसरे।

ग्यान प्रवेसु गुरहिंधान दीया धयानु मानु मन एक भये।

प्रेम भगति मानी सुख जान्यात्रिापति अघाने मुकतिभये।

जोति समाय समाने जाकै अछली प्रभु पहिचान्या।

धान्नै धान पाया धारणीधार मिलि जनसंत समान्या।

- धान्ना।

5. धूप , दीप , घृत साजि आरती बारने जाऊँ कमलापती।

मंगला हरि मंगला नित मंगल राजा राम राय को।

उत्ताम दियरा निरमल बाती तुहीं निरंजन कमला पाती।

राम भगति रामानन्दु जानै पूरन परमानंद बखानै।

मदन मूरति भय तारि गुविन्दे। सैन भण्य भजु परमानन्दे।

- सैन

पीपा गागनरौनगढ़ के एक राजा थे। वे भी स्वामी रामानंद के शिष्य थे। एक पद उनका भी देखिए-

1. काया देवा काया देवल काया जंगम जाती।

काया धूप दीप नैवेदा काया पूजौं पाती।

काया बहु ख्रड खोजते नवनिध्दीपाई।

ना कछु आइबो ना कछु जाइबो राम की दोहाई।

जो ब्रह्मण्डे सोई पिंडे जो खोजे सो पावै।

पीपा प्रणवै परमतत्ताु है सतगुरु होय लखावै।

- पीपा

गोविंद गोविंद गोविंद सँग नामदेव मन लीना।

आठ दाम को छीपरो होइयो लाखीना।

बुनना तनना त्याग कै प्रीति चरन कबीरा।

नीचु कुला जोलाहरा भयो गुनिय गहीरा।

रविदास ढोवन्ता ढोर नित जिन त्यागी माया।

परगट होआ साधा सँग हरि दरसन पाया।

सैन नाई बुतकारिया ओहु घर घर सुनिया।

हिरदै बसिया पारब्रह्म भक्ता महिं गनिया।

यहि विधि सुनिकै जाटरो उठि भक्ती लागा।

मिले प्रतक्ख गुसाइयाँ धान्ना बड़ भागा।

- धान्ना

इन रचनाओं पर सामयिकता की छाप तो लगी ही है। परन्तु उनमें आपको स्वामी रामानन्द जी की महान शिक्षाओं का प्रभाव भी विकसित रूप में दृष्टिगत होगा। ये रचनाएँ आपको यह भी बतलाएँगी कि पन्द्रहवीं शताब्दी में हिन्दी भाषा का विकास लगभग एक ही रूप में हुआ। इसके अतिरिक्त इनके देखने से यह भी पता चलेगा कि किस प्रकार इस शताब्दी में निर्गुणवाद और भक्ति रस की धाराएँ बहीं, जो उत्तारवर्ती काल में विविधा रूप में प्रवाहित होकर हिन्दू जाति के सूखते धर्म-भाव के पौधों को हरा-भरा बनाने में समर्थ हुईं। इसी शताब्दी में पंजाब प्रान्त में गुरु नानक देव का आविर्भाव हुआ। आप बेदी खत्री और अपने समय के प्रसिध्द धर्म-प्रचारक थे। कुछ लोगों ने इनको कबीर साहब से प्रभावित बतलाया है। किसी-किसी ने तो उनको इनका शिष्य तक लिख दिया है। किन्तु यह सत्य नहीं है। इस विषय में बहुत वाद-विवाद हो चुका है। मैं उनको यहाँ लिखना बाहुल्य-मात्रा समझता हूँ, किन्तु यह निश्चित बात है कि कबीर साहब का गुरु नानक देव पर कुछ प्रभाव नहीं था। प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि कबीर साहब पीर थे और गुरु नानक देव गुरु। वे एक नवीन धर्म का प्रचार करना चाहते थे और ये हिन्दू धर्म के संरक्षण के लिए यत्नवान थे। इस बात के प्रकट करने के लिए ही उन्होंने महात्मा गोरखनाथ के उद्भावित गुरु नाम का अपने नाम के साथ संयोजन किया था। उनके उपरान्त उनकी गद्दी पर दस महापुरुष बैठे। वे दसों गुरु कहलाये। पाँच गद्दी के बाद तो इन गुरुओं में से कई ने हिन्दू धर्म बलिवेदी पर अपने को उत्सर्ग भी किया। जब कबीर साहब ने हिन्दू धर्म याजकों और पंडितों की कुत्सा करने ही में अपना गौरव समझा, उस समय गुरु नानकदेव पंडितों को इन शब्दों में स्मरण करते थे-

स्वामी पंडिता तुमदेहुमती , केहि विधि मिलिए प्रानपती।

गुरु नानकदेव की रचनाओं में वेद शास्त्रा की उतनी ही मर्य्यादा दृष्टिगत होती है जितनी एक हिन्दू की कृति में होनी चाहिए। उसके विरुध्द कबीर साहब उनको उन शब्दों में स्मरण करते हैं जो भद्रता की सीमा को भी उल्लंघन कर जाते हैं। अतएव यह समझना कि गुरु नानकदेव उसी पथ के पथिक थे जिस पथ के पथिक कबीर साहब थे बहुत बड़ी भ्रान्ति है। गुरु नानकदेव का आविर्भाव यदि उस समय पंजाब प्रान्त में न होता तो उस प्रान्त से हिन्दू धर्म का विलोप-साधान पीरों के लिए बहुत आसान हो जाता। गुरु नानकदेव की अधिकांश रचनाएँ पंजाबी में ही हैं। परन्तु प्राय: सब हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों ने गुरु नानकदेव को हिन्दी का कवि माना है। कारण इसका यह है कि उनके बाद उनकी गद्दी पर नौ गुरु और बैठे। इनमें से पाँच गुरुओं ने जितनी रचनाएँ की हैं, उन सब लोगों ने भी अपनी पदावली में नानक नाम ही दिया है। इसलिए भ्रान्ति से अन्य गुरुओं की रचनाओं को भी गुरु नानक की रचना मान ली गई है। गुरु तेगबहादुर नौवें गुरु थे। वे सत्राहवीं ई. शताब्दी में हुए हैं। उनकी रचनाएँ उस समय की हिन्दी में ही हुई हैं। वे ही अधिक प्रचलित भी हैं। इसीलिए उनकी रचनाओं को गुरु नानकदेव की रचना मान ली गई है, और इसी से उस भ्रान्ति की उत्पत्तिा हुई है जो उनको हिन्दी भाषा का कवि बनाती है। परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। मैं यह स्वीकार करूँगा कि गुरु नानकदेव के कुछ पद्य अवश्य ऐसी भाषा में लिखे गये हैं जो पन्द्रहवीं शताब्दी की हिन्दी से सादृश्य रखते हैं। परन्तु उनकी संख्या बहुत थोड़ी हैं, और उनमें भी पंजाबीपन का रंग कुछ-न-कुछ पाया जाता है। मैं विषय को स्पष्ट करने के लिए उनका एक पद्य पंजाबी भाषा का और दूसरा हिन्दी भाषा का नीचे लिखता हूँ-

1. पवणु गुरुपाणी पिता माता धारति महत्ताु।

दिवस रात दुइदाई दाया खेलै सकल जगत्ताु।

चँगियाइयां बुरियाइयां वाचै धारमु हदूरि।

करनी आपो आपणी के नेड़ै के दूरि।

जिन्नी नाम धोयाइया गये मसक्कति घालि।

नानक ते मुख उज्जले केती छुट्टी नालि।

2. गुरु परसादी बूझिले तउ होइ निबेरा।

घर घर नाम निरंजना सो ठाकुर मेरा।

बिनु गुरु सबद न छूटिये देखहु बीचारा।

जे लख करम कमावहीं बिनु गुरु ऍंधियारा।

अंधो अकली बाहरे क्या तिन सों कहिये।

बिनु गुरुपंथ न सूझई किस बिधा निरबहिये।

आवत कौ जाता कहैं जाते कौ आया।

परकी कौ अपनी कहैं अपनो नहिं भाया।

मीठे को कड़घआ कहैं कड़घए कौ मीठा।

राते की निन्दा करहिं ऐसा कलि महिं दीठा।

चेरी की सेवा करहिं ठाकुरु नहिं दीसै।

पोखर नीरु बिरोलिये माखनु नहिं रीसै।

इसु पद जो अरथाइ ले सो गुरू हमारा।

नानक चीने आप को सो अपर अपारा।

गुरु नानकदेव की मातृभाषा पंजाबी थी। इसके अतिरिक्त मुख्यत: पंजाब प्रान्त की हिन्दू जनता की जागृति के लिए ही उनको धर्म क्षेत्र में उतरना पड़ा था। इसलिए पंजाबी भाषा में उनकी अधिकांश रचनाओं का होना स्वाभाविक था। परन्तु जिस समय उनका आविर्भाव हुआ था उसकी यह विशेषता देखी जाती है कि उस समय प्रत्येक प्रान्त के हिन्दू धर्म प्रचारक और सुकवि हिन्दी भाषा की ओर आकर्षित हो रहे थे। यदि बंगाल प्रान्त के चण्डीदास और बिहार प्रान्त के विद्यापति हिन्दी भाषा को अपनी रचनाओं में स्थान देने के लिए आकर्षित हुए तो महाराष्ट्र प्रान्त में नामदेव जी को भी तात्कालिक हिन्दी भाषा में उत्तामोत्ताम धार्मिक रचनाएँ करते देखा जाता है। ऐसी अवस्था में गुरु नानक देव जी का भी हिन्दी भाषा की ओर आकृष्ट होना आश्चर्यजनक नहीं। उनके इसी भाव का द्योतक उनका हिन्दी भाषा का पद्य है, पहले पद्य में भी, जो पंजाबी भाषा का है,हिन्दी शब्दों का प्रयोग देखा जाता है और उनकी यह प्रणाली उनके हिन्दी भाषा के अनुराग की स्पष्ट सूचक है। उनके बाद उनके जितने उत्ताराधिकारी हुए उनमें यह प्रवृत्तिा उत्तारोत्तार बढ़ती दृष्टिगत होती है। दूसरी, तीसरी और चौथी गद्दियों के गुरुओं की रचनाएँ अधिकांश हिन्दी शब्दों से गर्भित हैं। पाँचवीं गद्दी के अधिकारी गुरु अर्जुन जी की रचनाएँ तो सामयिक हिन्दी भाषा का ही उदाहरण हैं। नौवीं गद्दी के अधिकारी गुरु तेगबहादुर के भजन तो बिलकुल हिन्दी भाषा में ही लिखे गये हैं। उनके पुत्र दसवीं गद्दी के अधिकारी गुरु गोविन्दसिंह ने हिन्दी भाषा में एक विशाल ग्रन्थ ही लिख डाला जो आदिग्रन्थ साहब के ही बराबर है और दशम ग्रन्थ कहलाता है। यथा स्थान इस विषय का वर्णन विशेषरूप से आपको आगे मिलेगा। इस समय मैं कुछ पद्य दूसरी गद्दी से लेकर पाँचवीं गद्दी और नौवीं गद्दी के अधिकारियों के नीचे लिखता हूँ। आप देखें उनमें किस प्रकार उत्तारोत्तार हिन्दी भाषा को अधिक स्थान मिलता गया है।

जासुख तासहु रागियो दुख भी संभालै ओइ।

नानक कहै सियाणिये यों कन्त मिलावा होइड्ड

- गुरु अंगद

तू आपे आप सभु करता कोई दूजाहोयसु औरो कहिये।

हरि आपे बोले आपि बुलावे हरि।

आपे जलि थलि रवि रहिये।

हरि आपे मारे हरि आपे छोडे मनहरि सरणी पड़ि रहिये।

हरि बिनु कोई मारि जीवालि न सक्कै

मन है निचिंद निस्चलु होइ रहिये।

उठंदिया बहंदिया सुतिया सदा हरि नाम धयाइये।

जन नानक गुरु मुख हरि लहिये।

- गुरु अमरदास

हौं क्या सालाहीकिरम जन्तु बव्ी तेरी बडियाई।

तू अगम दयालु अगम्मु है आपि लेहि मिलाई।

मैं तुझ बिन बेला को नहीं , तू अंति सखाई।

जो तेरी सरणागति तिन लेहि छुड़ाई।

नानक बे परवाहु है किसु तिल न तमाई।

संगति संत मिलाये। हरि सरि निरमलि नाये।

निरमलि जलि नाये मैलु गँवाये भये पवित्रा सरीरा।

दुर मति मैल गई भ्रम भागा हौं मैं विनठी पीरा।

नदरि प्रभू सत संगति पाई निज घर होआ बासा।

हरि मंगल रसि रसन रसाये नानक नाम प्रगासा।

- गुरु रामदास जी

गावहु राम के गुण गीत।

नाम जपत परम सुख पाइये आवागवणु मिटै मेरे मीत।

गुण गावत होवत परगास , चरण कमल महँ होय निवास।

सत संगति महँ होइ उधार , नानक भव जल उतरसि पार।

- गुरु अर्जुन जी

प्रानी नारायन सुधि लेह।

छिनु छिनु औधि घटै निसि बासरु वृथा जात है देह।

तरुनापो बिखियन स्यों खोयो बालापन अज्ञाना।

बिरधा भयो अजहूँ नहिं समझै कौन कुमति उरझाना।

मानुस जन्म दियो जेहिं ठाकुर सो तैं क्यों बिसरायो।

मुकति होति नर जाके सुमरे निमख न ताको गायो।

माया को मदु कहा करतु है संग न काहू जाई।

नानक कहत चेतु चिन्तामणि होइ है अन्त सहाई।

- गुरु तेग बहादुर

इसी स्थान पर मैं यह भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि इस पन्द्रहवीं शताब्दी में जिस निर्गुणवाद धारा की अधिक चर्चा की जाती है, वास्तव में वह धारा उस काल से प्रारम्भ होती है जिस समय स्वामी शंकराचार्य ने वेदान्तवाद का प्रचार किया। उनकी निर्गुण धारा का रूप वास्तविकता की दृष्टि से सर्वोत्ताम है किन्तु वह इतनी उच्च है कि सर्वसाधारण की बोधागम्य नहीं। मैक्समूलर ने एक स्थान पर लिखा है कि ईश्वरी विद्या के विषय में स्वामी शंकराचार्य जितना ऊँचा नहीं उठा जा सकता। गुरु गोरखनाथ जी ने इस निर्गुणवाद की जटिलताओं को बहुत कुछ सरलता का रूप दिया और भगवान शिव की उपासना का प्रचार करके अव्यक्त विषयों को व्यक्त रूप देने की प्रशंसनीय चेष्टा की। उसका विकास ज्ञानदेव और नामदेव की रचनाओं में अधिकतर बोधागम्य रूप में देखा जाता है। पन्द्रहवीं सदी के सन्तमत के प्रचारकों में विशेष कर कबीर साहब की उक्तियों में वह निर्गुणवाद कुछ और स्पष्ट हुआ, किन्तु वह पौराणिक भावों से ओतप्रोत है। पौराणिक धर्म का उत्थान गुप्त सम्राटों के समय में अर्थात् तीसरी और चौथी ईस्वी शताब्दी में हुआ और उत्तारोत्तार वृध्दि पाकर ईस्वी दसवीं शताब्दी में वह प्रबल बन गया था। यही कारण है कि पन्द्रहवीं शताब्दी में जितने धार्मिक प्रचार हुए वे सब पौराणिक धर्म पर अवलंबित हैं। कबीर साहब के निर्गुणवाद पर भी उसकी छाप लगी हुई है, अन्तर केवल इतना ही है कि उनके निर्गुणवाद पर सूफियों के ईश्वरवाद की भी छाया पड़ी है। वैष्णव धर्म में जैसा निर्गुणवाद है और उसके साथ जैसा सगुणवाद सम्मिलित है कबीर साहब का निर्गुणवाद ब्रह्म-सम्बन्धी सिध्दान्त भी लगभग वैसा ही है। कारण इसका यह है कि उनकी अधिकांश शिक्षाएँ वैष्णव धर्म से प्रभावित हैं और ऐसा होना इसलिए अनिवार्य था कि स्वामी रामानन्द का उन पर बहुत बड़ा प्रभाव था। कबीर साहब का निर्गुण ब्रह्म अनिर्वचनीय ही नहीं है, वह भक्तवत्सल है और पतित पावन भी है। प्रेमातिरेक में वे उसके दास बनते हैं और वह उनका स्वामी; वे उसके पुत्र बनते हैं और वह उनका पिता; वे उसकी प्रेमिका बनते हैं और वह उनका प्रेमी। वे नरक और आवागमन से भीत होकर उसकी शरण में जाते हैं और वह उध्दारक बनकर उनका उध्दार करता है। वे कहते हैं कि वह विपत्तिा में त्राण देता है, भवसागर से पार करता है और अशरण का शरण बनता है और इन बातों को पौराणिक आख्यानों और उदाहरणों द्वारा प्रमाणित करते हैं। जब वे और ऊँचा उठते हैं तो उसको सर्व जगत में व्याप्त पाते हैं और विश्व की विभूतियों में नाना रूपों में उसे विकसित देखकर अलौकिक आनन्द का अनुभव करते हैं। कभी जब आत्मविश्वास का उदय होता है, तब वह आत्मज्ञान अथवा आत्मा ही में परमात्मा को देखने का उद्योग करते हैं और कभी समाधि में बैठकर योग के अनेक साधानों द्वारा ब्रह्मानन्द-सुख-भोगी बनते हैं। कभी मुक्ति की कामना करते हैं, कभी मुक्ति को तुच्छ गिनकर भगवद्भक्ति को ही प्रधानता देते हैं। कभी संकेत और इंगितों द्वारा लोकातीत की अलौकिकता बतलाने में रत देखे जाते हैं, कभी अनिर्वचनीय की अनिर्वचनीयता देख मौनता मंत्रा ग्रहण करना ही समुचित समझते हैं। सारांश यह कि निर्गुण और सगुण के विषय में जो विचार-परम्परा पुराणवादियों और वेदान्तियों की देखी जाती है, पद-पद पर वे उसी का अनुसरण करते दृष्टिगत होते हैं। कोई पुराण ऐसा नहीं है जिसमें परमात्मा का वर्णन इसी रूप में न किया गया हो। पुराण्ों का सद्गुणवाद जैसा प्रबल है वैसा ही निर्गुणवाद भी। वे भी वेदान्त के भावों से प्रभावित हैं और वैष्णव पुराणों में उनका बड़ा ही हृदयग्राही विवेचन है। परन्तु वे जानते हैं कि निर्गुणवाद के तत्तवों को समझाना कतिपय तत्तवज्ञों का ही काम है। इसलिए उनमें सगुणवाद का ही विस्तार है, क्योंकि यह बोधा-सुलभ है। बिना उपासना किये उपासक सिध्दि नहीं पाता। उपासना-सोपान पर चढ़कर ही साधाक उस प्रभु के सामीप्य लाभ का अधिकारी बनता है जो ज्ञान-गिरा-गोतीत है। उपासना के लिए उपास्य की प्रयोजनीयता अविदित नहीं। यदि उपास्य अचिन्तनीय, अव्यक्त, अथवा ज्ञान का विषय नहीं तो उसमें भावों का आरोप नहीं हो सकता। ऐसी अवस्था में भक्ति किसकी होगी? प्रेम किससे किया जायगा और किसके गुणों का मनन चिन्तन करके मनुष्य अपनी आत्मा को उन्नत बना सकेगा। इन्हीं बातों पर दृष्टि रखकर परमात्मा के सगुण स्वरूप की कल्पना है। जो यह समझता है कि बिना सगुणोपासना किये हम परमात्मा के निर्गुण स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर लेंगे, वह उसी जिज्ञासु के समान है जो विश्व-नियन्ता का परिचय प्राप्त करना चाहता है किन्तु यह जानता ही नहीं कि विश्व क्या है। पुराण सगुणपथ का पथिक बनाकर निर्गुण की प्राप्ति कराते हैं, किन्तु बड़ी बुध्दिमत्ता और विवेक के साथ। यही कारण है कि मुख से निर्गुणवाद का गीत गाने वाले भी अन्त में पुराणशैली की परिधि के अन्तर्गत हो जाते हैं। चाहे कबीर साहेब हों, अथवा पन्द्रहवीं सदी के दूसरे निर्गुणवादी, उन सबके मार्ग-प्रदर्शक गुप्त या प्रकट रूप से पुराण ही हैं। हम देखते हैं कि निर्गुणवाद का नाद करने वाले जब बिना किसी प्रतीक के अवलम्बित पथ पर चलने में असमर्थ होते हैं तो गुरुदेव ही को ईश्वर स्वरूप मानकर उपासना में अग्रसर होते हैं, यह क्या है? सगुण की उपासना ही तो है। आजकल निर्गुणवादियों में यह प्रवृत्तिा अधिक प्रबल हो गई है। निर्गुणवादियों के एक नवीन संप्रदाय ने तो ईश्वर से मुँह मोड़कर खुल्लमखुल्ला गुरु को ही ईश्वर मान लिया है। चाहे जितना रूप बदला जाय, परन्तु यह भी पौराणिक सिध्दान्तों का ही अनुगमन है, क्योंकि वे कहते हैं-

गुरुर्ब्रह्मा , गुरुर्विष्णु: गुरुर्देवो महेश्वर: ,

गुरु: साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नम:।

पन्द्रहवीं शताब्दी में मुसलमानों का प्रभाव भारतवर्ष पर बहुत पड़ रहा था। उनकी राज्य-सत्ता उस समय तो प्रबल थी ही,उनके धर्मयाजक अथवा पीर भी अपने धर्म के विस्तार में तन, मन से निरत थे। इसलिए हिन्दू जाति पर उनके विचारों और भावों का बहुत अधिक प्रभाव पड़ रहा था। मुसलमान धर्म अवतारवाद, मूर्ति-पूजा और देववाद का कट्टर विरोधी है, और अपने विचारानुसार एकेश्वरवाद का प्रबल प्रचारक। यही कारण है कि उस समय के कबीर साहब जैसे कुछ धर्म प्रचारकों को निर्गुणवाद का राग अलापते देखा जाता है। क्योंकि समय उनकी अनुकूलता करता था और वे समय की गति पहचानकर स्वधर्म प्रचार में सफलता लाभ करने के कामुक थे। परन्तु सगुणवाद का विरोधी होने पर भी वे कभी सन्तों को ईश्वर का स्वरूप कहते थे और कभी गुरु को। कबीर साहब स्वयं कहते हैं-

निराकार की आरसी साधों ही की देह।

लखा जो चाहै अलख को इनही में लखि लेह।

कबिरा ते नर अंधा हैं गुरु को कहते और।

हरि रूठे गुरु ठौर है गुरु रूठे नहिं ठौर।

तीन लोक नौ खंड में गुरु ते बड़ा न कोय।

करता करै न करि सकै गुरु करै सो होय।

यह क्या है? रूपान्तर से सगुणवाद का प्रतिपादन है और प्रच्छन्न रूप से उस उद्देश्य का प्रतिपालन है जिसकी जननी पौराणिकता है।

इस शताब्दी में कुछ और ऐसे कवि हुए हैं जो कबीर साहब के पुत्र या शिष्य हैं, जैसे कमाल भग्गादास, धारमदास और श्रुति गोपाल। इन लोगों की रचनाएँ लगभग वैसी ही हैं जैसी पन्द्रहवीं शताब्दी की हिन्दी रचनाएँ अब तक उपस्थित की गई हैं। विषय भी इन लोगों का धार्मिक ही है। इसलिए इन लोगों की रचनाओं को लेकर कुछ विवेचन करना बाहुल्य मात्रा होगा। चरणदास, दयासागर और जयसागर जैन भी इसी शताब्दी में हुए हैं। परन्तु उनकी रचनाएँ भी लगभग वैसी ही हैं और समय के प्रवाहानुसार धर्म-सम्बन्धी ही हैं। इसलिए उनको भी छोड़ता हूँ। हाँ-इस शताब्दी का एक दामो नामक कवि ऐसा है जिसने सामयिक प्रवाह के प्रतिकूल 'पदमावती' नामक प्रेम कहानी की रचना की है। उसके ग्रंथ की कुछ पंक्तियाँ ये हैं-

सुणौ कथा रसलीन विलास।

योगी मरण (अउर) बनबास।

पदमावती बहुत दुख सहई।

मेलो करि कवि दामो कइर्ह।

इस पद्य की भाषा प्रांजल है और वैसी ही है जैसा स्वरूप पन्द्रहवीं शताब्दी में हिन्दी को प्राप्त हुआ था। केवल 'सुणौ' शब्द राजस्थानी है जो प्रान्तिक रचना होने के कारण उसमें आ गया।

(2)

सोलहवीं ई. शताब्दी को हम हिन्दी भाषा का स्वर्णयुग कह सकते हैं। इसी शताब्दी के आरम्भ में मलिक मुहम्मद जायसी ने अपने प्रसिध्द 'पदमावत' नामक ग्रन्थ की रचना की जो अवधी भाषा का आदिम ग्रन्थ है। इसी शताब्दी में हिन्दी-साहित्य गगन के उस सूर्य और चन्द्रमा का उदय हुआ, जिनकी आभा से वह आज तक उद्भासित है। आचार्य केशव, जो हिन्दी साहित्य के भामह और मम्मट हैं, उनका आविर्भाव भी इसी शताब्दी में हुआ और अकबर के राजस्व का वह उल्लेखनीय समय भी, जो मुसलमान साम्राज्य का उच्चतम काल कहा जाता है, इस शताब्दी का ही अधिकांश भाग है। इस शताब्दी में अवधी और ब्रज भाषा का जैसा शृंगार हुआ फिर कभी वैसा गौरव उनको नहीं प्राप्त हुआ। इस शताब्दी के हिन्दी साहित्य के विकास पर प्रकाश डालने के पहले मुझको एक बहुत बड़े धार्मिक परिवर्तन का वर्णन कर देना आवश्यक ज्ञात होता है। क्योंकि, ब्रज-भाषा के उत्थान और उसके बहुप्रान्तव्यापी होने का आधार वही है।

मैं पहले कह चुका हूँ कि किस प्रकार सूफी सम्प्रदाय वाले प्रेम मार्ग का विस्तार मुसलमानों की साम्राज्य-वृध्दि के साथ कर रहे थे और कैसे उनके इन मधुर भावों का प्रभाव भारतीय जनता पर पड़ रहा था। सूफी सम्प्रदाय वाले संसार की समस्त विभूतियों में ईश्वरीय सत्ता का विकास देखते हैं। वे परमात्मा की कल्पना प्रेम स्वरूप के रूप में करते हैं और अपने को उसका प्रेमिक मानकर प्रेम सम्बन्धी भावों को बड़ी ही मधुरता और सरसता से वर्णन करते हैं। उसके सम्मिलन के लिए जो उत्सुकता उनके हृदय में उत्पन्न होती है। उसका बड़ा ही मर्मस्पर्शी चित्रा उनकी रचनाओं में अंकित है। उनकी विरह वेदनाएँ भी बहुत ही विमुग्धाकारी और हृदयद्रवीभूत करने वाली हैं। वे जब अपनी उस अवस्था का वर्णन करते हैं जिस समय उनको इस बात का अनुभव होता है कि वे उससे किसी अवस्था विशेष के कारण पृथक हो गये हैं तो उसमें बड़ी मर्म-वेधिनी उक्तियाँ होती हैं, जो मनों को बेतरह अपनी ओर खींचती हैं। उस समय उनके प्रेम-मार्ग के इन बड़े विमोहक भावों ने हिन्दू जनता को बहुत कुछ अपनी ओर आकर्षित कर रखा था। पर हिन्दुओं के किसी धर्म सम्प्रदाय में ऐसी मधुरतम कल्पनाओं का आविष्कार तब तक नहीं हुआ था, जो सफलता के साथ उनका प्रतिकार कर सके। हिन्दू धर्म का भक्ति-मार्ग उच्च कोटि का है और बहुत ही सरस और मधुर भी है, परन्तु उतना सुलभ नहीं, उसमें कुछ गहनता भी है। वह सर्वसाधारण के लिए उतना मोहक नहीं जितना प्रेम। भक्ति में उच्चता है और वह महत्तामय उच्चकोटि के व्यक्तियों पर ही आधारित है। उसमें विशेषता के साथ त्यागमय धार्मिकता है परन्तु प्रेम में साधारणता है और उसमें सांसारिकता भी पाई जाती है। व्यापक प्रेम या प्रीति की पराकाष्ठा ही भक्ति है। इसीलिए भक्ति से उसमें अधिक व्यावहारिकता है और इस व्यावहारिकता के कारण ही मानव-समाज पर उसका अधिक अधिकार है। प्रेम के आदर्श की न्यूनता हिन्दू संसार में किसी काल में नहीं रही। प्रेम की महत्ता और उसकी लोकप्रियता के आदर्श का अभाव हिन्दू संस्कृति में कभी नहीं हुआ। परन्तु यह समय ऐसा था कि जब उसके व्यापक और महान आदर्शों को ऐसे मधुर और मोहक रूप में उपस्थित करने की आवश्यकता थी, जो सर्वसाधारण् को अपनी ओर आकर्षित कर सके, और सूफी सम्प्रदाय के उन प्रभावों को विफल बनावे जो उसके चारों और अविरामगति से विस्तृत हो रहे थे। मानव सम्प्रदाय में भक्ति-भावना जितनी प्रबल है, उतनी प्रेम भावना नहीं। भगवान रामचन्द्र मर्यादा पुरुषोत्ताम हैं और इसी रूप में वे हिन्दू संसार के सामने आते हैं। उनका कार्यक्षेत्र भी ऐसा है जहाँ धीरता, गम्भीरता, कर्मशीलता, कार्य करती दृष्टिगत होती है। उनके आदर्श उच्च हैं, साथ ही अतीव संयत। या तो वे कर्म्म-क्षेत्र में विचरण करते देखे जाते हैं या धर्म-क्षेत्र में। इसीलिए उनमें मधुर भाव की उपासना पहले नहीं लाई जा सकी जो बाद को गृहीत हुई। सबसे पहले समयानुसार इस ओर मधवाचार्य जी की दृष्टि गई। उन्होंने श्रीमद्भागवत के आधार से भगवान् श्रीकृष्ण की मधुर भावनामय उपासना की नींव डाली। पहले वे स्वामी शंकराचार्य के और रामानुज सम्प्रदाय के सिध्दान्तों ही की ओर आकर्षित थे। परन्तु श्रीमद्भागत की भक्ति-भावना ही उनके हृदय में स्थान पा सकी और उन्होंने दक्षिण प्रान्त में इस प्रकार की उपासना का आजीवन प्रचार किया। इनकी उपासना-पध्दति में भगवान कृष्णचन्द्र प्रेम के महान् आदर्श के रूप में गृहीत हुए हैं और गोपिकाएँ उनकी प्रेमिका के रूप में। जो सम्बन्धा गोपिकाओं का भगवान श्रीकृष्ण के साथ प्रेम के नाते स्थापित होता है, भगवान के साथ भक्त का वही सम्बन्धा वर्णित करके उन्होंने अपनी उपासना-पध्दति ग्रहण की। इसीलिए उनका सिध्दान्त द्वैतवाद कहलाता है। उन्हीं के सिध्दान्तों का प्रचार विष्णुस्वामी और निम्बार्काचार्य ने किया, केवल इतना अन्तर अवश्य हुआ कि गोपियों का स्थान उन्होंने श्रीमती राधिका को दिया। स्वामी बल्लभाचार्य ने इसी उपासना की नींव उत्तार-भारत और गुजरात में बड़ी ही दृढ़ता के साथ डाली और थोड़े परिवर्तन के साथ इस मधुर भावना का प्रसार बड़ी ही सरसता से भारतवर्ष के अनेक भागों में किया। स्वामी बल्लभाचार्य ने बालकृष्ण की उपासना ही को प्रधानता दी है इसीलिए उनका दार्शनिक सिध्दान्त शुध्दाद्वैतवाद कहलाता है। परन्तु जैसा मैंने ऊपर अंकित किया, समय की गति देखकर उनको राधाकृष्ण की युगलमूर्ति की उपासना ही को प्रधानता देनी पड़ी। उस समय यह उपासना पध्दति बहुत अधिक प्रचलित और आद्रित भी हुई। क्योंकि इस प्रणाली में सूफियों के उस प्रेम और प्रेमिक-भाव का उत्तामोत्ताम प्रतिकार था जिसका प्रचार वे उस समय भारत के विभिन्न भागों में तत्परता के साथ कर रहे थे। सूफियों के सम्प्रदाय में परमात्मा प्रेमपात्रा के रूप में देखा जाता है और सूफीभक्त अपने को उसके प्रेमिक के रूप में अंकित करते हैं। यह प्रणाली भारत के लिए इसलिए अधिक उपयोगिनी नहीं सिध्द हो सकती थी जितनी कि स्वामी बल्लभाचार्य की उद्भावित पध्दति। कारण इसका यह है कि पुरुष के प्रति पुरुष के प्रेम में वह स्वारस्य नहीं है जो पुरुष के प्रति स्त्राी के प्रेम में। भारत की यह चिर प्रचलित परंपरा और इस देश का ही आदर्श है कि स्त्रिायाँ पुरुषों पर आसक्त दिखलायी जाती हैं इसलिए श्रीमती राधिका को भगवान कृष्णचन्द्र पर उत्सर्गीकृत-जीवन बनाकर स्वामी वल्लभाचार्य या उनके पहले के आचार्यों ने जिस मर्मज्ञता का परिचय दिया और परमात्मा की जिस उपासना-पध्दति का आदर्श उपस्थित किया वह अभूतपूर्व और अधिकतर भाव-प्रवण है। योरोप का प्रसिध्द विद्वान् न्यूमैन क्या कहता है, उसे सुनिये1 “पुरुषों में तुम कितने ही पौरुष-विकास-सम्पन्न क्यों न हो, उच्चतर आधयात्मिक आनन्द की ओर प्रगति करने के लिए तुम्हारी आत्मा को नारीरूप ही ग्रहण करना होगा।”

भगवान के बालभाव की उपासना की कल्पना बड़ी ही मधुर है, साथ ही सर्वथा नवीन। स्वामी बल्लभाचार्य को छोड़कर यह उपासना पध्दति किसी के धयान में नहीं आई। जो धर्म अवतारवाद का मर्म नहीं समझ सकते, वे बालभाव की उपासना की कल्पना कर भी नहीं सकते। संसार के कुछ धाम्र्मों में परमात्मा को पिता और अपने को पुत्र मानकर उपासना करने की प्रणाली है। पर परमात्मा को बाल स्वरूप मानकर इसी भाव से उसकी उपासना करने की उद्भावना स्वामी वल्लभाचार्य का ही आविष्कार है। उपासना का प्रयोजन यह है कि परमात्मा के अशेष गुणों का मनन और चिन्तन करके तदनुरूप अपने को बनाना, आर्य धर्म का यह सिध्दान्त वाक्य है 'यच्चिन्तति तद्भवति' मनुष्य जैसा सोचता है वैसा ही बनता है। पौराणिक धर्म के नाम जपने की बड़ी महिमा है। निर्गुणवादियों में यह सिध्दान्त बहुत व्यापक रूप में गृहीत है।

1. -"If my soul is to go on into high spiritual blessedness, it must become a woman; yes, however, manly thou may be among men."-Newwman.]

उद्देश्य इसका यही है कि बिना नाम के परिचय नहीं होता, और बिना परिचय के गुण-ग्रहण की संभावना नहीं। किन्तु नाम जपने का लक्ष्य भी तादात्म्य और गुण-ग्रहण ही है, अन्यथा उपासना व्यर्थ हो जाती है। इसीलिए भगवद्गीता का यह महावाक्य है, 'ये यथा मां प्रपद्यन्ते तान् तथैव भजाम्यहम्'। मुझको जो जिस रूप में भजता है, मैं उसको उसी रूप में प्राप्त होता हूँ। बालभाव की उपासना का अर्थ है बालकों के समान निरीह, निर्दोष और सरल अवस्था को प्राप्त करना। कहा जाता है, बालक सदैव स्वर्गीय वातावरण में विचरता रहता है, इस कथन का मर्म यह है कि वह समस्त सांसारिक बन्धानों और झगड़ों से मुक्त होता है और उसके भावों में एक स्वर्गीय मधुरता विद्यमान रहती है। बालभाव की उपासना में माधार्ुय्य-भावना की चरम सीमा दृष्टिगत होती है। परन्तु इस अवस्था का प्राप्त करना सहज नहीं। बाल्यावस्था के बाद जो अवस्थाएँ सामने आती हैं,उनको बिलकुल भूल जाना बहुत बड़ी साधाना से सम्बन्धा रखता है। भारतवर्ष में सौ-डेढ़ सौ वर्ष के भीतर अनेक महात्माओं का आविर्भाव हुआ है। उनमें से एक परमहंस रामकृष्ण को कभी बालभाव में मग्न देखा जाता था। परन्तु उनको भी यह अवस्था कुछ काल के लिए ही प्राप्त होती थी। सदैव इस दशा में वे नहीं रह सकते थे। इसी असम्भवता के कारण स्वामी वल्लभाचार्य प्रचारित बालभाव उपासना की पध्दति को व्यापकता नहीं प्राप्त हुई। उनकी प्रेमिका और प्रेमिक भाव की उपासना ही व्यापक रूप से गृहीत हुई और आज भी उसकी मधुरता उसके अधिकारियों को विमुग्धा कर रही है। अद्वैतवाद में साधाक को अपनी सत्ता को विलोप कर देना पड़ता है, क्योंकि द्वैत का भाव उत्पन्न होते ही अद्वैत भाव सुरक्षित नहीं रह सकता। इसीलिए इस मार्ग पर चलना अत्यन्त दुर्लभ है। कोई-कोई सच्चा उच्च कोटि का ज्ञानमार्गी ही उस पध्दति का अधिकारी हो सकता है। भक्ति मार्ग में अपनी सत्ता को सर्वथा लोप करना नहीं पड़ता। परन्तु, मर्यादा पद-पद पर उसकी सहचरी रहती है, क्योंकि भक्ति महत्ता के अभाव में उत्पन्न नहीं होती और महान् पुरुष के साथ मर्यादा का उल्लंघन नहीं हो सकता। इसलिए मानवी सत्ता भक्ति-मार्ग में बन्धानों से मुक्त नहीं होती और अनेक अवस्थाओं में उसकी वांछित स्वतंत्राता में बाधा भी पड़ती रहती है। प्रेम-पथ इन बन्धानों से मुक्त रहता है। उसमें अपनी सत्ता तो बहुत कुछ सुरक्षित रहती ही है उसकी स्वतंत्राता में भी उतनी बाधा नहीं पड़ती। प्रेमिका प्रेम-पात्रा को यथावसर टेढ़ी-मेढ़ी बातें भी कह देती हैं और दिल खोलकर उपालम्भ देने में भी संकुचित नहीं होती। ऐसा वह प्रेमातिरेक के वश में होकर ही करती है। दम्भ अथवा अभिमान से नहीं। यही कारण है कि यह उपासनापध्दति अधिकतर गृहीत हुई और माधुर्य भावना कही गई। आज दिन भारतवर्ष काकौन-सा प्रदेश है, जिसमें वल्लभाचार्य सम्प्रदाय के मन्दिर नहीं और जिसमें राधा-कृष्ण की मूर्ति विराजमान नहीं? रामावत सम्प्रदाय भी इस माधुर्य भाव की उपासना से प्रभावित हुआ और उसमें भी आजकल सखी भाव की सृष्टि होकर यह पध्दति गृहीत हो गईहै।

भगवान कृष्णचन्द्र जैसे विलक्षण प्रेमस्वरूप प्रेमिक हैं। श्रीमती राधिका वैसी ही प्रेम-प्रतिमा। असंख्य ब्रह्माण्ड के अधिप आकाश का जो वर्ण है, वही वर्ण प्रेमावतार श्रीकृष्णचन्द्र का है, जो इस बात का सूचक है कि जो इस रंग में सच्चे जी से रँगा उसने माधुर्य समुद्र में ही प्रवेश किया, आजन्म उसमें ही निमग्न रहा। श्यामायमाना वसुन्धारा में भी वही छटा दृष्टिगत होती है और विश्वविरामदायिनी रजनी में भी वे विश्वरूप हैं, इसलिए सूर्य, शशांक, वद्दि नयन हैं; मयूर-मुकुट-मण्डित, बनमाली, एवं गिरिधार भी हैं। ब्रह्माण्ड की चोटी के धवन्यात्मक स्वर से उनको मुरलिका स्वरित है, जिसको सुन सलिल-प्रवाह रुक जाता है,पवन नर्तन करने लगता है, दिशाएँ प्रफुल्ल हो जाती हैं और वृक्ष का पत्ता-पत्ता तक आनन्द से आन्दोलित होने लगता है। वे लोक ललाम हैं। अतएव कोटिकाम कमनीय हैं, वे सच्चिदानन्द हैं, इसलिए संसार सुख के सर्वस्व हैं, माधुर्यमय विभूति के मूल हैं, एवं लोक-लीलाओं के लोकोत्तार आधार। उन्हीं की तद्गता प्रेमिका और आराधिका श्रीमती राधिका हैं। वे भी उन्हीं के समान लोकोत्तार सुन्दरी और अलौकिक शक्तिशालिनी हैं। उनका संयोगमय जीवन बड़ा ही भावमय, उदात्ता और सहृदय-हृदय-संवेद्य है। उनकी रागात्मिका प्रकृति जितनी ही लोक-रंजिनी है उतनी ही चमत्कारमयी। वे इतनी प्रेमपरायणा हैं कि प्रियतम का क्षणिक वियोग भी सह्य नहीं, किन्तु इतनी आत्मावलंबिनी हैं कि वियोग अवस्था उपस्थित होने पर वे विश्वमात्रा में अपने आराधयदेव की विभूतियों को अवलोकन करती हैं और इस प्रकार अपने उन्मत्ताप्राय हृदय में वह रसधारा बहाती हैं जिसको सुधाधारा से भी सरस कह सकते हैं। उनकी वियोग वेदनाएँ पत्थर को भी द्रवीभूत करती हैं, किन्तु इस सिध्दान्त का अनुभव कराती हैं कि 'प्रेम की पीड़ाएँ बड़ी मधुर होती हैं।'

-(Love's pain is very sweet)

महाप्रभु वल्लभाचार्य का सिध्दान्त इन्हीं युगल मूर्तियों पर अवलम्बित है। इसीलिए वह इतना हृदयग्राही, मनोहर और व्यापक है कि वही विविधा विदेशी भाव-प्रवाह में बहती हुई हिन्दू जनता का प्रधान पोत बना। उनके इस लोक-मोहक सिध्दान्त के मूर्तिमन्त अवतार चैतन्य देव थे। यह भी हिन्दू जनता का सौभाग्य है कि वे भी उसी समय में अवतीर्ण हुए और अपने आचरणों द्वारा उन्होंने ऐसा आदर्श उपस्थित किया, जिससे इस युगल-मूर्ति के प्रेम प्रवाह में बंगाल प्रान्त निमग्न हो गया। उनके विषय में बंगाल प्रान्त के प्रसिध्द विद्वान् और प्रतिष्ठित लेखक दिनेशचन्द्र सेन बी. ए. क्या कहते हैं, सुनिये-

“यदि चैतन्यदेव न जन्म लेते तो श्रीराधा का जलद-जाल को देखकर नेत्रों से अश्रु बहाना, कृष्ण का कोमल अंग समझ कर कुसुमलता का आलिंगन करना,टकटकी बाँधाकर मयूर-मयूरी के कण्ठ को देखते रह जाना, और नव-परिचय का सुमधुर भावावेश

कवि की कल्पना बन जाती एवं भाव के उच्छ्वास से उत्पन्न हुई उनकी विभ्रममय आत्मविस्मृति आजकल के असरस युग में कवि-कल्पना कही जाकर उपेक्षित होती। किन्तु चैतन्यदेव ने श्रीमद्भागवत और वैष्णव गीतों की सत्यता प्रमाण्0श्निात कर दी। उन्होंने दिखलाया कि यह विराट् शास्त्रा भक्ति की मित्तिा पर, नयनों के अश्रु पर, और चित्ता की प्रीति पर अचल भाव से खड़ा है। इस शास्त्रा के शोभा सर्वस्व पूर्वराग, विरह, सम्भोग, मिलन इत्यादि से सम्बन्धा रखने वाली जितनी ललित लीलाओं की सरस धाराएँ वही हैं, वे कल्पित नहीं हैं। उनका आस्वादन हुआ है और वे आस्वादन योग्य हैं। प्रेम की अद्भुत स्फूर्ति से चैतन्य देव की देह कदम्ब पुष्प के समान रोमाि×चत बनती, उन्हें समुद्र की लहरें यमुना की लहरें जान पड़तीं, चटक पर्वत गोवर्ध्दन प्रतीत होता, और उनके लिए पृथ्वी कृष्णमय हो जाती। इसी अपूर्व भक्ति और प्रेम की सामग्री के आधार से श्रीमती राधिका सुन्दरी सृष्ट हुई हैं। उनके विरहजन्य कष्ट की एक कणिका धारण करे, अथवा उनके सुख की एक लहरी का अनुभव कर सके, इस प्रकार का नारी-चरित्रा पृथ्वी तल के काव्योद्यान में नहीं पाया जाता”। 1अब तक इस विषय में जो कुछ लिखा गया उससे यह सिध्द होता है कि सोलहवीं शताब्दी में महाप्रभु वल्लभाचार्य ने कृष्ण-प्रेम की जो सरस धारा बहाई वह समयोपयोगी थी और उसका उस काल और उसके बाद के हिन्दी साहित्य पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा।

(3)

इस शताब्दी में जिस प्रकार एक नवीन धर्म का प्रवाह प्रवाहित होकर हिन्दू-जाति की धार्मिक प्रवृत्तिा में एक अभिनव स्फूर्ति उत्पन्न करने का साधान हुआ। उसी प्रकार हिन्दी भाषा सम्बन्धी साहित्य में ऐसी दो मुग्धाकारी मूत्तिायाँ भी सामने आईं, जो उसको बहुत बड़ी विशेषता प्रदान करने में समर्थ हुईं। वे दोर् मूत्तिायाँ ब्रजभाषा और अवधी की हैं। इन दोनों उपभाषाओं में जैसा सुन्दर और उच्चकोटि का साहित्य इस शताब्दी में विरचित हुआ फिर अब तक वैसा साहित्य हिन्दू-संसार सर्वसाधारण के सामने उपस्थित नहीं कर सका। इसलिए इस काल के कविगण की चर्चा करने के पहले यह उचित ज्ञात होता है कि इन उपभाषाओं की विशेषता पर कुछ प्रकाश डाला जाये, जिससे इनमें हुई रचनाओं की महत्ता और स्वाभाविकता स्पष्टतया बतलायी जा सके। इस विचार को सामने रखकर अब मैं इनकी विशेष प्रणालियों को यहाँ उपस्थित करता हूँ।

अवधी और ब्रजभाषा की कुछ विशेषताएँ तो ऐसी हैं जो दोनों ही में समान हैं। इसलिए मैं पहले उन्हीं की चर्चा करता हूँ,बाद में उनकी भिन्नताएँ भी बतलाऊँगा। इन दोनों भाषाओं में प्राकृत भाषा के समान संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग अधिकतर

1. देखिए, बंग भाषा और साहित्य का पृ. 243, 244।

नहीं देखा जाता। ये दोनों अर्ध्दतत्सम विशेष कर तद्भव शब्दों ही पर अवलम्बित हैं। सुख, मन, धान जैसे थोड़े से संस्कृत के तत्सम शब्द ही इनमें पाये जाते हैं। स्वरों में ऋ िंऔर लृ लृ का प्रयोग होता ही नहीं। ऋ के स्थान पर रि का ही प्रयोग प्राय: मिलता है। इनमें ऋतु और ऋजु रितु और रिजु बन जाते हैं। हाँ! कृपा जैसे शब्दों में संयुक्त ऋ का व्यवहार अवश्य देखा जाता है। इन दोनों में एक प्रकार से 'श', 'ण', और 'क्ष' का अभाव है। क्रमश: उनके सथान पर स, न, और छ लिखा जाता है। केवल 'श्री' में शकार का उच्चारण सुरक्षित रहता है। ष का प्रयोग होता है, पर पढ़ा वह ख जाता है। युक्त विकर्ष इनका प्रधान गुण है। अर्थात् संयुक्त वर्णों को ये अधिकतर सस्वर कर लेती हैं, जैसे सर्व को सरब, गर्व को गरब, कर्म को करम, धर्म को धारम, स्नेह को सनेह इत्यादि। ऊधर्वगामी रेफ या रकार अवश्य सस्वर हो जाता है, परन्तु जो रकार ऊधर्वगामी नहीं पाद लग्न होता है वह प्राय: संयुक्त रूप ही में देखा जाता है, विशेष कर वह जो आदि अक्षर के साथ सम्मिलित होता है, जैसे क्रम इत्यादि। ऐसे ही कोई-कोई संयुक्त वर्णसस्वर नहीं होता जैसे अस्त का स। यह देखा जाता है कि संयुक्त वर्ण को जहाँ सस्वर करने से शब्दार्थ भ्रामक हो जाता है वहाँ वह सुरक्षित रह जाता है जैसे यदि क्रम को करम और अस्त को असत लिख दिया जाय तो जिस अर्थ में उनका प्रयोग होता है उस अर्थ की उपलब्धिा दुस्तर हो जाती है। दोनों में जितने हलन्त वर्ण संस्कृत के आते हैं, वे सब सस्वर हो जाते हैं, जैसे वरन् का न् इत्यादि। व्यंजनों का प्रत्येक अनुनासिक अथवा पंचम वर्ण दोनों ही में अनुस्वार बन जाता है जैसे अ(, कल(, प(ज, इत्यादि को क्रमश: अंक, कलंक पंकज लिखा जायगा। इसी प्रकार चझल, सझय,किझित इत्यादि क्रमश: चंचल, संचय और किंचित हो जाएँगे। कण्टक, खंडन, मण्डन, पण्डित का रूप क्रमश: कंटक, खंडन,मंडन, पंडित होगा। आनन्द, अन्त और सन्त का रूप क्रमश: आनंद, अंत और संत हो जायगा और सम्पत्तिा, दम्पती, कम्पित इत्यादि क्रमश: संपत्तिा, दंपती और कंपित बन जायँगे। प्राकृत के कुछ प्राचीन शब्द ऐसे हैं जो दोनों में समान रूप से गृहीत हैं जैसे नाह, लोयन, सायर इत्यादि। कुछ शब्दों के मधय का 'व', 'औ', से, और 'य', 'ऐ' से प्राय: बदल जाता है, जैसे पवन का पौन, भवन का भौन, रवन का रौन इत्यादि और नयन का नैन, बयन का बैन, सयन का सैन इत्यादि। परन्तु विकल्प से तत्सम रूप भी कहीं-कहीं वाक्य के स्वारस्य पर दृष्टि रखकर लिख दिया जाता है। अपभ्रंश के प्रथमा, द्वितीया और षष्ठी विभक्तियों का लोप प्राय: देखा जाता है। अवधी और ब्रजभाषा में इनका तो लोप होता ही है, सप्तमी विभक्ति का लोप भी होता है यथावसर अन्य विभक्तियों का भी। अपभ्रंश में प्रथमा और द्वितीया के एकवचन में प्राय: उकार का संयोग प्रातिपदिक शब्दों के अंतिम अक्षर में देखा जाता है। अवधी और ब्रजभाषा में भी यह प्रणाली गृहीत है। कभी-कभी विशेषण और अव्ययों में भी वह दिखलाई पड़ता है। गुरु को लघु और लघु को गुरु आवश्यकतानुसार दोनों में कर दिया जाता है। पूर्व कालिक क्रिया बनाने के समय धातु का चिद्द 'ना' दूर करके उसके बाद वाले वर्ण में इकार का प्रयोग दोनों करती हैं, जैसे 'करि', 'धारि', 'सुनि'इत्यादि। यह इकार तुकान्त में दीर्घ भी हो जाता है। ब्रजभाषा में बहुवचन के लिए न का प्रयोग होता है। जैसे 'घोरा' का'घोरान', और 'छोरा' का 'छोरान', परन्तु दूसरा रूप 'घोरन' और 'छोरन' भी बनता है। अवधी में केवल दूसरा ही रूप होता है। गोस्वामी जी लिखते हैं-'तुरत सकल लोगन पँह जाहू', पुरवासिन देखे दोउ भाई ' हरिभक्तन' देखेउ दोउ भ्राता। परन्तु जायसी को न के स्थान पर न्ह का प्रयोग ही बहुधा करते देखा जाता है। प्रकृति के साथ विभक्ति मिलाकर लिखने की प्रणाली दोनों भाषाओं में समान रूप से पाई जाती है। ब्रजभाषा का पुराना रूप 'रामहि', 'बनहि', 'घरहि' और नये 'रामै', 'बनै', 'घरै' इसके प्रमाण हैं। अवधी में भी यह बात देखी जाती है, जैसे 'घरे जात बाटी' का 'घरे', 'नैहरे जोय' 1का नैहरे। 'जाना', 'होना' के भूतकाल के रूप 'गवा' और भवा में से 'व' निकालने पर जैसे अवधी में 'गा' 'भा' रूप बनते हैं वैसे ही ब्रजभाषा में भी गयो,भयो, के 'य' को हटाकर 'गो' 'भो' बनाया जाता है जो बहुवचन में 'गे' 'भे' हो जाता है। ब्रजभाषा के करण का चिद्द 'ते' और अवधी के करण का चिद्द 'से' भूतकालिक कृदन्त में ही लगते हैं, जैसे 'किये ते' और 'किये से' जिनका अर्थ है 'करने से'। ब्रजभाषा और अवधी दोनों में कृदन्त का रूप समान अर्थात् लघ्वन्त होता है, जैसे 'गावत', 'खात', अलसात, 'जम्हात'इत्यादि। अन्तर इतना ही है कि ब्रजभाषा में 'गावतो', 'अलसातो' इत्यादि भी लिख सकते हैं। ब्रजभाषा में धातु के अन्त में'नो' होता है जैसे 'करनो' 'कहनो' आदि; दूसरे के अन्त में 'न' पाया जाता है जैसे 'लेन' 'देन' इत्यादि और तीसरे के अन्त में'बो' होता है, जैसे 'दैबो' 'लैबो'। देना लेना के दीबो, लीबो भी रूप बनते हैं। इन तीनों रूपों में से पहला रूप कारक चिद्द-ग्राही नहीं होता। शेष दो में कारक चिद्द लगते हैं, जैसे लेन को, देन को, लैबे को, दैबे को इत्यादि। अवधी में साधारण क्रिया के अन्त में केवल 'ब' रहता है, जैसे 'आउब' 'जाब' 'करब' इत्यादि। मधयम पुरुष का विधि 'ब', में 'ई' मिलाकर ब्रज के दक्षिण भाग में बुन्देलखंड तक बोलते हैं, जैसे 'आयबी' 'करबी' इत्यादि। यह ब्रजभाषा का व्यापक प्रयोग है।

अब मैं ब्रजभाषा और अवधी के उन प्रयोगों को बतलाता हूँ जिनमें भिन्नता है। ब्रजभाषा में भूतकाल की सकर्मक क्रिया के कत्तर् के साथ 'ने' का चिद्द आता है। हाँ, यह अवश्य है कि इस भाषा के कुछ कवियों ने ही इसका प्रयोग कदाचित किया है। सूरदासादि महाकवियों ने प्राय: ऐसा प्रयोग नहीं किया। अवधी में 'ने' का प्रयोग बिल्कुल नहीं होता। बचन के सम्बन्धा में यह देखा जाता है कि ब्रजभाषा में एकवचन का बहुवचन सभी अवस्थाओं में होता है, जैसे 'लड़का' का 'लड़के' अलि का अलियाँ इत्यादि। अवधी में एकवचन का बहुवचन कारक चिद्द लगने पर

1. बन में अहिर नैहरे जोय। जल में केवट केहुक न होय।

ही होता है। ब्रजभाषा में भविष्यकाल की क्रिया केवल तिङ्न्त ही नहीं होती, उसमें खड़ी बोली के समान 'ग' का व्यवहार भी होता है। जैसे, 'गावैगो' इत्यादि। परन्तु अवधी में 'करिहइ', 'कहिहइ' आदि तिड्न्त रूप ही बनता है। अवधी इकार-बहुला और ब्रजभाषा यकार-बहुला है। पूर्वकालिक क्रिया का अवधी रूप 'उठाइ', 'लगाइ', 'बनाइ', 'होइ', 'रोइ', इत्यादि होगा। किन्तु ब्रजभाषा का रूप 'उठाय', 'लगाइ', 'लगाय', 'बनाय', 'होय', रोय आदि बनेगा। इसी प्रकार अवधी का 'करिहइ', 'चलिहइ', 'होइहइ'ब्रजभाषा में 'करिहय', 'चलिहय', 'होइहय' हो जायगा। परन्तु अन्तर यह होता है कि लिखने अथवा व्यवहार के समय ब्रजभाषा में 'हय', 'है' हो जाता है। इसलिए उसको 'करिहै', 'चलिहै', 'होयहै' इत्यादि लिखते हैं। इसी प्रकार अवधी का 'इहाँ' ब्रजभाषा में'यहाँ' बन जाता है। अवधी का 'उ' ब्रजभाषा में 'व' हो जाता है जैसे 'उहाँ' का वहाँ और 'हुऑं' का 'ह्नाँ', ब्रजभाषा के शब्द प्राय: खड़ी बोली के समान दीर्घान्त होते हैं। खड़ी बोली की ऐसी पुलिú संज्ञाएँ, जो कि आकारान्त हैं, ब्रजभाषा में ओकारान्त बन जाती हैं। विशेषण एवं सम्बन्धा कारक के सर्वनाम भी इसी रूप में दृष्टिगत होते हैं। जैसे 'रगरो', 'झगरो', 'छोरो', 'थोरो', 'साँवरो', 'गोरो', 'कैसो', 'जैसो', 'तैसो', 'बड़ो', 'छोटो', 'हमारो', 'तुम्हारो', 'आपनो' इत्यादि इसी प्रकार आकारान्त साधारण भूत कालिक कृदन्त क्रियाएँ भी ओकारान्त बनती हैं, जैसे 'आयो', 'दीबो', 'लीबो' इत्यादि। पर अवधी के शब्द अधिकतर लघ्वन्त या अकारान्त होते हैं जिससे लिंग भेद का प्रपंच कम होता है जैसे, 'अस', 'जस', 'तस', 'छोट', 'बड़', 'थोड़', 'गहिर', 'साँवर' 'गोर', 'ऊँच', 'नीच', 'हमार', 'तोहार' इत्यादि। 'मोट', 'दूबर', 'पातर' इत्यादि विशेषण और आपन, मोर, तोर, सर्वनाम एवं 'केर', 'सन', तथा 'कहँ', 'महँ' कारक के चिद्द भी इसके प्रमाण हैं। अवधी में साधारण क्रिया का रूप भी प्राय: लघ्वन्त ही होता है जैसे 'करब', 'धारब', 'हँसब', 'बोलब', इत्यादि। अवधी के 'हियाँ', 'सियार', 'कियारी', 'बियाह', 'बियाज', 'नियाव', 'पियास'आदि शब्द ब्रजभाषा में 'ह्याँ', 'स्यार', 'क्यारी', 'ब्याह', 'ब्याज', 'न्याव', 'प्यास', आदि बन जाते हैं। अर्थात् ऐसे शब्दों के आदि वर्ण का इकार स्वर लोप हो जाता है और वह हलन्त होकर परवर्ण में मिल जाता है। ऐसा अधिकांश उसी शब्द में होता है जिसके मधय में 'या' होता है। 'उ' के पश्चात् 'आ' का उच्चारण भी ब्रजभाषा के अनुकूल नहीं है। अवधी भाषा का 'दुआर' और'कुँआर' ब्रजभाषा में 'द्वार' और 'क्वार' अथवा 'क्वारो' बन जाता है। 'ऐ' और 'औ' का उच्चारण अवधी में 'अइ' और 'अउ' के समान होता है, जैसे 'अउर', 'अइसा', 'कउआ', 'हउआ'। परन्तु ब्रजभाषा में उसका उच्चारण प्राय: ऐ और 'औ' के समान होता है, जैसे 'ऐसा', 'कन्हैया', और 'कौआ' इत्यादि। ब्रजभाषा और अवधी दोनों में वर्तमानकाल और भविष्यकाल के तिङन्त रूप भी मिलते हैं और उनमें लिंग भेद नहीं देखा जाता। किन्तु ब्रजभाषा के वर्तमान कालिक क्रिया के रूप में यह विशेष बात पाई जाती है कि उनमें इस प्रकार की क्रियाएँ 'होना' धातु के रूप के साथ बोली जाती हैं। 'पढ़ना' क्रिया का रूप उत्ताम पुरुष में'पढ़ै हौं', या 'पढ़ईँ हूँ', मधयम पुरुष में 'पढ़ो हो' और अन्य पुरुष में 'पढै है' होगा। अवधी में भी इसी प्रकार का प्रयोग होता है। गोस्वामी जी लिखते हैं-

' गहै घ्राण बिनु बास अशेषा '

' पंगु चढ़ै गिरवर गहन '

परन्तु भविष्य काल के तिङन्त रूप अवधी और ब्रजभाषा में एक ही प्रकार के होंगे। अवधी में होगा 'करिहइ', 'होइहइ'और ब्रजभाषा में होगा करिहइ = करिहै, होइहय = होयहै या ह्नै है। अवधी के उत्ताम पुरुष में होगा 'खइहउँ', किन्तु ब्रजभाषा में होगा 'खयहौं = खैहों। अन्तर केवल यही होगा कि जहाँ अवधी में 'इ' का प्रयोग होगा वहाँ ब्रजभाषा में य का। पहले सर्वनाम में जब कारक-चिद्द लगाया जाता था तब अवधी और ब्रजभाषा दोनों में 'हि' का प्रयोग कारक के पहले होता था। परन्तु अब दोनों में 'हि' को स्थान नहीं मिलता है। जैसे अवधी 'केहिकर' और 'जेहिकर', 'केकर' और 'जेकर' बन गया है,उसी प्रकार ब्रजभाषा का 'काहि को' 'जाहि को' अब 'काको', 'जाको' बोला जाता है। ब्रजभाषा में 'आवहिं', 'जाहिं' का प्रयोग भी मिलता है और उसके दूसरे रूप 'आवैं,' 'जायँ' का भी। कुछ लोगों का विचार है कि पहला रूप प्राचीन है और दूसरा आधुनिक। इसी प्रकार 'इमि', 'जिमि', 'तिमि' के स्थान पर 'यों', 'ज्यों', 'त्यों' का व्यवहार भी देखा जाता है। इनमें भी पहले रूप को प्राचीन और दूसरे को आधुनिक समझते हैं। परन्तु अब तक दोनों रूप ही गृहीत हैं, कुछ लोग आधुनिक काल में दूसरे प्रयोगों को ही अच्छा समझते हैं। कुछ भाषा मर्मज्ञ कहते हैं कि ब्रज की बोल-चाल की भाषा में केवल सर्वनाम के कर्म कारक में'ही' कुछ रह गया है जैसे 'जाहि', 'ताहि' या जिन्हैं, तिन्हैं आदि में। परन्तु दिन-दिन उसका लोप हो रहा है और अब 'जाहि', 'वाहि', के स्थान पर 'जाय' 'वाय' बोलना ही पसंद किया जाता है। किन्तु यह मैं कहूँगा कि 'जाय' 'वाय' आदि को बोलचाल में भले ही स्थान मिल गया हो, पर कविता में अब तक 'जाहि' 'वाहि' का अधिकतर प्रयोग है।

अवधी और ब्रजभाषा की समानता और विशेषताओं के विषय में मैंने अब तक जितना लिखा है वह पर्याप्त नहीं कहा जा सकता, परन्तु अधिकांश ज्ञातव्य बातें मैंने लिख दी हैं। अवधी और ब्रजभाषा के कवियों और महाकवियों की भाषा का परिचय प्राप्त करने और उनके भाषाधिकार का ज्ञान लाभ करने में जो विवेचना की गई है, मैं समझता हूँ उसमें वह कम सहायक न होगी। इसलिए अब मैं प्रकृत विषय की ओर प्रवृत्ता होता हूँ।

(4)

इस शताब्दी के आरम्भ में सबसे पहले जिस सहृदय कवि पर दृष्टि पड़ती है वह पर्िंवत के रचयिता मलिक मुहम्मद जायसी हैं। यह सूफी कवि थे और सूफी सम्प्रदाय के भावों को उत्तामता के साथ जनता के सामने लाने के लिए ही उन्होंने अपने इस प्रसिध्द ग्रन्थ की रचना की है। जिन्होंने इस ग्रन्थ को आद्योपान्त पढ़ा है, वे समझ सकते हैं कि स्थान-स्थान पर उन्होंने किस प्रकार और किस सुन्दरता से सूफी भावों का प्रदर्शन इसमें किया है।

इनके ग्रन्थ के देखने से पाया जाता है कि इनके पहले 'सपनावती' 'मुगधावती', 'मृगावती', 'मधुमालती' और 'प्रेमावती'नामक ग्रन्थों की रचना हो चुकी थी। इनमें से मृगावती और मधुमालती नामक गन्थ प्राप्त हो चुके हैं। शेष-ग्रन्थों का पता अब तक नहीं चला। 'मृगावती' की रचना कुतबन ने की है और मधुमालती की मंझन नामक कवि ने। इन दोनों का समय पन्द्रहवीं शताब्दी का अन्तिम काल ज्ञात होता है। ये दोनों सूफी कवि थे और इन्होंने भी अपने ग्रन्थों में स्थान-स्थान पर अपने सम्प्रदाय के सिध्दान्तों का निरूपण बड़ी सरलता के साथ किया है। इन सूफी कवियों में कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जो लगभग सबमें पाई जाती हैं। पहली बात यह कि सब के ग्रन्थों की भाषा प्राय: अवधी है। सभी ने हिन्दी छन्दों को ही लिया है, और दोहा-चौपाई में ही अपनी रचनाएँ की हैं। प्रेम-कहानी ही का कथन उनका उद्देश्य होता है, क्योंकि उसी के आधार से संयोग, वियोग और प्रेम के रहस्यों का निरूपण वे यथाशक्ति करते हैं, इस प्रेम का नायक और नायिका अधिकांश कोई उच्च कुल का हिन्दू प्राय: कोई राजा या रानी होती है। इन सुकवियों की विशेषता यह है कि वे सद्भाव के साथ अपने ग्रन्थ की रचना करते देखे जाते हैं, कटुता बिलकुल नहीं आने देते। वर्णन में इतनी आत्मीयता होती है कि उनके पढ़ने से यह नहीं ज्ञात होता कि किसी दुर्भावना के वश होकर इनकी रचना की गयी है, या किसी विधार्मी या विजातीय की लेखनी से वह प्रसूत है। प्रेम-मार्गी होने के कारण वे प्रेम मार्ग का निर्वाह ही अपनी रचनाओं में करते हैं और सूफी मत की उदारता पर आरूढ़ होकर उसमें ऐसी आकर्षिणी शक्ति उत्पन्न करते हें जो अन्य लोगों के मानस पर बहुत कुछ प्रभाव डालने में समर्थ होती है। मलिक मुहम्मद जायसी इन सब कवियों में श्रेष्ठ हैं। और उनकी कृतियाँ इस प्रकार के सब कवियों की रचनाओं में विशेषता और उच्चता रखती हैं।

जायसी बड़े सहृदय, कवित्व-शक्ति-सम्पन्न कवि थे। प्रतिभा भी उनकी विलक्षण थी, साथ ही धार्म्मिक कट्टरता उनमें नहीं पायी जाती। वे अपने पीर, पैगम्बर और धर्मगुरु की प्रशंसा करते हैं और यह स्वाभाविकता है, विशेषता उनकी यह है कि वे अन्य धर्म वालों के प्रति उदार हैं और उनको भी आदर की दृष्टि से देखते हैं। उनका हिन्दू-धर्म का ज्ञान भी विस्तृत है। उसके भावों को बड़ी ही मार्मिकता से ग्रहण करते हैं। पात्रों के चरित्रा-चित्राण् में उनकी इतनी तन्मयता मिलती है जो यह प्रतीति उत्पन्न करती है कि वे उस समय सर्वथा उन्हीं के भावों में लीन हो गये हैं। इन कवियों की भाषा अधिकतर साफ-सुथरी है और सरसता उसमें पर्याप्त मात्रा में पाई जाती है।

पहले कुतबन की रचना ही देखिए। वे लिखते हैं-

साहु हुसेन अहै बड़ राजा , छत्रासिंहासन उनको छाजा।

पंडित औ वुधिवंत सयाना , पढ़ै पुरान अरथ सब जाना।

धारम जुधिष्ठिर उनको छाजा , हमसिरछाँह कियो जगराजा।

दानदेह और गनत न आवै , बलिऔ करन न सरवरि पावै।

नायक के स्वर्गवास हो जाने पर नायिकाओं की दशा का वर्णन वे करते हैं-

रुक्मिनि पुनि वैसहिं मरि गयी , कुलवंती सतसों सति भई।

बाहर वह भीतर वह होई , घर बाहर को रहै न जोई।

विधिकर चरित न जानइ आनू , जो सिरजासो जाहि नियानू।

उर्दू की शाइरी में आप देखेेंगे कि उसके कवि फ़ारस की सभ्यता के ही भक्त हैं। वे जब प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन करते हैं तो फ़ारस के ही दृश्यों को सामने लाते हैं। साक़ी व पैमाना बुलबुल व क़ुमरी, सरो व शमसाद, शमा व फ़ानूस, जबांनाने चमन व उरूसाने गुलशन नरगिस व सुम्बुल, फ़रहाद व मजनूं, मानी वह बहज़ाद, ज़बानेसुरही व खन्दएक़ुलक़ुल वगैर: उनके सरमायये नाज़ हैं। आमतौर से वे इन्हीं पर फ़िदा हैं, शाज़ व नादिर की बात दूसरी है। हज़रत आज़ाद इन्हीं की तरफ़ इशारा करके फ़रमाते हैं-

“इनमें बहुत-सी बातें ऐसी हैं जो ख़ास फ़ारस और तुर्किस्तान के मुल्कों से तबई और ज़ाती तअल्लुकष् रखती हैं। इसके अलावा वाज़ ख़यालात में अकसर उन दास्तानों या किस्सों के इशारे भी आ गये हैं जो ख़ास मुल्क फ़ारस से तअल्लुक़ रखते हैं। इन ख़यालों ने और वहाँ की तशबीहों ने इस क़दर जोर पकड़ा कि उनके मशाबेह जो यहाँ की बातें थीं, उन्हें बिलकुल मिटा दिया।”1

इन सूफी कवियों की रचनाओं में ये दोष नहीं पाये जाते हैं। वे अपने को भारतवर्ष का समझते हैं और भारतवर्ष के उदाहरण आवश्यकता होने पर सामने लाते हैं। वे जब प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन करते हैं उस समय भी भारत की सामग्रियों से ही काम लेते हैं। कुतुबन ने हुसेन के वर्णन में इसकी धर्मज्ञता की समता युधिष्ठिर से ही की है। दान देने का महत्तव बलि और कर्ण को ही सामने रखकर प्रकट किया है। यद्यपि उसका प्रशंसापात्रा मुसलमान था। ऊपर के पद्यों में दो स्त्रिायों का सती होना और उनकी दशा का वर्णन भी उसने हिन्दू सभ्यता के अनुसार ही किया है।

1. देखिए-चतुर्दश हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापतित्व पद से लेखक का भाषण, पृ. 24

इससे सूचित होता है कि इन सूफी कवियों के हृदय में वह विजातीय भाव उस समय घर नहीं कर सका था जो बाद के मुसलमानों में पाया जाता है। शाह हुसेन शेरशाह का पिता था और कुतुबन भी उसी के समय में था। इस समय भी मुसलमानों का प्राबल्य बहुत कुछ था। फिर भी कुतुबन में हिन्दू भावों के साथ जो सहानुभूति देखी जाती है वह प्रेम-मार्गी सूफ़ी की उदारता ही का सूचक है। मंझन और मलिक मुहम्मद जायसी में यह प्रवृत्तिा और स्पष्ट रूप में दृष्टिगत होती है। मैं पहले कह आया हूँ कि सूफी धर्म के विद्वान् संसार की विभूतियों में परमात्मा की सत्ता को छिपी देखते हैं और उन्हीं के आधार से वे उसकी सत्ता का अनुभव करना चाहते हैं। मंझन कवि एक स्थान पर इस भाव को इस प्रकार प्रकट करता है-

देखत ही पहचानेउँ तोही। एही रूप जेहि छंदस्यो मोहो।

एही रूप बुत अहै छिपाना। एही रूप रब सृष्टि समाना।

एही रूप सकती औ सीऊ। एही रूप त्रिाभुवन कर जीऊ।

एही रूप प्रगटे बहु भेसा। एही रूप जग रंक नरेसा।

संयोग (वस्ल) के कामुक सूफ़ी प्रेमिकों ने वियोगावस्था का वर्णन भी बड़ा ही मार्मिक किया है। वियोगावस्था में संयोग कामना कितनी प्रबल हो उठती है, इसका दृश्य प्रतिदिन दृष्टिगत होता रहता है। मानव-प्रेम-कहानियों में भी इसके बड़े सुन्दर वर्णन हैं। सूफ़ियों का वियोग यत: ईश्वर सम्बन्धी होता है, इसलिए यह अधिक उदात्ता और हृदयग्राही हो जाता है और उसकी व्यापकता भी बढ़ जाती है। मंझन इस वियोग का वर्णन निम्नलिखित पद्यों में किस प्रकार करता है, देखिए-

बिरह अवधि अवगाह अपारा।

कोटि माहिं एक परै त पारा।

बिरह कि जगत अबिरथा जाही ?

बिरह रूप यह सृष्टि सबाही।

नयन बिरह अंजन जिन सारा।

बिरह रूप दर्पन संसारा।

कोटि माँहि बिरला जग कोई।

जाहि सरीर बिरह दुख होई।

रतन कि सागर सागरहिं , गज मोती गज कोय।

चँदन कि बन बन उपजइ , बिरह कि तन तन होय ?

अब मलिक मुहम्मद जायसी की कुछ रचनाओं को भी देखिए। प्रेम मार्गी सूफ़ी कवियों में जिस प्रकार वे प्रधान हैं, वैसी ही उनकी रचना में भी प्रधानता है। उनकी प्रेम-कहानी लिखने की प्रणाली जैसी सुन्दर है वैसा ही स्थान-स्थान पर उसमें सूफ़ी भावों का चित्राण भी मनोरम है। वे कवि ही नहीं थे, वरन् उन पीरों में उनकी गणना की जाती है जो उस समय पहुँचे हुए ईश्वर के भक्त समझे जाते थे। इसलिए उनकी रचनाओं में ईश्वर परायणता की झलक भी स्थान-स्थान पर बड़ी ही मधुर दीख पड़ती है। पद्मावत के अतिरिक्त उनका 'अखरावट' नामक भी एक ग्रन्थ है। इसमें उन्होंने प्रेम-मार्ग के सिध्दान्तों और ईश्वर प्राप्ति के साधानों का वर्णन बोधा-सुलभ रीति से किया है। किन्तु उनका विशेष आद्रित ग्रन्थ पदमावत है। अतएव उसमें से विविधा भावों के कुछ पद्य मैं नीचे लिखता हूँ। पहले संसार की असारता का एक पद्य देखिए-

1. तौ लहि साँस पेट महँ अही।

जौ लहि दसा जीउ कै रही।

काल आइ दिखरायी साँटी।

उठि जिउ चला छाँड़ि कै माटी।

काकर लोग कुटुम घर बारू।

काकर अरथ दरब संसारू।

ओही घड़ी सब भयेउ परावा।

आपन सोइ जो परसा खावा।

अहे जे हितू साथ के नेगी।

सबै लाग काढ़ै तेहि बेगी।

हाथ झारि जस चलै जुआरी।

तजा राज होइ चला भिखारी।

जब लगि जीउ रतनसब कहा।

भा बिन जीउ न कौड़ी लहा।

पदमावती एवं नागमती के सती होने के समय का यह पद्य कितना मार्मिकहै-

2. सर रचि दान पुत्र बहु कीन्हा।

सात बार फिर भाँवर लीन्हा।

एक जो भाँवर भईं बियाही।

अब दुसरे होइ गोहन जाहीं।

जियत कंत तुम्ह हम्ह गल लाईं।

मुये कंठ नहिं छोड़हिं साईं।

लेइ सर ऊपर खाट बिछाई।

पौढ़ीं दुवौ कंत गल लाई।

और जो गाँठ कंत तुम जोरी।

आदि अंत लहि जाइ न छोरी।

छार उठाइ लीन्ह एक मूठी।

दीन्ह उड़ाइ पिरथवी झूठी।

यह जग काह जो अथइ न जाथी।

हम तुम नाह दोऊ जग साथी।

लागीं कंठ अंग दै होरी।

छार भईं जरि अंग न मोरी।

3. राती पिउ के नेह की , सरग भयउ रतनार।

जोरे उवा सो अथवा , रहा न कोइ संसार।

4. तुर्की , अरबी , हिन्दवी , भाखा जेती आहि।

जामें मारग प्रेम का , सबै सराहैं ताहि।

उनके कुछ ऐसे पद्यों को भी देखिए जिनमें उनकी सूफ़ियाना रंगत बड़ी सरसता के साथ प्रतिबिम्बित हो रही है-

5. आजु सूर दिन अथयेउ।

आजु रयनि ससि बूड़।

आजु नाथ जिउ दीजिये।

आजु अगिन हम जूड़।

6. उन्ह बानन्ह अस को जो न मारा।

वेधि रहा सगरौ संसारा।

गगन नखत जो जाहिं न गने।

वैसब बान ओहि के हने।

धारती बान बेधि सब राखी।

साखी ठाढ़ देहिं सब साखी।

रोम रोम मानुस तनु ठाढ़े।

सूतहि सूत बेधा अस गाढ़े।

बरुनि बान अस ओपँह , बेधो रन बन ढाँख।

सौजहि तन सब रोऑं , पंखिहिं तन सब पाँख।

पुहुप सुगंधा करइ यहि आसा।

मकु हिरकाइ लेइ हम्ह पासा।

7. पवन जाइ तहँ पहुँचइ चहा।

मारा तैस लोट भुँइ रहा।

अगिनि उठी जरि उठी नियाना।

धुवाँ उठा उठि बीच बिलाना।

पानि उठा उठि जाइ न छूआ।

बहुरा रोइ आइ भूईं चूआ।

8. करि सिंगार तापहं का जाऊं।

ओही देखहुँ ठावहिं ठाऊँ।

जौ पिउ महँ तो उहै पियारा।

तन मन सों नहिं होइ निनारा।

नैन माँह है उहै समाना।

देखहुँ तहाँ नाहिं कोउ आना।

9. देखि एक कौतुक हौं रहा।

रा ऍंतर पट पै नहिं रहा।

सरवर देख एक मैं सोई।

रहा पानि औ पानि न होई।

सरग आइ धारती महँ छावा।

रहा धारति पै धारति न आवा।

पंडित रामचन्द्र शुक्ल ने इन प्रेम मार्गी सूफी कवियों और मलिक मुहम्मद जायसी के विषय में जो कुछ लिखा है वह अवलोकनीय है। इसलिए मैं यहाँ उसको भी उद्धृत कर देता हूँ-

“कबीर ने अपनी झाड़-फटकार के द्वारा हिन्दुओं और मुसलमानों का कट्टरपन दूर करने का जो प्रयत्न किया, वह अधिकतर चिढ़ाने वाला सिध्द हुआ, हृदय को स्पर्श करने वाला नहीं। मनुष्य-मनुष्य के बीच जो रागात्मक सम्बन्धा है वह उसके द्वारा व्यक्त न हुआ। अपने नित्य के जीवन में जिस हृदय-साम्य का अनुभव मनुष्य कभी-कभी किया करता है, उसकी अभिव्यंजना उससे न हुई। कुतुबन, जायसी आदि इन प्रेम-कहानी के कवियों ने प्रेम का शुध्द मार्ग दिखाते हुए उन सामान्य जीवन-दशाओं को सामने रक्खा, जिनका मनुष्य मात्रा के हृदय पर एक-सा प्रभाव दिखाई पड़ता है। हिन्दू हृदय और मुसलमान हृदय आमने-सामने करके अजनबीपन मिटाने वालों में इन्हीं का नाम लेना पड़ेगा। इन्होंने मुसलमान होकर हिन्दुओं की कहानियाँ हिन्दुओं ही की बोली पूरी सहृदयता से कहकर उनके जीवन की मर्म-स्पर्शिनी अवस्थाओं के साथ अपने उदार हृदय का पूर्ण सामंजस्य दिखा दिया। कबीर ने केवल भिन्न प्रतीत होती हुई परोक्ष सत्ता की एकता का आभास दिया था। प्रत्यक्ष जीवन की एकता का दृश्य सामने रखने की आवश्यकता बनी थी। यह जायसी द्वारा पूरी हुई।”1

1. देखिए, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. 103, 104

अब मैं इन प्रेम-मार्गी सूफी कवियों की भाषा पर कुछ विचार करना चाहता हूँ। प्रेममार्गी कवि लगभग सभी मुसलमान और पूर्व के रहने वाले थे। इसलिए इनके ग्रन्थों की भाषा पूर्वी अथवा अवधी है। किन्तु यह देखा जाता है कि वे कभी-कभी ब्रजभाषा के शब्दों का प्रयोग भी कर जाते हैं। कारण यह है कि अवधी जहाँ ब्रजभाषा से मिलती है, वहाँ वह उससे बहुत कुछ प्रभावित है। दूसरी बात यह कि अवधी अर्ध्द मागधी ही का रूपान्तर है और अर्ध्द मागधी पर शौरसेनी का बहुत कुछ प्रभाव है। शौरसेनी का ही रूपान्तर ब्रजभाषा है। इसलिए इटावा इत्यादि के पास जहाँ अवधी ब्रजभाषा से मिलती है वहाँ की अवधी यदि ब्रजभाषा से प्रभावित हो तो यह स्वाभाविक है और उन स्थानों के निवासी यदि इस प्रकार की भाषा में रचना करें, तो यह बात लक्ष्य योग्य नहीं। परन्तु देखा तो यह जाता है कि पूर्व प्रान्त के रहने वाले कवि भी अपनी अवधी की रचनाओं में ब्रजभाषा के शब्दों का प्रयोग करते हैं। मेरी समझ में इसका कारण यही है कि अवधी और ब्रजभाषा का घनिष्ठ सम्बन्धा है। अधिकांश कवियों को यह ज्ञात भी नहीं होता कि वे किस भाषा के शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं और अज्ञातावस्था में एक भाषा के शब्दों का प्रयोग दूसरी भाषा में कर देते हैं। वे अधिक पठित नहीं थे, इसलिए अपने आस-पास की बोलचाल की भाषा में ही रचना करते थे, परन्तु अपने निकटवर्ती प्रान्त के लोगों का कुछ संसर्ग उनका रहता ही था इसलिए उनकी बोलचाल की भाषा का प्रभाव कुछ-न-कुछ पड़ ही जाता था। संकीर्ण स्थलों पर कवि को समुचित शब्द विन्यास के लिए जिस उधोड़बुन में पड़ना होता है वह अविदित नहीं। ऐसी अवस्था में अन्य भाषाओं के कुछ शब्द उपयुक्त स्थलों पर कवियों की भाषा में आये बिना नहीं रहते। जिस समय प्रेममार्गी कवियों ने अपनी रचना प्रारम्भ की थी, उस समय कुछ धार्मिक रुचि, कुछ संस्कृत के विद्वानों के संसर्ग आदि से संस्कृत तत्सम शब्द भी हिन्दी भाषा में गृहीत होने लगे थे। इस कारण इन कवियों की रचनाओं में संस्कृत के तत्सम शब्द भी पाये जाते हैं। इन प्रेममार्गी कवियों में प्रधान मलिक मुहम्मद जायसी हैं। अतएव मैं उन्हीं की रचना को लेकर यह देखना चाहता हूँ कि वे किस प्रकार की हैं। आवश्यकता होने पर अन्य कवियों की रचनाओं पर भी दृष्टि डालने का उद्योग करूँगा। पदमावत के जिन पद्यों को मैंने ऊपर उद्धृत किया है, उन्हें देखिए। मैं पहले लिख आया हूँ कि अवधी और ब्रजभाषा दोनों अधिकतर तद्भव शब्दों में लिखी जाती हैं। उनके पद्यों में यह बात स्पष्ट दिखाई देती है। तत्सम शब्द उनमें 'काल', 'दान', 'बहु', 'आदि', 'संसार', 'प्रेम', 'नाथ', 'सूर' इत्यादि हैं जो इस बात के प्रमाण हैं कि उस समय संस्कृत के तत्सम शब्द हिन्दी भाषा में गृहीत होने लगे थे। मैं यह भी बतला आया हूँ कि इन दोनों भाषाओं में पंचम वर्ण अनुस्वार के रूप में लिखे जाते हैं; कंत, कंठ, अंत और अंग इस बात के प्रमाण हैं। इन दोनों भाषाओं का नियम भी यह है कि इनमें संयुक्त वर्ण सस्वर हो जाते हैं, 'अरथ', 'अगिन', 'सरग', 'मारग', 'रतन' आदि में ऐसा ही हुआ है। यह भी नियम मैं ऊपर बतला आया हूँ कि इन दोनों भाषाओं में शकार का सकार और णकार का नकार और क्षकार का छकार हो जाता है। 'दसा' और'ससि' का 'स', 'पुन्न', का 'न' और 'छार' का 'छ' ऐसे ही परिवर्तन हैं। इन दोनों भाषाओं का यह नियम भी है कि प्रथमा,द्वितीया, षष्ठी, सप्तमी के कारक चिद्द प्राय: लोप होते रहते हैं। इन पद्यों में भी यह बात पाई जाती है। 'आज सूर दिन अथयो', 'आज रयनि ससि बूड़', 'और रहा न कोई संसार' में सप्तमी विभक्ति लुप्त है। 'दिन में' या दिन महँ, 'रयनि में' या 'रयनि महँ'और 'संसार में' या 'संसार महँ' होना चाहिए था। 'हम गल लायो' में द्वितीया का 'को', लागी कंठ में तृतीया का 'से' सा सों नदारद हैं। 'गगन नखत जो जाहिं न गने' और 'रोम रोम 'मानुस तनु' ठाढ़े, में षष्ठी विभक्ति का लोप है, 'गगन नखत' और मानुस तनु के बीच में सम्बन्धा-चिद्द की आवश्यकता है। 'काल आइ दिखराई सांटी', 'जियत कंत तुम हम गल लायों' इन दोनों पद्यों में प्रथमा विभक्ति नहीं आई है। 'काल' और 'तुम' के साथ 'ने' का प्रयोग होना चाहिए था। सच्ची बात यह है कि और विभक्तियाँ तो आती भी हैं, परन्तु प्रथमा की 'ने' विभक्ति अवधी में आती ही नहीं। Ðस्व का दीर्घ और दीर्घ का Ðस्व होना दोनों भाषाओं का गुण है। उपरिलिखित पद्यों में, 'बारू', 'संसारू', 'आना', 'संसारा', 'ठाऊँ Ðस्व से दीर्घ हो गये हैं और अंतरपट',धारति 'बरुनि', 'पानि', 'सिंगार', आदि दीर्घ से Ðस्व बन गये हैं। इन पद्यों में जो प्राकृत भाषा के शब्द आये हैं वे भी धयान देने योग्य हैं जैसे 'नाह', 'तुम्ह', 'हम्ह', 'पुहुप', 'मुक' इत्यादि। इनमें अवधी की जो विशेषताएँ हैं उनको भी देखिए, 'पियारा', 'बियाही' ठेठ अवधी भाषा के प्रयोग हैं। ब्रजभाषा में इनका रूप 'प्यारा' और 'ब्याही' होगा। 'काकर', 'ओही', 'जिउ', 'आपन', 'जस', 'होइ', 'हुत', 'गर', 'जाइ', 'लेई', 'देइ', 'पिउ', 'उवा', 'अथवा', 'उठाई', 'उड़ाइ', 'उहै', 'भुइँ', 'बहुरा', 'रोइ', 'आइ', 'उन्ह', 'बानन्ह', 'अस', 'रोऍं रोऍं', 'ओपहँ', 'हिरकाइ' इत्यादि भी ऐसे शब्द हैं जिनमें अवधी अपने मुख्य रूप में पाई जाती है। जायसी ने ब्रजभाषा और खड़ी बोली के शब्दों का भी प्रयोग किया है, कहीं वे कुछ परिवर्तित हैं और कहीं अपने असली रूप में मिलते हैं-

बेधि रहा सगरौ संसारा।

भादौं बिरह भयउ अति भारी।

औ किंगरी कर गहेउ बियोगी।

तेइ मोहि पिय मो सौं हरा।

लागेउ माघ परै अब पाला।

ऐस जानि मन गरब न होई।

'सगरौ' ब्रजभाषा का स्पष्ट प्रयोग है। 'सकल' से 'सगर' पद बनता है। प्राकृत नियम के अनुसार 'क' का 'ग' हो जाता है और ब्रजभाषा और अवधी के नियमानुसार 'ल' का 'र'। इसलिए अवधी में उसका पुल्लिंग रूप 'सगर' होगा और स्त्राीलिंग रूप 'सगरी'। एक स्थान पर जायसी लिखते भी हैं-”भई अहा सगरी दुनियाई।” इसलिए 'सगरौ' रूप जब होगा तब ब्रजभाषा ही में होगा। उसके नीचे की चौपाइयों में 'भयउ' और 'गहेउ' पद आया है। ये दोनों शब्द भी ब्रजभाषा के 'भयो' और 'गह्यो' शब्दों के रूपान्तर हैं। 'तेहि मोहि पिय मो सौं हरा' इस पद्य में दो शब्द ब्रजभाषा के हैं एक 'पिय' और दूसरा 'सौं'। 'पिय' शब्द ब्रजभाषा का और 'पिउ' शब्द अवधी का है। पदमावत में वैसे ही दोनों का प्रयोग देखा जाता है जैसे 'प्रेम' शब्द को जायसी अपनी रचना में 'प्रेम' भी लिखते हैं और 'पेम' भी, देखिए-'किरिन करा भा प्रेम ऍंकूरू' और 'पेम सुनत मन भूल न राजा'। 'सौं'शब्द भी ब्रजभाषा से ही अवधी में आया है। विद्वानों ने इस सौं को पश्चिमी अवधी के 'कारण' का चिद्द माना है। पश्चिमी अवधी ब्रजभाषा से प्रभावित है इसलिए उसमें यह सौं शब्द पाया जाता है। ठेठ अवधी के 'करण' का चिद्द है 'से' और'सन'। 'लागेउ माघ परै अब पाला' में 'लागेउ' का अवधी रूप होगा 'लागा'। यह 'लागेउ' ब्रजभाषा के लाग्यो का ही रूपान्तर है।'ऐस जानि मन गरब न होई' ब्रजभाषा का 'ऐसो', 'जैसो', 'तैसो' अवधी में 'अस', 'जस', 'तस' लिखा जाता है। वास्तव में 'ऐस'अवधी शब्द नहीं है। यह ब्रजभाषा से ही उसमें आया है और 'ऐसो' की एक मात्रा कम करके बना लिया गया है। इस शब्द का प्रयोग 'ऐस', 'ऐसे' आदि के रूप में पदमावत में बहुत अधिक पाया जाता है और ऐसे ही 'कैसो', जैसो, तैसो के स्थान पर कैस, जैस, तैस इत्यादि भी। कुछ विद्वानों की सम्मति है कि ऐस, कैस, जैस, तैस आदि भी अवधी ही के रूप हैं, किन्तु मैं इस विचार से सहमत नहीं हूँ। सच बात यह है कि ब्रजभाषा के बहुत से शब्द अवधी में पाये जाते हैं, जिनका प्रयोग इन प्रेम-मार्गी कवियों ने स्वतन्त्राता से किया है।

पदमावत में ब्रजभाषा शब्दों के अतिरिक्त अन्य प्रान्तिक भाषाओं के कुछ शब्द भी मिलते हैं। 'स्यों' बुंदेलखंडी है और हिन्दी के 'सह'और से के स्थान पर लिखा जाता है। कविवर केशवदास ने इसका प्रयोग किया है। देखिए-'अलिस्यों सरसीरुह राजत है।'

जायसी को भी इस शब्द का प्रयोग करते देखा जाता है। जैसे “रुण्ड मुण्ड अब टुटहिं स्यों बख्तर और कूँड”, 'बिरिछ उपारि पेड़ि स्यों लेई'। बंगला में 'आछे' 'है' के अर्थ में आता है। इस शब्द का प्रयोग जायसी को भी करते देखा जाता है। जैसे, 'कवँल न आछे आपनि बारी', 'का निचिंत रे मानुष आपनि चीते आछु'। वे अरबी-फारसी के शब्दों का प्रयोग भी इच्छानुसार करते देखे जाते हैं। कुछ ऐसे पद्य नीचे लिखे जाते हैं-

अबूबकर सिद्दीक ' सयाने।

पहले सिदिकष् दीन ओइ आने।

पुनि सो उमर ख़िताब सुहाये।

भा जग अदल दीन जो आये।

सेरसाह देहली सुलतानू A

चारो खण्ड तपै जस भानू।

तहँ लगि राज खरग करि लीन्हा।

इसकंद j जुलकरन जो कीन्हा।

नौसेरवा ¡ जो आदिल कहा।

साहि अदल सरि सोउ न अहा।

जिन शब्दों के नीचे रेखा खींची गई है वे फ़ारसी और अरबी के दुर्बोधा शब्द हैं। एक स्थान पर तो उन्होंने फ़ारसी के'सरतापा' को अपनी कविता में पूरी तरह खपा दिया है, देखिए-

केस मेघावरि सिर ता पाई A

उनको सर्वसाधारण में अप्रचलित संस्कृत भाषा के तत्सम शब्दों का प्रयोग करते भी देखा जाता है। निम्नलिखित पद्यों के काले शब्दों को देखिए। 'सवै नास्ति वह अहथिर ऐस साज जेहि केर', 'बेनी छोरि झार जो बारा', 'बेधो जनौ मलैगिरि बासा', 'चढ़ा असाढ़ गगन घनगाजा', 'जनु घन महं दामिनी परगसी' 'का सरवर तेहि देहिं मयंकू', 'कनकपाट जनु बैठा राजा', 'मान सरोदक उलथहिं दोऊ' 'उठहिं तुरंग लेहि नहिं बागा', 'अधारसुरंग अमी रस भरे', 'हीरा लेइ सोविद्रुम धारा', 'केहि कहँ कँवल बिगासा, कोमधुकर रस लेइ', 'रसना कहौं जो कह रस बाता', 'क्षुद्र घंटिका मोहहि राजा' 'नाभिकुंड सो मलय समीरू', 'पन्नग पंकजमुख गहे खंजन तहाँ बईठ'।

वे ऐसे शब्दों का व्यवहार भी करते हैं जिनका व्यवहार न तो किसी ग्रन्थ में देखा जाता है, न वे जनता की बोलचाल में गृहीत हैं। ऐसे शब्द या तो कविता-गत संकीर्णता के कारण, वे स्वयं गढ़ लेते हैं, या अनुप्रास का झमेला उन्हें ऐसा करने के लिए विवश करता है। अथवा इस प्रकार की तोड़-मरोड़ एवं उच्छृंखलता को वे अनुचित नहीं समझते। नीचे के पद्यों के वे शब्द इसके प्रमाण हैं, जिन पर चिद्द बना दिये गये हैं-

कीन्हेसि राकस भूत परीता ]

कीन्हेसि भोकस देव दईता A

औ तेहि प्रीति सिहिटि उपराजी

बह अयगाह दीन्ह तेहि हाथी A

उहै धानुस किरसुन पहँ अहा।

बेग आइ पिय बाजहु गाजहु होइ सदूर A

जोबन जनम करै भसमंतू A

कैसे जिये बिछोही पखी A

तन तिनउर भा डोल।

बिरिधा खाई नव जोबन सौ तिरिया सों ऊड़ A

रिकवँछ कीन नाइ कै हींग मरिच औ आद A

बतलाइए, 'प्रेत' के स्थान पर 'परीत', 'दैत्य' के स्थान पर 'दईत', 'सृष्टि' के स्थान पर 'सिहिटि', 'हाथ' के स्थान पर'हाथी', 'कृष्ण' के स्थान पर 'किरसुन', 'शार्दूल' के स्थान पर सदूर, 'भस्म' के स्थान पर 'भसमंतू', 'पंखी' के स्थान पर 'पखी', 'तिनका' के स्थान पर तिनउर, उड़ा के स्थान पर ऊड और आदी के स्थान पर 'आद' लिखना कहाँ तक संगत है, आप लोग स्वयं इसको विचार सकते हैं। इस प्रकार के प्रयोगों का अनुमोदन किसी प्रकार नहीं किया जा सकता। उनको चारणों के ढंग पर भी कुछ शब्दों का व्यवहार करते देखा जाता है, जिनमें राजस्थानी की रंगत पाई जाती है। नीचे कुछ पद्य ऐसे लिखे जाते हैं,जिनमें इस प्रकार के शब्द व्यवहृत हैं। शब्द चिद्दित कर दिये गये हैं-

दीन्ह रतन बिधि चारि नैन बैन सर्वन्नमुख

गंग जमुन जौ लगि जल तौ लगि अम्मर नाथ।

हँसत दसन अस चमके पाहन उठे छरक्कि

दारिउं सरि जोन कैसका , फाटयो हिया दरक्कि A

' सुक्ख सुहेला उग्गवै दु:ख झरै जिमि मेंह। '

' बीस सहस घुम्मरहिं निसाना। '

जौ लगि सधौ न तप्पु ] करै जो सीस कलप्पु। '

ग्रामीणता के दोष से तो इनका ग्रन्थ भरा पड़ा है। इन्होंने इतने ठेठ ग्रामीण शब्दों का प्रयोग किया है जो किसी प्रकार बोधा सुलभ नहीं। ग्रामीण शब्दों का प्रयोग इसलिए सदोष माना गया है कि उनमें न तो व्यापकता होती है और न वे उतना उपयोगी होते हैं जितना कविता की भाषा के लिए उन्हें होना चाहिए, देखा जाता है, मलिक मुहम्मद जायसी ने इसका विचार बहुत कम किया है। कहीं-कहीं उनकी भाषा बहुत गँवारी हो गयी है जो उनके पद्यों में अरुचि उत्पन्न करने का कारण होती है। नीचे लिखे पद्यों के चिद्दित शब्दों को देखिए-

' मकु हिरकाइ लेइ हम्ह पासा। '

' हिलगि मकोय न फारहु कंथा। '

' दीठि दवँगरा मेरवहु एका। '

' औ भिउं जस दुरजोधान मारा। '

' अलक जँजीर बहुत गिउ बाँधो। '

' तन तन बिरह न उपनै सोई। '

' जौ देखा तीवइ है साँसा। '

' घिरित परेहि रहा तस हाथ पहुँच लगि बूड़। '

मैंने इनकी कविता की भाषा पर विशेष प्रकाश इसलिए डाला है कि जिससे उसके विषय में उचित मीमांसा हो सके। कहा जाता है कि ग्रंथ की भाषा ठेठ अवधी है। परन्तु जितने प्रमाण मैं ऊपर उद्धृत कर आया हूँ उनसे स्पष्ट है कि उसमें अन्य भाषाओं और बोलियों के अतिरिक्त अधिकतर संस्कृत के तत्सम शब्द भी सम्मिलित हैं, जो ठेठ अवधी में कभी व्यवहृत नहीं हुए, ऐसी अवस्था में उसे हम ठेठ अवधी में लिखा गया स्वीकार नहीं कर सकते। हाँ, यह कहना संगत होगा कि पदमावत की मुख्य भाषा अवधी है और इसमें कोई सन्देह नहीं कि पदमावत के रचयिता ने पहिले पहिल अवधी भाषा लिखने में यह सफलता प्राप्त की, जिसको उनके पूर्ववर्ती कवि कुतुबन और मंझन आदि नहीं प्राप्त कर सके थे। अब तक प्रेम-मार्गी कवियों के जितने ग्रन्थ हिन्दी संसार के सामने आये हैं, उनके आधार से यह बात निस्संकोच कही जा सकती है कि अवधी भाषा का प्रथम कवि होने का सेहरा कुतुबन के सिर है। मैं पहले लिख आया हूँ कि प्रान्तिक भाषा में रचना करने का सूत्रापात मैथिल-कोकिल विद्यापति ने किया। उनके दिखाये मार्ग पर चलकर अवधी में कविता करने वाला पहला पुरुष कुतुबन है। उसकी रचना और उसके बाद की मंझन की कविता पर दृष्टि डालने से यह ज्ञात होता है कि अवधी भाषा में कविता करने का जो मार्ग इन लोगों ने ग्रहण किया था, उसी मार्ग पर मलिक मुहम्मद जायसी भी चले, किन्तु प्रतिभा और भावुकता में उनका स्थान इन लोगों से बहुत ऊँचा है। जिस उच्च कोटि का कवि-कर्म्म पदमावत में दृष्टिगत होता है, उन लोगों के ग्रन्थ में नहीं। उन लोगों की रचनाओं में वह कमी पायी जाती है जो आदिम कृतियों में देखी जाती है। उन लोगों को यदि मार्ग-प्रदर्शन करने का गौरव प्राप्त है तो पदमावत के कवि को उसे पुष्टता प्रदान करने का। यह बात देखी जाती है कि हिन्दी भाषा में हिन्दू जाति की प्रेम-कथाओं को अंकित करने में प्रेम-मार्गी सूफ़ी कवियों ने जैसे हिन्दू भावों को सुरक्षित रखने की चेष्टा की है, वैसे ही मुख्य भाषा को हिन्दी रखने का भी उद्योग किया है और इसी मनोवृत्तिा के कारण उन्होंने आवश्यकतानुसार संस्कृत शब्दों को भी ग्रहण किया। उस समय उर्दू भाषा का जन्म भी नहीं हुआ था। इसलिए उन्होंने अपनी रचनाओं में थोड़े से आवश्यक फ़ारसी अरबी शब्दों को ही स्थान दिया, जिससे हिन्दी भाषा का मुख्य रूप से व्याघात नहीं हुआ। जो आधार इस प्रकार पहले निश्चित हुआ था, उसके सबसे प्रभावशाली प्रवर्तक मलिक मुहम्मद जायसी हैं। उनके बाद भी प्रेमकथाएँ अवधी भाषा में लिखी गईं। परन्तु कोई उस उच्च पद को नहीं प्राप्त कर सका जिस पर मलिक मुहम्मद जायसी अब तक आसीन हैं। मैंने ऊपर लिखा है कि जायसी की भाषा कई कारणों से सदोष हो गयी है और उनकी भाषा में ग्रामीण्ता दोष भी प्रवेश कर गया है। परन्तु अवधी भाषा पर उनका जो अधिकार दृष्टिगत होता है और उन्होंने जिस उत्तामता से इस भाषा में रचना करने में योग्यता दिखलाई है, वे उनके उक्त दोषों और त्राुटियों को पूरा प्रतिकार कर देती है। जायसी की भावव्य×जना, मार्मिकता और कवि-सुलभप्रतिभा उल्लेखनीय है। उनकी रचना में हिन्दू भाव की मर्मज्ञता, हिन्दू पुराणों और शास्त्राों से सम्बन्धा रखने वाले विषयों की अभिज्ञता जैसी दृष्टिगत होती है, वह विलक्षण और प्रशंसनीय है। उन्होंने जिस सहानुभूति और निरपेक्षता के साथ हिन्दू-जीवन के रहस्यों का चित्राण किया है और वर्णनीय विषय के अन्तस्तल में प्रवेश करके जैसी सहृदयता दिखलायी है,उसके लिए उनकी बहुत कुछ प्रशंसा की जा सकती है। उनकी रहस्यवाद-चित्राण-प्रणाली, वर्णन-शैली उनका निरीक्षण और उनकी कवि कर्म्म कुशलता हिन्दी संसार के लिए गौरव की वस्तु है। मैं समझता हूँ, हिन्दी भाषा जब तक जीवित रहेगी तब तक उसके साहित्य-भण्डार का एक रत्न 'पदमावत' भी रहेगा।

मलिक मुहम्मद जायसी के सम्बन्धा में डॉक्टर ग्रियर्सन की यह सम्मति है1&

“वे (मलिक मुहम्मद जायसी) पदमावत के रचयिता थे, जो, मेरी समझ में, मौलिक विषय पर गौड़ी भाषा में लिखी हुई पहली ही नहीं प्राय: एकमात्रा कविता पुस्तक है। मैं नहीं जानता कि कोई अन्य ग्रन्थ भी ऐसा होगा जो पदमावत की अपेक्षा अधिक परिश्रमपूर्ण अधययन का पात्रा हो। निस्सन्देह परिश्रमपूर्ण अधययन इसके लिए आवश्यक है क्योंकि साधारण विद्यार्थी के लिए इस पुस्तक की एक पंक्ति का भी कठिनाई से ही बोधागम्य होना सम्भव है, क्योंकि यह जनता की ठेठ भाषा में लिखी गयी है। परन्तु काव्यसौन्दर्य और मौलिकता दोनों के उद्देश्य से इस पुस्तक के अधययन में जितना भी परिश्रम किया जाय,उचित है।

मलिक मुहम्मद जायसी के बाद की भी रचनाएँ प्रेम-मार्गी कवियों की मिलती हैं और यह परम्परा अठारहवीं शताब्दी तक चलती देखी है। परन्तु मलिक मुहम्मद जायसी के समान कोई दूसरा कवि प्रेममार्गी कवियों में नहीं उत्पन्न हुआ, इन कवियों

1. "He was the author of the Padmavat (Rag) which is, I believe, the first poem and almost the only one written in a Gaudian vernacular on an original subject. I do not know more deserving of hard study than the Padmavat. It certainly reuqires it, for scarcely a line is inteilligible to the ordirary scholar, it being couched in the veriest language of the people. But it is well worth any amount, both for its originality and for its poetical beauty."

में 'उसमान' सत्राहवीं शताब्दी में और नूर मुहम्मद एवं निसार अठारहवीं में हुए हैं, जिनकी रचनाएँ प्राप्त हुई हैं। सत्राहवीं शताब्दी में शेख नबी और अठारहवीं शताब्दी में क़ासिम शाह और फ़ाजिलशाह भी हुए। इन लोगों ने भी अवधी भाषा में प्रेम मार्गी कवियों की प्रणाली ग्रहण कर रचनाएँ की हैं, किन्तु उनमें कोई विशेषता नहीं है और वे रचनाएँ मुझे हस्तगत भी नहीं हुईं।” इसलिए इनके विषय में विशेष कुछ नहीं लिखा जा सकता है। उसमान 'चित्रावली' नामक ग्रन्थ का रचयिता है। इसकी रचना का कुछ अंश नीचे उद्धृत किया जाता है-

“ सरवर ढूँढ़ि सबै पचि रहीं।

चित्रिानि खोज न पावा कहीं

निकसी तीर भईं वैरागी।

धारे धयान सब बिनवै लागीं।

गुपुत तोहि पावहिं का जानी।

परगट महँ जो रहै छपानी।

चतुरानन पढ़ि चारौ वेदू।

रहा खोजि पै पाव न भेदू।

हम अंधी जेहि आपु न सूझा।

भेद तुम्हार कहाँ लौं बूझा।

कौन सो ठाँउँ जहाँ तुम नाहीं।

हम चख जोति न देखहिं काही।

पावै खोज तुम्हार सो , जेहि दिखरावहु पंथ।

कहा होइ जोगी भये , ओ बहु पढे ग़रंथ। “

नूर मुहम्मद ने 'इन्द्रावती' नामक ग्रंथ की रचना की है। कुछ उनकी रचना का नमूना भी देखिए-

मन दृग सों इक राति मँझारा।

सूझि परा मोहिं सब संसारा।

देखेउँ नीक एक फुलवारी।

देखेउँ तहाँ पुरुष औ नारी।

दोउ मुख सोना बरनि न जाई।

चंद सुरुज उतरे भुइँ आई।

तपी एक देखेउँ तेहि ठाँऊँ।

पूछेउँ तासों तिनकर नाऊँ।

कहाँ अहैं राजा और रानी।

इन्द्रावती औ कुंवर गियानी।

निसार ने 'मसनवी यूसुफ़-जुलेखा' नामक ग्रंथ लिखा है। उसकी कुछ पंक्तियाँ ये हैं-

ऋतु बसंत आये बन फूला।

जोगी जती देखि रँग भूला।

पूरन काम कमान चढ़ावा।

बिरही हिये बान अस लावा।

फूलहिं फूल सुखी गुंजारहिं।

लागे आग अनार के डारहिं।

कुसुम केतकी मालति बासा।

भूले भँवर फिरइँ चहुँ पासा।

मैं का करउँ कहाँ अब जाँऊँ।

मों कहँ नाहिं जगत महँ ठाँऊ।

टेसू फूल तो कीन उँजेरा।

लागे आग जरैं चहुँ ओरा।

तैसे धान बाउर भई , बौरे आम लतान।

मैं बौरी दौरी फिरउँ , सुनि कोयल कै तान।

इस कवि का एक छन्द भी देखिए-

ऋतु असाढ़ घन घेर आयो लाग चमकै दामिनी।

ऋतु सुहावन देखि मन महँ हरष बाढ़ै भामिनी।

ऋतु घमंड सों मेघ धाये दिवस में जस जामिनी।

रैनि दिन करुना करैं घर में अकेली कामिनी।

जो रचनाएँ मैंने ऊपर उद्धृत की हैं उनके देखने से यह ज्ञात होता है कि प्रेम-मार्गी सभी कवियों ने अवधी भाषा में लिखने की चेष्टा की है और अधिकतर अपनी परम्परा को सुरक्षित रखा है। सबकी भाषा 'पदमावत' का अनुकरण करती है और उस ग्रन्थ की अन्य प्रणाली भी इन रचनाओं में गृहीत मिलती है। रहस्यवाद और सूफी सम्प्रदाय के विचार भी सब रचनाओं में ही कुछ न कुछ दृष्टिगत होते हैं। इसलिए इस निश्चय पर पहुँचना पड़ता है कि मुहम्मद जायसी के परवर्ती कवियों ने कोई नई उद्भावना नहीं की और न अपनी रचनाओं में कोई ऐसी विशेषताएँ दिखलायीं, जिससे साहित्य में उनका विशेष स्थान होता। हाँ,यह अवश्य है कि निसार और फ़ाजिल शाह ने अपने ग्रन्थों के लिए स्वधार्मी पात्रों को चुना। निसार ने यदि यूसुफ़-जुलेखा की कहानी लिखी है तो फ़ाजिल शाह ने नूरशाह और मेहर-मुनीर की। परन्तु इसने अपने ग्रन्थ का हिन्दी नामकरण ही किया है, अर्थात् अपने ग्रन्थ का नाम 'प्रेम-रतन' रखा है।

परवर्ती कवियों की भाषा मुहम्मद जायसी की भाषा से कुछ प्रा×जल अवश्य है और उनकी रचनाओं में संस्कृत शब्दों का प्रयोग भी अधिक देखा जाता है। परन्तु जो प्रवाह जायसी की रचना में मिलता है, इन लोगों की रचनाओं में नहीं। अवधी भाषा की जो सादगी, सरसता और स्वाभाविकता उनकी कविता में मिलती है, इन लोगों की कविता में नहीं। यह मैं कहूँगा कि परवर्ती कवियों की रचनाओं में गँवारी शब्दों की न्यूनता है किन्तु उनका कुछ झुकाव ब्रजभाषा की प्रणाली और खड़ी बोली के वाक्य-विन्यास और शब्दों की ओर अधिक पाया जाता है। उनकी रचनाओं को पढ़कर यह ज्ञात होता है कि वह उद्योग करके अपनी भाषा को अवधी बनाना चाहते हैं। उनकी लेखनी स्वत: उसकी ओर प्रवृत्ता नहीं होती, अनुकरण में जो कमी और अवास्तवता होती है, वह उनमें पाई जाती है। फिर भी यह स्वीकार करना पडेग़ा कि उन्होंने हिन्दी भाषा और हिन्दू भावों की ओर अपना अनुराग प्रकट किया है और यथाशक्ति अपने यत्न में सफलता लाभ करने की चेष्टा भी की है।

मैंने मलिक मुहम्मद जायसी के परवर्ती कवियों की चर्चा यहाँ इसलिए कर दी है कि जिससे यह ज्ञात हो सके कि प्रेम-मार्गी कवियों की कविता-धारा कहाँ तक आगे बढ़ी और किस अवस्था में। इनकी चर्चा सत्राहवीं और अठारहवीं शताब्दी के अन्य कवियों के साथ की जा सकती थी किन्तु ऐसा करना यथास्थान न होता, इसलिए यहाँ पर ही जो कुछ उनके विषय में ज्ञातव्य बातें थीं, लिख दी गईं।

यहाँ पर यह प्रकट कर देना भी आवश्यक है कि इसी काल में कुछ और प्रेम-कहानियाँ भी हिन्दुओं द्वारा लिखी गईं। इनमें से लक्ष्मणसेन की बनाई 'पदमावती' की कथा ही उल्लेख योग्य है। उसकी चर्चा मैं पहले कर चुका हूँ। पौराणिक कथाओं के आधार से कुछ अन्य रचनाएँ भी हुई हैं, जैसे ढोलामारू की चउपद्दी इत्यादि परन्तु उनमें अधिकतर पौराणिक प्रणाली ही का अनुकरण किया गया है और कहानी कहने की प्रवृत्तिा ही पाई जाती है। इसलिए उनमें वह विशेषता उपलब्धा नहीं होती जो उनका उल्लेख विशेष रीति से किया जाय। अतएव उनकी चर्चा यहाँ नहीं की गयी।

(5)

सोलहवीं शताब्दी में ही हिन्दी-संसार के सामने साहित्य गगन के उन उज्ज्वलतम तीन तारों का उदय हुआ, जिनकी ज्योति से वह आज तक ज्योतिर्मान है। उनके विषय में चिरप्रचलित सर्वसम्मति यह है-

सूर सूर तुलसी ससी उडुगन केसव दास।

अब के कवि खद्योत सम जहँ तहँ करत प्रकास।

काव्य करैया तीन हैं , तुलसी केशव सूर।

कविता खेती इन लुनी , सीला बिनत मजूर।

यह सम्मति कहाँ तक मान्य है, इस विषय में मैं विशेष तर्क-वितर्क नहीं करना चाहता। परन्तु यह मैं अवश्य कहूँगा कि इस प्रकार के सर्वसाधारण के विचार उपेक्षा-योग्य नहीं होते, वे किसी आधार पर होते हैं। इसलिए उनमें तथ्य होता है और उनकी बहुमूल्यता प्राय: असंदिग्धा होती हैं। इन तीनों साहित्य-महारथियों में किसका क्या पद और स्थान है, इस बात को उनका वह प्रभाव ही बतला रहा है जो हिन्दी संसार में व्यापक होकर विद्यमान है। मैं इन तीनों महाकवियों के विषय में जो सम्मति रखता हूँ उसे मेरा वक्तव्य ही प्रकट करेगा, जिसे मैं इनके सम्बन्धा में यथास्थान लिखूँगा। इन तीनों महान् साहित्यकारों में काल की दृष्टि से सूरदास जी का प्रथम स्थान है, तुलसीदास जी का द्वितीय और केशवदास जी का तृतीय। इसलिए इसी क्रम से मैं आगे बढ़ता हूँ।

कविवर सूरदास ब्रजभाषा के प्रथम आचार्य हैं। उन्होंने ही ब्रजभाषा का वह शृंगार किया जैसा शृंगार आज तक अन्य कोई कवि अथवा महाकवि नहीं कर सका। मेरा विचार है कि कविवर सूरदास जी का यह पद हिन्दी-संसार के लिए आदिम और अंतिम दोनों है। हिन्दी भाषा की वर्तमान प्रगति यह बतला रही है कि ब्रजभाषा के जिस उच्चतम आसन पर वे आसीन हैं, सदा वे ही उस आसन पर विराजमान रहेंगे; समय अब उनका समकक्ष भी उत्पन्न न कर सकेगा। कहा जाता है, उनके पहले का'सेन' नामक ब्रजभाषा का एक कवि है। हिन्दी संसार उससे एक प्रकार अपरिचित-सा है। उसका कोई ग्रन्थ भी नहीं बतलाया जाता। कालिदास ने औरंगजेब के समय में हज़ारा नामक एक ग्रन्थ की रचना की थी। उसमें उन्होंने 'सेन' कवि का एक कवित्ता लिखा है, यह वह है।

जब ते गोपाल मधुबन को सिधारे आली ,

मधुबन भयो मधु दानव विषम सों।

सेन कहै सारिका सिखंडी खंजरीट सुक

मिलि कै कलेस कीनो कालिंदी कदम सों।

जामिनी वरन यह जामिनी मैं जाम जाम

बधिक की जुगुति जनावै टेरि तम सों।

देह करै करज करेजो लियो चाहति है ,

काग भई कोयल कगायो करै हमसों।

कविता अच्छी है, भाषा भी मँजी हुई है। परन्तु इस कवि का काल संदिग्धा है। मिश्र बन्धाुओं ने शिवसिंह सरोज के आधार से उसका काल सन् 1503 ई. बतलाया है। परन्तु वे ही इसको संदिग्धा बतलाते हैं। जो हो, यदि यह कविता कविवर सूरदास जी के पहले की मान भी ली जावे तो इससे उनके आदिम आचार्यत्व को बट्टा नहीं लगता। मेरा विचार है कि सूरदास जी के प्रथम ब्रजभाषा का कोई ऐसा प्रसिध्द कवि नहीं हुआ कि जिसकी कृति ब्रजभाषा कविता का साधारण आदर्श बन सके। दो चार कवित्ता लिखकर और छोटा-मोटा ग्रन्थ बनाकर कोई किसी महाकवि का मार्ग-दर्शक नहीं बन सकता। सूरदास जी से पहले कबीरदास, नामदेव, रविदास आदि सन्तों की बानियों का प्रचार हिन्दू संसार में कुछ न कुछ अवश्य था। संभव है कि ब्रजभाषा के ग्राम्य गीत भी उस समय कुछ अपनी सत्ता रखते हों। परन्तु वे उल्लेख योग्य नहीं। मैं सोचता हूँ कि सूरदास जी की रचनाएँ अपनी स्वतंत्रा सत्ता रखती हैं और वे किसी अन्य की कृति से उतनी प्रभावित नहीं हैं जो वे उनका आधार बन सकें। खुसरो की कविताओं में भी ब्रजभाषा की रचनाएँ मिली हैं और ये रचनाएँ भी थोड़ी नहीं है। यदि उनकी रचनाओं का आधार हम ब्रजभाषा की किसी प्राचीन रचना को मान सकते हैं तो सूरदास जी की रचनाओं का आधार किसी प्राचीन रचना को क्यों न मानें? मानना चाहिए और मैं मानता हूँ। मेरा कथन इतना ही है कि सूरदास जी के पहले ब्रजभाषा की कोई ऐसी उल्लेख-योग्य रचना नहीं थी जो उनका आदर्शबनसके।

प्रज्ञाचक्षु सूरदास जी अपना आदर्श आप थे। वे स्वयं-प्रकाश थे। ज्ञात होता है इसीलिए वे हिन्दी-संसार के सर्ूय्य कहे जाते हैं। महाप्रभु वल्लभाचार्य उनको सागर कहा करते थे। इसी आधार पर उनके विशाल ग्रन्थ का नाम सूर-सागर है। वास्तव में वे सागर थे और सागर के समान ही उत्तालतरंग-माला-संकुलित। उनमें गम्भीरता भी वैसी ही पायी जाती है। जैसा प्रवाह,माधुर्य, सौन्दर्य उनकी कृति में पाया जाता है अत्यन्त दुर्लभ है। वे भक्ति-मार्गी थे, अतएव प्रेम-मार्ग का जैसा त्यागमय आदर्श उनकी रचनाओं में दृष्टिगत होता है, वह अभूतपूर्व है। प्रेममार्गी सूफी सम्प्रदाय वालों ने प्रेम पंथ का अवलंबन कर जैसी रस-धारा बहाई उससे कहीं अधिक भावमय मर्मस्पर्शी और मुग्धाकारिणी प्रेम की धाराएँ सूरदास जी ने अथवा उनके उत्ताराधिकारियों ने बहाई हैं। यही कारण है कि वे धाराएँ अन्त में आकर इन्हीं धाराओं में लीन हो गईं। क्योंकि भक्ति मार्गी कृष्णावत सम्प्रदाय की धाराओं के समान व्यापकता उनको नहीं प्राप्त हो सकी। परोक्ष सत्ता सम्बन्धी कल्पनाएँ मधुर और हृदयग्राही हैं और उनमें चमत्कार भी है, किन्तु वे बोधा-सुलभ नहीं। इसके प्रतिकूल वे कल्पनाएँ बहुत ही बोधा-गम्य बनीं और अधिकतर सर्व साधारण् को अपनी ओर आकर्षित कर सकीं जो ऐसी सत्ता के सम्बन्धा में की गयीं, जो परोक्ष-सत्ता पर अवलम्बित होने पर भी संसार में अपरोक्षभाव से अलौकिक मूर्ति धारण कर उपस्थित हुईं। भगवान श्री कृष्ण क्या हैं? परोक्ष सत्ता ही की ऐसी अलौकिकतामयी मूर्ति हैं जिनमें 'सत्यम् शिवम् सुन्दरम्' मूर्त होकर विराजमान है। सूफी मत के प्रेम मार्गियों की रचनाओं में यह बात दृष्टिगत हो चुकी है कि वे किसी नायक अथवा नायिका का रूप वर्णन करते-करते उसको परोक्ष-सत्ता ही की विभूति मान लेते हैं और फिर उसके विषय में ऐसी बातें कहने लगते हैं जो विश्व की आधारभूत परोक्ष सत्ता ही से सम्बन्धिात होती हैं। अनेक अवस्थाओं में उनका इस प्रकार का वर्णन बोधा-सुलभ नहीं होता। वरन एक प्रकार से सन्दिग्धा और जटिल बन जाता है। किन्तु भक्ति-मार्गी महात्माओं के वर्णन में यह न्यूनता नहीं पायी जाती। क्योंकि वे पहले ही से अपनी अपरोक्ष सत्ता को परोक्ष सत्ता का ही अंश-विशेष होने का संस्कार सर्व साधारण के हृदय में विविधा युक्तियों से अंकित करते रहते हैं। क्या किसी सूफी प्रेम-मार्गी कवि की रचनाओं में वह अलौकिक मुरली निनाद हुआ, वह लोक-विमुग्धाकर गान हुआ, उस सुरदुर्लभ शक्ति का विकास हुआ, उस शिव संकल्प का समुदय हुआ और उन अचिन्तनीय सत्य भावों का आविर्भाव हुआ जो महामहिम सूरदास जैसे महात्माओं की महान् रचनाओं के अवलम्बन हैं? और यही सब ऐसे प्रबलतम कारण हैं कि इन महापुरुषों की कृतियों का अधिकतर आदर हुआ और वे अधिकतर व्यापक बनीं। इन सफलताओं का आदिम श्रेय हिन्दी साहित्य में प्रज्ञाचक्षु सूरदास जी ही को प्राप्त है।

मैं समझता हूँ, सूरदास जी का भक्ति-मार्ग और प्रेमपथ श्रीमद्भागवत के सिध्दान्तों पर अवलम्बित है और यह महाप्रभु वल्लभाचार्य के सत्संग और उनकी गुरु-दीक्षा ही का फल है। सूरसागर श्रीमद्भागवत का ही अनुवाद है, परन्तु उसमें जो विशेषताएँ हैं वे सूरदास जी की निजी सम्पत्तिायाँ हैं। यह कहा जाता है कि उनकी प्रणाली 'भक्तवर' जयदेव जी के 'गीत गोविन्द'एवं मैथिल कोकिल विद्यापति की रचनाओं से भी प्रभावित है। कुछ अंश में यह बात भी स्वीकार की जा सकती है, परन्तु सूरदास जी की-सी उदात्ता भक्ति-भावनाएँ इन महाकवियों की रचनाओं में कहाँ हैं? मैं यह मानूँगा कि सूरदास जी की अधिकतर रचनाएँ शृंगार रस-गर्भित हैं। परन्तु उनका विप्रलम्भ शृंगार ही, विशेषकर हृदय-ग्राही और मार्मिक है। कारण इसका यह है कि उस पर प्रेम-मार्ग की महत्ताओं की छाप लगी हुई है। यह सत्य है कि मैथिल कोकिल विद्यापति की विप्रलम्भ शृंगार की रचनाएँ भी बड़ी ही भावमयी हैं, परन्तु क्या उनमें उतनी ही हृदय-वेदनाओं की झलक है जितनी सूरदास जी की रचनाओं में?क्या वे उतनी ही अश्रु-धारा से सिक्त, उतनी ही मानसोन्मादिनी और उतनी ही मर्म्मस्पर्शिनी और हृदयवेधिनी हैं जितनी सूरदास जी की उक्तियाँ? क्या उनमें भी वैसा ही करुण क्रन्दन सुन पड़ता है जैसा सूरदास जी की विरागमयी वचनावली में? इन बातों के अतिरिक्त सूरदास जी की रचनाओं में और भी कई एक विशेषताएँ हैं। उनका बाललीला-वर्णन और बालभावों का चित्राण इतना सुन्दर और स्वाभाविक है कि हिन्दी-साहित्य को उसका गर्व है। कुछ लोगों की सम्मति है कि संसार के साहित्य में ऐसे अपूर्व बालभावों के चित्राण का अभाव है। मैं इस पर अपनी ठीक सम्मति प्रकट करने में असमर्थ हूँ, परन्तु यह अधिकार के साथ कहा जा सकता है कि हिन्दी भाषा में ऐसा वर्णन तो है ही नहीं, परन्तु भारतीय अन्य प्रान्तीय भाषाओं में भी वैसा अपूर्व वर्णन उपलब्धा नहीं होता। उनकी विनय और प्रार्थना सम्बन्धी रचनाएँ भी आदर्श हैं और आगे चलकर परवर्ती कवियों के लिए उन्होंने मार्ग-प्रदर्शन का उल्लेखनीय कार्य किया है। मैं इस प्रकार के कुछ पद नीचे लिखता हूँ। उनको देखिए कि उनमें किस प्रकार हृदय खोलकर दिखलाया गया है, उनकी भाषा की प्रांजलता और सरसता भी दर्शनीय है।

1. जनम सिरानो ऐसे ऐसे।

कै घरघर भरमत जदुपति बिन कै सोवत कै बैसे।

के कहुँ खान पान रसनादिक कै कहुँ बाद अनैसे A

कै कहुँ रंक कहूँ ईसरता नट बाजीगर जैसे।

चेत्यो नहीं गयो टरि अवसर मीन बिना जल जैसे।

है गति भई सूर की ऐसी स्याम मिलैं धौं कैसे।

2. प्रभु मोरे औगुन चित न धारो।

समदरसी है नाम तिहारो चाहो तो पार करो।

एक नदिया एक नार कहावत मैलो नीर भरो।

जब दोनों मिलि एक बरन भये सुरसरि नाम परो।

एक लोहा पूजा में राखत एक घर बधिक परो।

पारस गुन औगुन नहिं चितवै कंचन करत खरो।

यह माया भ्रम जाल कहावै सूरदास सगरो।

अबकी बार मोहिं पार उतारो नहिं प्रन जात टरो।

3. अपनपो आपन ही बिसरो A

जैसे स्वान काँच के मंदिर भ्रमि भ्रमि भूँकि मरो।

ज्यों केहरि प्रतिमा के देखत बरबस कूप पराे।

मरकट मूठि छोड़ि नहिं दीन्हीं घरघर द्वार फिरो।

सूरदास नलिनी के सुअना कह कौने पकरो।

4. मेरो मन अनत कहाँ सुख पावै।

जैसे उड़ि जहाज को पच्छी फिरि जहाज पै आवै।

कमल नयन को छाँड़ि महातम और देव को धयावै।

पुलिन गंग को छाँड़ि पियासो दुरमति कूप खनावै।

जिन मधुकर अंबुज रस चाख्यो क्यों करील फल खावै।

सूरदास प्रभु कामधोनु तजि छेरी कौन दुहावै।

कुछ पद्य बाल भाव-वर्णन के भी देखिए-

5. मैया मैं नाहीं दधि खायो A

ख्याल परे ये सखा सबै मिलि मेरे मुख लपटायो A

देखु तुही छीके पर भाजन ऊँचे घर लटकायो A

तुही निरखु नान्हें कर अपने मैं कैसे कर पायो A

मुख दधि पोंछ कहत नँदनंदन दोना पीठि दुरायो।

डारि साँट मुसकाइ तबहिं गहि सुत को कंठ लगायो।

6. जसुदा हरि पालने झुलावै।

हलरावै दुलराइ मल्हावै जोइ सोइ कछु गावै।

मेरे लाल को आउ निंदरिया काहें न आनि सुआवै।

तू काहें न वेग ही आवै तोको कान्ह बुलावै।

कबहुँ पलक हरि मूँदि लेत हैं कबहुँ अधार फरकावै।

सोवत जानि मौन ह्नै ह्नै रहि करि करि सैन बतावै।

येहि अंतर अकुलाइ उठे हरि जसुमति मधुरे गावै।

जो सुख सूर अमर मुनि दुरलभ सो नँदभामिनि पावै।

7. सोभित कर नवनीत लिये।

घुटुरुन चलत रेनु-मंडित तनु मुख दधि लेप किये।

चारु कपोल लोल लोचन छबि गोरोचन तिलक दिये।

लर लटकत मनो मत्ता मधुपगन माधुरि मधुर पिये।

कठुला कंठ वज्र केहरि नख राजत सखि रुचिर हिये।

धान्य सूर एकौ पल यह सुख कहा भये सत कल्प जिये।

मैं ऊपर लिख आया हूँ कि सूरदास जी का शृंगार-रस वर्णन बड़ा विशद है और विप्रलम्भ शृंगार लिखने में तो उन्होंने वह निपुणता दिखलायी जैसी आज तक दृष्टिगत नहीं हुई। कुछ पद्य इस प्रकार के भी देखिए-

8. सुनि राधो यह कहा बिचारै।

वे तेरे रँग तू उनके रँग अपने मुख काहे न निहारै।

जो देखे ते छाँह आपनी स्याम हृदय तव छाया।

ऐसी दसा नंदनंदन की तुम दोउ निरमल काया।

नीलाम्बर स्यामल तन की छबि तुम छबि पीत सुबासड्ड

घर भीतर दामिनी प्रकासत दामिनि घन चहुँ पास।

सुन री सखी विलच्छ कहौं तो सों चाहति हरि को रूप।

सूर सुनौ तुम दोउ सम जोरी एक एक रूप अनूप।

9. काहे को रोकत मारग सूधो A

सुनहु मधुप निरगुन कंटक सों राजपंथ क्यों रूँधो।

याका s कहा परेखो कीजै जानत छाछ न दूधो।

सूर मूर अक्रूर ले गये ब्याज निबेरत ऊधो।

10. बिलग मत मानहु ऊधो प्यारे।

यह मथुरा काजर की ओबरी जे आवहिं ते कारे।

तुम कारे सुफलक सुत कारे कारे स्याम हमारे।

मानो एक माँठ मैं बोरे लै जमुना जो पखारे।

ता गुन स्याम भई कालिंदी सूर स्याम गुन न्यारे।

11. अरी मोहिं भवन भयानक लागै माई स्याम बिना।

देखहिं जाइ काहि लोचन भरि नंद महरि के ऍंगना।

लै जो गये अक्रूर ताहि को ब्रज के प्रान धाना।

कौन सहाय करै घर अपने मेरे विघन घना।

काहि उठाय गोद करि लीजै करि करि मन मगना।

सूरदास मोहन दरसनु बिनु सुख संपति सपना।

12. खंजन नैन रूप रस माते।

अतिसै चारु चपल अनियारे पल पिंजरा न समाते।

चलि चलि जात निकट ò वननि के

उलटि पलटि ताटंक फँदाते।

सूरदास अंजन गुन अटके नतरु अबहिं उड़ि जाते।

13. ऊधो ऍंखिया अति अनुरागी।

एक टकमग जोवति अरु रोवति भूलेहुँ पलक न लागी।

बिनु पावस पावस रितु आई देखत हैं बिदमान।

अबधौं कहा कियौ चाहति है छाँड़हु निरगुन ज्ञान।

सुनि प्रिय सखा स्याम सुंदर के जानत सकल सुभाय A

जैसे मिलैं सूर के स्वामी तैसी करहु उपाय।

14. नैना भये अनाथ हमारे।

मदन गोपाल वहां ते सजनी सुनियत दूरि सिधारे।

वे जलसर हम मीन बापुरी कैसे जिवहिं निनारे A

हम चातकी चकोर स्याम घन वदन सुधा निधि प्यारे।

मधुवन बसत आस दरसन की जोइ नैन मग हारे।

सूर के स्याम करी पिय ऐसी मृतक हुते पुनि मारे।

15. सखी री स्याम सवै एकसार।

मीठे बचन सुहाये बोलत अन्तर जारन हार।

भँवर कुरंग काम अरु कोकिल कपटिन की चटसार।

सुनहु साखोरी दोष न काहू जो विधि लिखो लिलार।

उमड़ी घटा नाखि कै पावस प्रेम की प्रीति अपार।

सूरदास सरिता सर पोषत चातक करत पुकार।

भाषा कविवर सूरदास के हाथों में पड़कर धान्य हो गई। आरम्भिक काल से लेकर उनके समय तक आपने हिन्दी भाषा का अनेक रूप अवलोकन किया। परन्तु जो अलौकिकता उनकी भाषा में दृष्टिगत हुई वह असाधारण है। जैसी उसमें प्रांजलता है वैसी ही मिठास है। जितनी ही वह सरस है उतनी ही कोमल। जैसा उसमें प्रवाह है वैसा ही ओज। भावमूर्तिमन्त होकर जैसा उसमें दृष्टिगत होता है, वैसे ही व्यंजना भी उसमें अठखेलियाँ करती अवगत होती है। जैसा शृंगार-रस उसमें सुविकसित दिखलाई पड़ता है, वैसा ही वात्सल्य-रस छलकता मिलता है। जैसी प्रेम की विमुग्धाकारी मूर्ति उसमें आविर्भूत होती है वैसा ही आन्तरिक वेदनाओं का मर्मस्पर्शी रूप सामने आता है। ब्रजभाषा के जो उल्लेखनीय गुण अब तक माने जाते हैं और उसके जिस माधार्ुय्य का गुणगान अब तक किया जाता है, उसका प्रधान अवलम्बन सूरदास जी का ही कवि कर्म है। एक प्रान्त-विशेष की भाषा समुन्नत होकर यदि देश-व्यापिनी हुई तो ब्रजभाषा ही है और ब्रजभाषा को यह गौरव प्रदान करने वाले कविवर सूरदास हैं। उनके हाथों से यह भाषा जैसी मँजी, जितनी मनोहर बनी, और जिस सरसता को उसने प्राप्त किया वह हिन्दी-संसार के लिए गौरव की वस्तु है। मैंने ब्रजभाषा की जो विशेषताएँ पहले बतलायी हैं, वे सब उनकी भाषा में पाई जाती हैं, वरन् यह कहा जा सकता है कि उनकी भाषा के आधार से ही ब्रजभाषा की विशेषताओं की कल्पना हुई। मेरा विचार है कि उन्होंने इस बात पर भी दृष्टि रखी है कि कोई भाषा किस प्रकार व्यापक बन सकती है। उनकी भाषा में ब्रजभाषा का सुन्दर से सुन्दर रूप देखा जाता है। परन्तु ग्रामीणता दोष से वह अधिकतर सुरक्षित है। उसमें अन्य प्रान्तिक भाषाओं के शब्द भी मिल जाते हैं। किन्तु इनकी यह प्रणाली बहुत मर्यादित है। गुरु को लघु और लघु को गुरु करने में उनको संयत देखा जाता है। वे शब्दों को कभी-कभी तोड़ते मरोड़ते भी हैं। किन्तु उनका यह ढंग उद्वेजक नहीं होता। उसमें भी उनकी लेखनी की निपुणता दृष्टिगत होती है। ब्रजभाषा के जो नियम और विशेषताएँ मैं पहले लिख आया हूँ उनकी रचनाओं में उनका पालन किस प्रकार हुआ है, मैं नीचे उसको उद्धृत पद्यों के आधार से लिखता हूँ-

1. उनकी रचनाओं में कोमल शब्द-विन्यास होता है। इसलिए उनमें संयुक्त वर्ण बहुत कम पाये जाते हैं जो वैदर्भी वृत्तिा का प्रधान लक्षण है। यदि कोई संयुक्त वर्ण आ भी जाता है तो वे उसके विषय में युक्त-विकर्ष सिध्दान्त का अधिकतर पालन करते जाते हैं जैसे 'समदरसी', 'महातम', 'दुरलभ', 'दुरमति' इत्यादि। वर्गों के प×चम वर्ण के स्थान पर उनको प्राय: अनुस्वार का प्रयोग करते देखा जाता है। जैसे, 'रंक', 'कंचन', 'गंग', 'अंबुज', 'नंदनंदन', 'कंठ' इत्यादि।

2. णकार, शकार, क्षकार के स्थान पर क्रमश: 'न', 'स' और 'छ' वे लिखते हैं। 'ड' के स्थान पर 'ड़' और 'ल' के स्थान पर 'र' एवं संज्ञाओं के आदि के 'य' के स्थान पर 'ज' लिखते उनको प्राय: देखा जाता है। ऐसा वे ब्रज प्रान्त की बोलचाल की भाषा पर दृष्टि रखकर ही करते हैं। 'बरन', 'रेनु', 'गुन', 'औगुन', 'निरगुन', 'सोभित', 'सत', 'स्याम', 'दसा', 'दरसन', 'अतिसै', 'जसुमति', 'जसुदा', 'जदुपति', 'बिलछि' और 'पच्छी' आदि शब्द इसके प्रमाण हैं।

3. गुरु के स्थान पर लघु और लघु के स्थान पर गुरु भी वे करते हैं। किन्तु बहुत कम। 'माधुरि', 'रँग', 'नहिं', 'दामिनि', 'केहरि', 'मनो', 'भामिनि', 'बिन' इत्यादि शब्दों में गुरु को लघु कर दिया गया है। 'घना', 'मगना' इत्यादि में Ðस्व को दीर्घ कर दिया गया है, अर्थात् 'घन' और 'मगन' के 'न' को 'ना' बनाया गया है।

यह बात भी देखी जाती है कि वे कुछ कारक चिद्दों और प्रत्ययों आदि को लिखते तो शुध्द रूप में हैं, परन्तु पढ़ने में उनका उच्चारण Ðस्व होता है। क्योंकि यदि ऐसा न किया जाय तो छन्दोभंग होगा। निम्नलिखित पंक्तियों में इस प्रकार का प्रयोग पाया जाता है। चिद्दित कारक चिद्दों और शब्दगत वर्णों को देखिए-

1. ' काहे को रोकत मारग सूधो '

2. ' मेरे लाल को आउ निंदरिया काहे न आनि सुआवै '

3. ' सखी री स्याम सबै एक सार '

4. ' सूर सुनौ तुम दोउ सम जोरी एक एक रूप अनूप '

5. सूर के स्याम करी पुनि ऐसी मृतक हुते पुनि मारे।

6. ' मानो एक माँठ मैं बोरे लै जमुना जो पखारे ' ।

7. ' समदरसी है नाम तिहारो चाहो तो पार करो ' ।

8. ' जब दोनों मिलि एक बरन भये सुरसरि नाम परो '

यह प्रणाली कहाँ तक युक्ति-संगत है, इसमें मत भिन्नता है। किन्तु जिस मात्रा में विशेष स्थलों पर सूरदास जी ने ऐसा किया है, मेरा विचार है कि वह ग्राह्य है। क्योंकि इससे एक प्रकार से विशेष शब्द-विकृति की रक्षा होती है। दूसरी बात यह है कि यदि कुछ शब्दों को Ðस्व कर दिया जाय तो उसका अर्थ ही दूसरा हो जाता है। जैसे 'भये' को 'भय' लिखकर यदि छन्दोभंग की रक्षा की जाय तो अर्थापत्तिा सामने आती है। प्राकृत भाषा में भी यह प्रणाली गृहीत देखी जाती है। उर्दू कवियों की पंक्ति-पंक्ति में इस प्रकार का प्रयोग मिलता है। हिन्दी में विशेष अवस्था और अल्प मात्रा ही में कहीं ऐसा किया जाता है। यह पिंगल नियमावली के अन्तर्गत भी है। जैसे विशेष स्थानों में Ðस्व को दीर्घ और दीर्घ को Ðस्व लिखने का नियमहै उसी प्रकार संकीर्ण स्थलों पर Ðस्व को दीर्घ और दीर्घ का Ðस्व पढ़ने की प्रणालीभीहै।

4. प्राकृत और अपभ्रंश में प्राय: कारक चिद्दों का लोप देखा जाता है। सूरदास जी की रचनाओं में भी इस प्रकार की पंक्तियाँ मिलती हैं। कुछ तो कारकों का लोप साधारण बोलचाल की भाषा पर अवलम्बित है और कुछ कवितागत अथवा साहित्यिक प्रयोगों पर, नीेचे लिखे हुए वाक्य इसी प्रकार के हैं-

'जो विधि लिखा लिलार', 'मधुकर अंबुज रस चाख्यो', 'मैं कैसे करि पायो' इन वाक्यों में कत्तर् का ने चिद्द लुप्त है। 'कामधोनु तजि छेरी कौन दुहावे' 'प्रभु मोरे औगुन चित न धारो', 'मरकट मूठि छोड़ि नहिं दीन्ही', 'सरिता सर पोषत' इन वाक्यों में कर्म का चिद्द 'को' अन्तर्हित है। 'नान्हे कर अपने मैं कैसे करि पायो' इस वाक्य में करण का 'से' चिद्द लुप्त है।

'जो सुख सूर अमर मुनि दुरलभ' में सम्प्रदान का चिद्द 'को' या 'के लिए' का लोप किया गया है। 'बरबस कूप परो' 'मेरे मुख लपटायो' 'ऊँचे घर लटकायो', 'पालने झुलावे', 'कर नवनीत लिये' इन वाक्यों में अधिकरण के 'में' चिद्द का अभावहै।

5. ब्रजभाषा में कुछ ऐसे शब्द प्रयोग में आते हैं जिनमें विभक्ति वा प्रत्यय शब्द के साथ सम्मिलित होते हैं, अलग नहीं लिखे जाते। कविता में इससे बड़ी सुविधा होती है। इस प्रकार के प्रयोग अधिकतर बोलचाल पर अवलम्बित हैं। पूर्वकालिक क्रिया का चिद्द 'कर' अथवा 'के' हैं। ब्रजभाषा में प्राय: विधि के साथ इकार का प्रयोग कर देने से भी वह क्रिया बन जाती है। जैसे, 'टरि' 'मिलि', 'करि' इत्यादि। संज्ञा के साथ जब ओकार सम्मिलित कर दिया जाता है तो वह प्राय: 'भी' का काम देता है जैसे 'एको', 'दूधो' इत्यादि 'जसुमति मधुरे गावै' में 'मधुर' के साथ मिला हुआ एकार भाव वाचकता का सूचक है। 'दोना पीठि दुरायो' में 'पीठि' के साथ मिलित इकार अधिकरण के 'में' चिद्द का द्योतक है इत्यादि।

6. वैदर्भी वृत्तिा का यह लक्षण है कि उसमें समस्त पद आते ही नहीं। यदि आते हैं तो साधारण समस्त पद आते हैं,लम्बे नहीं। कविवर सूरदास जी की रचना में यह विशेषता पाई जाती है। 'जैसे कमल नयन', 'अम्बुज रस', करीलफल इत्यादि।

7. कोमलता उत्पादन के लिए वे प्राय: 'ड़' और 'ल' के स्थान पर 'र' का प्रयोग करते हैं। जैसे 'घोड़ों' के स्थान पर'घोरो', 'तोड़ो' के स्थान पर 'तोरो', 'छोड़ो' के स्थान पर 'छोरो'। इसी प्रकार 'मूल' के स्थान पर 'मूर' और 'चटसाल' के स्थान पर 'चटसार'। उनकी रचनाओं में विकल्प से 'ड़' का भी प्रयोग देखा जाता है और 'ल' के स्थान पर 'र' का प्रयोग सब स्थानों पर ही नहीं होता। शब्द के मधय का यकार और वकार बहुधा 'ऐ' और 'औ' होता रहता है। जैसा 'नयन', 'बयन', 'सयन' का'नैन', 'बैन', 'सैन' इत्यादि और 'पवन' 'गवन', 'रवन' का 'पौन', 'गौन', 'रौन' इत्यादि। परन्तु उनका तत्सम रूप भी वे लिखते हैं। प्राय: ब्रजभाषा में वह शब्द जिसके आदि में Ðस्व इकार युक्त कोई व्यंजन होता है और उसके बाद 'या' होता है तो आदि व्यंजन का इकार गिर जाता है और वह अपने पर वर्ण 'य' में हलन्त होकर मिल जाता है। जैसे 'सियार' का 'स्यार' 'पियास'का 'प्यास' इत्यादि। किन्तु उनकी रचनाओं में दोनों प्रकार का रूप मिलता है। वे 'प्यास' भी लिखते हैं और पियास भी, 'प्यार'भी लिखते हैं और 'पियार' भी। ऊपर लिखे पद्यों में आप इस प्रकार का प्रयोग देख सकते हैं।

8. सूरदास जी को अपनी रचनाओं में मुहावरों का प्रयोग करते भी देखा जाता है। परन्तु चुने हुए मुहावरे ही उनकी रचना में आते हैं, जिससे उनकी उक्तियाँ बड़ी ही सरस हो जाती हैं। ऊपर के पद्यों में निम्नलिखित मुहावरे आये हैं। जिस स्थान पर ये मुहावरे आये हैं, उन स्थानों को देखकर आप अनुमान कर सकते हैं कि मेरे कथन में कितनी सत्यता है-

1. गोद करि लीजै

2. कैसे करि पायो

3. बिलग मत मानहु

4. लोचन भरि

5. ख्याल परे

9. देखा जाता है कि सूरदास जी कभी-कभी पूर्वी हिन्दी के शब्दों को भी अपनी रचना में स्थान देते हैं। 'वैसे', 'पियासो'इत्यादि शब्द ऊपर के पद्यों में आप देख चुके हैं। 'सुनो' और 'मेरे' इत्यादि खड़ी बोली के शब्द भी कभी-कभी उनकी रचना में आ जाते हैं। किन्तु उनकी विशेषता यह है कि वे इन शब्दों को अपनी रचनाओं में इस प्रकार खपाते हैं कि वे उनकी मुख्य भाषा (ब्रजभाषा) के अंग बन जाते हैं। अनेक अवस्थाओं में तो उनका परिचय प्राप्त होना भी दुस्तर हो जाता है। जिस कवि में इस प्रकार की शक्ति हो उसका इस प्रकार का प्रयोग तर्क-योग्य नहीं कहा जा सकता। जो अन्य प्रान्त की भाषाओं के शब्दों अथवा प्रान्तिक बोलियों के वाक्यों को अपनी रचनाओं में इस प्रकार स्थान देते हैं कि जिनसे वे भद्दी बन जाती हैं अथवा जो उनकी मुख्य भाषा की मुख्यता में बाधा पहुँचाती हैं, उनकी ही कृति तर्क-योग्य कही जा सकती है। दूसरी बात यह है कि जब किसी प्रान्तिक भाषा को व्यापकता प्राप्त होती है तो उसे अपने साहित्य को उन्नत बनाने के लिए संकीर्णता छोड़कर उदारता ग्रहण करनी पड़ती है। जिस भाषा ने इस प्रकार की उदारता ग्रहण की, वही अपनी परिधि से निकलकर व्यापकता प्राप्त कर सकी। आज गोस्वामी तुलसीदास और कविवर सूरदास की रचनाएँ यदि उत्तारीय भारत को छोड़कर दक्षिणीय भारत के कुछ अंशों में भी आद्रित हो रही हैं तो उसका कारण यही है कि उन्होंने अपनी भाषा को उदार बनाया और उसके निजत्व को सुरक्षित रखकर अन्य भाषाओं के शब्दों को भी उसमें स्थान दिया। इस दृष्टि से देखने पर सूरदास जी ने इस विषय में जो कुछ स्वतंत्राता ग्रहण की है वह इस योग्य नहीं कि उस पर उँगली उठाई जासके।

10. प्राकृत भाषा के जो शब्द सुन्दर और सरस होने के कारण ब्रजभाषा की बोलचाल में गृहीत रहे, सूरदास जी की रचनाओं में भी उनका प्रयोग उसी रूप में पाया जाता है। ऐसे शब्द 'सायर', 'लोयन', 'नाह', 'केहरि' इत्यादि हैं। वे अपभ्रंश भाषा के अनुसार कुछ प्रातिपदिक और प्रत्ययों को भी उकार युक्त लिखते हैं जैसे तपु, मुहुँ, आजु, बिनु इत्यादि। ब्रजभाषा और अवधी में अपभ्रंश अथवा प्राकृत भाषा की अनेक विशेषताएँ पायी जाती हैं। ऐसी अवस्था में यदि उसके कुछ शब्द अपने मुख्य रूप में इन भाषाओं में आते हैं तो उनका आना युक्तिसंगत है, क्योंकि इस प्रकार की विशेषताएँ और शब्दावली ही उस घनिष्ठता का परिचय देती रहती हैं। भाषा-शास्त्रा की दृष्टि से इस प्रकार की घनिष्ठता अधिक वांछनीय है।

11. ब्रजभाषा की बोलचाल में कुछ शब्द ऐसे हैं जिनका उच्चारण कुछ ऐसी विशेषता से किया जाता है कि वे बहुत मधुर बन जाते हैं। इन शब्दों के अन्त में एक वर्ण अथवा 'आ' इस प्रकार बढ़ा दिया जाता है कि जिससे उसका अर्थ तो वही रह जाता है कि जिसमें वह मिलाया जाता है परन्तु ऐसा करने से उसमें एक विचित्रा मिठास आ जाती है। 'सुअना', 'नैना', 'नदिया', 'निंदरिया', 'जियरा', 'हियरा' आदि ऐसे ही शब्द हैं। सूरदासजी इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग अपनी रचना में इस सरसता के साथ करते हैं कि उसका छिपा हुआ रस छलकने लगता है। देखिए-

1. 'सूरदास नलिनी के सुअना कह कौने पकरो'।

2. नैना भये अनाथ हमारे।

3. एक नदिया एक नार कहावत मैलो नीर भरो।

4. 'मेरे लाल को आउ निंदरिया काहे न आनि सुआवै'।

अवधी भाषा के इसी प्रकार के शब्द 'करेजवा' 'बदरवा' इत्यादि हैं। जैसे संस्कृत में स्वार्थे 'क' आता है जैसे 'पुत्रक', 'बालक' इत्यादि। इन दोनों शब्दों में जो अर्थ 'पुत्र' और 'बाल' का है वही अर्थ सम्मिलित 'क' का है, उसका कोई अन्य अर्थ नहीं। इसी प्रकार 'मुखड़ा', 'बछड़ा', 'हियरा', 'जियरा', 'करेजवा', 'बदरवा', 'ऍंसुवा', 'नदिया', 'निदरिया' के 'ड़ा', 'रा', 'वा' और'या' आदि हैं। जो अन्त में आये हैं और अपना पृथक अर्थ नहीं रखते। केवल 'आ' भी आता है, जैसे 'नैना', 'बैना', 'बदरा', 'ऍंचरा' का 'आ'।

12. ब्रजभाषा में बहुवचन के लिए शब्द के अन्त में 'न' और 'नि' आता है। ईकारान्त शब्दों में पूर्ववर्ती वर्ण को Ðस्व करके याँ और अकारान्त शब्दों के अन्त में 'ऐ' आता है। सूरदास जी की रचनाओं में इन सब परिवर्तनों के उदाहरण मिलते हैं,जिनसे उनकी व्यापक दृष्टि का पता चलता है। निम्नलिखित पंक्तियों को देखिए-

कछुक खात कछु धारनि गिरावत छबि निरखत नँदरनियाँ '

' भरि भरि जमुना उमड़ि चलत है इन नैनन के तीर '

' लोगन के मन हाँसी ' ' सूर परागनि तजति हिये ते

श्री गुपाल अनुरागी। ' ऍंखिया हरिदरसन की प्यासी '

' जलसमूह बरसत दोउ ऑंखैं हूँकत लीने नाउँ '

13. सूरदास की रचना में यह मुख्य बात पाई जाती है कि वे संस्कृत तत्सम शब्दों का अधिक प्रयोग करते हैं। परन्तु विशेषता यह है कि उनके शब्द चुने हुए और ऐसे होते हैं जिनको काव्योपयुक्त कहा जा सकता है। संयुक्त वर्णों को तो मुख्य रूप में वे कभी-कभी संकीर्ण स्थलों पर ही लेते हैं। परन्तु, कोमल, ललित और सरस तत्सम शब्दों को वे निस्संकोच ग्रहण करते हैं और इस प्रकार अपनी भाषा को मधुरतम बना देते हैं। उद्धृत पद्यों में से सातवें पद्य को देखिए। उनकी रचना में जो शब्द जिस भाव की व्यंजना के लिए आते हैं वे ऐसे मनोनीत होते हैं जो अपने स्थान पर बहुत ही उपयुक्त जान पड़ते हैं। अनुप्रास अथवा वर्णमैत्राी जैसी उनकी कृति में मिलती है, अन्यत्रा दुर्लभ है। जो शब्द उनकी रचना में आते हैं, प्रवाह रूप से आते हैं। उनके अवलोकन से यह ज्ञात होता है कि वे प्रयत्नपूर्वक नहीं स्वाभाविक रीति से आकर अपने स्थान पर विराजमान हैं। रसानुकूल शब्द-चयन उनकी रचना की विशेष सम्पत्तिा है। अधिकतर उनकी रचनाएँ पद के स्वरूप ही में हैं, अतएव झंकार और संगीत उनके व्यवहृत शब्दों के विशेष गुण हैं। इतना होने पर भी जटिलता का लेश नहीं। सब ओर प्रांजल और सरलता ही दृष्टिगत होती है।

14. किसी भाव को यथातथ्य अंकित करना और उसका जीता-जागता चित्रा सामने लाना सूरदास जी की प्रतिभा का प्रधान गुण है। जिस भाव का चित्रा वे सामने रखते हैं उनकी रचनाओं में वह मूर्ति-मन्त होकर दृष्टिगत होता है। प्रार्थना और विनय के पदों में उनके मानसिक भाव किस प्रकार ज्ञान-पथ में विचरण करते हैं और फिर कैसे विश्व-सत्ता के सामने वे विनत हो जाते हैं, इस बात को उनके विनय के पद्यों की पंक्ति-पंक्ति बड़ी ही सरसता से अभिव्यंजित करती पाई जाती है। उद्धृत पद्यों में से संख्या एक से चार तक के पद्य देखिए। उनमें एक ओर यदि मानवों के स्वाभाविक अज्ञान, दुर्बलताओं और भ्रम-प्रमाद पर हृदय मर्माहत होता देखा जाता है तो दूसरी ओर मानसिक करुणा अपने हाथों में विनय की पुष्पांजलि लिये किसी करुणासागर की ओर अग्रसर होती दिखलाई पड़ती है। बालभाव का वर्णन जिन पद्यों में है, (देखिए संख्या 5 से 7 तक) उनमें बालकों के भोले-भाले भाव जिस प्रकार अंकित हैं वे बड़े ही मर्म-स्पर्शी हैं। उनके देखने से ज्ञात होता है कि कवि किस प्रकार हृदय की सरल से सरल वृत्तिायों और मन के सुकुमार भावों के यथातथ्य चित्राण की क्षमता रखता है। बाल-लीला के पदों को पढ़ते समय ऐसा ज्ञात होने लगता है कि जिस समय की लीला का वर्णन है, उस समय कवि खड़ा होकर वहाँ के क्रिया-कलाप को देख रहा था। इन वर्णनों के पढ़ते ही ऑंखों के सामने वहा समाँ आ जाती है, जो उस समय वहाँ मौजूद रहकर कोई देखने वाली ऑंखें ही देख सकती हैं। इस प्रकार का चित्राण सूरदास के ऐसे सहृदय कवि ही कर सकते हैं, अन्यों के लिए यह बात सुगम नहीं। उनका शृंगार-वर्णन पराकाष्ठा को पहुँच गया है। उतना सरस और स्वाभाविक वर्णन हिन्दी-साहित्य में नहीं मिलता, यह मैं कहूँगा कि शृंगार-रस के कुछ वर्णन ऐसे हैं कि यदि वे उस रूप में न लिखे जाते तो अच्छा होता, किन्तु कला की दृष्टि से वे बहुमूल्य हैं। उनका विप्रलम्भ शृंगार ऐसा है जिसके पद-पद से रस निचुड़ता है। संसार के साहित्य-क्षेत्र में प्रेम-धाराएँ विविधा रूप से बहीं, कहीं वे बड़ी ही वेदनामयी हैं, कहीं उन्मादमयी और रोमांचकारी, और कहीं उनमें आत्मविस्मृति और तन्मयता की ऐसीर् मूत्तिा दिखलायी पड़ती है जो अनुभव करने वाले को किसी अलौकिक संसार में पहुँचा देती है। फिर भी सूरदास की इस प्रकार की रचनाएँ पढ़ कर यह भावनाएँ उत्पन्न होने लगती हैं कि क्या ऐसी ही सरसता और मोहकता उन सब धाराओं में भी होगी? प्रेम-लीलाओं के चित्राण में जैसी निपुणता देखी जाती है, वैसी प्रवीणता उनकी अन्य रचनाओं में नहीं पाई जाती। उनका विप्रलम्भ शृंगार-सम्बन्धी वर्णन बड़ा ही उदात्ता है। उनमें मन के सुकुमार भावों का जैसा अंकन है, जैसी उनमें हृदय को द्रवित करने वाली विभूतियाँ हैं, यदि वे अन्य कहीं होंगी तो इतनी ही होंगी। वे किसी सच्चे प्रेम-पथिक की ही अनुभवनीय हैं, अन्य की नहीं। कोई रहस्यवादी बनता है, और अपरोक्ष सत्ता को लेकर निर्गुण में गुण की कल्पना करता है। परन्तु कल्पना कल्पना ही है, उसमें मानसिक वृत्तिायों का वह सच्चा विकास कहाँ जो वास्तव में किसी सगुण से सम्बन्धा रखती हैं? जो आन्तरिक आनन्द हम पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश के अनुभूत विभवों से प्राप्त कर सकते हैं,पंचतन्मात्राओं से नहीं, क्योंकि उनमें सांसारिकता है, इनमें नहीं। हम विचारों को दौड़ा लें, पर विचार किसी आधार पर ही अवलम्बित हो सकते हैं। सांसारिकों को सांसारिकता ही सुलभ हो सकती है। संसार से परे क्या है? उसकी कल्पना वह भले ही कर लें, किन्तु उसका मन उन्हीं में रम सकता है जो सांसारिक विषय हैं। यही कारण है कि जो निर्गुणवादी बनने का दावा करता हैं, वे जब आनन्दमय जीवन की कामना करते हैं तो सगुण भावों का ही आश्रय लेते हैं। सूरदास जी इसके मर्मज्ञ थे। इसलिए उन्होंने सगुण भावों को लेकर ऐसे मोती पिरोये हैं, कि जिनकी बहुमूल्यता चिन्तनीय है, कथनीय नहीं। उन्होंने अपने लक्ष्य को प्रकाश में रखा है, अन्धाकार में नहीं। इसीलिए उनकी रचनाएँ प्रेम-मार्गी अन्य कवियों से सरसता और मोहकता में अधिकतर स्वाभाविक हैं। उनका यह रंग इतना गहरा था कि वे कभी-कभी अपनी धुन में मस्त होकर निर्गुण पर भी कटाक्ष कर जाते हैं। यह उनका प्रमाद नहीं है, वरन् उनकी सगुण परायणता का अनन्य भाव है। मेरा विचार है प्रेममार्ग में उनकी विप्रलम्भ शृंगार की रचनाएँ बड़ा महत्तव रखती हैं। यह कहना कि संसार के साहित्य में उनका स्थान सर्वोच्च है, कदाचित् अच्छा न समझा जावे, परन्तु यह मानना पड़ेगा कि संसार के साहित्य की उच्चतम कृतियों में वे भी समान स्थान लाभ करने की अधिकारिणी हैं।

15. ब्रजभाषा की अधिकांश क्रियाएँ अकारान्त या ओकारान्त हैं। उसके सर्वनामों और कारक-चिद्दों, प्रत्ययों एवं प्रातिपदिक शब्दों के प्रयोग में भी विशेषता है। जो उसको अन्य भाषाओं अथवा प्रान्तिक बोलियों से अलग करती है। सूरदास जी ने अपनी रचना में इनके शुध्द प्रयोगों का बहुत अधिक धयान रखा है। उद्धृत पद्यों के ऐसे अधिकांश शब्दों और क्रियाओं पर चिद्द बना दिये गये हैं। उनके देखने से ज्ञात हो जावेगा कि वे ब्रजभाषा पर कितना प्रभाव रखते थे। उनकी रचना में फ़ारसी अरबी के शब्द भी, सामयिक प्रभाव के कारण आये हैं। परन्तु उनको भी उन्होंने ब्रजभाषा के रंग में ढाल दिया है। इन सब विषयों पर अधिक लिखने से व्यर्थ विस्तार होगा। इसलिए मैं इस बाहुल्य से बचता हूँ। थोड़ा-सा उन पर विचार दृष्टि डालने से ही अधिकांश बातें स्पष्ट हो जाएँगी।

पहले लिख आया हूँ कि सूरदास जी ही ब्रजभाषा के प्रधान आचार्य हैं। वास्तव में बात यह है कि उन्होंने ब्रजभाषा के लिए जो सिध्दान्त साहित्यिक दृष्टि से बनाये और जो मार्ग-प्रदर्शन किया, आज तक उसी को अवलम्बन करके प्रत्येक ब्रजभाषा का कवि साहित्य-क्षेत्र में अग्रसर होता है। उनके समय से जितने कवि और महाकवि ब्रजभाषा के हुए, वे सब उन्हीं की प्र्रवत्तिात-प्रणाली के अनुग हैं। उन्हीं का पदानुसरण उस काल से अब तक कवि-समूह करता आया है, उनके समय से अब तक का साहित्य उठा लीजिए, उसमें स्वयं-प्रकाश सूर की ही प्रभा विकीर्ण होती दिखलायी पड़ेगी। जो मार्ग उन्होंने दिखलाया वह आजतक यथातथ्य सुरक्षित है। उसमें कोई साहित्यकार थोड़ा परिवर्तन भी नहीं कर सका। कुछ कवियों ने प्रान्त-विशेष के निवासी होने के कारण अपनी रचना में प्रान्तिक शब्दों का प्रयोग किया है। परन्तु वह भी परिमित है। उन्होंने उस प्रधान आदर्श से मुँह नहीं मोड़ा जिसके लिए कविवर सूरदास कवि-समाज में आज तक पूज्य दृष्टि से देखे जाते हैं।

डॉक्टर जी. ए. ग्रियर्सन ने उनके विषय में जो कुछ लिखा है, आप लोगों के अवलोकन के लिए उसे भी यहाँ उद्धृत करता हूँ। वे लिखते हैं-

“साहित्य में सूरदास के स्थान के सम्बन्धा में मैं यही कह सकता हूँ कि वह बहुत ऊँचा है। सब तरह की शैलियों में वे अद्वितीय हैं। आवश्यकता पड़ने पर वे जटिल से जटिल शैली में लिख सकते थे और फिर दूसरे ही पद में ऐसी शैली का अवलम्बन कर सकते थे जिसमें प्रकाश की किरणों की-सी स्पष्टता हो। किसी गुण विशेष में अन्य कवि भले ही उनकी बराबरी कर सके हों, किन्तु सूरदास में अन्य समस्त कवियों के सर्वोत्कृष्ट गुणों का एकत्राी भाव है।”1

गोस्वामी तुलसीदास जी की काव्य-कला अमृतमयी है। उससे वह संजीवनी धारा निकली जिसने साहित्य के प्रत्येक अंग को ही नवजीवन नहीं प्रदान किया वरन् मृतकप्राय हिन्दू-समाज के प्रत्येक अंग को वह जीवनी-शक्ति दी, जिससे वह बड़े संकटकाल में भी जीवित रह सकी। इसीलिए वे हिन्दी-संसार के सुधाधार हैं। गोस्वामी जी की दृष्टि इतनी प्रखर थी और सामयिकता की नाड़ी उन्होंने इस मार्मिकता से टटोली कि उनकी रचनाएँ आज भी रुग्ण मानसों के लिए रसायन का काम दे रही हैं। यदि केवल अपने-अलौकिक ग्रन्थ रामचरित मानस का ही उन्होंने निर्माण किया होता तो भी उनकी वह कीर्ति अक्षुण्ण रहती जो आज निर्मल कौमुदी समान भारत-वसुन्धारा में विस्तृत है। किन्तु उनके और भी कई ग्रन्थ ऐसे हैं जिनसे उनकी

1. "Regarding Surdas's place in literature, I commonly add that he justly holds a high one. He excelled in all styles. He could, if occasion required, be more obsoure than the spbynu and in the next verse he as clear as a ray of light. Other poets may have equalled him in some particular quality, but he combined the best qualities of all."

कीर्ति-कौमुदी और अधिक उज्ज्वल हो गई है और इसीलिए वे कौमुदीश हैं। ब्रजभाषा और अवधी दोनों पर उनका समान अधिकार देखा जाता है। जैसी ही अपूर्व रचना वे ब्रजभाषा में करते हैं, वैसी ही अवधी में। रामचरितमानस की रचना अवधी भाषा में ही हुई। किन्तु गोस्वामी जी की अवधी परिमार्जित अवधी है और यही कारण है कि जब मलिक मुहम्मद जायसी की 'पदमावत' की भाषा आजकल कठिनता से समझी जाती है, तब गोस्वामी जी की रामायण को सर्वसाधारण समझ लेते हैं। मलिक मुहम्मद जायसी की भाषा के विषय में मैं ऊपर लिख आया हूँ। वे भी संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग करते हैं किन्तु उनका संस्कृत शब्दों का भण्डार व्यापक नहीं था। इसलिए वे सरस, भावमय एवं कोमल संस्कृत शब्दों के चयन में उतने समर्थ नहीं बन सके, जितने गोस्वामी जी। कहीं-कहीं उन्होंने संस्कृत शब्दों को इतना विकृत कर दिया है कि उसकी पहचान कठिनता से होती है। जैसे 'शार्दूल' का 'सदूर'। परन्तु गोस्वामी जी इस महान दोष से सर्वथा मुक्त हैं। अवधी शब्दों और वाक्यों के विषय में भी उनकी सहृदयता नीर-क्षीर का विवेक करने में हंस की-सी शक्ति रखती है। रामचरितमानस विशाल ग्रन्थ है। परन्तु उसमें ग्रामीण भद्दे शब्द बहुत खोजने पर भी नहीं मिलते। कहीं-कहीं तो अवधी शब्द का व्यवहार उनके द्वारा इस मधुरता से हुआ है कि वे बड़े ही हृदयग्राही बन गये हैं। उनकी दृष्टि विशाल थी और वे इस बात के इच्छुक थे कि उनकी रचना हिन्दू-संसार में नवजीवन का संचार करे। अतएव उन्होंने हिन्दी-भाषा के ऐसे अनेक शब्दों को भी अपनी रचना में स्थान दिया है जो अवधी भाषा के नहीं कहे जा सकते। उनकी इस दूरदर्शिनी दृष्टि का ही यह फल है कि आज उनके महान् ग्रन्थ की उतनी व्यापकता है, कि उसके लिए 'गेहे गेहे जने जने' वाली कहावत चरितार्थ हो रही है।

गोस्वामी जी जिस समय साहित्य-क्षेत्र में उतरे, उस समय निर्गुणधारा बड़े वेग से बह रही थी। जो जनता को परोक्ष सत्ता की ओर ले जाकर उसके मनों में सांसारिकता से विराग उत्पन्न कर रही थी। विराग वैदिक धर्म का एक अंग है। उसको शास्त्राीय भाषा में निवृत्तिा मार्ग कहते हैं। अवस्था विशेष के लिए ही यह मार्ग निर्दिष्ट है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि प्रवृत्तिा-मार्ग की उपेक्षा कर अनधिकारी भी निवृत्तिा-मार्गी बन जाये। निवृत्तिा-मार्ग का प्रधान गुण है त्याग, जो सर्वसाधारण के लिए सुलभ नहीं। इसीलिए अधिकारी पुरुष ही निवृत्तिामार्गी बन सकता है क्योंकि जो तत्तवज्ञ नहीं, वह निवृत्तिा-मार्ग के नियमों का पालन नहीं कर सकता। निवृत्तिा मार्ग का यह अर्थ नहीं कि मनुष्य घर-बार और बाल-बच्चों का त्याग कर अकर्मण्य बन जाये और तमूरा खड़का कर अपना पेट पालता फिरे। त्याग मानसिक होता है और उसमें वह शक्ति होती है जो देश, जाति, समाज और मानवीय आत्मा को बहुत उन्नत बना देती है। जो अपने गृह को, परिवार को, पड़ोस को,ग्राम को अपनी सहानुभूति, सत्य व्यवहार और त्याग-बल से उन्नत नहीं बना सकता, उसका देश और जाति को ऊँचा उठाने का राग अलापना अपनी आत्मा को ही प्रसारित नहीं करना है, प्रत्युत दूसरों के सामने ऐेसे आदर्श उपस्थित करना है जो लोक-संग्रह का बाधाक है। निर्गुणवादियों ने लोक-संग्रह की ओर दृष्टि डाली ही नहीं। वे संसार की असारता का राग ही गाते और उस लोक की ओर जनता को आकर्षित करने का उद्योग करते देखे जाते हैं, जो सर्वथा अकल्पनीय है। वहाँ सुधा का श्रोत प्रवाहित होता हो, स्वर्गीय गान श्रवणगत होता हो, सुर-दुर्लभ अलौकिक पदार्थ प्राप्त होते हों, वहाँ उन विभूतियों का निवास हो जो अचिन्तनीय कही जा सकती हैं। परन्तु वे जीवों के किस काम की जब उनको वे जीवन समाप्त करके ही प्राप्त कर सकते हैं?मरने के उपरान्त क्या होता है, अब तक इस रहस्य का उद्धाटन नहीं हुआ। फिर केवल उस कल्पना के आधार पर उसको असार कहना, जिसका हमारे जीवन के साथ घनिष्ठ सम्बन्धा है, क्या बुध्दिमत्ता है? यदि संसार असार है और उसका त्याग आवश्यक है तो उस सार वस्तु को सामने आना चाहिए कि जो वास्तव में कार्य-क्षेत्र में आकर यह सिध्द कर दे कि संसार की असारता में कोई सन्देह नहीं। हमारे इन तर्कों का यह अर्थ नहीं कि हम परोक्षवाद का खंडन करते हैं, या उन सिध्दान्तों का विरोधा करने के लिए कटिबध्द हैं, जिनके द्वारा मुक्ति, नरक, स्वर्ग आदि की सत्ता स्वीकार की जाती है। यह बड़ा जटिल विषय है। आज तक न इसकी सर्वसम्मत निष्पत्तिा हुई न भविष्यकाल में होने की आशा है। यह विषय सदा ही रहस्य बना रहेगा। मेरा कथन इतना ही है कि सांसारिकता की समुचित रक्षा करके ही परमार्थ-चिन्ता उपयोगी बन सकती है, वरन् सत्य तो यह है कि सांसारिकता समुन्नत त्यागमय जीवन ही परमार्थ है। हम आत्म-हित करते हुए जब लोकहित साधान में समर्थ हों तभी मानव-जीवन सार्थक हो सकता है। यदि विचार-दृष्टि से देखा जावे तो यह स्पष्ट हो जावेगा कि जो आत्म-हित करने में असमर्थ है वह लोक-हित करने में समर्थ नहीं हो सकता। आत्मोन्नति के द्वारा ही मनुष्य लोकहित करने का अधिकारी होता है। देखा जाता है कि जिसके मुख से यह निकलता रहता है कि 'अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम, दास मलूका यों कहै,सब के दाता राम', वह भी हाथ-पाँव डालकर बैठा नहीं रहता। क्योंकि पेट उसको बैठने नहीं देता। हाँ, इस प्रकार के विचारों से समाज में अकर्मण्यता अवश्य उत्पन्न हो जाती है, जिससे अकर्मण्य प्राणी जाति और समाज पर बोझ बन जाते हैं। उचित क्या है? यही कि हम अपने हाथ-पाँव आदि को उन कर्मों में लगावें कि जिनके लिए उनका सृजन है। ऐसा करने से लाभ यह होगा कि हम स्वयं संसार से लाभ उठावेंगे और इस प्रवृत्तिा के अनुसार सांसारिक अन्य प्राणियों को भी लाभ पहुँचा सकेंगे। प्रयोजन यह है कि सांसारिकता की रक्षा करते हुए, लोक में रहकर लोक केर् कर्तव्य का पालन करते हुए, यदि मानव वह विभूति प्राप्त कर सके जो अलौकिक बतलायी जाती है। तब तो उसकी जीवन-यात्रा सुफल होगी, अन्यथा सब प्रकार की असफलता ही सामने आवेगी। रहा यह कि परलोक में क्या होगा उसको यथातथ्य कौन बतला सका?

निर्गुणवाद की शिक्षा लगभग ऐसी ही है, जो संसार से विराग उत्पन्न करती रहती है। घर छोड़ो, धान छोड़ो, विभव छोड़ो,कुटुंब परिवार छोड़ो, करो क्या? जप, तप और हरि-भजन। जीवन चार दिन का है, संसार में कोई अपना नहीं। इसलिए सबको छोड़ो और भगवान का नाम जप कर अपना जन्म बनाओ। इस शिक्षा में लोक-संग्रह का भाव कहाँ? इन्हीं शिक्षाओं का यह फल है कि आजकल हिन्दू-समाज में कई लाख ऐसे प्राणी हैं जो अपने को संसार त्यागी समझते हैं और आप कुछ न कर दूसरों के सिर का बोझ बन रहे हैं। उनके बाल-बच्चे अनाथ हों, उनकी स्त्राी भूखों मरे, उनकी बला से। वे देश के काम आवें या न आवें, जाति का उनसे कुछ भला हो या न हो, समाज उनसे छिन्न-भिन्न होता है तो हो, उनको इन बातों से कोई मतलब नहीं,क्योंकि वे भगवान के भक्त बन गये हैं और उनको इन पचड़ों से कोई काम नहीं। संसार में रहकर कैसे जीवन व्यतीत करना चाहिए? कैसे दूसरों के काम आना चाहिए? कैसे कष्टितों का कष्ट-निवारण करना चाहिए? कैसे प्राणिमात्रा का हित करना चाहिए?मानवता किसे कहते हैं? साधुचरित्रा का क्या महत्तव है? महात्मा किसका नाम है? वे न इन सब बातों को जानते और न इन्हें जानने का उद्योग करते हैं। फिर भी वे हरि-भक्त हैं और इस बात का विश्वास रखते हैं कि उनको लेने के लिए सीधो सत्य लोक से विमान आएगा। जिसके ऐसे संस्कार हैं उससे लोक-संग्रह की क्या आशा है? किन्तु कष्ट की बात है कि अधिकांश हमारा संसार-त्यागी समाज ऐसा ही है। क्योंकि उसने त्याग और हरिभजन का मर्म समझा ही नहीं, और क्यों समझता जब परोक्ष सत्ता ही से उसको प्रयोजन है और संसार से उसका कोई सम्बन्धा नहीं।

महाप्रभु वल्लभाचार्य ने हिन्दू-समाज के इस रोग को उस समय पहचाना था और उन्होंने अपने सम्प्रदाय का यह प्रधान सिध्दान्त रखा कि गार्हस्थ्य धर्म में रह कर ही और सांसारिक समस्त कर्तव्यों का पालन करते हुए ही परमार्थ चिन्ता करनी चाहिए, जिससे समाज लोक-संग्रह के मर्म को न समझ कर अस्त-व्यस्त न हो। त्याग का विरोधा उन्होंने नहीं किया, किन्तु त्याग के उस उच्च आदर्श की ओर हिन्दू समाज की दृष्टि आकर्षित की जो मानस-सम्बन्धी सच्चा त्याग है। उनका आदर्श इस श्लोक के अनुसार था-

वनेषु दोषा: प्रभवन्ति रागिणाम् ,

गृहेषु प × चेन्द्रिय निग्रहस्तप:

अकुत्सिते कर्मणि य: प्र्रवत्ताते ,

निवृत्ता रागस्य गृहं तपोवनम्।

रागात्मक जनों के लिए वन भी सदोष बन जाता है। घर में रहकर पाँचों इन्द्रियों का निग्रह करना ही तप है। जो अकुत्सित कर्मों में प्रवृत्ता होता है उसके लिए घर ही तपोवन है। महाप्रभु वल्लभाचार्य की तरह गोस्वामी जी में भी लोक-संग्रह का भाव बड़ा प्रबल था सामयिक मिथ्याचारों और अयथा विचारों से वे संतप्त थे। आर्य-मर्यादा का रक्षण ही उनका धयेय था। वे हिन्दू जाति की रगों में वह लोहू भरना चाहते थे कि जिससे वह सत्य-संकल्प और सदाचारी बनकर वैदिक धर्म की रक्षा के उपयुक्त बन सके। वे यह भलीभाँति जानते थे कि लोक-संग्रह सभ्यता की उच्च सीढ़ियों पर आरोहण किये बिना ठीक-ठाक नहीं हो सकता, वे हिन्दू जनता के हृदय में यह भाव भी भरना चाहते थे कि चरित्रा-बल ही संसार में सिध्दि-लाभ का सर्वोत्ताम साधान है। इसलिए उन्होंने उस ग्रन्थ की रचना की जिसका नाम रामचरितमानस है और जिसमें इन सब बातों की उच्च से उच्च शिक्षा विद्यमान है। उनकी वर्णन-शैली और शब्द-विन्यास इतना प्रबल है कि उनसे कोई हृदय प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। अपने महान् ग्रन्थ में उन्होंने जो आदर्श हिन्दू-समाज के सामने रखे हैं, वे इतने पूर्ण, व्यापक और उच्च हैं जो मानव-समाज की समस्त आवश्यकताओं और न्यूनताओं की पूर्ति करते हैं। भगवान् रामचन्द्र का नाम मर्यादा पुरुषोत्ताम है। उनकी लीलाएँ आचार-व्यवहार और नीति भी मर्यादित हैं। इसलिए रामचरितमानस भी मर्यादामय है। जिस समय साहित्य में मर्यादा का उल्लंघन करना साधारण बात थी, उस समय गोस्वामी जी को ग्रन्थ भर में कहीं मर्यादा का उल्लंघन करते नहीं देखा जाता। कवि कर्म्म में जितने संयत वे देखे जाते हैं, हिन्दी-संसार में कोई कवि या महाकवि उतना संयत नहीं देखा जाता और यह उनके महान् तप और शुध्द विचार तथा उस लगन का ही फल है जो उनको लोक-संग्रह की ओर खींच रहा था।

गोस्वामी जी का प्रधान ग्रंथ रामायण है। उसमें धर्मनीति, समाजनीति, राजनीति का सुन्दर से सुन्दर चित्राण है। गृहमेधियों से लेकर संसार-त्यागी संन्यासियों तक के लिए उसमें उच्च से उच्च शिक्षाएँ मौजूद हैं।र् कर्तव्य-क्षेत्र में उतरकर मानव किस प्रकार उच्च जीवन व्यतीत कर सकता है, जिस प्रकार इस विषय में उसमें उत्ताम से उत्ताम शिक्षाएँ मौजूद हैं, उसी प्रकार परलोक-पथ के पथिकों के लिए भी पुनीत ज्ञान-चर्चा और लोकोत्तार विचार विद्यमान है। हिन्दू-धर्म के विविधा मतों का समन्वय जैसा इस महान् ग्रन्थ में मिलता है वैसा किसी अन्य ग्रन्थ में दृष्टिगत नहीं होता। शैवों और वैष्णवों का कलह सर्व-जन विदित है परन्तु गोस्वामी जी ने उसका जिस प्रकार निराकरण किया उसकी जितनी प्रशंसा की जाय थोड़ी है। समस्त वेद,शास्त्रा और पुराणों के उच्च से उच्च भावों का निरूपण इस ग्रन्थ में पाया जाता है और अतीव प्रांजलता के साथ। काव्य और साहित्य का कोई उत्ताम विषय ऐसा नहीं कि जिसका दर्शन इस ग्रन्थ में न होता हो। यह ग्रन्थ सरसता, मधुरता और मनोभावों के चित्राण में जैसा अभूतपूर्व है वैसा ही उपयोगिता में भी अपना उच्च स्थान रखता है। यही कारण है कि तीन सौ वर्ष से वह हिन्दू समाज, विशेषकर उत्तारीय भारत, का आदर्श ग्रन्थ है। जिस समय मुसलमानों का अव्याहत प्रताप था,शास्त्राों के मनन, चिन्तन का मार्ग धीरे-धीरे बन्द हो रहा था, संस्कृत की शिक्षा दुर्लभतर हो रही थी और हिन्दू समाज के लिए सच्चा उपदेशक दुष्प्राप्य था, उस समय इस महान ग्रन्थ का प्रकाश ही उस अन्धाकार का नाश कर रहा था जो अज्ञात रूप में हिन्दुओं के चारों ओर व्याप्त था। आज भी उत्तार भारत के गाँव-गाँव में हिन्दू शास्त्रा के प्रमाण-कोटि में रामायण की चौपाइयाँ गृहीत हैं। प्राय: अंग्रेज विद्वानों ने लिखा है कि योरोप में जो प्रतिष्ठा बाइबिल (Bible) को प्राप्त है, भारतवर्ष में वह गौरव यदि किसी ग्रन्थ को मिला तो वह रामचरितमानस है। एक साधारण कुटी से लेकर राजमहलों तक में यदि किसी ग्रन्थ की पूजा होती है तो वह रामायण ही है। उसका श्रवण, मनन और गान सबसे अधिक अब भी होता है। व्याख्याता अपने व्याख्यानों में रामायण की चौपाइयों का आधार लेकर जनता पर प्रभाव डालने में आज भी अधिक समर्थ होता है। वास्तव बात तो यह है कि आज दिन जो महत्तव इस ग्रन्थ को प्राप्त है वह किसी महान् से महान् संस्कृत ग्रन्थ को भी नहीं। इन बातों पर दृष्टि रखकर जब विचार करते हैं तो यह ज्ञात होता है कि गोस्वामी जी हिन्दी-साहित्य के सर्वमान्य कवि ही नहीं हैं, हिन्दू-संसार के सर्वपूज्य महात्मा भी हैं।

मैं पहले कविवर सूरदास जी के विषय में अपनी सम्मति प्रकट कर चुका हूँ और अब भी यह मुक्त कंठ से कहता हूँ कि सूरदास जी ने जिस विषय पर लेखनी चलाई है, उसमें उनकी समकक्षता करने वाला हिन्दी-साहित्य में कोई अब तक उत्पन्न नहीं हुआ। किन्तु जैसी सर्वतोमुखी प्रतिभा गोस्वामी जी में देखी जाती है, सूरदास जी में नहीं।

गोस्वामी जी नवरस-सिध्द महाकवि हैं। सूरदास जी को यह गौरव प्राप्त नहीं। काल की दृष्टि से सूरदास जी तुलसीदास जी से कम नहीं हैं। दोनों एक-दूसरे के समकक्ष हैं। किन्तु उपयोगिता की दृष्टि से तुलसीदास जी का स्थान अधिक उच्च है। दूसरी विशेषता गोस्वामी जी में यह है कि उनकी रचनाएँ बड़ी ही मर्यादित हैं। वे श्रीमती जानकी जी का वर्णन जहाँ करते हैं, वहाँ उनको जगज्जननी के रूप में ही चित्राण करते हैं। उनकी लेखनी जानकी जी की महत्ता जिस रूप में चित्रिात करती है वह बड़ी ही पवित्रा है। जानकी जी के सौन्दर्य-वर्णन की भी उन्होंने पराकाष्ठा की है। किन्तु उस वर्णन में भी उनका मातृ पद सुरक्षित है। निम्नलिखित पंक्तियों को देखिए-

1. जो पटतरिय तीय सम सीया।

जग अस जुवति कहाँ कमनीया।

गिरा मुखर तनु अरधा भवानी।

रति अति दुखित अतनु पति जानी।

बिष बारुनी बन्धाु प्रिय जेही।

कहिय रमा सम किमि वैदेही।

जो छबि सुधा पयोनिधि होई।

परम रूपमय कच्छप सोई।

सोभा रजु मंदर सिंगारू।

मथै पानि-पंकज निज मारू।

येहि विधि उपजै लच्छि जब , सुंदरता सुख मूल।

तदपि सकोच समेत कबि , कहहिं सीय सम तूल।

सूरदास जी में यह उच्च कोटि की मर्यादा दृष्टिगत नहीं होती। वे जब श्रीमती राधिका के रूप का वर्णन करने लगते हैं तो ऐसे अंगों का भी वर्णन कर जाते हैं जो अवर्णनीय हैं। उनका वर्णन भी इस प्रकार करते हैं। जो संयत नहीं कहा जा सकता। कभी-कभी इस प्रकार का वर्णन अश्लील भी हो जाता है। मैं यह मानूँगा कि प्राचीन काल से कवि-परम्परा कुछ ऐसी ही रही है। संस्कृत के कवियों में भी यह दोष पाया जाता है। कवि-कुल-गुरु कालिदास भी इस दोष से मुक्त न रह सके। रघुवंश में वे इन शब्दों में पार्वती और परमेश्वर की वंदना करते हैं-”वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थ प्रतिपत्ताये! जगत: पितरौ वंदे, पार्वती परमेश्वरौ”। परन्तु उन्होंने ही कुमार-सम्भव के अष्टम सर्ग में भगवान शिव और जगज्जननी पार्वती का विलास ऐसा वर्णन किया है जो अत्यन्त अमर्यादित है। संस्कृत के कई विद्वानों ने उनकी इस विषय मे कुत्सा की है। यह कवि-परम्परा ही का अन्धानुकरण है कि जिससे कवि-कुल-गुरु भी नहीं बच सके, फिर ऐसी अवस्था में सूरदास जी का इस दोष से मुक्त न होना आश्चर्यजनक नहीं। यह गोस्वामी जी की ही प्रतिभा की विशेषता है कि उन्होंने चिरकाल-प्रचलित इस कुप्रथा का त्याग किया और यह उनकी भक्तिमय प्रवृत्तिा का फल है। इस भक्ति के बल से ही उनकी कविता के अनेक अंश अभूतपूर्व और अलौकिक हैं। इस प्रवृत्तिा ने ही उनको बहुत ऊँचा उठाया और इस प्रवृत्तिा के बल से ही इस विषय में वे सूरदास जी पर विजयी हुए। आत्मोन्नति, सदाचार-शिक्षा, समाज-संगठन, आर्य जातीय उच्च भावों के प्रदर्शन, सद्भाव, सत् शिक्षा के प्रचार एवं मानव प्रकृति के अधययन में जो पद तुलसीदास जी को प्राप्त है उस उच्च पद को सूरदास जी नहीं प्राप्त कर सके। दृष्टिकोण की व्यापकता में भी सूरदास का वह स्थान नहीं है जो स्थान गोस्वामी जी का है। मैं यह मानूँगा कि अपने वर्णनीय विषयों में सूरदास जी की दृष्टि बहुत व्यापक है। उन्होंने एक-एक विषय का कई प्रकार से वर्णन किया है। मुरली पर पचासों पद्य लिखे हैं तो नेत्रों के वर्णन में सैकड़ों पद लिख डाले हैं। परन्तु सर्व विषयों में अथवा शास्त्राीय सिध्दान्तों के निरूपण में जैसी विस्तृत दृष्टि गोस्वामी जी की है उनकी नहीं। सूरदास जी का मुरली-निनाद विश्व विमुग्धाकर है। उनकी प्रेम-सम्बन्धी कल्पनाएँ भी बड़ी सरल एवं उदात्ता हैं। परन्तु गोस्वामी जी की मेघ-गम्भीर गिरा का गौरव विश्वजनीन है और स्वर्गीय भी। उनकी भक्ति भावनाएँ भी लोकोत्तार हैं। इसलिए मेरा विचार है कि गोस्वामी जी का पद सूरदास जी से उच्च है।

मैंने पहले यह लिखा है कि अवधी और ब्रजभाषा दोनों पर उनका समान अधिकार था। मैं अपने इस कथन की सत्यता-प्रतिपादन के लिए उनकी रचनाओं में से दोनों प्रकार के पद्यों को नीचे लिखता हूँ। उनको पढ़कर आप लोग स्वयं अनुभव करेंगे कि मेरे कथन में अत्युक्ति नहीं है।

1. फोरइ जोग कपारु अभागा।

भलेउ कहत दुख रउरेहिं लागा।

कहहिं झूठि फुरि बात बनाई।

ते प्रिय तुम्हहिं करुइ मैं माई।

हमहुँ कहब अब ठकुरसोहाती।

नाहिं त मौन रहब दिन राती।

करि कुरूप बिधि परबस कीन्हा।

बवा सो लुनिय लहिय जो दीन्हा।

कोउ नृप होइ हमैं का हानी।

चेरि छाँड़ि अब होब कि रानी।

जारइ जोग सुभाउ हमारा।

अनभल देखि न जाइ तुम्हारा।

तातें कछुक बात अनुसारी।

छमिय देवि बड़ि चूक हमारी।

तुम्ह पूँछउ मैं कहत डराऊँ।

धारेउ मोर घरफोरी नाऊँ।

रहा प्रथम अब ते दिन बीते।

समउ फिरे रिपु होइँ पिरीते।

जर तुम्हारि चह सवति उखारी।

रूँधाहु करि उपाइ बर बारी।

तुम्हहिं न सोच सोहाग बल , निज बस जानहु राउ।

मन मलीन मुँहु मीठु नृप , राउर सरल सुभाउ।

जौ असत्य कछु कहब बनाई।

तौ विधि देइहि हमहिं सजाई।

रेख ख्रचाइ कहहुँ बल भाखी।

भामिनि भइहु दूधा कै माखी।

काह करउँ सखि सूधा सुभाऊ।

दाहिन बाम न जानउँ काऊ।

नैहर जनम भरब बरु जाई।

जिअत न करब सवति सेवकाई।

- रामायण

2. मोकहँ झूठहिं दोष लगावहिं।

मइया इनहिं बान परगृह की नाना जुगुति बनावहिं।

इन्ह के लिए खेलिबो छोरयो तऊ न उबरन पावहिं।

भाजन फोरि बोरि कर गोरस देन उरहनो आवहिं।

कबहुंक बाल रोवाइ पानि गहि

एहि मिस करि उठि धावहिं।

करहिं आप सिर धारहिं आन के

बचन बिरंचि हरावहिं।

मेरी टेव बूझ हलधार सों संतत संग खेलावहिं।

जे अन्याउ करहिं काहू को ते सिसु मोहिं न भावहिं।

सुनि सुनि बचन-चातुरी

ग्वालिनि हँसि हँसि बदन दुरावहिं।

बालगोपाल केलि कल कीरति।

तुलसिदास मुनि गावहिं।

3. अबहिं उरहनो दै गई बहुरो फिरि आई।

सुनि मइया तेरी सौं करौं याकी टेव

लरन की सकुच बेंचि सी खाई।

या व्रज में लरिका घने हौं ही अन्याई।

मुँह लाये मूँड़हिं चढ़ी अन्तहु

अहिरिनि तोहिं सूधी करि पाई।

- कृष्ण गीतावली

रामायण का पद्य अवधी बोलचाल का बड़ा ही सुन्दर नमूना है। उसमें भावुकता कितनी है और मानसिक भाव का कितना सुन्दर चित्राण है, इसको प्रत्येक सहृदय समझ सकता है। स्त्राी-सुलभ प्रकृति का इन पद्यों में ऐसा सच्चा चित्रा है कि जिसको बार-बार पढ़कर भी जी नहीं भरता। कृष्ण गीतावली के दोनों पद भी अपने ढंग के बड़े ही अनूठे हैं। उनमें ब्रजभाषा-शब्दों का कितना सुन्दर व्यवहार है और किस प्रकार मुहावरों की छटा है, वह अनुभव की वस्तु है। बालभाव का जैसा चित्रा दोनों पदों में है उसकी जितनी प्रशंसा की जाय, थोड़ी है। गोस्वामीजी की लेखनी का यह महत्तव है कि वे जिस भाव को लिखते हैं। उसका यथातथ्य चित्राण कर देते हैं और यही महाकवि का लक्षण है। गोस्वामीजी ने अपने ग्रन्थों में से रामायण की मुख्य भाषा अवधी रखी है। जानकी मंगल, राम लला नहछू, बरवै रामायण और पार्वती मंगल की भाषा भी अवधी है। कृष्ण गीतावली को उन्होंने शुध्द ब्रजभाषा में लिखाहै। अन्य ग्रन्थों में उन्होंने बड़ी स्वतन्त्राता से काम लिया है। इनमें उन्होंने अपनी इच्छा के अनुसार यथावसर ब्रजभाषा और अवधी दोनों के शब्दों का प्रयोग किया है।

गोस्वामीजी की यह विशेषता भी है कि उनका हिन्दी के उस समय के प्रचलित छन्दों पर समान अधिकार देखा जाता है। यदि उन्होंने दोहा-चौपाई में प्रधान-ग्रन्थ लिखकर पूर्ण सफलता पायी तो कवितावली को कवित्ता और सवैया में एवं गीतावली और विनय-पत्रिाका को पदों में लिखकर मुक्तक विषयों के लिखने में भी अपना पूर्ण अधिकार प्रकट किया। उनके बरबे भी बड़े सुन्दर हैं और उनकी दोहावली के दोहे भी अपूर्व हैं। इस प्रकार की क्षमता असाधारण महाकवियों में ही दृष्टिगत होती है। मैं इन ग्रन्थों के भी थोड़े से पद्य आप लोगों के सामने रखता हूँ। उनको पढ़िए और देखिए कि उनमें प्रस्तुत विषय और भावों के चित्राण में कितनी तन्मयता मिलती है और प्रत्येक छन्द में उनकी भाषा का झंकार किस प्रकार भावों के साथ झंकृत होता रहता है। विषयानुकूल शब्द-चयन में भी वे निपुण थे। नीचे के पद्यों को पढ़कर आप यह समझ सकेंगे कि भाषा पर उनका कितना अधिकार था। वास्तव में भाषा उनकी अनुचरी ज्ञात होती है। वे उसे जब जिस ढंग में ढालना चाहते हैं, ढाल देते हैं-

4. बर दंत की पंगति कुंद कली

अधाराधार पल्लव खोलन की।

चपला चमकै घन बीच जगै

छबि मोतिन माल अमोलन की।

घुँघरारी लटैं लटकैं मुख ऊपर

कुण्डल लोल कपोलन की।

निवछावर प्रान करै तुलसी

बलि जाउँ लला इन बोलन की।

5. हाट बाट कोट ओट अटनि अगार पौरि

खोरि खोरि दौरि दौरि दीन्हों अति आगि है।

आरत पुकारत सँभारत न कोऊ काहू

व्याकुल जहाँ सो तहाँ लोक चल्यो भागि है।

बालधी फिरावै बार बार झहरावै झरैं

बुँदियाँ-सी लंक पघिराइ पाग पागि है।

तुलसी बिलोकि अकुलानी जातुधानी कहैं

चित्राहूं के कपि सों निसाचर न लागि है।

- कवितावली

6. पौढ़िये लाल पालने हौं झुलावौं।

बाल बिनोद मोद मंजुल मनि किलकनि खानि खुलावौं।

तेइ अनुराग ताग गुहिबे कहँ मति मृगनैनि बुलावौं।

तुलसी भनित भली भामिनि उर सो पहिराइ फुलावौं।

चारु चरित रघुवर तेरे तेहि मिलि गाइ चरन चित लावौं।

7. बैठी सगुन मनावति माता।

कब अइहैं मेरे लाल कुसल घर कहहु काग फुरि बाता।

दूधा भात की दोनी दैहों सोने चोंच मढ़ैहौं।

जब सिय सहित बिलोकि नयन भरि राम लखन उर लैहौं।

अवधि समीप जानि जननी जिय अति आतुर अकुलानी।

गनक बुलाइ पाय परि पूछत प्रेम मगन मृदु बानी।

तेहि अवसर कोउ भरत निकट ते समाचार लै आयो।

प्रभु आगमन सुनत तुलसीमनो मरत मीन जल पायो।

- गीतावली

8. बावरो रावरो नाह भवानी।

दानि बड़ो दिन देत दये बिनु बेद बडरई भानी।

निज घर की बर बात बिलोकहु हो तुम परम सयानी।

सिवकी दई संपदा देखत श्री सारदा सिहानी।

जिनके भाल लिखी लिपि मेरी सुख की नहीं निसानी।

तिन रंकन को नाक सँवारत हौं आयों नकवानी।

दुख दीनता दुखी इनके दुख जाचकता अकुलानी।

यह अधिकार सौंपिये औरहिं भीख भली मैं जानी।

प्रेम प्रसंसा विनय व्यंग जुत सुनि विधि की बर बानी।

तुलसी मुदित महेस मनहिं मन जगत मातु मुसकानी।

9. अबलौं नसानी अब ना नसैहौं।

राम कृपा भव निसा सिरानी जागे फिर न डसैहौं।

पायो नाम चारु चिंतामनि उर कर ते न खसैहौं।

स्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी चित कंचनहिं कसैहौं।

परबस जानि हस्यो इन इन्द्रिन निज बस ह्नै न हँसैहौं।

मन मधुकर पन करि तुलसी रघुपति पद कमल बसैहौं।

- विनयपत्रिाका

10. गरब करहु रघुनन्दन जनि मन माँह।

देखहु आपनि मूरति सिय कै छाँह।

डहकनि है उँजियरिया निसि नहिं घाम।

जगत जरत अस लागइ मोंहि बिनु राम।

अब जीवन कै है कपि आस न कोइ।

कनगुरिया कै मुँदरी कंकन होइ।

स्याम गौर दोउ मूरति लछिमन राम।

इनते भई सित कीरति अति अभिराम।

विरह आग उर ऊपर जब अधिकाइ।

ए ऍंखिया दोउ बैरिन देहिं बुताइ।

सम सुबरन सुखमाकर सुखद न थोर।

सीय अंग सखि कोमल कनक कठोर।

- बरवै रामायण

11. तुलसी पावस के समै धारी कोकिला मौन।

अब तो दादुर बोलिहैं हमैं पूछिहैं कौन।

हृदय कपट बर बेष धारि बचन कहैं गढ़ि छोलि।

अब के लोग मयूर ज्यों क्यों मिलिये मन खोलि।

आवत ही हरखै नहीं नैनन नहीं सनेह।

तुलसी तहाँ न जाइये कंचन बरसै मेह।

तुलसी मिटै न मोह तम किये कोटि गुन ग्राम।

हृदय कमल फूलै नहीं बिनु रवि कुल रवि राम।

अमिय गारि गारेउ गरल नारि करी करतार।

प्रेम बैर की जननि जुग जानहिं बुधा न गँवार।

- दोहावली

ब्रजभाषा और अवधी के विशेष नियम क्या हैं? मैं इसे पहले विस्तार से लिख चुका हूँ। मलिक मुहम्मद जायसी और सूरदास की भाषा में उक्त भाषाओं के नियमों का प्रयोग भी दिखला चुका हूँ। गोस्वामीजी की रचना में भी अवधी और ब्रजभाषा के नियमों का पालन पूरा-पूरा हुआ है। मैं उनकी रचना की पंक्तियों को लेकर इस बात को प्रमाणित कर सकता हूँ। किन्तु यह बाहुल्य मात्रा होगा। गोस्वामीजी की उद्धृत रचनाओं को पढ़कर आप लोग स्वयं इस बात को समझ सकते हैं कि उन्होंने किस प्रकार दोनों भाषाओं के नियमों का पालन किया। मैं उसका दिग्दर्शन मात्रा ही करूँगा। युक्ति-विकर्ष के प्रमाण भूत ये शब्द हैं, गरब, अरधा, मूरति। कारकों का लोप इन वाक्यांशों में पाया जाता है 'बोरि कर गोरस', 'बाल रोवाइ', 'सिर धारहिं आन के', 'वचन बिरंचि हरावहि', 'पालने पौढ़िये', 'किलकनि खानि', 'तुलसी भनिति', 'सोने चोंच मढ़ैहो', 'रामलखन उर लेहौं', 'वेद बड़ाई', 'जगत मातु'। 'श', 'ण', 'क्ष' इत्यादि के स्थान पर 'स', 'न', 'छ', का व्यवहार 'सिंगारू', 'प्रसंसा', 'परबस', 'सिसु', 'पानि', 'भरन', 'गनक', 'लच्छि' आदि में है। प×चम वर्ण की जगह पर अनुस्वार का प्रयोग 'मंजुल', 'बिरंचि', 'कंचनहि' आदि में मिलेगा। शब्द के आदि के 'य' के स्थान पर 'ज' का व्यवहार जुवति, जागु, जुगुति आदि में आप देखेंगे। संज्ञाओं और विशेषणों के अपभ्रंश के अनुसार, उकारान्त प्रयोग के उदाहरण ये शब्द हैं, कपारु, मुहुँ, मीठु, आदि Ðस्व का दीर्घ और दीर्घ काÐस्व-प्रयोग कमनीया 'बाता', 'जुवति', 'रेख' इत्यादि शब्दों में हुआ है। प्राकृत शब्दों का उसी के रूप में ग्रहण तीय, नाह इत्यादि में है। ब्रजभाषा की रचना में आपको संज्ञाएँ, क्रियाएँ दोनों अधिकतर ओकारान्त मिलेंगी और इसी प्रकार अवधी की संज्ञाएँ और क्रियाएँ नियमानुकूल अकारान्त पायी जाएँगी। उराहनी, बहुरो, पायो, आयो, बड़ो, कहब, रहब, होब, देन, राउर इत्यादि इसके प्रमाण हैं। अधिकतर तद्भव शब्द ही दोनों भाषाओं में आये हैं। परन्तु जहाँ भाषा तत्सम शब्द लाने से ही सुन्दर बनती है, वहाँ गोस्वामीजी ने तत्सम शब्दों का प्रयोग भी किया है। जैसे 'प्रिय', 'कुरूप', 'रिपु', 'असत्य', 'पल्लव' इत्यादि। मुहावरों का प्रयोग भी उन्होंने अधिकता से किया है। परंतु विशेषता यह है कि जिस भाषा में मुहावरे आये हैं उनको उसी भाषा के रूप में लिखा है जैसे 'नयनभरि', 'मुँह लाये', 'मूड़हिं चढ़ी', 'जनम भरव', 'नकबानी आयो', 'ठकुरसुहाती', 'बवा सो लुनिय'इत्यादि। अवधी में स्त्राीलिंग के साथ सम्बन्धा का चिद्द सदा “कै” आता है। गोस्वामीजी की रचनाओं में भी ऐसा ही किया गया है, 'दूधा कै माखी', 'कै छाँह', इत्यादि इसके सबूत हैं। क्रिया बनाने में विधि के साथ इकार का संयोग किया जाता है। उनकी कविता में भी यह बात मिलती है जैसे 'भरि', 'फोरी', 'बोरि' इत्यादि। अनुप्रास के लिए तुकान्त में इस 'इ' को दीर्घ भी कर दिया जाता है। उन्होंने भी ऐसा किया है। 'देखिए 'जानी', 'होई' इत्यादि। ऐसे ही नियम सम्बन्धी अन्य बातें भी आप लोगों को उनमें दृष्टिगत होंगी।

सूरदासजी के हाथों में पड़कर ब्रजभाषा और गोस्वामीजी की लेखनी से लिखी जाकर अवधी प्रौढ़ता को प्राप्त हो गयी। इन दोनों भाषाओं का उच्च से उच्च विकास इन दोनों महाकवियों के द्वारा हुआ। साहित्यिक भाषा में जितना सौन्दर्य-सम्पादन किया जा सकता है, इन दोनों महापुरुषों से इनकी रचनाओं में उसकी भी पराकाष्ठा हो गई। अनुप्रासों और रस एवं भावानुकूल शब्दों का विन्यास जैसा इन कविकर्म्मनिपुण महाकवियों की कृति में पाया जाता है वैसा आज तक की हिन्दी भाषा की समस्त रचनाओं में नहीं पाया जाता। भविष्य में क्या होगा, इस विषय में कुछ कहना असम्भव है। “जिनको सजीव पंक्तियाँ कहते हैं”वे जितनी उन लोगों की कविताओं में मिलती हैं उतनी अब तक की किसी कविता में नहीं मिल सकीं। यदि इन लोगों की शब्द-माला में लालित्य नर्तन करता मिलता है तो भाव क्षुधा-वर्षण करते हैं। जब किसी भाषा की कविता प्रौढ़ता को प्राप्त होती है, उस समय उसमें व्यंजना की प्रधानता हो जाती है। इन लोगों की अधिकांश रचनाओं में भी यही बात देखी जाती है।

गोस्वामीजी के विषय में योरोपीय या अन्य विद्वानों की जो सम्मतियाँ हैं, उनमें से कुछ सम्मतियों को मैं नीचे लिखता हूँ। उनके पढ़ने से आप लोगों को ज्ञात होगा कि गोस्वामीजी के विषय में विदेशी विद्वान् भी कितनी उत्ताम सम्मति और कितना उच्च भाव रखते हैं। प्रोफेसर मोल्टन यह कहते हैं।

“मानव प्रकृति की अत्यन्त सूक्ष्म और गम्भीर ग्रहणशीलता, करुणा से लेकर आनन्द तक के सम्पूर्ण मनोविकारों के प्रति संवेदनशीलता, स्थान-स्थान पर मधयमश्रेणी का भाव जिस पर हँसते हुए महासागर के अनन्त बुद्बुदों की तरह परिहास क्रीड़ा करता है; कल्पना-शक्ति का स्फुरण जिसमें अनुभव और सृष्टि दोनों एक ही मानसिक क्रिया जान पड़ती हैं, साम×जस्य और अनुपात की वह धारणा जो जिसे ही स्पर्श करेगी उसे ही कलात्मक बना देगी; भाषा पर वह अधिकार जो विचार का अनुगामी है और वह भाषा जो स्वयं ही सौन्दर्य है; ये सब काव्य-स्फूर्ति के पृथक्-पृथक तत्तव जिनमें से एक भी विशेष मात्रा में विद्यमान होकर कवि की सृष्टि कर सकता है। तुलसीदास में सम्मिलित रूप में पाये जाते हैं।”1

एक दूसरे सज्जन की यह सम्मति है-

हम पैगम्बर (ईश्वरीय दूत) को उसके कार्यों के परिणामों की कसौटी पर ही कसते हैं। जब मैं यह कहता हूँ कि पूरे नौ करोड़ मनुष्य अपने नैतिक और धार्मिक आचार-सम्बन्धी सिध्दान्तों को तुलसीदास की कृति ही से ग्रहण् करते हैं तो अत्युक्ति नहीं करता, मेरा यह अनुमान साधारण जनसंख्या से कुछ कम ही है। वर्तमान समय में उनका जितना प्रभाव है कि यदि उसके आधार पर हम अपना निर्णय स्थिर करें तो वे एशिया के तीन या चार महान लेखकों में परिगणित होंगे।”2

1. Grasp of human nature the most profound, the most subtle; responsivenesi to emotion throughout the whole scale from tragic pathes to rollicking jollity, with a middle range, over which plays a humour like the innumerable twinklings of a laughing ocean; powers of imagination so instinctive that to percieve and create seem the same mental act; a sense of symmetry and proportion that will make everything it touches into art; mastery of language that is the servant of thought and language that is the beauty in it self; all these separate elements of poetic force, any one of which inconsicuous degree might make a poet, are in Tulsidasa found in complete combination "Prof. Moultons 'World Literature' P. 166."

2. "We judge of a prophet by his fruits and I give much less than usual estimate when I say that fully ninety millions of people have heard the theories of moral and religious conduct upon his writings. Is we take the influence exercised by him at present time as our test, he in one of the three of four great writers of Asia."

R. R. A. S., July 1930, P. 455.

डॉक्टर जी. ए. ग्रियर्सन का यह कथन है-

“भारतवर्ष के इतिहास में तुलसीदास का बहुत अधिक महत्तव है। उनके काव्य की साहित्यिक उत्कृष्टता की ओर न भी धयान दें तो भागलपुर से लेकर पंजाब तक और हिमालय से लेकर नर्मदा तक समस्त श्रेणियों के लोगों का उन्हें आदरपूर्वक ग्रहण करना धयान देने योग्य बात है। तीन सौ से भी अधिक वर्षों से उनके काव्य का हिन्दू जनता की बोलचाल, तथा उनके चरित्रा और जीवन से सम्बन्धा है। वह उनकी कृति को केवल उसके काव्य-गत सौन्दर्य के लिए ही नहीं चाहती है, उसे श्रध्दा की दृष्टि से ही नहीं देखती है, उसे धार्मिक ग्रन्थ के रूप में पूज्य समझतीहै। दसकरोड़ जनता के लिए वह बाइबिल (Bible) के समान है और वह उसे उतना ही ईश्वरप्रेरित समझती है जितना अंग्रेज पादरी बाइबिल को समझता है। पंडित लोग भले ही वेदों की चर्चा और उनमें से थोड़े से लोग उनका अधययन भी करें, भले ही कुछ लोग पुराणों के प्रति श्रध्दा-भक्ति भी प्रदर्शित करें किन्तु पठित वा अपठित विशाल जनसमूह वो तुलसी-कृत रामायण ही से अपने आचार-धर्म की शिक्षा ग्रहण करता है। हिन्दुस्तान के लिए यह वास्तव में सौभाग्य की बात है, क्योंकि उसने देश को शैव धर्म के अनाचरणीय क्रिया-कलाप से सुरक्षित रखा है। बंगाल जिस दुर्भाग्य के चक्कर में पड़ गया उससे उत्तारी भारत के मूल त्राण करने वाले तो रामानन्द थे,किन्तु महात्मा तुलसीदास ही का यह काम था कि उन्होंने पूर्व और पश्चिम में उनके मत का प्रचार किया और उसमें स्थायित्व का संचार कर दिया।”1

हिन्दी-संसार ने सूरदासजी और गोस्वामीजी के बाद का स्थान कविवर केशवदासजी को ही दिया है। मैं भी इसी विचार का हूँ।

उनको 'उडुगन' कहा गया है। यदि वे उडुगन हैं तो प्रभात कालिक शुक्र (कवि) के समान प्रभा-विकीर्णकारी हैं। कविकर्म शिक्षा की पूर्ण ज्योति रीति काल के प्रभात

1. "The importance of Tulsidas in the history of India can not be overrated, Pulling the literary merits of his work out of the question, the fact of its universal acceptance by all classes, from Bhagalpur to the Punjab and from the Himalaya to the Narmada is surely worthy of note. It has been interwoven into the, life, character, and speech of the Hindu population for more than three hundred years, and is not only loved and admired by them for its poetic beauty, but is reverened by them as their scriptures. It is the bible of a hundred millions of people, and is looked upon by them as much inspired as the bible is considered by the English clergymen. Pandits may talk of the vedas and of the Upnishadas and a few may even study them, others may say they pin their faith on the puranas : but to the vast majority of the people of Hindustan, learned and unlearned alike, their soul room of conduct is the so called Tulsikrit Ramayan. It is indeed fortunate that is so, for it has saved the country from the tantric obscenities of Shaivism Ram Chandra was the original saviour of Upper India from the fate which has befallen Bengal, but Tulsidas was the great apostle who caried his doctrine east and west and made it an a biding faith."-

Modern Vernacular Literature of Hindustan, P. 42. 43

काल में केशवदास जी से ही हिन्दी संसार को मिली। सब बातों पर विचार करने से यह स्वीकार करना पड़ता है कि साहित्य सम्बन्धी समस्त अंगों की पूर्ति पहले-पहल केशवदास जी ने ही की। इनके पहले कुछ विद्वानों ने रीति-ग्रन्थों की रचना का सूत्रापात किया था किन्तु यह कार्य केशवदास जी की प्रतिभा से ही पूर्णता को प्राप्त हुआ। इतिहास बतलाता है कि आदि में कृपाराम ने ही 'हित तरंगिणी' नामक रस-ग्रन्थ की रचना की। इनका काल सोलहवीं शताब्दी का पूर्वार्ध्द है। इन्होंने अपने ग्रंथ मेंअपने

समय के पहले के कुछ सुकवियों की कुछ रचनाओं की भी चर्चा की है। किन्तु वे ग्रन्थ अप्राप्य हैं। ग्रन्थकारों के नाम तक पता नहीं मिलता। इन्हीं के समसामयिक गोप नामक कवि और मोहन लाल मिश्र थे। इनमें से गोप नामक कवि ने, रामभूषण और अलंकार-चन्द्रिका नामक ग्रन्थों की रचना की है। नाम से ज्ञात होता है कि ये दोनों ग्रन्थ अलंकार के होंगे। किन्तु ये ग्रन्थ भी नहीं मिलते। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि ये ग्रन्थ कैसे थे, साधारण या विशद। मेरा विचार है कि वे साधारण ग्रन्थ ही थे। अन्यथा इतने शीघ्र लुप्त न हो जाते। मोहन लाल मिश्र ने 'शृंगार-सागर' नामक ग्रंथ की रचना की थी। ग्रन्थ का नाम बतलाता है कि वह रस-सम्बन्धी ग्रन्थ होगा। इन लोगों के उपरान्त केशवदास जी ही कार्य-क्षेत्र में आते हैं। वे संस्कृत के प्रसिध्द विद्वान थे। वंश-परम्परा से उनके कुल में संस्कृत के उद्भट विद्वान् होते आते थे। उनके पितामह पं. कृष्णदत्ता मिश्र संस्कृत के प्रसिध्द नाटक 'प्रबोधा-चन्द्रोदय' के रचयिता थे। उनके पिता पं. काशीनाथ भी संस्कृत भाषा के प्रसिध्द विद्वान थे। उनके बड़े भाई पं. बलभद्र मिश्र संस्कृत के विद्वान तो थे ही, हिन्दी भाषा पर भी बड़ा अधिकार रखते थे। इनका बनाया हुआ नखशिख-सम्बन्धी ग्रंथ अपने विषय का अद्वितीय ग्रन्थ है। ऐसे साहित्य-पारंगत विद्वानों के वंश में जन्म ग्रहण करके केशवदास जी का हिन्दीभाषा के रीति-ग्रन्थों के निर्माण में विशेष सफलता लाभ करना आश्चर्यजनक नहीं। वे संकोच के साथ हिन्दी-क्षेत्र में उतरे, जैसा निम्नलिखित दोहे से प्रकट होता है-

भाषा बोलि न जानहीं , जिनके कुल के दास।

तिन भाषा कविता करी , जड़मति केशवदासड्ड

परन्तु जिस विषय को उन्होंने हाथ में लिया उसको पूर्णता प्रदान की। उनके बनाये हुए 'कविप्रिया' और 'रसिकप्रिया'नामक ग्रन्थ रीति-ग्रन्थों के सिरमौर हैं। पहले भी साहित्य विषय के कुछ ग्रन्थ बने थे और उनके उपरान्त भी अनेक रीति ग्रन्थ लिखे गये परन्तु अब तक प्रधानता उन्हीं के ग्रन्थों को प्राप्त है। जब साहित्य-शिक्षा का कोई जिज्ञासु हिन्दी-क्षेत्र में पदार्पण करता है, तब उसको 'रसिक-प्रिया' का रसिक और 'कविप्रिया' का प्रेमिक अवश्य बनना पड़ता है। इससे इन दोनों ग्रन्थों की महत्ता प्रकट है। जिन्होंने इन दोनों ग्रन्थों को पढ़ा है वे जानते हैं कि इनमें कितनी प्रौढ़ता है। रीति-सम्बन्धी सब विषयों का विशद वर्णन थोड़े में जैसा इन ग्रन्थों में मिलता है, अन्यत्रा नहीं। 'रसिक-प्रिया' में शृंगार रस सम्बन्धी समस्त विशेषताओं का उल्लेख बड़े पाण्डित्य के साथ किया गया है। कवि-प्रिया वास्तव में कविप्रिया है, कवि के लिए जितनी बातें ज्ञातव्य हैं उनका विशद निरूपण इस ग्रन्थ में है। मेरा विचार है कि केशवदास की कवि-प्रतिभा का विकास जैसा इन ग्रन्थों में हुआ, दूसरे ग्रन्थों में नहीं। क्या भाषा, क्या भाव, क्या शब्द-विन्यास, क्या भाव-व्यंजना, जिस दृष्टि से देखिए ये दोनों ग्रन्थ अपूर्व हैं। उन्होंने इन दोनों ग्रन्थों के अतिरिक्त और ग्रन्थों की रचना की है। उनमें सर्वप्रधान रामचन्द्रिका है। यह प्रबन्धा-काव्य है। इस ग्रन्थ के संवाद ऐसे विलक्षण हैं जो अपने उदाहरण आप हैं। इस ग्रन्थ का प्रकृति-वर्णन भी बड़ा ही स्वाभाविक है।

कहा जाता है कि हिन्दी-संसार के कवियों ने प्रकृति-वर्णन के विषय में बड़ी उपेक्षा की है। उन्होंने जब प्रकृति-वर्णन किया है तब उससे उद्दीपन का कार्य ही लिया है। प्रकृति में जो स्वाभाविकता होती है, प्रकृतिगत जो सौन्दर्य होता है, उसमें जो विलक्षणताएँ और मुग्धाकारिताएँ पाई जाती हैं, उनका सच्चा चित्राण हिन्दी-साहित्य में नहीं पाया जाता। किसी नायिका के विरह का अवलम्बन करके ही हिन्दी कवियों और महाकवियों ने प्रकृति-गत विभूतियों का वर्णन किया है। सौन्दर्य-सृष्टि के लिए उन्होंने प्रकृति का निरीक्षण कभी नहीं किया। इस कथन में बहुत कुछ सत्यता का अंश है। कवि-कुलगुरु-वाल्मीकि एवं कविपुंगव कालिदास की रचनाओं में जैसा उच्च कोटि का स्वाभाविक प्रकृति वर्णन मिलता है, निस्सन्देह हिन्दी-साहित्य में उसका अभाव है। यदि हिन्दी-संसार के इस कलंक को कोई कुछ धोता है तो वे कविवर केशवदास के ही कुछ प्राकृतिक वर्णन हैं और वे रामचन्द्रिका ही में मिलते हैं। मैं आगे चलकर इस प्रकार के पद्य उद्धृत करूँगा। यह कहा जाता है कि प्रबंधा-काव्यों को जितना सुशृंखलित होना चाहिए रामचंद्रिका वैसी नहीं है। इसमें स्थान-स्थान पर कथा भागों की शृंखला टूटती रहती है। दूसरी यह बात कही जाती है कि जैसी भावुकता और सहृदयता चाहिए वैसी इस ग्रन्थ में नहीं मिलती। ग्रन्थ क्लिष्ट भी बड़ा है। एक-एक पद्यों का तीन-तीन, चार-चार अर्थ प्रकट करने की चेष्टा करने के कारण इस ग्रन्थ की बहुत-सी रचनाएँ बड़ी ही गूढ़ और जटिल हो गयी हैं, जिससे उनमें प्रसाद गुण का अभाव है। इन विचारों के विषय में मुझे यह कहना है कि किसी भी ग्रन्थ में सर्वांगपूर्णता असम्भव है। उसमें कुछ न कुछ न्यूनता रह ही जाती है। संस्कृत के बड़े-बड़े महाकाव्य भी निर्दोष नहीं रहे। इसके अतिरिक्त आलोचकों की प्रकृति भी एक-सी नहीं होती। रुचि-भिन्नता के कारण किसी को कोई विषय प्यारा लगता है और कोई उसमें अरुचि प्रकट करता है। प्रवृत्तिा के अनुसार ही आलोचना भी होती है। इसलिए सभी आलोचनाओं में यथार्थता नहीं होती। उनमें प्रकृतिगत भावनाओं का विकास भी होता है। इसीलिए एक ही ग्रन्थ के विषय में भिन्न-भिन्न सम्मतियाँ दृष्टिगत होती हैं। केशवदास जी की रामचन्द्रिका के विषय में भी इस प्रकार की विभिन्न आलोचनाएँ हैं। किसी के विशेष विचारों के विषय में मुझे कुछ नहीं कहना है। किन्तु देखना यह है कि रामचन्द्रिका के विषय में उक्त तर्कनाएँ कहाँ तक मान्य हैं। प्रत्येक ग्रन्थकार का कुछ उद्देश्य होता है और उस उद्देश्य के आधार पर ही उसकी रचना आधारित होती है। केशवदास की रचनाओं में, जिन्हें प्रसाद गुण देखना हो वे 'कविप्रिया' और 'रसिकप्रिया' को देखें। उनमें जितनी सहृदयता है उतनी ही सरसता है। जितनी सुन्दर उनकी शब्द विन्यास प्रणाली है उतनी ही मधुर है उनकी भाव-व्यंजना। रामचन्द्रिका की रचना पाण्डित्य-प्रदर्शन के लिए हुई है और मैं यह दृढ़ता से कहता हूँ कि हिन्दी-संसार में कोई प्रबन्धा-काव्य इतना पाण्डित्यपूर्ण नहीं है। मैं पहले कह चुका हूँ कि वे संस्कृत के पूर्ण विद्वान थे। उनके सामने शिशुपाल-वधा और 'नैषधा' का आदर्श था। वे उसी प्रकार का काव्य हिन्दी के निर्माण करने के उत्सुक थे। इसीलिए रामचन्द्रिका अधिक गूढ़ है। साहित्य के लिए सब प्रकार के ग्रन्थों की आवश्यकता होती है। यथास्थान सरलता और गूढ़ता दोनों वांछनीय हैं। यदि लघुत्रायी आदरणीय है तो बृहत्त्रायी भी। रघुवंश को यदि आदर की दृष्टि से देखा जाता है तो नैषधा को भी। यद्यपि दोनों की रचना प्रणाली में बहुत अधिक अन्तर है। प्रथम यदि मधुर भाव-व्यंजना के लिए आदरणीय है तो द्वितीय अपनी गम्भीरता के लिए। शेक्सपियर और मिल्टन की रचनाओं के सम्बन्धा में भी यही बात कही जा सकती है। केशवदास जी यदि चाहते तो 'कवि प्रिया' और 'रसिक प्रिया' की प्रणाली ही रामचन्द्रिका में भी ग्रहण कर सकते थे। परन्तु उनको यह इष्ट था कि उनकी एक ऐसी रचना भी हो जिसमें गम्भीरता हो और जो पाण्डित्याभिमानी को भी पाण्डित्य-प्रकाश का अवसर दे अथच उसकी विद्वत्ता को अपनी गम्भीरता की कसौटी पर कस सके। इस बात को हिन्दी के विद्वानों ने भी स्वीकार किया है। प्रसिध्द कहावत है-'कवि को दीन न चहै बिदाई। पूछै केशव की कविताई।' एक दूसरे कविता-मर्मज्ञ कहते हैं-

उत्ताम पद कबि गंग को , कविता को बलबीर।

केशव अर्थ गँभीरता , सूर तीन गुन धीरड्ड

इन बातों पर दृष्टि रखकर रामचन्द्रिका की गम्भीरता इस योग्य नहीं कि उस पर कटाक्ष किया जावे। जिस उद्देश्य से यह ग्रन्थ लिखा गया है, मैं समझता हूँ, उसकी पूर्ति इस ग्रन्थ द्वारा होती है। इस ग्रन्थ के अनेक अंश सुन्दर, सरस और हृदयग्राही भी हैं और उनमें प्रसाद गुण भी पाया जाता है। हाँ,यह अवश्य है कि वह गम्भीरता के लिए ही प्रसिध्द हैं। मैं समझता हूँ कि हिन्दी संसार में एक ऐसे ग्रन्थ की भी आवश्यकता थी जिसकी पूर्ति करना केशवदास जी का ही काम था। अब केशवदास जी के कुछ पद्य मैं नीचे लिखता हूँ। इसके बाद भाषा और विशेषताओं के विषय में आप लोगों की दृष्टि उनकी ओर आकर्षित करूँगा-

1. भूषण सकल घनसार ही के घनश्याम ,

कुसुम कलित केश रही छवि छाई सी।

मोतिन की लरी सिरकंठ कंठमाल हार ,

और रूप ज्योति जात हेरत हेराई सी।

चंदन चढ़ाये चारु सुन्दर शरीर सब ,

राखी जनु सुभ्र सोभा बसन बनाई सी।

शारदा सी देखियत देखो जाइ केशो राइ ,

ठाढ़ी वह कुँवरि जुन्हाई मैं अन्हाई सी।

2. मन ऐसो मन मृदु मृदुल मृणालिका के ,

सूत कैसो सुर धवनि मननि हरति है।

दारयो कैसो बीज दाँत पाँत के अरुण ओंठ ,

केशोदास देखि दृग आनँद भरति है।

ऐरी मेरी तेरी मोहिं भावत भलाई तातें ,

बूझत हौं तोहि और बूझति डरति है।

माखन सी जीभ मुखकंज सी कोमलता में ,

काठ सी कठेठी बात कैसे निकरति है।

3. किधौं मुख कमल ये कमला की ज्योति होति

किधौं चारु मुखचन्द्र चन्द्रिका चुराई है।

किधौं मृगलोचन मरीचिका मरीचि कैधौं ,

रूप की रुचिर रुचि सुचि सों दुराई है।

सौरभ की सोभा की दलन घनदामिनी की

केशव चतुर चित ही की चतुराई है।

ऐरी गोरी भोरी तेरी थोरी थोरी हाँसी मेरे ,

मोहन की मोहिनी की गिरा की गुराई है।

4. बिधि के समान हैं बिमानी कृत राज हंस ,

विबुधा बिवुधा जुत मेरु सो अचल है।

दीपत दिपत अति सातो दीप दीपियत ,

दूसरो दिलीप सो सुदक्षिणा को बल है।

सागर उजागर को बहु बाहिनी को पति ,

छनदान प्रिय किधौं सूरज अमल है।

सब विधि समरथ राजै राजा दशरथ ,

भगीरथ पथ गामी गंगा कैसो जल है।

5. तरु तालीस तमाल ताल हिंताल मनोहर।

मंजुल बंजुल लकुच बकुल कुल केर नारियर।

एला ललित लवंग संग पुंगीफल सोहै।

सारी शुक कुल कलित चित्ता कोकिल अलि मोहै।

शुभ राजहंस कलहंस कुल नाचत मत्ता मयूर गन।

अति प्रफुलित फलित सदा रहै केशवदास विचित्राबन।

6. चढ़ो गगन तरु धाय , दिनकर बानर अरुण मुख।

कीन्हों झुकि झहराय , सकल तारका कुसुम बिन।

7. अरुण गात अति प्रात , पिर्निं प्राणनाथ भय।

मानहुँ केशवदास , कोकनद कोक प्रेममय।

परिपूरण सिंदूर पूर , कैधौं मंगल घट।

किधौं शक्र को क्षत्रा , मढ़यो माणिक मयूख पट।

कैशौणित कलित कपाल यह किल कापालिक कालको ,

यह ललित लाल कैधौं लसत दिग्भामिनि के भालको ,

8. श्रीपुर में बनमधय हौं , तू मग करी अनीति।

कहि मुँदरी अब तियन की , को करि है परतीति।

9. फलफूलन पूरे तरुवर रूरे कोकिल कुल कलरव बोलैं।

अति मत्तामयूरी पियरस पूरी बनबन प्रति नाचत डोलैं ,

सारी शुक पंडित गुनगन मंडित भावनमय अर्थ बखानैं

देखे रघुनायक सीय सहायक मनहुँ मदन रति मधुजानैं

10. मन्द मन्द धुनि सों घन गाजै।

तूर तार जनु आवझ बाजैं।

ठौर ठौर चपला चमकैं यों।

इन्द्रलोक तिय नाचति है ज्यों।

सोहैं घन स्यामल घोर घने।

मोहैं तिनमें बक पाँति मने।

शंखावलि पी बहुधा जलस्यों।

मानो तिनको उगिलै बलस्यों।

शोभा अति शक्र शरासन में।

नाना दुति दीसति है घन में।

रत्नावलि सी दिवि द्वार भनो।

बरखागम बाँधिय देव मनो।

घन घोर घने दसहूं दिसि छाये।

मघवा जनु सूरज पै चढ़ि आये।

अपराधा बिना छिति के तन ताये।

तिन पीड़न पीड़ित ह्नै उठि धाये।

अति गाजत बाजत दुंदुभि मानो।

निरघात सबै पविपात बखानो।

धानु है यह गौरमदाइन नाहीं।

सर जाल बहै जलधार वृथाहीं।

भट चातक दादुर मोर न बोले।

चपला चमकै न फिरै खग खोले।

दुति वन्तन को विपदा बहु कीन्हीं।

धारनी कहं चन्द्रवधू धर दीन्हीं।

11. सुभसर सोभै , मुनिमन लोभै।

सरसिज फूले , अलि रस भूले।

जलचर डोलैं बहुत खग बोलैं।

वरणि न जाहीं , उर उरझाहीं।

12. आरक्त पत्रा सुभ चित्रा पुत्री

मनो विराजै अति चारु भेषा।

सम्पूर्ण सिंदूर प्रभा बसै घौं

गणेश-भाल-स्थल चन्द्र रेखा।

केशवदास जी की भाषा के विषय में विचार करने के पहले मैं यह प्र्रकट कर देना चाहता हूँ कि इनके ग्रन्थ में जो मुद्रित होकर प्राप्त होते हैं, यह देखा जाता है कि एक ही शब्द के भिन्न-भिन्न रूप हैं। इससे किसी सिध्दान्त पर पहुँचना बड़ा दुस्तर है। फिर भी सब बातों पर विचार करके और व्यापक प्रयोग पर दृष्टि रखकर मैं जिस सिध्दान्त पर पहुँचा हूँ, उसको आप लोगों के सामने प्रकट करता हूँ। केशवदास जी के ग्रन्थों की मुख्य भाषा ब्रजभाषा है। परन्तु बुन्देलखंडी शब्दों का प्रयोग भी उनमें पाया जाता है। यह स्वाभाविकता है। जिस प्रान्त में वे रहते थे उस प्रान्त के कुछ शब्दों का उनकी रचना में स्थान पाना आश्चर्यजनक नहीं। इस दोष से कोई कवि या महाकवि मुक्त नहीं। बुन्देलखंडी भाषा लगभग ब्रजभाषा ही है और उसकी गणना भी पश्चिमी हिन्दी में ही है। हाँ, थोड़े से शब्दों या प्रयोगों में भेद अवश्य है। परन्तु इससे ब्रजभाषा की प्रधानता में कोई अन्तर नहीं आता। केशवदास जी ने यथास्थान बुन्देलखंडी शब्दों का जो अपने ग्रन्थ में प्रयोग किया है, मेरा विचार है कि इसी दृष्टि से। ब्रजभाषा के जो नियम हैं वे सब उनकी रचना में पाये जाते हैं। इसलिए उन नियमों पर उनकी रचना को कसना व्यर्थ विस्तार होगा। मैं उन्हीं बातों का उल्लेख करूँगा जो ब्रजभाषा से कुछ भिन्नता रखती हैं।

मैं पहले कह चुका हूँ कि केशवदास जी संस्कृत के पंडित थे। ऐसी अवस्था में उनका संस्कृत के तत्सम शब्दों को शुध्द रूप में लिखने के लिए सचेष्ट रहना स्वाभाविक है। वे अपनी रचनाओं में यथाशक्ति संस्कृत के तत्सम शब्दों को शुध्द रूप में लिखना ही पसन्द करते हैं। यदि कोई कारण-विशेष उनके सामने उपस्थित न हो जावे। एक बात और है। वह यह कि बुन्देलखंड में णकार और शकार का प्रयोग प्राय: बोल-चाल में अपने शुध्द रूप में किया जाता है। इसलिए भी उन्होंने संस्कृत के उन तत्सम शब्दों को जिनमें णकार और शकार आते हैं प्राय: शुध्द रूप में ही लिखने की चेष्टा की है। उसी अवस्था में उनको बदला है जब उनके परिवर्तन से या तो पद्य में कोई सौन्दर्य आता है या अनुप्रास की आवश्यकता उन्हें विवश करती है। गोस्वामी तुलसीदासजी ने ब्रजभाषा और अवधी के नियमों का पूरा पालन किया है किन्तु जब उन्होंने किसी अन्य प्रान्त का शब्द लिया तो उसको उसी रूप में लिखा। वे रामायण के अरण्य कांड में एक स्थान पर रावण के विषय में लिखतेहैं-

'इत उत चितै चला भणिआई'। 'भणिआ' शब्द बुन्देलखंडी है। उसका अर्थ है 'चोर' 'भणिआई' का अर्थ है 'चोरी'। गोस्वामीजी चाहते तो उसको 'भनिआई' अवधी के नियमानुसार बना लेते, परन्तु ऐसा करने में अर्थ-बोधा में बाधा पड़ती। एक तो शब्द दूसरे प्रान्त का, दूसरे यदि वह अपने वास्तव रूप में न हो तो उसका अर्थ-बोधा सुलभ कैसे होगा? इसलिए उसका अपने मुख्य रूप में लिखा जाना ही युक्तिसंगत था। गोस्वामी जी ने ऐसा ही किया। केशवदास जी की दृष्टि भी इसी बात पर थी इसीलिए उन्होंने वह मार्ग ग्रहण किया जिसकी चर्चा मैंने अभी की है। कुछ पद्य मैं लिखकर अपने कथन को पुष्ट करना चाहता हूँ। देखिए-

1. सब शृंगार मनो रति मन्मथ मोहै।

2. सबै सिंगार सदेह सकल सुख सुखमा मंडित।

3. मनो शची विधि रची विविधा विधि वर्णत पंडित।

4. जानै को केसव केतिक बार मैं सेस के सीसन दीन्ह उसासी।

ऊपर की दो पंक्तियों में एक में 'शृंगार' और दूसरी में 'सिंगार' आया है। 'शृंगार' संस्कृत का तत्सम शब्द है। अतएव अपने सिध्दान्तानुसार उसको उन्होंने शुध्द रूप में लिखा है, क्योंकि शुध्द रूप में लिखने से छन्द की गति में कोई बाधा नहीं पड़ी। परन्तु दूसरी पंक्ति में उन्होंने उसका वह रूप लिखा है जो ब्रजभाषा का रूप है। दोनों पंक्तियाँ एक ही पद्य की हैं। फिर उन्होंने ऐसा क्यों किया? कारण स्पष्ट है। 'शृंगार' में पाँच मात्राएँ हैं और 'सिंगार' में चार मात्राएँ हैं। दूसरे चरण में 'शृंगार' खप नहीं सकता था। क्योंकि एक मात्रा अधिक हो जाती। इसलिए उन्हें उसको ब्रजभाषा ही के रूप में रखना पड़ा। अपने-अपने नियमानुसार दोनों रूप शुध्द हैं। चौथे पद्य में उन्होंने अपने नाम को दन्त्य 'स' से ही लिखा, यद्यपि वे अपने नाम में तालव्य'श' लिखना ही पसन्द करते हैं, यहाँ भी यह प्रश्न होगा कि फिर कारण क्या? इसी पंक्ति में 'सेस' और 'सीसन' शब्द भी आये हैं जिनका शुध्द रूप 'शेष' और 'शीशन' है। इस शुध्द रूप में लिखने में भी छन्द की गति में कोई बाधा नहीं पड़ती। क्योंकि मात्रा में न्यूनाधिक्य नहीं। फिर भी उन्होंने उसको ब्रजभाषा के रूप में ही लिखा। इसका कारण भी विचारणीय है, वास्तव बात यह है कि उनके कवि हृदय ने अनुप्रास का लोभ संवरण नहीं किया। अतएव उन्होंने उनको ब्रजभाषा के रूप ही में लिखना पसंद किया। 'केसव' 'सेस' और 'सीसन' ने दन्त्य 'स' के सहित 'उसासी' के साथ आकर जो स्वारस्य उत्पन्न किया है वह उन शब्दों के तत्सम रूप में लिखे जाने से नष्ट हो जाता। इसलिए उनको इस पद्य में तत्सम रूप में नहीं देख पाते। ऐसी ही और बातें बतलाई जा सकती हैं कि जिनके कारण केशवदास जी एक ही शब्द को भिन्न रूपों में लिखते हैं। इससे यह न समझना चाहिए कि उनका कोई सिध्दान्त नहीं, वे जब जिस रूप में चाहते हैं किसी शब्द को लिख देते हैं। मेरा विचार है कि उन्होंने जो कुछ किया है, नियम के अन्तर्गत ही रहकर किया है। दो ही रूप उनकी रचना में आते हैं या तो संस्कृत शब्द अपने तत्सम रूप में आता है अथवा ब्रजभाषा के तद्भव रूप में, और यह दोनों रूप नियम के अन्तर्गत हैं। ऐसी अवस्था में यह सोचना कि शब्द-व्यवहार में उनका कोई सिध्दान्त नहीं, युक्ति-संगत नहीं।

मैंने यह कहा कि उनके ग्रन्थ की मुख्य भाषा ब्रजभाषा ही है। इसका प्रमाण समस्त उद्धृत पद्यों में मौजूद है। उनमें अधिकांश ब्रजभाषा के नियमों का पालन है। युक्त-विकर्ष, कारकलोप, 'णकार', 'शकार', 'क्षकार' के स्थान पर 'न', 'स' और 'छ'का प्रयोग, प्राकृत भाषा के प्राचीन शब्दों का व्यवहार, प×चम वर्ण के स्थान पर अधिकांश अनुस्वार का ग्रहण इत्यादि जितनी विशेष बातें ब्रजभाषा की हैं, वे सब उनकी रचना में पाई जाती हैं। उद्धृत पद्यों में से पहले, दूसरे और तीसरे नम्बर पर लिखे गये कवित्ताों में तो ब्रजभाषा की सभी विशेषताएँ मूर्तिमन्त होकर विराजमान हैं। हाँ, कुछ तत्सम शब्द अपने शुध्द रूप में अवश्य आये हैं। इसका हेतु मैं ऊपर लिख चुका हूँ। उनकी रचना में 'गौरमदाइन', 'स्यों', 'बोक', 'बारोठा', 'समदौ', 'भाँडयो'आदि शब्द भी आते हैं।

नीचे लिखी हुई पंक्तियाँ इसके प्रमाण हैं-

1. देवन स्यों जनु देवसभा शुभ सीय स्वयम्बर देखन आई।

2. “ दुहिता समदौ सुख पाय अबै। “

3. कहूँ भाँड़ भांडयो करैं मान पावैं।

4. कहूँ बोक बाँके कहूँ मेष सूरे।

5. धानु है यह गौरमदाइन नाहीं।

6. ' बारोठे को चार कहि करि केशव अनुरूप ' ।

ये बुन्देलखंडी शब्द हैं। उनके प्रान्त की बोलचाल में ये शब्द प्रचलित हैं। इसलिए विशेष स्थलों पर उनको इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग करते देखा जाता है। किन्तु फिर भी इस प्रकार के प्रयोग मर्य्यादित हैं और संकीर्ण स्थलों पर ही किये गये हैं। इसलिए मैं उनको कटाक्ष योग्य नहीं मानता। उनकी रचना में एक विशेषता यह है कि वे तत्सम शब्दों को यदि किसी स्थान पर युक्त-विकर्ष के साथ लिखते हैं तो भी उसमें थोड़ा ही परिवर्तन करते हैं। जब उनको क्रिया का स्वरूप देते हैं तो भी यही प्रणाली ग्रहण करते हैं। देखिए-

1. इनहीं के तपतेज तेज बढ़ि है तन तूरण A

इन्हीं के तपतेज होहिंगे मंगल पूरण A

2. रामचन्द्र सीता सहित शोभत हैं तेहि ठौर।

3. मनो शची विधि रची विविधा विधि वर्णत पंडित।

'तूरण', 'पूरण', 'शोभत', 'वर्णत' इत्यादि शब्द इसके प्रमाण हैं। ब्रजभाषा के नियमानुसार इनको 'तूरन', 'पूरन', 'सोभत', 'बरनत' लिखना चाहिए था। किन्तु उन्होंने इनको इस रूप में नहीं लिखा। इसका कारण् भी उनका संस्कृत तत्सम शब्दानुराग है। बुन्देलखंडी भाषा में 'हुतो' एकवचन पुंल्लिंग में और 'हते' बहुवचन पुंल्लिंग में बोला जाता है। इनका स्त्राीलिंग रूप 'हतों'और 'हती' होगा। ब्रजभाषा में ए दोनों तो लिखे जाते ही हैं, 'हुतो' और 'हुती' भी लिखा जाता है। वे भी दोनों रूपों का व्यवहार करते हैं। जैसे 'सुता विरोचन की हुती दीरघजिह्ना नाम।'

उनको अवधी के 'इहाँ', 'उहाँ', 'दिखाउ', 'रिझाउ', 'दीन', 'कीन' इत्यादि का प्रयोग करते भी देखा जाता है। वे 'होइ' भी लिखते हैं, 'होय' भी, देखिए-

1. एक इहाँऊँ उहाँ अतिदीन सुदेत दुहूँ दिसि के जनगारी।

2. प्रभाउ आपनो दिखाउ छोंड़ि वाजि भाइ कै।

3. रिझाउ रामपुत्र मोहिं राम लै छुड़ाइ कै।

4. अन्न देइ सीख देइ राखि ले प्राण जात।

5. हँसि बंधु त्यों दृगदीन। श्रुतिनासिका बिनु कीन।

6. कीधौं वह लक्षमण होइ नहीं।

इसका कारण यही मालूम होता है कि उस काल हिन्दी भाषा के बड़े-बड़े कवियों का विचार साहित्यिक भाषा को व्यापक बनाने की ओर था। इसलिए वे लोग कम से कम अवधी और ब्रजभाषा में कतिपय आवश्यक और उपयुक्त शब्दों के व्यवहार में कोई भेद नहीं रखना चाहते थे। इस काल के महाकवि सूर, तुलसी और केशव को इसी ढंग से ढला देखा जाता है। उन्होंने अपनी रचना एक विशेष भाषा में ही अर्थात् अवधी या ब्रजभाषा में की है। परन्तु एक-दूसरे में इतना विभेद नहीं स्वीकार किया कि उनके प्रचलित शब्दों का व्यवहार विशेष अवस्थाओं और संकीर्ण स्थलों पर न किया जावे। इन महाकवियों के अतिरिक्त उस काल के अन्य कवियों का झुकाव भी इस ओर देखा जाता है। उनकी रचनाओं को पढ़ने से यह बात ज्ञात होगी।

केशवदासजी की रचनाओं में पांडित्य कितना है, इसके परिचय के लिए आप लोग उद्धृत पद्यों में से चौथे पद्य को देखिए। उसमें इस प्रकार के वाक्यों का प्रयोग है जो दो अर्थ रखते हैं। मैं उनको स्पष्ट किये देता हूँ। चौथे पद्य में उन्होंने महाराज दशरथ को विधि के समान कहा है, क्योंकि दोनों ही 'विमानी कृत राजहंस' हैं। इसका पहला अर्थ जो विधिपरक है यह है कि राजहंस उनका वाहन (विमान) है। दूसरा अर्थ जो महाराज दशरथपरक है, यह है कि उन्होंने राजाओं की आत्मा (हंस) को मानरहित बना दिया, अर्थात् सदा वे उनके चित्ता पर चढ़े रहते हैं। सुमेरु पर्वत अचल है। दूसरे पद्य में उसी के समान उन्होंने महाराज दशरथ को भी अचल बनाया। भाव इसका यह है कि वे स्र्वकर्तव्य-पालन में दृढ़ हैं। दूसरी बात यह है कि यदि वह विविधा 'विबुधा-जुत' है, अर्थात् विविधा देवता उस पर रहते हैं तो महाराज दशरथ जी के साथ विविधा विद्वान् रहते हैं। 'विबुधा'का दोनों अर्थ है, देवता और विद्वान। दूसरे चरण में 'सुदक्षिणा' शब्द का दो अर्थ है। राजा दशरथ को अपने पूर्व पुरुष 'दिलीप'के समान बनाया गया है। इस उपपत्तिा के साथ कि यदि उनके साथ उनकी पत्नी सुदक्षिणा थीं, जिनका उनको बल था, तो उनको भी सुन्दर दक्षिणा का अर्थात् सत्पात्रा में दान देने का बल है। तीसरे चरण में उनको सागर समान कहा है, इसलिए कि दोनों ही 'वाहिनी' के पति और गम्भीर हैं। 'वाहिनी' का अर्थ सरिता और सेना दोनों हैं। इसी चरण में उनको सूर्य के समान अचल कहा है। इस कारण कि 'छनदान प्रिय' दोनों हैं। इसलिए कि महाराज दशरथ को तो क्षण-क्षण अथवा पर्व-पर्व पर दान देना प्रिय है और सूर्य 'छनदा' (क्षणदा) न-प्रिय है अर्थात् रात्रिा उसको प्यारी नहीं है। चौथे चरण में महाराज दशरथ को उन्होंने गंगा-जल बनाया है, क्योंकि दोनों भगीरथ-पथ गामी हैं। महाराज दशरथ के पूर्व पुरुष महाराज भगीरथ थे अतएव उनका भगीरथ पथावलम्बी होना स्वाभाविक है। इस अंतिम उपमा में बड़ी ही सुन्दर व्यंजना है। गंगा-जल का पवित्रा और उज्ज्वल अथच सद्भाव के साथ चुपचाप भगीरथ पथावलम्बी होना पुराण-प्रसिध्द बात है। इस व्यंजना द्वारा महाराज दशरथ के भावों को व्यंजित करके कवि ने कितनी भावुकता दिखलाई है, इसको प्रत्येक हृदयवान भली-भाँति समझ सकता है। अन्य उपमाओं में भी इसी प्रकार की व्यंजना है, परन्तु उनका स्पष्टीकरण व्यर्थ विस्तार का हेतु होगा। इस प्रकार के पद्यों से 'रामचन्द्रिका' भरी पड़ा है। कोई पृष्ठ इस ग्रन्थ का शायद ही ऐसा होगा कि जिसमें इस प्रकार के पद्य न हों। दो अर्थ वाला, पद्य आपने देखा, उसमें कितना विस्तार है। तीन-तीन चार-चार अर्थ वाले पद्य कितने विचित्रा होंगे, उनका अनुभव आप इस पद्य से ही कर सकते हैं। मैं उन पद्यों में से भी कुछ पद्य आप लोगों के सामने रख सकता था। परन्तु उसकी लम्बी-चौड़ी व्याख्या से आप लोग तो घबराएँगे ही, मैं भी घबराता हूँ। इसलिए उनको छोड़ता हूँ। केशवदास जी के पांडित्य के समर्थक सब हिन्दी-साहित्य के मर्मज्ञ हैं। इस दृष्टि से भी मुझे इस विषय का त्याग करना पड़ता है।

केशवदास जी का प्रकृति-वर्णन कैसा है, इसके लिए मैं आप लोगों से उद्धृत पद्यों में से नम्बर 5, 6, 7, 9, 10, 11 की रचनाओं को विशेष धयानपूर्वक अवलोकन करने का अनुरोधा करता हूँ। इन पद्यों में जहाँ स्वाभाविकता है वहाँ गम्भीरता भी है। कोई-कोई पद्य बड़े स्वाभाविक हैं और किसी-किसी पद्य का चित्राण इतना अपूर्व है कि वह अपने चित्रों को ऑंख के सामने ला देता है।

'रामचन्द्रिका' अनेक प्रकार के छन्दों के लिए भी प्रसिध्द है। इतने छन्दों में आज तक हिन्दी भाषा का कोई ग्रन्थ नहीं लिखा गया। नाना प्रकार के हिन्दी के छन्द तो इस ग्रन्थ में हैं ही। केशवदास जी ने इसमें कई संस्कृत वृत्ताों को भी लिखा है। संस्कृत वृत्ताों की भाषा भी अधिकांश संस्कृत गर्भित है, वरन उसको एक प्रकार से संस्कृत की ही रचना कही जा सकती है। उद्धृत पद्यों में से बारहवाँ पद्य इसका प्रमाण है। भिन्न तुकान्त छन्दों की रचना का हिन्दी-साहित्य में अभाव है। परन्तु केशवदासजी ने रामचन्द्रिका में इस प्रकार का एक छन्द भी लिखा है, जो यह है-

मालिनी

गुणगण मणि माला चित्ता चातर्ुय्य शाला।

जनक सुखद गीता पुत्रिाका पाय सीता।

अखिल भुवन भत्तर् ब्रह्म रुद्रादि कत्तर्।

थिरचर अभिरामी कीय जामातु नामी।

संस्कृत वृत्ताों का व्यवहार सबसे पहले चन्दबरदाई ने किया है। उनका वह छन्द यह है-

“ हरित कनक कांति कापि चंपेव गौरा।

रसित पदुम गंधा फुल्ल राजीव नेत्रा।

उरज जलज शोभा नाभि कोषं सरोजं।

चरण-कमल हस्ती लीलया राजहंसी। “

इसके बाद गोस्वामीजी को संस्कृत छन्दों में संस्कृतगर्भित रचना करते देखा जाता है। विनयपत्रिाका का पूर्वार्ध्द तो संस्कृत-गर्भित रचनाओं से भरा हुआ है। गोस्वामीजी के अनुकरण से अथवा अपने संस्कृत-साहित्य के प्रेम के कारण केशवदासजी को भी संस्कृत गर्भित रचना संस्कृत वृत्ताों में करते देखते हैं। इनके भी कोई-कोई पद्य ऐसे हैं जिनको लगभग संस्कृत का ही कह सकते हैं। इन्होंने 300 वर्ष पहले भिन्न तुकान्त छन्द की नींव भी डाली, और वे ऐसा संस्कृत वृत्ताों के अनुकरण से ही कर सके।

( क)

इस सोलहवीं शताब्दी में और भी कितने ही प्रसिध्द कवि हिन्दी भाषा के हो गये हैं। उनकी रचनाओं को उपस्थित किया जाना इसलिए आवश्यक है कि जिससे इस शताब्दी की व्यापक भाषा पर पूर्णतया विचार किया जा सके। इसी शताब्दी में एक भक्त स्त्राी भी कवयित्राी के रूप में सामने आती हैं और वे हैं मीराबाई। पहले मैं उनकी रचनाओं को आपके सामने उपस्थित करता हूँ। मीराबाई बहुत प्रसिध्द महिला हैं। वे चित्ताौड़ के राणा की पुत्रवधू थीं। परन्तु उनमें त्याग इतना था कि उन्होंने अपना समस्त जीवन भक्ति भाव में ही बिताया। उनके भजनों में इतनी प्रबलता से प्रेम-धारा बहती है कि उससे आर्द्र हुए बिना कोई सहृदय नहीं रह सकता। वे सच्ची वैष्णव महिला थीं और उनके भजनों के पद-पद से उनका धार्म्मानुराग टपकता है इसीलिए उनकी गणना भगवद्भक्त स्त्रिायों में होती है। उस काल के प्रसिध्द सन्तों और महात्माओं में से उनका सम्मान किसी से कम नहीं है। उनकी रचनाएँ देखिए-

1. “ मेरे तो गिरधार गुपाल दूसरा न कोई।

दूसरा न कोई साधो सकल लोक जोई।

भाई तजा बन्धाु तजा तजा सगा सोई।

साधु संग बैठि बैठि लोक लाज खोई।

भगत देखि राजी हुई जगत देखि रोई।

ऍंसुअन जल सींचि सींचि प्रेम बेलि बोई।

दधि मथ घृत काढ़ि लियो डार दई छोई।

राणा विष प्यालो भेज्यो पीय मगन होई।

अब तो बात फैलि गई जाणै सब कोई।

मीरा राम लगण लागी होणी होय सो होई। “

2. एरी मैं तो प्रेम दिवाणी मेरा दरद न जाणे कोय।

सूली ऊपर सेज हमारी किस विधा सोणा होय।

गगन मंडल पै सेज पिया की किस विधि मिलना होय।

घायल की गति घायल जानै की जिन लाई होय।

जौहरी की गति जौहरी जाने की जिन जौहर होय।

दरद की मारी बन बन डोलूँ वैद मिला नहिं कोय।

मीरा की प्रभु पीर मिटैगी (जब) बैद सँवालिया होय।

3. बसो मेरे नैनन में नँदलाल।

मोहनि मूरति साँवरि सूरति नैना बने विसाल।

अधार सुधारस मुरली राजति उर बैजन्ती माल।

छुद्र घंटिका कटि तट शोभित नूपुर शब्द रसाल।

मीरा प्रभु संतन सुखदाई भक्त बछल गोपाल।

4. बंसी वारो आये म्हारे देस।

थारी साँवरी सूरत बारी बैस।

आऊँ आऊँ कर गया साँवरा कर गया कौल अनेक।

गिनते गिनते घिस गई उँगली घिस गई उँगली की रेख।

मैं बैरागिन आदि की थारे म्हारे कद को सँदेस।

जोगिण हुई जंगल सब हेरूं तेरा नाम न पाया भेस।

तेरी सूरत के कारणे धार लिया भगवा भेस।

मोर मुकुट पीताम्बर सोहै घूँघरवाला केस।

मीरा को प्रभु गिरधार मिलि गये दूना बढ़ा सनेस।

सरस कविता के लिए इस शताब्दी में अष्टछाप के वैष्णवों का विशेष स्थान है। इनमें से चार महाप्रभु वल्लभाचार्य के प्रमुख शिष्य थे-सूरदास, कृष्णदास, परमानन्ददास, तथा कुंभनदास और शेष चार नन्ददास, चतुर्भुजदास, छीतस्वामी तथा गोविन्दस्वामी, गोस्वामी विट्ठलनाथ के प्रमुख सेवकों में से थे। इनमें से सूरदास जी की रचनाओं को आप लोग देख चुके हैं,अन्यों की रचनाओं को भी देखिए-

कृष्णदासजी जाति के शूद्र थे किन्तु अपने भक्ति-बल से अष्टछाप के वैष्णवों में स्थान प्राप्त किया था। उनके रचित 1. 'जुगलमान चरित्रा', 2. 'भक्तमाल पर टीका', 3. 'भ्रमरगीत' और, 4. 'प्रेम सत्तव निरूप' नामक ग्रन्थ बतलाये जाते हैं। उनका रचा एक पद देखिए-

“ मो मन गिरधार छबि पै अटक्यो।

ललित त्रिाभंग चाल पै चलिकै

चिबुक चारु गड़ि ठटक्यो।

सजल श्याम घन बरन लीन ह्नै

फिरि चित अनत न भटक्यो।

कृष्णदास किये प्रान निछावर

यह तन जग सिर पटक्यो। “

परमानन्दजी कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। इनमें भक्ति-विषयक तन्मयता बहुत थी। 'परमानंद सागर' नामक इनका एक प्रसिध्द ग्रन्थ है। इनका एक शब्द सिक्खों के आदि ग्रन्थ साहब में भी है। वह यह है-

तैं नर का पुराण सुनि कीना।

अनपायनी भगति नहिं उपजी भूखे दान न दीना।

काम न बिसरयो , क्रोधा न बिसरयो , लोभ न छूटयो देवा।

हिंसा तो मन ते नहिं छूटी बिफल भई सब सेवा।

बाट पारि घर मूँसि बिरानो पेट भरै अपराधी।

जेहि परलोक जाय अपकीरति सोई अविद्या साधो।

हिंसा तो मन ते नहिं छूटी जीव दया नहिं पाली।

परमानंद साधु संगति मिलि कथा पुनीत न चाली।

उनका एक पद और देखिए-

“ ब्रज के विरही लोग बिचारे।

बिन गोपाल ठगे से ठाढ़े अति दुर्बल तन हारे।

मातु जसोदा पंथ निहारत निरखत साँझ सकारे।

जो कोई कान्ह कान्ह कहि बोलत ऍंखियन बहत पनारे।

यह मथुरा काजर की रेखा जे निकसे ते कारे।

परमानंद स्वामि बिनु ऐसे जस चन्दा बिनु तारे। “

कुंभनदास जी गौरवा ब्राह्मण थे। इनमें त्याग-वृत्तिा अधिक थी। एक बार अकबर के बुलाने पर फतेहपुर सीकरी गये, परन्तु उनको व्यथित होकर यह कहना पड़ा-

“ भक्तन को कहा सीकरी सों काम।

आवत जात पनहियाँ टूटी बिसरि गयो हरिनाम।

जाको मुख देखे दुख लागै तिनको करिबे परी सलाम।

कुंभन दास लाल गिरधार बिन और सबै बेकाम। “

इनके किसी ग्रन्थ का पता नहीं चलता। एक पद्य और देखिए-

जो पै चोप मिलन को होय।

तो क्यों रहै ताहि बिन देखे लाख करौ किन कोय।

जो ए बिरह परस्पर व्यापै जो कछु जीवन बनै।

लोक लाज कुल की मरजादा एकौ चित्ता न गनै।

कुंभनदास जाहि तन लागी और न कछू सुहाय।

गिरधार लाल ताहि बिन देखे छिन छिन कलप बिहाय।

अष्टछाप के वैष्णवों में कवित्व शक्ति में सूरदास जी के उपरान्त नंददास जी का ही स्थान है। आपकी सरस रचनाओं पर ब्रजभाषा गर्व कर सकती है। कहा जाता है कि आप गोस्वामी तुलसीदास जी के छोटे भाई थे। इसकी सत्यता में संदेह भी किया जाता है। जो हो, परन्तु पद-लालित्य के नाते वे गोस्वामी जी के सहोदर अवश्य हैं। हिन्दी-संसार में उनके विषय में एक कहावत प्रचलित है-”और कवि गढ़िया नंददास जड़िया।” मेरा विचार है कि यह कथन सत्य है। उन्होंने अठारह ग्रन्थों की रचना की है। 'रास पंचाधयायी' से इनकी कुछ रचनाएँ यहाँ उद्धृत की जाती हैं-

“ परम दुसह श्री कृष्ण बिरह दुख व्याप्यो तिन में।

कोटि बरस लगि नरक भोग दुख भुगते छिन में।

सुभग सरित के तीर धीर बलबीर गये तहँ।

कोमल मलय समीर छविन की महा भीर जहँ।

कुसुम धूरि धूँधारि कुंज छबि पुंजनि छाई।

गुंजत मंजु मलिंद बेनु जनु बजत सुहाई।

इत महकति मालती चारु चम्पक चित चोरत।

उत घनसारु तुसारु मलय मंदारु झकोरत।

नव मर्कत मनि स्याम कनक मनिमय ब्रजबाला।

वृन्दावन गुन रीझि मनहुँ पहिराई माला।

चतुर्भुजदास जी कुम्भन दास जी के पुत्र थे। वे बाल्यकाल ही से कृष्ण-लीला-गान में मत्ता रहते थे। लीला सम्बन्धी उनकी अनेक रचनाएँ हैं। उन्होंने 'द्वादशयश', 'भक्ति प्रताप', और 'हित जू को मंगल' नामक तीन ग्रन्थ बनाये। उनकी रचना देखिए-

“ जसोदा कहा कहौं बात ?

तुम्हरे सुत के करतब मोपै कहत कहे नहिं जात।

भाजन फोरि , ढारि सब गोरस , लै माखन दधि खात।

जौ बरजौं तौ ऑंखि दिखावै , रंचहुँ नाहिं सकात।

दास चतुर्भुज गिरिधार गुन हौं कहति कहति सकुचात। “

छीतस्वामी मथुरा के चौबे थे। जादू टोना से इनको बड़ा प्रेम था। मथुरा में पाँच चौबे गुण्डे माने जाते थे। ये उनके प्रधान थे। परन्तु श्री विट्ठलनाथजी के सत्संग से उनके हृदय में भगवद्भक्ति का ऐसा प्रवाह बहा कि उनकी गणना अष्टछाप के वैष्णवों में हुई। इनका ग्रंथ कोई नहीं मिलता, फुटकर रचनाएँ मिलती हैं। इनमें से एक पद्य नीचे दिया जाता है-

“ भई अब गिरधार सो पहिचान।

कपट रूप छलबे आये हो पुरुषोत्ताम नहिं जान।

छोटो बड़ो कछू नहिं जान्यो छाय रह्यो अज्ञान।

छीत स्वामि देखत अपनायो बिट्ठल कृपा-निधान। “

गोविन्दस्वामी सनाढय ब्राह्मण थे। उनकी भक्ति प्रसिध्द है। वे बड़े आनन्दी जीव थे। बिट्ठलनाथ जी के मुख से भागवत के भगवल्लीला सम्बन्धी पदों को सुन कर कभी-कभी उन्मत्ता हो जाते थे। इनके भी फुटकर पद ही प्राप्त होते हैं। उनमें से एक यह है-

प्रात समै उठि जसुमति जननी ,

गिरधार सुत को उबटि न्हवावति।

करि शृंगार बसन भूषन सजि ,

फूलन रचि रचि पाग बनावति।

छुटे बंद बागे अति सोभित

बिच बिच चोव अरगजा लावति।

सूथन लाल फूँदना सोभित आजु

कि छवि कछु कहत न आवति।

विविधा कुसुम की माला उर धारि

श्री कर मुरली बेत गहावति।

लै दरपन देखे श्री मुख को

गोविंदप्रभु चरनन सिर नावति।

अष्टछाप के वैष्णवों के अतिरिक्त ब्रजमंडल में दो ऐसे महापुरुष हो गये हैं जिनकी महात्माओं में गणना है। एक हैं स्वामी हित हरिवंश और दूसरे स्वामी हरिदास। हित हरिवंश जी ने राधा-वल्लभी सम्प्रदाय स्थापित किया था। इन्होंने 'राधा सुधानिधि' नामक एक काव्य की रचना भी की है। उनके ब्रजभाषा के 84 पद्य बहुत प्रसिध्द हैं। वास्तव में उनमें बड़ी सरसता है। उनके पद्यों में संस्कृत शब्द अधिक आते हैं। किन्तु उनका प्रयोग वे बड़ी रुचिरता से करते हैं। कुछ रचनाएँ उनकी देखिए-

1. आजु बन नीको रास बनायो।

पुलिन पवित्रा सुभग जमुना तट मोहन बेनु बजायो।

कल कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि खग मृग सचुपायो।

जुवतिन मंडल मधय श्याम घन सारँग राग जमायो।

ताल मृदंग उपंग मुरज डफ मिलि रस सिंधु बहायो।

सकल उदार नृपति चूड़ामणि सुख बारिद बरखायो।

बरखत कुसुम मुदित नभ नायक इन्द्र निसान बजायो।

हित हरिबंस रसिक राधापति जस बितान जग छायो।

2. तनहिं राखु सतसंग में , मनहिं प्रेम रस भेव।

सुख चाहत हरिबंस हित , कृष्ण कल्पतरु सेव।

रसना कटौ जु अनरटौ , निरखि अनफुटौ नैन।

श्रवण फुटौ जो अन सुनौ , बिन राधा जसु बैन।

स्वामी हरिदास ब्राह्मण थे। कोई इन्हें सारस्वत कहता है, कोई सनाढय। ये बहुत बड़े त्यागी और विरक्त थे। ये निम्बार्क सम्प्रदाय के महात्मा थे। इनके शिष्यों में अनेक सुकवि और महात्मा हो गये हैं। ये गान-विद्या के आचार्य थे। तानसेन और बैजू बावरा दोनों इनके शिष्य थे। ये वृन्दावन में ही रहते थे और बड़ी ही तदीयता के साथ अपना जीवन व्यतीत करते थे। इनके पद्यों के तीन-चार संग्रह बतलाये जाते हैं। उनके कुछ पद देखिए-

1. “ गहो मन सब रस को रस सार।

लोक वेद कुल कर्मै तजिये भजिये नित्य बिहार।

गृह कामिनि कंचन धान त्यागो सुमिरो श्याम उदार।

गति हरिदास रीति संतन की गादी को अधिकार। “

2. “ हरि के नाम को आलस क्यों करत है रे।

काल फिरत सर साधो।

हीरा बहुत जवाहिर संचे कहा भयो हस्ती दर बाँधो।

बेर कुबेर कछू नहिं जानत चढ़े फिरत हैं काँधो।

कहि हरिदास कछू न चलत जब आवत अंतक ऑंधो। “

( ख)

अब मैं अकबर के दरबारी कवियों की चर्चा करूँगा। इनके दरबार में भी उस समय अच्छे-अच्छे सुकवि थे। मंत्रिायों में रहीम ख़ानख़ाना, बीरबल और टोडरमल भी कविता करते थे। दरबारी कवियों में गंग और नरहरि का नाम बहुत प्रसिध्द है। रहीम ख़ानख़ाना मुसलमान थे। परन्तु हिन्दी भाषा के बड़े सरस हृदय कवि थे। उनकी रचनाएँ बड़े आदर की दृष्टि से देखी जाती हैं। वे बड़े उदार भी थे और सहृदय कवियों को लाखों दे देते थे। उन्होंने फ़ारसी में भी रचनाएँ की थीं। उनका 'दीवान फ़ारसी'और 'वायाते बाबरी' का फ़ारसी अनुवाद बहुत प्रसिध्द है। हिन्दी में भी उन्होंने कई ग्रन्थों की रचना की है। उनकी कुछ हिन्दी रचनाएँ देखिए-

1. कहि रहीम इक दीप तें , प्रगट सबै दुति होय।

तन सनेह कैसे दुरै , जरु दृग दीपक दोयड्ड

2. छार मुंड मेलतु रहतु , कहि रहीम केहि काज।

जेहि रज रिषि-पत्नी तरी , सो ढूँढ़त गजराजड्ड

3. रहिमन राज सराहिये , जो ससि के अस होय।

रवि को कहा सराहिये , जो उगै तरैयन खोयड्ड

4. यों रहीम सुख होत है , बढ़त देखि निज गोत।

ज्यों बड़री अखियाँन लखि , ऑंखिन को सुख होतड्ड

5. ज्यों रहीम गति दीप की , कुल कपूत गति सोय।

बारे उँजियारो लगै , बढ़े ऍंधोरो होयड्ड

6. बालम अस मन मिलयउँ जस पय पानि।

हंसिनि भई सवतिया लइ बिलगानि।

भोरहिं बोलि कोइलिया बढ़वति ताप।

एक घरी भरि सजनी रहु चुपचाप।

सघन कुंज अमरैया सीतल छाँहि।

झगरति आइ कोइलिया पुनि उड़ि जाहिं।

लहरत लहर लहरिया लहर बहार।

मोतिन जरी किनरिया बिथुरे बार।

7. कलित ललित माला वा जवाहिर जड़ा था।

चपल चखन वाला चाँदनी में खड़ा था।

कटि तट बिच मेला पीत सेला नवेला।

अलि बन अलबेला यार मेरा अकेला।

टोडरमल अकबर के कर-विभाग के प्रधानमंत्राी थे। बही-खाता का प्रचार सबसे पहले इन्हीं के द्वारा हुआ। हिन्दी दफ्तर को पहले पहल इन्होंने ही फारसी में किया। ये प्रधान कवि नहीं हैं और न इनका कोई ग्रन्थ है। स्फुट कविताएँ इनकी मिल जाती हैं। इनकी एक रचना देखिए-

गुन बिनु धान जैसे गुरु बिन ज्ञान जैसे।

मान बिनु दान जैसे जल बिनु सर है।

कंठ बिनु गीत जैसे हित बिनु प्रीति जैसे।

वेश्या रस रीति जैसे फल बिनु तर है।

तार बिनु जंत्रा जैसे स्याने बिनु मंत्रा जैसे।

नर बिनु नारि जैसे पुत्र बिनु घर है।

टोडर सुकबि तैसे मन में विचार देखो।

धर्म बिनु धान जैसे पच्छी बिना पर हैड्ड

बीरबल अकबर के प्रधानमंत्रिायों में से थे। ये जाति के ब्राह्मण थे, बड़े वीर भी थे। कविता के रसिक थे और स्वयं कविता करते थे। अपने समय में कविजन के कल्पतरु थे। प्रत्युत्पन्नमति ऐसे थे कि अकबर की दृष्टि में इसी कारण उनका विशेष आदर था। बड़े सरस हृदय थे और ललित कविता भी करते थे। दो-एक पद्य देखिए-

1. उछरि उछरि भेकी झपटै उरग पर

उरग पै केकिन के लपटैं लहकि है।

केकिन के सुरति हिये की ना कछू है भय

एकी करि केहरि न बोलत बहकि है।

कहै कवि ब्रह्म बारि हेरत हरिन फिरैं

बैहर बहति बड़े जोर सों जहकि है।

तरनि के तावन तवा-सी भई भूमि रही

दसहूँ दिसान में दवारि सी दहकि है।

2. पेट में पौढ़ि के पौढ़े मही पर

पालना पौढ़ि के बाल कहाये।

आई जबै तरुनाई तिया सँग

सेज पै पौढ़ि के रंग मचाये।

छीर-समुद्र के पौढ़नहार को

ब्रह्म कबौं चित तें नहिं धयाये।

पौढ़त पौढ़त पौढ़त ही सों

चिता पर पौढ़न के दिन आये।

नरहरि अकबरी दरबार के प्रसिध्द कवि थे। वे ज़िला फ़तहपुर-असनी गाँव के निवासी थे। शायद जाति के बंदीजन थे, कहा जाता है कि इनके एक छप्पय पर रीझकर अकबर ने अपने समय में गायकुशी बंद कर दी थी। वह छप्पय यहहै-

अरिहुं दन्ततृन धारैं ताहि मारत न सबल कोइ।

हम संतत तृन चरहिं बचन उच्चरहिं दीन होइ।

अमृत पय नित ò वहिं बच्छ महि थम्भन जावहिं।

हिन्दुहिं मधुर न देहिं कटुक तुरकहिं न पियावहिं।

कह नरहरि कवि अकबर सुनो।

बिनवत गऊ जोरे करन।

अपराधा कौन मोहि मारियतु

मुयेहुं चाम सेवत चरन।

एक पद्य उनका और देखिए-

सरवर नीर न पीवहीं स्वाति बुन्द की आस।

केहरि कबहुँ न तृन चरै जो ब्रत करै पचास।

जो व्रत करै पचास विपुल गज-जूह बिदारै।

धान ह्नै गर्व न करै निधान नहिं दीन उचारै।

नरहरि कुल क सुभाउ मिटै नहिं जब लगि जीवै।

बरु चातक मरि जाय नीर सरवर नहिं पीवै।

कवि गंग अकबर-दरबार के एक नामी कवि थे। रचना जो इनकी मिलती है वह प्रौढ़ है। इनका कोई ग्रन्थ अब तक नहीं मिला है परन्तु जो स्फुट पद्य पाये गये हैं, उनसे उनकी योग्यता का पूरा परिचय मिलता है। किसी-किसी की यह सम्मति है कि इनका अन्तिम समय बड़ा दुखद था। कहा जाता है कि वे हाथी के पैरों से शैंदवा दिये गये। भिखारीदास का एक दोहा है जिसमें उन्होंने गोस्वामी तुलसीदासजी के साथ इनकी भी प्रशंसा की है और इनको अच्छा कवि माना है। वह दोहा यहहै-

तुलसी गंग दुवौ भये , सुकबिन के सरदार।

इनकी कविता में मिली , भाषा विविधा प्रकारड्ड

रहीम ख़ाँ ख़ानखाना इनका बड़ा आदर करते थे, कवि गंग ने उनकी प्रशंसा में कुछ रचनाएँ भी की हैं। उनकी कुछ कविताएँ नीचे लिखी जाती हैं-

बैठी थी सखिन संग पिय को गवन सुन्यो ,

सुख के समूह में वियोग आग भर की।

गंग कहै त्रिाविधि सुगंधा लै पवन बह्यो ,

लागत ही ताके तन भई बिथा जर की।

प्यारी को परसि पौन गयो मानसर पहँ

लागत ही औरे गति भई मानसर की।

जलचर जरे औ सेवार जरि छार भयो ,

जल जरि गयो पंक सूख्यो भूमि दरकीड्ड

मृगहूँ ते सरस विराजत बिसाल दृग ,

देखिए न अस दुति कोलहू के दल मैं।

गंग घन दुज से लसत तन आभूषन ,

ठाढ़े द्रुम छाँह देख ह्नै गई विकल मैं।

चख चित चाय भरे शोभा के समुद्र माहिं

रही ना सँभार दसा औरै भई पल मैं।

मन मेरो गरुओ गयो री बूड़ि मैं न पायो ,

नैन मेरे हरुये तिरत रूप जल में।

इन प्रसिध्द कवियों के अतिरिक्त इस सोलहवीं सदी में नरोत्तामदास नामक एक बड़े सहृदय कवि हो गये हैं। वे जिला सीतापुर के रहने वाले ब्राह्मण थे। इनके दो ग्रन्थ बतलाये जाते हैं। एक 'सुदामा-चरित्रा' और दूसरा 'धा्रुव-चरित्रा'। ये दोनों खंड काव्य हैं। इनमें से सुदामा-चरित्रा की कविता बड़ी ही सरस है। उसमें से दो पद्य नीचे लिखे जाते हैं-

1. कोदो समाँ जुरतो भरि पेट न

चाहति तौ दधि दूधा मिठौती।

सीत न बीतत जो सिसियात

तौ हौं हठती पै तुम्हैं न हठौती।

जो जनती न हितू हरि से तो मैं

काहे को द्वारिका ठेलि पठौती।

या घरसे कबहूँ न गयो पिय

टूटो तवा अरु फूटी कठौती।

2. काहे बेहाल बिवाइन सों पुनि

कंटक जाल लगे पग जोये।

हाय महादुख पायौ सखा तुम

आये इतै न कितै दिन खोये।

देखि सुदामा की दीन दसा

करुना करिकै करुनानिधि रोये।

पानी परात को हाथ छुयौ

नहिं नैनन के जल सों पग धोये।

केशवदास जी के बड़े भ्राता बलभद्र जी की चर्चा मैं पहले कर चुका हूँ-आप संस्कृत भाषा के प्रसिध्द विद्वान थे। आपकी संस्कृत रचनाएँ अधिक हैं। भागवत भाष्य और बलभद्री व्याकरण आपके उत्ताम ग्रन्थ हैं। इनकी बनाई हुई हनुमन्नाटक एवं गोवर्धान-सप्तशती की टीकाएँ भी बड़ी विशद हैं। संस्कृत के इतने बड़े विद्वान् होने पर भी आपने हिन्दी भाषा में दो ग्रन्थ लिखे,एक का नाम है दूषण-विचार और दूसरा है नख-शिख। दूषण्-विचार सुना है कि बड़ा उपयोगी ग्रंथ है, परन्तु मैंने इस ग्रन्थ को नहीं देखा। नख-शिख सुंदर ग्रंथ है, और इसकी रचना बड़ी प्रौढ़ है। इसके जोड़ का नृपशंभु का नख-शिख नामक ग्रन्थ है,परंतु यह ग्रन्थ उक्त ग्रन्थ के अनुकरण से ही लिखा गया है-और भी नख-शिख के ग्रन्थ हैं, परन्तु बलभद्र जी के नख-शिख की समता कोई नहीं कर सका। उसके दो पद्य नीचे लिखे जातेहैं-

पाटल नयन कोकनद के से दल दोऊ

बलभद्र बासर उनीदी लखी बाल मैं।

शोभा के सरोवर मैं बाड़व की आभा कैधों

देवधुनि भारती मिली है पुन्य काल मैं।

काम कैवरत कैधों नासिका उव्प बैठयो

खेलत सिकार तरुनी के मुखताल मैं।

लोचन सितासित मैं लोहित लकीर मानो

बाँधो जुग मीन लाल रेसम के जाल मेंड्ड 1 ड्ड

मरकत के सूत कैधों पन्नग के पूत अति

राजत अभूत तमराज के से तार हैं।

मखतूल गुन-ग्राम सोभित सरस श्याम

काम मृग कानन कै कुहू के कुमार हैं।

कोप की किरिन कै जलज-नाल नील तंतु

उपमा अनंत चारु चँवर सिंगार हैं।

कारे सटकारे भींजे सोंधो सों सुंगधा बास

ऐसे बलभद्र नव बाला तेरे बार हैंड्ड 2 ड्ड

इसी समय में हरिनाथ, तानसेन, प्रवीणराय, होलराय, करनेस, लालनदास, मनोहर, रसिक आदि ऐसे कवि भी साहित्य क्षेत्र में आये, जो बहुत प्रसिध्द नहीं हैं, परन्तु उनकी रचनाएँ सुन्दर और भावमयी हैं। सबकी रचनाओं के नमूने के लिए इस ग्रंथ में स्थान का संकोच है। जो रचनाएँ अधिक मधुर हैं और जिनमें कुछ विशेषता है, उनमें से कुछ नीचे लिखी जाती हैं-

बलि बोई कीरति-लता , कर्ण करी द्वैपात।

सींची मान महीप ने जब देखी कुम्हलातड्ड

जाति जाति ते गुन अधिक सुन्यो न कबहूँ कान।

सेतु बाँधि रघुबर तरे हेलादे नृप मानड्ड

- हरिनाथ

खात हैं हराम दाम करत हराम काम

धाम धाम तिनहीं के अपजस छावैंगे।

दोजख में जैहैं तब काटि काटि कीड़े खैहैं

खोपड़ी को गूद काक टोंटन उड़ावैंगे।

कहै करनेस अबै घूस खात लाजै नाहिं

रोजा औ नेवाज अंत काम नहिं आवैंगे।

कबिन के मामिले में करै जौन खामी।

तौन निमकहरामी मरे कफन न पावैंगे।

- करनेस

दीप कैसी जाकी जोति जगर मगर होति

गुलाबबास बादर मैं दामिनी अलूदा है।

जाफरानी फूलन मैं जैसे हेमलता लसै

तामैं उग्यो चन्द्र लेन रूप अजमूदा है।

लालन जू लालन के रंग से निचोरि रँगी

सुरंग मजीठ ही कै रंगन जमूदा है।

बकि न बहूदा लखि छबिन को तूदा ओप

अतर अलूदा अंगना का अंग ऊदा है।

- लालनदास

स्वामी हितहरिवंश की शिष्य-परम्परा और शिष्यों में तथा हरिदास स्वामी आदि महात्माओं के संसर्ग से अनेक सहृदय कवि इस शतक में उत्पन्न हुए, उनकी रचनाएँ बड़ी सरस हैं। उनमें से हितरूप लाल, गदाधार भट्ट, भगवान हित, नागरीदास,बिहारिन दास, भट्ट महाराज, व्यासजी, सेवक जी, हरिवंश अली और बिट्ठल बिपुल का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इनमें से कुछ लोगों की रचनाएँ भी देखिए-

बिथुरी सुथरी अलकैं झलकैं

बिच आनि कपोल परीं जुछली।

मुसुकात जबै दसनावलि देखि

लजात तबै तब कुन्द कली।

अति चंचल नैन फिरैं चहुघाँ नित

पोखत लाल है भांति भली।

तिनके पद-पंकज को मकरंद

सुनित्य लहै हरिबंस अली।

- हरिबंस अली

जैसे गुरु तैसे गोपाल।

हरि तौ तबहीं मिलिहैं जबहीं श्रीगुरु होयँ कृपाल।

गुरु रूठे गोपाल रूठिहैं वृथा जात है काल।

एक पिता बिन गनिका सुत को कौन करे प्रतिपाल।

- व्यासजी

सजनी नवल कुंज बन फूले।

अलिकुल संकुल करत कुलाहल सौरभ मनमथ भूले।

हरखि हिडोरे रसिक रास बर जुगुल परस्पर झूले।

बिट्ठल बिपुल बिनोद देखि नभ देव बिमानन भूले।

यह बिट्ठल विपुलजी का पद्य है। स्वामी हरिदासजी के आप शिष्य थे, उनका स्वर्गारोहण होने पर आप ही उनकी गद्दी पर बैठे। गुरु के चरणों में आपका इतना अनुराग था कि उनके शरीर का पात होने पर उन्होंने अपनी ऑंखों पर पट्टी बाँधा ली। एक रास के समय कहा जाता है कि स्वयं श्रीकृष्ण जी ने उनकी ऑंखों की पट्टी खोली। एक बार रास में आप इतने प्रेमोन्मत्ता हुए कि तत्काल देहान्त हो गया।

बने बन ललित त्रिाभंग बिहारी।

बंसीधुनि मनु बंसी लाई आई गोपकुमारी।

अरप्यो चारु चरन पद ऊपर लकुट कच्छ तरधारी।

श्री भट मुकुट चटक लटकनि मैं अटकि रहे दृग प्यारी।

- श्री भट्ट

रक्त पीतसित असित लसत अंबुज बन सोभा।

टोल टोल मद लोल भ्रमत मधुकर मधु लोभा।

सारस अरु कलहंस कोक कोलाहल कारी।

पुलिन पवित्रा विचित्रा रचित सुन्दर मनहारी।

- गदाधार भट्ट

सबै प्रेम के साधान तरु हरि।

निकसत उमग प्रगट अंकुर बर पात पुराने परिहरि।

गुन सुनि भई दास की आसा दरस्यो परस्यो भावै।

जब दरस्यो तब बोलै चाहै बोले हूँ हँसि आवै।

- बिहारी दास

जसुमति आनँद कन्द नचावति।

पुलकि पुलकि हुलसाति देखि मुख अति सुख पुंजहिं पावति।

बाल जुवा वृध्दा किसोर मिलि चुटकी दै दै गावति।

नुपुर सुर मिश्रित धुनि उपजति सुर विरंचि विसमावति।

कुंचित ग्रंथिक अलक मनोहर झपकि वदन पर आवति।

जन भगवान मनहुँ घन विधु मिलि चाँदनि मकर लजावति।

- हित भगवान

दिन कैसे भरूँरी माई बिन देखे प्रान अधार।

ललित तृभंगी छैल छबीलो पीतम नंद कुमार।

सुन री सखी कदमतर ठाढ़ो मुरली मंद बजावै।

गनिगनि प्यारी गुनगन गावै चितवत चितहि रिझावै।

जियरा धारत न धीरज सजनी कठिन लगन की पीर।

रूप लाल हित आगर नागर सागर सुख की सीर।

- हितरूप लाल

इन महात्माओं में अधिकतर ग्रन्थकार हैं, और एक-एक ने कई-कई ग्रंथ लिखे हैं, इन सब बातों की चर्चा करने से अधिक विस्तार और विषयान्तर होगा अतएव मैं इस विषय को यहीं छोड़ता हूँ। नाभादासजी के गुरु अग्रदास जी भी इसी शताब्दी में हुए। आपने भी कई ग्रन्थों की रचना की है, 'राम भजन मंजरी' और 'भाषा हितोपदेश' उनके सुन्दर ग्रंथ हैं। एक कविता उनकी भी देखिए-

कुण्डल ललित कपोल जुगुल अरु परम सुदेसा।

तिनको निरखि प्रकास लजत राकेस दिनेसा।

मेचक कुटिल बिसाल सरोरुह नैन सुहाये।

मुख पंकज के निकट मनो अलि छौना आये।

इन उध्दरणों को देखकर आप सोचते होंगे, कि यह व्यर्थ विस्तार किया गया है, परन्तु आवश्यकताओं ने मुझको ऐसा करने के लिए विवश किया। मैं यह दिखलाना चाहता हूँ कि सोलहवीं शताब्दी में हिन्दी-भाषा कैसे समुन्नत हुई, किस प्रकार ब्रजभाषा को प्रधानता मिली और उसका क्या स्वरूप स्थिर हुआ। अतएव मुझको सब प्रकार की रचनाओं का संकलन करना पड़ा। इस शताब्दी में अवधी और ब्रजभाषा दोनों का सर्वांगीण शृंगार हुआ, दोनों में ऐसे लोकोत्तार ग्रन्थ लिखे गये, जैसे आज तक दृष्टिगोचर न हो सके। परन्तु एक बात देखी जाती है, वह यह कि ब्रजभाषा का विकास बाद की शताब्दियों में भी बहुत कुछ हुआ, वह आगे चलकर भी अच्छी तरह फली-फूली और फैली, किन्तु अवधी को यह गौरव नहीं प्राप्त हुआ। प्रेम-मार्गी सूफियों के कुछ ग्रंथ गोस्वामी जी के पश्चात् भी अवधी भाषा में लिखे गये हैं, परन्तु प्रथम तो उनकी संख्या उँगलियों पर गिनी जा सकती है, दूसरे ब्रजभाषा की ग्रन्थावली के सामने वे शून्य के बराबर हैं। बाबा रघुनाथ दास का विश्राम-सागर भी अवधी भाषा में लिखा गया है, और इसमें सन्देह नहीं कि यह भी अवधी भाषा का उत्ताम ग्रन्थ है। उसका प्रचार भी हुआ। परन्तु इन कतिपय ग्रंथों के द्वारा उस न्यूनता की पूर्ति नहीं होती जो ब्रजभाषा की विशाल ग्रंथमालाओं के सामने अवधी को प्राप्त हुई। जब यह विचार किया जाता है कि ब्रजभाषा के इस व्यापकता और विस्तार का क्या कारण है तो कई बातें सामने आती हैं। मैं उनको प्रकट करना चाहता हूँ।

यह देखा जाता है कि चिरकाल से मधयदेश की भाषा को ही प्रधानता मिलती आई है। जिस समय संस्कृत भाषा का गौरवकाल था। उस समय भी इस प्रान्त से ही उसका प्रचार अन्य प्रदेशों में हुआ। जब प्राकृत भाषा का प्रचार हुआ, तब भी शौरसेनी को ही अन्य प्राकृतों पर विशिष्टता मिली और उसी का अधिक विस्तार अन्य प्रदेशों में हुआ। संस्कृत के नाटकों में शिष्ट भाषा के रूप में शौरसेनी ही गृहीत हुई है। कारण इसका यह है कि आर्य सभ्यता इसी स्थान से अन्य प्रदेशों में फैली और इसी स्थान से आर्यों के विशिष्ट दलों ने जाकर अन्य प्रदेशों पर अधिकार किया। ऐसी अवस्था में उनकी भाषाओं का महत्तव जो अन्य प्रान्त वालों ने स्वीकार किया तो यह आश्चर्यजनक नहीं, क्योंकि यह देखा जाता है कि राज्यभाषा ही प्रधानता लाभ करती है। जिस समय ब्रजभाषा का उदय हुआ उस समय भी मधयदेश की ही राज्य-सत्ता का प्रभाव भारतवर्ष पर था। उन दिनों अकबर सम्राट् था और उसकी राजधानी अकबराबाद या आगरे में थी। जो ब्रजप्रान्त के अन्तर्गत है। अतएव वहाँ की भाषा का प्रभाव अन्य प्रदेशों पर पड़ना स्वाभाविक था, विशेषकर उस अवस्था में जब कि अकबर के समस्त बड़े अधिकारी ब्रजभाषा से स्नेह करते थे। इतना ही नहीं, वे ब्रजभाषा में स्वयं रचना करके भी उन दिनों उसे समादृत बना रहे थे। मैं राजा बीरबल, राजा टोडरमल और रहीम खाँ ख़ानख़ाना की रचनाओं को ऊपर उद्धृत कर आया हूँ। वे ही मेरे कथन के प्रमाण हैं, अकबर स्वयं ब्रजभाषा में कविता करता था। कुछ पद्य उसके भी देखिए-

“ जाको जस है जगत में , सबै सराहै जाहि।

ताको जीवन सफल है , कहत अकब्बर साहिड्ड

साहि अकब्बर एक समै चले ,

कान्ह बिनोद बिलोचन बालहि।

आहट ते अबला निरख्यो चकि

चौंकि चली करि आतुर चालहिं।

त्यों बलि बेनी सुधारी धारी सुभई ,

छबि यों ललना अरु लालहिं।

चम्पक चारु कमान चढ़ावत ,

काम ज्यों हाथ लिये अहि-बालहिं। “

यही नहीं, उनके दरबार के राजे-महराजे भी इस रंग में रँगे हुए थे। उनकी ब्रजभाषा की रचनाएँ बतलाती हैं कि जो राजे ब्रजप्रान्त से दूर के थे, वे भी उसके प्रभाव से प्रभावित थे। बीकानेर के राजा के भाई पृथ्वीराज की एक रचना देखिए। आप अकबर के प्रसिध्द दरबारी थे। उन्होंने तीन ग्रन्थ लिखे थे। उनमें से एक ग्रन्थ 'प्रेम-प्रदीपिका' का एक पद्य यह है-

“ प्रेम इकंगी नेम प्रेम गोपिन को गायो।

बचनन बिरह विलाप सखी ताकी छवि छायो।

ज्ञान जोग वैराग मधुर उपदेसन भाख्यो।

भक्ति भाव अभिलाष मुख्य बनि तनु मन राख्यो।

बहुबिधि बियोग संयोग सुख सकल भाव समुझै भगत।

यह अद्भुत ' प्रेम-प्रदीपिका ' कहि अनंत उद्दित जगत। “

कुछ लोगों ने यह लिखा है कि महाराज मानसिंह भी ब्रजभाषा में कविता करते थे, परन्तु उनकी कोई कविता मेरे देखने में नहीं आयी। मैंने अब तो जो लिखा, उससे यह पाया जाता है कि उस समय अकबर के दरबार में ब्रजभाषा की बड़ी चर्चा थी। यह मैं स्वीकार करूँगा कि रहीम खाँ ख़ानख़ाना ने अवधी भाषा में भी रचना की है, पर उनकी अधिकांश रचनाएँ ब्रजभाषा की ही हैं। 'नरहरि' और 'गंग की जो रचनाएँ ऊपर उद्धृत की गई हैं। उनकी भाषा भी प्रौढ़ ब्रजभाषा है। इससे ब्रजभाषा के अधिक प्रचार होने का रहस्य समझ में आ जाता है। इसके अतिरिक्त उन दिनों मथुरा वृन्दावन में कृष्णावत संप्रदाय के ऐसे प्रसिध्द महात्मा हुए जिनका बहुत बड़ा प्रभाव अन्य प्रदेशों पर भी पड़ा। इन महात्माओं में से अधिकांश की रचनाएँ मैं ऊपर उद्धृत कर आया हूँ। उनके पढ़ने से आपको ज्ञात होगा कि उस समय ब्रजभाषा कविता का प्रवाह कितना प्रबल था। जिस भाषा के सहायक सम्राट् से लेकर उनके मंत्रिा-मण्डल, के दरबारी, राजे-महराजे और सामयिक अधिकांश महात्मागण हों, उसका विशेष आदृत और विस्तृत हो जाना आश्चर्यजनक नहीं। मीराबाई के भजनों को भी आप पढ़ चुके हैं। वह भी भगवान कृष्णचन्द्र के प्रेम में ही रँगी थीं। उनकी रचनाओं से यह बात स्पष्टतया विदित होती है। उस समय ब्रजभाषा की समुन्नति में उनका भी कम प्रभाव नहीं पड़ा। यह सच है कि उनकी भाषा में राजस्थानी शब्द मिलते हैं। परन्तु उनकी अधिकतर रचनाएँ ब्रजभाषा के ही रंग में रँगी हैं। ब्रजभाषा के विस्तार का एक बहुत बड़ा हेतु और भी है। वह यह कि कृष्णावत सम्प्रदाय जहाँ जहाँ गया वहाँ-वहाँ उस सम्प्रदाय की प्रिय भाषा ब्रजभाषा भी उसके साथ गई। भगवान् कृष्णचन्द्र और श्रीमती राधिका जिनके आराधयदेव हों, वे उनकी प्रिय भाषा का आदर क्यों न करते? भगवान् कृष्णचन्द्र के गुणगान का अधिक सम्बन्धा ब्रजलीला ही से है। फिर ब्रज प्रान्त की भाषा आदृत क्यों न होती? कृष्ण-भक्ति के साथ ब्रजभाषा का घनिष्ठ सम्बन्धा है। इसलिए वह भी उनकी भक्ति के साथ-साथ ही उत्तारीय भारत में, राजस्थान और गुजरात में, अपना प्रभाव विस्तार करने में समर्थ हुई।'

एक बात और है वह यह है कि भगवान कृष्णचन्द्र शृंगार रस के देवता हैं। पहले कुछ रीति-ग्रन्थ के आचार्यों ने विष्णु भगवान को देवता माना। परन्तु उत्तार-काल में भगवान कृष्णचन्द्र ही की प्रधानता हुई। इसलिए शृंगार रस के वर्णन में उनकी ब्रजलीला को अधिकतर स्थान दिया गया और ब्रजलीला के साथ ही ब्रजभाषा भी सादर गृहीत हुई। सत्राहवीं से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी तक जहाँ थोड़े से अन्य साहित्य के ग्रन्थ लिखे गये, वहाँ शृंगार रस के ग्रन्थों की भरमार रही। पहले शृंगार रस के वर्णन में कुछ संकोच भी होता था। परन्तु उसके कृष्ण लीलामय होने के कारण जब यह भाव भी आकर उसमें सम्मिलित हो गया कि यह रूपान्तर से कृष्ण गुणगानहै। 1 जो पवित्रा और निर्दोष है तो बड़े असंयत भाव और अधिकता से शृंगार रस की रचनाएँ होने लगीं। काल पाकर साहित्य पर उसका अच्छा प्रभाव नहीं पड़ा। कृष्ण गुणगान करने के बहाने उच्छृंखलताओं और अयथा वर्णनों ने स्थान ग्रहण किया, जिससे शृंगार-सम्बन्धी ग्रन्थ अनेक अंशों में कलुषित होने से न बचे और यह उक्त त्यागशील महात्माओं के उत्ताम आदर्शों का बहुत बड़ा दुरुपयोग हुआ जो बाद को अनेक लांछनों का कारण बना। अष्टछाप के वैष्णवों में जो भक्ति और पवित्राता पायी जाती है, स्वामी हित हरिवंश, स्वामी हरिदास आदि महात्माओं में जो सच्ची भक्ति और तन्मयता अथच तदीयता देखी जाती है, बिट्ठल विपुल में जो प्रेमोन्माद और तल्लीनता मिलती है, उसका शतांश भी उत्तार काल के शृंगार रस के ग्रन्थकारों में दृष्टिगत नहीं होता। इसलिए उनकी रचनाओं का कुछ अंश ऐसा बन गया जो निंदनीय कहा जा सकता है। यह मैं कहूँगा कि उस काल के कुछ रसिक राजा-महाराजाओं ने इस रोग को बढ़ाया और कुछ उस काल के उर्दू और फ़ारसी साहित्य के संसर्ग ने। परन्तु यह सत्य है कि जहाँ ब्रजभाषा की रचनाओं के विस्तार के और कारण हुए वहाँ एक कारण यह शृंगार-रस का व्यापक प्रवाह भी हुआ। ऊपर जो पद्य उद्धृत किये गये हैं उनमें से 'करनेस' 'लालनदास' की रचनाओं की ओर मैं आप लोगों की दृष्टि विशेष रूप से आकर्षित करता हूँ। उनके देखने से आप लोगों को ज्ञात होगा कि इसी शताब्दी में ही कुछ कवियों ने ब्रजभाषा की रचना में फ़ारसी और अरबी के अधिकतर शब्दों का भरना आरम्भ किया था। परन्तु ऐसे कवियों को सफलता प्राप्त नहीं हुई और न उनका अनुकरण हुआ। फारसी-अरबी के शब्दों के ग्रहण करने के वे ही नियम गृहीत रहे, अपनी आदर्श रचना द्वारा जिनका प्रचार सूरदास जी और गोस्वामी तुलसीदास जी ने किया था। अर्थात् ब्रजभाषा की कविता में वे ही शब्द आवश्यकतानुसार लिये गये जो अधिकतर बोलचाल में आते अथवा प्रचलित थे।

( ग)

इसी शतक में दादूदयाल जी का आविर्भाव हुआ। उनकी गणना निर्गुणवादी संतों में की जाती है। कोई उनको ब्राह्मण संतान कहता है, कोई यह कहता है कि वे एक धुनियाँ थे जिनको एक नागर ब्राह्मण ने पाला-पोसा था। वे जो हों, किन्तु उनका हृदय प्रेम-मय और उदार था। उनमें दयालुता की मात्रा अधिक थी, इसीलिए उनको दादूदयाल कहते हैं। उनको कलह-विवाद प्रिय नहीं था। शान्तिमय जीवन ही

1. भिखारीदास जी लिखते हैं-

' आगे के सुकवि रीझि हैं तो कविताई ,

ना तो राधिका कन्हाई सुमिरन को बहानोहै। '

उनका धयेय था, इसलिए उनकी रचनाओं में वह कटुता नहीं मिलती जो कबीर साहब की उक्तियों में मिलती है। उनके ग्रन्थों के पढ़ने से यह ज्ञात होता है कि वे हिन्दू जाति से सहानुभूति रखते थे और उनके देवी-देवताओं और महात्माओं पर व्यंग्य-बाण प्रहार करना उचित नहीं समझते थे। उनका विचार यह था कि संत होने के लिए संत भाव की आवश्यकता है। इस दृष्टि से वे किसी महापुरुष की कुत्सा करके अपने को सर्वोपरि बनाना नहीं चाहते थे। अतएव उनकी रचनाओं में यथेष्ट गम्भीरता पाई जाती है। उनको यह ज्ञात था कि उस समय हिन्दू धर्म पर किस प्रकार आक्रमण हो रहा था, इसलिए उसके प्रति वे सहानुभूति पूर्ण थे और इसी कारण उन्होंने वह मार्ग नहीं ग्रहण किया जिससे उसका धर्म-क्षेत्र कंटकित हो और औरों को उस पर अयथा आक्रमण करने का अधिक अवसर प्राप्त हो। वे हिन्दू संतान थे। इसलिए उनका हिन्दू संस्कार जाग्रत था और यही कारण है कि वे उसके धर्म याजकों पर अनुचित कटाक्ष करते नहीं देखे जाते। वे जितने ही मिथ्याचार के विरोधी थे उतने ही मिथ्यावाद से दूर। वे यह जानते थे कि सत्य में बल है। इसलिए ये सत्य का प्रचार सत्य भाव ही से करते थे, असंयत भावों के साथ नहीं। लगभग यह बात सभी हिन्दू निर्गुण्वादियों मेंं पाई जाती है, यहाँ तक कि कबीर साहब के प्रधान शिष्य धर्मदास, श्रुतगोपालदास आदि में भी यही भाव कार्यरत देखा जाता है। इन लोगों में भी हिन्दू धर्म के प्रति वह दुर्भाव नहीं देखा जाता है, जिससे हिन्दू धर्म के प्रति उनका असद्भाव प्रकट हो। दादूदयाल के हृदय का विनीत भाव इससे भी प्रकट होता है कि वे सबको दादा कहते थे और इसीलिए उनका नाम दादू पड़ा। उनकी कुछ रचनाएँ आपके सामने उपस्थित की जाती हैं। इनको पढ़कर आप लोगों को स्वयं यह ज्ञात होगा कि वे क्या थे-

1. अजहुँ न निकसे प्रान कठोर।

दरसन बिना बहुत दिन बीते सुन्दर प्रीतम मोर।

चार पहर चारहुँ जुग बीते रैनि गँवाई भोर।

अवधि गये अजहूँ नहिं आये कतहुँ रहे चित चोर।

कबहूँ नैन निरख नहिं देखे मारग चितवत तोर।

दादू अइसहि आतुरि विरहिनि जैसहिं चन्दचकोर।

2. भाई रे! ऐसा पंथ हमारा।

द्वै पखरहित पंथ गह पूरा अबरन एक आधारा।

वाद विवाद काहू सों नाहीं मैं हूँ जग थें न्यारा।

सम दृष्टी सूं भाइ सहज में आपहिं आप विचारा।

मैं तैं मेरी यहु मत नाहीं निरवैरी निरविकारा।

पूरण सबै देखि आपा पर निरालंब निरधारा।

काहु के संगी मोह न ममता संगी सिरजन हारा।

मनही मनसूँ समझु सयाना आनँद एक अपारा।

काम कलपना कदे न कीजे पूरण ब्रह्म पियारा।

यहि पथ पहुँचि पार गहि दादू सो तत सहज सँभारा।

3. यह मसीत यह देहरा सत गुरु दिया देखाय।

भीतर सेवा बन्दगी बाहर काहे जाय।

4. सुरग नरक संसय नहीं , जिवन मरण भय नाहिं।

राम विमुख जे दिन गये सो सालै मन माहिं।

5. जे सिर सौंप्या राम कों , सो सिर भया सनाथ।

दादू दे ऊरण भया जिसका तिसके हाथ।

6. कहताँ सुनताँ देखताँ लेताँ देताँ प्राण।

दादू सो कतहूँ गया माटी भरी मसाण।

7. आवरे सजणा आव सिर पर धारि पाँव।

जाणी मैंडा जिंद असाड़े

तू रावैंदा राव वे सजणा आव।

इत्थां उत्थां जित्थां कित्थां हौं जीवां तो नाल वे!

मीयां मैंडा आव असाड़े

तू लालों सिर लाल वे सजणा आव।

8. म्हारे ह्नाला ने काजे रिदै जो वानेहूँ धयान धारूँ।

आकुल थाए प्राण म्हारा को नेकही पर करूँ।

पीबे पाखे दिन दुहेलाँ जाय घड़ी बरसाँसौं केम भरूँ।

दादू रे जन हरिगुण गाताँ पूरण स्वामी ते बरूँ।

दादू दयाल में यह विशेषता थी कि वे पंजाबी और गुजराती भाषा में भी कविता कर सकते थे। उनकी इस प्रकार की रचनाएँ भी ऊपर उद्धृत की गई हैं। नम्बर 7 की रचना पंजाबी और नम्बर 8 की गुजराती भाषा की हैं। इस प्रकार की उनकी रचनाएँ थोड़ी हैं। अधिकांश रचनाएँ ब्रजभाषा की ही हैं, जिसमें अधिकतर शब्द राजस्थानी भाषा के और थोड़े अवधी के भी आये हैं। उनकी भाषा भी संतों की भाषा के समान स्वतंत्रा है। उसमें विशेष बन्धान नहीं। जब जहाँ आवश्यक समझते हैं अन्य भाषा के उपयुक्त शब्दों को ग्रहण कर लेते हैं। फिर भी यह कहा जा सकता है कि उनकी भाषा पर ब्रजभाषा और राजस्थानी भाषा का ही विशेष प्रभाव है। पहले पद्य को देखिए। वह बहुत ही प्रांजल है और इस भाव से लिखा गया है कि ज्ञात होता है कि वे सूरदास जी का अनुकरण कर रहे हैं। ऐसी उनकी कितनी रचनाएँ हैं। दूसरा पद्य ऐसा है जिसमें राजस्थानी शब्द अधिक आये हैं। फिर भी उसकी भाषा साफ और चलती है। दादू दयाल के विचार निर्गुणवादियों के-से हैं, परन्तु अन्य निर्गुणवादियों के समान वे भी सगुणोपासक हैं और परमात्मा में अनेक गुणों की कल्पना करते रहते हैं। उन्होंने अपनी रचनाओं में अपने पूर्व के कबीर साहब इत्यादि निर्गुणवादियों को भी स्मरण किया है और स्थान-स्थान पर पौराणिक महात्माओं को भी। स्वर्ग-नरक इत्यादि का वर्णन भी उनकी रचनाओं में है और पौराणिक उन पापियों का भी जो पतित-पावन के अपार अनुग्रह से पाप-मुक्त होकर अच्छे पद को प्राप्त हो सके। इसलिए उनके विचार भी पौराणिक भावों से ही ओतप्रोत हैं जो समय पर दृष्टि रखकर उनके द्वारा प्रकट किये गये हैं। राजस्थान में उनके पंथवाले अधिक हैं, उनका कार्य-क्षेत्र भी आजीवन राजस्थान ही रहा है।

उत्तर-काल

सोलहवीं शताब्दी में हिन्दी साहित्य-क्षेत्र में तीन धाराएँ प्रबल वेग से बहती दृष्टिगत होती हैं। पहली निर्गुणवाद सम्बन्धी,दूसरी सगुणवाद या भक्तिमार्ग-सम्बन्धी और तीसरी रीति ग्रन्थ-रचना सम्बन्धी। इस सदी में निर्गुणवाद के प्रधान प्रचारक कबीर साहब, गुरु नानकदेव और दादूदयाल थे। सगुणोपासना अथवा भक्तिमार्ग के प्रधान प्र्रवत्ताक कविवर सूरदास और गोस्वामी तुलसीदास थे। रीति ग्रन्थ-रचना के प्रधान आचार्य केशवदास जी कहे जा सकते हैं। इन लोगों ने अपने-अपने विषयों में जो प्रगल्भता दिखलाई, वह उत्तारकाल में दृष्टिगत नहीं होती। परन्तु उनका अनुगमन उत्तारकाल में तो हुआ ही, वर्तमान काल में भी हो रहा है। मैं यथाशक्ति यह दिखलाने की चेष्टा करूँगा कि ई. सत्राहवीं शताब्दी में इन धाराओं का क्या रूप रहा और फिर अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में उनका क्या रूप हुआ। इन तीनों शताब्दियों में जो देश कालानुसार अनेक परिवर्तन हुए हैं और भिन्न-भिन्न विचार भारत वसुन्धारा में फैले हैं। उनका प्रभाव इन तीनों शताब्दियों की रचनाओं में देखा जाता है। साथ ही भाव और भाषा में भी कुछ न कुछ अन्तर होता गया है। इसलिए यह आवश्यक ज्ञात होता है कि इन शताब्दियों के क्रमिक परिवर्तन पर भी प्रकाश डाला जावे और यह दिखलाया जावे कि किस क्रम से भाषा और भाव में परिवर्तन होता गया। यह बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि इन तीनों शताब्दियों में न तो कोई प्रधान धर्म-प्र्रवत्ताक उत्पन्न हुआ, न कोई सूरदास जी एवं गोस्वामी तुलसीदास जी के समान महाकवि, और न केशवदास जी के समान महान् रीति-ग्रन्थकार। किन्तु जो साहित्य-सम्बन्धी विशेष धाराएँ सोलहवीं शताब्दी में बहीं, वे अविच्छिन्न गति से इन शताब्दियों में भी बहती ही रहीं,चाहे वे उतनी व्यापक और प्रबल न हों। इन तीनों शताब्दियों में उस प्रकार की प्रभावमयी धारा बहाने में कोई कवि अथवा महाकवि भले ही समर्थ न हुआ हो, परन्तु इन धाराओं से जल ले-लेकर अथवा इनके आधार से नई-नई जल प्रणालियाँ निकाल कर वे हिन्दी साहित्य-क्षेत्र के सेचन और उसको सरस और सजल बनाने से कभी विरत नहीं हुए। इन शताब्दियों में भी कुछ ऐसे महान् हृदय और भावुक दृष्टिगत होते हैं जिनकी साहित्यिक धाराएँ यदि उक्त धाराओं जैसी नहीं हैं तो भी उनसे बहुत कुछ समता रखने की अधिकारिणी कही जा सकती हैं, विशेष कर रीतिग्रन्थ-रचना के सम्बन्धा में। परन्तु उनमें वह व्यापकता और विशदता नहीं मिलती, जो उनको उनकी समकक्षता का गौरव प्रदान कर सके। मैंने जो कुछ कहा है, वह कहाँ तक सत्य है, इसका यथार्थ ज्ञान आप लोगों को मेरी आगे लिखी जाने वाली लेखमाला से होगा।

मैं पहले लिख आया हूँ कि हिन्दी-साहित्य-क्षेत्र में सोलहवीं शताब्दी में ही ब्रजभाषा को प्रधानता प्राप्त हो गयी थी और कुछ विशेष कारणों से हिन्दी के कवि और महाकवियों ने उसी को हिन्दी साहित्य की प्रधान भाषा स्वीकार कर लिया था। यह बात लगभग यथार्थ है परन्तु यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उत्तार-काल के कवियों की मुख्य भाषा भले ही ब्रजभाषा हो, किन्तु उसमें अवधी के कोमल, मनोहर अथच भावमय शब्द भी गृहीत हैं। जो कवि कर्म्म के मर्मज्ञ हैं, वे भली-भाँति यह जानते हैं कि अनेक अवस्थाओं में कवियों अथवा महाकवियों को ऐसे शब्द-चयन की आवश्यकता होती है, जो उनको भाव-प्रकाशन में उचित सहायता दे सकें और छन्दोगति में बाधाक भी न हों। यदि वे 'ऐसो' लिखना चाहते हैं, परन्तु इस शब्द को वे इसलिए नहीं लिख सकते कि उससे छन्दोगति में बाधा पड़ती है और 'अस' लिखने से वे अपने भाव का द्योतन कर सकते हैं और छन्दोगति भी सुरक्षित रहती है तो वे ऐसी विशेष अवस्था में यह नहीं विचारते कि 'अस' शब्द अवधी का है, इसलिए उसको कविता में स्थान न मिलना चाहिए, वरन् वे यह सोचते हैं, कि हिन्दी भाषा का ही यह शब्द है और उसका प्रयोग हिन्दी साहित्य के एक विभाग में पाया जाता है। इसलिए संकीर्ण स्थलों पर उसके ग्रहण में आपत्तिा क्या? हिन्दी साहित्य के महाकवियों को ऐसा करते देखा जाता है। क्योंकि वे जानते हैं कि बोलचाल की भाषा और साहित्यिक भाषा में कुछ न कुछ भिन्नता होती ही है। मेरे कथन का सारांश यह है कि उत्तार काल के कवियों ने जिसे साहित्यिक भाषा के रूप में ग्रहण किया,उनमें से अधिकांश की मुख्य भाषा ब्रजभाषा ही है, परन्तु अवधी के उपयुक्त शब्द उसमें गृहीत हैं। मेरा विचार है कि इससे साहित्य की व्यापकता बढ़ी है, उसका पथ अधिक प्रशस्त हुआ है, और कवि-कर्म में भी बहुत कुछ सुविधा प्राप्त हुई है। भाषा की शुध्दता की ओर दृष्टि आकर्षित कर कुछ लोग इस प्रणाली का विरोधा करते हैं। उनका कथन है कि सुविधा पर दृष्टि रखकर यदि एक ही शब्द के अनेक रूप गृहीत होने लगेंगे तो इससे भाषा सम्बन्धी नियम की रक्षा न होगी और निरंकुशता को प्रश्रय मिलेगा। लोग बेतरह शब्दों को तोड़ मरोड़ कर मनमानी करेंगे और साहित्य-क्षेत्र में उच्छृंखलता विप्लव मचा देगी। यह कथन बहुत कुछ युक्ति-संगत है, परन्तु ब्रजभाषा साहित्य के मर्म्मज्ञों अथवा महाकवियों ने यदि उक्त प्रणाली ग्रहण की तो इस उद्देश्य से नहीं कि निरंकुशता को प्रश्रय दिया जाय। शब्द गढ़ने के पक्षपाती वे नहीं थे, न शब्दों को अधिक तोड़ने-मरोड़ने के समर्थक। वरन् उनका विचार यह था कि विशेष स्थलों पर यदि उपयुक्त अवधी के शब्द आ जायँ तो आपत्तिाजनक नहीं। अवधी भाषा के कवियों को भी इस प्रणाली का अनुमोदन करते देखा जाता है। क्योंकि उनकी रचनाओं में भी ब्रजभाषा के शब्द विशेष स्थलों पर गृहीत होते आये हैं। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि यदि कोई विशेष क्षमतावान है और वह शुध्द अवधी में ही रचना करना चाहता है तो अनुचित करता है। भाषाधिकार कविता का विशेष गुण है। गुण का त्याग किसे वांछनीय होगा परन्तु यह स्मरण रहना चाहिए कि कवि-परम्परा (Poetic License) का भी कुछ आधार है, कवि कार्य के जटिल पथ में वह सुविधा का अंगुलि-निर्देश है। इसीलिए ब्रजभाषा के साहित्यकारों ने चाहे वे प्रारम्भिक काल के हों, अथवा माध्यमिक काल या उत्तार-काल के, इस सुविधा से मुख नहीं मोड़ा।

एक बात और है, वह यह कि ब्रजभाषा और अवधी में अधिकतर उच्चारण का विभेद है। अन्यथा दोनों में बहुत कुछ एकरूपता है। इसका कारण यह है कि अवधी पर शौरसेनी का अधिकतर प्रभाव रहा है। भरत मुनि कहते हैं-

' शौरसेन्याऽविदूरत्वात् इयमेवार्ध्द मागधी। '

इसका अर्थ यह है कि शौरसेनी से अविदूर (सन्निकट) होने के कारण मागधी अर्ध्द मागधी कहलाती है। यह कौन नहीं जानता कि शौरसेनी से ब्रजभाषा की और अर्धा-मागधी से अवधी की उत्पत्तिा है। ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों पश्चिमी हैं और अवधी पूर्वी। पछाँह वालों की भाषा खड़ी होती है और पूर्व वालों की पड़ी। पछाँह वालों के उच्चारण में उठान होती है और पूर्व वालों के उच्चारण में लचक, उसमें चढ़ाव होता है और इसमें उतार। पछाँह वाले कहेंगे 'ऐसे', 'जैसे', 'कैसे', 'तैसे' और पूर्व वाले कहेंगे 'अइसे', 'जइसे', 'कइसे', 'तइसे' वे कहेंगे 'गयो' ये कहेंगे 'गयउ'। वे कहेंगे 'होयहै' या 'ह्नैहै' और ये कहेंगे 'होइहै'। वे कहेंगे 'रिझैहै' ये कहेंगे 'रिझइहै'। वे कहेंगे 'कौन' ये कहेंगे 'कवन'। वे कहेंगे 'मैल' ये कहेंगे 'मइल'। वे कहेंगे 'पाँव' ये कहेंगे'पाँउ'। वे कहेंगे 'कीनो', 'लीनो', 'दीनो' और ये कहेंगे 'कीन', 'लीन', 'दीन'। इसी प्रकार बहुत से शब्द बतलाये जा सकते हैं। मेरा विचार है इस साधारण उच्चारण विभेद के कारण एक-दूसरे को परस्पर सर्वथा सम्पर्क-हीन समझना युक्तिसंगत नहीं। उच्चारणविभेद के अतिरिक्त कारक-चिद्दों, सर्वनामों और अनेक शब्दों में कुछ विभिन्नताएँ भी दोनों में हैं, विशेष कर ग्रामीण शब्दों में। उनसे जहाँ तक सम्भव हो बचने की चेष्टा करनी चाहिए, यद्यपि हमारे आदर्श कवियों और महाकवियों ने अनेक संकीर्ण स्थलों पर इन बातों की भी उपेक्षा की है।

( क)

अब मैं प्रकृत विषय को लेता हूँ, सत्राहवीं शताब्दी के निर्गुणवादी कवियों में मलूकदास और सुन्दरदास अधिक प्रसिध्द हैं। क्रमश: इनकी रचनाएँ आप लोगों के सामने उपस्थित करके इनकी भाषा आदि के विषय में जो मेरा विचार है, उसको मैं प्रकट करूँगा और विकास सूत्रा से उनकी जाँच-पड़ताल भी करता चलूँगा। मलूकादास जी एक खत्री बालक थे। बाल्यकाल से ही इनमें भक्ति का उद्रेक दृष्टिगत होता है। वे द्रविड़ देश के एक महात्मा बिट्ठलदास के शिष्य थे। इनका भी एक पंथ चला जिसकी मुख्य गद्दी कड़ा में है। भारतवर्ष के अन्य भागों में भी उनकी कुछ गद्दियाँ पाई जाती हैं। उनकी रचनाओं से यह सिध्द होता है कि उनमें निर्गुणवादी भाव था, फिर भी वे अधिकतर सगुणोपासना में ही लीन थे। सच्ची बात तो यह है कि पौराणिकता उनके भावों से भरी थी और वे उसके सिध्दान्तों का अनुकरण करते ही दृष्टिगत होते हैं। वे दर्शन के लिए जगन्नाथ जी भी गये थे। वहाँ पर उनके नाम का टुकड़ा अब तक मिलता है। उनकी कुछ रचनाएँ देखिए-

1. भील कब करी थी भलाई जिय आप जान।

फ़ील कब हुआ था मुरीद कहु किसका A

गीधा कब ज्ञान की किताब का किनारा छुआ।

व्याधा और बधिक निसाफ कहु तिसका।

नाग कब माला लै के बन्दगी करी थी बैठ।

मुझको भी लगा था अजामिल का हिसका A

एते बदराहों की बदी करी थी माफ़ जन।

मलूक अजातीपर एती करी रिस का।

2. दीनदयाल सुनी जबते तबते हिय में कुछ ऐसी बसी है।

तेरो कहाय कै जाऊँ कहाँ मैं तेरे हितकी पटखैं चिकसी है।

तेरो ही एक भरोसे मलूक को तेरे समान न दूजो जसी है।

ऐहो मुरारि पुकारि कहौं अब मेरी हँसी नहिं तेरी हँसी है A

3. ना वह रीझै जप तप कीने ना आतम के जारे।

ना वह रीझै धोती नेती ना काया के पखारे।

दाया करै धारम मन राखै घर में रहे उदासी।

अपना सा दुख सबका जाने ताहि मिलै अबिनासी।

सहै कुसबद बादहू त्यागै दाड़ै गरब गुमाना।

यही रीझ मेरे निरंकार की कहत मलूक दिवाना।

4. गरब न कीजै बावरे हरि गरब प्रहारी A

गरबहिं ते रावन गया पाया दुख भारी A

जर न खुदी रघुनाथ के मन माँहि सोहाती।

जाके जिय अभिमान है ताकी तोरत छाती।

एक दया औ दीनता ले रहिये भाई।

चरन गहो जाय साधु के रीझैं रघुराई।

यही बड़ा उपदेस है पर द्रोह न करिये।

कह मलूक हरि समिरि के भौसागर तरिये।

5. दर्द दिवाने बावरे अलमस्त फकीरा A

एक अकीदा लै रहे ऐसा मन धीरा।

प्रेम पियाला पीउ ते बिसरे सब साथी।

आठ पहर यों झूमते ज्यों माता हाथी।

साहब मिलि साहब भये कछु रही न तमाई।

कह मलूक तिस घर गये जहँ पवन न जाई।

6. अजगर करै न चाकरी पंछी करै न काम।

दास मलूका यों कहै सब के दाता राम।

प्रभुता ही को सब मरै प्रभु को मरै न कोय।

जो कोई प्रभु को मरै प्रभुता दासी होय।

इनकी भाषा स्वतंत्रा है। परन्तु खड़ी बोली और ब्रजभाषा का रंग ही उसमें अधिक है। ये फ़ारसी के शब्दों का भी अधिकतर प्रयोग करते हैं और कहीं-कहीं छन्द की गति की पूरी रक्षा भी नहीं कर पाते। ऊपर के पद्यों में जिन शब्दों और वाक्यों पर चिद्द बना दिया गया है उनको देखिए ये शब्द-विन्यास और वाक्य-रचना में अधिकतर ब्रज-भाषा के नियमों का पालन करते हैं। परन्तु बहुधा स्वतन्त्राता भी ग्रहण कर लेते हैं। इनकी रचना में संस्कृत के तत्सम शब्द भी आते हैं पर अधिकतर उन पर युक्त-विकर्ष का प्रभाव ही देखा जाता है।

साधुओं में सुंदरदास ही ऐसे हैं जो विद्वान् थे और जिन्होंने काशी में बीस वर्ष तक रहकर वेदान्त और अन्य दर्शनों की शिक्षा संस्कृत द्वारा पाई थी। वे जाति के खंडेलवाल बनिये और दादूदयाल के शिष्य थे। उन्होंने देशाटन अधिक किया था,अतएव उनका ज्ञान विस्तृत था। वे बालब्रह्मचारी और त्यागी थे। उनका कोई पंथ नहीं है। परन्तु सुन्दर और सरस हिन्दी रचनाओं के लिए वे प्रसिध्द हैं। उनकी अधिकांश रचनाओं पर वेदान्त-दर्शन की छाप है और उन्होंने उसके दार्शनिक विचारों को बहुत ही सरलता से प्रकट किया है। कहा जाता है, उन्होंने चालीस ग्रन्थों की रचना की, जिनमें से 'सुन्दरसांख्यतर्क चिन्तामणि' 'ज्ञान विलास' आदि ग्रन्थ अधिक प्रसिध्द हैं। उन्होंने साखियों की भी रचना की है। शब्द भी बनाये हैं और बड़े ही सरस कवित्ता और सवैये भी लिखे हैं। उनमें से कुछ नीचे लिखे जाते हैं-

1. बोलिये तो तब जब बोलिये की सुधि होइ।

न तौ मुख मौन गहि चुप होइ रहिये।

जोरिये तो तब जब जोरिबे की जान परै।

तुक छंद अरथ अनूप जामैं लहिये।

गाइये तो तब जब गाइबे को कंठ होइ।

जौन के सुनत ही सुमन जाइ गहिये।

तुक भंग छंद भंग अरथ मिलै न कछु।

सुंदर कहत ऐसी बानी नहिं कहिये।

2. गेह तज्यो पुनि नेह तज्यो ,

पुनि खेह लगाइ कै देह सँवारी।

मेघ सहै सिर सीत सहै।

तन धूप समै में पँचागिन बारी।

भूख सहै रहि रूख तरे

पर सुन्दर दास यहै दुख भारी।

आसन छाड़ि के कासन ऊपर ,

आसन मारयो पै आस न मारी।

3. देखहु दुर्मति या संसार की।

हरि सो हीरा छाँड़ि हाथ तें बाँधात मोट विकार की।

नाना विधि के करम कमावत खबर नहीं सिरभार की।

झूठे सुख में भूलि रहे हैं फूटी ऑंख गँवार की।

कोई खेती कोइ बनिजी लागे कोई आस हथ्यार की।

अंधा धुंधा में चहुँ दिसि धाये सुधि बिसरी करतार की।

नरक जानि कै मारग चालै सुनि-सुनि बात लबार की।

अपने हाथ गले में बाहीं पासी माया जार की।

बारम्बार पुकार कहत हौं सौंहैं सिरजनहार की।

सुंदरदास बिनस करि जैहै देह छिनक में धार की।

4. धाइ परयो गज कूप में देखा नहीं विचारि।

काम अंधा जानै नहीं कालबूत की नारि।

लालन मेरा लाड़ला रूप बहुत तुझ माहि।

सुन्दर राखै नैन में पलक उघारै नाहिं।

सुन्दर पंछी बिरछ पर लियो बसेरा आनि।

राति रहे दिन उठि गये त्यों कुटुंब सब जानि।

लवन पूतरी उदधि में , थाह लैन को जाइ।

सुन्दर थाह न पाइये बिचही गयो बिलाइ।

5. तो सही चतुर तू जान परवीन

अति परै जनि पींजरे मोह कूआ।

पाइ उत्ताम जनम लाइ लै चपल

मन गाइ गोविन्द गुन जीति जूआ।

आपुही आपु अज्ञान नलिनी बँधयो

बिना प्रभु बिमुख कै बेर मूआ।

दास सुंदर कहै परम पद तौ लहै

राम हरि राम हरि बोल सूआ।

इनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है परन्तु उसमें कहीं-कहीं खड़ी बोली का शब्द-विन्यास भी मिल जाता है। जहाँ उन्होंने दार्शनिक विषयों का वर्णन किया है वहाँ उनकी रचना में अधिकतर संस्कृत शब्द आये हैं। जैसे निम्नलिखित पद्य में-

ब्रह्म ते पुरुष अरु प्रकृत प्रगट भई ,

प्रकृति ते महत्व पुनि अहंकार है।

अहंकार हूं ते तीन गुण सत रज तम ,

तमहू ते महा भूत विषय पसार है।

रजहूं ते इन्द्री दस पृथक पृथक भई ,

सतहूं ते मन आदि देवता विचार है।

ऐसे अनुक्रम करि सिष्य सों कहत गुरु ,

सुन्दर सकल यह मिथ्या भ्रम जार है।

देशाटन के समय प्रत्येक प्रान्त में जो बातें अरुचिकर देखी, अपनी रचनाओं में उन्होंने उनकी चर्चा भी की है। उनकी ऐसी रचनाओं में प्रान्तिक और गढ़े शब्दों का प्रयोग भी प्राय: देखा जाता है। निम्नलिखित पद्यांशों के उन शब्दों को देखिए जो चिद्दित हैं-

1. आभड़ छोत अतीत सों कीजिये

2. बिलाइरु कूकुरु चाटत हाँडी

3. रांधात प्याज बिगारत नाज न आवत लाज करैं सब भच्छन

4. ब्राह्मण छत्रिय बैसरु सूदर चारों ही बर्नके मच्छ बघारत

5. फूहड़ नार फतेपुर की........।

6. फिर आवा नग्र मँझारी A

इनकी रचनाओं में विदेशी भाषा के शब्द भी आते हैं, किन्तु बहुत कम और नियमानुकूल। निम्नलिखित पद्य के उन शब्दों को देखिए जो चिद्दित हैं-

1. ' खबरि नहीं सिर भार की '

2. ' कागद की हथिनी कीनी '

3. ' खंदक कीना जाई '

4. ' तब बिदा होइ घर आवा '

5. ' मन में कछु फिकिरि उपावा '

इन पद्यों में 'आवा', 'उपावा' इत्यादि का प्रयोग भी चिन्तनीय है। ये प्रयोग अवधी के ढंग के हैं। उनकी समस्त रचनाओं पर दृष्टि डालकर यह कहा जा सकता है कि निर्गुणवादियों की जितनी रचनाएँ हैं उनमें भाषा की प्रांजलता एवं नियम-पालन की दृष्टि से सुंदरदास जी की कृति ही सर्वप्रधान है। जो भाषा-सम्बन्धी विभिन्नता कहीं-कहीं थोड़ी-बहुत मिलती है,साहित्यिक दृष्टि से वह उपेक्षणीय है। कतिपय शब्दों और वाक्य विन्यास के कारण यह नहीं कहा जा सकता कि उनकी भाषा खिचड़ी है और उन्होंने भी सधुक्कड़ी भाषा ही लिखी। इन्हीं के समय में दादू सम्प्रदाय में निश्चलदास नाम के एक प्रसिध्द साधु विद्वान् हो गये हैं, जिन्होंने वेदान्त के विषयों पर सुंदर ग्रन्थ लिखे हैं। उनकी भाषा के विषय में यही कहा जा सकता है कि वह लगभग सुंदरदास की-सी ही है। इसी शताब्दी में लालदासी पंथ के प्रवर्तक लालदास और साधु सम्प्रदाय के जन्मदाता वीरभान एवं 'सत्यप्रकाश' नामक ग्रन्थ के रचयिता और एक नवीन मत के निर्माणकत्तर् धारणीदास भी हुए। परन्तु उनकी रचनाएँ अधिकतर साधुओं की स्वतंत्रा भाषा ही में हैं, विचार भी लगभग वैसे ही हैं। इसलिए मैं उनकी रचनाओं को लेकर उनके विषय में कुछ अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं समझता।

( ख)

इस शताब्दी के भक्ति मार्ग वाले सगुणवादी भक्तों की ओर जब दृष्टि जाती है तो सबसे पहले हमारे सामने नाभादास जी आते हैं। वैष्णवों में इनकी रचनाओं का अच्छा आदर है। इनकी विशेषता यह है कि इन्होंने शृंगार रस से मुख मोड़कर भक्ति-रस की धारा बहायी और 'भक्तमाल' नामक ग्रन्थ की रचना की, जिसमें लगभग 200 भक्तों का वर्णन है। अपनी रचना में उन्होंने वैष्णव मात्रा को समान दृष्टि से देखा, और स्वयं रामभक्त होते हुए भी कृष्णचन्द्र जी के भक्तों में भी उतनी ही आदर बुध्दि प्रकट की जितनी रामचन्द्र जी के भक्तों में। उनके विषय में जो कुछ उन्होंने लिखा है उसमें भी उनके हृदय की उदारता और पक्षपातहीनता प्र्रकट होती है। उनका ग्रन्थ ब्रजभाषा में लिखा गया है। इसका कारण उसकी सामयिक व्यापकता ही है। प्रियादासजी ने उनके ग्रन्थ पर टीका लिखी है, क्योंकि थोड़े में अधिक बातें कहने से उनका ग्रन्थ दुर्बोधा हो गया है। उन्होंने एक छप्पय में ही एक भक्त का हाल लिखा है। इसलिए थोड़े में ही उनको बहुत बातें कहनी पड़ीं। ऐसी अवस्था में उनका ग्रन्थ गूढ़ क्यों न हो जाता? प्रियादासजी की टीका ने इस गूढ़ता को अधिकतर अपनी टीका के द्वारा बोधागम्य बना दिया। पद्य ही में 'अष्टयाम' नामक उनका एक ग्रन्थ और है। यह ग्रन्थ भी साहित्यिक ब्रजभाषा ही में लिखा गया है। दोनों का एक-एक पद्य देखिए-

1. मधुर भाव सम्मिलित ललित लीला सुवलित छवि।

निरखत हरखत हृदय प्रेम बरखत सुकलित कवि।

भव निस्तारन हेत देत दृढ़ भक्ति सबन नित।

जासु सुजस ससि उदै हरत अति तम भ्रम श्रम चित।

आनन्द कंद श्रीनंद सुत श्रीवृषभानु सुता भजन।

श्री भट्ट सुभट प्रगटयो अघट रस रसिकन मनमोद घन।

- भक्तमाल

2. परिखा प्रति चहुँ दिसि लसत कंचन कोट प्रकास।

विविधा भांति नग जगमगत प्रति गोपुर पुरवास।

दिव्य फटिकमय कोट की शोभा कहि न सिराय।

चहुँ दिसि अद्भुत जोति मैं जगमगाति सुखदाय।

इनकी भाषा के विषय में कुछ अधिक लिखने की आवश्यकता मुझे नहीं ज्ञात होती। जो नियम साहित्यिक ब्रजभाषा का मैं ऊपर लिख आया हूँ उसका पालन इनकी कविता में अधिकतर पाया जाता है। इनकी रचना में अनुप्रासों एवं ललित पद-विन्यास की भी छटा है। पद्य में संस्कृत के तत्सम शब्द भी आये हैं। परन्तु वे अधिकतर ऐसे हैं जो मधुर और कोमल कहे जा सकते हैं। इनकी रचना को देखने से यह ज्ञात होता है कि उत्ताम वर्ण के न होने पर भी ये सुशिक्षित थे और ऐसा सत्संग उनको प्राप्त था जिसने उनके हृदय को भक्तिमान और भावुक बना दिया था। किसी-किसी ने उनको अछूत जाति का लिखा है, और किसी ने यह लिखकर उनकी जाति-पाँति बताने में आनाकानी की है कि हरि-भक्तों की जाति नहीं पूछी जाती। वे जो हों, परन्तु वे भक्त थे और जैसा भक्त का हृदय होना चाहिए वैसा ही उनका हृदय था, जो उनकी रचनाओं में स्पष्ट प्रतिबिंबित है।

नाभादासजी के बाद हमारे सामने एक बड़े ही सरस-हृदय कवि आते हैं, वे हैं रसखान। ये मुसलमान थे और इन्होंने अपने को राजवंशी बतलाया है। नीचे के दोहे इस बात के प्रमाण हैं-

देखि गदर , हित साहिबी , दिल्ली नगर मसान।

छिनहिं बादसा बंस की , ठसक छोड़ि रसखानड्ड

प्रेम निकेतन श्री बनहिं , आय गोबरधान धाम।

लह्यो सरन चित चाहि कै , जुगल सरूप ललामड्ड

इनमें एक और विशेषता पाई जाती है वह यह है कि एक विजातीय और विधार्म्मी पुरुष का भगवान्् श्रीकृष्ण के प्रेम में तन्मय होकर सर्वस्व-त्यागी बन जाना कम आश्चर्यजनक नहीं। परन्तु प्रेम में बड़ी शक्ति है। सच्चा प्रेम क्या नहीं करा सकता?रसखान की रचनाएँ पढ़ने से ज्ञात होता है कि उनमें प्रेम की कितनी लगन थी। वे इतने सच्चे प्रेमी थे और भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में उनका इतना अनुराग था कि गोस्वामी विट्ठलनाथ के प्रधान शिष्यों में उनकी भी गणना हुई और 252 वैष्णवों की वात्तर् में भी उनको स्थान मिला। इस घटना से भी इस बात का पता चलता है कि महाप्रभु वल्लभाचार्य की प्रचारित प्रेम-धारा कितनी सबल थी। रसखान का सूफी प्रेममार्गियों की ओर से मुँह मोड़कर कृष्णावत सम्प्रदाय में सम्मिलित होना यह बात प्रकट करता है कि उस समय जनता का हृदय किस प्रकार इस सम्प्रदाय की ओर आकर्षित हो रहा था। जब रसखान के निम्नलिखित पद्यों को हम पढ़ते हैं तो यह ज्ञात होता है कि किस प्रकार उनका हृदय परिवर्तित हो गया था और वे कैसे भगवान कृष्ण के अनन्य उपासक बन गये थे। इन पद्यों में अकृत्रिम भक्ति और प्रेम रस का श्रोत-सा बह रहा है।

1. “ मानुस हों तो वही रसखान

बसों ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।

जो पसु हों तो कहा बस मेरो

चरौं नित नंद की धोनु मँझारन।

पाहन हों तो वही गिरि को जो

धारयो कर क्षत्रा पुरंदर धारन।

जो खग हों तो बसेरो करौं वही

कालिंदी-कूल कदंब की डारन। “

2. या लकुटी अरु कामरिया पर

राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।

आठहुँ सिध्दि नवो निधि को सुख

नन्द की गाइ चराइ बिसारौं।

ऑंखिन सों रसखान कबै

ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।

कोटिन हूँ कलधाौत के धाम

करील के कुंजन ऊपर वारौं।

भगवान कृष्णचन्द्र को देवाधिदेव कहकर भी उन्होंने उन्हें किस प्रकार प्रेम के वश में बतलाया है, इसको यह पद्य भली-भाँति प्रकट कर रहा है-

“ सेस गनेस महेस दिनेस सुरेसहुँ

जाहि निरन्तर गावैं।

जाहि अनादि अनन्त अखंड

अछेद अभेद सुबेद बतावैं।

जाहि हिये लखि आनँद ह्नै जड़

मूढ़ जनौ रसखान कहावैं।

ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया

भरि छाछ पै नाच नचावैं। “

रसखान की भाषा चलती और साफ-सुथरी है। जितने पद्य उन्होंने बनाये हैं उनसे रस निचुड़ा पड़ता है। निस्संदेह ब्रजभाषा ही में उनकी कविता लिखी गई है। परन्तु खड़ी बोली के भी कोई-कोई शब्द उनमें मिल जाते हैं। इसी प्रकार अवधी के भी।

रसखान के लिखे हुए दो ग्रन्थ पाये जाते हैं, 'सुजान रसखान' और 'प्रेम-वाटिका'। दोनों की भाषा एक ही है और दोनों में प्रेम का प्रवाह बहता दिखलाई पड़ता है। 'सुजान रसखान' के पद्य आप देख चुके हैं। दो दोहे, 'प्रेम, वाटिका' के भी देखिए-

अति सूछम कोमल अतिहि , अति पतरो अति दूर।

प्रेम कठिन सब ते सदा , नित इक रस भर पूरड्ड

डरै सदा चाहै न कछु , सहै सबै जो होय।

रहै एक रस चाहि कै , प्रेम बखानै सोयड्ड

इसी प्रेम-परायणता के कारण रसखान की गणना भक्तों में की जाती है और यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि उनके दोनों ग्रन्थ भक्ति भावना से पूर्ण है। वे छोटे हों, परन्तु उनमें इतना प्रेम रस भरा है कि उसके कवि को सच्चा प्रेमिक मानने के लिए विवश होना पड़ता है। सच्ची तल्लीनता ही भक्ति है। इसलिए रसखान की गणना यदि वैष्णव भक्तों में हुई तो यथार्थ हुई। विधार्मी और विजातीय होकर भी यदि उन्होंने भगवान कृष्णचन्द्र को पूर्ण रूपेण आत्म-समर्पण किया तो यह उनकी सच्ची भक्ति-भावना ही थी और ऐसी दशा में उनको कौन भक्त स्वीकार न करेगा?

बनारसीदास जैन की गणना भी भक्त कवियों में होती है। यह कभी आगरा और कभी जौनपुर में रहते थे। इनका यौवन काल प्रमादमय था। परन्तु थोड़े दिनों बाद इनमें ऐसा परिवर्तन हुआ कि इन्होंने अपने शृंगार रस के ग्रन्थ को फाड़कर गोमती में फेंक दिया और ऐसी रचनाओं के करने में तल्लीन हुए जो भक्ति और ज्ञान-सम्बन्धी कही जा सकती हैं। इनके भावपूर्ण ग्रन्थों की संख्या आठ-दस बतलाई जाती है, जिनमें से अधिकतर पद्य में लिखे गये हैं। इनकी गद्य रचनाएँ भी हैं। ये जैन विद्वान् थे, परन्तु इनमें संकीर्णता नहीं थी। इनका धा्रुववंदना नामक ग्रन्थ इसका प्रमाण है। इनके कुछ पद्य देखिए-

1. काया सों विचार प्रीति , माया ही में हार जीति ,

लिये हठ रीति जैसे हारिल की लकरी।

चंगुल के जोर जैसे गोह गहि रहै भूमि ,

त्योंही पाँय गाड़ै पै न छाड़ै टेक पकरी।

मोह की मरोर सों मरम को न ठौर पावै ,

धावैं चहुँ ओर जें बढ़ावै जाल मकरी।

ऐसी दुरबुध्दि भूलि झूठ के झरोखे झूलि ,

फूली फिरै ममता जँजीरन सों जकरी।

2. भौंदू समझ सबद यह मेरा।

जो तू देखै इन ऑंखिन को बिनु परकस न सूझै।

सो परकास अगिनि रवि ससि को तू अपनो करि बूझै।

तेरे दृग मुद्रित घट अंतरअ ंधा रूप तू डोलै।

कै तो सहज खुलैं वे ऑंखें कै गुरु संगति खोलै।

3. भौंदू ते हिरदै की आंखैं।

जे करखैं अपनी सुख सम्पति भ्रम की सम्पति नाखैं।

जिन ऑंखिन सों निरखि भेद गुन ज्ञानी ज्ञान विचारैं।

जिन ऑंखिन सों लखि सरूप मुनि धयान धारना धारैं।

इनकी भाषा प्रा×जल ब्रजभाषा है। उसमें कभी-कभी कोई अपरिमार्जित शब्द आ जाता है, परन्तु उससे इनकी भाषा की विशेषता नहीं नष्ट होती। बनारसीदास ही ऐसे जैन कवि हैं, जिन्होंने ब्रजभाषा लिखने में पूरी सफलता लाभ की। इनकी गणना प्रतिष्ठित ब्रजभाषा-कवियों में की जा सकती है। इनकी रचना इस बात का भी प्रमाण है कि सत्राहवीं सदी में ब्रजभाषा इतनी प्रभावशालिनी हो गयी थी कि अन्य धर्म वाले भी उसमें अपनी रचनाएँ करने लगे थे।

( ग)

इस सत्राहवीं शताब्दी में रीति-ग्रन्थकार बहुत अधिक हुए और उन्होंने शृंगाररस, अलंकार और अन्य विषयों की इतनी अधिक रचनाएँ कीं कि ब्रजभाषा-साहित्य श्री सम्पन्न हो गया। यह अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा कि रीति-ग्रन्थकारों ने शृंगार रस को ही अधिक प्रश्रय दिया परन्तु यह समय का प्रभाव था। यह शताब्दी जहाँगीर और शाहजहाँ के राज्य-काल के अन्तर्गत है, जो विलासिता के लिए प्रसिध्द है। जैसे मुसलमान बादशाह और उनके प्रभावशाली अधिकारीगण इस समय विलासिता-प्रवाह में बह रहे थे वैसे ही इस काल के राजे और महाराजे भी। यदि मुसलिम दरबारों में आशिकाना मजामीन और शाइरी का आदर था तो राजे-महाराजाओं में रसमय भावों एवं विलासितामय वासनाओं का सम्मान भी कम न था। ऐसी अवस्था में यदि शृंगार रस के साहित्य का अधिक विकास हुआ तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। ज्ञान, विराग, योग इत्यादि में एक प्रकार की नीरसता सर्व-साधारण को मिलती है। उसके अधिकारी थोड़े हैं। शृंगाररस की धारा ही ऐसी है जिसमें सर्वसाधारण अधिक आनन्द लाभ करता है, क्योंकि उसका आस्वादन जैसा मोहक और हृदयाकर्षक है वैसा अन्य रसों का नहीं। स्त्री-पुरुषों के परस्पर सम्मिलन में जो आनन्द और प्रलोभन है, बाल-बच्चों के प्यार और प्रेम में जो आकर्षण है, उसमें ही सांसारिकता और स्वाभाविकता अधिक है। प्राणिमात्रा इस रस में निमग्न है। परमार्थ का आनन्द न इतना व्यापक है और न इतना मोहक, चाहे वह उच्च कोटि का भले ही हो। आहार-विहार, स्त्री-पुत्रों का स्नेह और उससे उत्पन्न आनंदानुभव पशु-पक्षी-कृमि तक में व्याप्त है। परमार्थ भावना उनमें है ही नहीं। यदि यह भावना मिलती है तो मनुष्य में ही मिलती है। परन्तु मनुष्य की इस भावना पर अधिकतर सांसारिकता का ही रंग चढ़ा है। परमार्थ चिन्ता तो वह कभी-कभी ही करता है। वह भी समष्टि-रूप से नहीं, व्यष्टि रूप से। यही कारण है कि कुछ महात्माओं और विद्या-व्यसनी विद्वानों को छोड़कर अधिकांश जनता शृंगाररस की ओर ही विशेष आकर्षित रहती है और ऐसी दशा में यदि उसी के गीत अधिक कंठों से गाये जाते सुने जावें, उसी के ग्रन्थ अधिकतर सरस हृदय द्वारा रचे जावें और उनमें अधिकतर सरसता, लालित्य और सुन्दर शब्द-विन्यास पाएँ जावें तो कोई आश्चर्य नहीं। अतएव सत्राहवीं शताब्दी में यह स्वाभाविकता ही यदि बलवती होकर कवि वृन्द द्वारा कार्य-क्षेत्र में आयी तो कोई विचित्रा बात नहीं। इस शताब्दी के जितने बड़े-बडे क़वि और रीतिग्रन्थकार हैं उनमें से अधिकांश इसी रंग में रँगे हुए हैं और उनकी संख्या भी थोड़ी नहीं है। मैं सबकी रचनाओं को आप लोगों के सामने उपस्थित करने में असमर्थ हूँ। उनमें जो अग्रणी और प्रधान हैं और जिनकी कृतियों में 'भावगत' सुन्दर व्यंजनाएँ अथवा अन्य कोई विशेषताएँ हैं। मैं उन्हीं की रचनाएँ आप लोगों के सामने उपस्थित करके यह दिखलाऊँगा कि उस समय ब्रजभाषा का शृंगार कितना उत्ताम और मनमोहक हुआ और किस प्रकार ब्रजभाषा सुन्दर और ललित पदों का भंडार बन गयी। जिन सुकवियों अथवा महाकवियों की रचनाओं ने ब्रजभाषा संसार में उस समय कल्पना राज्य का विस्तार किया था, उनमें से कुछ विशिष्ट नाम ये हैं-

(1) सेनापति, (2) बिहारी लाल, (3) चिन्तामणि, (4) मतिराम, (5) कुलपति मिश्र, (6) जसवन्तसिंह, (7) बनवारी, (8)गोपाल चन्द्र मिश्र, (9) बेनी और (10) सुखदेव मिश्र। मैं क्रमश: इन लोगों के विषय में अपना विचार प्रकट करूँगा और यह भी बतलाऊँगा कि इनकी रचनाओं का क्या प्रभाव ब्रजभाषा पर पड़ा। बीच-बीच में अन्य रसों के विशिष्ट महाकवियों की चर्चा भी करता जाऊँगा।

(1) सेनापति कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। उन्होंने 'काव्य-कल्पद्रुम' और 'कवित्ता-रत्नाकर' नामक दो ग्रन्थों की रचना की। वे अपने समय के बड़े ही विख्यात कवि थे। हिन्दू प्रतिष्ठित लोगों में इनका सम्मान तो था ही मुसलमानों के दरबारों में भी उन्होंने पूरी प्रतिष्ठा प्राप्त की थी। ब्रजभाषा जिन महाकवियों का गर्व कर सकती है उनमें सेनापति का नाम भी लिया जाता है। उनकी रचनाएँ अधिकतर प्रौढ़, सुन्दर, सरस और भावमयी हैं। षड्ऋतु का जैसा उदात्ता और व्यापक वर्णन सेनापति ने किया,वैसा दो एक महाकवियों की लेखनी ही कर सकी। उन्होंने अपना परिचय इस प्रकार दिया है-

दीक्षित परशुराम दादा हैं विदित नाम ,

जिन कीहैं जज्ञ जाकी विपुल बड़ाई है।

गंगाधार पिता गंगाधार के समान जाके ,

गंगातीर बसति “ अनूप “ जिन पाई है।

महा जानमनि विद्या दान हूँ ते चिन्तामनि ,

हीरामनि दीक्षित ते पाई पंडिताई है।

सेनापति सोई सीतापति के प्रसाद जाकी ,

सब कवि कान दै सुनत कविताई है।

कह जाता है कि अन्त में वे विरक्त हो गये थे और क्षेत्र-संन्यास ले लिया था। इस भाव के पद्य भी उनकी रचनाओं में पाये जाते हैं। एक पद्य देखिए-

केतो करौ कोय पैये करम लिखोय ताते ,

दूसरो न होय डर सोय ठहराइये।

आधी ते सरस बीति गई है बयस ,

अब कुजन बरस बीच रस न बढ़ाइये।

चिता अनुचित धारु धीरज उचित ,

सेनापति ह्नै सुचित रघुपति गुन गाइये।

चारि बरदानि तजि पाँय कमलेच्छन के ,

पायक मलेच्छन के काहे को कहाइयेड्ड

विरक्ति-सम्बन्धी उनके दो पद्य और देखिए-

1. पान चरनामृत को गान गुन गानन को ,

हरिकथा सुने सदा हिये को हुलसिबो।

प्रभु के उतीरनि की गूदरी औ चीरनि की ,

भाल भुज कंठ उर छापन को लखिबो।

सेनापति चाहत है सकल जनम भरि ,

वृंदाबन सीमा ते न बाहर निकसिबो।

राधा मनरंजन की सोभा नैन कंजन की ,

माल गरे गुंजन की कुंजन को बसिबोड्ड

2. महामोह कंदनि मैं जगत जकंदनि मैं ,

दीन दुख दुंंदनि में जात है बिहाय कै।

सुख को न लेस है कलेस सब भाँतिन को ,

सेनापति याही ते कहत अकुलाय कै।

आवै मन ऐसी घरबार परिवार तजौं ,

डारौं लोक लाज के समाज बिसराय कै।

हरिजन पुंजनि में वृंदावन कुंजनि में ,

रहौं बैठिं कहूँ तरवर तर जाय कै।

एक पद्य उनका ऐसा देखिए जिसमें आर्य-ललना की मर्यादा-शीलता का बड़ा सुन्दर चित्रा है-

फूलन सों बाल की बनाइ गुही बेनी लाल ,

भाल दोनो बेंदी मृगमद की असित है।

अंग अंग भूषन बनाई ब्रजभूषन जू ,

बीरी निज कर की खवाई अति हित है।

ह्नै कै रस-बस जब दीबे को महावर के ,

सेनापति श्याम गह्यो चरन ललित है।

चूमि हाथ नाथ के लगाइ रही ऑंखिन सों ,

कही प्रानपति यह अति अनुचित है।

अब कुछ ऐसे पद्य देखिए जो ऋतु-वर्णन के हैं, इनमें कितनी स्वाभाविकता, सरसता और मौलिकता है, उसका अनुभव स्वयं कीजिए-

कातिक की राति थोरी थोरी सियराति ,

सेनापति को सुहाति सुखी जीवन के गन हैं।

फूले हैं कुमुद फूली मालती सघन बन ,

फूलि रहे तारे मानो मोती अनगन हैं।

उदित विमल चंद्र चाँदनी छिटिक रही ,

राम कैसो जस अधा ऊरधा गगन है।

तिमिर हरन भयो सेत है बरन सब ,

मानहुँ जगत छीर-सागर मगन है।

सिसिर मैं ससि को सरूप पावै सविताऊ ,

घामुहुँ मैं चाँदनी की दुति दमकति है।

सेनापति होती सीतलता है सहस गुनी ,

रजनी की झाईं बासर में झमकति है।

चाहत चकोर सूर ओर दृगछोर करि ,

चकवा की छाती धारि धीर धामकति है।

चन्द के भरम होत मोद है कुमोदिनी को ,

समि संक पंकजिनी फूलि ना सकति है।

सिसिर तुषार के बुखार से उखारतु है ,

पूस बीते होत सून हाथ पाँव ठिरिकै।

द्योस की छुटाई की बड़ाई बरनी न जाइ ,

सेनापति गाई कछू , सोचिकै सुमिरि कै।

सीत ते सहसकर सहस चरन ह्नै कै

ऐसो जात भाजि तम आवत है घिरिकै।

जौ लौं कोक कोकीसों मिलत तौं लौं होत राति ,

कोक अधा बीच ही ते आवतु है फिरिकै।

एक मानसिक भाव का चित्राण देखिए और विचारिए कि उसमें कितनी स्वाभाविकता है-

जो पै प्रान प्यारे परदेस को पधारे ,

ताते बिरह ते भई ऐसी ता तिय की गति है।

करि कर ऊपर कपोलहिं कमल-नैनी

सेनापति अनिमनि बैठियै रहति है।

कागहिं उड़ावै कबौं-कबौं करै सगुनौती ,

कबौं बैठि अवधि के बासर गिनति है।

पढ़ी-पढ़ी पाती कबौं फेरि कै पढ़ति ,

कबौं प्रीतम के चित्रा में सरूप निरखति है।

आप कहेंगे कि भाषा-विकास के निरूपण के लिए कवि की इतनी अधिक कविताओं के उध्दरण की क्या आवश्यकता थी। किन्तु यह सोचना चाहिए कि भाषा के विकास का सम्बन्धा शाब्दिक-प्रयोग ही से नहीं है, वरन् भाव-व्यंजना से भी है। भाषा की उन्नति के लिए जैसे चुस्त और सरस शब्द-विन्यास की आवश्यकता होती है। उसी प्रकार मनोहर भाव-व्यंजना की भी। भाषा के विकास से दोनों का सम्बन्धा है। इस बात के प्रकट करने के लिए ही उनकी कविता कुछ अधिक उठाई गई। सेनापति की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। हम उनकी भाषा को टकसाली कह सकते हैं। न तो उनकी रचना में खड़ी बोली की छूत लग पाई है, न अवधी के शब्दों का ही प्रयोग उनमें मिलता है। कहीं दो-एक इस प्रकार के शब्दों का मिल जाना कवि के भाषाधिकार को लांछित नहीं करता। ब्रजभाषा की पूर्व कथित कसौटी पर कसकर यदि आप देखेंगे तो सेनापति की भाषा बावन तोले पाव रत्ताी ठीक उतरेगी। मैं स्वयं यह कार्य करके विस्तार नहीं करना चाहता। समस्त पदों से वे कितना बचते हैं और किस प्रकार चुन-चुनकर संस्कृत तत्सम शब्दों को अपनी रचना में स्थान देते हैं, इस बात को आपने स्वयं पद्यों को पढ़ते समय समझ लिया होगा। वे शब्दों को तोड़ते-मरोड़ते भी नहीं। दोषों से बचने की भी वे चेष्टा करते हैं। ये बातें ऐसी हैं जो उनकी कविता को बहुत महत्तव प्रदान करती हैं। उनके नौ पद्य उठाये गये हैं। उनमें से एक पद्य में ही एक शब्द 'द्यौस' ऐसा आया है जिसको हम विकृत हुआ पाते हैं। परन्तु यह ऐसा शब्द है जो ब्रजभाषा की रचनाओं में गृहीत है। इसलिए इस शब्द को स्वयं गढ़ लेने का दोष उन पर नहीं लगाया जा सकता। किसी कविता का सर्वथा निर्दोष होना असंभव है। फिर भी यह कहा जा सकता है कि साहित्यिक दोषों से उनकी कविता अधिकतर सुरक्षित है। इससे यह पाया जाता है कि उनकी कविता कितनी प्रौढ़ है। उनकी कविता की अन्य विशेषताओं पर मैं पहले ही दृष्टि आकर्षित करता आया हूँ। इसलिए उस पर कुछ और लिखना बाहुल्य मात्रा है। इनके जिन दो ग्रन्थों की चर्चा मैं ऊपर कर आया हूँ, उनमें से 'कवित्ता-रत्नाकर' अलंकार और काव्य की अन्य कलाओं के निरूपण का सुन्दर ग्रन्थ है। 'काव्य-कल्पद्रुम' में उनकी नाना-रसमयी कविताओं का संग्रह है। दोनों ग्रन्थ अनूठे हैं और उनकी विशेषता यह है कि घनाक्षरी अथवा कवित्ताों में ही वे लिखे गये हैं। कुछ दोहों को छोड़कर दूसरा कोई छन्द उसमें है ही नहीं।

(2) बिहारी लाल का ग्रन्थ ब्रजभाषा साहित्य का एक अनूठा रत्न है और इस बात का उदाहरण है कि घट में समुद्र कैसे भरा जाता है। गोस्वामी तुलसीदास की रामायण छोड़कर और किसी ग्रन्थ को इतनी सर्व-प्रियता नहीं प्राप्त हुई जितनी 'बिहारी सतसई को'। रामचरितमानस के अतिरिक्त और कोई ग्रन्थ ऐसा नहीं है कि उसकी उतनी टीकाएँ बनी हों, जितनी सतसई की अब तक बन चुकी हैं। बिहारीलाल के दोहों के दो चरण बड़े-बड़े कवियों के कवित्ताों के चार चरणों और सहृदय कवियों के रचे हुए छप्पयों के छ: चरणों से अधिकतर भाव-व्यंजन में समर्थ और प्रभावशालिता में दक्ष देखे जाते हैं। एक अंग्रेज विद्वान् का यह कथन कि "Brevity is the soul of wit and it is also the solul of art" “संक्षिप्तता काव्य-चातुरी की आत्मा तो है ही, कला की भी आत्मा है।” बिहारी की रचना पर अक्षरश: घटित होता है। बिहारी की रचनाओं की पंक्तियों को पढ़कर एक संस्कृत विद्वान की इस मधुर उक्ति में संदेह नहीं रह जाता कि “अक्षरा: कामधोनव:!” (अक्षर कामधोनु हैं) वास्तव में बिहारी के दोहों के अक्षर कामधोनु हैं जो अनेक सूत्रों से अभिमत फल प्रदान करते हैं। उनको पठन कर जहाँ हृदय में आनन्द का श्रोत उमड़ उठता है, वहीं विमुग्धा मन नन्दन कानन में बिहार करने लगता है। यदि उनकी भारती रस-धारा प्रवाहित करती है तो उनकी भाव-व्यंजना पाठकों पर अमृत वर्षा करने लगती है। सतसई का शब्द- विन्यास जैसा ही अपूर्व है वैसा ही विलक्षण उसमें झंकार है। काव्य एवं साहित्य का कोई गुण ऐसा नहीं जो मूर्तिमन्त होकर इस ग्रन्थ में विराजमान न हो और कवि-कर्म की ऐसी कोई विभूति नहीं जो इसमें सुविकसित दृष्टिगत न हो। मानसिक सुकुमार भावों का ऐसा सरस चित्राण किसी साहित्य में है या नहीं,यह नहीं कहा जा सकता। परन्तु जी यही कहता है कि यह मान लिया जाये कि यदि होगा तो ऐसा ही होगा। किन्तु यह लोच कहाँ? इस ग्रन्थ में शृंगार रस तो प्रवाहित है ही, यत्रा-तत्रा अनेक सांसारिक विषयों का भी इसमें बड़ा ही मर्मस्पर्शी वर्णन है। अनेक रहस्यों का इसमें कहीं-कहीं ऐसा निरूपण है जो उसकी स्वाभाविकता का सच्चा चित्रा ऑंखों के सामने ला खड़ा करता है। बिहारीलाल ने अपने पूर्ववर्ती संस्कृत अथवा भाषा कवियों के भाव कहीं-कहीं लिये हैं। परन्तु उनको ऐसा चमका दिया है कि यह ज्ञात होता है, कि घनपटल से बाहर निकल कर हँसता हुआ मयंक सामने आ गया। इनकी सतसई के अनुकरण में और कई सतसइयाँ लिखी गईं, जिनमें से चन्दन, विक्रम और रामसहाय की अधिक प्रसिध्द हैं, परन्तु उस बूँद से भेंट कहाँ! पीतल सोना का सामना नहीं कर सकता। संस्कृत में भी इस सतसई का पूरा अनुवाद पंडित परमानन्द ने किया है और इसमें कोई सन्देह नहीं कि उन्होंने कमाल किया है। परन्तु मूल मूल है और अनुवाद अनुवाद।

बिहारीलाल की सतसई का आधार कोई विशेष-ग्रन्थ है अथवा वह स्वयं उनकी प्रतिभा का विकास है, जब यह विचार किया जाता है तो दृष्टि संस्कृत के 'आर्य्या-सप्तशती' एवं गोवर्धान-सप्तशती की ओर आकर्षित होती है। निस्सन्देह इन ग्रन्थों में भी कवि कर्म का सुन्दर रूप दृष्टिगत होता है। परन्तु मेरा विचार है कि रस निचोड़ने में बिहारीलाल इन ग्रन्थ के रचयिताओं से अधिक निपुण हैं। जिन विषयों का उन लोगों ने विस्तृत वर्णन करके भी सफलता नहीं प्राप्त की उनको बिहारी ने थोड़े शब्दों में लिखकर अद्भुत चमत्कार दिखलाया है। इस अवसर पर कृपाराम की 'हित-तरंगिनी' भी स्मृति-पथ में आती है। परन्तु प्रथम तो उस ग्रन्थ में लगभग चार सौ दोहे हैं, दूसरी बात यह कि उनकी कृति में ललित कला इतनी विकसित नहीं है जितनी बिहारी लाल की उक्तियों में। उन्होंने संक्षिप्तता का राग अलापा है, परन्तु बिहारीलाल के समान वे इत्रा निकालने में समर्थ नहीं हुए। उनके कुछ दोहे नीचे लिखे जाते हैं। उनको देखकर आप स्वयं विचारें कि क्या उनमें भी वही सरसता, हृदय-ग्राहिता और सुन्दर शब्द-चयन-प्रवृत्तिा पाई जाती है, जैसी बिहारीलाल के दोहों में मिलती है।

लोचनचपल कटाच्छ सर , अनियारे विष पूरि।

मन मृग बेधौं मुनिन के , जगजन सहित विसूरिड्ड

आजु सबारे हौं गयी , नंदलाल हित ताल।

कुमुद कुमुदिनी के भटू , निरखे औरै हालड्ड

पति आयो परदेस ते , ऋतु बसंत की मानि।

झमकि झमकि निज महल में , टहलैं करैं सुरानिड्ड

बिहारी के दोहों के सामने ये दोहे ऐसे ज्ञात होते हैं जैसे रेशम के लच्छों के सामने सूत के डोरे। संभव है कि हित-तरंगिणी को बिहारीलाल ने देखा हो, परन्तु वे कृपाराम को बहुत पीछे छोड़ गये हैं। मेरा विचार है कि बिहारीलाल की रचनाओं पर यदि कुछ प्रभाव पड़ा है तो उस काल के प्रचलित फ़ारसी साहित्य का। उर्दू शायरी का तो तब तक जन्म भी नहीं हुआ था। फ़ारसी का प्रभाव उस समय अवश्य देश में विस्तार लाभ कर रहा था क्योंकि अकबर के समय में ही दफ्तर फ़ारसी में हो गया था और हिन्दू लोग फारसी पढ़कर उसमें प्रवेश करने लगे थे। फ़ारसी के दो बन्द के शेरों में चुने शब्दों के आधार से वैसी ही बहुत कुछ काव्य-कला विकसित दृष्टिगत होती है जैसी कि बिहारीलाल के दो चरण के दोहों में। उत्तारकाल में उर्दू शायरी में फ़ारसी रचनाओं का यह गुण स्पष्टतया दृष्टिगत हुआ। परन्तु बिहारीलाल की रचनाओं के विषय में असंदिग्धा रीति से यह बात नहीं कही जा सकती, क्योंकि अब तक बिहारीलाल के विषय में जो ज्ञात है उससे यह पता नहीं चलता कि उन्होंने फ़ारसी भी पढ़ी थी। जो हो, परन्तु यह बात अवश्य माननी पड़ेगी कि बिहारीलाल के दोहों में जो थोड़े में बहुत कुछ कह जाने की शक्ति है वह अद्भुत है। चाहे यह उनकी प्रतिभा का स्वाभाविक विकास हो अथवा अन्य कोई आधार, इस विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता।

अब मैं उनकी कुछ रचनाएँ आप लोगों के सन्मुख उपस्थित करूँगा। बिहारीलाल को शृंगार रस का महाकवि सभी ने माना है। इसलिए उसको छोड़कर पहले मैं उनकी कुछ अन्य रस की रचनाएँ आप लोगों के सामने रखता हूँ। आप देखिए उनमें वह गुण और वह सारग्राहिता है या नहीं जो उनकी रचनाओं की विशेषताएँ हैं। संसार का जाल कौन नहीं तोड़ना चाहता, पर कौन उसे तोड़ सका? मनुष्य जितनी ही इस उलझन के सुलझाने की चेष्टा करता है उतना ही वह उसमें उलझता जाता है। इस गम्भीर विषय को एक अन्योक्ति के द्वारा बिहारीलाल ने जिस सुन्दरता और सरसता के साथ कहा है वह अभूतपूर्व है। वास्तव में उनके थोड़े से शब्दों ने बहुत बड़े व्यापक सिध्दान्त पर प्रकाश डाला है-

को छूटयो येहि जाल परि , कत कुरंग अकुलात।

ज्यों-ज्यों सरुझि भज्यो चहै , त्यों त्यों अरुझ्यो जातड्ड

यौवन का प्रमाद मुनष्य से क्या नहीं कराता?, उसके प्रपंचों में पड़कर कितने नाना संकटों में पड़े, कितने अपने को बरबाद कर बैठे, कितने पाप-पंक में निमग्न हुए, कितने जीवन से हाथ धो बैठे और कितनों ही ने उसके रस से भीगकर अपने सरस जीवन को नीरस बना लिया। हम आप नित्य इस प्रकार का दृश्य देखते रहते हैं। इस भाव को किस प्रकार बिहारीलाल चित्राण करते हैं उसे देखिए-

इक भींजे चहले परे बूड़े बहे हजार।

किते न औगुन जग करत नै बै चढ़ती बारड्ड

परमात्मा ऑंख वालों के लिये सर्वत्रा है। परन्तु आजतक उसको कौन देख पाया? कहा जा सकता है कि हृदय की ऑंख से ही उसे देख सकते हैं, चर्म-चक्षुओं से नहीं। चाहे जो कुछ हो, किन्तु यह सत्य है कि वह सर्वव्यापी है और एक-एक फूल और एक-एक पत्तो में उसकी कला विद्यमान है। शास्त्रा तो यहाँ तक कहता है, कि 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्तिकिंचन'। जो कुछ संसार में है वह सब ब्रह्म है, इसमें नानात्व कुछ नहीं है। फिर क्या रहस्य है कि हम उसको देख नहीं पाते? बिहारीलाल जी इस विषय को जिस मार्मिकता से समझाते हैं उसकी सौ मुख से प्रशंसा की जा सकती है। वे कहते हैं-

जगत जनायो जो सकल , सो हरि जान्यो नाहि।

जिमि ऑंखिनसब देखिए , ऑंखि न देखी जाहिड्ड

एक उर्दू शायर भी इस भाव को इस प्रकार वर्णन करता है-

बेहिजाबी वहकि जल्वा हर जगह है आशिकार।

इस पर घूँघट वह कि सूरत आजतक नादीदा हैड्ड

यह शेर भी बड़ा ही सुन्दर है। परन्तु भाव-प्रकाशन किस में किस कोटि का है इसको प्रत्येक सहृदय स्वयं समझ सकता है। भावुक भक्त कभी-कभी मचल जाते हैं और परमात्मा से भी परिहास करने लगते हैं। ऐसा करना उनका विनोद-प्रिय प्रेम है असंयत भाव नहीं। 'प्रेम लपेटे अटपटे बैन' किसे प्यारे नहीं लगते। इसी प्रकार की एक उक्ति बिहारी की देखिए। वे अपनी कुटिलता को इसलिए प्यार करते हैं। जिसमें त्रिभंगीलाल को उनके चित्ता में निवास करने में कष्ट न हो, क्योंकि यदि वे उसे सरल बना लेंगे तो वे उसमें सुख से कैसे निवास कर सकेंगे? कैसा सुन्दर परिहास है। वे कहते हैं-

करौ कुबत जग कुटिलता , तजौं न दीन दयाल।

दुखी होहुगे सरल चित ; बसत त्रिभंगी लालड्ड

परमात्मा सच्चे प्रेम से ही प्राप्त होता है। क्योंकि वह सत्य स्वरूप है। जिसके हृदय में कपट भरा है उसमें वह अन्तर्यामी कैसे निवास कर सकता है जो शुध्दता का अनुरागी है? जिसका मानस-पट खुला नहीं। उससे अन्तर्पट के स्वामी से पटे तो कैसे पटे? इस विषय को बिहारीलाल, देखिए कितने सुन्दर शब्दों में प्रकट करते हैं-

तौ लगि या मन-सदन में ; हरि आवैं केहि बाट।

बिकट जटे जौ लौं निपट ; खुले न कपट-कपाट।

अब कुछ ऐसे पद्य देखिए जिनमें बिहारीलाल जी ने सांसारिक जीवन के अनेक परिवर्तनों पर सुन्दर प्रकाश डाला है-

यद्यपि सुंदर सुघर पुनि ; सगुनौ दीपक देह।

तऊ प्रकास करै तितो ; भरिये जितो सनेहड्ड

जो चाहै चटक न घटै ; मैलो होय न मित्ता।

रज राजस न छुवाइये ; नेह चीकने चित्ताड्ड

अति अगाधा अति ऊथरो ; नदी कूप सर बाय।

सो ताको सागर जहाँ जाकी प्यास बुझायड्ड

बढ़त बढ़त संपति सलिल मन सरोज बढ़ि जाय।

घटत घटत पुनि ना घटै बरु समूल कुम्हिलायड्ड

को कहि सकै बड़ेन सों लखे बड़ीयौ भूल।

दीन्हें दई गुलाब की इन डारन ये फूलड्ड

कुछ उनके शृंगार रस के दोहे देखिए-

बतरस लालच लाल की मुरली धारी लुकाय।

सौंह करै भौंहन हँसे देन कहै नटि जायड्ड

दृग अरुझत टूटत कुटुम जुरत चतुर चित प्रीति।

परति गाँठ दुरजन हिये दई नई यह रीतिड्ड

तच्यो ऑंच अति बिरह की रह्यो प्रेम रस भींजि।

नैनन के मग जल बहै हियो पसीजि पसीजिड्ड

सघन कुंज छाया सुखद सीतल मन्द समीर।

मन ह्नै जात अजौं वहै वा यमुना के तीरड्ड

मानहुँ विधि तन अच्छ छबि स्वच्छ राखिबे काज।

दृग पग पोंछन को कियो भूखन पायंदाजड्ड

बिहारीलाल के उद्धृत दोहों में से सबका मर्म समझाने की यदि चेष्टा की जाय तो व्यर्थ विस्तार होगा, जो अपेक्षित नहीं। कुछ दोहों का मैंने स्पष्टीकरण किया है। वही मार्ग ग्रहण करने से आशा है, काव्य मर्मज्ञ सुजन अन्य दोहों का अर्थ भी लगा लेंगे और उनकी व्यंजनाओं का मर्म समझ कर यथार्थ आनन्दलाभ करेंगे। बिहारी के दोहों का यों भी अधिक प्रचार है और सहृदयजनों पर उनका महत्तव अप्रकट नहीं है। इसलिए उनके विषय में अधिक लिखना व्यर्थ है। मैं पहले उनकी रचना आदि पर बहुत कुछ प्रकाश डाल चुका हूँ। इतना फिर और कह देना चाहता हूँ कि कला की दृष्टि से 'बिहारी सतसई' अपना उदाहरण आप है। कुछ लोगों ने बिहारीलाल की शृंगार सम्बन्धी रचनाओं पर व्यंग्य भी किये हैं और इस सूत्रा से उनकी मानसिक वृत्तिा पर कटाक्ष भी। मत भिन्नता स्वाभाविक है और मनुष्य अपने विचारों और भावों का अनुचर है। इसलिए मुझको इस विषय में अधिक तर्क-वितर्क वांछनीय नहीं। परन्तु अपने विचारानुसार कुछ लिख देना भी संगत जान पड़ता है।

बिहारीलाल पर किसी-किसी ने यह कटाक्ष किया है कि उनकी दृष्टि सांसारिक भोग-विलास में ही अधिकतर बध्द रही है। उन्होंने सांसारिक वासनाओं और विलासिताओं का सुन्दर से सुन्दर चित्रा खींचकर लोगों की दृष्टि अपनी ओर आकर्षित की। न तो उस 'सत्यं शिवं सुंदरं' का तत्तव समझा और न उसकी अलौकिक और लोकोत्तार लीलाओं और रहस्यों का अनुभव प्राप्त करने की यथार्थ चेष्टा की। बाह्य जगत् से अन्तर्जगत् अधिक विशाल और मनोरम है। यदि वे इसमें प्रवेश करते तो उनको वे महान् रत्न प्राप्त होते जिनके सामने उपलब्धा रत्न काँच के समान प्रतीत होते। परन्तु मैं कहूँगा न तो उन्होंने अन्तर्जगत् से मुँह मोड़ा और न लोकोत्तार की लोकोत्तारता से ही अलग रहे। क्या स्त्री का सौन्दर्य 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' नहीं है? कामिनी-कुल के सौन्दर्य में क्या ईश्वरीय विभूति का विकास नहीं? क्या उनकी सृष्टि लोक-मूल की कामना से नहीं हुई? क्या उनके हाव-भाव,विभ्रम-विलास लोकोपयोगी नहीं? क्या विधाता ने उनमें इस प्रकार की शक्तियाँ उत्पन्न कर प्रवंचना की? और संसार को भ्रान्त बनाया? मैं समझता हूँ कि कोई तत्तवज्ञ इसे न स्वीकार करेगा। यदि यह सत्य है कि संसार की रचना मूलमयी है, तो इस प्रकार के प्रश्न हो ही नहीं सकते। जो परमात्मा की विभूतियाँ विश्व के समस्त पदार्थों में देखते हैं, यह जानते हैं कि परमात्मा सच्चिदानन्द है, वे संसार की मूलमयी और उपयोगी कृतियों को बुरी दृष्टि से नहीं देख सकते। यदि बिहारीलाल ने स्त्री के सौन्दर्य वर्णन में उच्च कोटि की कवि कल्पना से काम लिया, उनके नाना आनन्दमय भावों के चित्राण में अपूर्व कौशल दिखलाया, मानस की सुकुमार वृत्तिायों के निरूपण में सच्ची भावुकता प्रकट की। विश्व की सारभूत दो मूलमयी मूर्तियों (स्त्री-पुरुष) का मूलमयी कमनीयता प्रदर्शित की और अपने पद्यों में शब्द और भाव-विन्यास के मोती पिरोये तो क्या लोक-ललाम की लोकोत्तार लीलाओं को ही रूपान्तर से प्रकट नहीं किया? और यदि यह सत्य है तो बिहारीलाल पर व्यंग्यबाण् वृष्टि क्यों? मयंक में धाब्बे हैं, फूल में काँटे हैं तो क्या उनमें 'सत्यं' 'शिवं' 'सुंदरम्' का विकास नहीं है। बिहारी की कुछ कविताएँ प्रकृति नियमानुसार सर्वथा निर्दोष न हों तो क्या इससे उनकी समस्त रचनाएँ निन्दनीय हैं? लोक-ललाम की ललामता लोकोत्तार है, इसलिए क्या उसका लोक से कुछ सम्बन्धा नहीं? क्या लोक से ही उसको लोकोत्तारता का ज्ञान नहीं होता? तो फिर, लोक का त्याग कैसे होगा? निस्सन्देह यह स्वीकार करना पड़ेगा कि लोक का सदुपयोग ही वांछनीय है, दुरुपयोग नहीं। जहाँ सत्यं,शिवं, सुन्दरम् है, वहाँ उसको उसी रूप में ग्रहण करना कवि कर्म्म है। बिहारीलाल ने अधिकांश ऐसा ही किया है, वरन् मैं तो यह कहूँगा कि उनकी कला पर गोस्वामीजी का यह कथन चरितार्थ होता है कि 'सुंदरता कहँ सुंदर करहीं'। संसार में प्रत्येक प्राणी का कुछ कार्य होता है। अधिकारी भेद भी होता है। संसार में कवि भी हैं, वैज्ञानिक भी हैं, दार्शनिक भी हैं, तत्तवज्ञ भी हैं एवं महात्मा भी। जो जिस रूप में कार्यक्षेत्र में आता है, हमको उसी रूप में उसे ग्रहण करना चाहिए और देखना चाहिए कि उसने अपने क्षेत्र में अपना कार्य करके कितनी सफलता लाभ की। कवि की आलोचना करते हुए उसके दार्शनिक और तत्तवज्ञ न होने का राग अलापना बुध्दिमत्ता नहीं। ऐसा करना प्रमाद है, विवेक नहीं। मेरा विचार है कि बिहारीलाल ने अपने क्षेत्र में जो कार्य किया है वह उल्लेखनीय है एवं प्रशंसनीय भी। यदि उनमें कुछ दुर्बलताएँ हैं तो वे उनकी विशेषताओं के सम्मुख मार्जनीय हैं, क्योंकि यह स्वाभाविकता है, इससे कौन बचा?

बिहारीलाल की भाषा के विषय में मुझे यह कहना है कि वह साहित्यिक ब्रजभाषा है। उसमें अवधी के 'दीन', 'कीन'इत्यादि बुन्देलखंडी के लखबी और प्राकृत के मित्ता ऐसे शब्द भी मिलते हैं। परन्तु उनकी संख्या नितान्त अल्प है। ऐसे ही भाषागत और भी कुछ दोष उसमें मिलते हैं। किन्तु उनके महान् भाषाधिकार के सामने वे सब नगण्य हैं। वास्तव बात तो यह है कि उन्होंने अपने 700 दोहों में क्या भाषा और क्या भाव, क्या सौन्दर्य, क्या लालित्य सभी विचार से वह कौशल और प्रतिभा दिखलायी है कि उस समय तक उनका ग्रन्थ समादर के हाथों से गृहीत होता रहेगा जब तक हिन्दी भाषा जीवित रहेगी।

बिहारीलाल के सम्बन्धा में डॉक्टर जी. ए. ग्रियर्सन की सम्मति नीचे लिखी जाती है-

“इस दुरूह ग्रन्थ (बिहारी सतसई) में काव्यगत परिमार्जन, माधार्ुय्य और अभिव्यक्ति-सम्बन्धी विदग्धाता जिस रूप में पाई जाती है, वह अन्य कवियों के लिए दुर्लभ है। अनेक अन्य कवियों ने उनका अनुकरण किया है, लेकिन इस विचित्रा शैली में यदि किसी ने उल्लेख-योग्य सफलता पायी है तो वह तुलसीदास हैं, जिन्होंने बिहारीलाल के पहले सन् 1585 में एक सतसई लिखी थी। बिहारी के इस काव्य पर अगणित टीकाएँ लिखी गई हैं। इसकी दुरूहता और विदग्धाता ऐसी है कि इसके अक्षरों को कामधोनु कह सकते है।”1

(3) त्रिपाठी बन्धुओं में मतिराम और भूषण विशेष उल्लेख योग्य है। इनके बड़े भाई चिन्तामणि थे और छोटे नीलकंठ उपनाम जटाशंकर। चारों भाई साहित्य के पारंगत थे और उन्होंने अपने समय में बहुत कुछ प्रतिष्ठा लाभ की। आजकल कुछ विवाद इस विषय में छिड़ गया है कि वास्तव में ये लोग परस्पर भाई थे या नहीं, परन्तु अब तक इस विषय में कोई ऐसी प्रामाणिक मीमांसा नहीं हुई कि चिरकाल की निश्चित बात को अनिश्चित मान लिया जावे। चिंतामणि राजा महाराज राजाओं के यहाँ भी आदृत थे। उन्होंने सुन्दर रीति-ग्रन्थों की रचना की है, जिनका नाम 'छन्द-विचार', 'काव्य-विवेक', 'कविकुल कल्पतरु'एवं 'काव्य-प्रकाश' है। उनकी बनाई एक रामायण भी है। परन्तु वह विशेष आदृत नहीं हुई। कविता इनकी सुन्दर, सरस और परिमार्जित ब्रजभाषा का नमूना है। इनकी गणना आचाय्र्यों में होती है। कहा जाता है कि प्राकृत भाषा की कविता करने में भी ये कुशल थे। कुछ हिन्दी रचनाएँ देखिए-

1. चोखी चरचा ज्ञान की आछी मन की जीति।

संगति सज्जन की भली नीकी हरि की प्रीति।

2. एइ उधारत हैं तिन्हें जे परे मोह

महोदधि के जल फेरे।

जे इनको पल धयान धारैं मन ते

न परैं कबहूँ जम घेरे।

राजै रमा रमनी उपधान

अभै बरदान रहै जन नेरे।

1. The elegence, poetic flavour, and ingenuity of expression in this difficult work, are considered to have been unapproached by any other poet. He has been imitated by numerous other poets, but the only one who has achieved any considerable excellence in this peculiar style is Tulsidas (No. 128) who preceded him by writing a Satsai (treating of Ram as Bihari Lal'treated of Krishna) in the year 1585 A.D.........

Bihari's poem has been dealt with by innumerable commentators Its difficulty and ingenuity one so great that it is called a veritable 'Akshar Kamdhenu'.

Modern Vernacular Literature of Hindustan, P. 75

हैं बल भार उदंड भरे हरि के

भुज दंड सहायक मेरे।

3. सरद ते जल की ज्यों दिन ते कमल की ज्यों ,

धान ते ज्यों थल की निपट सरसाई है।

घन ते सावन की ज्यों ओप ते रतन की ज्यों ,

गुन ते सुजन की ज्यों परम सहाई है।

चिन्तामनि कहै आछे अच्छरनिछंद की ज्यों ,

निसागम चंद की ज्यों दृग सुखदाई है।

नगते ज्यों कंचन बसंत ते ज्यों बन की ,

यों जोवन ते तन की निकाई अधिकाई है।

नीलकण्ठ जी की रचनाएँ भी प्रसिध्द हैं। किन्तु वे अधिकतर जटिल हैं। एक रचना उनकी भी देखिए-

तन पर भारतीन तन पर भारतीन ,

तन पर भारतीन तन पर भार हैं।

पूजैं देव दार तीन पूजैं देव दार तीन ,

पूजैं देवदार तीन पूजै देव दार हैं।

नीलकंठ दारुन दलेल खां तिहारी धाक ;

नाकती न द्वार ते वै नाकती पहार हैं।

ऑंधारेन कर गहे ; बहरे न संग रहे ;

बार छूटे बार छूटे बार छूटे बार हैं।

इनमें मतिराम बड़े सहृदय कवि थे। ये भी राजा-महाराजाओं से सम्मानित थे। इन्होंने चार रीति ग्रन्थों की रचना की है। उनके नाम हैं, ललित ललाम, रसराज, छन्दसार और साहित्यसार। इनमें ललित ललाम और रसराज अधिक प्रसिध्द हैं। इनकी और चिन्तामणि की भाषा लगभग एक ही ढंग की है। दोनों में वैदर्भी रीति का सुन्दर विकास है। इनकी विशेषता यह है कि सीधो-सादे शब्दों में ये कूट-कूटकर रस भर देते हैं। जैसा इनकी रचना में प्रवाह मिलता है वैसा ही ओज। जैसे सुन्दर इनके कवित्ता हैं वैसे ही सुन्दर सवैये। इनके अधिकतर दोहे बिहारीलाल के टक्कर के हैं, उनमें बड़ी मधुरता पाई जाती हैं। यदि इनके बड़े भाई चिन्तामणि नागपुर के सूर्यवंशी भोंसला मकरन्दशाह के यहाँ रहते थे, तो ये बूँदी के महाराज भाऊसिंह के यहाँ समादृत थे। इससे यह सूचित होता है कि उस समय ब्रजभाषा के कवियों की कितनी पहुँच राजदरबारों में थी और उनका वहाँ कितना अधिक सम्मान था। देखिए कविवर मतिराम बूँदी का वर्णन किस सरसता से करते हैं-

सदा प्रफुल्लित फलित जहँ द्रुम बेलिन के बाग।

अलि कोकिल कल धुनि सुनत रहत श्रवन अनुराग

कमल कुमुद कुबलयन के परिमल मधुर पराग।

सुरभि सलिल पूरे जहाँ बापी कूप तड़ाग

सुक चकोर चातक चुहिल कोक मत्ता कल हंस।

जहँ तरवर सरवरन के लसत ललित अवतंस

इनके कुछ अन्य पद्य भी देखिए-

गुच्छनि के अवतंस लसै सिखि

पच्छनि अच्छ किरीट बनायो।

पल्लव लाल समेत छरी कर

पल्लव में मति राम सुहायो।

जन के उर मंजुल हार

निकुंजन ते कढ़ि बाहर आयो।

आजु को रूप लखे ब्रजराजु को

आजु ही ऑंखिन को फल पायो।

कुंदन को रँग फीको लगै झलकै

असि अंगनि चारु गोराई।

ऑंखिन मैं अलसानि चितौनि

मैं मंजु बिलासनि की सरसाई।

को बिन मोल बिकात नहीं

मतिराम लहे मुसुकानि मिठाई।

ज्यों ज्यों निहारिये नेरे ह्नै नैननि

त्यों त्यों खरी निकरैं सुनिकाई।

चरन धारै न भूमि बिहरे तहाईं जहाँ

फूले फूले फूलन बिछायौ परजंक है।

भार के डरनि सुकुमारि चारु अंगनि मैं

करति न अंगराग कुंकुम को पंक है।

कहै मतिराम देखि वातायन बीच आयो।

आतप मलीनहोत बदन मयंक है।

कैसे वह बाल लाल बाहर विजन आवै

बिजन बयार लागे लचकति लंक है।

मतिराम की कोमल और सरस शब्द माला पर किस प्रकार भाव-लहरी अठखेलियाँ करती चलती है, इसे आपने देख लिया। उनके सीधो सादे चुने शब्द कितने सुन्दर होते हैं, वे किस प्रकार कानों में सुधा वर्षण करते, और कैसे हृदय में प्रवेश करके उसे भाव-विमुग्धा बनाते हैं, इसका आनन्द भी आप लोगों ने ले लिया। वास्तव बात यह है कि जिन महाकवियों ने ब्रजभाषा की धाक हिन्दी साहित्य में जमा दी, उनमें से एक मतिराम भी हैं। मिश्र-बन्धुओं ने इनकी गणना नवरत्नों में की है। मैं भी इससे सहमत हूँ। इनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है, परन्तु उसमें उन्होंने ऐसी मिठास भरी है जो मानुसों को मधुमय बनाये बिना नहीं रहती। साहित्यिक ब्रजभाषा के लक्षण मैं ऊपर बतला आया हूँ। उन पर यदि इनकी रचना कसी जावे तो उसमें भाव और भाषा-सम्बन्धी महत्ताओं की अधिकता ही पाई जायगी, न्यूनता नहीं। उन्होंने जितने प्रसून ब्रजभाषा देवी के चरणों पर चढ़ाये हैं, उनमें से अधिकांश सुविकसित और सुरभित हैं और यह उनकी सहृदयता की उल्लेखनीय विशेषता है।

वीर हृदय भूषण इस शताब्दी के ऐसे कवि हैं जिन्होंने समयानुकूल वीर रस-धारा के प्रवाहित करने में ही अपने जीवन की चरितार्थता समझी। जब उनके चारों ओर प्रबल वेग से शृंगार रस की धारा प्रवाहित हो रही थी, उस समय उन्होंने वीर-रस की धारा में निमग्न होकर अपने को एक विलक्षण प्रतिभा-सम्पन्न पुरुष प्रतिपादित किया। ऐसे समय में भी जब देशानुराग के भाव उत्पन्न होने के लिए वातावरण बहुत अनुकूल नहीं था, उन्होंने देश-प्रेम-सम्बन्धी रचनाएँ करके जिस प्रकार एक भारत-जननी के सत्पुत्रा को उत्साहित किया, उसके लिए कौन उनकी भूयसी प्रशंसा न करेगा? यह सत्य है कि अधिकतर उनके सामने आक्रमित धर्म की रक्षा ही थी और उनका प्रसिध्द साहसी वीर धर्म-रक्षक के रूप में ही हिन्दू जगत के सम्मुख आता है। परन्तु उसमें देश-प्रेम और जाति-रक्षा की लगन भी अल्प नहीं थी। नीचे की पंक्तियाँ इसके प्रमाण हैं, जो शिवाजी की तलवार की प्रशंसा में कही गई हैं-

तेरो करवाल भयो दच्छिन को ढाल भयो

हिन्द की दिवाल भयो काल तुरकान को।

इसी भाव का एक पूरा पद्य देखिए-

राखी हिंदुआनी हिंदुआन को तिलक राख्यो।

अस्मृति पुरान राखे वेद विधि सुनी मैं।

राखी रजपूति राजधानी राखी राजन की। धारा मैं धारम राख्यो राख्यो गुन गुनी मैं।

भूषन सुकबि जीति हद्दमरहट्ठन की।

देस देस कीरति बखानी तब सुनी मैं।

साह के सपूत सिवराज समसेर तेरो।

दिल्ली दल दाबिके दिवाल राखी दुनी मैं।

भूषण की जितनी रचनाएँ हैं वे सब वीर-रस के दर्प से दर्पित हैं। शृंगार रस की ओर उन्होंने दृष्टिपात भी नहीं किया। देखिए, नीचे के पद्यों की पदावली में धर्म-रक्षा की तरंग किस प्रकार तरंगायमान है-

1. देवल गिरावते फिरावते निसान अली ,

ऐसे डूबे राव राने सबै गये लब की।

गौरा गनपत आप औरन को देत ताप ;

आप के मकान सब मार गये दबकी।

पीरां पैगम्बरां दिगम्बरां दिखाई देत ;

सिध्द की सिधाई गयी रही बात रबकी।

कासिहुं ते कला जाती मथुरा मसीत होती ;

सिवाजी न होतो तौ सुनति होती सबकी।

2. वेद राखे विदित पुरान राखे सारजुत ;

रामनामराख्यो अति रसाना सुघर मैं।

हिन्दुन की चोटी रोटी राखी है सिपाहिन की ;

कांधो मैं जनेऊ राख्यो माला राखी गर मैं।

मींड़ि राखे मुगल मरोरि राखे पादशाह ;

बैरी पीसि राखे बरदान राख्यो कर मैं।

राजन की हद्द राखी तेग बल सिवराज ;

देव राखे देवल स्वधर्म राख्यो घर मैं

उनके कुछ वीर-रस के पद्यों को भी देखिए।

3. डाढ़ी के रखैयन की डाढ़ी सी रहति छाती ;

बाढ़ी मरजाद जस हद्द हिन्दुआने की।

कढ़ि गयी रैयत के मन की कसक सब ;

मिटि गयी ठसक तमाम तुरकाने की।

भूषन भनत दिल्लीपति दिल धाकधाक ;

सुनि सुनि धाक सिवराज मरदाने की।

मोटी भई चंडी बिन चोटी के चबाय मुंड ;

खोटी भई संपति चकत्ता के घराने की।

4. जीत्यो सिवराज सलहेरि को समर सुनि ;

सुनि असुरन के सुसीने धारकत हैं।

देवलोक नागलोक नरलोक गावैं जस ;

अजहूँ लौं परे खग्ग दाँत खरकत हैं।

कटक कटक काटि कीट से उड़ाय केते ;

भूषन भनत मुख मोरे सरकत हैं।

रनभूमि लेटे अधाकटे कर लेटे परे ;

रुधिर लपेटे पठनेटे फरकत हैं।

दो पद्य ऐसे देखिए जो अत्युक्ति अलंकार के हैं। उनमें से पहले में शिवाजी के दान की महिमा वर्णित है और दूसरे में शत्रु-दल के बाला और बालकों की कष्ट कथा विशद रूप में लिखी गयी है। दोनों में उनके कवि-कर्म्म का सुन्दर विकास हुआ है।

5. आज यहि समै महाराज सिवराज तूही ,

जगदेव जनक जजाति अम्बरीष सों।

भूषन भनत तेरे दान-जल जलधि में

गुनिन कोदारिद गयो बहि खरीक सों।

चंद कर कंजलक चाँदनी पराग

उड़वृंद मकरंद बुंद पुंज के सरीक सों।

कंद सम कयलास नाक गंग नाल ,

तेरे जस पुंडरीक को अकास चंचरीक सों।

6. दुर्जन दार भजि भजि बेसम्हार चढ़ीं

उत्तार पहार डरि सिवा जी न ¯ रद ते।

भूषन भनत बिन भूषन बसन साधो

भूषन पियासन हैं नाहन को निंदते।

बालक अयाने बाट बीच ही बिलाने ;

कुम्हिलाने मुख कोमल अमल अरबिन्द ते।

दृग-जल कज्जल कलित बढ़यो कढ़यो मानो ;

दूजो सोत तरनि तनूजा को क ¯ लद ते।

भूषण की भाषा में जहाँ ओज की अधिकता है वहाँ उसमें उतनी सरसता और मधुरता नहीं, जितनी मतिराम की भाषा में है। यह सच है कि भूषण वीररस के कवि हैं और मतिराम शृंगाररस के। दोनों की प्रणाली भिन्न है। साहित्य-नियमानुसार भूषण की परुषा वृत्तिा है और मतिराम की वैदर्भी। ऐसी अवस्था में भाषा का वह सौन्दर्य जो मतिराम की रचनाओं में है, भूषण की वृत्तिा में नहीं मिल सकता। किन्तु जहाँ उनको वैदर्भी वृत्तिा ग्रहण करनी पड़ी है, जैसे छठे और सातवें पद्यों में, वहाँ भी वह सरसता नहीं आई जैसी मतिराम की रचनाओं में पाई जाती है। सच्ची बात यह है कि भाषा लालित्य में वे मतिराम की समता नहीं कर सकते। किन्तु उनकी विशेषता यह है कि उनमें धर्म की ममता है, देश का प्रेम है और है जाति का अनुराग। इन भावों से प्रेरित होकर जो राग उन्होंने गाया उसकी धवनि इतनी विमुग्धाकारी है, उसमें यथाकाल जो गूँज पैदा हुई, उसने जो जीवनी धारा बहाई, वह ऐसी ओजमयी है कि उसकी प्रतिधवनि अब तक हिन्दी साहित्य में सुन पड़ रही है। उसी के कारण हिन्दी-संसार में वे वीर-रस के आचार्य माने जाते हैं। उनका समकक्ष अब तक हिन्दी-साहित्य में उत्पन्न नहीं हुआ। आज तक इस गौरवमय उच्च सिंहासन पर वे ही आसीन हैं और क्या आश्चर्य कि चिरकाल तक वे ही उस पर प्रतिष्ठित रहें।

इनकी मुख्य भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है और उसमें उसके सब लक्षण पाये जाते हैं। परन्तु अनेक स्थानों पर इनकी रचना में खड़ी बोली के प्रयोग भी मिलते हैं। नीचे की पंक्तियों को देखिए-

1. ' अफजलखान को जिन्होंने मयदान मारा '

2. ' देखत में रुसतमखाँ को जिन खाक किया '

3. ' कैद किया साथ का न कोई बीर गरजा '

4. ' अफजल का काल सिवराज आया सरजा '

उन्होंने प्राकृत भाषा के शब्दों का भी यत्रा-तत्रा प्रयोग किया है। 'खग्ग' शुध्द प्राकृत शब्द है। पर निम्नलिखित पंक्ति में वह व्यवहृत है।

' भूषन भनत तेरी किम्मति कहाँ लौं कहौं

अजहूँ लौं परे खग्ग दाँत खरकत हैं। '

पंजाबी भाषा का प्रयोग भी कहीं-कहीं मिलता है। 'पीरां पैगंबरां दिगंबरा दिखाई देत' इस वाक्य में चिद्दित शब्द पंजाबी हैं। 'कीबी कहें कहाँ औ गरीबी गहे भागी जाहिं' इसमें 'कीबी' शब्द बुंदेलखंडी है। इसी प्रकार फ़ारसी शब्दों के प्रयोग करने में भी वे अधिक स्वतंत्रा हैं शब्द गढ़ भी लेते हैं। गाढ़े गढ़ लीने अरु बैरी 'कतलाम कीन्हे' 'चारि को सो अंक लंक चंद सरमाती हैं', 'जानि गैर मिसिल गुसीले गुसा धारि उर' इन वाक्य खंडों के चिद्दित शब्द ऐसे ही हैं। प्रयोजन यह है कि उनकी मुख्य भाषा ब्रजभाषा अवश्य है, परन्तु शब्द-विन्यास में उन्होंने बहुत स्वतंत्राता ग्रहण की है। फ़ारसी के शब्दों का जो अधिक प्रयोग उनकी रचना में हुआ, उसका हेतु उनका विषय है, शिवाजी की विजय का सम्बन्धा अधिकतर मुसलमानों की सेना और वर्तमान सम्राट् औरंगजेब से था। इसलिए उनको अनेक स्थानों पर अपनी रचना में फारसी अरबी के शब्दों का प्रयोग करना पड़ा। कहीं-कहीं उनको उन्होंने शुध्द रूप में ग्रहण किया और कहीं उनमें मनमाना परिवर्तन छन्द की गति के अनुसार कर लिया। इसी सूत्रा से खड़ी बोली के वाक्यों का मिश्रण भी उसकी कविता में मिलता है। परन्तु इन प्रयोगों का इतना बाहुल्य नहीं कि उनसे उनकी मुख्य भाषा लाि×छत हो सके।

(4) कुलपति मिश्र आगरे के निवासी चतुर्वेदी ब्राह्मण थे। ये संस्कृत के बड़े विद्वान थे। इन्होंने काव्य-प्रकाश के आधार पर 'रस-रहस्य' नामक एक ग्रन्थ लिखा है, उसमें काव्य के दसों अúों का विशद वर्णन है इनके और भी ग्रन्थ बतलाये जाते हैं। जिनमें 'संग्रह-सार', 'युक्त तरंगिनी' और 'नख शिख' अधिक प्रसिध्द हैं। ये जयपुर के महाराज जयसिंह के पुत्र रामसिंह के दरबारी कवि थे। अपने 'रस रहस्य' नामक ग्रन्थ में इन्होंने रामसिंह की बहुत अधिक प्रशंसा की है। इनकी अधिकांश रचना की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। जिनमें बड़ी ही प्रा×जलता और मधुरता है। किन्तु कुछ रचनाएँ इनकी ऐसी भी हैं जिनमें खड़ी बोली के साथ फारसी, अरबी शब्दों का प्रयोग अधिकता से मिलता है। इससे पाया जाता है कि इन्होंने फारसी भी पढ़ी थी। इन्होंने ऐसी रचना भी की है जिसमें प्राकृत के शब्द अधिकता से आये हैं। इन तीनों के उदाहरण क्रमश: नीचे दिये जाते हैं-

1. ऐसिय कुंज बनैं छवि पुंज रहैं

अलि गुंजत यों सुख लीजै।

नैन बिसाल हिये बनमाल बिलोकत

रूप सुधा भरि पीजै।

जामिनि जाम की कौन कहै जुग

जात न जानिये ज्यों छिन छीजै।

आनँद यों उमग्यो ही रहै पिय

मोहन को मुख देखिबो कीजै।

2. हूँ मैं मुशताक़ तेरी सूरत का नूर देखि

दिल भरि पूरि रहै कहने जवाब से।

मेहर का तालिब फ़कीर है मेहेरबान

चातक ज्यों जीवता है स्वातिवारे आब से।

तू तो है अयानी यह खूबी का खजाना तिसे

खोलि क्यों न दीजै सेर कीजिये सवाब से।

देर की न ताब जान होत है कबाब

बोल हयाती का आब बोलो मुख महताबसे।

3. दुज्जन मद मद्दन समत्थ जिमि पत्थ दुहुँनि कर।

चढ़त समर डरि अमर कंप थर हरि लग्गय धार।

अमित दान है जस बितान मंडिय महि मंडल।

चंड भानु सम नहिं प्रभानु खंडिय आखंडल।

कुलपति मिश्र अपने समय के प्रसिध्द कवियों में थे। उनकी गणना आचाय्र्यों में होती है।

(5) जोधापुर के महाराज जसवन्त सिंह जिस प्रकार एक वीर हृदय भूपाल थे उसी प्रकार कविता के भी प्रेमी थे। औरंगजेब के इतिहास से इनका जीवन सम्बन्धिात है। इन्होंने अनेक संकट के अवसरों पर उसकी सहायता की थी, किन्तु निर्भीक बड़े थे। इसलिए इन्हें काबुल भेजकर औरंगजेब ने मरवा डाला था। इनको वेदान्त से बड़ा प्रेम था। इसलिए 'अपरोक्ष सिध्दान्त', 'अनुभव प्रकास', 'आनन्द-विलास', 'सिध्दान्तसार' इत्यादि ग्रन्थ इन्होंने इसी विषय के लिखे। कुछ लोगों की सम्मति है कि इन्होंने पारंगत विद्वानों द्वारा इन ग्रन्थों की रचना अपने नाम से कराई। परन्तु यह बात सर्व-सम्मत नहीं। मेरा विचार है, इन्होंने ऐसे समय में जब शृंगार रस का श्रोत बह रहा था, वेदान्त सम्बन्धी ग्रन्थ रचकर हिन्दी-साहित्य भण्डार को उपकृत किया था।'भाषा भूषण' इनका अलंकार-सम्बन्धी ग्रंथ है। इस रचना में यह विशेषता है कि दोहे के एक चरण में लक्षण और दूसरे में उदाहरण है, यह संस्कृत के चन्द्रालोक ग्रन्थ का अनुकरण है, मेरा विचार है कि इस ग्रन्थ के आधार से ही इन्होंने अपनी पुस्तक बनाई है।

कविता की भाषा ब्रजभाषा है और उसमें मौलिकता का-सा आनंद है। हाँ, संस्कृत अलंकारों के नामों का बीच-बीच में व्यवहार होने से प्रा×जलता में कुछ अन्तर अवश्य पड़ गया है। कुछ स्फुट दोहे भी हैं, उनमें अधिक सरसता पाई जाती है। दोनों के उदाहरण नीचे लिखे जाते हैं।

मुख ससि वाससि सों अधिक उदित जोति दिन राति।

सागर तें उपजी न यह कमला अपर सोहाति।

नैन कमल ये ऐन हैं और कमल केहि काम।

गमन करत नीकी लगै कनक लता यह बाम।

अलंकार अत्युक्ति यह बरनत अति सै रूप।

जाचक तेरे दान ते भये कल्प तरु भूप।

परजस्ता गुन और को और विषे आरोप।

होय सुधाधार नाहिं यह बदन सुधाधार ओप।

महाराज जसवन्त सिंह ऐसे पहले हिन्दी साहित्यिक हैं, जिन्होंने हिन्दी भाषा को एक नहीं कई सुन्दर पद्य ग्रन्थ राज्यासन पर विराजमान होकर भी प्रदान किये। यह इस बात का प्रमाण है कि उन दिनों ब्रजभाषा किस प्रकार समादृत होकर विस्तार-लाभ कर रही थी।

(6) गोपालचन्द्र मिश्र छत्ताीसगढ़ के रहने वाले थे। इनके पुत्र का नाम माखनचन्द्र था। इन्होंने पाँच ग्रन्थों की रचना की थी, जिनमें से 'जैमिनी अश्वमेध', 'भक्ति चिंतामणि' और 'छन्दविलास' अधिक प्रसिध्द हैं। कहा जाता है कि एक हैहयवंशी राजा के ये मन्त्राी थे और उनके यहाँ इनका बड़ा सम्मान था। 'छन्द-विलास' नामक ग्रन्थ वे अधूरा छोड़ गये। जिसे उनके पुत्र माखनचन्द्र ने उनकी आज्ञा से पूरा किया था। ये सरस हृदय कवि थे और भावमयी रचना करने में समर्थ थे। इनके कुछ पद्य देखिए-

1. सोई नैन नैन जो बिलोके हरि मूरति को।

सोई बैन बैन जे सुजस हरि गाइये।

सोई कान कान जाते सुनिये गुनानुवाद

सोई नेह नेह हरि जू सों नेह लाइये।

सोई देह देह जामैं पुलकित रोम होत ,

सोई पाँव पाँव जाते तीरथनि जाइये।

सोई नेम नेम जे चरन हरि प्रीति बाढ़ै

सोई भाव भाव जो गुपाल मन भाइये।

2. दान सुधा जल सों जिन सींचि

सतो गुन बीच बिचार जमायो।

बाढ़ि गयो नभ मण्डल लौं महि

मण्डल घेरि दसो दिसि छायो।

फूल घने परमारथ फूलनि

पुन्य बड़े फल ते सरसायो।

कीरति वृच्छ बिसाल गुपाल

सु कोबिद वृन्द बिहंग बसायो।

इनकी कविता की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है और उसमें मधुरता के साथ प्रांजलता भी है।

(7) सुखदेव मिश्र की गणना हिन्दी के आचार्यों में है। उन्होंने रीति ग्रन्थों की रचना बड़े पांडित्य के साथ की है। वे संस्कृत और भाषा दोनों के बड़े विद्वान थे। उनके 'वृत्ताविचार', 'रसार्णव', 'शृंगारलता' और 'नखशिख' आदि बड़े सुन्दर ग्रन्थ हैं। उनका अधयात्मकप्रकाश प्रसिध्द ग्रन्थ है। अनेक राज्य दरबारों में उनका सम्मान था। उन्हें कविराज की पदवी मिली थी। उनकी रचनाएँ प्रौढ़, काव्य-गुणों से अलंकृत और साहित्यिक ब्रजभाषा के आदर्शस्वरूप हैं। कुछ पद्य देखिए।

जोहै जहाँ मगु नन्द-कुमार तहाँ

चली चन्दमुखी सुकुमार है।

मोतिन ही को कियो गहनों सब

फूल रही जनु कुन्द की डार है।

भीतर ही जु लखो सु लखी अब

बाहिर जाहिर होति न दार है।

जोन्ह सी जोन्है गई मिलि यों

मिलि जात ज्यों दूधा में दूधा की धार है

मंदर महिंद गन्धा मादन हिमालय में

जिन्हें चल जानिये अचल अनुमाने ते।

भारे कजरारे तैसे दीरघ दतारे मेघ

मण्डल विहंडैं जे वै सुंडा दंड ताने ते।

कीरति विसाल क्षितिपाल श्री अनुप तेरे

दान जो अमान कापै बनत बखाने ते।

इतै कवि मुख जस आखर खुलत

उतै पाखर समेत पील खुलै पीलखाने ते।

इनका अधयात्म-प्रकाश वेदांत का बड़ा सुन्दर ग्रन्थ है। उसकी रचना की बड़ी प्रशंसा है, उसमें विषय-सम्बन्धी ऐसी महत्ताएँ हैं कि उनके आधार से लोग इनको महात्मा कहने लगे थे। इसमें संदेह नहीं कि इनकी रचनाएँ ब्रजभाषा-साहित्य में अमूल्य हैं। उसी के बल से इन्होंने औरंगजेब के मंत्राी फ़ाजिल अली से बड़ा सत्कार प्राप्त किया था, जो इस बात का सूचक है कि अकबर के समय से जो ब्रजभाषा की धाक उनके वंश वालों पर जमी, वह लगातार बहादुरशाह तक अचल रही।

(8) कालिदास त्रिवेदी सहृदयता में यथानाम: तथा गुण: अर्थात् दूसरे कालिदास थे। 'कालिदास हज़ारा' इनका बहुत बड़ा सुंदर संग्रह कहा जाता है। इसमें 200 से अधिक कवियों की रचनाएँ संगृहीत हैं। इसके आधार से शिवसिंह सरोजकार ने अनेक प्राचीन कवियों की जीवनी का उध्दार किया था। इनका नायिका-भेद का 'वधू-विनोद' नामक ग्रन्थ भी प्रसिध्द ग्रन्थ है। इन्होंने 'जंजीराबंद' नाम का एक ग्रन्थ भी बनाया था। उसमें 32 कवित्ता हैं, उसे सभी कवि-जीवनी लेखकों ने बड़ा अद्भुत बतलाया है। वास्तव में कालिदास बड़े सहृदय कवि थे। उनकी रचनाएँ एक सुविकसित सुमन के समान मनोहर और सुधानिधि की कला के समान कमनीय हैं। उनकी रचना की रसीली भाषा इस बात का सनद ब्रजभाषा को देती है कि वह सरस से सरस है-

चूमों करकंज मंजु अमल अनूप तेरो ,

रूप के निधान कान्ह मो तन निहारि दै।

कालिदास कहै मेरी ओर हरे हेरि हरि ,

माथे धारि मुकुट लकुट कर डारि दै।

कुँवर कन्हैया मुखचंद की जुन्हैया चारु ,

लोचन चकोरन की प्यासन निवारि दै।

मेरे कर मेंहदी लगी है नंदलाल प्यारे ;

लट उरझी है नेक बेसर सुधारि दै

हाथ हँसि दीन्हों भीति अंतर परसि प्यारी ;

देखत ही छकी मति कान्हर प्रवीन की।

निकस्यो झरोखे मांझ बिगस्यो कमल सम ,

ललित अंगूठी तामैं चमक चुनीन की।

कालीदास तैसी लाली मेहंदी के बुंदन की ,

चारु नखचंदन की लाल ऍंगुरीन की।

कैसी छबि छाजत है छाप के छलान की ,

सुकंकन चुरीन को , जड़ाऊ पहुँचीन की।

(9) आलम रसखान के समान ही बड़े ही सरस हृदय कवि थे। कहा जाता है कि ये ब्राह्मण कुल के बालक थे। परंतु प्रेम के फंदे में पड़कर धर्म को तिलांजलि दे दी थी। शेख़ नामक एक मुसलमान स्त्री सरसहृदया कवि थी। उसके रस से ये ऐसे सिक्त हुए कि अपने धर्म को भी उसमें डुबो दिया। अच्छा होता यदि जैसे मनमोहन की ओर रसखान खिंच गये, उसी प्रकार वे शेख़ को भी उनकी ओर खींच लाते। परंतु उसने ऐसी मोहनी डाली कि वे ही उसकी ओर खिंच गये। जो कुछ हो लेकिन स्त्री-पुरुष दोनों की ब्रजभाषा की रचना ऐसी मधुर और सरस है जो मधु-वर्षण करती ही रहती है। ब्रजभाषा देवी के चरणों पर इस युगल जोड़ी को कान्त कुसुमावलि अर्पण करते देखकर हम उस वेदना को भूल जाते हैं, जो उनके प्रेमोन्माद से किसी स्वधार्मानुरागी जन को हो सकती है। इन दोनों में वृन्दावन विहारिणी युगल मूर्ति के गुणगान की प्रवृत्तिा देखी जाती है। उससे भी मर्माहत चित्ता को बहुत कुछ शान्ति मिलती है, उनका जो धर्म हो, परन्तु युगलमूर्ति उनके हृदय में सदा बिराजती दृष्टिगत होती है। औरंगजेब के पुत्र मुअज्ज़म की दृष्टि में इन दोनों का अपने गुणों के कारण बड़ा आदर था। इनकी कुछ मनोहारिणी रचनाएँ नीचे लिखी जाती हैं-

1. जा थल कीन्हें बिहार अनेकन

ता थल कांकरी बैठि चुन्यो करैं।

जा रसना सों करी बहु बातन

ता रसना सों चरित्रा गुन्यो करैं।

आलम जौन से कुंजन में करी

केलि तहाँ अब सीस धुन्यो करैं।

नैनन में जो सदा रहते तिनकी

अब कान कहानी सुन्यो करैं।

2. चन्द को चकोर देखै निसि दिन को न लेखे ,

चंद बिन दिन छबि लागत ऍंधयारी है।

आलम कहत आली अलि फूल हेत चलै ,

काँटे सी कटीली बेलि ऐसी प्रीति प्यारी है।

कारो कान्ह कहति गँवारी ऐसी लागति है ,

मोहि बाकी स्यामताई लागत उँज्यारी है।

मन की अटक तहाँ रूप को विचार कहाँ ,

रीझिबे को पैंडो तहाँ बूझ कछु न्यारी है।

3. प्रेम रंग पगे जगमगे जागे जामिनी के

जोबन की जोति जगि जोर उमगत है।

मदन के माते मतवारे ऐसे घूमत हैं

झूमत हैं झुकि झुकि झ्रपि उघरत हैं

आलम सों नबल निकाई इन नैननि की

पाँखुरी पदुम पै भँवर थिरकत हैं।

चाहत हैं उड़िये को देखत मयंक मुख

जानत हैं रैनि ताते ताहि मैं रहत हैं।

4. कैंधो मोर सोर तजि गये री अनत भाजि

कैधों उत दादुर न बोलत हैं ए दई।

कैधों पिक चातक बधिक काहू मारि डारे

कैधों बकपाँति उत अंत गति ह्नै गई।

आलम कहत आली अजहूँ न आये श्याम

कैधों उत रीति बिपरीति बिधि ने ठई।

मदन महीप की दुहाई फिरिबे ते रही

जूझि गये मेघ कैधों बीजुरी सती भई।

5. पैंडो समसूधो बैंडो कठिन किवार द्वार

द्वारपाल नहीं तहाँ सबल भगति है।

शेख भनि तहाँ मेरे त्रिभुवन राम हैं जु

दीनबंधु स्वामी सुरपति को पति है।

बैरी को न बैर बरिआई को न परवेस

हीने को हटक नाहीं छीने को सकति है।

हाथी को हँकार पल पाछे पहुँचन पावै

चींटी की चिघार पहिले ही पहुँचति है।

कहा जाता है कि आलम ने माधावानल कामकंदला नामक एक प्रेम कहानी भी लिखी है। आशा है, कि इनका ग्रंथ भी सरसतापूर्ण होगा और इसमें भी इनके प्रेम-मय हृदय की कमनीय कलाएँ विद्यमान होंगी। किन्तु यह ग्रंथ देखने में नहीं आया। इसकी चर्चा ही मात्रा मिलती है। अच्छा होता यदि इस पुस्तक का कुछ अंश मैं आप लोगों की सेवा में उपस्थित कर सकता। परन्तु यह सौभाग्य मुझको प्राप्त नहीं हुआ। आलम-दम्पती की रचनाओं में हृदय का वह सौन्दर्य दृष्टिगत होता है जिसकी ओर चित्ता स्वभावतया खिंच जाता है। इनके ऐसे भावुक कवि ही किसी भाषा को अलंकृत करते हैं। जैसी ही इनकी भावमयी सुन्दर रचनाएँ हैं वैसी ही सरस और मुग्धाकारी इनकी ब्रजभाषा है। इनके अधिकांश पद्य सहृदयता की मूर्ति हैं, इन्होंने इनके द्वारा हिन्दी-साहित्य-भंडार को बड़े सुन्दर रत्न प्रदान किये हैं।

इन्हीं सहृदय दम्पति के साथ में ताज की चर्चा भी कर देना चाहता हूँ। ये एक मुसलमान स्त्री थीं। इनके वंश इत्यादि का कुछ पता नहीं। परन्तु इनकी स्फुट रचनाएँ यत्रा तत्रा पाई जाती हैं। मुसलमान स्त्री होने पर भी इनके हृदय में भगवान कृष्णचन्द्र का प्रेम लबालब भरा था। इनकी रचनाओं में कृष्ण-प्रेम की ऐसी सुन्दर धाराएँ बहती हैं जो हृदय को मुग्धा कर देती हैं। इनके पद्यों का एक-एक पद कुछ ऐसी मनमोहकता रखता है, जो चित् को बलात् अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। इनकी रचना में पंजाबी शब्द अधिक मिलते हैं। इससे ज्ञात होता है कि ये पंजाब प्रान्त की रहने वाली थीं। इनकी पद्य रचना में खड़ी बोली का पुट भी पाया जाता है किन्तु इन्होंने ब्रजभाषा में ही कविता करने की चेष्ट की है। इनके कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं। देखिए इनकी लगन में कितनी अधिक विचारों की दृढ़ता है।

सुनौ दिल जानी मेड़े दिल की कहानी

तुम दस्त ही बिकानी बदनामी भी सहूँगी मैं।

देव पूजा ठानी मैं निवाज हूँ भुलानी

तजे कलमा कुरान साड़े गुनन गहूँगी मैं।

साँवला सलोना सिर ताज सिर कुल्ले दिये

तेरे नेह दाग मैं निदाग हो दहूँगी मैं।

नन्द के कुमार कुरबान ताँड़ी सूरत पै

तांड़ नाल प्यारे हिंदुआनी हो रहूँगी मैं।

2. छैल जो छबीला सब र ú में रँगीला

बड़ा चित्ता का अड़ीला कहूँ देवतों से न्यारा है।

माल गले मों है नाक मोती सेत सोहै कान

मोहै मनि कुंडल मुकुट सीस धारा है।

दुष्ट जन मारे सन्त जन रखवारे ताहि

चित हित वारे प्रेम-प्रीति कर वारा है।

नन्द जू का प्यारा जिन कंस को पछारा

वह वृन्दाबन वारा कृष्ण साहब हमारा है।

(10) सितारा के राजा शंभुनाथ सुलंकी भी रीति ग्रन्थकारों में से हैं। उनके एक नायिका-भेद के ग्रंथ की बड़ी प्रशंसा है,परन्तु वह अब मिलता नहीं। उनका एक नख-शिख का ग्रन्थ भी बड़ा चमत्कारपूर्ण है। वे बड़े सहृदय और कवियों के कल्पतरु थे। कविता में कभी 'नृपशंभु' और कभी 'शंभुकवि' अथवा 'नाथ कवि' अपने को लिखते थे। बड़ी सरस ब्रजभाषा में उन्होंने रचना की है। उनकी उत्प्रेक्षाएँ बड़ी मनोहर हैं। उनके जितने पद्य हैं उनमें से अधिकांश सरस है। उनकी भाषा को निस्संकोच टकसाली कह सकते हैं। ब्रजभाषा को अपनी रचना द्वारा उन्होंने भी गौरवित बनाया है। उनके दो पद्य नीचे लिखे जाते हैं-

1. फाग रच्यो नन्द नन्द प्रवीन बजैं

बहु बीन मृदंग रबाबैं।

खेलतीं वै सुकुमारि तिया जिन

भूषण हूँ की सही नहीं दाबैं।

सेत अबीर के घूँघरु मैं इमि

बालन की बिकसी मुख आबैं।

चाँदनी में चहुँ ओर मनो नृप

शंभु बिराज रही महताबैं।

2. कौहर कौल जपा दल विद्रुम का

इतनी जु बँधूक मैं कोति है।

रोचन रोरी रची मेंहदी नृपशंभु

कहै मुकुता सम पोति है।

पायँ धारै ढरै ईंगुरई तिन मैं

खरी पायल की घनी ज्योति है।

हाथ द्वै तीनक चारहूँ ओर लौं

चाँदनी चूनरी के रँग होति है।

इस शतक में एक मुसलमान सहृदय कवि भी रीति ग्रन्थकार हो गये हैं। उनका नाम मुबारक है। अवधा के बाराबंकी जिले में बिलग्राम नामक एक प्रसिध्द कस्बा है, जिसको विद्वानों और सहृदयों की जन्मभूमि होने का गौरव प्राप्त है, यहीं अरबी,फारसी और संस्कृत के विद्वान् मुबारकअली का जन्म हुआ था। इन्होंने 'अलक शतक' और 'तिल शतक' नामक दो ग्रन्थ सरस दोहों में लिखे हैं। इनकी स्फुट कविताएँ भी बहुत-सी मिलती हैं। इनकी भाषा ब्रजभाषा है और उसमें प्रा)लता इतनी है कि मुक्त कंठ से उसकी प्रशंसा की जा सकती है। इनकी रचना में प्रवाह है और इनकी कथनशैली भी मोहक है। मधुरता इनके शब्दों में भरी मिलती है। मुसलमान होने पर भी इन्होंने हिन्दी भाषा पर अपना जैसा अधिकार प्रकट किया है, वास्तव में वह चकितकर है। इनकी कुछ रचनाएँ देखिए-

1. कान्ह की बाँकी चितौनि चुभि

झुकि काल्हि ही झाँकी है ग्वालि गवाछनि।

देखी है नोखी सी चोखी सी कोरनि

ओछे फिरै उभरै चित जा छनि।

मारयो सँभारि हिये में मुबारक

ए सहजै कजरारे मृगाछनि।

सींक लै काजर दे री गँवारिनि

ऑंगुरी तेरी कटैगी कटाछनि।

2. कनक बरन बाल नगन लसत भाल

मोतिन के माल उर सोहै भलीभाँति है।

चंदन चढ़ाई चारु चंदमुखी मोहिनी सी

प्रात ही अन्हाइ पगु धारे मुसकाति है।

चुनरी विचित्रा स्याम सजि कै मुबारक जू

ढाँकि नख सिख ते निपट सकुचाति है।

चंद मैं लपेटि कै समेटि कै नखत मानो

दिन को प्रनाम किये रात चली जाति है।

3. जगी मुबारक तिय बदन अलख ओप अति होइ।

मनो चंद की गोद में रही निसा सी सोइ।

4. चिबुक कूप मैं मन परयो छबि जल तृषा बिचारि।

गहत मुबारक ताहि तिय अलक डोर सी डारि।

5. चिबुक कूप रसरी अलक तिल सुचरस दृग बैल।

बारी बैस सिंगार की सींचत मनमथ छैल।

6. गोरी के मुख एक तिल सो मोहिं खरो सुहाय।

मानहुं पंकज की कली भौंर बिलंब्यो आय।

कभी-कभी वे अपनी रचना में दुरूह फ़ारसी शब्दों का प्रयोग भी कर देते हैं, परन्तु उसको ब्रजभाषा के ढंग में बड़ी ही सुन्दरता से ढाल लेते हैं। नीचे का दोहा देखिए-

अलक मुबारक तिय बदन लटक परी यों साफ।

खुशनवीस मुनशी मदन लिख्यो काँच पर क़ाफ़।

(4)

इस शताब्दी में प्रसिध्द प्रबन्धकार भी हुए। इनमें गुरु गोविंद सिंह सबसे प्रधान हैं। उनके अतिरिक्त उसमान, सबलसिंह चौहान, लाल और कवि हृदयराम का नाम लिया जा सकता है। प्रेम-मार्गी कवियों के वर्णन में उसमान के विषय में मैं पहले कुछ लिख चुका हूँ। इस शताब्दी में इनकी ही रचना ऐसी है जो अवधी भाषा में की गयी है। इसके द्वारा उन्होंने उस परम्परा की रक्षा की है जिसको कुतुबन अथवा मलिक मुहम्मद जायसी ने चलाया था। इनको छोड़कर और सब प्रबन्धाकार ब्रजभाषा के सुकवि हैं। मैं पहले सबलसिंह चौहान और लाल के विषय में लिखकर इसके उपरान्त पंजाब-निवासी गुरु गोविन्द सिंह और कवि हृदयराम के विषय में कुछ लिखूँगा-

सबलसिंह चौहान इटावा जिले के प्रतिष्ठित जमींदार थे। उन्होंने महाभारत के अठारहों पर्वों के कथा-भाग की रचना दोहा-चौपाई में की है। 'रूप विलास पिंगल', 'षट् ऋतु बरवै' और 'ऋतूपसंहार' नामक ग्रन्थ भी उनके रचे बतलाये जाते हैं। उन्होंने महाभारत की रचना गोस्वामी जी के रामायण के आधार से की है। परन्तु उनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। वे पछाँह के रहने वाले थे। इसलिए उनकी रचना में खड़ी बोली और अवधी का पुट भी है। भाषा न तो जैसी चाहिए वैसी सरस है और न प्रा)ल। फिर भी महाभारत की कथा का जनता को परिचय कराने के लिए उनका उद्योग प्रशंसनीय है। उनके इस ग्रन्थ का कुछ प्रचार भी हुआ। परन्तु वह सर्वसाधारण् को अपनी ओर अधिक आकर्षित न कर सका। उनकी रचना का नमूना लीजिए-

लै के शूल कियो परिहारा।

बीर अनेक खेत महँ मारा।

जूझी अनी भभरि कै भागे।

हँसि के द्रोण कहन अस लागे।

धान्य धान्य अभिमनु गुन आगर।

सब छत्रिन महँ बड़ो उजागर।

धान्य सहोद्रा जग में जाई।

ऐसे वीर जठर जनमाई।

धान्य धान्य जग में पितु पारथ।

अभिमनु धान्य धान्य पुरुषारथ।

एक बार लाखन दल मारे।

अरु अनेक राजा संहारे।

धानु काटे शंका नहिं मन में।

रुधिर-प्रवाह चलत सब तन में।

एहि अंतर बोले कुरुराजा।

धानुष नाहिं भाजत केहि काजा।

एक बीर को सबै डरत है।

घेरि क्यों न रस धाय धारत है।

बालक देखु करी यह करणी।

सेना जूझि परी सब धारणी।

दुर्योधान या विधि कह्यो ,

कर्ण द्रोण सों बैन।

बालक सब सेना बधी ,

तुम सब देखत नैन।

उनकी रचना में ब्रजभाषा के नियम के विरुध्द शकार, णकार और संयुक्त वर्णों का प्रयोग भी देखा जाता है। इसका कारण यह मालूम होता है कि वीर रस के लिए शायद परुषावृत्तिा का मार्ग ग्रहण करना ही उन्होंने युक्तिसंगत समझा।

पुरोहित गोरेलाल महाराज छत्रासाल के दरबार के मान्य कवि थे। वे एक युध्द में महाराज छत्रासाल के साथ गये और वहीं वीरता के साथ लड़कर मरे। वीर रस की ओजमयी रचना करने में भूषण के उपरान्त इन्हीं का नाम लिया जाता है। 'छत्रा-प्रकाश' इनका प्रसिध्द ग्रन्थ है। जिसमें इन्होंने महाराज छत्रासाल की वीरगाथाएँ बड़ी निपुणता से लिखी हैं। यह दोहा-चौपाई में लिखा गया है और प्रबन्धा ग्रन्थ है। इनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। किन्तु उसमें बुन्देलखंडी शब्दों का प्रयोग आवश्यकता से कुछ अधिक है। फिर भी इनकी रचना ओजमयी और प्रांजल है और वे सब गुण उसमें मौजूद हैं जिन्हे वीर-रस की कविता में होना चाहिए। 'छत्राप्रकाश' विशाल ग्रंथ है और इनका कीर्तिस्तम्भ है। इसके अतिरिक्त 'विष्णु बिलास' और 'राजविनोद' नामक दो ग्रन्थ इन्होंने और रचे। ये दोनों ग्रंथ भी अच्छे हैं, परन्तु इनमें यह विशेषता नहीं पाई जाती जो 'छत्राप्रकाश' में है। गोरेलाल जी का उपनाम 'लाल' है। इनकी कुछ रचनाएँ देखिए-

दान दया घमसान में जाके हिये उछाह।

सोई बीर बखानिये ज्यों छत्ता छितिनाह।

उमड़ि चल्यो दारा के सौहैं , चढ़ी उदंड युध्द-रस भौंहैं।

तब दारा दिल दहसति बाढ़ी , चूमन लगे सबन की दाढ़ी।

को भुजदंड समर महिं ठोंकै , उमड़े प्रलय-सिंधु को रोकै।

छत्रासाल हाड़ा तहँ आयो , अरुन रंग आनन छबि छायो।

भयो हरौल बजाय नगारो , सारधार को पहिरन हारो।

दौरि देस मुगलन के मारो , दपटि दिली के दल संहारो।

ऐंड़ एक सिवराज निबाही , करै आपने चित्ता की चाही।

आठ पातसाही झकझोरै , सूबन पकरि दंड लै छोरै।

काटि कटक किरवान बल , बाँटि जंबुकनि देहु।

ठाटि जुध्द एहि रीति सों , बाँटि धारनि धारि लेहु।

मैं यह बराबर प्रकट करता आया हूँ कि सत्राहवीं शताब्दी में उत्तारी भारत में ब्रजभाषा का प्रसार अधिक हो गया था। इस विस्तार के फल से ही पंजाब प्रान्त में दो प्रतिष्ठित प्रबन्धाकार दृष्टिगत होते हैं। उनमें से एक हृदयराम हैं और दूसरे गुरु गोविन्दसिंह। कवि हृदयराम जाति के खत्री थे। उन्होंने संस्कृत हनुमन्नाटक के आधार से अपने ग्रन्थ की रचना की और उसका नाम भी हनुमन्नाटक ही रक्खा। इस ग्रन्थ की रचना इतनी सरस है और इस सहृदयता के साथ वह लिखा गया है कि गुरु गोविन्दसिंह इस ग्रन्थ को सदा अपने साथ रखते और उसकी मधुर रचनाओं को पढ़-पढ़ मुग्धा हुआ करते थे। इस ग्रन्थ की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। कहीं-कहीं एक-दो पंजाबी शब्द मिल जाते हैं। ग्रन्थ की सरस और प्रा)ल रचना देखकर यह प्रतीत नहीं होता कि यह किसी पंजाबी का लिखा हुआ है। कवि हृदयराम में भाव-चित्राण की सुन्दर शक्ति है। उन्होंने इस ग्रन्थ को लिखकर यह बतलाया है कि उनमें प्रबन्धा काव्य लिखने की कितनी योग्यता थी। रामायण की समस्त कथा इसमें वर्णित है किन्तु इस क्रम से कि उसमें कहीं अरोचकता नहीं आई। इसमें कवित्ता और सवैये ही अधिक हैं। कोई-कोई पद्य बड़े ही मनोहर हैं। उनमें से दो नीचे लिखे जाते हैं-

1. ए बनवास चले दोउ सुंदर कौतुक को सिय संग जुटी है।

पाँवन पाव , न कोस चली अजहूँ नहीं गाँव की सींव छुटी है।

हाथ धारे कटि पूछत रामहिं नाथ कहौ कहाँ कंज कुटी है।

रोवत राघव जोवत सी मुख मानहुँ मोतिन माल टुटी है।

2. एहो हनू कह श्रीरघुवीर कछू सुधि है सिय की छिति माँही।

है प्रभु , लंक कलंक बिना सुबसै बन रावन बाग की छाँहीं।

जीवत है कहिंबेहि को नाथ! सु क्यों न मरी हमतें बिछुराहीं।

प्रान बसै पद-पंकज में जम आवत है पर पावत नाहीं।

गुरु गोविन्दसिंह ब्रजभाषा के महाकवि थे। इनका बनाया हुआ दशम ग्रन्थ बड़ा विशाल ग्रन्थ है। समस्त ग्रन्थ सरस ब्रजभाषा में लिखा गया है। वे बड़े वीर और सिक्ख धर्म के प्र्रवत्ताक थे। गुरु नानक से लेकर गुरु अर्जुन देव तक इनके सम्प्रदाय में शान्ति रही, परन्तु जहाँगीर ने अनेक कष्ट देकर गुरु अर्जुन देव को प्राण त्याग करने के लिए बाधय किया। तब सम्प्रदाय वालों का रक्त खौल उठा और उन्होंने मुसलमानों के सर्वनाश का व्रत ग्रहण किया, क्रमश: वर्ध्दमान होकर गुरु गोविन्द सिंह के समय में यह भाव बहुत प्रबल हो गया था और इसी कारण जब गुरु तेगबहादुर उनके पिता का औरंगजेब द्वारा संहार हुआ तो उन्होंने बड़ी वीरता से मुसलमानों से लोहा लेना प्रारंभ किया। गुरु अर्जुनदेव ने ही आदि ग्रन्थसाहब का संग्रह तैयार किया था। इस ग्रन्थ में उनकी बहुत अधिक रचनाएँ हैं, जो अधिकतर ब्रजभाषा में लिखी गई हैं। उनकी कुछ रचनाएँ मैं पहले लिख आया हूँ। विषय को स्पष्ट करने के लिए उनके कुछ पद्य यहाँ और लिखे जाते हैं-

1. बाहरु धोइ अंतरु मन मैला दुई ओर अपने खोये।

इहाँ काम क्रोधा मोह व्यापा आगे मुसि मुसि रोये।

गोविंद भजन की मति है होरा।

बरमी मारी साँप न मरई नामु न सुनई डोरा।

माया की कृति छोड़ि गँवाई भक्तीसार न जानै।

वेद सास्त्रा को तरकन लागा तत्व जोगु न पछानै।

उघरि गया जैसा खोटा ढेबुआ नदरि सराफा आया।

अंतर्यामी सब कछु जानै उस ते कहा छपाया।

कूर कपट बंचन मुनियाँदा बिनसि गया ततकाले।

सति सति सति नानक कह अपने हिरदै देखु समा ले।

2. बंधान काटि बिसारे औगुन अपना विरद समारया।

होइ कृपालु मात पित न्याई बारक ज्यों प्रतिपारया।

गुरु सिष राखे गुरु गोपाल।

लीये काढ़ि महा भव जल ते अपनी नदर निहाल।

जाके सिमरणि जम ते छुटिये हलति पलति सुख पाइये।

सांसि गेरासि जपहु जप रसना नीति नीति गुण गाइये।

भगती प्रेम परम पद पाया साधु संग दुख नाटे।

छिजै न जाइ न किछु भव ब्यापै हरि धानु निरमल गाँठे।

अन्तकाल प्रभु भये सहाई इत उत राखन हारे।

प्रान मीत हीत धान मेरे नानक सद बलिहारे।

गुरु अर्जुन देव सत्राहवीं शताब्दी के आदि में थे। उनकी रचनाएँ उसी समय की हैं। मैं यह कह सकता हूँ कि वह परिमार्जित ब्रजभाषा नहीं है, परन्तु यही भाषा गुरु गोविन्दसिंह के समय में अपने मुख्य रूप में दृष्टिगत होती है। गुरु गोविन्दसिंह ने दशम ग्रन्थ में विष्णु के चौबीस और ब्रह्मा एवं शिव के सात अवतारों की कथा लिखी है। उन्होंने दुर्गापाठ का तीन अनुवाद करके उसका नाम 'चंडी-चरित्रा' रखा है। पहला अनुवाद सवैयों में, दूसरा पौड़ियों में, और तीसरा नाना छन्दों में है। उन्होंने इस ग्रन्थ में 404 स्त्री-चरित्र भी लिखे हैं और इस सूत्रा से अनेक नीति और शिक्षा सम्बन्धी बातें कही हैं,उन्होंने इसमें कुछ अपनी जीवन-सम्बन्धी बातें भी लिखी हैं और कुछ परमात्मा की स्तुति और ज्ञान सम्बन्धी विषयों का भी निरूपण किया है। फ़ारसी भाषा में उन्होंने 'जफ़रनामा' नामक एक राजनीति-संबंधी ग्रन्थ लिखकर औरंगजेब के पास भेजा था। वह ग्रन्थ भी इसमें सम्मिलित है। अवतारों के वर्णन के आधार से उन्होंने इस ग्रन्थ में पुराणों की धर्म-नीति, समाज-नीति, एवं राजनीति-सम्बन्धी समस्त बातें एकत्रित कर दी हैं। यह बड़ा उपयोगी ग्रन्थ है। सिक्ख सम्प्रदाय के लोग इसको बड़े आदर की दृष्टि से देखते हैं। ब्रजभाषा-साहित्य का इतना बड़ा ग्रन्थ सूर-सागर को छोड़कर अन्य नहीं है। इस ग्रन्थ में जितनी रचनाएँ गुरु गोविन्द सिंह की निज की हैं, उनके सामने श्री मुख वाक पातसाही दस लिखा है। अन्य रचनाओं के विषय में यह कहा जाता है कि वे गुरु गोविन्द सिंह जी के द्वारा रचित नहीं हैं। वे श्याम और राम नामक दो अन्य कवियों की कृति हैं, जो उनके आश्रित थे। उक्त ग्रन्थ की कुछ रचनाएँ नीचे उपस्थित की जाती हैं। उनको पढ़कर आप लोग समझ सकेंगे कि वे कैसी हैं और उनके भाव और भाषा में कितना सौंदर्य एवं लालित्य है। पहले गुरु गोविन्द सिंह की निज रचनाओं को ही देखिए-

1. चक्र चिद्द अरु बरन जात

अरु पाँत नहिंन जेहि।

रूप रूप अरु रेख भेख

कोउ कहि न सकत केहि।

अचल मूरति अनभव

प्रकास अमितोज कहिज्जै।

कोटि इन्द्र इन्द्राणि साहि

साहाणि गणिज्जै।

त्रिभुवण महीप सुर नर असुर

नेति नेति वर्णत कहत।

तब सरब नाम कत्थय कवन

कर्म नाम वरणत सुमत।

2. प्रभु जू तोकहँ लाज हमारी।

नीलकण्ठ नर हरि नारायन

नील बसन बनवारी।

परम पुरुष परमेसर स्वामी

पावन पवन अहारी।

माधाव महा ज्योति मधु

मर्दन मान मुकुंद मुरारी।

निर्विकार निर्जर निद्राबिन

निर्बिष नरक निवारी।

किरपासिंधु काल त्राय दरसी

कुकृत प्रनासन कारी।

धानुर्पानि धृत मान धाराधार

अन विकार असि धारी।

हौं मति मन्द चरनसरनागत

कर गहि लेहु उबारी।

3. जीति फिरे सब देस दिसान को

बाजत ढोल मृदंग नगारे।

गूंजत गूढ़ गजान के सुंदर

हींसत ही हय राज हजारे।

भूत भविक्ख भवान के भूपति

कौन गनै नहीं जात विचारे।

श्रीपति श्री भगवान भजे बिन

अन्त को अन्तक धाम सिधारे।

4. दीनन की प्रतिपाल करै नित

सन्त उबार गनीमन गारै।

पच्छ पसू नग नाग नराधिप

सर्व समै सब को प्रतिपारै।

पोखत है जल मैं थल मैं पल मैं

कलि के नहीं कर्म विचारै।

दीनदयाल दयानिधि दोखन

देखत है पर देत न हारै।

5. मेरु करो तृण ते मोहि जाहि

गरीब-नेवाज न दूसरो तोसों।

भूल छमो हमरी प्रभु आप न

भूलन हार कहूँ कोउ मोसों।

सेव करी तुमरी तिन के सभ ही

गृह देखिए द्रव्य भरो सो।

या कलि में सब काल कृपानिधि

भारी भुजान को भारी भरोसो।

अब दशम ग्रन्थ साहब की कुछ अन्य रचनाएँ भी देखिए-

1. रारि पुरंदर कोपि कियो इत

जुध्द को दैंत जुरे उत कैसे।

स्याम घटा घुमरी घन घोर कै

घेरि लियो हरि को रवि तैसे।

सक्र कमान के बान लगे सर

फोंक लसै अरि के उर ऐसे।

मानो पहार करार में चोंच

पसार रहे सिसु सारक जैसे

2. मीन मुरझाने कंज खंजन खिसाने।

अलि फिरत दिवाने बन डोलैं जित तित ही।

कीर औ कपोत बिंब कोकिला कलापी

बन लूटे फूटे फिरैं मन चैन हूँ न कितही।

दारिम दरकि गयो पेखि दसनन पाँति

रूप ही की काँति जग फैलि रही सित ही।

ऐसी गुन सागर उजागर सुनागर है

लीनो मन मेरो हरि नैन कोर चित ही।

3. चतुरानन मो बतिया सुन लै

सुनि के दोउ श्रौननि में धारिये।

उपमा को जबै उमगै मन तो

उपमा भगवानहिं की करिये।

परिये नहीं आन के पाँयन

पै हरि के गुरु के द्विज के परिये।

जेहि को जुग चारि मैं नाम जप्यो

तेहि सों लरिये ; मरिये , तरिये।

4. जेहि मृग राखे नैन बनाय।

अंजन रेख स्याम पै अटकत सुंदर फांद चढ़ाय।

मृग मद देत जिनैं नरनारिन रहत सदा अरुझाय।

तिनके ऊपर अपनी रुचि सों रीझि स्याम बलि जाय।

5. सेत धारे सारी वृषभानु की कुमारी

जस ही की मनो बारी ऐसी रची है न को दई।

रंभा उरबसी और सची सी मँदोदरी।

पै ऐसी प्रभा काकी जग बीच ना कछू भई।

मोतिन के हार गरे डार रुचि सों सिंगार

स्याम जू पै चली कवि स्याम रस के लई।

सेत साज साज चली साँवरे के प्र्रीति काज

चाँदनी में राधा मानो चाँदन सी ह्नै गई।

गुरु गोविंद सिंह की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है, इसमें कोई सन्देह नहीं। उसमें ब्रजभाषा-सम्बन्धी नियमों का अधिकतर पालन हुआ है। किसी-किसी स्थान पर णकार का प्रयोग नकार के स्थान पर पाया जाता है। किन्तु यह पंजाब की बोलचाल का प्रभाव है। कोई-कोई शब्द भी पंजाबी ढंग पर व्यवहृत हुए हैं। इसका कारण भी प्रान्तिकता ही है। परन्तु इस प्रकार के शब्द इतने थोड़े हैं कि उनसे ब्रजभाषा की विशेषता नष्ट नहीं हुई। कुल दशम ग्रंथ साहब ऐसी ही भाषा में लिखा गया है,जिससे यह ज्ञात होता है कि उस समय ब्रजभाषा किस प्रकार सर्वत्रा समादृत थी। इस ग्रन्थ में कहीं-कहीं पंजाबी भाषा की भी कुछ रचनाएँ मिल जाती हैं, किन्तु उनकी संख्या बहुत थोड़ी है। पौड़ियों में लिखा गया चंडी चरित्रा ऐसा ही है। ज़फ़रनामा फ़ारसी भाषा में है, यह मैं पहले बतला चुका हूँ। अपने ग्रन्थ में गुरु गोविन्द सिंह ने इतने अधिक छंदों का व्यवहार किया है जितने छन्दों का व्यवहार आचार्य केशवदास को छोड़कर हिन्दी का अन्य कोई कवि नहीं कर सका। इस ग्रंथ में युध्द का वर्णन बड़ा ही ओजमय है। ऐसे छंद युध्द के वर्णनों में आये हैं जो अपने शब्दों को युध्दानुकूल बना लेते हैं। कहीं-कहीं इस प्रकार के शब्द लिखे गये हैं जो युध्द की मारकाट शस्त्राों का झणत्कार, बाणों की सनसनाहट और अस्त्राों के परस्पर टकराने की धवनि श्रवणगत होने लगती है। जैसे-

तागिड़दं तीरं छागिड़दं छुट्टे।

बागिड़दं बीरं लागिड़दं लुट्टे , इत्यादि।

मेरा विचार है कि यह विशाल ग्रन्थ हिन्दी साहित्य का गौरव है, और इसकी रचना करके गुरु गोविन्द सिंह ने उसके भण्डार को एक ऐसा उज्ज्वल रत्न प्रदान किया है, जिसकी चमक-दमक विचित्रा और अद्भुत है।

आदि ग्रन्थ साहब में शान्त रस का प्रवाह बहता है। उसमें त्याग और विराग का गीत गाया गया है, उससे सम्बन्धा रखने वाली दया, उदारता, शान्ति एवं सरलता आदि गुणों की ही प्रशंसा की गयी है। यह शिक्षा दी गयी है कि मानसिक विकारों को दूर करो और दुर्दान्त इन्द्रियों का दमन। परन्तु उसकी दृष्टि संसार-शरीर के उन रोगों के शमन की ओर उतनी नहीं गयी जो उस पवित्रा-ग्रन्थ के सदाशय मार्ग के कंटक-स्वरूप कहे जा सकते हैं। दशम ग्रन्थ साहब की रचना कर गुरु गोविन्द सिंह ने इस न्यूनता कीर् पूत्तिा की है। उन्होंने अपने ग्रन्थ में ऐसे उत्तोजक भाव भरे हैं जिससे ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जो कंटक भूत प्राणियों को पूर्णतया विधवंस कर सके। इस शक्ति के उत्पन्न करने के लिए ही उन्होंने अपने ग्रन्थ में युध्दों का भी वर्णन ऐसी प्रभावशाली भाषा में किया है जो एक बार निर्जीव को भी सजीव बनाने में समर्थ हो। इसी उद्देश्य से उन्होंने सप्तशती के तीन-तीन अनुवाद किये। पौड़ियों में जो तीसरा अनुवाद है, उसमें वह ओजस्विता भरी है जो सूखी रगों में भी रक्त संचार करती है। कृष्णावतार में खúसिंह के युध्द का ऐसा ओजमय वर्णन है जिसे पढ़ने से कायर हृदय भी वीर बन सकता है। ऐसे ही विचित्रा वर्णन और भी कई एक स्थलों पर है। यथा समय हिन्दू जाति में ऐसे आचार्य उत्पन्न होते आये हैं जो समयानुसार उसमें ऐसी शक्ति उत्पन्न करते जिससे वह आत्म-रक्षण में पूर्णतया समर्थ होती। उत्तार भारत में गुरु गोविन्द सिंह और दक्षिण भारत में स्वामी रामदास सत्राहवीं सदी के ऐसे ही आचार्य थे। गुरु गोविन्द सिंह ने पंजाब में सिक्खों द्वारा महान् शक्ति उत्पन्न की, स्वामी रामदास ने शिवाजी और महाराष्ट्र जाति की रगों में बिजली दौड़ा दी। इस दृष्टि से दशम ग्रन्थ की उपयोगिता कितनी है, इसका अनुभव हिन्दी-भाषा-भाषी विद्वान स्वयं उस ग्रन्थ को पढ़कर कर सकते हैं।

इस सत्राहवीं शताब्दी में एक प्रेम-मार्गी कवि नेवाज भी हो गये हैं। कहा जाता है कि ये जाति के ब्राह्मण थे और छत्रासाल के दरबार में रहते थे। ये थे बड़े रसिक हृदय। जहाँ गोरेलाल पुरोहित वीर रस की रचनाएँ कर महाराज छत्रासाल में ओज भरते रहते थे, वहाँ ये शृंगाररस की रचनाएँ कर उन्हें रिझाते रहते थे। नेवाज नाम के तीन कवि हो गये हैं। इन तीनों की रचनाएँ मिलजुल गई हैं। किन्तु सरसता अधिक इन्हीं की रचना में मानी गई है। इनका नेवाज नाम भ्रामक है। क्योंकि एक ब्राह्मण ने कविता में अपना नाम 'नेवाज' रक्खा, इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता। छत्रासाल ऐसे भाव सम्पन्न राजा के यहाँ रहकर भी उनका नेवाज नाम से परिचत होना कम आश्चर्य-जनक नहीं। जो हो, परन्तु हिन्दी संसार में जितने प्रेमोन्मत्ता कवि हुए हैं उनमें एक यह भी हैं। इनकी रचना की मधुरता और भावमयता की सभी ने प्रशंसा की है। इनकी भाषा सरस ब्रजभाषा है। बुन्देलखंड में रहकर भी वे इतनी प्रा)ल ब्रजभाषा लिख सके, यह उनके भाषाधिकार को प्रकट करता है। उनके दो पद्य देखिए-

1. देखि हमैं सब आपुस में जो

कछू मन भावै सोई कहती हैं।

ए घरहाई लुगाई सबै निसि

द्यौस नेवाज हमें दहती हैं।

बातें चबाव भरी सुनि कै

रिसि आवत पै चुप ह्नैं रहती हैं।

कान्ह पियारे तिहारे लिये

सिगरे ब्रज को हँसिबो सहती हैं।

2. आगे तो कीन्हीं लगा लगी लोयन

कैसे छिपै अजहूँ जो छिपावत।

तू अनुराग कौ सोधा कियो

ब्रज की बनिता सब यों ठहरावत।

कौन सकोच रह्यो है नेवाज

जौ तू तरसै उनहूँ तरसावत।

बावरी जो पै कलंक लग्यो तो

निसंक ह्नै क्यों नहीं अंक लगावत।

(2)

अठारहवीं शताब्दी प्रारम्भ करने के साथ सबसे पहले हमारी दृष्टि महाकवि देवदत्ता पर पड़ती है। जिस दृष्टि से देखा जाय इनके महाकवि होने में संदेह नहीं। कहा जाता है, इन्होंने बहत्तार ग्रन्थों की रचना की। हिन्दी-भाषा के कवियों में इतने ग्रन्थों की रचना और किसी ने भी की है, इसमें सन्देह है। इनके महत्तव और गौरव को देखकर ब्राह्मण जाति के दो विभागों में अब तक द्वंद्व चल रहा है। कुछ लोग सनाढय कहकर इन्हें अपनी ओर खींचते हैं और कोई कान्यकुब्ज कहकर इन्हें अपना बनाता है। पंडित शालग्राम शास्त्री ने, थोड़े दिन हुए, 'माधुरी' में एक लम्बा लेख लिखकर यह प्रतिपादित किया है कि महाकवि देव सनाढय थे। मैं इस विवाद को अच्छा नहीं समझता। वे जो हों, किन्तु हैं, ब्राह्मण जाति के और ब्राह्मण जाति के भी न हों तो देखना यह है कि साहित्य में उनका क्या स्थान है। मेरा विचार है कि सब बातों पर दृष्टि रखकर यह कहना पड़ेगा कि ब्रजभाषा का मुख उज्ज्वल करने वाले जितने महाकवि हुए हैं, उन्हीं में एक आप भी हैं। एक दो विषयों में कवि कर्म्म करके सफलता लाभ करना उतना प्रशंसनीय नहीं, जितना अनेक विषयों पर समभाव से लेखनी चलाकर साहित्य-क्षेत्र में कीर्ति अर्जन करना। वे रीति ग्रंथ के आचार्य ही नहीं थे और उन्होंने काव्य के दसों अंगों पर लेखनी चलाकर ही प्रतिष्ठा नहीं लाभ की, वेदान्त के विषयों पर भी बहुत कुछ लिखकर वे सर्वदेशीय ज्ञान का परिचय प्रदान कर सके हैं। इस विषय पर उनकी 'ब्रह्मदर्शन-पचीसी', 'तत्तवदर्शन पचीसी' आत्म-दर्शन पचीसी' और 'जगत दर्शन पचीसी' आदि कई अच्छी रचनाएँ हैं। उनके 'नीति शतक', 'रागरत्नाकर', 'जातिविलास', 'वृक्ष विलास' आदि ग्रंथ भी अन्य विषयों के हैं और इनमें भी उन्होंने अच्छी सहृदयता और भावुकता का परिचय दिया है। उनका 'देव प्रपंच माया' नाटक भी विचित्रा है। इसमें भी उनका कविकर्म विशेष गौरव रखता है। शृंगाररस का क्या पूछना! उसके तो वे प्रसिध्दि-प्राप्त आचार्य हैं, मेरा विचार है कि इस विषय में आचार्य केशवदास के बाद उन्हीं का स्थान है। उनकी रचनाओं में रीति ग्रंथों के अतिरिक्त एक प्रबन्धा काव्य भी है जिसका नाम 'देव-चरित्रा' है, उसमें उन्होंने भगवान कृष्ण चन्द्र का चरित्रा वर्णन किया है। 'प्रेम-चंद्रिका' भी उनका एक अनूठा ग्रंथ है, उसमें उन्होंने स्वतंत्रा रूप से प्रेम के विषय में अनूठी रचनाएँ की हैं। कवि-कर्म क्या है। भाषा और भावों पर अधिकार होना और प्रत्येक विषयों का यथातथ्य चित्राण कर देना। देवजी दोनों बातों में दक्ष थे। सत्राहवीं और अठारहवीं शताब्दी में यह देखा जाता है कि उस समय जितने बड़े-बड़े कवि हुए उनमें से अधिकांश किसी राजा-महाराजा अथवा अन्य प्रसिध्द लक्ष्मी-पात्रा के आश्रय में रहे। इस कारण उनकी प्रशंसा में भी उनको बहुत-सी रचनाएँ करनी पड़ीं। कुछ लोगा की यह सम्मति है कि ऐसे कवि अथवा महाकवियों से उच्च कोटि की रचनाओं और सच्ची भावमय कविताओं के रचे जाने की आशा करना विडम्बना मात्रा है। क्योंकि ऐसे लोगों के हृदय में उच्छ्वासमय उच्च भाव उत्पन्न हो ही नहीं सकते, जो एक आत्मनिर्भर, स्वतंत्रा अथच मनस्वी कवि अथवा महाकवि में स्वभावत: उद्भूत होते हैं। उन्मुक्त कवि कर्म ही कवि कर्म है, जिसका कार्य चित्ता का स्वतंत्रा उद्गार है। जो हृदय किसी की चापलूसी अथवा तोषामोद में निरत है और अपने आश्रयदाता के इच्छानुसार कविता करने के लिए विवश है, या उसकी उचित अनुचित प्रशंसा करने में व्यस्त है, वह कवि उस रत्न को कैसे प्राप्त कर सकता है जो स्वभावतया तरंगायमान मानस-उदधि से प्राप्त होते हैं। मेरा विचार है, इस कथन में सत्यता है। परन्तु इससे इस परिणाम पर नहीं पहुँचा जा सकता कि कोई कवि किसी के आश्रित रहकर सत्कवि या महाकवि हो ही नहीं सकता। क्योंकि प्रथम तो कवि स्वाधीनता प्रिय होता है, दूसरी बात यह कि कवि का अधिकतर सम्बन्धा प्रतिभा से है। इसलिए किसी का आश्रित होना उसके कवित्व गुण का बाधक नहीं हो सकता। किसी आत्म-विक्रयी की बात और है। हाँ, बंधान-रहित किसी स्वतंत्रा कवि का महत्तव उससे अधिक है, यह बात निस्संकोच भाव से स्वीकार की जा सकती है। कविवर देवदत्ता में जो विलक्षण प्रतिभा विकसित दृष्टिगत होती है, उसका मुख्य कारण यही है कि वे स्वतंत्रा प्रकृति के मनुष्य थे, जिससे वे किसी के आश्रय में चिरकाल तक न रह सके। जिस दरबार में गये, उसमें अधिक दिन ठहरना उन्हें पसंद नहीं आया। मालूम होता है कि बंधान उनको प्रिय नहीं था। मैं समझता हूँ इससे हिन्दी-साहित्य को लाभ ही हुआ। क्योंकि उनके उन्मुक्त जीवन ने उनसे अधिकतर ऐसी रचनाएँ करायीं जो सर्वथा स्वतंत्रा कही जा सकती हैं। प्रत्येक भाषा के साहित्य के लिए ऐसी रचनाएँ ही अधिक अपेक्षित होती हैं, क्योंकि उनमें वे उन्मुक्त धाराएँ बहती मिलती हैं जो पराधीनता एवं स्वार्थपरता दोष से मलिन नहीं होतीं। कविवर देवदत्ता की रचनाओं का जो अंश इस ढंग से ढला हुआ है, वही अधिक प्रशंसनीय है और उसी ने उनको हिन्दी-साहित्य में वह उच्च स्थान प्रदान किया है, जिसके अधिकारी हिन्दी-संसार के इने-गिने कवि-पुंगव ही हैं। मिश्र-बंधुओं ने अपने ग्रंथ में देवजी के सम्बन्धा में निम्नलिखित कवित्ता लिखाहै-

सूर सूर तुलसी सुधाकर नच्छत्रा केसो ,

सेस कविराजन कौ जुगुनू गनाय कै।

कोऊ परिपूरन भगति दिखरायो अब ,

काव्यरीति मोसन सुनहु चित लाय कै।

देव नभ मंडल समान है कबीन मधय ,

जामैं भानु सितभानु तारागन आय कै।

उदै होत अथवत चारों ओर भ्रमत पै ,

जाको ओर छोर नहिं परत लखाय कै।

इससे अधिक लोग सहमत नहीं हैं, इस पद्य ने कुछ काल तक हिन्दी-संसार में एक अवांछित आंदोलन खड़ा कर दिया था। कोई कोई इस रचना को अधिक रंजित समझते हैं। परन्तु मैं इसको विवाद-योग्य नहीं समझता। प्रत्येक मनुष्य अपने विचार के लिए स्वतंत्रा है। जिसने इस कवित्ता की रचना की उसका विचार देव जी के विषय में ऐसा ही था। यदि अपने भाव को उसने प्रकट किया तो उसको ऐसा करने का अधिकार था। चाहे कुछ लोग उसको वक्रदृष्टि से देखें, परन्तु मेरा विचार यह है कि यह कवित्ता केवल इतना ही प्रकट करता है कि देव जी के विषय में हिन्दी संसार के किसी-किसी विदग्धा जन का क्या विचार है। मैं इस कवित्ता के भाव को इसी कोटि में ग्रहण करता हूँ और उससे यही परिणाम निकालता हूँ कि देव जी हिन्दी-साहित्य क्षेत्र में एक विशेष स्थान के अधिकारी हैं। कोई भाषा समुन्नत होकर कितनी प्रौढ़ता प्राप्त करती है, देव जी की भाषा इसका प्रमाण है। उनका कथन है-

कविता कामिनि सुखद पद , सुबरन सरस सुजाति।

अलंकार पहिरे बिसद , अद्भुत रूप लखाति।

मैं देखता हूँ कि उनकी रचना में उनके इस कथन का पूर्ण विकास है। जितनी बातें इस दोहे में हैं, वे सब उनकी कविता में पायी जाती हैं।

उनकी अधिकतर रचनाएँ कवित्ता और सवैया में हैं। उनके कवित्ताों में जितना प्रबल प्रवाह, ओज, अनुप्रास और यमक की छटा है, वह विलक्षण है। सवैयों में यह बात नहीं है, परन्तु उनमें सरसता और मधुरता छलकती मिलती है। दो प्रकार के कवि या महाकवि देखे जाते हैं, एक की रचना प्रसादमयी और दूसरे की गम्भीर, गहन विचारमयी और गूढ़ होती है। इन दोनों गुणों का किसी एक कवि में होना कम देखा जाता है, देव जी में दोनों बातें पाई जाती हैं और यह उनकी उल्लेखनीय विशेषता है। मानसिक भावों के चित्राण में, कविता का संगीतमय बनाने में, भावानुकूल शब्द-विन्यास में, भावानुसार शब्दों में धवनि उत्पन्न करने में और कविता को व्यंजनामय बना देने में महाकवियों की-सी शक्ति देव जी में पायी जाती है।

प्राय: ऐसे अवसर पर लोग तुलनात्मक समालोचना को पसन्द करते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि ऐसा करने से एक दूसरे का उत्कर्ष दिखाने में बहुत बड़ी सहायता प्राप्त होती है। परन्तु ऐसी अवस्था में, निर्णय के लिए दोनों कवियों की समस्त रचनाओं की आलोचना होना आवश्यक है। यह नहीं कि एक-दूसरे के कुछ समान भाव के थोड़े से पद्यों को लेकर समालोचना की जाय और उसी के आधार पर एक से दूसरे को छोटा या बड़ा बना दिया जाय। यह एकदेशिता है। कोई कवि दस विषयों को लिखकर सफलता पाता है और कोई दो-चार विषयों को लिखकर ही कृतकार्य होता है। ऐसी अवस्था में उन दोनों के कतिपय विषयों को लेकर ही तुलनात्मक समालोचना करना समुचित नहीं। समालोचना के समय यह भी विचारना चाहिए कि उनकी रचना में लोक-मंगल की कामना और उपयोगिता कितनी है। उसका काव्य कौन-सा संदेश देता है, और उसकी उपयुक्तता किस कोटि की है। बिना इन सब बातों पर विचार किये कुछ थोड़े-से पद्यों को लेकर किसी का महत्तव प्रतिपादन युक्तिसंगत नहीं। अतएव मैं यह मीमांसा करने के लिए प्रस्तुत नहीं हूँ कि जो हिन्दी-संसार के महाकवि हैं उनमें से किससे देव बड़े हैं और किससे छोटे। प्रत्येक विषय में प्रत्येक को महत्तव प्राप्त नहीं होता, और न सभी विषयों में सबको उत्कर्ष मिलता। अपने-अपने स्थान पर सब आदरणीय हैं, और भगवती वीणा-पाणि के सभी वर पुत्र हैं। कविवर सूरदास और गोस्वामी तुलसीदास क्षणजन्मा पुरुष हैं, उनको वह उच्चपद प्राप्त है जिसके विषय में किसी को तर्क-वितर्क नहीं। इसलिए मैंने जो कुछ इस समय कथन किया है, उससे उनका कोई सम्बन्धा नहीं।

अब मैं आप लोगों के सामने देव जी की कुछ रचनाएँ उपस्थित करता हूँ। आप उनका अवलोकन करें और यह विचारें कि उनकी कविता किस कोटि की है और उसमें कितना कवि-कर्म है-

1. पाँयन नूपुर मंजु बजैं कटि

किंकिनि मैं धुनि की मधुराई।

साँवरे अंग लसै पटपीत हिये

हुलसै बनमाल सुहाई।

माथे किरीट बड़े दृग चंचल

मंद हँसी मुखचन्द जुन्हाई।

जै जग मंदिर दीपक सुन्दर

श्री ब्रज दूलह देव सहाई।

2. देव जू जो चित चाहिए नाह

तो नेह निबाहि ये देह हरयो परै।

जौ समझाइ सुझाइए राह

अमारग मैं पग धोखे धारयो परै।

नीकै मैं फीकै ह्नै ऑंसू भरो कत

ऊँचे उसास गरो क्यों भरयो परै।

रावरो रूप पियो ऍंखियान भरोसो

भरयो उबरयो सो ढरयो परै।

3. भेष भये विष भाव ते भूषन

भूख न भोजन की कछु ईछी।

मीचु की साधा न सोंधो की साधा

न दूधा सुधा दधि माखन छी छी।

चंदन तौ चितयो नहि जात

चुभी चित माहिं चितौन तिरीछी।

फूल ज्यों सूल सिला सम सेज

बिछौनन बीच बिछी जनु बीछी।

4. प्रेम पयोधि परे गहिरे अभिमान

को फेन रह्यो गहि रे मन।

कोप तरंगिनि सों बहिरे पछिताय

पुकारत क्यों बहिरे मन।

देव जू लाज-जहाज ते कूदि

रह्यो मुख मूँदि अजौं रहि रे मन।

जोरत तोरत प्रीति तुही अब

तेरी अनीति तुही सहि रे मन।

5. आवत आयु को द्योस अथोत

गये रवि त्यों ऍंधियारियै ऐहै।

दाम खरे दै खरीद करौ गुरु

मोह की गोनी न फेरि बिकैहै।

देव छितीस की छाप बिना

जमराज जगाती महादुख दैहै।

जात उठी पुर देह की पैठ अरे

बनिये बनियै नहिं रैहै।

6. ऐसो जो हौं जानतो कि जै है तू विषै के संग

एरे मन मेरे हाथ पाँव तेरे तोरतो।

आजु लौं हौं कत नरनाहन की नाहीं सुनि

नेह सों निहारि हेरि बदन निहोरतो।

चलन न देतो देव चंचल अचल करि

चाबुक चितावनीन मारि मुँह मोरतो।

भारो प्रेम पाथर नगारो दै गरे सों बाँधि

राधाबर बिरद के बारिधि में बोरतो।

7. गुरु जन जावन मिल्यो न भयो दृढ़ दधि

मथ्यो न विवेक रई देव जो बनायगो।

माखन मुकुति कहाँ छाडयो न भुगुति जहाँ

नेहबिनु सगरो सवाद खेह नायगो।

बिलखत बच्यो मूल कच्यो सच्यो लोभ भाँड़े

नच्यो कोप ऑंच पच्यो मदन छिनायगो।

पायो न सिरावनि सलिल छिमा छींटन सों

दूधा सो जनम बिनु जाने उफनायगो।

8. कथा मैं न कंथा मैं न तीरथ के पंथा मैं न

पोथी मैं न पाथ मैं न साथ की बसीती मैं।

जटा मैं न मुंडन न तिलक त्रिपुंडन न

नदी कूप कुंडन अन्हान दान रीति मैं।

पीठ मठ मंडल न कुंडलकमंडल न

मालादंड मैं न देव देहरे की भीति मैं।

आपुही अपार पारावार प्रभु पूरि रह्यो

पाइए प्रगट परमेसर प्रतीति मैं।

9. संपति में ऐंठि बैठे चौतरा अदालति के

बिपति में पैन्हि बैठे पाँय झुनझुनियाँ।

जे तो सुख-संपति तितोई दुख बिपती मैं

संपति मैं मिरजा विपति परे धुनियाँ।

संपति ते बिपति बिपति हूँ ते सपंति है

संपति औ बिपति बराबरि कै गुनियाँ।

संपति मैं काँय काँय बिपति में भाँय-भाँय

काँय काँय भाँय भाँय देखी सब दुनियाँ।

10. आई बरसाने ते बुलाई वृषभानु सुता

निरखि प्रभानि प्रभा भानुकी अथै गयी।

चक चकवान के चकाये चक चोटन सों

चौंकत चकोर चकचौंधी-सी चकै गयी।

देव नन्द नन्दन के नैनन अनन्दुमयी

नन्द जु के मंदिरनि चंदमयी छै गयी।

कंजन कलिनमयी कुंजन नलिन मयी

गोकुल की गलिन अनलिमयी कै गयी।

11. औचक अगाधा सिंधु स्याही को उमड़ि आयो।

तामैं तीनों लोक बूड़ि गये एक संग मैं।

कारे कारे आखर लिखे जू कारे कागर

सुन्यारे करि बाँचै कौन जाँचे चित भंग मैं।

ऑंखिन मैं तिमिर अमावस की रैनि जिमि

जम्बु जल बुंद जमुना जल तरंग मैं।

यों ही मन मेरो मेरे काम को न रह्यो माई

स्याम र ú ह्नै करि समायो स्याम र ú मैं।

12. रीझि रीझि रहसि रहसि हँसि हँसि उठै

साँसै भरि ऑंसू भरि कहति दई दई।

चौंकि चौंकि चकि चकि उचकि उचकि देव

जकि जकि बकि बकि परति बई बई।

दुहुँन कौ रूप गुन दोउ बरनत फिरैं

घर न थिराति रीति नेह की नई नई।

मोहि मोहि मन भयो मोहन को राधिका मैं

राधिका हूँ मोहि मोहि मोहनमयी भई।

13. जब ते कुँवर कान्ह रावरी कलानिधान

कान परी वाके कहूँ सुजस-कहानी सी।

तब ही ते देव देखी देवता सी हँसति-सी

खीझति-सी रीझति-सी रूसति रिसानी-सी।

छोही सी छली सी छीनि लीनी सी छकी सी छिन

जकी सी टकी सी लगी थकी थकरानी सी।

बीधी सी बिधी सी बिष बूड़ी सी बिमोहित सी

बैठी बाल बकति बिलोकति बिकानी सी।

14. देखे अनदेखे दुख-दानि भये सुख-दानि

सूखत न ऑंसू सुख सोइबो हरे परो।

पानि पान भोजन सुजन गुरुजन भूले

देव दुरजन लोग लरत खरे परो।

लागो कौन पाप पल ऐकौ न परति कल

दूरि गयो गेह नयो नेह नियरे परो।

हो तो जो अजान तौ न जानतो इतीकु बिथा

मेरे जिये जान तेरो जानिबो गरे परो।

15. तेरो कह्यो करिकरि जीव रह्यो जरि जरि

हारी पाँय परि परि तऊ तैं न की सम्हार।

ललन बिलोके देव पल न लगाये तब

यो कल न दीनी तैं छलन उछलनहार।

ऐसे निरमोही सों सनेह बाँधि हौं बँधाई

आपु बिधि बूडयो माँझ वाधा सिंधु निरधार।

एरे मन मेरे तैं घनेरे दुख दीने अब

ए केवार दैकै तोहिं मूँदि मारौं एक बार।

देव की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है और उनकी लेखनी ने उसमें साहित्यिकता की पराकाष्ठा दिखलाई है। उनकी रचनाओं में शब्द-लालित्य नर्तन करता दृष्टिगत होता है और अनुप्रास इस सरसता से आते हैं कि अलंकारों को भी अलंकृत करते जान पड़ते हैं; यह मैं स्वीकार करूँगा कि उन्होंने कहीं-कहीं अनुप्रास, यमक आदि के लोभ में पड़कर ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है जो गढ़े अथवा तोड़े-मरोड़े जान पड़ते हैं। परन्तु वे बहुत अल्प हैं और उनकी मनोहर रचना में आकर मनोहरता ही ग्रहण करते हैं, अमनोहर नहीं बनते। ब्रजभाषा के जितने नियम हैं उनका पालन तो उन्होंने किया ही है, प्रत्युत उसमें एक ऐसी सरस धारा भी बहा दी है जो बहुत ही मुग्धाकारी है और जिसका अनुकरण बाद के कवियों ने अधिकतर किया है। उनकी रचनाओं में अन्य प्रान्तों के भी शब्द मिल जाते हैं, इसका कारण उनका देशाटन है। परन्तु वे उनमें ऐसे बैठा ले मिलते हैं जैसे किसी सुन्दर स्वर्णाभरण में कोई नग। इसमें कोई सन्देह नहीं कि कविवर देवदत्ता महाकवि थे और उनकी रचनाओं में अधिकांश महाकवि की-सी महत्ताएँ मौजूद हैं।

इस शताब्दी में देव के अतिरिक्त भिखारीदास, श्रीपति, कवीन्द्र, गुमान मिश्र, रघुनाथ, दूलह, तोष और रसलीन ये आठ प्रधान रीति ग्रन्थकार हुए हैं। वे सब ब्रजभाषा के कवि हैं, परन्तु प्रत्येक में कुछ न कुछ विशेषता है। इसलिए मैं प्रत्येक के विषय में कुछ लिख देना चाहता हूँ। मैं इस उद्देश्य से ऐसा करता हूँ कि जिससे ब्रजभाषा की परम्परा का यथार्थ और पूर्ण ज्ञान हो सके।

(1)

भिखारीदास जी गणना हिन्दी-संसार के प्रतिष्ठित रीति ग्रन्थकारों में है। उन्होंने भी काव्य के सब अंगों पर ग्रन्थ लिखे हैं और प्रत्येक विषयों का विवेचन पांडित्य के साथ किया है। कुछ नई उद्भावनाएँ भी की हैं। परन्तु ये सब बातें संस्कृत काव्य-प्रकाश आदि ग्रन्थों पर ही अवलम्बित हैं। हाँ, हिन्दी-साहित्य-क्षेत्र में उनकी चर्चा करने का श्रेय उन्हें अवश्य प्राप्त है। अब तक इनके नौ ग्रन्थों का पता लग चुका है जिनमें काव्य-निण्र्य और शृंगार-निर्णय विशेष प्रसिध्द हैं। ये श्रीवास्तव कायस्थ थे और प्रतापगढ़ के सोमवंशी राजा पृथ्वीपति सिंह के भाई बाबू हिन्दूपति सिंह के आश्रय में रहते थे, इनकी कृति में वह ओज और माधुर्य नहीं है जैसा देवजी की रचनाओं में है, परन्तु प्रांजलता उनसे इनमें अधिक है। जैसा शब्द-संगठन देवजी की कृति में है वह इनको प्राप्त नहीं, परन्तु इनकी भाषा अवश्य परिमार्जित है। इनके ग्रन्थ की मुख्य भाषा ब्रजभाषा है, और उस पर इनका पूर्ण अधिकार है। किन्तु प्रौढ़ता होने पर भी अनेक स्थानों पर इनकी रचना शिथिल है। ये कविता में विविधा प्रकार की भाषा के शब्दों के ग्रहण के पक्षपाती थे। जैसा इनके दोहों से प्रकट है-

तुलसी गंग दुवौ भये सुकविन के सरदार।

इनकी रचना में मिली भाषा विविध प्रकार

ब्रजभाषा भाषा रुचिर कहै सुमति सब कोय।

मिलै संस्कृत पारसिंहुँ पै अति प्रगट जु होय

यही कारण है कि इनकी रचना में ऐसे शब्द भी मिल जाते हैं जो ब्रजभाषा के नहीं कहे जा सकते। ये अवधा प्रान्त के रहने वाले थे। इसलिए इन्होंने इच्छानुसार अवधी भाषा के शब्दों का भी प्रयोग किया है। फिर भी इनकी भाषा असंयत नहीं है और एक प्रकार की नियमबध्दता उसमें पाई जाती है। इनका 'काव्य निर्णय' नामक ग्रंथ साहित्य सेवियों में आदर की दृष्टि से देखा जाता है। मैं इनकी कुछ रचनाएँ नीचे लिखता हूँ। इनके द्वारा आप इनकी कविता-गत विशेषताओं को बहुत कुछ जान सकेंगे।

1. सुजस जनावै भगतन ही सों प्रेम करै

चित अति ऊजड़े भजत हरि नाम हैं।

दीन के न दुख देखै आपनो न सुख लेखै

विप्र पाप रत तन मैन मोहै धाम हैं।

जग पर जाहिर है धारम निबाहि रहै

देव दरसन ते लहत बिसराम हैं।

दास जू गनाये जे असज्जन के काम हैं

समुझि देखो येई सब सज्जन के काम हैं।

2. कढ़ि कै निसंक पैठि जात झुंड झुंडन मैं

लोगन को देखि दास आनँद पगति है।

दौरि दौरि जहीं तहीं लाल करि डारति है

अ( लगि कंठ लगिबे को उमगति है।

चमक झमकवारी ठमक जमक वारी

रमक तमकवारी जाहिर जगति है।

राम असि रावरे की रन मैं नरन मैं

निलज बनिता सी होरी खेलन लगति है।

3. नैनन को तरसैये कहाँ लौं कहाँ

लौं हियो बिरहागि मैं तैये।

एक घरी न कहूँ कल पैये कहाँ

लगि प्रानन को कलपैये।

आवै यही अब जी में विचार

सखी चलि सौतिहुँ के घर जैये।

मान घटे ते कहा घटिहै जुपै

प्रान प्रियारे को देखन पैये।

4. दृग नासा न तौ तप जाल खगी

न सुगन्धा सनेह के ख्याल खगी।

श्रुति जीहा विरागै न रागै पगी

मति रामै रँगी औ न कामै रँगी।

तप में ब्रत नेम न पूरन प्रेम न

भूति जगी न विभूति जगी।

जग जन्म बृथा तिनको जिनके

गरे सेली लगी न नवेली लगी।

5. कंज संकोच गड़े रहे कीच मैं

मीनन बोरि दियो दह नीरन।

दास कहै मृग हूँ को उदास कै

बास दियो है अरन्य गँभीरन।

आपुस मैं उपमा उपमेय ह्नै

नैन ये निंदित हैं कवि धीरन।

खंजन हूँ को उड़ाय दियो हलुके

करि डारयो अन ú के तीरन।

आप लोगों ने मतिराम के सीधो-सादे शब्द-विन्यास देखे हैं। वे न तो अनुप्रास लाने की चेष्टा करते हैं और न अलंकार पर उनकी अधिक दृष्टि है। फिर भी वैदर्भी रीति ग्रहण करके उन्होंने बड़ी सरस रचना की है। यही बात दासजी के विषय में भी कही जा सकती है। परन्तु मतिराम के शब्दों में जितना कल्लोल है, जितना संगीत है, जितना मनमोहिनी शक्ति है, उतनी दासजी की रचना में नहीं पाई जाती। उनके कोई-कोई पद्य इस प्रकार के हैं। परन्तु मतिराम के अधिकांश पद्य ऐसे ही हैं। दासजी ने श्रीपतिजी के भावों का अधिकतर अपहरण किया है और उनकी प्रणाली को ग्रहण कर अपने पद्यों में जीवन डाला है। परन्तु श्रीपति की शब्द-माला में जो मंजुलता मिलती है, दास जी में नहीं पाई जाती। फिर भी उनकी रचना कवि-कर्म से रहित नहीं है। उन्होंने 'विष्णु-पुराण' का भी अनुवाद किया है और अमरकोश का भी, जिससे पाया जाता है कि उनका संस्कृत का ज्ञान भी अच्छा था। विष्ण्ु-पुराण की रचना उतनी सरस और सुन्दर नहीं है। जितनी शृंगार-निर्णय अथवा काव्य-निर्णय की। फिर भी उसमें कवितागत सौन्दर्य है। हाँ, शिथिलता अवश्य अधिक है। दास जी का काव्य-शास्त्रा का ज्ञान उल्लेखनीय है। इसी शक्ति से उन्होंने काव्य-रचना में अपनी यथेष्ट योग्यता दिखलाई है। रीति-ग्रन्थ के जितने आचार्य हिन्दी साहित्य में हैं उनमें इनका भी आदरणीय स्थान है।

(2)

भाव-सौन्दर्य-सम्पादन और सुगठित शब्द-विन्यास करने में इस शताब्दी में देव जी के बाद श्रीपति का ही स्थान है। देवजी की रचना में कहीं-कहीं इतनी गम्भीरता है कि उसका भाव स्पष्ट करने के लिए अधिक मनोनिवेश की आवश्यकता होती है। किन्तु श्रीपतिजी की रचनाओं में यह बात नहीं पाई जाती। वह चाँदनी के समान सुविकसित है और मालती के समान प्रफुल्ल। जैसी चाँदनी सुधामई है, वैसी ही वह भी सरस है। जैसी मालती की सुरभि मुग्धाकारी है वैसी ही वह भी विमोहक है। श्रीपति जी कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे, उनका निवास स्थान कालपी में था। उनकी विशेषता यह है कि उनका स्वच्छन्द जीवन था और हृदय के स्वाभाविक उल्लास से वे कविता करते थे। इसलिए उनकी रचना भी उल्लासमयी है। सलिल का वह निर्मुक्त प्रवाह जो अपनी स्वतंत्रा गति से प्रवाहित होता रहता है, जैसा होता है, वैसा ही उनकी स्वत: प्रवाहिनी कविता भी है। उनका 'काव्य-सरोज' नामक ग्रंथ साहित्य-क्षेत्र में उच्च स्थान रखता है। दोषों का जैसा विशद वर्णन समालोचनात्मक दृष्टि से उन्होंने किया है वैसा उनके पहले का कोई कवि अथवा महाकवि नहीं कर सका। दोषों का इतना सूक्ष्म विवेचन उन्होंने किया है कि महाकवि केशवदास की उच्चतम रचनाएँ भी उनकी दोषदर्शक दृष्टि से न बच सकीं। इस ग्रंथ के अतिरिक्त उनके छ: ग्रन्थ और हैं जिनमें'कवि-कल्पद्रुम', 'रससागर', 'अनुप्रास-विनोद' और 'अलंकार-गंगा' विशेष उल्लेखनीय हैं। उन्होंने भी काव्य के सब अंगों का वर्णन किया है और वह भी इस शैली से, जो विशदता और विद्वत्ता से पूर्ण है, सेनापति के समान उन्होंने भी ऋतुओं का वर्णन बड़ी भावुकता के साथ किया है। परन्तु यह मैं कहूँगा कि उनके वर्णन में सरसता अधिक है उनका वर्षा का वर्णन बहुत ही हृदयग्राही है। एक विशेषता उनमें और पाई जाती है। वह यह कि उन्होंने नैतिक रचनाएँ भी की हैं और उसमें अन्योक्ति के आधार अथवा भावमय व्यंजनाओं के अवलम्बन से ऐसी भावुकता भर दी है कि उनके द्वारा हृदय अधिकतर प्रभावित होता है और उसमें सत्प्रवृत्तिा जागृत होती है। उनके इस विषय के कोई, कोई कवित्ता बड़े ही अनूठे और उपयोगी हैं, जो एक आचरणशील उपदेशक का काम यथावसर कर देते हैं। उनकी कुछ रचनाएँ नीचे लिखी जाती हैं-

1. सारस के नादन को बाद ना सुनात कहूँ

नाहक ही बकवाद दादुर महा करै।

श्रीपति सुकबि जहाँ ओज ना सरोजन को

फूल ना फुलत जाहि चित दै चहा करै।

बकन की बानी की बिराजत है राजधानी

काई सो कलित पानी फेरत हहा करै।

घोंघन के जाल जामैं नरई सिवाल ब्याल

ऐसे पापी ताल को मराल लै कहा करै।

2. ताल फीको अजल कमल बिन जल फीको

कहत सकल कवि हवि फीको रूम को।

बिनु गुन रूप फीको , असर को कूप फीको

परम अनूप भूप फीको बिन भूम को।

श्रीपति सुकवि महा वेग बिनु तुरी फीको

जानत जहान सदा जोन्ह फीको धूम को।

मेंह फीको फागुन अबालक को गेह फीको

नेह फीको तिय को सनेह फीको सूम को।

3. तेल नीको तिल को फुलेल अजमेर ही को

साहब दलेल नीको सैल नीको चंद को।

विद्या को विवाद नीको राम गुन नाद नीको।

कोमल मधुर सदा स्वाद नीको कंद को।

गऊ नवनीत नीको ग्रीषम को सीत नीको

श्रीपति जू मीत नीको बिना फरफंद को।

जातरूप घट नीको रेसम को पट नीको

बंसीबट तट नीको नट नीको नंद को।

4. बेधा होत फूहर कलपतरु थूहर

परमहंस चूहर की होत परिपाटी को।

भूपति मँगैया होत कामधोनु गैया होत

चूवत मयंद गज चेरा होत चाटी को।

श्रीपति सुजान भनै बैरी निज बाप होत

पुन्न माहिं पाप होत साँप होत साटी को।

निर्धान कुबेर होत स्यार सम सेर होत

दिनन को फेर होत मेर होत माटी को।

5. जल भरै झूमैं मानो भूमैं परसत आय

दसहूँ दिसान घूमैं दामिनी लये लये।

धूरि धारधूमरे से धूम से धुँधारे कारे

धुरवान धारे धावैं छबि सों छये छये।

श्रीपति सुकवि कहै घोरि घोरि घहराहिं

तकत अतन तन ताप तैं तये तये।

लाल बिनु कैसे लाज चादर रहेगी आज

कादर करत मोहिं बादर नये नये।

6. हारि जात बारिजात मालती विदारि जात

वारिजात पारिजात सोधान मैं करी सी।

माखन सी मैन सी मुरारी मखमल सम

कोमल सरस तन फूलन की छरी सी।

गहगही गरुई गुराई गोरी गोरे गात

श्रीपति बिलौर सीसी ईंगुर सों भरी सी।

बिज्जु थिर धारी सी कनक-रेख करी सी

प्रवाल छबि हरी सी लसत लाल लरी सी।

7. भौंरन की भीर लैके दच्छिन समीर धीर

डोलत है मंद अब तुम धौं कितै रहे।

कहै कवि श्रीपति हो प्रबलबसंत

मति मंत मेरे कंत के सहायक जितै रहे।

जागहिं बिरह जुर जोर ते पवन ह्नै के

पर धूम भूमि पै सम्हारत नितै रहे।

रति को विलाप देखि करुना-अगार कछू

लोचन को मूंदि कै तिलोचन चितै रहे।

इनकी रचना में अनुप्रासों की कमी नहीं है, परन्तु अनुप्रास इस प्रकार से आये हैं कि शब्द-माला उनसे कंठगत पुष्पमाला समान सुसज्जित होती रहती है। वास्तव में ये ब्रजभाषा-साहित्य के आचार्य हैं और इनकी रचना भावरूपी भगवान शिव के शिर की मन्दार माला है। इनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है और उसमें उसकी समस्त विशेषताएँ पायी जाती हैं।

कवीन्द्र (उदयनाथ) कालिदास त्रिवेदी के पुत्र थे। इनका एक ग्रन्थ 'रस-चन्द्रोदय' नामक अधिक प्रसिध्द है। पिता के समान ये भी सरस हृदय थे। अपनी रचनाओं ही के कारण इनका कई राज-दरबारों में अच्छा आदर हुआ। इनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है और उसकी विशेषता यह है कि उसमें शृंगाररस का वर्णन उन्होंने बड़ी ही सरसता से किया है। उनके कुछ पद्य देखिए-

1. कैसी ही लगन जामैं लगन लगाई तुम

प्रेम की पगनि के परेखे हिये कसके।

केतिको छपाय के उपाय उपजाय प्यारे

तुम ते मिलाय के चढ़ाये चोप चसके।

भनत कबिंद हमैं कुंज मैं बुलाय करि

बसे कित जाय दुख दे कर अबस के।

पगन में छाले परे , नाँघिबे को नाले परे

तऊ लाल लाले परे रावरे दरस के।

2. छिति छमता की , परिमिति मृदुता की कैधों

ताकी है अनीति सौति जनता की देह की।

सत्य की सता है सीलतरु की लता है

रसता है कै विनीत पर नीत निज नेह की।

भनत कविंद सुर नर नाग नारिन की

सिच्छा है कि इच्छा रूप रच्छन अछेह की।

पतिव्रत पारावार वारी कमला है

साधुता की कै सिला है कै कला है कुलगेह की।

'तोष' का मुख्य नाम तोषनिधि है। ये जाति के ब्राह्मण और इलाहाबाद जिले के रहने वाले थे। 'सुधानिधि' नामक नायिका-भेद का एक प्रसिध्द ग्रन्थ इन्होंने रचा। यही इनका प्रधान ग्रन्थ है। 'विनय शतक' और 'नख-शिख' नामक और दो ग्रन्थ भी इनके बताये जाते हैं। तोष की गणना ब्रजभाषा के प्रधान कवियों में होती है। इनकी विशेषता यह है कि इनकी भाषा प्रौढ़ और भावमयी है। मिश्र बन्धुओं ने इनका एक काल ही माना है और उसके अन्तर्गत बहुत से कवियों को स्थान दिया है। उन्होंने इनकी रचना को कसौटी मानकर और कवियों की रचनाओं को उसी पर कसा है। इस प्रकार जो कविता उन्होंने प्रौढ़ और गम्भीर पायी उसे तोष की श्रेणी में लिखा। अन्य हिन्दी-साहित्य का इतिहास लिखने वालों ने भी तोष को आदर्श कवि माना है। इनमें यह विशेषता अवश्य है कि इन्होंने अपनी रचनाओं में शिथिलता नहीं आने दी, और भाषा भी ऐसी लिखी जो टकसाली कही जा सकती है। उनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है और अधिकांश निर्दोष है। उनके कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं।

1. भूषन भूषित दूषन हीन

प्रवीन महारस मैं छवि छाई।

पूरी अनेक पदारथ तें जेहि

में परमारथ स्वारथ पाई।

औ उकतैं मुकतैं उलही कवि

तोष अनोखी भरी चतुराई।

होति सबै सुख की जनिता बनि

आवत जो बनिता कविताई।

2. श्रीहरि की छबि देखिबे को अखियाँ

प्रति रोमन में करि देतो।

बैनन के सुनिबे कहँ श्रौन

जितै चित तू करतो करि हेतो।

मो ढिग छोड़न काम कछू कहि

तोष यहै लिखतो बिधि ऐतो।

तौ करतार इती करनी करि कै।

कलि मैं कल कीरति लेतो।

रघुनाथ वन्दीजन महाराज काशिराज बरिवंड सिंह के राजकवि थे। उन्होंने इनको काशी के सन्निकट चौरा नामक एक ग्राम ही दे दिया था। रघुनाथ ने 'रसिक मोहन', 'काव्य कलाधार' और 'इश्क-महोत्सव' नामक ग्रन्थों की रचना की है और बिहारी सतसई की टीका भी बनाई है। इनकी विशेषता यह है कि इन्होंने खड़ी बोलचाल में भी कुछ कविता की है। इनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। इनके कुछ पद्य देखिए-

1. ग्वाल संग जैबो ब्रजगायन चरैबो ऐबो

अब कहा दाहिने ये नैन फरकत हैं।

मोतिन की माल वारि डारौं गुंज माल पर

कुंजन की सुधि आये हियो दरकत है।

गोबर को गारो रघुनाथ कछू याते भारो

कहा भयो पहलनि मनि मरकत है।

मंदिर हैं मदर ते ऊँचे मेरे द्वारिका के

ब्रज के खरक तऊ हिये खरकत है।

2. फूलि उठे कमल से अमल हितू के नैन

कहै रघुनाथ भरे चैन-रस सियरे।

दौरि आये भौंर से करत गुनी गान

सिध्दि से सुजान सुखसागर सों नियरे।

सुरभि सी खुलन सुकवि की सुमति लागी

चिरिया सी जागी चिन्ता जनक के जियरे।

धानुष पै ठाढ़े राम रवि से लसत आजु

भोर के से नखत नरिंद भये पियरे।

3. सूखति जात सुनी जब सों

कछु खात न पीवत कैसे धौं रैहै।

जाकी है ऐसी दसा अबहीं

रघुनाथ सो औधि अधार क्यों पैंहै।

ताते न कीजिये गौन बलाय

ल्यों गौन करे यह सीस बिसैहै।

जानत हौ दृग ओट भये तिय

प्रान उसासहिं के सँग जैंहै।

4. देखिबे को दूति पूनो के चंद की

हे रघुनाथ श्रीराधिका रानी।

आई बुलाय कै चौतरा ऊपर

ठाढ़ी भई सुख सौरभ सानी।

ऐसी गयी मिलि जोन्ह की जोत

मैं रूप की रासि न जाति बखानी।

बारन ते कछु भौंहन ते कछु

नैनन की छबि ते पहिचानी।

एक खड़ी बोली की रचना देखिए-

5. आप दरियाव पास नदियों के जाना नहीं

दरियाव पास नदी होयगी सो धावैगी।

दरखत बेलि आसरे को कभी राखत ना

दरखत ही के आसरे को बेलि पावैगी।

लायक हमारे जो था कहना सो कहा मैंने

रघुनाथ मेरी मति न्याव ही को गावैगी।

वह मुहताज आपकी है आप उसके न

आप कैसे चलो वह आप पास आवैगी।

गुमान मिश्र इसलिए प्रसिध्द हैं कि उन्होंने संस्कृत के नैषधा काव्य का अनुवाद ब्रजभाषा में किया। उनके रचे अलंकार नायिका-भेद आदि काव्य-सम्बन्धी कतिपय ग्रन्थ और 'कृष्ण-चन्द्रिका' नामक एक अन्य ग्रन्थ का भी पता चला है। परन्तु इनमें अब तक कोई प्रकाशित नहीं हुआ। ये संस्कृत के विद्वान् थे और हिन्दी भाषा पर इनका बड़ा अधिकार था। परन्तु इनका नैषधा का अनुवाद उत्ताम नहीं हुआ। उसमें स्थान-स्थान पर बड़ी जटिलता है। वाच्यार्थ भी स्पष्ट नहीं और जैसी चाहिए वैसी उसमें सरसता भी नहीं। फिर भी उसके अनेक अंश सुन्दर और मनोहर हैं। ग्रन्थ की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है किन्तु उसमें संस्कृत का पुट अधिक है। कुछ पद्य देखिए-

1. हाटक हंस चल्यो उड़ि कै नभ में

दुगुनी तन ज्योति भई।

लीक सी खैंचि गयो छन में

छहराय रही छबि सोन मई।

नैनन सों निरख्यो न बनाय कै

कै उपमा मन माँहिं लई।

स्यामल चीर मनो पसस्यो

तेहि पै कलकंचन बेलि नई।

2. दिग्गज दबत दबकत दिगपाल भूरि

धूरि की धुंधोरी सों ऍंधोरी आभा भानु की।

धाम औ धारा को माल बोल अबला को अरि

तजत परान राह चाहत परान की।

सैयद समर्थ भूप अली अकबर दल

चलत बजाय मारु दुंदुभी धुकान की।

फिरि फिरि फनसु फनीस उलटतु ऐसे

चोली खोलि ढोली ज्यों तमोली पाके पान की।

कहा जाता है कि पिता का गुण यदि पुत्र में नहीं तो पौत्र में आता है। दूलह कालिदास त्रिवेदी के पौत्र थे, किन्तु वे भाग्यवान थे कि उनके पिता कवीन्द्र भी सत्कवि थे। वास्तव में उनमें तीन पीढ़ियों द्वारा संचित कविकर्म्म का विकास था। दूलह की गणना हिन्दी-संसार के प्रसिध्द कवियों में है। उनका 'कवि-कुल-कंठाभरण' नामक अलंकार का केवल एक ग्रन्थ है,किन्तु इसी ग्रन्थ के आधार से वे ख्याति-प्राप्त हैं। उनकी कुछ स्फुट रचनाएँ भी मिलती हैं, परन्तु उनकी संख्या भी अधिक नहीं। 'कविकुल कंठाभरण' कवित्तों और सवैयों में रचा गया है। इसीलिए उसमें अलंकारों का निरूपण यथातथ्य हो सका है। उसकी प्रसिध्दि का कारण भी यही है। इसी सूत्रा से उस काल के अलंकारानुरागी कवियों में उसका अधिक आदर हुआ। ग्रन्थ की रचना साहित्यिक ब्रजभाषा में है, उसमें यथेष्ट सरसता और मनोहरता भी है। उनकी अन्य रचनाएँ भी ऐसी ही हैं। कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं-

1. उतर उतर उतकरख बखानौं ' सार '

दीरघ ते दीरघ लघू ते लघू भारी को।

सब ते मधुर ऊख ऊख ते पियूख औ

पियूख हूँ ते मधुर है अधार पियारी को।

जहाँ क्रमिकन को क्रमै ते यथा क्रम

' यथासंख्य ' नैन नैन कोन ऐसे जीवधारीको।

कोकिल ते कल कंज दल ते अदल भाव

जीत्यो जिन काम की कटारी नोकवारी को।

2. माने सनमाने तेई माने सनमाने

सनमाने सनमान सनमान पाइयतु है।

कहै कवि दूलह अजाने अपमाने

अपमान सों सदन तिनही को छाइयतु है।

जानत हैं जेऊ तेऊ जात हैं बिराने द्वार

जान बूझ भूले तिनको सुनाइयतु है।

काम बस परे कोऊ गहत गरूर है तो

अपनी जरूर जा जरूर जाइयतु है।

बेनी नाम के दो कवि हो गये हैं। दोनों बन्दीजन थे। पहले बेनी असनी के निवासी थे। इनका समय सत्राहवीं ईस्वी शताब्दी का प्रारम्भ है। ये अपनी कविता में बेनी नाम ही रखते थे। दूसरे बेनी जिला रायबरेली के थे। ये इस शताब्दी में हुए। पद्यों में अपने नाम के बाद ये प्राय: कवि भी लिखते हैं, यही दोनों की पहचान है। पहले बेनी का कोई ग्रन्थ अब तक नहीं मिला। उनकी स्फुट रचनाएँ अधिक मिलती हैं। शिवसिंह सरोजकार ने इनके एक ग्रन्थ की चर्चा की है। पर वह अब तक अप्रकाशित है। संभव है कि वह अप्राप्य हो। इनमें दूसरे बेनी के समान विशेषताएँ नहीं है। परन्तु ये एक सरस हृदय कवि थे,इनकी भाषा से रस निचुड़ा पड़ता है। इनके दो पद्य नीचे लिखे जाते हैं-

1. छहरै सिरपै छवि मोर पखा

उनकी नथ के मुकता थहरैं।

फहरै पियरो पट बेनी इतै

उनकी चुनरी के झवा झहरैं।

रस रंग भिरे अभिरे हैं तमाल

दोऊ रस ख्याल चहैं लहरैं।

नित ऐसे सनेह सों राधिका

स्याम हमारे हिये में सदा बिहरैं।

2. कवि बेनी नई उनई है घटा

मोरवा बन बोलत कूकन री।

छहरैं बिजुरी छिति-मंडल छै

लहरै मन मैन भभूकन री।

पहिरौ चुनरी चुनि कै दुलही

सँग लाल के झूलहु झूकन री।

ऋतु पावस योंही बितावति हौ

मरिहौ फिर बावरी हूकन री।

दूसरे बेनी रीति-ग्रन्थकार हैं, उन्होंने 'टिकैतराय प्रकाश' और 'रसविलास', नामक दो ग्रन्थों की रचना की है। पहला ग्रन्थ अलंकार का और दूसरा रस सम्बन्धी है। भाषा इनकी भी सरस और सुन्दर है। भावानुकूल शब्द-विन्यास में ये निपुण हैं। इनमें विशेषता यह है कि इन्होंने हास्यरस की भी प्रशंसनीय रचना की है और अधिकतर उसमें व्यंग्य से काम लिया है। ये हिन्दी-संसार के 'सौदा' कहे जा सकते हैं। जैसे उर्दू कवियों में हजो कहने में सौदा का प्रधान स्थान है, उसी प्रकार किसी की हँसी उड़ाने अथवा किसी पर व्यंग्य-बाण वर्षा करने में ये भी हिन्दी कवियों के अग्रणी हैं। ये जिससे खिजे या बिगड़े उसी की गत बना दी, चाहे व कोई स्थान हो वा कोई मनुष्य। परन्तु इनकी भाषा की विशेषता सर्वथा सुरक्षित रहती है। इनकी अन्य रचनाएँ भी मनोहारिणी और ललित हैं। हाँ, चटपटी प्रकृति उनमें भी प्रतिबिम्बित मिलती है। कुछ पद्य देखिए-

1. घर घर घाट घाट बाट बाट ठाट ठटे ,

बेला औ कुबेला फिरैं चेला लिये आस पास।

कबिन सों बाद करैं भेद बिन नाद करैं ,

सदा उनमाद करैं धारम करम नास।

बेनी कबि कहै बिभिचारिन को बादसाह ,

अतन प्रकासत न सतन सरम तास।

ललना ललक नैन मैन की झलक ,

हँसि हेरत अलक रद खलक ललक दास।

इस पद्य में ललकदास एक महंत की पगड़ी उतारी गयी है-

2. कारीगर कोऊ करामात कै बनाय लायो

लीनो दाम थोरो जानि नई सुघरई है।

राय जू को राय जू रजाई दीन्हीं राजी ह्नै कै

सहर में ठौर ठौर सुहरत भई है।

बेनी कवि पाय कै अघाय रहे घरी द्वैक

कहत न बनै कछु ऐसी मति ठई है।

साँस लेत उड़िगो उपल्ला औ भितल्ला सबै

दिन द्वै के बाती हेत रूई रहि गई है।

इस पद्य में एक रायजी की गत बनाई गयी है-

3. संभु नैन जाल औ फनी को फूतकार कहा

जाके आगे महाकाल दौरत हरौली तें।

सातो चिरजीवी पुनि मारकंडे लोमस लौं

देखि कंपमान होत खोलें जब झोली तें।

गरल अनल औ प्रलय दावानल भर

बेनी कबि छेदि लेत गिरत हथोली तें।

बचन न पावैं धानवंतरि जौ आवैं।

हरगोबिंद बचावैं हरगोविंद की गोली तें।

इस पद्य में एक वैद्यजी की नाड़ी बेतरह टटोली गयी है-

4. गड़ि जात बाजी औ गयंद गन अड़ि जात

सुतुर अकड़ि जात मुसकिल गऊ की।

दाँवन उठाय पाय धोखे जो धारत कोऊ

आप गरकाप रहि जात पाग मऊ की।

बेनी कबि कहै देखि थर थर काँपै गात

रथन के पय ना विपद बरदऊ की।

बार बार कहत पुकार करतार तो सों

मीच है कबूल पै न कीच लखनऊ की।

इस पद्य में लखनऊ पर बेतरह कीच उछाली गयी है-

5. चींटी की चलावै को मसा के मुख आय जाय

साँस की पवन लागे कोसन भगत है।

ऐनक लगाय मरू मरू कै निहारे परैं

अनु परमानु की समानता खगत हैं।

बेनी कबि कहै हाल कहाँ लौं बखान करौं

मेरी जान ब्रह्म को बिचारबो सुगत है।

ऐसे आम दीन्हें दयाराम मन मोद करि

जाके आगे सरसों सुमेरु सी लगत है।

इस पद्य में बेचारे दयाराम को खटाई में डाल दिया गया है। दो पद्य इनके शान्त रस के भी देखिए-

1. पृथु नल जनक जजाति मानधाता ऐसे

केते भये भूप जस छिति पर छाइगे।

कालचक्र परे सक्र सैकरन होत जात

कहाँ लौं गनावौं बिधि बासर बिताइगे।

बेनी साज संपति समाज साज सेना कहाँ

पाँयन पसारि हाथ खोले मुख बाइगे।

छुद्र छिति पालन की गिनती गिनावै कौन

रावन से बली तेऊ बुल्ला से बिलाइगे।

2. राग कीने रंग कीने तरुनी प्रसंग कीने

हाथ कीने चीकने सुगंधा लाय चोली में।

देह कीने गेह कीने सुंदर सनेह कीने

बासर बितीत कीने नाहक ठिठोली में।

बेनी कबि कहै परमारथ न कीने मूढ़

दिना चार स्वाँग सो दिखाय चले होली में।

बोलत न डोलत न खोलत पलक हाय

काठ से पड़े हैं आज काठ की खटोली में।

दो रचनाएँ शृंगार रस की भी देखिए-

1. बिपत बिलोकत ही मुनि मन डोलि उठे

बोलि उठे , बरही बिनोद भरे बन बन।

अकल बिकल ह्नै बिकाने हैं पथिक जन

ऊर्धा मुख चातक अधोमुख मराल गन।

बेनी कबि कहत मही के महाभाग भये

सुखद संजोगिन बियोगिन के ताप तन।

कंज पुंज गंजन कृषी दल के रंजन

सो आये मान भंजन ए अंजन बरन घन।

2. करि की चुराई चाल सिंह को चुरायो लंक

ससि को चुरायो मुख नासा चोरी कीर की।

पिक को चुरायो बैन मृग को चुरायो नैन

दसन अनार हाँसी बीजुरी गँभीर की।

कहै कबि बेनी बेनी व्याल की चुराय लीनी।

रती रती सोभा सब रति के सरीर की।

अब तो कन्हैया जू को चित हूँ चुराय लीनो

छोरटी है गोरटी या चोरटी अहीर की।

इस कवि का वाच्यार्थ कितना प्रांजल है और उसके कथन में कितना प्रवाह है, इसके बतलाने की आवश्यकता नहीं, पद्य स्वयं इसको बतला रहे हैं। ये उर्दू फ़ारसी अथवा अन्य भाषा के शब्दों को जिस प्रकार अपनी रचना के ढंग में ढाल लेते हैं, वह भी प्रशंसनीय है। मेरा विचार है कि हिन्दी-साहित्य के प्रधान कवियों में भी स्थान लाभ के अधिकारी हैं।

प्रत्येक शतक में कोई न कोई सहृदय मुसलमान हिन्दी देवी की अर्चना करते दृष्टिगत होता है। सैयद गुलाम नबी (रसलीन) बिलग्रामी ऐसे ही सहृदय कवि हैं। मेरा विचार है कि अवधी की रचना में जो गौरव मलिक मुहम्मद जायसी को प्राप्त है,ब्रजभाषा की सरस रचना के लिए उसी गौरव के अधिकारी रसखान, मुबारक और रसलीन हैं। रसलीन ने 'अंग दर्पण', और 'रस प्रबोधा' नामक ग्रन्थों की रचना की है। ये अरबी फ़ारसी के नामी विद्वान् थे। फिर भी इन्होंने ब्रजभाषा में रचना की और इस निुपणता से की जो उल्लेखनीय है। इनके दोनों ग्रन्थ दोहों में हैं। पहले में अंगों का वर्णन है और दूसरे में नव रसों पर सरस और भावमयी कविता है। इनको परसी और उर्दू के शे'रों का अनुभव था जो बन्दों में ही बहुत कुछ चमत्कार दिखला जाते हैं। इसलिए इन्होंने उन्हीं का अनुकरण किया और अपने दोहों को वैसा ही चमत्कारक बनाया। इनकी सुन्दर सरस और भावमयी भाषा ब्रजभाषा देवी के चरणों पर चढ़ाने के लिए मुग्धाकर सुमनावलि-माला समान है। इनके दोहों को सुनकर यह जी कहने लगता है कि क्या कोई मुसलमान भी ऐसी टकसाली भाषा लिख सकता है? किन्तु रसलीन ने इस शंका का समाधान कर दिया है। इनकी कुछ रचनाएँ देखिए-

1. अमी हलाहल मद भरे स्वेत स्याम रतनार।

जियत मरत झुकि झुकि परत जेहि चितवत एकबार।

2. मुख ससि निरखि चकोर अरु तन पानिप लखि मीन।

पद पंकज देखत भँवर होत नयन रसलीन।

3. सौतिन मुख निसि कमल भो पिय चख भये चकोर।

गुरुजन मन सागर भये लखि दुलहिन मुख ओर।

4. मुकुत भये घर खोय कै कानन बैठे आय।

अब घर खोवत और के कीजै कौन उपाय।

5. धारति न चौकी नग-जरी याते उर में लाइ।

छाँह परे पर पुरुष की जनि तिय धारम नसाइ।

इस शताब्दी में बहुत अधिक रीति-ग्रन्थकार हुए हैं। सबके विषय में कुछ लिखना हमारे उद्देश्य से सम्बन्धा नहीं रखता। सबकी भाषा लगभग एक ही है और एक ही विषय का वर्णन प्राय: सभी ने किया है। उनमें जो आदर्श थे और जिनमें कोई विशेषता थी उनके विषय में जो लिखना था, लिखा गया। परन्तु अब भी ऐसे कतिपय रीति-ग्रन्थकार शेष हैं, जिनका ब्रजभाषा-साहित्य में अच्छा स्थान है और प्रतिष्ठा की दृष्टि से देखे जाते हैं। सबके सविशेष वर्णन के लिए मेरे पास स्थान नहीं। हाँ, मैं यह अवश्य चाहता हूँ कि उनकी रचना शैली का ज्ञान आप लोगों को करा दूँ, जिससे यह यथातथ्य ज्ञात हो सके कि इस शताब्दी में ब्रजभाषा का वास्तविक रूप क्या था इसलिए कुछ लोगों की रचनाएँ आप लोगों के सामने क्रमश: उपस्थित करताहूँ-

सूरति मिश्र आगरे के निवासी कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। ये बिहारी सतसई के प्रसिध्द टीकाकार हैं, रीति-सम्बन्धी सात-आठ ग्रन्थों की रचना भी इन्होंने की है। इनका एक पद्य देखिए-

तेरे ये कपोल बाल अति ही रसाल

मन जिनकी सदाई उपमा बिचारियत है।

कोऊ न समान जाहि कीजै उपमान

अरु बापुरे मधूकन की देह जारियत है।

नेक दरपन समता की चाह करी कहूँ

भये अपराधी ऐसो चित धारियत है।

सूरति सो याही ते जगत बीच आज हूँ लौं ,

उन के वदन पर छार डारियत है।

कृष्ण कवि बिहारीलाल के पुत्र कहे जाते हैं। इन्होंने बिहारीलाल के दोहों पर टीका की भाँति एक-एक सवैया लिखा है। वार्तिक में काव्य के समस्त अंगों का पूर्णतया निरूपण भी किया है। उनका एक पद्य देखिए-

1. थोरे ई गुन रीझते बिसराई वह बानि।

तुमहूँ कान्ह मनौं भये आजु काल्हि के दानि।

2. ह्नै अति आरत मैं बिनती ,

बहुबार करी करुना रस भीनी।

कृष्ण कृपानिधि दीन के बंधु ,

सुनी असुनी तुम काहे को कीनी।

रीझते रंचक ही गुनसों वह बानि ,

बिसारि मनो अब दीनी।

जानि परी तुम हूँ हरि जू ,

कलिकाल के दानिन की मति लीनी।

अमेठी के राजा गुरुदत्ता सिंह ने 'भूपति' नाम से कविताएँ की हैं। उनके तीन ग्रन्थ बतलाये जाते हैं। 'कंठभूषण' और'रसरत्नाकर' दो रीति ग्रन्थों के अतिरिक्त उन्होंने एक सतसई भी बनाई थी। ये कवियों का बड़ा आदर सम्मान करते थे। इनकी रचनाएँ भी सरस हैं। दो दोहे देखिए-

1. घूँघट पट की आड़ दे हँसति जबै वह दार।

ससि मंडल ते कढ़ति छनि जनु पियूख की धार।

2. भये रसाल रसाल हैं भये पुहुप मकरंद।

मान सान तोरत तुरत भ्रमत भ्रमर मद मंद।

सोमनाथ माथुर ब्राह्मण थे, भरतपुर दरबार में रहते थे। इनका रस 'पियूषनिधि' नामक प्रसिध्द ग्रन्थ है, जिसमें काव्य के समस्त लक्षणों का विस्तृत वर्णन है। इनके अतिरिक्त इन्होंने एक प्रबन्धा काव्य भी लिखा है। यह सिंहासन बत्ताीसी का पद्य-बध्द रूप है। इसका नाम सृजन बिलास है। इनके दो ग्रन्थ और हैं जिनमें से एक नाटक है, जिसका नाम 'माधाव-विनोद' है। दूसरे का नाम 'लीलावती' है। 'माधाव विनोद' का नाम भर नाटक है वास्तव में वह प्रेम-सम्बन्धी प्रबंधा ग्रंथ है। इनकी रचना सुन्दर और सरस है। इनका एक पद्य देखिए-

दिसि बिदिसन ते उमड़ि मढ़ि लीन्हों नभ ,

छाँड़ि दीन्हें धुरवा जवासे जूथ जरिगे।

डहडहे भये द्रुम रंचक हवा के गुन

कहूँ कहूँ मोरवा पुकारि मोद भरिगे।

रहि गये चातक जहाँ के तहाँ देखत ही

सोमनाथ कहै बूँदा बूँदि हूँ न करिगे।

सोर भयो घोर चारों ओर महि मंडल मैं

आये घन आये घन आय कै उघरिगे।

शंभुनाथ मिश्र ने 'रस-कल्लोल', 'रस-तरंगिणी' और 'अलंकार दीपक' नामक तीन ग्रन्थ बनाये हैं। ये पतेहपुर के रहने वाले थे। इनकी रचना सुन्दर है। पर राजा भगवंत राय खीची की प्रशंसा ही उसमें अधिक है। वे उनके आश्रयदाता थे। एक पद्य देखिए-

आजु चतुरंग महाराज सेन साजत ही

धौंसा की धुकार धूर परी मुँह याही के।

भय के अजीरन ते जीरन उजीर भये

सूल उठी उर में अमीर जाही ताही के।

बीर खेत बीच बरछी लै बिरुझानो

इतै धीरज न रह्यौ संभु कौनहूँ सिपाही के।

भूप भगवंत बीर ग्वाही कै खलक सब

स्याही लाई बदन तमाम पादसाही के।

ऋषिनाथ बंदीजन और असनी के रहने वाले थे। 'अलंकार मणि मंजरी' नामक एक ग्रन्थ इन्होंने बनाया है। उसका एक पद्य देखिए। इनकी रचनाओं में प्रतिभा झलकती मिलती है-

छाया छत्रा ह्नै कर करत महिपालन को

पालन को पूरो फैलो रजत अपार है।

मुकुत उदार ह्नै लगत सुख श्रौनन में

जगत जगत हँस हास हीर हार है।

ऋषि नाथ सदानंद सुजस बलंद

तमवृंद के हरैया चंद्र चंद्रिका सुढार है।

हीतल को सीतल करत घनसार है

महीतल को पावन करत गंगधार है।

रतन कवि गढ़वाल के राजा पतेह साह के यहाँ थे। उन्होंने 'पतेहभूषण' और 'अलंकार-दर्पण' नाम के दो ग्रन्थ रचे। इनकी रचना शैली सुन्दर और विशद है। एक पद्य देखिए-

काजर की कोरवारे भारे अनियारे नैन

कारे सटकारे बार छहरे छवानि छ्वै।

स्याम सारी भीतर भभक गोरे गातन की

ओप वारी न्यारी रही बदन उँजारी ह्नै।

मृगमद बेंदी भाल अनमोल आभरन

हरन हिये की तू है रंभा रति ही अबै।

नीकै नथुनी के तैसे युगल सुहात मोती

चंद पर च्वै रहे सुमानो सुधा बुंद द्वै।

चंदन बंदीजन पुवांया के रहने वाले थे। राजा केसरीसिंह के यहाँ रहते थे। इन्होंने दस-बारह ग्रन्थों की रचना की है, जिनमें से 'शृंगार-सागर' 'काव्याभरण' और 'कल्लोल तरंगिणी' अधिक प्रसिध्द हैं। इन्होंने एक प्रबन्धाकाव्य भी लिखा है जिसका नाम'शीत बसंत' है। ये परसी के भी शायर थे। इनका एक पद्य देखिए-

ब्रजवारी गँवारी दै जानै कहा यह चातुरता न लुगायन मैं।

पुनि बारिनी जानि अनारिनी है रुचि एती न चंदन नायन मैं।

छवि रंग सुरंग के बिंदु बने लगैं इन्द्रबधू लघुतायन मैं।

चित जो चहैं दी चकसी रहैं दी केहि दी मेंहदी इन पायन मैं।

देवकीनन्दन ब्राह्मण और कन्नौज के पास के रहने वाले थे। इन्होंने चार-पाँच ग्रन्थों की रचना की है, जिनमें 'शृंगार चरित्रा' और 'अवधूत भूषण' अधिक प्रसिध्द हैं। इनका 'सरपराज़-चन्द्रिका' नामक ग्रंथ भी अच्छा है। इनकी भाषा टकसाली है और उसमें सहृदयता पाई जाती है। एक पद्य देखिए-

मोतिन की माल तोरि चीर सब चीरि डारे

फेरि कै न जैहों आली दुख बिकरारे हैं।

देवकी नंदन कहैं धोखे नाग छौनन के

अलकैं प्रसून नोचि नोचि निरवारे हैं।

मानि मुखचंद भाव चोंच दई अधारन

तीनों ए निकुंजन में एकै तार तारे हैं।

ठौर ठौर डोलत मराल मतवारे

तैसे मोर मतवारे त्यों चकोर मतवारे हैं।

भानु कवि ने 'नरेन्द्र भूषण' नाम का एक ग्रन्थ लिखा है। उसमें विशेषता यह है कि अलंकारों के उदाहरण सब रसों के दिये हैं। इनकी रचना अच्छी है। ये बुन्देले थे। राजा रनजोर सिंह के यहाँ रहते थे। इनका एक पद्य देखिए-

घन से सघन स्याम इंदु पर छाय रहे

बैठी तहाँ असित द्विरेफन की पाँति सी।

तिनके समीप तहाँ खंज की सी जोरी लाल

आरसी से अमल निहारे बहुभाँति सी।

ताके ढिग अमल ललौहैं बिवि बिद्रुम से

फरकति ओप जामैं मोतिन की कांति सी।

भीतर ते कढ़ति मधुर बीन कैसी धुनि

सुन करि भानु परि कानन सुहाति सी।

थान कवि बंदीजन थे। इनका मुख्य नाम थानराय था। इनकी भाषा ललित है और 'दलेल प्रकाश' नामक एक रीति-ग्रन्थ भी इनका पाया जाता है। पद-विन्यास देखने से यह प्रतीति होती है कि भाषा पर इनको अच्छा अधिकार था। एक पद्य देखिए-

दासन पै दाहिनी परम हंस वाहिनी हौ ,

पोथी कर बीना सुर मंडल मढ़त है।

आसन कँवल अंग अंबर धावल

मुखचंद सो अमल रंग नवल चढ़त है।

ऐसी मातु भारती की आरती करत थान

जाको जस विधि ऐसो पंडित पढ़त है।

ताकी दया दीठि लाख पाथर निराखर के

मुख ते मधुर मंजु आखर कढ़त है।

रीति ग्रन्थकारों के बाद अब मैं उन प्रेम-मार्गी कवियों की चर्चा करूँगा जो प्रेम में मत्ता होकर अपने आन्तरिक अनुराग से ही कविता करते थे। उनका प्रेममय उल्लास उनकी पंक्तियों में विलसित मिलता है और उनके हृदय का मधुर प्रवाह प्रत्येक सहृदय को विमुग्धा बना देता है। इस शताब्दी में मुझको इस प्रकार के चार-पाँच कवि-पुúव ही ऐसे दिखलाई पड़ते हैं, जो उल्लेख योग्य हैं और जिनमें विशेषता पाई जाती है। वे हैं-घन आनन्द, नागरीदास, सीतल, बोधा और रसनिधि। क्रमश: इनका परिचय मैं आप लोगों को देता हूँ।

घन आनन्द वास्तव में आनन्द-घन थे। वे जाति के कायस्थ और निम्बार्क सम्प्रदाय के वैष्णव थे। कहा जाता है कि वे दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह के मुंशी थे। ये सरस कवि तो थे ही, गान विद्या में भी निपुण थे। इनके रचे छ: ग्रन्थ बतलाये जाते हैं, जिनमें 'सुजान-सागर', 'घनानंद कवित्ता' और 'रसकेलि-बल्ली' नामक ग्रंथ अधिक प्रसिध्द हैं। जनश्रुति है कि ये'सुजान' नामक एक वेश्या पर अनुरक्त थे। इनकी रचनाओं में उसका नाम बहुत आता है। उस वेश्या के दुर्भाव से ही इनके हृदय में विरक्ति उत्पन्न हुई और ये दिल्ली छोड़कर वृन्दावन चले गये और वहीं युगलमूर्ति के प्रेम में मत्ता होकर अपना शेष जीवन व्यतीत किया। सुना जाता है नादिरशाह ने इनके जीवन को समाप्त किया था। अन्तिम समय में इन्होंने यह रचना की थी-

बहुत दिनन की अवधि आस पास परे

खरे अरबरनि भरे हैं उठि जान को।

कहि कहि आवत छबीले मन भावन को

गहि गहि राखत ही दै दै सनमान को।

झूठी बतियानि की पत्यानि ते उदास ह्नै कै

अब ना घिरत घन आनँद निदान को।

अधार लगे हैं आनि करिकै पयान प्रान

चाहत चलन ये सँदेसो लै सुजान को।

ये शुध्द ब्रजभाषा के कवि माने जाते हैं। इनका दावा भी यही है, जैसा इस पद्य से प्रकट होता है-

नेही महा ब्रजभाषा प्रवीन

औ सुन्दरता हुँ के भेद को जानै।

योग वियोग की रीति में कोविद

भावना भेद सरूप को ठानै।

चाह के रंग में भीज्यो हियो

बिछुरे मिले प्रीतम सांति न मानै।

भाषा प्रवीन सुछंद सदा रहै

जो घन जू के कबित्ता बखानै।

परन्तु मेरा विचार है कि इनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा ही है, क्योंकि ये ब्रजभाषा के ठेठ शब्दों का प्रयोग करते नहीं देखे जाते। इसी प्रकार ये स्थान-स्थान पर ऐसे शब्द लिख जाते हैं जो ब्रजभाषा के नियमानुकूल नहीं कहे जा सकते। निम्नलिखित सवैया को देखिए-

हमसों हित कै कित को नितही

इत बीच वियोगहिं पोइ चले।

सु अखैबट बीज लौं फैलि परयो

बनमाली कहाँ धौं समोइ चले।

घन आनँद छाँह बितान तन्यो

हमैं ताप के आतप खोइ चले।

कबहूँ तेहि मूल तौ बैठिये आय

सुजान जो बीजहिं बोइ चले।

इस सवैया में 'पोइ', 'समोइ', 'खोइ', 'बोइ', के 'इ' के स्थान पर ब्रजभाषा के नियमानुसार यकार होना चाहिए। परन्तु इन्होंने अवधी के नियमानुसार 'इ' लिखा। इन्हीं को नहीं ब्रजभाषा के अन्य कवियों और महाकवियों को भी इस प्रकार का प्रयोग करते देखा जाता है। कविवर सूरदास जी की रचनाओं में भी ऐसे प्रयोग अधिकता से मिलते हैं। यदि कहा जाय कि प्राचीन ब्रजभाषा में ऐसे प्रयोग होते थे तो यही मानना पडेग़ा कि ब्रजभाषा में दोनों प्रकार के प्रयोग होते आये हैं। ऐसी अवस्था में यह नियम स्वीकृत नहीं हो सकता कि ऐसे स्थलों पर अवधी में जहाँ 'इ' का प्रयोग होता है, ब्रजभाषा में 'य' लिखा जाता है। मैं तो देखता हूँ कि सूरदास के समय से अब तक के ब्रजभाषा के कवि दोनों प्रयोग करते आये हैं और इसीलिए मैं घन आनन्द की भाषा को भी साहित्यिक ब्रजभाषा ही मानता हूँ। घन आनन्दजी की भाषा में इतनी विशेषता अवश्य है कि उसमें ब्रजभाषा सम्बन्धी प्रयोग ही अधिक पाये जाते हैं। यह दिखलाने के लिए कि वे 'इ' के स्थान पर 'य' का प्रयोग भी करते हैं,मैं नीचे एक पद्य और लिखता हूँ। उसके चिद्दित शब्दों को देखिए-

तब तो दुरि दूरहिं ते मुसुकाय

बचाय कै और की दीठि हँसे।

दरसाय मनोज की मूरति ऐसी

रचाय कै नैनन मैं सरसे।

अब तौ उर माहिं बसाय कै मारत

ए जू बिसासी कहाँ धौं बसे।

कछु नेह निबाह न जानत हे तौ

सनेह की धार मैं काहें धाँसे।

घन आनन्द जी के पद्यों की यह विशेषता है कि उससे रस निचुड़ा पड़ता है। जो वे कहते हैं इस ढú से कहते हैं कि उनकी पंक्तियों में उनके आन्तरिक अनुराग की धारा बहने लगती है। उनके पद्य का एक-एक शब्द ऐसा ज्ञात होता है कि साँचे में ढला हुआ है और उसमें उनके भाव दर्पण में बिम्ब के समान प्रतिबिम्बित हो रहे हैं। इनके समस्त ग्रन्थों की रचना वैदर्भी वृत्तिा में है। इसीलिए उनमें सरसता और मनोहरता भी अधिक पायी जाती है। ब्रजभाषा के मुहावरों और बोलचाल की मधुरताओं को उन्होंने जिस सफलता से अंकित किया है, वैसी सफलता कुछ महाकवियों को ही प्राप्त हुई है। उन्होंने अपनी'बिरह लीला' अरबी शब्द में लिखी है, जिससे यह पाया जाता है कि उस समय अरबी शब्द भी हिन्दी रचना में स्थान पाने लगे थे। इनके कुछ सरस और हृदयग्राही पद्य और देखिए-

1. गुरनि बतायो राधा मोहन हूँ गायो

सदा सुखद सुहायो वृन्दावन गाढ़े गहुरे।

अद्भुत अभूत महि मंडन परे ते परे

जीवन को लाहु हाहा क्यों न ताहि लहुरे।

आनँद को घन छायो रहत निरंतर ही

सरस सुदेय सों पपीहा पन बहुरे।

जमुना के तीर केलि कोलाहल भीर

ऐसे पावन पुलिन पर पतित परि रहु रे।

2. अति सूधो सनेह को मारग है

जहाँ नेको सयानप बाँक नहीं।

तहाँ साँचे चलैं तजि आपनपौ

झिझकैं कपटी जै निसाँक नहीं।

घन आनँद प्यारे सुजान सुनो

इत एक ते दूसरो ऑंक नहीं।

तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ लला

मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं।

3. पर कारज देह को धारे फिरौ

परजन्य यथारथ ह्नै दरसौ।

निधि नीर सुधा के समान करौ

सब ही बिधि सज्जनता सरसौ।

घन आनँद जीवन दायक हौ।

कछु मेरीयौ पीर हिये परसौ।

कबहूँ वा बिसासी सुजान के ऑंगन

मो ऍंसुआन को लै बरसौ

4. पहले अपनाय सुजान सनेह सों

क्यों फिर नेह कौ तोरिये जू।

निरधार अधार दै धार मँझार

दई गहि बाँह न बोरिये जू।

घन आनँद आपने चातक को

गुन बाँधि कै मोह न छोरिये जू।

रस प्याय कै ज्याय बँधाय कै

आस बिसास में क्यों विष घोरिये जू।

उर्दू का एक शेर है, 'काग़ज़ पै रख दिया है कलेजा निकाल कर'। सच्ची बात यह है कि घन आनन्द जी कागज पर कलेजा निकालकर रख देते हैं। एक नायिका कहती है कि 'काढ़ि करेजो दिखैबो परो'। मैं सोचता हूँ, यदि उस नायिका के पास घन आनन्द की सी सरस रचना की शक्ति होती तो उसको यह न कहना पड़ता। इनका वाच्यार्थ जितना प्रांजल है, उतनी ही उसमें कसक है। दोनों के समागम से इनकी रचना में मणि-कांचन-योग हो गया है। वियोग-शृंगार की रचना में इन्होंने जो वेदना उत्पन्न की है, ऐसा कौन है कि जिसके हृदय पर वह प्रभाव नहीं डालती। वास्तव में घन आनन्द जी ने इस प्रकार की रचना करने में बड़ी सफलता लाभ की है। इनकी कृति में आन्तरिक पीड़ा प्रवाहित मिलती है, परंतु हृदयों में वह सृजन करती है विचित्रा मधुरता।

नागरीदास जी कृष्णगढ़ के महाराज थे। इनका मुख्य नाम सामंत सिंह था। वीर इतने बडे थे कि बूँदी के हाड़ा राजा को समर में पराजित कर स्वर्ग लोक पहुँचाया। साहसी इतने बड़े कि अपने छिन गये राज्य को भी अपने पौरुष से पुन: प्राप्त कर लिया। किंतु त्याग उनमें बड़ा था और भगवान कृष्णचन्द्र की भक्ति उत्तारोत्तार वृध्दि पा रही थी। इसलिए उन्होंने राज्य को तृण समान त्यागा और वृंदावन धाम में पधार कर भगवल्लीला में तल्लीन हो गये। जब तक जिये, कृष्ण-भक्ति-सुधा पान कर जिये, राज्य भोगों और विभवों की ओर फूटी ऑंख से भी नहीं देखा। राज्य सिंहासन से उनको ब्रज रज प्यारी थी और राजसी ठाटों से भक्तिमयी भावना। उनमें तदीयता इतनी थी कि वे सदा भगवद्भजन में ही मत्ता रहते और संसार के समस्त सुखों की ओर ऑंख उठाकर भी न देखते। राजा-महाराजों में ऐसा सच्चा त्यागी कोई दृष्टिगत नहीं होता। वे गोस्वामी हित हरिवंश वा चैतन्य महाप्रभु के सम्प्रदाय में थे अतएव उन्हीं के समान उनमें आत्म-विस्मृति भी थी। वे दिन-रात भगवद्गुणगान में रत रहते और हरि-यश वर्णन करके स्वर्गीय आनन्द लाभ करते मिलते। उनकी यह वृत्तिा उनकी समस्त रचनाओं में दृष्टिगत होती है। उन्होंने लगभग सत्तार-बहत्तार ग्रंथों की रचना की है। परन्तु उन सबमें ललित पदों में भगवल्लीला ही वर्णित है। अधिकांश ग्रंथ ऐसे ही हैं कि जिनमें थोड़े से पद्यों में भगवान की किसी लीला का गान है। इन ग्रन्थों की भाषा यद्यपि सरस ब्रजभाषा है फिर भी उसमें कहीं-कहीं राजस्थानी भाषा के शब्द भी मिल जाते हैं। इनके पदों में बहुत अधिक मोहकता एवं मधुरता है। सवैयाओं में भी बड़ा लालित्य है। अन्य रचनाएँ इस कोटि की नहीं हैं। परन्तु प्रेमधारा उनमें भी बहती मिलती है, जिनकी अनेक भावों की तरंगें बड़ी ही मुग्धाकारी हैं। ब्रजभाषा की जितनी विशेषताएँ हैं वे सब उनकी रचनाओं में मिलती हैं और कहीं-कहीं उनमें ऐसी अनूठी उक्तियाँ पाई जाती हैं जो स्वर्णाभरण में मणि सी जटित जान पड़ती हैं। कुछ रचनाएँ नीचे लिखी जाती हैं-

1. उज्जल पख की रैन चैन उज्जल रस दैनी।

उदित भयो उडुराज अरुन दुति मन हर लैनी।

महाकुपित ह्नै काम ब्रह्म अ ò हिं छोड़यो मनु।

प्राची दिसि ते प्रजुलित आवति अगिनि उठी जनु।

दहन मानपुर भये मिलन को मन हुलसावत।

छावत छपा अमंद चंद ज्यों ज्यों नभ आवत।

जगमगाति बन जोति सोत अमृत धारा से।

नव द्रुम किसलय दलनि चारु चमकति तारा से।

स्वेत रजत की रैन चैन चित मैन उमहनी।

तैसी मंद सुगंधा पवन दिन मनि दुख दहनी।

सिला सिला प्रति चंद चमकि किरननि छवि छाई।

विच विच अंब कदंब झंब झुकि पायँन आई।

ठौर ठौर चहुँ फेर ढेर फूलन के सोहत।

करत सुगंधित पवन सहज मन मोहत जोहत।

ठौर ठौर लखि ठौर रहत मनमथ सो भारी।

बिहरत बिबिधा बिहार तहाँ गिरिवर गिरधारी।

2. भादौं की कारी ऍंधयारी निसा

झुकि बादर मंद फुही बरसावै।

स्यामा जू आपनी ऊँची अटा पै

छकी रसरीति मलारहिं गावै।

ता समै मोहन कौ दृग दूरि ते

आतुर रूप की भीख यों पावै।

पौन मया करि घूँघट टारै

दया कर दामिनि दाप दिखावै।

3. जौ मेरे तन होते दोय।

मैं काहू ते कछु नहिं कहतो

मोते कछु कहतो नहिं कोय।

एक जो तन हरि विमुखन के

सँग रहतो देस बिदेस।

विविधा भाँति के जब दुख सुख

जहँ नहीं भक्ति लवलेस।

एक जो तन सतसंग रंग रँगि

रहतो अति सुखपूर।

जनम सफल करि लेतो ब्रज

बसि जहँ ब्रज जीवन मूर।

द्वै तन बिन द्वै काज न ह्नै हैं

आयु तौ छिन छिन छीजै।

नागरिदास एक तन ते अब

कहौ काह करि लीजै।

आपको परसी भाषा का अच्छा ज्ञान था। इसलिए कुछ कविताएँ ऐसी भी हैं जिनमें परसी शब्दों का प्रयोग अधिकता से है। इन्होंने 'इश्क चमन'नाम का एक ग्रन्थ भी लिखा था। कुछ उसके पद्य भी देखिए-

1. इश्व चमन महबूब का वहाँ न जावै कोय।

जावै सौ जीवै नहीं जियै सो बौरा होय।

2. ऐ तबीब उठि जाहु घर अबस छुवै का हाथ।

चढ़ी इश्व की कैप यह उतरै सिर के साथ।

3. सब महज़ब सब इल्म अरु सबै ऐश के स्वाद।

अरे इश्व के असर बिन ये सब ही बरबाद।

4. आया इश्व लपेट में लागी चश्म चपेट।

सोई आया खलक में और भरैं सब पेट।

नागरीदास की सहचरी 'बनी ठनी' नाम की एक स्त्री थी। उनके सतसंग से वह भी युगल मूर्ति के प्रेम की प्र्रेमिका थी और उन्हीं के समान सरस रचना करती थी। परंतु उसकी रचना में राजस्थानी शब्द अधिक आये हैं। एक पद्य देखिए-

रतनारी हो थारी आखड़ियाँ

प्रेम छकी रस बस अलसाणी

जाणि कमल की पाँखड़ियाँ।

सुंदर रूप लुभाई गति मति

हो गईं ज्यों मधु माखड़ियाँ।

रसिक बिहारी वारी प्यारी

कौन बसे निसि काँखड़ियाँ।

स्वामी हरिवंस के टट्टी सम्प्रदाय में एक महन्त शीतल नाम के हो गये हैं। इन्होंने इश्कचमन नाम की एक पुस्तक चार भागों में लिखी है। ये संस्कृत के विद्वान थे और परसी का भी इन्हें अच्छा ज्ञान था। ये टट्टी सम्प्रदाय के महन्त तो थे ही, साथ ही प्रेममय हृदय के अधिकारी थे। इनकी रचना खड़ी बोली में हुई है, जिसमें परसी और ब्रजभाषा के शब्द भी अधिक आये हैं। हिन्दी में खड़ी बोली की नींव डालने वाले प्रथम पुरुष यही हैं। इनकी भाषा ओजमयी और रचना शैली सरस है,भाषा में प्रवाह है और कविता पढ़ते समय यह ज्ञात होता है कि सरस साहित्य का दरिया उमड़ता आ रहा है। इनमें लगन मिलती है और इनका प्रेम भी तन्मयता तक पहुँचा ज्ञात होता है। इस शताब्दी में यही एक ऐसे कवि पाये गये जिन्होंने ब्रजभाषा में कविता की ही नहीं! फिर भी इनकी रचना में ब्रजभाषा का पुट कम नहीं। इनकी रचनाओं में भक्ति की मर्म-स्पर्शिनी मधुरता नहीं पायी जाती। परन्तु उनका मानसिक उद्गार ओजस्वी है, जिसमें मनस्विता की पूरी मात्रा मिलती है। प्रेम के जिस सरस उद्यान में घूमकर रसखान और घन आनन्द बड़े सुन्दर कुसुम चयन कर सके, उसमें इनका प्रवेश जैसा चाहिए वैसा नहीं। इनकी रचना में संस्कृत तत्सम शब्दों का बाहुल्य है। मैं समझता हूँ, वह वर्तमान खड़ी बोली कविता के पूर्व रूप की सूचना है।

इन्होंने इच्छानुसार लघु को दीर्घ और दीर्घ को लघु बनाया है और संस्कृत के तत्सम शब्दों को यत्रा-तत्रा ब्रजभाषा के रूप में भी ग्रहण किया है। एक बात और इनमें देखी जाती है। वह यह कि नायिका के शिख-नख से सम्बन्धा रखने वाले कतिपय परसी उपमानों को भी इन्होंने अपनी रचना में ग्रहण कर लिया है, जैसा इनके पहले के किसी हिन्दी के कवि अथवा महाकवि ने नहीं किया था। उन्होंने शब्दों को इच्छानुसार तोड़ा-मरोड़ा भी है और कई प्रान्तिक शब्दों से भी काम लिया है। इनके कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं। उनको पढ़िए और चिद्दित शब्दों पर विचार भी करते जाइए-

1. शिव विष्णु ईश बहु रूप तुई A

नभ तारा चारु सुधाकर है।

अंबा धारानल शक्ति स्वधा

स्वाहा जल पौन दिवाकर है।

हम अंशाअंश समझते हैं

सब ख़ाक जाल से पाक रहैं।

सुन लाल बिहारी ललित ललन

हम तो तेरे ही चाकर हैं।

2. कारन कारज ले न्याय कहै

जोतिस मत रवि गुरु ससी कहा।

ज़ाहिद ने हक्व हसन यूसुप

अरहन्त जैन छवि बसी कहा।

रति राज रूप रस प्रेम इश्व

जानी छवि शोभा लसी कहा।

लाला हम तुम को वह जाना जो

ब्रह्म तत्व त्वम असी कहा।

3. मुख सरद चन्द पर ठहर गया।

जानी के बुंद पसीने का।

या कुन्दन कमल कली ऊपर

झमकाहट रक्खा मीने का।

देखे से होश कहाँ रहवै जो

पिदर बूअली सीने का।

या लाल बदख्शाँ पर खींचा

चौका इल्मास नगीने का।

4. हम खूब तरह से जान गये

जैसा आनँद का कन्द किया।

सब रूप सील गुन तेज पुंज

तेरे ही तन में बन्द किया।

तुझ हुस्न प्रभा की बाकी ले

फिर विधि ने यह फरफन्द किया।

चंपकदल सोनजुही नरगिस

चामीकर चपला चंद किया।

5. मुख सरद चन्द्र पर ò मसीकर

जगमगैं नखत गन जोती से।

कै दल गुलाब पर शबनम

के हैं कनके रूप उदोती से।

हीरे की कनियाँ मंद लगै हैं

सुधा किरन के मोती से।

आया है मदन आरती को

धार कनक थार में मोती से।

6. चंदन की चौकी चारु पड़ी

सोता था सब गुन जटा हुआ।

चौके की चमक अधार बिहँसन

मानो एक दाड़िम फटा हुआ।

ऐसे में ग्रहन समै सीतल इक

ख्याल बड़ा अटपटा हुआ।

भूतल ते नभ नभ ते अवनी ,

अग उछलै नट का बटा हुआ।

इनकी कविता की भाषा कवि-कल्पित स्वतंत्रा भाषा है। उसमें किसी भाषा के नियम की रक्षा नहीं की गयी है। सौन्दर्य के लिए हमारे यहाँ काम उपमान बनता है, परन्तु इन्होंने यूसुप को उपमान बनाया। यह परसी का अनुकरण है। इसी प्रकार की काव्य-नियम-सम्बन्धी अनेक अवहेलनाएँ इनकी रचना में पायी जाती हैं। परन्तु यह अवश्य है कि ये इस विचित्राता के पहले उद्भावक हैं।

बोधा प्रेमी जीव थे; कहा जाता है प्रेम अन्धा होता है (Love is Blind) प्रेम क्यों अन्धा होता है? इसलिए कि वह अपने रंग में मस्त होकर केवल अपने प्रेम पात्रा को देखता है, और किसी को नहीं, संसार को भी नहीं। इसीलिए वह अन्धा है। जब किसी का प्रेम वास्तविक रूप से हृदय में जाग्रत् हो जाता है, उस समय न तो हम उसके गुण-दोष को देखते हैं, न उसके व्यवहार की परवा करते हैं, न उसकी कठोरता को कठोरता मानते हैं, न उसकी कटुता को कटुता समझते हैं, और न उसकी पशुता को पशुता। प्रेमोन्माद में न तो हम लोक-मर्यादा का धयान करते हैं, न शिष्टता का, न कुल-परम्परा का, न इस बात का कि हमको संसार क्या कहता है। यदि यह अंधापन नहीं है तो क्या है। यदि यह प्रेम ईश्वरोन्मुख हो तो उसमें यह शक्ति होती है कि वह दुर्गुण को गुण बना देता है, पशुता को मानवता में बदल देता है, दुर्जनता को सुजनता में परिणत कर देता है और इस बात का अनुभव कराता है कि 'सर्वंखल्विदं ब्रह्म' जो कुछ विश्व में है, ब्रह्म है। अतएव उसका संसार सोने का हो जाता है और सब ओर उसको 'सत्यं शिवं सुंदरं' दृष्टिगत होता है। किंतु जब यह प्रेम मनुष्य तक ही परिमित होता है तो उसमें स्वार्थपरता की बू आने लगती है और मनुष्य का इतना पतन हो जाता है कि वह उस उच्च सोपान पर नहीं चढ़ सकता जो जीवन को स्वर्गीय बना देता है। 'घन-आनन्द', 'रसखान' का आदिम जीवन कैसा ही रहा हो, यौवन-प्रमाद उनको कुछ काल के लिए भले ही भ्रांत बना सका हो, किन्तु उनका अन्तिम जीवन उज्ज्वल है और वे उस महान-हृदय के समान हैं, जो पथ-च्युत होकर भी अंत में सत्पथावलंबी हो जाता है। मानव-प्रेम यदि उच्च होकर आदर्श प्रेम में परिणत हो जाये तो वह मानव-प्रेम अभिनन्दनीय है। जिस मानव-प्रेम में स्वार्थ की बू नहीं, वासनाओं का विकार नहीं, इन्द्रिय-लोलुपता की कालिमा नहीं, लोभ-लिप्सा का प्रलोभन नहीं,र् कर्तव्य-ज्ञान की अवहेलना नहीं, वह स्वर्गीय है और उसमें लोक-कल्याण की विभूति विद्यमान है। इसीलिए यह वांछनीय है। दुख है कि प्रेमिक जीव होने पर भी बोधा इस तत्तव को यथातथ्य नहीं समझ सकते। वे सरयूपारीण ब्राह्मण थे, परन्तु एक यवनी के प्रेम में ऐसे उन्मत्ता हुए कि अपनी कुल-मर्यादा को ही नहीं विसर्जन कर दिया,अपनी आत्मानुभूति को भी तिलांजलि दे दी। उनके मुख से प्रेम-मंत्रा-स्वरूप जब निकलता है तब 'सुभानअल्लाह' निकलता है। उनके पद्यों में 'सुभान' ही का गुणगान मिलता है। उसमें ईश्वरानुराग की गंधा भी नहीं आती। अच्छा होता यदि उन्होंने उस पंथ को स्वीकार किया होता, जिसको घनानंद और रसखान ने मानवी प्रेमोन्माद की समाप्ति पर ग्रहण किया, संतोष इतना ही है कि उन्होंने अपने धर्म को उस पर उत्सर्ग नहीं किया। हम अपने क्षोभ का शासन उसी से करते हैं। बोधा अपनी धुन के पक्के थे। प्रेम उनकी रग-रग में भरा था। उनमें जब इतनी आत्म-विस्मृति हो गयी थी कि वे सुभान के अभाव में संसार को अन्धाकारमय देखते थे और वही उनकी स्वर्गीय विभूति थी तो लोक-परलोक से उनका सम्बन्धा ही क्या था? देखिए, वे प्रेम के कंटकाकीर्ण मार्ग का चित्राण किस प्रकार करते हैं-

1. अति खीन मृनाल के तारहुँ ते

तेहि ऊपर पाँव दै आवनो है।

सुई बेह हूँ बेधि सकी न तहाँ

परतीति को टाँडो लदावनो है।

कवि बोधा अनी घनी नेजहुँ की

चढ़ितापै न चित्ता डगावनो है।

यह प्रेम को पंथ करार महा

तरवार की धार पै धावनो है।

2. लोक की लाज औ सोक प्रलोक को

वारिये प्रीति के ऊपर दोऊ।

गाँव को गेह को देह को नातो

सनेह में हाँ तो करै पुनि सोऊ।

बोधा सुनीति निबाह करै

धार ऊपर जाके नहीं सिर होऊ।

लोक की भीति डेरात जो मीत

तो प्रीति के पैंडे परै जनि कोऊ।

कवि के लिए सहृदय होना प्रधान गुण है। जिसका हृदय स्वभावत: द्रवणशील नहीं, जिसके हृदय में भावों का विकास नहीं, उसकी रचना में वह बात नहीं होती जिसको मर्मस्पर्शी कहा जाता है। बोधा की अधिकांश रचनाएँ ऐसी ही हैं, जिनसे उनका सरस हृदय कवि होना सिध्द है। उनके दो ग्रन्थ बतलाये जाते हैं। एक का नाम 'विरह वारीश' और दूसरे का 'इश्वनामा'। इन दोनों में उन्होंने प्रेम सम्बन्धी सूक्ष्म से सूक्ष्म भावों का बड़ा ही सुन्दर चित्राण किया है। इश्वनामा सुभान की प्रशंसा से पूर्ण है। उनके कुछ मानसिक उद्गार ऐसे हैं जिनमें भावुकता की मात्रा अधिक पाई जाती है। उनका वाच्यार्थ बहुत साप है। उनकी भाषा ललित ब्रजभाषा है यद्यपि उसमें कहीं-कहीं खड़ी बोली के प्रयोग भी मिल जाते हैं। उनकी रचना में जितने शब्द आते हैं वे उनके हृदय के रंग में रँगे होते हैं। इसलिए यदि वे कहीं शब्दों को तोड़-मरोड़ देते हैं या अन्य भाषा के शब्दों को लाते हैं तो उनका प्रयोग इस प्रकार करते हैं जिससे वे उनकी शैली के ढंग में ढले मिलते हैं। उनकी कुछ रचनाएँ देखिए-

1. एक सुभान के आनन पै

कुरबान जहाँ लगि रूप जहाँ को।

कैयो सतक्रतु की पदवी लुटिये

लखिकै मुसकाहट ताको।

सोक जरा गुजरा न जहाँ कबि

बोधा जहाँ उजरा न तहाँ को।

जान मिलै तो जहान मिलै नहिं जान

मिलै तो जहान कहाँ को।

2. बोधा किसू सों कहा कहिये ,

सो बिथा सुनि पूरि रहै अरगाइ कै।

याते भलो मुख मौन धारैं उपचार

करैं कहूँ औसर पाई कै।

ऐसो न कोऊ मिल्यो कबहूँ

जो कहै कछु रंच दया उर लाइ कै।

आवत है मुखलौं बढ़ि कै

फिर पीर रहै या सरीर समाइ कै।

3. कबहूँ मिलिबो कबहूँ मिलिबो

यह धीरज ही में धारैबो करैं।

उर ते कढ़ि आवै गरेते फिरै

मन की मन ही में सिरैबो करै।

कवि बोधा न चाव सरो कबहूँ

नितहूँ हरबा से हरैबो करै।

सहतेइ बनै करते न बनै

मन ही मन पीर पिरैबो करै।

4. हिलि मिलि जानै तासों मिलि कै जनावै हेत ,

हित को न जानै ताको हितू न बिसाहिये।

होय मगरूर तापै दूनी मगरूरी कीजै

लघु ह्नै चलै जो तासों लघुता निबाहिये।

बोधा कवि नीति को निबेरो यही भाँति अहै

आप को सराहै ताहि आप हूँ सराहिये।

दाता कहा सूर कहा सुन्दर सुजान कहा

आप को न चाहै ताके बाप को न चाहिए।

रसनिधि का मुख्य नाम पृथ्वी सिंह था। वे दतिया राज्य के एक जागीरदार थे। उनका रचा हुआ 'रतन हज़ारा' नामक एक ग्रन्थ है। यह बिहारी सतसई के अनुकरण से लिखा गया है। बिहारी के दोहों से टक्कर लेने की इसमें चेष्ट की गई है। किन्तु कवि को इसमें सफलता नहीं प्राप्त हुई उनके कुछ दोहे अवश्य सुन्दर हैं उन्होंने 'अरिल्लों' और 'माझों' की भी रचना की है, वे भी संगृहीत हो चुके हैं। उनके कुछ स्फुट दोहे भी हैं। वे शृंगार रस के ही कवि थे। अन्य रसों की ओर उनकी दृष्टि कम गई। महंत सीतल की तरह वे भी परसी के शब्दों, मुहावरों, उपमाओं और मुस्लिम संसार के आदर्श पुरुषों के भी प्रेमी थे। अपनी रचनाओं में यथास्थान उन्होंने उनको ग्रहण किया है। उनकी कविता की भाषा ब्रजभाषा है परन्तु उन्होंने अन्य भाषा के शब्दों का व्यवहार भी स्वतंत्रातापूर्वक किया है। बिहारी लाल के भावों ही की नहीं, उनके शब्दों और वाक्यों तक को आवश्यकतानुसार ले लिया है। फिर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि रसनिधि चाहे रसनिधि न हों पर वे रसिक हृदय अवश्य थे। उनकी अनेक रचनाएँ सरस हैं और उनमें मधुरता पाई जाती है, उन्होंने परसी के कुछ ऐसे विषय भी ले लिये हैं जो अशिष्ट कहे जा सकते हैं। किन्तु उनकी मात्रा थोड़ी है। उनके कुछ पद्य नीचे दिये जाते हैं-

1. रसनिधि वाके कहत हैं याही ते करतार।

रहत निरंतर जगत कों वाही के करतार।

2. हित करियत यहि भाँति सों मिलियत है वहि भाँति।

छीर नीर तैं पूछ लै हित करिबे की बात।

3. सुन्दर जोबन रूप जो बसुधा में न समाइ।

दृग तारन तिल बिच तिन्हैं नेही धारत लुकाइ।

4. मन गयंद छबि सद छके तोर जँजीरन जात।

हित के झीने तार सों सहजै ही बँधि जात।

5. उड़ो फिरत जो तृणसम जहाँ तहाँ बेकाम।

ऐसे हरुए कौ धारयो कहा जान मन नाम।

6. अद्भुत गति यह प्रेम की लखो सनेही आइ।

जुरै कहूँ , टूटै कहूँ , कहूँ गाँठ परि जाइ।

7. कहनावत मैं यह सुनी पोषत तन को नेह।

नेह लगाये अब लगी सूखन सगरी देह।

8. यह बूझन को नैन ये लग लग कानन जात।

काहू के मुख तुम सुनी पिय आवन की बात।

9. जेहि मग दौरत निरदई तेरे नैन कजाक

तेहि मग फिरत सनेहिया किये गरेबाँ चाक

10. लेउ न मजनूँ गोर ढिग कोऊ लैला नाम।

दरदवंत को नेक तौ लैन देउ बिसराम।

इन पद्यों में से छठे दोहे का उत्तारार्ध्द अक्षरश: बिहारीलाल के दोहे से ग्रहण कर लिया गया है। नौवें दोहे में 'गरेबाँ चाक'बिलकुल परसी का मुहावरा है। दसवें दोहे में लैला मजनूँ मुस्लिम संसार के प्रेमी और प्रेमिका हैं, जिनकी चर्चा कवि ने अपनी रचना में की है। ब्रजभाषा के नियमों का भी इन्होंने कहीं-कहीं त्याग किया है। चौथे दोहे के 'तोर' पाँचवें दोहे के 'जान'और आठवें दोहे के 'लग लग' शब्दों के अन्तिम अक्षरों की ब्रजभाषा के नियमानुसार इकार युक्त होना चाहिए। कवि ने ऐसा नहीं किया। दसवें दोहे का 'दरदवंत' शब्द भी इन्होंने गढ़ लिया है। 'दरद' परसी शब्द है और 'वंत' संस्कृत प्रत्यय है इन दोनों को मिलाकर जो कर्तृवाचक संज्ञा बनाई गई वह उनकी निरंकुशता है। इस प्रकार की शब्द-रचना युक्ति-संगत नहीं। उनकी रचना में इस तरह की बातें अधिकतर पाई जाती हैं। फिर भी वह आदरणीय कही जा सकती हैं।

इस शताब्दी के नीतिकार कवि, वृन्द, बैताल, गिरधार कविराय और घाघ हैं। इनकी रचनाओं ने हिन्दी संसार में नूतनता उत्पन्न की है, अच्छे-अच्छे उपदेशों और हितकर वाक्यों से उसे अलंकृत किया है। इसलिए मैं इन लोगों के विषय में भी कुछ लिख देना आवश्यक समझता हूँ। इस उद्देश्य से भी इन लोगों के विषय में कुछ लिखने की आवश्यकता है, जिससे यह प्रकट हो सके कि अठारहवीं शताब्दी में कुछ ऐसे नीतिकार कवि भी हुए जिन्होंने अपना स्वतन्त्रा पथ रक्खा, फिर भी उनकी रचना में ब्रजभाषा का पुट पाया जाता है। समाज के लिए नीति सम्बन्धी शिक्षा की भी यथासमय आवश्यकता होती है। इन कवियों ने इस बात को समझा और साहित्य के इस अंग की पूर्ति की, इसलिए भी उनकी चर्चा यहाँ आवश्यक है।

वृन्द औरंगजेब के दरबारी कवि थे। यह देखा जाता है कि अकबर के समय से ही मुगल सम्राटों के दरबार में कुछ हिन्दी कवियों का सम्मान होता आया है। अकबर के बाद जहाँगीर और शाहजहाँ के दरबारों में भी हिन्दी-सत्कवि मौजूद थे। इसी सूत्रा से औरंगजेब के दरबार में भी वृन्द का सम्मान था। औरंगजेब के पौत्र अजीमुश्शान ने ब्रजभाषा और उर्दू दोनों में अच्छी रचनाएँ की हैं। वृन्द प्राय: उन्हीं के साथ रहते थे। अजीमुश्शान बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा का सूबेदार था। वह ढाके में रहता था और वृन्द को भी अपने साथ ही रखता था। बिहारीलाल ने यदि शृंगार रस की सतसई बनाई तो वृन्द ने नीति सम्बन्धी विषयों पर सतसई की रचना कर ब्रजभाषा को एक उपयोगी उपहार अर्पण किया। कहा जाता है कि वृन्द संस्कृत और भाषा के विद्वान् थे और गौड़ ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे। वे कृष्णगढ़ के राजा राजसिंह के गुरु थे; मारवाड़ प्रान्त उनका जन्म स्थान था। वृन्द के तीन ग्रन्थ बतलाये जाते हैं, 'शृंगार शिक्षा', 'भाव-पंचाशिका' और 'वृन्द सतसई'। प्रधानता वृन्दसतसई को ही प्राप्त है, यही उनका प्रसिध्द ग्रन्थ है। उनकी रचनाएँ सरस एवं भावमयी हैं और कोमल शब्दों में की गई हैं। उनका वाच्यार्थ प्रा)ल है और कथन-शैली मनोहर। उपयोगिता की दृष्टि से वृन्द सतसई आदरणीय ग्रन्थ है, उसका यथेष्ट सम्मान हुआ भी। ग्रन्थ की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। नीति विषयक रचना होने पर भी वह कवितागत विशेषताओं से रहित नहीं है। कुछ पद्य देखिए-

1. जो कुछ वेद पुरान कही

सुन लीनी सबै जुग कान पसारे।

लोकहुँ में यह ख्यात प्रथा छिन में

खल कोटि अनेकन तारे।

वृन्द कहै गहि मौन रहे किमि हां

हठि कै बहु बार पुकारे।

बाहर ही के नहीं सुनौ हे हरि

भीतर हूँ ते अहौ तुम कारे।

2. जो जाको गुन जानही सो तेहिं आदर देत।

कोकिल अंबहि लेत है काग निबौरी हेत।

3. ओछे नर की प्रीति की दीनी रीति बताय।

जैसे छीलर ताल जल घटत घटत घटि जाय।

4. करिये सुख को होत दुख यह कहु कौन सयान।

वा सोने कौ जारिये जासों टूटै कान।

5. भले बुरे सब एक सों जौ लौं बोलत नाहिं।

जानि परत हैं काक पिक ऋतु बसंत के माहिं।

इनके दोहों में विशेषता यह है कि प्रथमार्ध्द में जो विषय कहा गया है उत्तारार्ध्द में दृष्टान्त देकर उसी को पुष्ट किया गया है। यह दृष्टान्तालंकार का रूप है। इस प्रणाली के ग्रहण से उन्होंने जो बात कही है उसको अधिक पुष्टि प्राप्त हो गई है और इसी से इनकी सतसई की उपयोगिता बहुत बढ़ गई है। वृन्द पहले कवि हैं जिन्होंने इस मार्ग को ग्रहण कर पूरी सफलता लाभ की। स्फुट श्लोक और दोहे इस प्रकार के मिलते हैं, परन्तु ऐसे सात सौ दोहों का एक ग्रन्थ निर्माण कर देना वृन्द का ही काम था। इस दृष्टि से ब्रजभाषा साहित्य में उनका विशेष स्थान है।

नीति विषयक रचनाओं में वृन्द के बाद बैताल का ही स्थान है। वे जाति के बंदीजन थे और चरखारी के राजा विक्रमशाह के दरबार में रहते थे। उनका कोई ग्रन्थ नहीं है। परन्तु स्फुट छप्पय अधिक मिलते हैं जो नीति-सम्बन्धी हैं। उनकी मुख्य भाषा ब्रजभाषा है, परन्तु वे शब्द-विन्यास में अधिक स्वतंत्रा हैं। कभी ग्रामीण शब्दों का प्रयोग करने लगते हैं, कभी बैसवाड़ी और अवधी का। उनकी भाषा चलती और प्रा)ल अवश्य है। भाव-प्रकाशन-शैली भी सुन्दर है, यद्यपि उसमें कहीं-कहीं उच्छृंखलता पाई जाती है। वे इच्छानुसार शब्द और मुहावरे भी गढ़ लेते हैं, परसी और श्रुति-कटु शब्द का प्रयोग भी ऐसे ढú से करते हैं जिससे भाषा पर उनका पूर्ण अधिकार नहीं पाया जाता। रोचकता उनकी रचना में है, साथ ही कटुता भी। कुछ पद्य उनके देखिए-

1. दया चट्ट ह्नै गई धारम धाँसि गयो धारन में

पुन्न गयो पाताल पाप भयो बरन बरन में।

राजा करै न न्याय प्रजा की होत खुआरी

घर घर में बेपीर दुखित भे सब नर-नारी।

अब उलटि दानगजपति मँगै सील सँतोष कितै गयो।

बैताल कहै बिक्रम सुनो यह कलियुग परगट भयो।

2. ससि बिनु सूनी रैनि ज्ञान बिनु हिरदय सूनो।

कुल सूनो बिन पुत्र पत्रा बिनु तरुवर सूनो।

गज सूनो इक दंत ललित बिनु सायर सूनो।

बिप्र सून बिनु बेद और बन पुहुप बिहूनो

हरि नाम भजन बिनु संत अरु घटा सून बिनु दामिनी।

बैताल कहै विक्रम सुनो पति बिनु सूनी कामिनी

3. बुधि बिनु करै बेपार दृष्टि बिनु नाव चलावै।

सुर बिन गावै गीत अर्थ बिनु नाच नचावै।

गुन बिन जाय बिदेस अकल बिन चतुर कहावै।

बल बिन बाँधो जुध्द हौस बिन हेत जनावै।

अन इच्छा इच्छा करे अन दीठी बाताँ कहै।

बैताल कहै बिक्रम सुनो यह मूरख की जात है

4. पग बिन कटे न पन्थ बाहु बिन हटे न दुर्जन।

तप बिन मिलै न राज्य भाग्य बिन मिलै न सज्जन।

गुरु बिन मिलै न ज्ञान द्रव्य बिन मिलै न आदर।

बिना पुरुष शृंगार मेघ बिन कैसे दादुर।

बैताल कहै बिक्रम सुनो बोल बोल बोली हटे।

धिक्क धिक्क ता पुरुष को मन मिलाइ अन्तर कटे

चिद्दित शब्दों और वाक्यों को देखिए। उनसे ज्ञात हो जावेगा कि जो दोष मैंने उनकी रचना में बतलाये हैं, वे सब उनमें विद्यमान हैं। फिर भी उपयोगिता-दृष्टि से बैताल की रचना सम्मान योग्य है।

गिरधार कविराय इस शताब्दी के तीसरे नीतिकार हैं। इन्होंने अपनी प्रत्येक कुंडलियों के अन्त में अपने को गिरधार कविराय लिखकर प्रकट किया है। कविराय शब्द यह बतलाता है कि वे जाति के ब्रह्मभट्ट थे। किसी दरबार से इनका सम्बन्धा नहीं पाया जाता। यदि हो भी तो इस विषय में कहीं कुछ लिखा नहीं मिलता। जिस भाषा में उन्होंने अपनी रचनाएँ की हैं, उससे ये अवधा प्रान्त के मालूम होते हैं। इनकी भाषा में खड़ी बोली, अवधी (बैसवाड़ी) और ब्रजभाषा तीनों का मेल है। भाषा का झुकाव अधिकतर अवधी की ओर है। ये अनगढ़ और भद्दे शब्दों का प्रयोग भी कर जाते हैं, जिससे भाषा प्राय: कलुषित हो जाती हैं। ये सब दोष होने पर भी इनमें सीधो-सादे शब्दों में यथार्थ बात कहने का अनुराग पाया जाता है, जो गुण है। इसी से इनकी रचनाएँ अधिकतर प्रचलित भी हैं। इस कवि का उद्देश्य जनता में नीति-सम्बन्धी बातों का प्रचार करना ज्ञात होता है। इसलिए उसने ठेठ ग्रामीण शब्दों के प्रयोग करने में भी संकोच नहीं किया। इनका कोई ग्रन्थ नहीं मिलता। स्फुट रचनाएँ ही पायी जाती हैं जो कुछ लोगों के कण्ठ से सुनी जाती हैं। जो पठित नहीं हैं उनके मुख से भी कभी-कभी कविराय जी की कुंडलियाँ सुन पड़ती हैं। इससे उनकी रचना की व्यापकता प्रकट होती है। यह तो नहीं कहा जा सकता कि सन्तों की बानियों के समान उनकी रचना में भी साहित्यिकता नहीं मिलती, किन्तु यह सत्य है कि उनका शब्द-विन्यास संयत नहीं। ये ऊटपटाँग बातें नहीं कहते, परन्तु ऊटपटाँग शब्दों से अवश्य काम लेते हैं। उनके कुछ पद्य देखिए और उन शब्दों और वाक्यों पर भी विचार-दृष्टि डालते जाइए जो चिद्दित हैं-

1. रहिये लटपट काटि दिन बरु घामे माँ सोय

छाँह न वाकी बैठिये जो तरु पतरो होय

जो तरु पतरो होय एक दिन धोखा दैहै

जा दिन बहै बयारि टूटि तब जर से जैहै

कह गिरधार कविराय छाँह मोटे की गहिये।

पाता सब झरि जाय तऊ छाया में रहिये।

2. साई घोड़े आछतहिं गदहन पायो राज।

कौआ लीजे हाथ में दूरि कीजिये बाज।

दूरि कीजिये बाज राज पुनि ऐसो आयो।

सिंह कीजिये कैद स्यार गजराज चढ़ायो।

कह गिरधार कविराय जहाँ यह बूझि बड़ाई।

तहाँ न कीजे भोर साँझ उठि चलिये साँई।

3. साँई बेटा बाप के बिगरे भयो अकाज।

हरिनाकस अरु कंस को गयउ दुँहुन को राज।

गयउ दुहुँन को राज बाप बेटा में बिगरे।

दुसमन दावादार भये महिमंडल सिगरे।

कह गिरिधार कविराय युगन याही चलि आई।

पिता पुत्र के बैर नफा कहु कौने पाई।

4. बेटा बिगरे बाप सों करि तिरियन सों नेहु।

लटापटी होने लगी मोहिं जुदा करि देहु।

मोहि जुदा करि देहु घरी माँ माया मेरी।

लैहौं घर अरु द्वार करौं मैं फजिहत तेरी।

कह गिधिर कविराय सुनो गदहा के लेटा।

समै परयो है आय बाप से झगरत बेटा।

इनकी दो सरस रचनाएँ भी सुनिये-

5. पानी बाढ़ो नाव में घर में बाढ़ो दाम।

दोनों हाथ उलीचिये यही सयानो काम।

यही सयानो काम राम को सुमिरन कीजै।

परस्वारथ के काज सीस आगे धारि दीजै।

कह गिरिधार कबिराय बड़ेन की याही बानी।

चलिये चाल सुचाल राखिये अपनो पानी।

6. गुन के गाहक सहस नर बिनु गुन लहै न कोय

जैसे कागा कोकिला सब्द सुनै सब कोय।

सब्द सुनै सब कोय कोकिला सबै सुहावन।

दोऊ को एक रंग काग सब भये अपावन।

कह गिरिधार कविराय सुनौ हो ठाकुर मन के।

बिनु गुन लहै न कोय सरस नर गाहक गुन के।

इनकी एक शृंगार रस की रचना भी सुनिये-

7. सोना लादन पिय गये सूना करि गये देस।

सोना मिला न पिय मिले रूपा ह्नै गये केस।

रूपा ह्नै गये केस रोय रँग रूप गँवाया

सेजन को बिसराम पिया बिन कबहुँ न पाया

कह गिरिधार कविराय लोन बिन सबै अलोना।

बहुरि पिया घर आउ कहा करिहौं लै सोना।

इनके किसी किसी पद्य में साँईं शब्द मिलता है। यह किंवदन्ती है कि जिन कुंडलियों में साँईं शब्द आता है वे उनकी स्त्री की बनाई हुई हैं। सम्भव है कि ऐसा हो। परन्तु निश्चित रूप से कोई बात नहीं कही जा सकती। जो दो सरस पद्य मैंने ऊपर लिखे हैं और एक पद्य जो शृंगार रस का लिखा गया है, उनसे कवि का सरस हृदय होना स्पष्ट है। शृंगार रस के पद्य में कितनी भावुकता है! इसका वाच्यार्थ कितना साफ है। मेरी सम्मति है कि गिरिधार कविराय वास्तव में कवि-हृदय थे। हाँ, कुछ पद्यों में वे असंयत शब्द-प्रयोग करते देखे जाते हैं। इसका कारण पद्य गत विषय के यथार्थ चित्राण की चेष्टा है। प्रमाणस्वरूप चौथे पद्य को देखिए। शिष्टता की दृष्टि से उसमें असंयत-भाषिता अवश्य है। परन्तु विषयानुसार वह बुरा नहीं कहा जा सकता। इस दृष्टि से अपने इस प्रकार के प्रयोगों के विषय में वे इस योग्य नहीं कि उन पर कटाक्ष किया जाय। उनकी भाषा में भी अधिकतर अवधी और ब्रजभाषा के ही शब्द आते हैं। अन्य भाषा के या ग्रामीण शब्द जो यत्रा-तत्रा आ गये हैं, उनके लिए केवल इतना ही कहा जा सकता है कि वे यदि और अधिक संयत होते तो अच्छा था। कुछ लोगों की सम्मति है कि बैताल की भाषा इनकी भाषा से अच्छी है। निस्संदेह, शब्द-विन्यास में बैताल उनसे अधिक संयत हैं। परन्तु दोनों के हृदय में अंतर है। वे असरस हृदय हैं और ये सरस-हृदय।

घाघ कौन थे, किस जाति के थे, यह नहीं कहा जा सकता। उनका नाम भी विचित्र है। उससे भी उनके विषय में कुछ अनुमान नहीं किया जा सकता। कुछ लोग कहते हैं, वे कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे, वे जो हों, परन्तु उनके अनुभवी पुरुष होने में सन्देह नहीं। उन्होंने जितनी बातें कही हैं, वे सब नपी-तुली हैं और उनमें समाज के मानसिक भावों का अनेक स्थल पर सुन्दर चित्रा है। उन्होंने ऋतुओं के परिवर्तन और कृषि आदि के विषय में कुछ बातें ऐसी कही हैं जिनसे समय-ज्ञान पर उनका अच्छा अधिकार पाया जाता है। कैसी हवा बहने पर कितनी वृष्टि होने की आशा होती है, वर्षा के किन नक्षत्रों का क्या प्रभाव होता है, और किस नक्षत्रा में कृषिकार्य किस प्रकार करने से क्या फल होगा, इन सब बातों को उन्होंने बड़े अनुभव के साथ कहा है। भाषा उनकी ग्रामीण है और उसमें अवधी एवं बैसवाड़ी का मिश्रण पाया जाता है, उसमें ग्रामीणों की बोलचाल और मुहावरों का भी बहुत सुंदर व्यवहार है। उनके कथन में प्रवाह है और भाषा उनकी चलती है। कुछ रचनाएँ तो उनकी ऐसी हैं जो समाज के हृदय का दर्पण हैं। यही कारण है कि उनकी रचनाओं का युक्त प्रान्त के पूर्वी भाग में अधिक प्रचार है। प्रचार ही नहीं,उसके अनुसार लोग किसानी का काम करने में ही सफलता की आशा करते हैं। मूर्ख किसानों को भी उनकी रचनाओं को पढ़ते और उनके अनुसार कार्य करते देखा जाता है। नीति और लौकिक व्यवहार-सम्बन्धी बातें भी उन्होंने अधिकता से कही हैं। उनकी रचना की विशेषता यह है कि जिस भाषा में उन्होंने रचना की है उस पर उनका पूरा अधिक ज्ञात होता है। उनकी दृष्टि इस ओर भी पाई जाती है कि उसमें सरलता और स्वाभाविकता की न्यूनता न हो। उनके कुछ पद्य देखिए-

1. भुइयाँ खेड़े हर होइ चार।

घर होइ गिहिथिन गऊ दुधार।

रहर दाल जड़हन का भात।

गागल निबुआ औ घिउ तात।

2. सहरस खंड दही जो होइ।

बाँके नैन परोसै जोइ।

कहै घाघ तब सबही झूठा।

उहाँ छाड़ि इहँवैं बैकुंठा।

3. नसकट खटिया दुलकन घोड़।

कहै घाघ यह बिपति क ओर।

बाछा बैल पतुरिया जोय।

ना घर रहै न खेती होय।

4. बनियाँ क सखरज ठकुर क हीन।

बैद क पूत रोग नहिं चीन्ह।

पंडित चुप चुप बेसवा मइल।

कहै घाघ पाँचों घर गइल।

5. माघ क ऊषम जेठ क जाड़।

पहिले बरषे भरि गये गाड़।

कहै घाघ हम होब बियोगी।

कुऑं खोदि कै धोइहैं धोबी।

6. मुये चाम से चाम कटावै।

सकरी भुइँ महँ सोवै।

कहै घाघ ये तीनों भकुआ।

उढ़रि गये पर रोवै।

7. गया पेड़ जब बकुला बैठा।

गया गेह जब मुड़िया पैठा।

गया राज जहँ राजा लोभी।

गया खेत जहँ जामी गोभी।

8. नीचे ओद उपर बदराई।

कहै घाघ तब गेरुई खाई।

पछिवाँ हवा ओसावै जोई।

घाघ कहै घुन कबहुँ न होई।

घाघ की रचनाएँ ग्रामीण भाषा में होने के कारण प्राय: हिन्दी साहित्य के इतिहासकारों ने उनकी उपेक्षा की है। परन्तु मैं समझता हूँ कि ऐसा करना उचित नहीं। घाघ ने जिस भाषा में अपनी रचना की है वह हिन्दी ही है और वास्तव में बोल-चाल की भाषा है। साथ ही उनकी उक्तियाँ उपयोगिनी हैं। इसलिए उनकी रचना का महत्तव कम नहीं। जिस समय ब्रजभाषा और अवधी में रचना हो रही थी, उस समय एक ग्रामीण भाषा की रचना लेकर घाघ का सामने आना साहस का काम था। उनका यह साहस प्रशंसनीय है, निन्दनीय नहीं। विषय की दृष्टि से भी उनकी रचना कम आदरणीय नहीं। उनकी रचनाओं में वह अनुभव भरा हुआ है, जिसका ज्ञान सबके लिए समान हितकारक है।

इन्हीं नीतिकार कवियों के साथ 'प्रीतम' कवि की चर्चा भी उचित जान पड़ती है। इनका असली नाम मुहिब्ब खाँ था। ये आगरे के रहने वाले थे। इन्होंने 'खटमल बाईसी' नामक एक छोटे से ग्रन्थ की रचना की है, जिसमें बाईस कवित्ता हास्य रस के हैं। शायद यही हिन्दी संसार का एक ऐसा कवि है जिसने एक रस पर इतनी थोड़ी रचना करके बहुत कुछ प्रसिध्दि प्राप्त की,चर्चा होने पर प्रीतम को हिन्दी-संसार का प्रत्येक सहृदय कवि प्रीति के साथ स्मरण करता है और उनकी रचनाओं को पढ़कर खिलखिला उठता है। उनकी रचना सरस है और साहित्यिक ब्रजभाषा में लिखी गई है। जिसमें प्रतिभा छलकती है। और वह चमत्कार दृष्टिगत होता है जो हास्य रस का चित्रा सामने खड़ा कर देता है। दो पद्य देखिए-

1. जगत के कारन करन चारों वेदन के

कमल में बसे वै सुजान ज्ञान धारिकै।

पोषन अवनि दुख सोषन तिलोकन के

समुद में जाय सोये सेस सेज करिकै।

मदन जरायो जो सँहारैं दृष्टि ही में सृष्टि

बसे हैं पहार बेऊ भाजि हरिबरिकै।

बिधि हरि हर और इनसे न कोऊ

तेऊ खाट पर न सोवैं खटमलन सों डरिकै।

2. बाघन पै गयो देखि बनन मैं रहैं छकि

साँपन पै गयो ते पताल ठौर पाई है।

गजन पै गयो धूलि डारत हैं सीस पर

वैदन पै गयो काहू दारू ना बताई है।

जब हहराय हम हरि के निकट गये

हरि मों सों कही तेरी मति भूल छाई है।

कोऊ ना उपाय भटकति जिन डोलै सुन

खाट के नगर खटमल की दोहाई है।

इस शताब्दी में तीन प्रसिध्द प्रबन्धकार भी हुए हैं। एक सूदन, दूसरे ब्रजवासीदास और तीसरे मधुसूदनदास। सूदन माथुर ब्राह्मण थे और भरतपुर के राजा सूरजमल के यहाँ रहते थे। भूषण और गोरेलाल के उपरान्त हिन्दी-संसार के वीर रस के अन्यतम प्रसिध्द कवि सूदन ही हैं। इनका सुजान-चरित्रा बड़ा विशद ग्रन्थ है, इसमें उन्होंने सूरजमल के अनेक युध्दों का वर्णन बड़ी ही ओजपूर्ण भाषा में किया है। इस ग्रन्थ की भाषा खड़ी बोलचाल मिश्रित ब्रजभाषा है। इसमें उनकी पंजाबी भाषा की कुछ रचनाएँ भी मिलती हैं। इसका कारण यह है कि प्रसंगवश जब किसी पंजाबी से कुछ कहलाना पड़ा है तब उसको उससे उन्होंने पंजाबी भाषा में ही कहलाया है, इसलिए उनकी कृति में पंजाबी शब्दों का प्रयोग भी मिलता है। किन्तु उनकी संख्या थोड़ी है। अपने इस एक ग्रन्थ के कारण ही हिन्दी-संसार में सूदन को वीररस के कवियों में एक विशेष स्थान प्राप्त है। इनके ग्रन्थ में नाना छन्द हैं, उनमें कवित्ताों की संख्या भी पर्याप्त है। दशम ग्रन्थ साहब में वीर रस के जैसे 'तागिड़दं तीरं' इत्यादि छन्द लिखे गये हैं उसी प्रकार और उसी ढंग के कितने छंद इस ग्रन्थ में भी हैं। कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं-

1. एकै एक सरस अनेक जे निहारे तन

भारे लाज भारे स्वामि काज प्रतिपाल के।

चंग लौं उड़ायो जिन दिली की वजीर भीर

मारी बहु मीरन किये हैं बेहवाल के।

सिंह बदनेस के सपूत श्री सुजान सिंह

सिंह लौं झपटि नख दीन्हें करवाल के।

वेई पठनेटे सेल सांगन खखेटे

भूरि धूरि सों लपेटे लेटे भेंटे महाकाल के।

2. सेलन धाकेला ते पठान मुख मैला होत

केते भट मेला हैं भजाये भ्रुव भंग मैं।

तंग के कसेते तुरकानी सब तंग कीनी

दंग कीनी दिली और दुहाई देत बंग मैं।

सूदन सराहत सुजान किरवान गहि

धायो धीर धारि बीरताई की उमंग मैं।

दक्खिनी पछेला करि खेला तैं अजब खेल

हेला मारि गंग मैं रुहेला मारे जंग मैं।

3. बंगन के लाज मऊ खेत की अवाज यह

सुने व्रजराज ते पठान वीर बबके।

भाई अहमद खान सरन निदान जानि

आयो मनसूर तौ रहै न अब दब के।

चलना मुझे तो उठ खड़ा होना देर क्या है

बार बार कहेते दराज सीने सब के।

चण्ड भुज दण्ड बारे हयन उदण्ड वारे

कारे कारे डोलनि सवारे होत रब के।

एक पद्य इनका और सुनिए, जिसमें श्रीमती पार्वती अपने घर का विचित्र हाल वर्णन कर रही है-

आप विष चाखै भैया षट मुख राखै

देखि आसन मैं राखै बसवास जाको अचलै।

भूतन के छैया आस पास के रखैया

और काली के नथैया हूँ के धयान हूँ ते न चलै।

बैल बाघ वाहन वसन को गयन्द खाल

भाँग को धातूरे को पसारि देत ऍंचलै।

घर को हवाल यहै संकर की बाल कहै

लाज रहै कैसे पूत मोदक को मचलै।

सूदन की रचना की विशेषता यही है कि उन्होंने प्रौढ़ भाषा में वीर रस का एक उल्लेखनीय ग्रन्थ लिखा। ये ब्रजभूमि के ही निवासी थे और ब्रजराज कहलाने वाले राज-दरबार में रहते थे इसलिए वे अपने ग्रन्थ को साहित्यिक ब्रजभाषा में ही लिख सकते थे। परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया। अनेक भाषाओं पर अपना अधिकार प्रकट करने के लिए पंजाबी और खड़ी बोली के वाक्य और शब्द भी उसमें मिलाये। ऐसा करने से उनकी अनेक भाषा-भिज्ञता तो प्रकट हुई परन्तु ब्रजभाषा की साहित्यिकता सुरक्षित न रह सकी। उनकी ब्रजभाषा उतनी प्रौढ़ नहीं है जितनी उसे होना चाहिए था। फिर भी सुजान-चरित्रा में उसका बड़ा सुन्दर साहित्यिक रूप कहीं-कहीं दृष्टिगत होता है, जिससे उनका कवि-कर्म अपनी महत्ता बनाये रखता है।

ब्रजवासी दास अपने 'ब्रजविलास' के कारण बहुत प्रसिध्द हैं। ये जाति के ब्राह्मण और वल्लभ सम्प्रदाय के शिष्य थे। मथुरा या वृन्दावन में इनका निवास था। इन्होंने संस्कृत 'प्रबोधा चन्द्रोदय' नाटक का विविधा छन्दों में अनुवाद किया, परन्तु यह ग्रन्थ सर्वसाधारण को उतना प्रिय नहीं हुआ जितना 'ब्रज-विलास'। ब्रज-विलास की रचना उन्होंने सूरदास के पदों के आधार से की है। वरन् यह कहा जा सकता है कि उनके पदों को, चौपाइयों, दोहाओं, सोरठाओं और विविधा छन्दों में परिणत कर दिया है। ये स्वयं इसको स्वीकार करते हैं। यथा-

भाषा को भाषा करौं छमिये सब अपराधा।

जेहि तेहि विधि हरि गाइये कहत सकल श्रुति साधा।

या मैं कछुक बुध्दि नहिं मेरी।

उक्ति युक्ति सब सूरहिं केरी।

मोते यह अति होत ढिठाई।

करत विष्णु पद की चौपाई।

ब्रजवासी दास का यह महत्तव है कि वे ब्रजविलास की रचना से अपनी प्रतिभा का कोई सम्बन्धा स्वीकार नहीं करते। परन्तु उसमें उनका निजस्व भी देखा जाता है। उन्होंने स्थान-स्थान पर कथाओं को संगठित रूप में इस सरलता के साथ कहा है कि उनमें विशेष मधुरता आ गई है। यह उनकी भावमयी और सरस प्रकृति का ही परिणाम है। उन्होंने गोस्वामी जी का अनुकरण किया है, परन्तु उनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है, जिससे सरसता टपकी पड़ती है। उनके ग्रन्थ का शब्द-विन्यास इतना कोमल है और उसमें कुछ ऐसा आकर्षण मिलता है जो स्वभावतया हृदयों को अपनी ओर खींच लेता है। उनके इस ग्रन्थ का प्रचार भी अधिक है, विशेषकर ब्रजप्रान्त और युक्त-प्रान्त के पश्चिमीय भाग में। 'प्रबोधा चन्द्रोदय' का अनुवाद मेरे देखने में नहीं आया। सुना है उसकी भाषा भी ऐसी ही ललित है। मैं उनके कुछ पद्य ब्रजविलास से उठाता हूँ। उनके पढ़ने से आपको यह अनुभव होगा कि उनकी रचना में कितना लालित्य है। चन्द्रमा को देखकर कृष्णचन्द्र मचल गये हैं और उसको लेना चाहते हैं। माता ने एक थाली में जल भरकर चन्द्रमा को उनके पास पकड़ मँगाया। उसी समय का यह वर्णन है। देखिए उसकी मनोहरता और स्वाभाविकता-

लेहु लाल यह चन्द्र मैं लीन्हों निकट बुलाय।

रोवै इतने के लिए तेरी स्याम बलाय

देखहु स्याम निहारि या भाजन में निकट ससि।

करी इती तुम आरि जा कारन सुन्दर सुअन

ताहि देखि मुसुकाइ मनोहर।

बारबार डारत दोऊ कर।

चंदा पकरत जल के माहीं।

आवत कछू हाथ में नाहीं।

तब जल पुट के नीचे देखे।

तहँ चंदा प्रतिबिंब न पेखे।

देखत हँसी सकल व्रज-नारी।

मगन बाल-छबि लखि महतारी।

तबहिं स्याम कछु हँसि मुसकाने।

बहुरो माता सों बिरुझाने।

लउँगौ री या चंदा लउँगौ।

वाहि आपने हाथ गहूँगौ।

यह तो कलमलात जल माहीं।

मेरे कर में आवत नाहीं।

बाहर निकट देखियत नाहीं।

कहौ तो मैं गहि लावौं ताही।

कहत जसोमति सुनहु कन्हाई।

तुअ मुख लखि सकुचत उड़घराई।

तुम तेहि पकरन चहत गुपाला।

ताते ससि भजि गयो पताला।

अब तुमते ससि डरपत भारी।

कहत अहो हरि सरन तुम्हारी।

बिरुझाने सोये दै तारी।

लिय लगाय छतियाँ महतारी।

लै पोढ़ाये सेज पर हरि को जसुमति माय।

अति बिरुझाने आज हरि यह कहि कहि पछिताय

देखिए इस पद्य में बालभाव का अथच माता के प्यार का कितना स्वाभाविक वर्णन है। निस्सन्देह, यह प्रवाह सूर-सागर से आया है। परन्तु उसको अपने ढंग से प्रवाहित कर ब्रजवासीदास ने बहुत कुछ सहृदयता दिखलाई है और यही उनका निजस्व है। जो लोग सूर-सागर में धाँसकर उसका पूर्ण आनन्द लाभ करने के अधिकारी नहीं हैं, उनके लिए ब्रजविलास की रचना है जो सर्वसाधारण के हृदय में चिरकाल से आनन्द रस-धारा बहाती आई है।

मधुसूदनदास माथुर चौबे थे। इन्होंने 'रामाश्वमेधा' नामक एक बड़ा मनोहर प्रबन्धा काव्य लिखा है, इसको संस्कृत रामाश्वमेधा का अनुवाद नहीं कह सकते। यह अवश्य है कि उसी के आधार से इस ग्रंथ की रचना हुई है। परन्तु मधुसूदनदास ने अनेक स्थानों पर स्वतंत्रा पथ भी ग्रहण किया है। उनके इस ग्रंथ को हम रामचरितमानस का परिशिष्ट कह सकते हैं। रामाश्वमेधाकार ने रामचरितमानस का ही अनुकरण किया है और उसमें अधिकतर सफलता लाभ की है। उनकी यह रचना कहीं-कहीं रामचरितमानस की भाषा से इतनी मिल जाती है कि वह ठीक गोस्वामीजी की कृति जान पड़ती है। अवधी भाषा ही में यह ग्रंथ लिखा गया है। परन्तु गोस्वामीजी की रचना के समान उसमें भी संस्कृत के तत्सम शब्द अधिक आते हैं। उनकी भाषा को हम परिमार्जित अवधी कह सकते हैं, जिसमें कहीं-कहीं गोस्वामीजी के समान ही ब्रजभाषा का पुट पाया जाता है। इस ग्रंथ का प्रचार बहुत कम हुआ, परन्तु ग्रंथ सुंदर और पठनीय है। इसके कुछ पद्य देखिए-

सिय रघुपति-पद-कंज पुनीता।

प्रथमहिं बंदन करौं सप्रीता।

मृदु मंजुल सुन्दर सब भाँती।

ससि कर सरिस सुभग नखपाँती।

प्रणत कल्पतरु तरु सब ओरा।

दहन अज्ञ तम जन चित चोरा।

त्रिविधा कलुष कुंजर घनघोरा।

जग प्रसिध्द केहरि बरजोरा।

चिंतामणि पारस सुर धोनू।

अधिक कोटि गुन अभिमत देनू।

जन मन मानस रसिक मराला।

सुमिरत भंजन बिपति बिसाला।

इस शताब्दी में निर्गुणवादियों में चरनदास का नाम ही अधिक प्रसिध्द है। उनके बाद उनकी शिष्या सहजोबाई और दयाबाई का नाम लिया जा सकता है। चरनदास जी राजपूताना निवासी थे। कहा जाता है कि उन्नीस वर्ष की अवस्था में उनको वैराग्य हो गया था। वे बाल ब्रह्मचारी थे। उनके शिष्यों की संख्या बावन बतलाई जाती है। उनकी बावन गद्दियाँ अब तक वर्तमान हैं। उनके पंथ वाले चरनदासी कहलाते हैं। उनके दो ग्रन्थ मिलते हैं, एक का नाम है 'ज्ञान-स्वरोदय' और दूसरे का'चरनदास की बानी'। दादूदयाल का जो सिध्दान्त था लगभग वही सिध्दान्त उनका भी था। कबीर पंथ की छाया भी उनके पंथ पर पड़ी है। वे भी एक प्रकार से अपठित थे। उनकी भाषा भी संत बानियों की-सी ही है। उसमें किसी भाषा का विशेष रंग नहीं। परन्तु ब्रजभाषा के शब्द उसमें अधिक मिलते हैं और कहीं-कहीं राजस्थानी की झलक भी दृष्टिगत होती है। 'स्वरोदय' की रचना जटिल है। उसमें संस्कृत के तत्सम शब्द भी अधिक आये हैं, और वे कहीं-कहीं उसमें अव्यवस्थित रूप में पाये जाते हैं,जिससे भाषा का माधार्ुय्य बहुत कुछ नष्ट हो जाता है। यत्रा-तत्रा छन्दोभंग भी है। उनके कुछ पद्य देखिए और जो चिद्दित शब्द हैं, उन पर विशेष धयान दीजिए-

1. चार वेद का भेद है गीता का है जीव।

चरनदास लखु आपको तोमैं तेरा पीव।

2. मुक्त होय बहुरै नहीं जीव खोज मिटि जाय।

बुंद समुंदर मिलि रहै दुनिया ना ठहराय।

3. सूछम भोजन कीजिये रहिये ना पड़ सोय।

जल थोरा-सा पीजिये बहुत बोल मत खोय।

4. सतगुरु मेरा सूरमा करै शब्द की चोट।

मारे गोला प्रेम का ढहै भरम का कोट।

5. धान नगरी धान देस है धान पुर पट्टन गाँव।

जहँ साधु जन उपजियो ताका बल बल जाँव।

6. जग माँही ऐसे रहो ज्यों अंबुज सर माहिं।

रहै नीर के आसरे पै जल छूवै नाहिं।

7. दया नम्रता दीनता छिमा सील संतोष।

इन कहँ लै सुमिरन करै निहचै पावै मोख।

8. चरनदास यों कहत हैं सुनियो संत सुजान।

मुक्ति मूल आधीनता नरक मूल अभिमान।

9. चंद सूर्ज दोउ सम करै ठोढ़ी हिये लगाय।

षट चक्कर को बेधा कर शून्य शिखर को जाय।

10. ब्याह दान तीरथ जो करै। बस्तर भूषण घर पगधारै।

11. दहिने स्वर झाड़े फिरै , बाएँ लघुशंकाय

मुक्ती ऐसी साधिये , दोनों भेद बताय।

सहजोबाई और दयाबाई दोनों चरनदास की शिष्या थीं और दोनों ही ढूसर वंश की थीं। दोनों ही आजन्म उनकी सेवा में रहीं और परमार्थ में ही अपना जीवन व्यतीत किया। इन दोनों की गुरु-भक्ति प्रसिध्द है। इनकी रचनाओं में भी इसकी झलक पायी जाती है। भाषा इन दोनों की ब्रजभाषा है। परंतु निर्गुणवादियों का ढंग भी उसमें पाया जाता है। ये दोनों भी चित्ता की उमंग से ही कविता करती थीं। उनके बोधा पर सत्संग का प्रभाव था, पढ़ी-लिखी वे थीं या नहीं, इस विषय में कहीं कुछ लिखा नहीं मिलता। सहजोबाई ने कोई ग्रन्थ नहीं बनाया। उनकी स्फुट कविताएँ पायी जाती हैं। उनमें से कुछ यहाँ लिखी जाती हैं-

1. निश्चय यह मन डूबता लोभ मोह की धार।

चरनदास सतगुरु मिले सहजो लई उबार।

2. सहजो गुरु दीपक दियो नैना भये अनंत।

आदि अंत मधा एक ही सूझि परै भगवंत।

3. जब चेतै जहँ ही भला मोह नींद सूँ जाग।

साधू की संगति मिलै सहजो ऊँचे भाग।

4. अभिमानी नाहर बड़ो भरमत फिरत उजार।

सहजो नन्ही बाकरी प्यार करै संसार।

5. सीस कान मुख नासिका ऊँचे ऊँचे नाँव।

सहजो नीचे कारने सब कोई पूजे पाँव।

दयाबाई का एक ग्रन्थ है, जिसका नाम है 'दयाबोधा'। उसके आधार से उनके कुछ पद्य नीचे दिये जाते हैं-

1. बौरी ह्नै चितवत फिरूँ हरि आवैं केहि ओर।

छिन उट्ठू छिन गिर परूँ राम दुखी मन मोर।

2. प्रेम पुंज प्रगटै जहाँ तहाँ प्रगट हरि होय।

दया दया करि देत हैं श्रीहरिदरसन सोय।

3. दया कुँवारि या जगत में नहीं रह्यो थिर कोय।

जैसो बास सराय को तैसो यह जग होय।

4. बड़ो पेट है काल को नेक न कहूँ अघाय।

राजा राना छत्रापति सबकूँ लीले जाय।

5. दुख तजि सुख की चाह नहिं नहिं बैकुंठ विमान।

चरन कमल चित चहत हौं मोहि तुम्हारी आन।

उन्नीसवीं शताब्दी जैसे भारतवर्ष के लिए एक विचित्र शताब्दी है, वैसे ही हिन्दी भाषा के लिए भी। इस शताब्दी में धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक बड़े-बड़े परिवर्तन जिस प्रकार हुए वैसे ही भाषा सम्बन्धी अनेक लौट-फेर भी हुए। हिन्दी भाषा ही नहीं, भारतवर्ष की समस्त प्रान्तिक भाषाओं का कायाकल्प इसी शताब्दी में हुआ। उर्दू भाषा की नींव अठारहवीं शताब्दी के उत्तारार्धा में पड़ चुकी थी। इस शताब्दी में वह भी खूब फली-फूली। मीर, इंशा, ज़ौव और नासिख़ ऐसे महाकवियों ने उसका लोकोत्तार शृंगार किया। मुसलमान राज्य का वह अंतिम प्रदीप जो दिल्ली में धुँधाली ज्योति धारण कर जल रहा था,उसका निर्वाण इसी शताब्दी में हुआ। जिससे ब्रिटिश सर्य्य अपनी अतुल आभा भारतवर्ष के प्रत्येक प्रान्तों में विस्तार करने में समर्थ हुआ। परिणाम उसका यह हुआ कि नवीन ज्योति के साथ नये-नये भाव एवं बहुत से नूतन विचार देश में फैले और एक नवीन जागृति उत्पन्न हो गयी। इस जागृति ने भारत की वर्तमान सभ्यता में हलचल मचा दी और उसमें नवीन आविष्कारों का उदय हुआ।

राजा राममोहन राय, परमहंस रामकृष्ण, स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ ऐसे धर्म संस्कारक,न्यार्यमूत्तिा महादेव गोविन्द रानाडे ऐसे समाज-सुधारक, दादा भाई नौरौजी, लोकमान्य बालगंगाधार तिलक, माननीय गोपालकृष्ण गोखले, बाबू सुरेन्द्र नाथ बैनर्जी एवं महात्मा गांधी ऐसे राजनीतिक नेता, महर्षि मालवीय जैसे हिन्दू-धर्म के रक्षक, समाज के उन्नायक अथच राजनीति के धुरंधार संचालक इसी शताब्दी में उत्पन्न हुए। ऐसी दशा में यदि साहित्य में नव-स्फूर्ति उत्पन्न और हिन्दी भाषा को भी नवजीवन इस शताब्दी में प्राप्त हो तो कोई आश्चर्य नहीं। क्योंकि साहित्य सामाजिक भावों के विकास का ही परिणाम होता है। साहित्य के लिए अनुकूल भाषा की बड़ी आवश्यकता होती है। यही कारण है कि इस शताब्दी में हिन्दी भाषा ने अपना कलेवर विचित्र रूप से बदला। उसमें यह परिवर्तन इस शताब्दी के उत्तारार्ध्द में हुआ। पूर्वार्ध्द में पूर्वागत परम्परा ही अधिकतर दृष्टिगत होती है, यद्यपि उसमें परिवर्तन के लक्षण प्रकट हो गये थे। मैं क्रमश: परिवर्तन-प्रणाली को आपके सामने उपस्थित करूँगा।

इस शताब्दी में निम्नलिखित प्रसिध्द रीति ग्रंथकार हुए हैं। क्रमश: मैं इनका परिचय आपको दूँगा और यह भी बतलाता चलूँगा कि इनके समय में भाषा का क्या रूप था और उस समय का क्या प्रभाव पड़ा-पदमाकर, ग्वाल, राय रणधीर सिंह,लछिराम, गोविंदगिल्लाभाई, प्रताप शाह।

पदमाकर का कविता-काल अठारहवीं शताब्दी से प्रारम्भ होता है, किंतु उनकी प्रौढ़ कविता का काल यही शताब्दी है। इसलिए हमने इसी शताब्दी में उनको रक्खा है। हिन्दी-साहित्य-संसार में पदमाकर एक विशेष स्थान के अधिकारी हैं। उनकी रचना में ऐसा प्रवाह है, जो हृदय को रस-सिक्त किये बिना नहीं रहता। शब्द-विन्यास में उन्होंने ऐसी सहृदयता का परिचय दिया है जैसी महाकवियों में ही दृष्टिगत होती है। भाव को मूर्तिमन्त बनाकर सामने लाना उनकी विशेषता है। शब्द में झंकार पैदा करना, उसको भावचित्राण के अनुकूल बना लेना, अपनी उपज से उसमें अनोखे बेल- बूटे तराशना, जिनमें रस छलकता मिले, ऐसी उक्तियों को सामने लाना उनकी रचना के विशेष गुण हैं। अनुप्रास एवं वर्ण मैत्राी उनकी कविता का प्रधान अंग है, किन्तु इस सरसता और निपुणता से वे उसका प्रयोग करते हैं कि उनके कारण से न तो भाषा दब जाती है और न भाव के स्फुटन में व्याघात उपस्थित होता है। जैसे दर्पण में से आभा फूटती है, वैसे ही उनकी वाक्यावली में से भाव विकसित होता रहता है। अलंकार इनकी कृति में आते हैं, किंतु उसे अलंकृत करने के लिए, दुरूह बनाने के लिए नहीं, उनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। उसमें कहीं-कहीं अन्य भाषा के शब्द भी आ जाते हैं, परन्तु वे आभूषण में नग का काम देते हैं। उन्होंने कुछ भाव संस्कृत और भाषा के अन्य कवियों के भी लिये हैं, किन्तु उनको बिलकुल अपना बना लिया है। साथ ही उनमें एक ऐसी मौलिकता उत्पन्न कर दी है, जिससे यह ज्ञात होता है कि वे उन्हीं की सम्पत्तिा हैं।

पदमाकर जी बड़े भाग्यशाली कवि थे। वे उस वंश के रत्न थे जो सर्वदा बड़े-बड़े राजाओं, महाराजाओं द्वारा आदृत होता आया था। जितने राजदरबारों में उनका प्रवेश हुआ और जितने राजाओं-महाराजाओं से उन्हें सम्मान मिला, हिन्दी-संसार के किसी अन्य कवि को वह संख्या प्राप्त नहीं हुई। वे तैलंग ब्राह्मण थे। इसलिए उनकी पूजा कहीं गुरुत्व लाभ करके हुई, कहीं कवि-कर्म्म द्वारा। उनके पूर्व पुरुष भी विद्वान् और कवि थे और उनके पुत्र एवं पौत्र भी। उनके पौत्र गदाधार हिन्दी-संसार के परिचित प्रसिध्द कवि हैं। वे कवि-कर्म्म में तो निपुण थे ही, सम्मान प्राप्त करने में भी बड़े कुशल थे। उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की है। कहा जाता है कि 'रामरसायन' नामक एक राम-चरित्रा सम्बन्धी-प्रबंधा काव्य भी उन्होंने लिखा था। परन्तु उसकी कविता ऐसी नहीं है जैसी उनके जैसे महाकवि की होनी चाहिए। इसलिए कुछ लोगों की यह सम्मति है कि वह ग्रंथ उनका रचा नहीं है। उनका सबसे प्रसिध्द ग्रन्थ जगद्विनोद है, जो हिन्दी भाषा कवि कुल का कण्ठहार है। प्रबोधा पचासा और गंगालहरी भी उनके सुंदर ग्रंथ हैं। इन ग्रंथों में निर्वेद जैसा मूर्तिमन्त होकर विराजमान है वैसी ही उनमें मर्म-स्पर्शिता भी है। पदमाकर के ग्रंथों की संख्या एक दर्जन से अधिक है, और उन सबों में उनकी प्रतिभा सुविकसित मिलती है। उनमें से कुछ कविताएँ नीचे लिखी जाती हैं-

1. व्याधाहूँ ते बिहद असाधु हौं अजामिल लौं

ग्राह ते गुनाही कहो तिन मैं गिनाओगे।

स्योरी हो नसूद हौं न केवट कहूँ को

त्यों न गौतमी तिया हौं जापै पग धारि आओगे।

राम सों कहत पदमाकर पुकारि

तुम मेरे महापापन को पारहूँ न पाओगे।

झूठो ही कलंक सुनि सीता ऐसी सती तजी

साँचों ही कलंकी ताहि कैसे अपनाओगे।

2. जैसो तैं न मोसों कहूँ नेकहूँ डरात हुतो

तैसो अब हौहूँ नेक हूँ न तोसों डरिहौं।

कहै पदमाकर प्रचंड जो परैगो

तो उमंड करि तोसों भुजदंड ठोंकि लरिहौं।

चलो चलु चलो चलु बिचलु न बीच ही ते

कीच बीच नीच तौ कुटुंब कौ कचरिहौं।

ऐ रे दगादार मेरे पातक अपार तोहि

गंगा की कछार में पछारि छार करिहौं।

3. हानि अरु लाभ जानि जीवन अजीवन हूँ

भोगहूँ वियोगहूँ सँयोगहूँ अपार है।

कहै पदमाकर इते पै और केते कहौं

तिनको लख्यो न वेदहूँ मैं निरधार है।

जानियत याते रघुराय की कला कौ कहूँ

काहू पार पायो कोऊ पावत न पार है।

कौन दिन कौन छिन कौन घरी कौन ठौर

कौन जानै कौन को कहा धौं होनहार है।

4. सोरह सिंगार कै नवेली के सहेलिन हूँ

कीन्हीं केलि मन्दिर मैं कलपित केरे हैं।

कहै पदमाकर सु पास ही गुलाब पास

खासे खस खास खुसबोइन के ढेरे हैं।

त्यों गुलाब नीरन सों हीरन को हौज भरे

दम्पती मिलाय हित आरती उंजेरे हैं।

चोखी चाँदनीन पर चौरस चमेलिन के

चन्दन की चौकी चारु चाँदी के चँगेरे हैं।

5. चहचही चहल चहूँघा चारु चन्दन की

चन्द्रक चुनिन चौक चौकन चढ़ी है आब।

कहै पदमाकर फराकत फरसबंद

फहरि फुहारनि की फरस फबी है फाब।

मोद मदमाती मनमोहन मिलै के काज

साजि मन मन्दिर मनोज कैसी महताब।

गोलगुलगादी गुल गोल में गुलाब गुल

गजक गुलाबी गुल गिंदुक गले गुलाब।

6. कूलन में केलि में कछारन में कुंजन में

क्यारिन में कलिन कलीन किलकंत है।

कहै पदमाकर परागन में पौन हूँ मैं

पानन में पीक में पलासन पगंत है।

द्वार में दिसान में दूनी मैं देस देसन मैं

देखौ दीप दीपन मैं दीपति दिगन्त है।

बीथिन में ब्रज में नवेलिन में बेलिन में

बनन में बागन मैं बगरयो बसन्त है।

7. पात बिन कीन्हें ऐसी भाँति गन बेलिन के

परत न चीन्हें जे ये लरजत लुंज हैं।

कहै पदमाकर बिसासी या बसन्त के सु

ऐसे उतपात गात गोपिन के भुंज हैं।

ऊधो यह सूधो सो सँदेसो कहि दीजो भलो

हरि सों हमारे ह्याँ न फूले बन कुंज हैं।

किंसुक गुलाब कचनार औ अनारन की

डारन पै डोलत ऍंगारन के पुंज हैं।

8. संपति सुमेर की कुबेर की जो पावै ताहि

तुरत लुटावत बिलम्ब उर धारै ना।

कहै पदमाकर सुहेम हय हाथिन के

हलके हजारन के बितर बिचारै ना।

दीन्हें गज बकस महीप रघुनाथ राय

याहि गज धोखे कहूँ काहू देइ डारै ना।

याहि डर गिरिजा गजानन को गोय रही

गिरि ते गरे ते निज गोद ते उतारै ना।

9. झाँकति है का झरोखा लगी

लगि लागिबे को इहाँ फेल नहीं फिर।

त्यों पदमाकर तीखे कटाछनि की

सर कौ सर सेल नहीं फिर।

नैनन ही की घलाघल के घन

घावन को कछु तेल नहीं फिर।

प्रीति पयोनिधि मैं धाँसि कै हँसि कै

कढ़िबो हँसी खेल नहीं फिर।

10. ए ब्रजचन्द चलौ किन वा ब्रज

लूकैं बसन्त की ऊकन लागीं।

त्यों पदमाकर पेखौ पलासन

पावक सी मनो फूँकन लागीं।

वै ब्रजनारी बिचारी बधूबन

बावरी लौं हिये हूकन लागीं।

कारी कुरूप कसाइनैं ये सु कुहू

कुहू कैलिया कूकन लागीं।

ग्वाल कवि मथुरा के रहने वाले ब्रह्मभट्ट थे। जगदम्बा का उनको इष्ट था। वे प्रतिभावान कवि माने जाते हैं। कहा जाता है किसी सिध्द तपस्वी की कृपा से यह प्रतिभा उनको प्राप्त हुई थी। उनके बनाये ग्रन्थों की संख्या साठ से ऊपर है, जिनमें अधिकतर 'गोपी-पचीसी', 'रामाष्टक', 'कृष्णाष्टक' और गणेशाष्टक आदि के समान छोटे-छोटे ग्रन्थ हैं। उनके 'साहित्यानंद', 'साहित्य-दर्पण', 'साहित्य-दूषण' इत्यादि पाँच-चार बड़े ग्रन्थ हैं। इनमें साहित्य के समस्त अंगों का विशेष वर्णन है। ये राज-दरबारों मंम घूमा करते थे। महाराज रणजीत सिंह से भी मिले थे। उन्होंने इन्हें कुछ पुरस्कार भी दिया था। देशाटन अधिक करने के कारण उनको अनेक भाषाओं का ज्ञान था, उनमें उन्होंने कविता भी की है। वे ब्रज-निवासी थे और ब्रजभाषा पर उनको अधिकार भी था। परंतु स्वतंत्रा प्रकृति के थे, इसलिए उनकी रचना में ब्रजभाषा के साथ खड़ी बोली का मिश्रण भी है। उनकी कविता में जैसी चाहिए वैसी भावुकता भी नहीं। आन्तरिक प्रेरणाओं से लिखी गयी कविताओं में जो बल होता है, उनकी रचनाओं में वह कम पाया जाता है। उन्होंने बहुत अधिक रचनाएँ की हैं, इसलिए सबमें कविकर्म्म का उचित निर्वाह नहीं हो सका, उनकी कविता में प्रवाह पाया जाता है, परन्तु यथेष्ट नहीं। उर्दू और फारसी शब्दों का प्रयोग उनकी कविता में प्राय: देखा जाता है। ज्ञात होता है कि उन पर उर्दू शायरी का भी कुछ प्रभाव था। उनके कुछ पद्य देखिए-

1. मोरन के सोरन की नेकौ ना मरोर रही

घोर हूँ रही न घन घने या फरद की।

अंबर अमल सर सरिता बिमल भल

पंक को न अंक औ न उड़नि गरद की।

ग्वाल कवि चित में चकोरन के चैन भये।

पंथिन की दूरि भई दूखन दरद की।

जल पर थल पर महल अचल पर

चाँदी सी चमकि रही चाँदनी सरद की।

2. ग्रीषम की गजब धुकी है धूप धाम धाम

गरमी झुकी है जाम नाम अति पापिनी।

भींजे खस बीजन झले हूँ ना सुखात स्वेद

गात ना सुहात बात दावा सी डरापिनी।

ग्वाल कवि कहै कोरे कुंभन ते कूपन ते

लै लै जलधार बार बार मुख थापिनी।

जब पियो तब पियो अब पियो फेर अब

पीवत हूँ पीवत मिटै न प्यास पापिनी।

3. जेठ को न त्रास जाके पास ये बिलास होंय ,

खस के मवास पै गुलाब उछरयो करै।

बिही के मुरब्बे डब्बे चाँदी के बरक भरे ,

पेठे पाग केवरे मैं बरफ परयो करै।

ग्वाल कवि चंदन चहल में कपूर चूर ,

चंदन अतर तर बसन खरयो करै।

कंज मुखी कंज नैनी कंज के बिछौनन पै ,

कंजन की पंखी कर कंज ते करयो करै।

4. गीधो गीधो तार कै सुतारि कै उतारि कै जू

धारि कै हिये में निज बात जटि जायगी।

तारि कै अवधि करी अवधि सुतारिबे की

बिपति बिदारिबे की फाँस कटि जायगी।

ग्वाल कवि सहज न तारिबो हमारो गिनो

कठिन परैगी पाप-पांति पटि जायगी।

यातें जो न तारिहौ तुम्हारी सौंह रघुनाथ

अधाम उधारिबे की साख घटि जायगी।

5. जाकी खूब खूबी खूब खूबन कै खूबी यहाँ

ताकी खूब खूबी खूब खूबी नभ गाहना।

जाकी बद जाती बद जाती इहाँ चारन में

ताकी बदजाती बद जाती ह्नाँ उराहना।

ग्वाल कवि येही परसिध्द सिध्द ते हैं जग

वही परसिध्द ताकि इहाँ ह्नाँ सराहना।

जाकी इहाँ चाहना है ताकि वहाँ चाहना है

जाकी इहाँ चाह ना है ताकी उहाँ चाह ना।

6. चाहिए जरूर इनसानियत मानस को

नौबत बजे पै फेर भेर बजनो कहा।

जाति औ अजाति कहा हिंदू औ मुसलमान

जाते कियो नेह ताते फेर भजनी कहा।

ग्वाल कवि जाके लिये सीस पै बुराई लई

लाजहूँ गँवाई ताते फेर लजनो कहा।

या तो रंग काहू के न रंगिये सुजान प्यारे।

रँगे तो रँगेई रहे फेर तजनो कहा।

7. दिया है खुदा ने खूब खुसी करो ग्वाल कवि

खाओ पियो देव लेव यही रह जाना है।

राजा राव उमराव केते बादसाह भये

कहाँ ते कहाँ को गये लाग्यो ना ठिकाना है।

ऐसी जिंदगानी के भरोसे पै गुमान ऐसे

देस देस घूमि घूमि मन बहलाना है।

परवाना आये पर चले ना बहाना

इहाँ नेकी कर जाना फेर आना है न जाना है।

उनकी अन्य भाषाओं की भी रचनाएँ हैं। पर मैं अब उनको उठाना नहीं चाहता। एक-एक पद उन भाषाओं का देख लीजिए-

पूरबी भाषा- मोर परवा सिर ऊपर सोहै।

अधार बँसुरिया राजत बाय।

गुजराती भाषा- तुम तौ कहो छो

छैया मोटो ऊधामी छै।

म्हारी मटकी मठानी ढुलकावा नो निदान छै।

पंजाबी भाषा- साड़ी खुशी एहौ आप

आरांदी खुशी दे बिच।

जेही चाहो तेही करो नेही कानूं नस्स दै।

गोकुलनाथ महाराज काशिराज के दरबार के प्रसिध्द कवि थे। वे कविवर रघुनाथ के पुत्र थे, इनका भाषा-साहित्य का ज्ञान उच्च कोटि का माना जाता है। इन्होंने साहित्य के सब अंगों पर रचनाएँ की हैं, रीति-सम्बन्धी सुन्दर ग्रन्थ भी बनाये हैं।'कवि मुखमंडन, राधाकृष्ण विलास और 'चेत चन्द्रिका' इनके प्रसिध्द ग्रन्थ हैं। इन्होंने अधयात्म रामायण का अनुवाद भी किया है। सीताराम गुणार्णव उसका नाम है। यह इनका प्रबन्धा ग्रन्थ है। इन्होंने एक बहुत बड़ा कार्य अपने पुत्र गोपीनाथ और शिष्य मणिदेव की सहायता से किया। वह है समस्त महाभारत और हरिवंश पर्ब का ब्रजभाषा में सरस अनुवाद। यह अनुवाद काशी के महाराज उदितनारायण सिंह की बहुत बड़ी उदारता का फल है। यह कार्य लगभग पचास वर्ष में हुआ और इसमें उन्होंने लाखों रुपये व्यय किये। यह मुझे ज्ञात है कि महाराज रणजीत सिंह ने भी समस्त महाभारत का अनुवाद सुन्दर ब्रजभाषा में किसी कवि से कराया था। उन्होंने भी यह कार्य बहुत व्यय स्वीकार करके किया था। मैंने इस ग्रन्थ को पढ़ा और देखा भी है। निज़ामाबाद निवासी स्व. बाबा सुमेर सिंह के पास इसकी एक हस्तलिखित प्रति मौजूद थी। परन्तु अब वह अप्राप्य है। जहाँ तक मुझे ज्ञात है, यह ग्रन्थ मुद्रित भी नहीं हुआ परन्तु काशिराज के अनुवाद के तीन संस्करण हो चुके हैं। इस ग्रन्थ की सुन्दर और मधुर रचना की बहुत अधिक प्रशंसा है। गोकुलनाथ ने ऐसे विशाल ग्रन्थ का अनुवाद अशिथिल और भावमयी भाषा में करके बहुत बड़ा गौरव प्राप्त किया है। इतना बड़ा प्रबन्धा काव्य अब तक हिन्दी के किसी कवि अथवा महाकवि द्वारा नहीं लिखा जा सका। सच बात तो यह है कि अकेले एक बहुत बड़ा प्रतिभाशाली कवि भी इस कार्य को नहीं कर सकता था। गोपीनाथ और मणिदेव भी गण्य कवियों में है। उनकी पूर्ण सहायता से ही गोकुलनाथ को इतनी बड़ी कीर्ति प्राप्त हो सकी। इसलिए वे भी कम प्रशंसनीय नहीं। इस अनुवाद की एक विशेषता यह है कि यदि यह न बताया जाय कि तीनों कवियों में से किस कवि ने किस पर्व का अनुवाद किया है तो ग्रन्थ की भाषा के द्वारा यह ज्ञात नहीं हो सकता है कि उसमें तीन कवियों की रचनाएँ हैं। वास्तव बात यह है कि तीनों ने इतनी योग्यता और विलक्षणता के साथ अनुवाद कार्य किया है कि भाषा में विभिन्नता आयी ही नहीं। ग्रन्थ की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है, उसमें उर्दू, परसी अथवा अन्य भाषा के शब्द यत्रा-तत्रा आये हैं, परन्तु उसके अंगभूत बनकर, इस प्रकार नहीं कि जिससे भाषा की शैली में कोई व्याघात अथवा विषमता उत्पन्न हो। इन तीनों सुकवियों की रचनाओं के कुछ उदाहरण नीचे लिखे जाते हैं-

1. सखिन केति मैं उकुति कल कोकिल की

गुरुजन हूँ के पुनि लाज के कथन की।

गोकुल अरुन चरनांबुज पै गुंज पुंज

धुनि सी चढ़ति चंचरीक चरचान की।

पीतम के वन समीप ही जुगुति होति

मैन मंत्रा तंत्रा के बरन गुनगान की।

सौतिन के कानन मैं हालाहल ह्नै हलति

ऐरी सुखदानि तौन बजनि बिछुवान की।

2. पेंच खुले पगरी के उड़ैं फिरै

कुंडल की प्रतिमा मुख दौरी।

तैसिये लोल लसैं जुलफैं रहैं

एहो न मानति धावति धाौरी।

गोकुलनाथ किये गति आतुर

चातुर की छबि देखत बौरी।

ग्वालिन ते कढ़ि जात चल्यो

फहरात कँधा पर पीत पिछौरी।

- गोकुलनाथ

3. बिहँग अगनित भाँति के तहँ रमत बोलत बैन।

मृगा आवत तासु तर ते लहत अतिसय चैन।

पलित नामक मूष शतमुख विवर करि तर तासु।

भयो निवसत अति विचच्छन चपल लच्छन जासु।

- गोपीनाथ

4. काक के ये बचन सुनि कै कह्यो हंस सुजान।

एक गति सब बिहग की तुम काक शतगतिवान।

एक गति सों उड़ब हम तुम यथा रुचित सुबंस।

बाँधि यहि बिधि बहस लागे उड़न वायस हंस।

- मणिदेव

भाषा के विषय में इतना और कहना आवश्यक होता है कि अनुवादकों की प्रवृत्तिा कहीं-कहीं संस्कृत के शब्दों को तत्सम रूप में रखने ही की है। इसलिए ब्रजभाषा के नियमानुसार शकार को सकार न करके प्राय: शकार ही रहने दिया गया है। इसी प्रकार अनुप्रास आदि के आधार से अधिक ललित बनाने की चेष्टा न कर सरलता ही पर विशेष दृष्टि रखी गयी है।

राय रणधीर सिंह जिला जौनपुर, सिंगरामऊ के निवासी थे। आप वहाँ के एक प्रतिष्ठित जमींदार थे। आपके यहाँ पण्डितों,विद्वानों एवं कवियों का बड़ा आदर था। कविता में उनकी इतनी रुचि थी कि वह उनका एक व्यसन हो गया था, उन्होंने पाँच ग्रन्थों की रचना की थी। उनमें से 'नामार्णव' पिंगल का, 'काव्यरत्नाकर' नायिका भेद और अलंकार का और 'भूषण-कौमुदी',साहित्य-सम्बन्धी ग्रन्थ है। ये एक सरस हृदय कवि थे। उनका एक पद्य देखिए-

मंजुल सुरंगवर सोभित अंचित चारु

फल मकरंद कर मोदित करन हैं।

प्रमित विराग ज्ञान सर के सरस देस

विरद असेस जसु पांसु प्रसरन हैं।

सेवित नृदेव मुनि मधुप समाज ही के

रनधीर ख्यात द्रुत दच्छिन भरन हैं।

ईस हृदि मानस प्रकासित सहाई लसैं

अमल सरोज वर स्यामा के चरन हैं।

लछिराम ब्रह्मभट्ट थे और अमोड़ा, जिला बस्ती उनका जन्म-स्थान था। उन्होंने महाराज मानसिंह अवधा-नरेश के दरबार में रहकर साहित्य का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया था। उन्हीं से उन्होंने कविराज की पदवी भी प्राप्त की थी। वे उनके दरबार की शोभा तो थे ही, उनकी कृपा के कारण अवधा प्रान्त के अनेक राजाओं के यहाँ भी सम्मानित थे। उन्होंने अलंकार के कई ग्रन्थ लिखे हैं, जो उस राजा के नाम से ही प्रख्यात हैं जिसकी कीर्ति के लिए उनकी रचना हुई है-जैसे 'प्रताप रत्नाकर', 'लक्ष्मीश्वर रत्नाकर', 'रावणेश्वर-कल्पतरु', 'महेश्वर-विलास' आदि। इन्होंने नायिकाभेद, अलंकार और अन्य कुछ विषयों पर भी ग्रन्थ लिखे हैं और इस प्रकार इनके ग्रंथों की संख्या दस-पन्द्रह है। कविता-शक्ति इनमंक अच्छी थी, इनकी रचना भी सरस होती थी। परंतु अधिकतर इनकी कृति में अनुकरण मात्रा है। मौलिकता खोजने पर भी नहीं मिलती। इनकी भाषा ब्रजभाषा है और उसमें साहित्यिक गुण भी हैं। कोमल और सरस शब्द-विन्यास करने में भी वे दक्ष थे। कुछ पद्य देखिए-

1. भरम गँवावै झरबेरी संग नीचन ते

कंटकित बेल केतकीन पै गिरत है।

परिहरि मालती सुमाधावी सभासदनि

अधाम अरूसन के अंग अभिरत है।

लछिराम सोभा सरवर में बिलास हेरि

मूरख मलिंद मन पल ना थिरत है।

रामचन्द्र चारु चरनांबुज बिसारि देस

बन बन बेलिन बबूर मैं फिरत है।

2. भानु-बंस-भूषन महीष रामचन्द्र बीर

रावरो सुजस फैल्यो आगर उमंग मैं।

कवि लछिराम अभिराम दूनो सेस हूँ सों

चौगुनो चमकदार हिमगिरि गंग मैं।

जाको भट घेरे तासों अधिक परे हैं और

पच गुनो हीरा हार चमक प्रसंग मैं।

चंद मिलि नौगुनो नछत्रान सों सौगुनो ह्नै

सहस गुनो भो छीर-सागर तरंग मैं।

3. सजल रहत आप औरन को देत ताप

बदलत रूप और बसन बरेजे मैं।

तापर मयूरन के झुंड मतवाले साले

मदन मरोरैं महा झरनि मरेजे मैं।

कवि लछिराम रंग साँवरो सनेही पाय

अरज न मानै हिय हरष हरेजे मैं।

गरजि गरजि बिरहीन के बिदारैं उर

दरद न आवै धारे दामिनी करेजे मैं।

गोविन्द गिल्ला भाई चौहान राजपूत थे। उनकी शिक्षा तो साधारण थी, किन्तु उन्होंने परिश्रम करके हिन्दी साहित्य में अच्छा ज्ञान प्राप्त किया था। उन्होंने तीस से अधिक ग्रन्थों की रचना की है। जिनमें 'साहित्य-चिन्तामण्0श्निा', 'शृंगार-सरोजिनी', 'गोविन्द-हजारा' और 'विवेक-विलास' आदि बड़े ग्रन्थ हैं। इनमें 'शृंगार-सरोजिनी' और 'साहित्य चिन्तामणि' रीति ग्रंथ हैं। ये काठियावाड़ (गुजरात) के रहने वाले थे। फिर भी उन्होंने ब्रजभाषा में रचना की है। भाषा टकसाली तो नहीं कही जा सकती। परन्तु यह अवश्य स्वीकार करना पड़ता है कि उस पर उनका अच्छा अधिकार था। उनकी रचना में सहृदयता है और कोमलता भी। परन्तु जैसी चाहिए वैसी भावुकता उसमें नहीं मिलती। कुछ पद्य देखिए-

1. संपति करन और दारिद दरन सदा

कष्ट के हरन भव तारन तरन हैं।

भौन के भरन चारों फल के फरन

महाताप के हरन असरन के सरन हैं।

भक्त उध्दरन और बिघन हरन सदा

जनम मरन महादुख के दरन हैं।

गोबिंद कहत ऐसे बारिज बरन बर

मोद के करन मेरे प्रभु के चरन हैं।

2. दाहिबो सरीर अरु लहिबो परमपद

चाहिबो छनिक माहिं सिंधुपार पाइबो।

गहिबो गगनअरु बहिबो बयारि संग

रहिबो रिपुन संग त्रास नहिं लाइबो।

सहिबो चपेट सिंह लहिबो भुजंग मनि

कहिबो कथन अरु चातुर रिझाइबो।

गोबिंद कहत सोई सुगम सकल

पर कठिन कराल एक नेह को निभाइबो।

प्रताप साहि बंदीजन थे और चरखारी के महाराज विक्रमशाह के दरबारी कवि थे। इन्होंने आठ-दस ग्रन्थों की रचना की है,जिनमें से अधिकतर साहित्य सम्बन्धी हैं। व्यंग्यार्थ कौमुदी नामक एक धवनि-सम्बन्धी ग्रन्थ भी लिखा हुआ है जो अधिक प्रशंसनीय है। कहा जाता है कि रीति ग्रन्थों के अन्तिम आचार्य ये ही हैं। साहित्य में इनका ज्ञान विस्तृत था। इसलिए हिन्दी में साहित्य-विषयक जो न्यूनताएँ थीं, उनको उन्होंने पूरी करने की चेष्टा की और बहुत कुछ सफलता भी प्राप्त की। इनकी भाषा सरस ब्रजभाषा है। साथ ही वह बड़ी भावमई है। कोमल और मधुर शब्द विन्यास पर भी उनका अच्छा अधिकार देखा जाता है। कुछ रचनाएँ देखिए-

1. सीख सिखाई न मानति है बरही बससंग सखीन के आवै।

खेलत खेल नये जग में बिन काम था कत जाम बितावै।

छोड़ि कै साथ सहेलिन को रहि कै कहि कौन सवादहिं पावै।

कौन परी यह बानि अरी नित नीर भरी गगरी ढरकावै।

2. चंचलता अपनी तजि कै रस ही रस सों रस सुन्दर पीजियो।

कोऊ कितेक कहै तुमसों तिनकी कही बातन को न पतीजियो।

चीज चबाइनि के सुनियो न यही इक मेरी कही नित कीजियो।

मंजुल मंजरी पै हो मलिंद बिचारि कै भारसँभारि कै दीजियो।

3. तड़पै तड़िता चहुँ ओरन ते छिति छाई समीरन की लहरैं।

मदमाते महा गिरि सृंगन पैगन मंजु मयूरन के कहरैं।

इनकी करनी बरनी न परै मगरूर गुमानन सों गहरैं।

घन ये नभ मंडल में छहरैं हरैं कहुँ जाय कहूँ ठहरैं।

4. चंचला चपल चारु चमकत चारों ओर

झूमि झूमि धुरवा धारनि परसत है।

सीतल समीर लगै दुखद बियोगिन

सँयोगिन समाज सुख साज सरसत है।

कहै परताप अति निबिड़ ऍंधोरी माँहि

मारग चलत नाहिं नेकु दरसत है।

झुमड़ि झलानि चहुँ कोद ते उमड़ि आज

धाराधार धारन अपार बरसत है।

5. महाराज रामराज रावरो सजत दल

होत मुख अमल अनंदित महेस के।

सेवत दरीन केते गब्बर गनीम रहैं

पन्नगपताल त्योंही डरन खगेस के।

कहै परताप धारा धाँसत चसत कसमसत

कमठ पीठि कठिन कलेस के।

कहरत कोल हहरत हैं दिगीस दस

लहरत सिंधु थहरत फन सेस के।

इस शताब्दी के प्रबन्धाकारों में महाराज रघुराज सिंह का नाम विशेष उल्लेख योग्य है। गोकुलनाथ की चर्चा पहले मैं कर चुका हूँ। वे भी बहुत बड़े प्रबन्धाकार इस शताब्दी के हैं। परन्तु उनकी कृति में दो और कवियों का हाथ है। वे प्रसिध्द रीति ग्रन्थकार भी हैं। इसलिए मैंने उनकी चर्चा रीति ग्रंथकारों में की है। महाराज रघुराजसिंह की जितनी रचनाएँ हैं, सब उन्हीं की कृतियाँ हैं और उनमें प्रबन्धा ग्रन्थों की संख्या अधिक है। इसलिए मैं उन्नीसवीं शताब्दी का सर्वश्रेष्ठ प्रबंधाकार उन्हीं को मानता हूँ। रीवाँ राज्य वंश वैष्णव है। उसकी धर्मपरायणता प्रसिध्द है। महाराज रघुराजसिंह के पितामह जैसिंह बड़े भक्त और सच्चे वैष्णव थे। उन्होंने अपने जीवन काल में ही अपने पुत्र विश्वनाथ सिंह को अपना राज्य भार सौंप दिया था। भगवत्-भजन में ही वे रत रहते थे और भक्ति-सुख को राज्य-सुख से उच्च मानते थे। वे बड़े सहृदय कवि भी थे, लगभग अठारह ग्रन्थों की उन्होंने रचना की थी। उनमें से हरिचरित चन्द्रिका, हरेचरितामृत, कृष्ण-तरंगिणी आदि अधिक प्रसिध्द हैं। 'निर्णय-सिध्दान्त'और 'वेदान्त प्रकाश' भी उनके सुन्दर ग्रन्थ हैं। उनकी रचना बड़ी ललित होती थी और कोमल एवं सरस पद-विन्यास उनकी रचना का प्रधान गुण था। उन्होंने अधिकतर प्रबन्धा ग्रन्थ ही लिखे और वह आदर्श उपस्थित किया, जिसका अनुकरण बाद को उनके पुत्र महाराज विश्वनाथ सिंह और पौत्र महाराज रघुराज सिंह ने बड़ी श्रध्दा के साथ किया। उनकी भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है। परन्तु उसमें अवधी के शब्द भी प्राय: आते रहते हैं। इनकी अधिकांश रचनाएँ दोहा और चौपाइयों में हैं। उनके कुछ पद्य देखिए-

1. परसि कमल कुवलय बहत , वायु ताप नसि जाइ।

सुनत बात हरि गुननयुत , जिमि जन पाप पराइ।

2. वन वाटिका उपवन मनोहर फूल फल तरु मूल से।

सर सरित कमल कलाप कुवलय कुमुद बन बिकसे लसे।

सुख लहत यों फल चखत मनुपीयत मधुप सों नीति सों।

मन मगन ब्रह्मानंद रस जोगीस मुनिगन प्रीति सों।

3. कूजि रहे खग कुल मधुप , गूँजि रहे चहुँ ओर।

तेहि बन लै गोगन सकल प्रविसे नंद किसोर।

उनके पुत्र महाराज विश्वनाथ सिंह ने भी अनेक ग्रन्थों की रचना की है। उन्होंने कबीर के बीजक और विनय पत्रिका की भी सुन्दर टीकाएँ लिखी हैं। 'आनन्द रघुनन्दन' नामक एक नाटक भी बनाया है। छोटे-मोटे कई प्रबन्धा ग्रन्थ भी लिखे हैं। अपने पिता के समान इन्होंने भी अनेक धार्मिक ग्रन्थों की रचना की है। इन्होंने संस्कृत में भी ग्रन्थ लिखे हैं उनमें से'राधावल्लभी भाष्य', 'सर्वसिध्दान्त' आदि अधिक प्रसिध्द हैं। इन्होंने भी कविता रचने में पिता का ही अनुकरण किया है। परन्तु इनकी भाषा उतनी ललित नहीं है। संयुक्त वर्ण भी इनकी रचना में अधिक आये हैं। फिर भी इनकी अधिकतर कविताएँ मनोहर हैं। एक पद्य देखिए-

1. बाजी गज सोर रथ सुतुर कतार जेते ,

प्यादे ऐंडवारे जे सबीह सरदार के।

कुँवर छबीले जे रसीले राजबंस वारे ,

सूर अनियारे अति प्यारे सरकार के।

केते जातिवारे केते केते देसवारे जीव ,

स्वान सिंह आदि सैल वारे जे सिकार के।

डंका की धुकार ह्नै सवार सबै एकै बार

राजैं वार पार बीर कोसल कुमार के।

महाराज रघुराजसिंह में पिता से पितामह का गुण अधिक है। इनकी कितनी ही रचनाएँ बड़ी सरस हैं। इन्होंने भी अनेक ग्रन्थों की रचना की है, जिसमें 'आनन्दांबुनिधि' जैसे विशाल ग्रन्थ भी हैं। वंश-परम्परा से यह राज्य कवियों का कल्पतरु रहा है। महाराज रघुराज सिंह के आश्रय में भी अनेक कवि थे, जो उनके लिए कल्पतरु के समान ही कामद थे। आनन्दांबुनिधि श्रीमद्भागवत का अनुवाद है। मैंने बाल्यावस्था में इस ग्रन्थ का कई पारायण किया है। इस ग्रन्थ की भाषा चलती और सुन्दर है। इनका भक्ति भाव अपने पिता पितामह के समान ही मधुर और स्निग्धा था। उसी की स्निग्धाता और माधुरी इनकी रचनाओं में पाई जाती है। इन्होंने भी साहित्यिक ब्रजभाषा ही लिखी है, जिसमें यत्रा-तत्रा अवधी का पुट भी पाया जाता है। उनके ग्रन्थों की संख्या जब देखी जाती है और कई विशाल ग्रंथों की विशालता पर जब धयान दिया जाता है तो बड़ा आश्चर्य होता है। राज्य कार्य का संचालन करते हुए जो इनकी लेखनी धारावाहिक रूप से सदा चलती ही रही, यह कम चकितकर नहीं। उनके 'राम-स्वयंवर', 'रुक्मिणी परिणय' आदि ग्रंथ भी सुन्दर सरस और मनोहर हैं। उनकी कुछ रचनाएँ देखिए-

1. कल किसलय कोमल कमल पद-तल सरि नहिं पाय।

एक सोचत पियरात नित एक सकुचत झरि जाय।

2. विलसत जदुपति नखनि मैं अनुपम दुति दरसाति।

उडुपति जुत उडु अवलि लखि सकुचि सकुचि दुरिजाति।

3. सविता दुहिता स्यामता सुरसरिता नख जोत।

सुतल अरुनता भारती चरन त्रिबेनी होत।

4. गुलुफ कुलुफ खोलनि हृदै हो तौ उपमा तूल।

ज्यों इंदीवर तट असित द्वैगुलाब के फूल।

5. चारु चरन की ऑंगुरी मोपै बरनि न जाय।

कमल कोस की पाँखुरी पेखत जिनहिं लजाय।

6. जदुपति नैन समान हित बिधि ह्नै बिरचै मैन।

मीन कंज खंजन मृगहुँ समता तऊ लहै न।

7. सखि लखन चलो नृप कुँवर भलो।

मिथिला पति सदन सिया बनरो।

सिरमौर बसन तन में पियरो।

हठहेरि हरत हमरो हियरो।

8. उर सोहत मोतिन को गजरो

रतनारी ऍंखियन में कजरो।

चितये चित चोरत सखि समरो

चितये बिन जिय न जिये हमरो।

9. अलकैं अलि अजब लसैं चेहरो।

झपि झूलि रह्यो कटि लौं सेहरो।

चित चहत अरी लगि जाउँ गरे।

रघुराज त्यागि जग को झगरो।

10. माधुरी माधाव की वह मूरति देखत ही दृग देखे बनैरी।

तीन हूँ लोक की जो रुचिराई सुहाई अहै तिनही ते घनैरी

सोभा सचीपति और रति के पति की कछु आयी न मेरेमनैरी

हेरि मैं हारयो हिये उपमा छबि हूँ छबि पायी विराजित नैरी।

महाराज रघुराजसिंह के वाच्यार्थ में कहीं-कहीं अस्पष्टता है, कहीं-कहीं शब्दों का समुचित प्रयोग भी नहीं है। फिर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि साहित्य के अधिकतर उत्ताम गुण उनकी रचनाओं में पाये जाते हैं। उनकी रचनाएँ भगवती वीणापाणि के चरणों में अर्पित सुन्दर सुमन मालाओं के समान हैं।

इन भक्त महाराजाओं के साथ हम एक और सहृदय भक्त की चर्चा करना चाहते हैं। वे हैं दीनदयाल गिरि। इनकी गणना दस नामी संन्यासियों में है। कोई इन्हें ब्राह्मण संतान कहता है और कोई क्षत्रिय-संतान। वे जो हों परंतु त्यागी पुरुष थे। हृदय भी उदार था और भावुकता उसमें भरी थी। इनके बनाये पाँच ग्रन्थ हैं। उनके नाम हैं-अनुराग बाग, दृष्टान्त तरंगिणी, अन्योक्ति माला, वैराग्यदिनेश और अन्योक्ति कल्पद्रुम। इन ग्रन्थों का विषय इनके नामानुकूल है। ये थे शैव किंतु हृदय उदार था,इसलिए इनकी रचना में वह कटुता नहीं आयी है, जिसकी जननी साम्प्रदायिकता है। वह बड़ी ही सरस और मधुर है साथ ही बड़ी उपयोगिनी। इन्होंने संन्यासी का कार्य ही अधिकतर किया है। समाज को सत् शिक्षा देने में ही वे आजन्म प्रवृत्ता रहे। इनकी भाषा टकसाली ब्रजभाषा है, वे संस्कृत के विद्वान् होकर भी अपनी रचना में संस्कृत के शब्दों का अधिक व्यवहार नहीं करते थे। इनकी रचना में प्रवाह है और उसमें एक बड़ी ही मनोहर गति पायी जाती है। अन्य भाषा या उर्दू के शब्द भी कहीं-कहीं इनके पद्यों में आ जाते हैं परंतु वे नियमित होते हैं। उनकी व्यंजनाएँ मधुर हैं और भाव स्पष्ट। कहीं-कहीं उत्तामोत्ताम धवनियाँ भी उनमें मिल जाती हैं। अन्योक्ति की रचनाएँ जितनी सुन्दर और सरस इन्होंने कीं उसकी बहुत कुछ प्रशंसा की जा सकती है। इनके कुछ पद्य देखिए-

1. छाडयो गृहकाज कुललाज को समाज सबै

एक व्रजराज सो कियो री प्रीतिपन है।

रहत सदाई सुखदाई पद पंकज में

चंचरीक नाईं भईं छाँड़ैं नाहिं छन है।

रति-पति मूरति बिमोहन को नेमधारि

विषै प्रेमरंग भरि मति को सदन है।

कँवर कन्हाई की लुनाई लखि माई मेरो

चेरो भयो चित औ चितेरो भयो मन है।

2. कोमल मनोहर मधुर सुरताल सने

नूपुर निनादनि सों कौन दिन बोलि हैं।

नीके मम ही के बुंद वृंदन सुमोतिन को

गहि कै कृपा की अब चोंचन सों तोलि हैं।

नेम धारि छेम सों प्रमुद होय दीन द्याल

प्रेम कोक नद बीच कब धौं कलोलि हैं।

चरन तिहारे जदुवंस राजहंस कब

मेरे मन मानस मैं मंद-मंद डोलि हैं।

3. पराधीनता दुख महा सुखी जगत स्वाधीन।

सुखी रमत सुक बनविषै कनक पींजरे दीन।

4. केहरि को अभिषेक कब कीन्हों विप्र समाज।

निज भुजबल के तेज ते विपिन भयो मृगराज।

5. नाहीं भूलि गुलाब तू गुनि मधुकर गुंजार।

यह बहार दिन चार की बहुरि कटीली डार।

बहुरि कटीली डार होहिगी ग्रीषम आये।

लुवैं चलेंगी संग अंग सब जैहैं ताये।

बरनै दीन दयाल फूल जौ लौं तौ पाहीं।

रहे घेरि चहुँ फेर फेरि अलि ऐहैं नाहीं।

6. चारों दिसि सूझै नहीं यह नद धार अपार।

नाव जर्जरी भार बहु खेवन हार गँवार।

खेवनहार गँवार ताहि पै है मतवारो।

लिये भँवर में जाय जहाँ जल जंतु अखारो।

बरनै दीन दयाल पथी बहु पौन प्रचारो।

पाहि पाहि रघुबीर नाम धारि धीर उचारो।

उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध्द में कुछ ऐसे कवि भी हुए हैं जो न तो रीति ग्रन्थकार हैं, न प्रबन्धाकार, वरन प्रेममार्गी हैं अथवा शृंगारिक कवि। उनकी संख्या बहुत बड़ी है, परन्तु मैं उनमें से कुछ विशेषता प्राप्त सहृदयों का ही उल्लेख करूँगा, जिससे यह ज्ञात हो सके कि उन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा किस प्रकार हिन्दी साहित्य को अलंकृत किया। इन लोगों में से सबसे पहले हमारे सामने ठाकुर कवि आते हैं। ठाकुर तीन हो गये हैं। इनमें से दो ब्रह्मभट्ट थे, और एक कायस्थ। असनी के रहने वाले प्राचीन ठाकुर सत्राहवीं सदी के अन्त में या अठारहवीं के आदि में पड़ते हैं। इन तीनों ठाकुरों की रचनाएँ एक-दूसरे के साथ इतनी मिल गयी हैं कि इनको अलग करना कठिन है। तीनों ठाकुरों की सवैयाओं में कुछ ऐसी मधुरता है कि वह अपनी ओर हृदय को खींच लेती है, इससे अनेक सहृदयों को ठाकुर की सवैयाओं को पढ़ते सुना जाता है। प्राचीन ठाकुर के विषय में कोई ऐसा परिचय चिद्द नहीं मिलता कि जिसके आधार से उनको औरों से अलग किया जा सके। परन्तु जो दो ठाकुर उन्नीसवीं शताब्दी में हुए हैं, उनका अन्तर जानने के लिए जो बातें कही जाती हैं वे ये हैं। असनी वाले ब्रह्मभट्ट की रचना अधिकतर कवित्ताों में है। उन्होंने सवैया भी लिखे हैं, किन्तु उसके अंत में कोई कहावत लाने का नियम उन्होंने नहीं रखा है। दूसरे ठाकुर, जो कायस्थ थे, उन्होंने प्राय: अपनी रचना सवैया में की है और उसके अंत में कोई न कोई कहावत अवश्य लाये हैं। इसी परिचय चिद्द के आधार से उन लोगों की रचना आप लोगों के सामने उपस्थित करूँगा। प्राचीन ठाकुर की रचना मैं हिन्दी साहित्य के इतिहास से लेता हूँ, क्योंकि उसके रचयिता ने यह बतलाया है कि यह रचना उन्हीं की है। प्राचीन ठाकुर के विषय में यह तो सभी स्वीकार करते हैं कि वे असनी के ब्रह्मभट्ट थे। परन्तु उनकी और बातों के विषय में सभी चुप हैं। ऐसी अवस्था में मुझको भी चुप रहना पड़ता है। उनकी रचनाओं के पढ़ने से यह ज्ञात होता है कि वे एक सरस हृदय कवि थे और ब्रजभाषा पर उनका अच्छा अधिकार था। दो पद्य देखिए-

1. सजि सूहे दुकूलनि बिज्जु छटा सी

अटान चढ़ी घटा जोवति हैं।

सुचिती ह्नै सुनैं धुनि मोरन की

रसमाती सँजोग सँजोवति हैं।

कवि ठाकुर वै पिय दूरि बसैं

हम ऑंसुन सों तन धोवति हैं।

धानिवै धानि पावस की रतियाँ

पति की छतियाँ लगि सोवति हैं।

2. बौर रसालन की चढ़ि डारन

कूकत क्वैलिया मौन गहै ना।

ठाकुर कुंजन कुंजन गुंजत

भौंरन भीर चुपैबो चहै ना।

सीतल मंद सुगंधित बीर

समीर लगे तन धीर रहै ना।

व्याकुल कीन्हों बसंत बनाय कै।

जाय कै कंत रो कोऊ कहैना।

दूसरे ठाकुर भी असनी के रहने वाले थे। उन्होंने बिहारी की सतसई पर टीका भी लिखी है। उनकी रचनाएँ भी सुंदर और सरस होती थीं। उन्होंने नीति सम्बन्धी जो कवित्ता बनाये हैं वे बड़े ही उपयोगी और उपदेशमय हैं। जैसे ही उनके शृंगार रस के कवित्ता सुन्दर हैं वैसे ही नीति सम्बन्धी भी। उनके कुछ सवैये भी बड़े ही हृदयग्राही हैं। नीति सम्बन्धी कवित्ता यदि विवेकशील मस्तिष्क की उपज हैं तो सरस सवैये उनकी सहृदयता के नमूने हैं। उनमें से कुछ नीचे लिखे जाते हैं-

1. बैर प्रीति करिबे की मन में न राखै संक

राजा राव देखि कै न छाती धाक धा करी।

आपने अमेंड के निबाहिबे की चाह जिन्हें

एक सों दिखात तिन्हें बाघ और बाकरी।

ठाकुर कहत मैं विचार कै बिचारि देख्यो

यहै मरदानन की टेक औ अटाकरी।

गही तौन गही जौन छाड़ी तौन छाड़ी।

जौन करी तौन करी बात ना करी सोनाकरी।

2. सामिल में पीर में सरीर में न भेद राखै

हिम्मत कपाट को उघारै तौ उघरि जाय।

ऐसो ठान ठानै तो बिनाही जंत्रा मंत्रा किये।

साँप के जहर को उतारै तौ उतरि जाय।

ठाकुर कहत कछु कठिन न जानौ मीत

साहस किये ते कहौ कहा ना सुधारि जाय।

चारि जने चारि हूँ दिसा ते चारों कोन गहि

मेरु को हलाय कै उखारैं तो उखरि जाय।

3. हिलि मिलि लीजिये प्रवीनन ते आठो जाम

कीजिये अराम जासों जिय को अराम है।

दीजिये दरस जाको देखिबे को हौस होय

कीजिये न काम जासों नाम बदनाम है।

ठाकुर कहत यह मन में विचारि देखो

जस अपजस को करैया सब राम है।

रूप से रतन पाय चातुरी से धान पाय

नाहक गँवाइबो गँवारन को काम है।

4. ग्वालन को यार हैं सिंगार सुभ सोभन को

साँचो सरदार तीन लोक रजधानी को।

गाइन के संग देखि आपनो बखत लेखि

आनँद बिसेख रूप अकह कहानी को।

ठाकुर कहत साँचो प्रेम को प्रसंगवारो

जा लखि अनंग रंग दंग दधिदानी को।

पुत्र नंद जी को अनुराग ब्रजबासिन को

भाग जसुमति को सुहाग राधारानी को।

5. कोमलता कंज ते गुलाब ते सुगंधा लैके

चंद ते प्रकास गहि उदित उँजेरो है।

रूप रति आनन ते चातुरी सुजानन ते

नीर लै निवानन ते कौतुक निबेरो है।

ठाकुर कहत यों सँवारयो बिधि कारीगर

रचना निहारि जनचित होत चेरो है।

कंचन को रंग लै सवाद लै सुधा को

बसुधा को सुख लूटि कै बनायो मुख तेरो है।

6. लगी अंतर में करै बाहिर को

बिन जाहिर कोऊ न मानतु है।

दुख औ सुखहानि औ लाभ सबै

घर की कोऊ बाहर भानतु है।

कवि ठाकुर आपनी चातुरी सों

सब ही सब भाँति बखानतु है।

पर बीर मिले बिछुरे की बिथा

मिलि कै बिछुरै सोई जानतु है।

7. एजे कहैं ते भले कहिबो करैं मान

सही सो सबै सहि लीजै।

ते बकि आपुहिं ते चुप होंयगी

काहे को काहुवै उत्तार दीजै।

ठाकुर मेटे मतै की यहै धानि

मान कै जोबन रूप पतीजै।

या जग में जनमे को जिये को

यहै फल है हरि सों हित कीजे।

8. वह , कंज सों कोमल अ गुपाल

को सोऊ सबै तुम जानती हौ।

बलि नेकु रुखाई धारे कुम्हिलात

इतोऊ नहीं पहचानती हौ।

कवि ठाकुर या कर जोरि कह्यौ

इतने पै बिनै नहीं मानती हौ।

दृग बान औ भौंह कमान कहो

अब कान लै कौन पै तानती हौ।

तीसरे ठाकुर बुंदेलखंडी थे और सरस रचना करते थे। मैं यह बतला चुका हूँ कि उनकी रचनाओं के अन्त में प्राय: कहावतें आती हैं। दो पद्य उनके भी देखिए-

1. यह चारहूँ ओर उदौ मुख चन्द को

चाँदनी चारु निहारि लैरी।

बलि जो पै अधीन भयो पिय प्यारी

तौ ए तौ बिचार बिचारि लैरी।

कबि ठाकुर चूकि गयो जुगोपाल तौ

तू बिगरी को सम्हारि लैरी।

अब रैंहै न रैहै यहौ समयो

बहती नदी पाँव पखारि लैरी।

2. पिय प्यार करै जेहि पै सजनी

तेहि की सब भाँतिन सैयत है।

मन मान करौं तौ परौं भ्रम में

फिर पाछे परे पछतैयत है।

कबि ठाकुर कौन की कासों कहौं

दिन देखि दसा बिसरैयत है।

अपने अटके सुन एरी भटू

निज सौत के मायके जैयत है।

इन तीनों ठाकुरों की रचनाओं में यह बड़ी विशेषता है कि सीधो शब्दों में रस की धारा बहा देते हैं। न अनुप्रास की परवा, न यमक की खोज, न वर्ण मैत्राी की चिन्ता। वे अपनी बातें अपनी ही बोल-चाल में कह जाते हैं और हृदय को अपनी ओर खींच लेते हैं। कवि कर्म्म है भी यही। जो बातें आगे-पीछे होती रहती हैं, उनको लेकर उनका चित्रा बोल-चाल में खींच देना सबका काम नहीं, सरस हृदय कवि ही ऐसा कर सकते हैं।

रामसहायदास, भवानीदास के पुत्र थे। वे जाति के कायस्थ थे और काशिराज महाराज उदितनारायण सिंह के आश्रय में रहते थे। उन्होंने चार ग्रन्थों की रचना की है-'वृत्ता-तरंगिनी', 'ककहरा', 'रामसतसई' और 'वाणी-भूषण्'। 'वाणी भूषण' अलंकार का, 'वृत्तातरंगिनी' पिंगल का, और 'ककहरा' नीति सम्बन्धी-ग्रन्थ है। राम सतसई बिहारी सतसई के अनुकरण से लिखी गई है। बिहारी ने अपने सतसई का नाम अपने नाम के आधार पर रक्खा है तो रामसहाय दास ने भी अपनी सतसई का नाम अपने नाम के सम्बन्धा से ही रखा। इतना ही अनुकरण नहीं, उन्होंने बिहारी सतसई का अनुकरण सभी बातों में किया है। उनके दोहे बिहारी के टक्कर के हैं। परन्तु सहृदयता और भावुकता में बिहारी की समता वे नहीं कर सके। चंदन सतसई और विक्रम सतसई भी बिहारी सतसई के ही आधार से लिखी गई हैं। परन्तु उन सतसइयों को भी बिहारीलाल की सतसई की-सी सफलता भाव-चित्राण में नहीं प्राप्त हुई। शब्द-विन्यास में बोल-चाल की भाषा लिखने में ब्रजभाषा के टकसाली शब्दों में सरसता कूट-कूट भर देने में बिहारी लाल अपने जैसे आप हैं। राम सतसई के कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं-

1. गुलफनि लौं ज्यों त्यों गयो करि करि साहस जोर।

फिरि न फिरयो मुरवान चपि चित अति खात मरोर।

2. यों बिभाति दसनावली ललना बदन मँझार।

पति को नातो मानि कै मनु आई उडुनार।

3. सखि सँग जाति हुतो सुती भट भेरो भो जानि।

सतरौंही भौंहनि करी बतरौंही ऍंखियाँनि।

4. सतरौहैं मुख रुख किये कहैं रुखौहैं बैन।

रैन जगे के नैन ये सने सनेह दुरैं न।

5. खंजन कंज न सरि लहैं बलि अलि को न बखानि।

एनी की ऍंखियानि ते ए नीकी ऍंखियानि।

पजनेस एक प्रतिभाशाली कवि माने जाते हैं। इनका जन्म-स्थान पन्ना कहा जाता है और परिचय के विषय में कुछ विशेष ज्ञात नहीं। इन्होंने 'मधुर प्रिया' और 'नखशिख' नामक दो ग्रंथ बनाये थे। किन्तु दोनों ग्रंथ अमुद्रित हैं। इनकी स्फुट रचनाएँ कुछ पाई जाती हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि उनको संस्कृत और परसी का भी अच्छा ज्ञान था। इनकी रचनाओं की मुख्य भाषा ब्रजभाषा है, किन्तु उनमें अन्य भाषाओं के शब्द अधिकता से पाये जाते हैं, इस विषय में वे अधिक स्वतंत्रा हैं। इनकी रचनाओं में अकोमल शब्दों का प्रयोग भी अधिक मिलता है। परुषा वृत्तिा इन्हें अधिक प्यारी है। जो स्फुट पद्य मिले हैं, वे सब शृंगार रस के ही हैं। अवधा नरेश महाराज मानसिंह इनकी रचनाओं को लोहे का चना कहते थे। तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि उन्होंने सरस पद-विन्यास किया ही नहीं। दोनों प्रकार के दो पद्य नीचे लिखे जातेहैं-

1. छहरै छबीली छटा छूटि छिति मंडल पै

उमँग उँजेरो महा ओज उजबक सी।

कवि पजनेस कंज मंजुल मुखी के गात

उपमाधिकात कल कुंदन तबक सी।

फैली दीप दीप दीप दीपति दिपति जाकी

दीप मालिका की रही दीपति दबकि सी।

परत न ताब लखि मुखमहताब

जब निकसी सिताब आफताब के भभकसी।

2. मानसी पूजामयी पजनेस

मलेछन हीन करी ठकुराई।

रोके उदोत सबै सुर गोत

बसेरन पै सिकराली बसाई।

जानि परै न कला कछु आज की

काहे सखी अजया इकल्याई।

पोखे मराल कहो केहि कारन एरी

भुजंगिनी क्यों पुसवाई।

पजनेस की रचना पदमाकर की रचना से सर्वथा विपरीत है। जैसी ही वह सरस, मधुर और प्रसाद गुणमयी है, वैसी ही इनकी रचना जटिल परुष और अस्पष्ट है। किन्तु इनकी प्रसिध्दि ऐसी ही रचनाओं के कारण हुई है।

महाराज मानसिंह अवध नरेश थे। नीतिज्ञता, गुणज्ञता, सहृदयता, उदारता, भावुकता अथच बहुदर्शिता के लिए प्रसिध्द थे। आपके दरबार में कवियों का बड़ा सम्मान था, क्योंकि उनमें कवि-कर्म की यथार्थ परख थी। वे स्वयं भी बड़ी सुन्दर कविता करते थे। कविता में अपना नाम 'द्विजदेव' लिखते थे। वे अवधी की गोद में पले थे, परन्तु कविता टकसाली ब्रजभाषा में लिखते थे। इस सरसता से पद-विन्यास करते थे कि कविता पंक्तियों में मोती पिरो देते थे। जैसी सुन्दर धवनि होती थी, वैसी ही सुन्दर व्यंजना। वास्तविक बात यह है कि इनकी कविता भाव प्रधान है, इसी से उसमें हृदयग्राहिता भी अधिक है। केवल एक ग्रन्थ'शृंगार-लतिका' इनका पाया जाता है। उसमें से कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं-

1. बाँके संक हीने राते कंज छबि छीने माते

झुकि झुकि झूमि झूमि काहू को कछू गनैन।

द्विजदेव की सौं ऐसी बानक बनाय बहु

भाँतिन बगारे चित चाह न चहूँघा चैन।

पेखि परे पात जो पै गातन उछाह भरे

बार बार तातैं तुम्हैं बूझती कछूक बैन।

एहो ब्रजराज मेरे प्रेम-धान लूटिये को

बीरा खाइ आये कितै आपके अनोखे नैन।

2. घहरि घहरि घन सघन चहूँघा घेरि

छहरि छहरि बिष बूँद बरसावै ना।

द्विजदेव की सौं अब चूक मत दाँव अरे

पात की पपीहा तू पिया की धुन गावै ना।

फेरि ऐसो औसर न ऐहै तेरे हाथ एरे

मटकि मटकि मोर सोर तू मचावै ना।

हौं तो बिन प्रान प्रान चाहत तजोई अब

कत नभ चन्द तू अकास चढ़ि धावै ना।

3. चित चाहि अबूझ कहैं कितने छबि

छीनी गयंदनि की टटकी।

कबि केते कहैं निज बुध्दि उदै

यह लीनी मरालनि की मटकी।

द्विजदेव जू ऐसे कुतर्कन में सब की

मति यों ही फिरै भटकी।

वह मन्द चलै किन भोरी भटू

पग लाखन की ऍंखियाँ अटकी।

गिरधारदास का मुख्य नाम गोपालचन्द्र था। आप भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र के पिता थे। इन्होंने चालीस ग्रन्थ बनाये, जिनके आधार से बाबू हरिश्चन्द्र जी की यह गर्वोक्ति है-

जिन पितु गिरिधार दास ने रचे ग्रन्थ चालीस।

ता सुत श्री हरिचन्द को को न नवावै सीस।

ग्रन्थों की संख्या अवश्य बड़ी है, पर अधिकांश ग्रन्थ छोटे और स्तोत्रामात्रा हैं। 'जरासन्धा-वधा' महाकाव्य बड़ा ग्रन्थ है,परन्तु अधूरा है। इनकी अधिकांश रचनाएँ नैतिक हैं और उनमें सदाचार आदि की अच्छी शिक्षा है। इनकी भाषा ब्रजभाषा है,परन्तु उसे हम टकसाली नहीं कह सकते। इनकी रचना जितनी युक्तिमयी है, उतनी ही भावमयी। युक्तियाँ उत्ताम हैं, परन्तु उनमें उतनी सरलता और मधुरता नहीं। कहीं-कहीं रचना बड़ी जटिल है, फिर भी यह कहा जा सकता है कि हिन्दी देवी की अर्चा इन्होंने सुंदर सुमनों से की है। इनके कुछ पद्य देखिए-

1. सब के सब केसव केसव के हित के

गज सोहते सोभा अपार है।

जब सैलन सैलन ही फिरै सैलन

सैलन सैलहि सीस प्रहार है।

गिरि धारन धारन सों पद के

जल धारन लै बसुधारन कार है।

अरि बारन बारन पै सुर बारन

बारन बारन बारन बार है।

2. बातन क्यों समुझावत हो मोहि

मैं तुमरो गुन जानति राधो।

प्रीति नई गिरधारन सों भई

कुंज में रीति के कारन साधो।

घूँघट नैन दुरावन चाहति दौरति

सो दुरि ओट ह्नै आधो।

नेह न गोयो रहै सखि लाज सो

कैसे रहै जल जाल के बाँधो।

3. जाग गया तब सोना क्या रे।

जो नरतन देवन को दुरलभ सो पाया अब रोना क्या रे।

ठाकुर से कर नेह आपना इंद्रिन के सुख होना क्या रे।

जब बैराग्य ज्ञान उर आया , तब चाँदी औ सोना क्या रे।

दारा सुवन सदन में पड़ि कै भार सबों का ढोना क्या रे।

हीरा हाथ अमोलक पाया काँच भाव में खोना क्या रे।

दाता जो मुख माँगा देवे तब कौड़ी भर दोना क्या रे।

गिरिधार दास उदर पूरे पर मीठा और सलोना क्या रे।

उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध्द में कोई ऐसा निर्गुणवादी संत सामने नहीं आता, जिसने अपने सम्प्रदाय में कोई नवीनता उत्पन्न की हो या जिसने ऐसी रचनाएँ की हों, जिनका प्रभाव साहित्य पर ऐसा पड़ा हो जो अंगुलि-निर्देश-योग्य हो। सत्राहवीं शताब्दी में पारी साहब नामक एक मुसलमान ने कबीर साहब का मार्ग ग्रहण कर कुछ हिन्दी के शब्द (भजन) बनाये। ये सूपी सम्प्रदाय के थे, परन्तु हिन्दी में प्रचार करने के कारण हिन्दुओं पर भी इनका प्रभाव पड़ा। इनके दो शिष्य थे-केशवदास और बुल्ला साहब। पहले हिन्दू थे और दूसरे मुसलमान, ये अठारहवीं शताब्दी में हुए। इनकी रचनाएँ भी हिन्दी में हुईं और इन्होंने भी हिन्दू जनता को अपनी ओर आकर्षित किया। बुल्ला साहब के शिष्य गुलाल साहब हुए। ये जाति के क्षत्रिय थे, और इन्होंने भी निर्गुण-वादियों की-सी रचनाएँ हिन्दी में कीं। पारी साहब अथवा बुल्ला साहब के रहन-सहन की प्रणाली अधिकतर हिन्दुओं के ढंग में ढली हुई थी। गुलाल साहब तक पहुँचकर वह सर्वथा हिन्दू भावापन्न हो गई। वैष्णवों की तरह इन्होंने तिलक और माला इत्यादि का प्रचार किया और सत्य राम मंत्रा का उपदेश। इनके शिष्य भीखा साहब हुए। ये जाति के ब्राह्मण थे। इसलिए इनके समय में इस परम्परा में ऐसे परिवर्तन हुए जो अधिकांश में वैष्णव सम्प्रदाय की अनुकूलता करते थे। ये अठारहवीं शताब्दी के अन्त में हुए और इन्होंने भी हिन्दी भाषा में रचनाएँ कीं, जो वैसी ही हैं जैसी निर्गुणवादी साधुओं की होती हैं। इनके शिष्य गोविन्दधार हुए जो गोविन्द साहब के नाम से प्रसिध्द हैं। इन्होंने अपना एक अलग सम्प्रदाय चलाया,जिसका मंत्रा है 'सत्य गोविन्द'। ये भी ब्राह्मण और संस्कृत के विद्वान् थे। इसलिए इनके सम्प्रदाय की ओर हिन्दू जनता भी अधिक आकर्षित हुई। इनकी हिन्दी रचनाएँ भी पायी जाती हैं, परन्तु थोड़ी हैं और उनमें गंभीरता अधिक है। इसलिए सर्वसाधारण में उसका अधिक प्रचार नहीं हुआ। इन्हीं के शिष्य पलटूदास हुए जो इस उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध्द में जीवित थे। पारी साहब की परम्परा, इनके साथ ही समाप्त होती है। पलटू साहब जाति के बनिया थे, किन्तु सहृदय थे। जितनी रचनाएँ उन्होंने कीं, चलती और सरल भाषा में। इसलिए उनकी रचनाओं का प्रचार अधिक हुआ। वे अपने को निर्गुण बनिया कहा करते और लिखते थे। कबीर साहब के समान कभी-कभी ऊँची उड़ान भी भरते थे। उनके कुछ पद्य देखिए-

1. पलटू हम मरते नहीं ज्ञानी लेहु बिचार।

चारों युग परलै भई हमहीं करने हार।

हमहीं करनेहार हमहिं कत्तर् के कत्तर्।

कत्तर् जिसका नाम धयान मेरा ही धारता।

पलटू ऐना संत हैं सब देखै तेहि माँहिं

टेढ़ सोझ मुँह आपना ऐना टेढ़ा नाहिं।

जैसे काठ में अगिन है फूल में है ज्यों बास।

हरिजन में हरि रहत हैं ऐसे पलटू दास।

सुनि लो पलटू भेद यह हँसि बोले भगवान।

दुख के भीतर मुक्ति है सुख में नरक निदान।

मरते मरते सब मरे मरै न जाना कोय।

पलटू जो जियतै मरै सहज परायन होय।

उन्नीसवीं शताब्दी का उत्तरार्ध्द ऐसा काल है जिसमें बहुत बड़े-बड़े परिवर्तन हुए। मैं पहले इस विषय में कुछ लिख चुका हूँ। परिवर्तन क्यों उपस्थित होते हैं, इस विषय में कुछ अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं। किन्तु मैं यह बतलाऊँगा कि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तारार्ध्द में राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक अवस्था क्या थी। मुसलमानों के राज्य का अन्त हो चुका था और ब्रिटिश राज्य का प्रभाव दिन-दिन विस्तार लाभ कर रहा था। अंग्रेजी शिक्षा के साथ-साथ योरोपीय भावों का प्रचार हो रहा था और 'यथा राजा तथा प्रजा' इस सिध्दान्त के अनुसार भारतीय रहन-सहन-प्रणाली भी परिवर्तित हो चली थी। अंग्रेजों का जातीय भाव बड़ा प्रबल है। उनमें देश-प्रेम की लगन भी उच्चकोटि की है। विचार स्वातंत्रय उनका प्रधान गुण है। कार्य को प्रारम्भ कर उसको दृढ़ता के साथ पूर्ण करना और उसे बिना समाप्त किये न छोड़ना यह उनका जीवन-व्रत है। उनके समाज में स्त्री जाति का उचित आदर है, साथ ही पुरुषों के समान उनका स्वत्व भी स्वीकृत है। ब्रिटिश राज्य के संसर्ग से और अंग्रेजी भाषा की शिक्षा पाकर ये सब बातें और इनसे सम्बन्धा रखने वाले और अनेक भाव इस शताब्दी के उत्तारार्ध्द में और प्रान्तों के साथ-साथ हमारे प्रान्त में भी अधिकता से फैले। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज का डंका बजाया, और हिन्दुओं में जो दुर्बलताएँ, रूढ़ियाँ और मिथ्याचार थे, उनका विरोधा सबल कंठ से किया। इन सब बातों का यह प्रभाव हुआ कि इस प्रकार के साहित्य की देश को आवश्यकता हुई जो कालानुकूल हो और जिससे हिन्दू समुदाय की वह दुर्बलताएँ दूर हों,जिनसे उसका प्रतिदिन पतन हो रहा था। यही नहीं, इस समय यह लहर भी वेग से सब ओर फैली कि किस प्रकार देशवासी अपनेर् कत्ताव्यों को समझें और कौन-सा उद्योग करके वे भी वैसे ही बनें जैसे योरोप के समुन्नत समाज वाले हैं। कोई जाति उसी समय जीवित रह सकती है, जब वह अपने को देशकालानुसार बना ले और अपने को उन उन्नतियों का पात्रा बनावे जिनसे सब दुर्बलताओं का संहार होता है, और जिनके आधार से लोग सभ्यता के उन्नत सोपानों पर चढ़ सकते हैं। इन भावों का उदय जब हृदयों में हुआ तब इस प्रकार की साहित्य-सृष्टि की ओर समाज के प्रतिभा-सम्पन्न विबुधों की दृष्टि गई और वे उचित यत्न करने के लिए कटिबध्द हुए। अनेक समाचार-पत्रा निकले और विविधा पुस्तक-प्रणयन द्वारा भी इष्ट-सिध्दि का उद्योग प्रारम्भ हुआ।

बाबू हरिश्चन्द्र इस काल के प्रधान कवि हैं। प्रधान कवि ही नहीं, हिन्दी साहित्य में गद्य की सर्व-सम्मत और सर्व-प्रिय शैली के उद्भावक भी आप ही हैं। हम इस स्थान पर यही विचार करेंगे कि उनके द्वारा हिन्दी पद्य में किन प्राचीन भावों का विकास और किन नवीन भावों का प्रवेश हुआ। बाबू हरिश्चन्द्र महाप्रभु वल्लभाचार्य के सम्प्रदाय के थे। इसलिए भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीमती राधिका में उनका अचल अनुराग था। इस सूत्रा से वे ब्रजभाषा के भी अनन्य प्रेमी थे। उनकी अधिकांश रचनाएँ प्राचीन-शैली की हैं और उनमें राधाकृष्ण का गुणानुवाद उसी भक्ति और श्रध्दा के साथ गाया गया है,जिससे अष्टछाप के वैष्णवों की रचनाओं को महत्ता प्राप्त है। उन्होंने न तो कोई रीति ग्रन्थ लिखा है और न कोई प्रबंधा-काव्य। किन्तु उनकी स्फुट रचनाएँ इतनी अधिक हैं तो सर्वतोमुखी प्रतिभा वाले मनुष्य द्वारा ही प्रस्तुत की जा सकती हैं।

उन्होंने होलियों, पर्वों, त्योहारों और उत्सवों पर गाने योग्य सहòों पद्यों की रचना की है। प्रेम-रस से सिक्त ऐसे-ऐसे कवित्ता और सवैये बनाये हैं जो बड़े ही हृदयग्राही हैं। जितने नाटक या अन्य गद्य ग्रन्थ उन्होंने लिखे हैं, उन सबमें जितने पद्य आये हैं वे सब ब्रजभाषा ही में लिखे गये हैं। इतने प्राचीनता प्रेमी होने पर भी उनमें नवीनता भी दृष्टिगत होती है। वे देश दशा पर अश्रु बहाते हैं, जाति-ममता का राग अलापते हैं, जाति की दुर्बलताओं की ओर जनता की दृष्टि आकर्षित करते हैं, और कानों में वह मन्त्रा फूँकते हैं जिससे चिरकाल की बन्द ऑंखें खुल सकें, उनके 'भारत-जननी' और 'भारत-दुर्दशा' नामक ग्रन्थ इसके प्रमाण हैं। बाबू हरिश्चन्द्र ही वह पहले पुरुष हैं जिन्होंने सर्वप्रथम हिन्दी साहित्य में देश-प्रेम और जाति ममता की पवित्रा धारा बहाई। वे अपने समय के मयंक थे। उनकी उपाधि 'भारतेन्दु' है। इस मयंक के चारों ओर जो जगमगाते हुए तारे उस समय दिखला पड़े, उन सबों में भी उनकी कला का विकास दृष्टिगत हुआ। सामयिकता की दृष्टि से उन्होंने अपने विचारों को कुछ उदार बनाया और ऐसे भावों के भी पद्य बनाये जो धार्मिक संकीर्णता को व्यापकता में परिणत करते हैं। 'जैन-कुतूहल'उनका ऐसा ही ग्रन्थ है। उनके समय में उर्दू शायरी उत्तारोत्तार समुन्नत हो रही थी। उनके पहले और उनके समय में ऐसे उर्दू भाषा के प्रतिभाशाली कवि उत्पन्न हुए जिन्होंने उसको चार चाँद लगा दिये। उनका प्रभाव भी इन पर पड़ा और इन्होंने अधिक उर्दू शब्दों को ग्रहण्कर हिन्दी में 'फूलों का गुच्छा' नामक ग्रन्थ लिखा जिसमें लावनियाँ हैं जो खड़ी बोली में लिखी गई हैं। वे यद्यपि हिन्दी भाषा ही में रचित हैं, परन्तु उनमें उर्दू का पुट पर्याप्त है। यदि सच पूछिए तो हिन्दी में स्पष्ट रूप से खड़ी बोली रचना का प्रारम्भ इसी ग्रन्थ से होता है। मैं यह नहीं भूलता हूँ कि यदि सच्चा श्रेय हिन्दी में खड़ी बोली की कविता पहले लिखने का किसी को प्राप्त है तो वे महन्त सोतल हैं। वरन मैं यह कहता हूँ कि इस उन्नीसवीं शताब्दी में पहले पहल यह कार्य भारतेन्दु जी ही ने किया। कुछ लोग उसको उर्दू की ही रचना मानते हैं। परन्तु मैं यह मानने के लिए तैयार नहीं। इसलिए कि जैसे हिन्दी भाषा और संस्कृत के तत्सम शब्द उसमें आये हैं वैसे शब्द उर्दू की रचना में आते ही नहीं।

बाबू हरिश्चन्द्र नवीनता-प्रिय थे और उनकी प्रतिभा मौलिकता से स्नेह रखती थी। इसलिए उन्होंने नई-नई उद्भावनाएँ अवश्य कीं, परन्तु प्राचीन ढंग की रचना ही का आधिक्य उनकी कृतियों में है। ऐसी ही रचना कर वे यथार्थ आनन्द का अनुभव भी करते थे। उनके पद्यों को देखने से यह बात स्पष्ट हो जाती है। उनके छोटे-बड़े ग्रन्थों की संख्या लगभग 100 तक पहुँचती है। इनमें पद्य के ग्रन्थ चालीस- पचास से कम नहीं हैं। परन्तु ये समस्त ग्रन्थ लगभग ब्रजभाषा ही में लिखे गये हैं। उनकी भाषा सरस और मनोहर होती थी। वैदर्भी वृत्तिा के ही वे उपासक थे। फिर भी उनकी कुछ ऐसी रचनाएँ हैं जो अधिकतर संस्कृत गर्भित हैं। वे सरल से सरल और दुरूह से दुरूह भाषा लिखने में सिध्दहस्त थे। ग़ज़लें भी उन्होंने लिखी हैं, जो ऐसी हैं जो उर्दू के उस्तादों के शे'रों की समता करने में समर्थ हैं। मैं पहले कह चुका हूँ कि वे प्रेमी जीव थे। इसलिए उनकी कविता में प्रेम का रंग बड़ा गहरा है। उनमें शक्ति भी थी और भक्तिमय स्तोत्रा भी। उन्होंने अपने इष्टदेव के लिए लिखे हैं, परन्तु जैसी उच्च कोटि की उनकी प्रेम संबंधी रचनाएँ हैं वैसी अन्य नहीं। उनकी कविता को पढ़कर यह ज्ञात होता है कि उनकी कविकृति इसी में अपनी चरितार्थता समझती है कि वह भगवल्लीलामयी हो। वे विचित्र स्वभाव के थे। कभी तो यह कहते-

जगजिन तृण सम करि तज्यो अपने प्रेम प्रभाव।

करि गुलाब सों आचमन लीजत वाको नाँव।

परम प्रेम निधि रसिकबर अति उदार गुनखान।

जग जन रंजन आशु कवि को हरिचंद समान।

कभी सगर्व होकर यह कहते-

चंद टरै सूरज टरै टरै जगत के नेम।

पै दृढ़ श्री हरिचंद को टरै न अविचल प्रेम।

जब वे अपनी सांसारिकता को देखते और कभी आत्म-ग्लानि उत्पन्न होती तो यह कहने लगते।

जगत-जाल में नित बँधयो परयो नारि के फंद।

मिथ्या अभिमानी पतित झूठो कवि हरिचंद।

उनकी जितनी रचनाएँ हैं, इसी प्रकार विचित्रताओं से भरी हैं। कुछ उनमें से आप लोगों के सामने उपस्थित की जाती हैं-

1. इन दुखियान को न सुखसपने हूँ मिल्यो

यों ही सदा व्याकुल विकल अकुलायँगी।

प्यारे हरिचंद जूकी बीती जानि औधि जोपै

जै हैं प्रान तऊ एतो संग ना समायँगी।

देख्यो एक बार हूँ न नैन भरि तोहिं यातें

जौन जौन लोक जैहैं तहाँ पछतायँगी।

बिना प्रान-प्यारे भये दरस तिहारे हाय

मुएहूश् पै ऑंखें ये खुली ही रह जायँगी।

2. हौं तो याही सोच में बिचारत रही रे काहें

दरपन हाथ ते न छिन बिसरत है।

त्योंही हरिचंद जू वियोग औ सँजोग दोऊ

एक से तिहारे कछु लखि न परत है।

जानी आज हम ठकुरानी तेरी बात तू तो

परम पुनीत प्रेम-पथ बिचरत है।

तेरे नैन मूरति पियारे की बसति ताहि

आरसी में रैन दिन देखिबो करत है।

3. जानि सुजानहौं नेह करी

सहि कै बहुभाँतिन लोक हँसाई।

त्यों हरिचंद जू जो जो कह्यो

सो करयो चुप ह्नै करि कोटि उपाई।

सोऊ नहीं निबही उन सों

उन तोरत बार कछू न लगाई।

साँची भई कहनावति या अरि

ऊँची दूकान की फीकी मिठाई।

4. आजु लौं जौन मिले तो कहा

हम तौ तुम्हरे सब भाँति कहावैं।

मेरो उराहनो है कछु नाहिं

सबै फल आपने भाग को पावैं।

जो हरिचंद भई सो भई अब

प्रान चले चहैं याते सुनावैं।

प्यारे जू है जग की यह रीति

बिदा के समै सब कंठ लगावैं।

5. पियारो पैये केवल प्रेम मैं।

नाहिं ज्ञान मैं , नाहिं धयान मैं , नाहिं करम कुल नेम मैं।

नाहिं मंदिर मैं नहिं पूजा मैं , नहिं घंटा की घोर मैं।

हरीचंद वह बाँधयो डोलै एक प्रेम की डोर मैं।

6. सम्हारहु अपने को गिरिधारी।

मोरमुकुट सिर पागपेच कसि राखहु अलक सँवारी।

हिय हलकत बनमाल उठावहु मुरली धारहु उतारी।

चक्रादिकन सान दै राखे कंकन फँसन निवारी।

नूपुर लेहु चढ़ाय किंकिनी खींचहु करहु तयारी।

पियरो पट परिकर कटि कसिकै बाँधो हो बनवारी।

हम नाहीं उनमें जिनको तुम सहजहिं दीन्हों तारी।

बानो जुगओ नीके अबकी हरीचंद की बारी।

एक उर्दू की ग़ज़ल भी देखिए-

दिल मेरा ले गया दग़ा कर के।

बेवप हो गया वप कर के।

हिज्र की शब घटा ही दी हमने।

दास्तां जुल्प की बढ़ा करके।

वक्ते रहलत जो आये बालीं पर।

ख़ूब रोये गले लगा कर के।

सर्वे वमत ग़ज़ब की चाल से तुम।

क्यों वयामत चले बपा कर के।

ख़ुद बखुद आज जो वह बुत आया।

मैं भी दौड़ा ख़ुदा ख़ुदा कर के।

दोस्तो कौन मेरी तुरबत पर।

रो रहा है रसा रसा कर के।

8. श्रीराधामाधाव युगल प्रेम रस का अपने को मस्त बना।

पी प्रेम-पियाला भर भरकर कुछ इसमैं का भी देखमज़ा।

इतबार न हो तो देख न ले क्या हरीचंद का हाल हुआ।

9. नव उज्ज्वलजल धार हार हीरक सी सोहति।

बिच बिच छहरति बूंद मधय मुक्ता मनि पोहति।

लोल लहर लहि पवन एक पै इक इमि आवत।

जिमि नर गन मन विविधा मनोरथ करत मिटावत।

10. तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाये।

झुके कूल सों जल परसन हित मनहुँ सुहाये।

किधौं मुकुर मैं लखत उझकि सब निज निज सोभा।

कै प्रनवत जल जानि परम पावन फल लोभा।

मनु आतप वारन तीर को सिमिट सबै छाये रहत।

कै हरि सेवा हित नै रहे निरखि नयन मन सुख लहत।

उनकी इस प्रकार की रचनाएँ भी मिलती हैं, जिनमें खड़ी बोली का पुट पाया जाता है। जैसे यह पद्य-

डंका कूच का बज रहा मुसापिर जागो रे भाई।

देखो लाद चले पंथी सब तुम क्यों रहे भुलाई।

जब चलना ही निश्चय है तो लै किन माल लदाई।

हरीचंद हरिपद बिनु नहि तौ रहि जैहौ मुँह बाई।

किन्तु उनकी इस प्रकार की रचना बहुत थोड़ी हैं। क्योंकि उनका विश्वास था कि खड़ी बोलचाल में सरस रचना नहीं हो सकती। उन्होंने अपने हिन्दी भाषा नामक ग्रन्थ में लिखा है कि खड़ी बोली में दीर्घान्त पद अधिक आते हैं, इसलिए उसमें कुछ-न-कुछ रूखापन आ ही जाता है। इस विचार के होने के कारण उन्होंने खड़ी बोलचाल की कविता करने की चेष्टा नहीं की। किन्तु आगे चलकर समय ने कुछ और ही दृश्य दिखाया, जिसका वर्णन आगे किया जावेगा। बाबू हरिश्चन्द्र जो रत्न हिन्दी भाषा के भण्डार को प्रदान कर गये हैं वे बहुमूल्य हैं, यह बात मुक्तकंठ से कही जा सकती है-

पंडित बदरीनारायण चौधरी बाबू हरिश्चन्द्र के मित्रों में से थे। दोनों के रूप- रंग में समानता थी और हृदय में भी। दोनों ही रसिक थे और दोनों ही हिन्दी भाषा के प्रेमी। दोनों ही ने आजन्म हिन्दी भाषा की सेवा की और दोनों ही ने उसको यथाशक्ति अलंकृत बनाया। दोनों ही अमीर थे और दोनों ही ऐसे हँसते मुख, जो रोते को भी हँसा दें। आज दोनों ही संसार में नहीं हैं, परन्तु अपनी कीर्ति द्वारा दोनों ही जीवित हैं। चौधरी जी की रचनाएँ अधिक नहीं हैं। किन्तु जो हैं वे हिन्दी भाषा का शृंगार हैं। पंडित जी सरयू पारीण ब्राह्मण और प्रचुर सम्पत्तिा के अधिकारी थे। परसी और संस्कृत का उन्हें अच्छा ज्ञान था,अंग्रेजी भी कुछ जानते थे। उन्होंने मिर्ज़ापुर में रसिक समाज आदि कई सभाएँ स्थापित की थीं और 'आनन्दकादम्बिनी' नामक मासिक पत्रिका तथा 'नागरी-नीरद' नामक साप्ताहिक पत्रा भी निकाला था। दोनों ही सुन्दर थे और जब तक रहे अपने रस से हिन्दी संसार को सरस बनाते रहे और क्यों न बनाते, जब प्रेमघन उनके संचालक थे। घन आनन्द के उपरान्त कविता में चौधरी जी ने ही ऐसा सरस उपनाम अपना रखा जिसके सुनते ही प्रेम का घन उमड़ पड़ता है। वे आनन्दी जीव थे और अपने रंग में सदा मस्त रहते थे, इसलिए कुछ लोग यह समझते थे कि वे जैसा चाहिए वैसे मिलनसार नहीं थे। किंतु ऐसा वे ही कहते हैं जो उनके अंतरंग नहीं। वास्तव में वे बड़े सहृदय और सरस थे और जिस समय जी खोलकर मिलते, रस की वर्षा कर देते। उनकी रचनाएँ सब प्रकार की हैं। किंतु ग्रंथाकार बहुत कम छपीं। भारत-सौभाग्य-नाटक उनका प्रसिध्द नाटक है। जहाँ तक मुझे स्मरण है, उन्होंने 'वेश्या-विनोद' नामक एक महानाटक लिखा था। परंतु वह छप न सका और कदाचित् पूरा भी नहीं हुआ। कुछ छोटी-छोटी कविताएँ उनकी छपी हैं, जो विशेष अवसरों पर लिखी जाकर वितरण की गयीं। उन्होंने हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के सभापति पद को भी सुशोभित किया था। सभापतित्व के पद से जो भाषण उन्होंने दिया था, वह बड़ा ही विद्वत्तापूर्ण था, वह छप भी चुका है। उनके बहुत से सुंदर लेख और कितनी ही सरस कविताएँ उनके सम्पादित पत्रों में मौजूद हैं। परन्तु दुख है कि न तो अब तक उनका संकलन हुआ और न वे ग्रंथ रूप में परिणत हुए। उनकी अधिकांश रचनाएँ ब्रजभाषा में हैं और आजीवन उन्होंने उसी की सेवा की। अंतिम समय में जब खड़ी बोली का प्रचार हो चुका था, उन्होंने कुछ खड़ी बोली की रचनाएँ भी की थीं। उनके कुछ पद्य देखिए-

1. बगियान बसंत बसेरो कियो

बसिये तेहि त्यागि तपाइये ना।

दिन काम कुतूहल के जे बने

तिन बीच बियोग बुलाइये ना।

घन प्रेम बढ़ाय कै प्रेम अहो

बिथा बारि वृथा बरसाइये ना।

इतै चैत की चाँदनी चाह भरी

चरचा चलिवे की चलाइये ना।

2. अब तो लखिये अलि ए अलियन

कलियन मुखचुंबन करन लगे।

पीवत मकरंद मनो माते ,

ज्यों अधार सुधा रस मैं राते।

कहि केलि कथा गुंजरन लगे।

रस मनहुँ प्रेम घन बरसत घन निज प्यारी के

करि आलिंगन लिपटे लुभाय मन हरन लागे।

उनके हृदय में भी समय के प्रभाव से देश प्रेम जाग्रत था। अतएव उन्होंने इस प्रकार की रचनाएँ भी की हैं। एक पद्य देखिए-

जय जय भारत भूमि भवानी।

जाकी सुजस पताका जग के दसहूँ दिसि फहरानी।

सब सुखसामग्री पूरित ऋतु सकल समान सुहानी।

जा श्री सोभा लखि अलका अरु अमरावती खिसानी।

प्रनमत तीस कोटि जन अजहूँ जाहि जोरि जुग पानी।

जिन मैं झलक एकता की लखि जग मति सहमि सकानी।

ईस कृपा लहि बहुरि प्रेमघन बनहु सोई छवि खानी।

सोई प्रताप गुन जन गरबित ह्नै भरी पुरी धान धानी।

उनकी एक खड़ी बोली की रचना भी देखिए जो अंतिम दिनों में की गयीहै।

मन की मौज

1. मन की मौज मौज सागर सी सो कैसे ठहराऊँ।

जिसका वारापार नहीं उस दरिया को दिखलाऊँ।

तुमसे नाजुक दिल की भारी भँवरों में भरमाऊँ।

कहो प्रेमघन मन की बातें कैसे किसे सुनाऊँ।

2. तिरछी त्योरी देखि तुम्हारी क्योंकर सीस नवाऊँ।

हौ तुम बड़े ख़बीस जान कर अनजाना बन जाऊँ।

हर्पे शिकायत ज़बाँ प आये कहीं न यह डर लाऊँ।

कहो प्रेमघन मन की बातें कैसे किसे सुनाऊँ।

3. लूट रहे हो भली तरह मैं जानूँ वले छुपाऊँ।

करते हो अपने मन की मैं लाख चहे चिल्लाऊँ।

डाह रहे हो खूब परा परबस मैं गो घबराऊँ।

कहो प्रेमघन मन की बातें कैसे किसे सुनाऊँ।

प्रेमघन जी ने गद्य में बहुत बड़ा कार्य किया है, उनके गद्यों में विलक्षणताएँ और माधुर्य भी अधिक हैं। इसका वर्णन आगे गद्य विभाग में होगा। इसलिए उसकी यहाँ कुछ चर्चा नहीं की जाती।

पं. प्रतापनारायण मिश्र भारतेन्दु काल के एक जगमगाते हुए नक्षत्र थे। प्रकृति बड़ी स्वतंत्र थी, लगी-लिपटी बातें पसंद नहीं थीं। इसलिए खरी बातें कहना ही उनका व्रत था। वे बाबू हरिश्चन्द्र के बड़े प्रेमी थे और अपने 'ब्राह्मण' मासिक पत्र पर'हरिश्चन्द्राय नम:' लिखा करते थे। इनसे उनका हिन्दी भाषा-प्रेम प्रकट है। वे अधिक अर्थकृच्छ् होने पर भी अपने 'ब्राह्मण' को बराबर निकालते रहे और उस समय तक अपने इस धर्म को निबाहा जब तक उनकी गाँठ में दाम रहा। देश-ममता, जाति-ममता और भाषा प्रेम उनकी रग-रग में भरा था। आजीवन उन्होंने इसको निबाहा। इन तीनों विषयों पर उन्होंने बड़ी सरस रचनाएँ की हैं। जितनी पंक्तियाँ उन्होंने अपने जीवन में लिखीं, वे चाहे गद्य की हों या पद्य की, उन सबों में इन तीनों विषयों की धारा ही प्रबल वेग से बहती दृष्टिगत होती है। वे मूर्तिमन्त देशभक्त थे। इसीलिए उनकी सब रचनाएँ इसी भाव से भरी हैं। उन्होंने एक दर्जन पुस्तकें बँगला से अनुवादित कीं और पन्द्रह बीस पुस्तकें स्वयं लिखीं, जिनमें से 'प्रताप-संग्रह', 'मानस-विनोद', 'मन की लहर', 'ब्रैडला-स्वागत', 'लोकोक्तिशतक', 'तृप्यंताम्' आदि अनेक ग्रन्थ पद्य में लिखे गये हैं। इन सबमें उनकी मानसिक प्रवृत्तिा स्पष्टतया दृष्टिगत होती है। उन्होंने प्रार्थना और विनय के पद भी कहे हैं और ईश्वर एवं धर्म-सम्बन्धी रचनाएँ भी की हैं, परन्तु उनमें वह ओज और आवेश नहीं पाया जाता, जो देश अथवा जाति-सम्बन्धी रचनाओं में मिलता है। उनके पद्यों की एक ही भाषा नहीं है। कभी उन्होंने अपनी बैसवाड़ी बोलचाल में रचना की है, कभी उर्दू-मिश्रित खड़ी बोली में,और कभी ब्रजभाषा में। अधिकांश रचनाएँ ब्रजभाषा ही में हैं। जितने पद्य उन्होंने देश और जाति-सम्बन्धी लिखे हैं, उनमें उनके हृदय का जीवन्त भाव बहुत ही जाग्रत् मिलता है, जो हृदयों में तीव्रता के साथ जीवनी-धाराएँ प्रवाहित करता है। जब ब्रैडला साहब भारत में पधारे उस समय उन्होंने उनके स्वागत में जो कविता लिखी; उसमें देश की दशा का ऐसा सच्चा चित्राण किया कि उसकी बड़ी प्रशंसा हुई, यहाँ तक कि विलायत तक में उसकी चर्चा हुई। उनकी अधिकांश रचनाएँ इसी प्रकार की हैं। उनमें से कुछ मैं आप लोगों के सामने रखूँगा। पहले देखिए वे 'हिन्दी, हिन्दू और हिन्दुस्तान' के विषय में क्या कहते हैं-

चहहु जो साँचो निज कल्यान।

तो सब मिलि भारत संतान।

जपो निरंतर एक ज़बान।

हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्थान।

तबहि सुधारिहै जन्म निदान।

तबहि भलो करि है भगवान

जब रहिहै निसि दिन यह धयान।

हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान।

अपनी 'तृप्यंताम्' नामक कविता में से वे किस प्रकार अपने जातीय दुख को प्रकट करते हैं, उसे भी सुनिए-

केहि विधि वैदिक कर्म होत

कब कहा बखानत ऋक यजु साम।

हम सपने हूँ में नहिं जानैं

रहैं पेट के बने गुलाम।

तुमहिं लजावत जगत जनम ले

दुहुँ लोकन में निपट निकाम।

कहैं कौन मुख लाइ हाय

फिर ब्रह्मा बाबा तृप्यंताम्।

अपने बैसवाड़ी बोलचाल में देखिए, गोरक्षा के विषय में क्या कहते हैं-

गैया माता तुम काँ सुमिरौं

कीरति सब ते बड़ी तुम्हारि।

करौ पालना तुम लरिकन कै

पुरिखन बैतरनी देउ तारि।

तुम्हरे दूधा दही की महिमा

जानैं देव पितर सब कोय।

को अस तुम बिन दूसर जेहि

का गोबर लगे पवित्तार होय।

बुढ़ापा का वर्णन अपनी ही भाषा में देखिए किस प्रकार करते हैं-

हाय बुढ़ापा तोरे मारे अब तो

हम नकन्याय गयन।

करत धारत कछु बनतै नाहीं

कहाँ जान औ कैस करन।

छिन भरि चटक छिनै माँ मध्दिम

जस बुझात खन होइ दिया।

तैसे निखवख देखि परत हैं

हमरी अक्किल के लच्छन।

असु कुछु उतरि जाति है जीते

बाजी बिरियाँ बाजी बात।

कैसेउ सुधि ही नाहीं आवत

मूँड़घइ काहें न दै मारन।

कहा चाहौं कुछु निकरत कुछु है

जीभ राँड़ का है यहु हालु।

कोऊ येहका बात न समझै

चाहे बीसन दाँय कहन।

दाढ़ी नाक याकमाँ मिलिगै

बिन दाँतन मुँहु अस पोपलान।

दढ़िही पर बहि बहि आवति है

कबौं तमाखू जो फाँकन।

बारौ पकिगै रीरौ झुकिगै

मुँड़ौ सासुर हालन लाग।

हाथ पाँव कछु रहे न आपन

केहि के आगे दुख बखान।

उनकी एक ग़ज़ल देखिए-

वो बदख़ू राह क्या जाने वप की।

अगर ग़पलत से बाज़ आया जप की।

मियाँ आये हैं बेगारी पकड़ने ,

कहे देती है शोख़ी नवशे पा की।

पुलिस ने और बदकारों को शहदी ,

मरज़ बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की।

उसे मोमिन न समझो ऐ बिरहमन ,

सताये जो कोई ख़िलवत ख़ुदा की।

बिधाता ने याँ मक्खियाँ मारने को ,

बनाये हैं खुशरू जवाँ कैसे कैसे।

अभी देखिए क्या दशा देश की हो ,

बदलता है रंग आसमाँ कैसे कैसे।

एक भजन भी देखिए-

माया मोह जनम के ठगिया

तिनके रूप भुलाना।

छल परपंच करत जग धूनत

दुख को सुख करि माना।

फिकिर वहाँ की तनक नहीं है

अंत समै जहँ जाना।

मुख ते धारम धारम गुहरावत

करम करत मनमाना।

जो साहब घट घट की जानत

तेहि ते करत बहाना।

येहि मनुआ के पीछे चलि के

सुख का कहाँ ठिकाना।

जो परताप सुखद को चीन्हे

सोई परम सयाना।

दो सवैयाओं को भी देखिए-

बनि बैठी है मान की मूरति सी , मुख खोलत बोलै न ' नाहीं ' न ' हाँ ' ।

तुमहीं मनुहारि कै हारि परे सखियान की कौन चलाई तहाँ।

बरषा है प्रताप जू धीर धारौ अब लौं मन को समझायो जहाँ।

यह व्यारि तबै बदलैगी कछू पपिहा जब पूछि है ' पीव कहाँ ' ।

आगे रहे गनिका गज गीधा सुतौ अब कोऊ दिखात नहीं हैं।

पाप परायन ताप भरे परताप समान न आन कहीं हैं।

हे सुखदायक प्रेमनिधो जग यों तो भले औ बुरे सबहीं हैं।

दीनदयाल औ दीन प्रभो तुमसे तुमहीं हमसे हमहीं हैं।

पंडित अम्बिकादत्ता व्यास संस्कृत के प्रसिध्द विद्वान् थे। बाबू हरिश्चन्द्र आपको बहुत आदर की दृष्टि से देखते थे। बिहार प्रान्त में आपका बड़ा सम्मान था। वहाँ आप संस्कृत के प्रोफेसर थे। वे संस्कृत के विद्वान् ही नहीं थे, बहुत बड़े वक्ता भी थे। व्याख्यान के समय जनता को अपनी मूठियों में कर लेना उनके बाएँ हाथ का खेल था। बिहार में आर्यसमाज के संग जब-जब उनका शास्त्रार्थ हुआ, तब-तब उन्होंने विजय-पत्रा प्राप्त किये। धारा-प्रवाह संस्कृत बोलते थे और कठिन से कठिन शास्त्रीय विषयों को इस प्रकार सुलझाते थे कि प्रतिपक्षियों के दाँत खट्टे हो जाते थे। वे शास्त्रा-पारंगत विद्वान् तो थे ही, उनकी धारणा शक्ति भी बड़ी प्रबल थी। एक काल में वे कई कार्य साथ-साथ कर सकते थे। इस विषय में उनकी कई बार परीक्षा ली गयी और वे सदा उसमें सफलता के साथ उत्ताीर्ण हुए। उन्होंने संस्कृत ग्रंथों की भी रचना की है। बाबू हरिश्चन्द्र की 'ललिता' नाटिका का अनुवाद संस्कृत में किया था। वे घटिका शतक थे। एक घंटे में संस्कृत के 100 अनुष्टुप वृत्ताों की रचना कर देते थे। संस्कृत के इतने बड़े विद्वान होने पर भी हिन्दी भाषा के बड़े अनुरागी थे। उन्होंने हिन्दी भाषा में 'पीयूष-प्रवाह' नाम का एक मासिक पत्रा भी निकाला था। उनकी गद्य और पद्य दोनों की रचनाएँ सुंदर और सरस होती थीं। वे आशु कवि थे। इसलिए हिन्दी समस्याओं की पूर्ति बात की बात में कर देते थे। उनके पिता पंडित दुर्गादत्ता भी हिन्दी भाषा के बड़े अच्छे कवि थे। उन्हीं के प्रभाव से ये सब विलक्षणताएँ उनमें एकत्राीभूत थीं। एक बार उन्हें समस्या दी गयी-

मूँदि गयी ऑंखैं तब लाखैं कौन काम की।

उन्होंने तत्काल उसकी पूर्ति की-

चमकि चमाचम रहे हैं मनिगन चारु

सोहत चहूँगा धूम धाम धान धाम की।

फूल फुलवारी फलफैलि कै फबे हैं तऊ

छबि छटकीली यह नाहिंन अराम की।

काया हाड़ चाम की लै राम की बिसारी सुधि

जामकी को जानै बात करत हराम की।

अम्बादत्ता भाखैं अभिलाखैं क्यों करत झूठ

मूँदि गयीं ऑंखैं तब लाखैं कौन काम की।

वे साहित्याचार्य तो थे ही, 'भारत-रत्न', 'बिहार-भूषण', 'शतावधान' और 'भारत-भूषण' आदि पदवियाँ भी उन्हें राजे-महाराजाओं तथा सनातन धर्म मण्डल दिल्ली से प्राप्त हुई थीं। उनको कितने ही स्वर्ण पदक भी मिले थे। जब तक जीवित रहे,पटना कॉलेज की प्रोफेसरी बड़ी ख्याति के साथ की । उनके जीवन का बहुत बड़ा काम यह है कि उन्होंने बिहार में 'संस्कृत-संजीवनी-समाज' नाम की एक संस्था स्थापित की थी। इस समाज के द्वारा संस्कृत की अनियमित शिक्षा प्रणाली का ऐसा सुधार हुआ कि अब भी उसकी सहायता से सैकड़ों विद्यार्थी संस्कृत शिक्षा पाकर प्रतिवर्ष नाना उपाधियाँ प्राप्त करते हैं। संस्कृत के अतिरिक्त वे बँगला, मराठी, गुजराती और कुछ ऍंग्रेजी भी जानते थे। उनकी संस्कृत और हिन्दी की छोटी-बड़ी पुस्तकों की संख्या लगभग 78 है, जिसमें 'बिहारी-बिहार' जैसे बड़े ग्रंथ भी हैं। बिहारीलाल के 700 दोहों पर उन्होंने जो कुंडलियाँ बनाई थीं,मुद्रित रूप में उन्हीं का नाम 'बिहारी-बिहार' है। इस ग्रंथ की भूमिका भी बड़ी विशद और सुन्दर है। उसी से इनके कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं। इनका हिन्दी उपनाम सुकवि था-

1. मेरी भव वाधा हरो राधा नागरि सोय।

जा तन की झाईं परे स्याम हरित दुति होय।

स्याम हरितदुति होय परत तन पीरी झाईं।

राधाहूँ पुनि हरी होति लहि स्यामल छाईं।

नैन हरे लखि होत रूप औ रंग अगाधा।

सुकवि जुगुल छवि धाम हरहु मेरी भव बाधा।

2. सोहत ओढ़े पीति पट स्याम सलोने गात।

मनो नीलमनि सैल पर आतप परयो प्रभात।

आतप परयो प्रभात ताहि सों खिल्यो कमल मुख।

अलक भौंर लहराय जूथ मिलि करत विविधा सुख।

चकवा से दोउ नैन देखि एहि पुलकत मोहत।

सुकवि विलोकहु स्याम पीतपट ओढ़े सोहत।

देखिए 'भौंह' सम्बन्धी उनकी यह रचना कितनी सुन्दर है-

3. नैन कमल लखि उमँग भरे से।

भृकुटिब्याज जनु पाँति करे से।

फरफरात पुनि ठटकारे से।

घूमत मलिंद मतवारे से।

उनके दो दोहे भी देखिए-

4. गुंजा री तू धान्य है बसत तेरे मुख स्याम।

याते उर लाये रहत हरि तोको बसुयाम।

5. मोर सदा पिउ पिउ करत नाचत लखि घनश्याम।

या सों ताकी पाँख हूँ सिर धारी घनश्याम।

व्यास जी जयपुरनिवासी थे। इसलिए बड़ी सरस ब्रजभाषा में रचना करते थे। जिसे इसके प्रमाण की आवश्यकता हो, वह इनकी रची 'सतसई' को देखे। वे जब तक जीवित रहे, हिन्दी संसार में भारतेन्दु के समान ही उनकी कीर्ति भी थी। उन्होंने हिन्दी-संसार को गद्य और पद्य के जितने ग्रन्थ दिये हैं वे बड़े अमूल्य हैं और उनके लिये हिन्दी संसार उनका सदा ऋणी रहेगा।

बाबा सुमेरसिंह सिक्ख गुरु और पटने के महन्त थे। जिला आजमगढ़ के निजामाबाद कस्बे में उनका निवास था। वे सिक्खों के तीसरे गुरु अमरदास के वंशज थे। इसलिए साहबजादे कहे जाते थे। जाति के भले खत्री थे। परमात्मा ने उनको बड़ा सुन्दर रूप दिया था। जैसा सुन्दर स्वरूप था, वैसा ही सुन्दर उनका हृदय भी था। हिन्दी भाषा के बड़े प्रेमी थे, इस भाषा का ज्ञान भी उन्हें अच्छा था। वे संस्कृत भी जानते थे। बाबू हरिश्चन्द्र से उनकी बड़ी मैत्राी थी। बनारस के महल्ले रेशम-कटरे की बड़ी संगत में आकर वे प्राय: रहते थे और यहीं दोनों का बड़ा सरस समागम होता था। बाबा सुमेरसिंह ब्रजभाषा की बड़ी सरस कविता करते थे। उन्होंने इस भाषा में एक विशाल प्रबंधा काव्य लिखा था, जो लगभग नष्ट हो चुका है। केवल उसका दशम मंडल अब तक यत्रा-तत्रा पाया जाता है। इस ग्रन्थ का नाम 'प्रेम-प्रकाश' था। इसमें उन्होंने सिक्खों के दश गुरुओं की कथा दश मंडलों में बृहत् रूप से बड़ी ललित भाषा में लिखी थी। दशम मंडल में गुरु गोविंद सिंह का चरित्रा था। गुरुमुखी में वह मुद्रित हुआ और वही अब भी प्राप्त होता है। शेष नौ मण्डल कराल काल के उदर में समा गये। बहुत उद्योग करने पर भी न तो वे प्राप्त हो सके, न उनका पता चला। उन्होंने 'कर्णभरण' नामक एक अलंकार ग्रन्थ भी लिखा था। अब वह भी अप्राप्य है। गुरु गोविंदसिंह ने परसी में जो 'जपरनामा' लिखा था, उसका अनुवाद भी उन्होंने 'विजय-पत्रा' के नाम से किया था। वह भी लापता है। उन्होंने संत निहालसिंह के साथ दशम ग्रन्थ साहब के जापजी की बड़ी बृहत् टीका लिखी थी, जो बहुत ही अपूर्व थी। वह मुद्रित भी हुई है, किन्तु अब उसका दर्शन भी नहीं होता। उन्होंने छोटे-छोटे और भी कई ग्रन्थ धार्मिक और रस-सम्बन्धी लिखे थे। परन्तु उनमें से एक भी अब नहीं मिलता। उन्होंने जितने ग्रन्थों की रचना की थी, सब में हिन्दू भाव ओत-प्रोत था और यही उनकी रचनाओं का महत्तव था। आजकल कुछ सिक्ख सम्प्रदाय वाले अपने को हिन्दू नहीं मानते, वे उनके विरोधी थे। इसलिए भी उनके ग्रन्थ दुष्प्राप्य हो गये। फिर भी उनकी स्फुट रचनाएँ 'सुन्दरी-तिलक' इत्यादि ग्रन्थों में मिल जाती हैं। जब वे पटने में महन्त थे तो वहाँ से उन्होंने एक कविता-सम्बन्धी मासिक पत्रिका भी हिन्दी में निकाली थी। वह एक साल चलकर बन्द हो गई। उसमें भी उनकी अनेक कविताएँ अब तक विद्यमान हैं। उनकी दो कविताएँ मुझे याद हैं। उनको मैं यहाँ लिखता हूँ। उन्हीं से आप लोग उनकी कविता की भाषा और उनके विचार का अनुमान कर सकते हैं-

1. सदना कसाई कौन सुकृत कमाई नाथ

मालन के मन के सुफेरे गनिका ने कौन।

कौन तप साधाना सों सेवरी ने तुष्ट कियो

सौचाचार कुबरी ने कियो कौन सुख भौन।

त्यों हरि सुमेर जाप जप्यो कौन अजामेल

गज को उबारयो बार-बार कवि भाख्यो तौन।

एते तुम तारे सुनो साहब हमारे राम।

मेरी बार विरद बिचारे कौन गहि मौन।

2. बातें बनावती क्यों इतनी हमहूँ

सों छप्यो नहीं आज रहा है।

मोहन के बनमाल को दाग दिखाइ

रह्यो उर तेरे अहा है।

तू डरपै करै सौहैं सुमेर हरी

सुन साँच को ऑंच कहाँ है।

अंक लगी तो कल( लग्यो जो

न अ( लगी तो कल( कहा है।

बाबा सुमेर सिंह ने आजीवन कविता देवी ही की आराधाना की। उन्होंने न तो गद्य लिखने की चेष्टा की और न गद्य ग्रन्थ रचे। उनका जीवन काव्यमय था और वे कविता पाठ करने और कराने में आनन्द लाभ करते थे। अपनी कविता के विषय में उनकी बड़ी-बड़ी आशाएँ थीं। वे उसका बहुत प्रचार चाहते थे अैर कहा करते थे कि हिन्दू सिक्खों की भेद-नीति का संहार इसी के द्वारा होगा। परन्तु दुख से कहना पड़ता है कि अपने उद्योग में सफलता लाभ करने के पहले ही उनका स्वर्गवास हुआ और उनके स्वर्गवास होने पर उनकी कविता का अधिकांश लोप हो गया। जो कुछ शेष है वह यद्यपि उनको वास्तविक कीर्ति के विस्तार के लिए पर्याप्त नहीं है, फिर भी अब उसी पर संतोष करना पड़ता है। काल की लीला ही ऐसी है।

भारतेन्दु का काल गद्य के उत्थान का काल था। सामयिक आवश्यकताओं के कारण इस समय गद्य का बहुत अधिक प्रचार हुआ। इन दिनों अनेक पत्रा पत्रिकाएँ निकलीं और गद्य की पुस्तकें भी अधिक छपीं। स्कूलों एवं ग्रामीण पाठशालाओं के लिए कोर्स की बहुत अधिक पुस्तकें भी गद्य में ही लिखी गयीं। सनातन धर्म और आर्य समाज के विवाद के कारण अधिकतर वाद सम्बन्धी ग्रन्थ भी गद्य में ही लिखे गये। इसी प्रकार बहुत-सी सामाजिक और राजनीतिक पुस्तकों को भी गद्य का अवलम्बन ग्रहण करना पड़ा, क्योंकि पद्य द्वारा ये सब कार्य न तो व्यापक रूप से किये जा सकते थे और न वह सुविधा ही प्राप्त हो सकती थी जो गद्य द्वारा प्राप्त हो सकी। पश्चिमोत्तार प्रांत में ही नहीं, बिहार मधयभारत और पंजाब तक में हिन्दी भाषा का विस्तार इन दिनों हुआ और इसका आधार गद्य ही था। जितनी हिन्दी पत्रा-पत्रिकाएँ इन प्रांतों में निकलीं या जो ग्रन्थ आवश्यकतानुसार लिखे गये, उनमें से अधिकांश का आधार भी गद्य ही था। इसलिए इस समय के जितने विद्वान् धार्मिक अथवा राजनीतिक पुरुष किंवा शिक्षा प्रचारक साहित्य क्षेत्र में उतरे, उनको गद्य से ही अधिकतर काम लेना पड़ा फिर क्यों न इस समय अधिकतर गद्य ग्रन्थकार ही उत्पन्न होते। बाबू हरिश्चन्द्र के समय में जितने हिन्दी के प्रसिध्द लेखक हुए वे अधिकतर गद्य ग्रन्थकार हैं। उनका वर्णन मैं आगे चलकर करूँगा। गद्य के साथ-साथ उस समय जिन प्रतिष्ठा प्राप्त लेखकों ने पद्य-रचनाएँ भी कीं, उनका वर्णन मैं ऊपर कर चुका। महामहोपाधयाय पं. सुधाकर द्विवेदी ऐसे कुछ मान्य पुरुषों ने भी उस समय गद्य के साथ कुछ पद्य-रचना भी की थी। परन्तु उनकी पद्य-रचनाएँ बहुत थोड़ी हैं। इसलिए पद्य विभाग में मैंने उन्हें स्थान नहीं दिया। यद्यपि किसी-किसी के कुछ पद्य बड़े सुन्दर हैं। द्विवेदीजी की भी कोई-कोई खास रचना बड़ी ही हृदय-ग्राहिणी है, एक पद्य देखिए-

1. पिया हो कसकत कुस पग बीच।

लखन लाज सिय पिय सन बोलीं हरुए आइ नगीच।

सुनि तुरंत पठयो लखनहिं प्रभु जलहित दूरि सुजान।

लेइ अंक सिय जोवत कुस कन धोवत पग ऍंसुआन।

बार बार झारत कर सों रज निरखत छत बिललात।

हाय प्रिये मान्यो न कह्यो लखु नहिं बन बिच कुसलात।

सहस सहचरी त्यागि सदन मधि सासु ससुर सुखकारि।

हठ करि लगि मो संग सहत तुम हाहा यह दुख भारि।

कहत जात यों प्रभु बहु बतियाँ तिया पिया की छाँह।

देइ गल बहियाँ चलीं बिहँसि कहि यह सुख नाथ अथाह।

तो भी यह उचित नहीं ज्ञात हुआ कि उनको पद्य-विभाग में स्थान दिया जाय। क्योंकि उल्लेख योग्य पद्य-ग्रन्थों के रचयिताओं को ही उसमें अब तक स्थान मिलता आया है। बाबू हरिश्चन्द्र के स्वर्गारोहण के उपरान्त हिन्दी संसार में एक बहुत बड़ा आन्दोलन उठ खड़ा हुआ। वह विवाद यह था कि हिन्दी पद्य-रचना भी ब्रजभाषा के स्थान पर खड़ी बोली में होनी चाहिए। उनके सामने इसका सूत्रापात्रा मात्रा हुआ था। कुछ लोगों के जी में यह बात उत्पन्न हो रही थी और आपस में इसकी चर्चा भी होने लगी थी। परन्तु विचार ने आन्दोलन का रूप नहीं ग्रहण किया था। अब वह वास्तविक आन्दोलन बन गया था और ब्रजभाषा एवं खड़ी बोली के पक्षपातियों में द्वन्द्व होने लगा था। इसका कारण सामयिक परिस्थिति थी। उर्दू का इस समय बोलबाला था और सरकारी कचहरियों में उसको स्थान प्राप्त हो गया था। वह दिन-दिन वृध्दि लाभ कर रही थी और हिन्दी-क्षेत्रों पर भी अधिकार करती जाती थी। पंजाब से बिहार की सीमापर्यन्त उसका डंका बज रहा था और अन्य प्रान्तों में भी प्रवेश-लाभ की चेष्टा वह कर रही थी। उसके पुष्ट पोषक मुस्लिम समाज और उसके नेता ही नहीं थे, हिन्दुओं का एक बहुत बड़ा दल भी उसका पक्षपाती था। उसके जहाँ और गुण वर्णन किये जाते थे वहाँ यह भी कहा जाता था कि उर्दू के गद्य और पद्य की भाषा एक है,हिन्दी को तो यह गौरव भी नहीं प्राप्त है। वास्तव बात यह है कि इन सुविधाओं के कारण वह उत्तारोत्तार उन्नत हो रही थी और उसका साहित्य-भंडार दिन-दिन उपयोगी ग्रन्थों से भर रहा था। उस समय जितने ग्रन्थ हिन्दी के निकले उनकी गद्य की भाषा तो खड़ी बोली की और पद्य की ब्रजभाषा होती थी। यह पद्य की भाषा युक्त प्रान्त के सब विभागों में तो किसी प्रकार समझ भी ली जाती थी, परन्तु बिहार या पंजाब या मधय हिंद में उसका समझना दुस्तर था, क्योंकि वह एक प्रान्तीय भाषा थी। यद्यपि यह कहा जा सकता है कि उसका विस्तार एक प्रान्त ही तक परिमित नहीं था, वह अन्य प्रान्तों तक विस्तृत हो चुकी थी, जिसकी चर्चा मैं पहले कर भी चुका हूँ। फिर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उस समय जैसी सुगमता से खड़ी बोलचाल या गद्य की भाषा को लोग पश्चिमोत्तार प्रान्त या अन्य प्रान्तों में समझ लेते थे, ब्रजभाषा को नहीं समझ सकते थे। इस कारण हिन्दी भाषा उतनी निर्बाधा रूप से उन्नति नहीं कर सकती थी जितना उर्दू। यह एक ऐसी बात थी जिससे उक्त आन्दोलन को उस समय बहुत बड़ा बल मिला। उन दिनों यह भी देखा जाता था कि अंग्रेजी स्कूलों और ग्रामीण् पाठशालाओं के अधिकतर हिन्दू लड़के कोर्स में उर्दू लेना ही पसन्द करते थे। जहाँ और कारण थे वहाँ एक यह कारण भी उपस्थित किया जाता था कि हिन्दी पुस्तकों की गद्य की भाषा और होती है और पद्य की और, जिससे हिन्दू बालकों को एक प्रकार से कठिनता का सामना करना पड़ता है और विवश होकर उन्हें (सुविधा की दृष्टि से) हिन्दी के स्थान पर उर्दू लेना पड़ता है। उन दिनों इस विचार से भी उक्त आन्दोलन को बहुत कुछ सहायता मिली थी। मुझको स्मरण है कि इस आन्दोलन को लेकर उस समय के दैनिक'हिन्दुस्थान' तथा अन्य पत्रों में उभय पक्ष के लोगों में बड़ा द्वंद्व हुआ था। बिहार प्रान्त के बाबू अयोधयाप्रसाद खत्री के हाथ में इस आन्दोलन का झण्डा था, वे बिहार और पश्चिमोत्तार प्रान्तों के अनेक स्थानों में घूम-घूमकर उन दिनों यह प्रयत्न कर रहे थे कि पद्य में भी खड़ी बोली को स्थान मिले और ब्रजभाषा का बहिष्कार किया जाय। यह आन्दोलन सामयिक परिस्थिति के कारण सफल हुआ और हिन्दी साहित्यिकों का एक दल इसके लिए कटिबध्द हो गया कि ब्रजभाषा के स्थान पर वह खड़ी बोलचाल में कविता करे। इस दल के नेता पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी कहे जा सकते हैं। 'सरस्वती' के सम्पादन काल में उन्होंने खड़ी बोली का बड़ा आदर किया और बहुतों को उत्साहित कर खड़ी बोली की रचनाएँ उनसे कराईं। स्वयं भी उन्होंने खड़ी बोली की कविताएँ लिखीं परन्तु स्व. पं. श्रीधार पाठक ही ऐसे पहले पुरुष हैं जिन्होने खड़ी बोलचाल में एक कविता पुस्तक आदि में लिखी। यह कविता पुस्तक 'हरमिट' (Hermit) का अनुवाद है, जिसका हिन्दी नाम एकान्तवासी योगी है। उन्होंने पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी के पहले ही इस आन्दोलन में अग्र भाग लिया था और पंडित प्रतापनारायण मिश्र से खड़ी बोली के पक्ष में खड़े होकर पूरा वाद-विवाद किया था। मैं ऊपर लिख आया हूँ कि बाबू हरिश्चन्द्र ने भी खड़ी बोली की कविता की है। ऐसे ही पं. बदरीनारायण चौधरी, पं. प्रतापनारायण मिश्र की भी कुछ रचनाएँ खड़ी बोली की हैं। परन्तु ग्रन्थ रूप में खड़ी बोली में सर्वप्रथम रचना करने का श्रेय पं. श्रीधार पाठक को ही प्राप्तहै।

खड़ी बोली और ब्रजभाषा में क्या अन्तर है, यहाँ यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है। यहाँ यह भी धयान रखना चाहिए कि ब्रजभाषा के विरोधा के अन्तर्गत अवधी भाषा भी है। विवाद के समय खड़ी बोली के सामने ब्रजभाषा ही इसलिए रखी गई कि जिस समय आन्दोलन आरम्भ हुआ, उस समय ब्रजभाषा ही सर्वोत्ताम समझी जाती थी और उसी का व्यापक विस्तार था,अवधी लगभग साहित्य संसार से उठ चुकी थी। कभी-कभी कोई उसको निस्संदेह स्मरण कर लेता था। वास्तव बात तो यह है कि दोनों का बहुत बड़ा सम्बन्धा प्राकृत भाषा से है। दोनों अनेक अंशों में प्राकृत भाषा के ढंग में ढली हुई हैं। दोनों में प्राकृत भाषा के कई शब्द बिना परिवर्तित हुए पाये जाते हैं। दोनों का बहुत बड़ा सम्बन्धा बोलचाल की भाषा से है। परन्तु खड़ी बोलचाल जिस रूप में गृहीत है, उस रूप में न तो वह जनता की बोलचाल की भाषा से अपेक्षित मात्रा में सम्बन्धा रखती है,न प्राकृत भाषा से और यह बहुत बड़ा अन्तर ब्रजभाषा और खड़ी बोली में है। इस बात को और स्पष्ट करने के लिए मैं दोनों की विशेषताओं पर विशेष प्रकाश डालना चाहता हूँ।

ब्रजभाषा और अवधी की विशेषताएँ मैं पहले बता चुका हूँ। उनसे आप लोग अभिज्ञ हैं। अब मैं खड़ी बोली की विशेषताओं को बतलाऊँगा जिससे उनके परस्पर अन्तर का ज्ञान यथातथ्य हो सके। हिन्दी भाषा के अब तक जितने व्याकरण बने हैं,उनका सम्बन्धा खड़ी बोली से ही है। न तो कभी ब्रजभाषा और अवधी का व्याकरण बना और न इधार किसी की दृष्टि गई। आजकल कुछ लोगों का धयान इधार आकर्षित है। नहीं कहा जा सकता कि यह कार्य होगा या नहीं। खड़ी बोली भाग्यवान है कि गद्य में स्थान मिलते ही उसके एक क्या कई व्याकरण बन गये। मुझको व्याकरण-सम्बन्धी सब बातें यहाँ नहीं लिखनी हैं और न ब्रजभाषा अवधी और खड़ी बोली के कारक चिद्दों, सर्वनामों और धातु-सम्बन्धी नाना रूपों के पारस्परिक अन्तरों को विशद रूप में दिखलाना इष्ट है। मैं यहाँ केवल यही दिखलाना चाहता हूँ कि अवधी और ब्रजभाषा से खड़ी बोलचाल में कवितागत शब्दविन्यास और प्रयोगों का क्या अन्तर है। अवधी एवं ब्रजभाषा का अधिकतर सम्बन्धा तद्भव और अर्ध्द तत्सम शब्दों से है। इसके विरुध्द खड़ी बोली का सम्बन्धा अधिकतर तत्सम शब्दों से है। खड़ी बोलचाल का यह नियम है कि उसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों को शुध्द रूप में ही लिखने की चेष्टा की जाती है। खड़ी बोली वालों को तद्भव शब्द लिखने में कोई आपत्तिा नहीं। परन्तु वे जहाँ तक हो सकेगा हिन्दी के शब्दों को तत्सम रूप में ही लिखेंगे। ब्रजभाषा और अवधी में शकार, णकार, क्षकार आते ही नहीं। परन्तु खड़ी बोलचाल में ये तीनों अपने शुध्द रूप में आते हैं। उसमें लोग 'गुन', 'ससि'और 'पच्छ' कभी न लिखेंगे। जब लिखेंगे तब 'गुण', 'शशि' और 'पक्ष' ही लिखेंगे, जो संस्कृत के तत्सम शब्द हैं। ब्रजभाषा और अवधी वाले शब्द के आदि के यकार को प्राय: 'ज' लिखते हैं, परन्तु खड़ी बोलचाल वाले ऐसा नहीं करेंगे। वे 'जोग', 'जस', 'जाम', 'जम' न लिखकर 'योग', 'यश', 'याम' और 'यम' ही लिखेंग।े युक्त विकर्ष अवधी और ब्रजभाषा का प्रधान गुण है। परन्तु खड़ी बोलचाल वाले ऐसा करना उचित नहीं समझते। वे 'गरब', 'दरप', 'सरप', 'बरन', 'धारम', 'करम' न लिख कर 'गर्व', 'दर्प', 'सर्प', 'वर्ण', 'धर्म', 'कर्म' आदि ही लिखेंगे। व्यंजनों का पंचम वर्ण ब्रजभाषा और अवधी में प्राय: अनुस्वार बन जाता है। खड़ी बोलचाल वाले संस्कृत के शुध्द रूप की धुन में उनको मुख्य रूप में ही लिखना अच्छा समझते हैं। जैसे'कल(', 'अ)न', 'कण्ठ', 'अन्त', 'लम्पट' को 'कलंक', 'अंजन', 'कंठ', 'अंत', 'लंपट' न लिखेंगे। किन्तु कुछ लोग ऐसा करना पसंद नहीं करते। वे इस विषय में ब्रजभाषा की प्रणाली ही ग्रहण करते हैं। मेरा विचार है कि सुविधा की दृष्टि से ऐसा ही होना चाहिए, विशेष अवस्थाओं की बात दूसरी है। अवधी और ब्रजभाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों के वकार प्राय: बकार बन जाते हैं, किन्तु खड़ी बोली में वे अपने शुध्द रूप में ही रहते हैं। अधिकांश यह बात शब्द के आदिगत वकार के विषय में ही कही जा सकती है। मधयगत या शब्दांत के वकार के विषय में नहीं। खड़ी बोलचाल के कवियों की रुचि यह देखी जाती है कि वे 'मुँह' के स्थान पर 'मुख', 'सिर' के स्थान पर 'शिर', 'होठ' या 'ओठ' के बजाय 'ओष्ठ', 'बाँह' के स्थान पर 'बाहु' इत्यादि लिखना ही पसंद करेंगे, यद्यपि उनका हिन्दी रूप लिखा जाय तो भाषा सदोष न हो जायगी। कुछ इस विचार के लोग हैं कि'स्नेह', के स्थान पर 'सनेह', 'आलाप' के स्थान पर 'अलाप' 'केश' के स्थान पर 'केस', 'पलाश' के स्थान पर 'पलास', 'कमल'के स्थान पर 'कँवल' या 'कौल' लिखना ठीक नहीं समझते, यद्यपि इनका लिखा जाना अनुचित नहीं। क्योंकि बोलचाल में वे इसी रूप में गृहीत हैं। ये वे तद्भव शब्द हैं हिन्दी भाषा जिनके आधार से ही प्राकृत भाषा से अलग होकर अपने मुख्य रूप में परिणत हुई। ब्रजभाषा और अवधी में समस्त कारक-चिद्दों का आवश्यकतानुसार लोप कर दिया जाता है, विशेषकर कत्तर्,कर्म, करण और अधिकरण के चिद्दों का। किन्तु खड़ी बोलचाल की रचनाओं में इनमें से किसी एक का भी लोप नहीं किया जाता। गद्य के अनुसार समस्त कारक-चिद्दों का अपने स्थान पर विद्यमान रहना नियम के अंतर्गत माना जाता है। उन्हीं अवस्थाओं में ऐसा नहीं किया जाता जब वाक्य मुहावरे के अंतर्गत हो जाता है। जैसे 'कान पड़ी आवाज़', 'ऑंखों देखी बात', 'रात बसे' इत्यादि। ब्रजभाषा और अवधी में आवश्यकता होने पर लघु को दीर्घ और दीर्घ को लघु प्राय: कर देते हैं और ऐसा करना उनमें नियमानुकूल माना जाता है। किन्तु खड़ी बोली इस प्रणाली को सदोष समझती है, इसलिए उससे बचती है। हाँ,पढ़ने के समय वह दीर्घ कारक चिद्दों और सर्वनामों को Ðस्व अवश्य पढ़ लेती है और पदान्त में Ðस्व वर्ण को दीर्घ मान लेती है। परंतु कभी-कभी, सब जगह नहीं। शब्दों का तोड़ना-मरोड़ना और शब्द गढ़ लेना भी खड़ी बोली के नियमानुकूल नहीं है। वह ऐसा करना अच्छा नहीं समझती। खड़ी बोली में एक यह बात भी देखी जाती है कि संस्कृत के जिन शब्दों से अवधी या ब्रजभाषा का लिंग-भेद हो गया है उनको वह संस्कृत के अनुसार लिखती है। पवन, वायु इत्यादि शब्द इसके उदाहरण हैं। ब्रजभाषा और अवधी में प्राय: ये शब्द स्त्रीलिंग लिखे जाते हैं, परंतु खड़ी बोली में अब ये पुल्लिंग लिखे जाने लगे हैं,यद्यपि यह सिध्दान्त अभी सर्व-सम्मत नहीं है। संस्कृत का यह नियम है कि संयुक्त वर्णों के आदि का अक्षर दीर्घ समझा जाता है और उसका उच्चारण् भी वैसा ही होता है। ब्रजभाषा और अवधी में ऐसा सब अवस्थाओं में नहीं होता, विकल्प से होता है। किन्तु खड़ी बोली में उसको दीर्घ ही माना जाता है और प्राय: उसका उच्चारण भी संस्कृत के अनुसार ही होता है। जैसे'रामप्रसाद', 'देवस्वरूप', 'गर्वप्रहारी' इत्यादि। इन तीनों शब्दों में हिन्दी बोलचाल में 'राम' के म का, 'देव' के व का और 'गर्व'के ब का उच्चारण विशेषकर अवधी और ब्रजभाषा में Ðस्व ही करेंगे। परंतु खड़ी बोली में उसका दीर्घ उच्चारण करने की चेष्टा की जाती है, यद्यपि अब तक यह प्रणाली हिन्दी भाषा में कुछ संस्कृत प्र्रेमियों ने ही ग्रहण की है। मेरा विचार है कि ऐसा करने से सरल हिन्दी भाषा में एक प्रकार की कठोरता आ जाती है। विशेष अवस्था अथवा विकल्प की बात दूसरी है। ब्रजभाषा और अवधी के नियमों के बहिष्कार के साथ-साथ उनके सुन्दर और मधुर शब्दों का भी खड़ी बोली में परित्याग किया जा रहा है। वरन यह कहना चाहिए कि लगभग परित्याग कर दिया गया है। तो भी कुछ क्रियाएँ ऐसी हैं जो अब तक खड़ी बोली के गद्य पद्य दोनों में गृहीत हैं मैं समझता हूँ ऐसी क्रियाओं का संयत प्रयोग अनुचित नहीं। जैसे 'लखना', 'निहारना', 'निरखना'इत्यादि। ब्रजभाषा में 'दरसाना' एक क्रिया है जो संस्कृत के 'दर्शन' शब्द का तद्भव रूप है। कुछ लोग खड़ी बोलचाल में इसका अब इस रूप में लिखना पसन्द नहीं करते। वे उसके स्थान पर 'दर्शाना' लिखते हैं। ब्रजभाषा और अवधी दोनों में 'न', 'नि'और 'न्ह' को शब्दों के अन्त में लाकर एक वचन से बहुवचन बनाया जाता है। खड़ी बोली में ऐसा नहीं किया जाता। उसने अपने गद्य की प्रणलाी ही को स्वीकृत कर लिया है। विशेष विशेष बातें मैंने बतला दीं। इस विषय में और अधिक लिखना बाहुल्य होगा।

खड़ी बोली की कविता में अधिकतर संस्कृत तत्सम शब्दों को ग्रहण कर लेने और उसको बिलकुल गद्य की प्रणाली में ढाल देने का यह परिणाम हुआ है कि वह कर्कश हो गई है। उसमें जैसा चाहिए वैसा माधार्ुय्य अब तक नहीं आया। खड़ी बोली की कविता ने प्राय: वही मार्ग ग्रहण किया है जो उर्दू भाषा की कविता का है। परंतु ब्रजभाषा या अवधी के शब्दों को लेने में वह उससे भी संकीर्ण है वरन संकीर्णतम है। उर्दू में आवश्यकतानुसार अब भी ब्रजभाषा के कोमल शब्द गृहीत हैं, यहाँ तक कि संस्कृत के शब्द भी अपने ढंग में ढालकर ले लिये जाते हैं। परंतु खड़ी बोली के प्रेमी ऐसा करना पाप समझते हैं। यद्यपि वे अपने इस उद्योग में पूर्णतया सफलता नहीं लाभ कर सके। उर्दू भाषा की कविता अधिकांश अरबी शब्द में की जाती है, जिसमें अधिकतर धयान वज़न पर रक्खा जाता है। इसलिए उसकी कविताओं का शब्द-विन्यास शिथिल नहीं जान पड़ता। वरन् उसमें एक प्रकार का विचित्र ओज आ जाता है। हाँ, यह अवश्य है कि इस ओज के प्रपंच में पड़कर हिन्दी के कितने शब्दों,सर्वनामों, कारक चिद्दों का कचूमर निकल जाता है और कितने बेतरह पिस जाते हैं। परंतु उर्दू वालों के छन्दोनियम कुछ ऐसे हैं कि वे इस प्रकार शब्दों की तोड़-मरोड़ को सदोष नहीं मानते। हिन्दी-भाषा में यह प्रणाली गृहीत नहीं हो सकती, क्योंकि उससे कविता की भाषा अधिकतर दूषित हो जावेगी। ऐसी दशा में मेरा विचार है कि खड़ी बोली के पद्यकारों को हिन्दी के उपयुक्त शब्दों का परित्याग कभी नहीं करना चाहिए, चाहे वह अवधी का हो चाहे ब्रजभाषा का। इससे भाषा सरस और ललित बन जावेगी और उसका कर्कशपन जाता रहेगा।

आन्दोलन के समय में बहुत-सी ऐसी बातें गृहीत हो जाती हैं जो यथार्थ उपयोगिनी नहीं होतीं, किंतु स्थिरता आने पर उनका परित्याग ही उचित समझा जाता है। खड़ी बोली के आन्दोलन काल में कुछ ऐसे नियम स्वीकृत हुए हैं जो पद्य को सरस,सुन्दर, मनोहर और कोमल बनाने के बाधाक हैं। मैं सोचता हूँ, अब उनका विचारपूर्वक परित्याग किया जाना अनुचित नहीं। परिस्थिति के अनुसार सदा त्याग और ग्रहण होता आया है। अब भी इस सिध्दान्त से काम लिया जा सकता है। कुछ भाषा मर्मज्ञों का यह कथन है कि भाषा की कोमलता और मधुरता का बहुत अधिक सम्बन्धा संस्कार से है। यदि यह हम स्वीकार भी कर लें तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि गद्य और पद्य की भाषा में कोई अन्तर नहीं होता और पद्य के लिए कोमल,सरस और मधुर शब्द चुनने की आवश्यकता नहीं होती। संसार के साहित्य पर दृष्टि डालकर देखिए, सब जगह इस सिध्दान्त का पालन हुआ है और वर्तमान काल में भी हो रहा है। फिर संस्कार विषयक तर्क कैसा? मेरा कथन इतना ही है कि पद्य की भाषा को यदि पद्य के योग्य बनाना अभीष्ट हो तो उसी भाषा के विभिन्न अंगों के उपयुक्त शब्दों का त्याग नहीं होना चाहिए। विशेषकर ऐसे शब्दों का जो व्यापक हों और जिनमें प्रान्तिकता अथवा ग्रामीणता की छूत अधिक न लगी हो। मैं यह भी मानता हूँ कि हिन्दी भाषा राष्ट्रीयता की ओर बढ़ रही है, इसलिए उसके गद्य और पद्य में भी ऐसे ही शब्द प्रयुक्त होने चाहिए जो अन्य प्रान्तों में भी सुगमता से समझे जा सकें। निस्संदेह अगर ऐसे शब्द हैं तो संस्कृत ही के शब्द हैं। इसीलिए मैं भी उनके अधिक व्यवहार का विरोधी नहीं हूँ। पंरतु क्या संस्कृत में कोमल, मधुर और सरस शब्द नहीं हैं। फिर क्यों खड़ी बोली के पद्यों में संस्कृत के परुष शब्दों का प्रयोग प्राय: किया जाता है। दूसरी बात यह कि अवधी अथवा ब्रजभाषा के ऐसे ही शब्दों के लेने का अनुरोधा किया जाता है जो व्यापक, उपयुक्त और संस्कृत-सम्भूत हों, विदेशी भाषा के शब्द लिये जायँ और उनको खड़ी बोली की रचना में स्थान दिया जाय और अपने उपयोगी शब्दों को यह कहकर त्याग किया जावे कि वे ब्रजभाषा या अवधी के हैं तो यह कहाँ तक युक्तिसंगत है। ब्रजभाषा, खड़ी बोली और अवधी अन्य नहीं हैं, वे एक ही हैं, आवश्यकता और देशकालानुसार हम उनके भण्डार से उपयुक्त शब्द-संचय कर सकते हैं। इससे सुविधा ही होगी, असुविधा नहीं। मत-भिन्नता भी हितकारी है, यदि उसमें व्यर्थर् ईष्या-द्वेष की मात्रा न हो।

जिस समय यह खड़ी बोली और ब्रजभाषा का आन्दोलन चल रहा था, उस समय एक और आन्दोलन भी बल प्राप्त कर रहा था। वह था सरकारी कचहरियों में हिन्दी भाषा के प्रचलित होने का उद्योग। हिन्दी-हितैषियों का दल महर्षि-कल्प पूज्य पं. मदनमोहन मालवीय जी के नेतृत्व में उस काल इस आन्दोलन की ओर विशेष आकर्षित था। इसलिए हिन्दी की समुन्नति के लिए उन दिनों जो साधान उपयुक्त समझे गये काम में लाये गये। नगर-नगर में नागरी-प्रचारिणी-सभाओं का जन्म हुआ। नागरी के स्वत्व और उसके महत्तव-सम्बन्धी छोटी-बड़ी अनेक पुस्तिकाएँ निकाली गईं। स्थान-स्थान पर नागरी लिपि के प्रचार की महत्ता का राग अलापा गया और दूसरे यत्न जो उचित समझे गये, काम में लाये गये। इस आन्दोलन से भी खड़ी बोली की कविता के आन्दोलन को बड़ी सहायता पहुँची क्योंकि विपक्षी हिन्दी भाषा पर जो दोषारोपण करते थे, उचित मात्रा में उनका निराकरण करना भी आवश्यक ज्ञात हुआ। उस समय ऐसी बातें अवश्य कही गईं कि खड़ी बोली की कविता ऐसी हो जो उर्दू कविताओं से पूरी तौर पर टक्कर ले सके। इस अवसर से कुछ कट्टर खड़ी बोली के प्रेमियों ने लाभ उठाकर इस बात का अवश्य प्रचार किया कि जहाँ तक हो, ब्रजभाषा के साथ खड़ी बोली का कोई सम्पर्क न रहे। इसको बहुत कुछ व्यावहारिक रूप भी दिया गया, परन्तु यह उत्तोजना के समय की बात थी। वह समय निकल जाने पर इस विषय में जो कट्टरता व्यापक रूप ग्रहण कर रही थी वह बहुत कुछ कम हो गई और विवेकशील हृदयों से वह दुर्भाव निकल गया जो ब्रजभाषा से किसी प्रकार की सहायता न लेने के पक्ष में था। इस स्थिरता के समय में खड़ी बोलचाल की जो रचनाएँ हुई हैं, उनमें ब्रजभाषा के सरस शब्दों का प्रयोग देखा जाता है। परन्तु अब तक इस विषय में संतोषजनक प्रवृत्तिा नहीं उत्पन्न हुई। मेरी सम्मति यह है कि अब वह समय आ गया है जब संयत चित्ता से भाषा मर्मज्ञ लोग इस विषय पर विचार करें और खड़ी बोली की कविता को कर्कशता दोष से दूषित होने से बचावें।

इस खड़ी बोली के आन्दोलन के समय में जो कवि उत्पन्न हुए और कार्य-क्षेत्र में आये उनकी चर्चा इस स्थान पर आवश्यक है, जिससे यह ज्ञात हो सके कि किस प्रकार खड़ी बोली की कविता साहित्य-क्षेत्र में अग्रसर हुई। यहाँ यह बात स्मरण रखना चाहिए कि ब्रजभाषा के कवि उस समय भी थे, अब भी हैं और आगे भी रहेंगे। केवल अन्तर इतना ही है कि अब हिन्दी-साहित्य-क्षेत्र में खड़ी बोली को प्रधानता प्राप्त हो गई है। आन्दोलन के पहले बाबू हरिश्चन्द्र और उनके सम-सामयिक कवियों को भी खड़ी बोली की दो-एक स्फुट कविताएँ करते देखा जाता है, यद्यपि उनमें खड़ी बोली का वह आदर्श नहीं पाया जाता जो बाद को दृष्टिगत हुआ। बाबू हरिश्चन्द्र के एक पद्य का कुछ अंश नीचे दिया जाता है जिससे आप अनुमान कर सकेंगे कि वे भी उस समय खड़ी बोली की रचना की ओर कुछ आकर्षित हुए थे। वे पंक्तियाँ ये हैं-

कहाँ हो ऐ हमारे राम प्यारे।

किधार तुम छोड़ कर हमको सिधारे।

बुढ़ापे में यह दुख भी देखना था।

इसी के देखने को मैं बचा था।

इनके उपरान्त पं. बदरीनारायण चौधरी और पं. प्रतापनारायण मिश्र को भी हिन्दी भाषा में खड़ी बोली की दो-एक स्फुट कविता करते देखा जाता है। मैं इनकी कविताएँ पहले के पृष्ठों में उद्धृत कर आया हूँ। इसके बाद हमारे सामने श्रीधार पाठक आते हैं, जिन्होंने 'एकान्तवासी योगी' नामक खड़ी बोलचाल की एक पद्य पुस्तक ही लिख डाली।

पं. श्रीधार पाठक ब्रज प्रान्त के रहने वाले थे, आगरे में उनका निवास था। इसीलिए ब्रजभाषा से उनको स्वाभाविक प्रेम था। वे अंग्रेजी और संस्कृत दोनों के विद्वान थे। किन्तु सरस-प्रकृति होने के कारण कविता रचने की ओर उनकी विशेष प्रवृत्तिा थी। पहले वे ब्रजभाषा में ही कविता करते थे। परन्तु समय की गति उन्होंने पहिचानी और बाद को खड़ी बोली की ओर आकर्षित हुए। वे हिन्दी-संसार में खड़ी बोली के पहले पद्यकार होने की दृष्टि से ही आदृत हैं। हिन्दी के कुछ स्फुट गद्य लेख और'तिलस्माती मुँदरी' नामक एक उपन्यास भी उन्होंने लिखा है। परन्तु कीर्ति उन्होंने पद्य-ग्रन्थ लिखकर ही पाई। संयुक्त प्रांत की गवर्नमेंट के दफ्तर में पहले वे डिप्टी सुपरिन्टेण्डेण्ट थे, किन्तु बाद को सुपरिन्टेण्डेण्ट हो गये थे। इस कारण उनको समयाभाव था। फिर भी वे यथावकाश हिन्दी देवी की सेवा में रत रहे। खड़ी बोली का उनका पहला पद्य ग्रन्थ एकान्तवासी योगी है। इसके बाद उन्होंने जगत सचाई सार और श्रान्त पथिक नामक दो और छोटे ग्रंथ लिखे। जगत सचाई सार उनका स्वरचित ग्रंथ है,शेष दोनों ग्रंथ अंग्रेजी ग्रंथों के अनुवाद हैं। ये दोनों ग्रंथ भी छोटे हैं परन्तु इन्हीं के द्वारा उनको खड़ी बोली का पहला ग्रन्थकार होने का गौरव प्राप्त है। इन दोनों ग्रंथों की भाषा अधिकतर संस्कृत गर्भित है, उनमें खड़ी बोलचाल के नियमों की रक्षा भी यथार्थ रीति से नहीं हुई है। किसी भाषा की आदिम रचना में जो त्रुटियाँ होती हैं, वे सब उनमें मौजूद हैं। फिर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि उन्होंने इन ग्रन्थों की रचना करके खड़ी बोली की कविता का मार्ग बहुत कुछ प्रशस्त बनाया, उनके कुछ पद्य देखिए-

1. साधारण अति रहन सहन

मृदु बोल हृदय हरने वाला।

2. मधुर मधुर मुसक्यान मनोहर

मनुज वंश का उँजियाला।

3. सभ्य सुजन सत्कर्म परायण सौम्य सुशील सुजान।

4. शुध्द चरित्रा उदार प्रकृति शुभ विद्या बुध्दि निधान।

5. प्राण पियारे की गुण गाथा साधु कहाँ तक मैं गाऊँ।

6. गाते गाते नहीं चुके वह चाहे मैं ही चुक जाऊँ।

7. विस्व निकाई विधि ने उसमें की एकत्रा बटोर।

8. बलिहारौं त्रिभुवन धान उस पर वारौं काम करोर।

- एकान्तवासी योगी

9. शीतल मृदुल समीर चतुर्दिक

सुखित चित्ता को करती है।

10. कोमल कल संगीत सरस धवनि

तरु तरु प्रति अनुसरती है।

11. सकल सृष्टि की सुघर सौम्य

छबि एकत्रित तहँ छाई है।

12. अति की बसै मनुष्यों ही के

मन में अति अधिकाई है।

13. मनन वृत्तिा प्रति हृदय-मधय

दृढ़ अधिकृत पाई जाती है।

14. अति गरिष्ट साहसिक लक्ष्य

उत्साह अमित उपजाती है।

15. गति में गौरव गर्व दृष्टि में

दर्प धाृष्टता युत धारी।

16. देखूँ हूँ मैं इन्हें मनुज कुल

नायकता का अधिकारी।

17. सदा बृहतव्यवसाय निरत

सुविचारवंत दीखे सारे।

18. सुगम स्वल्प आचार शील

औ शुध्द प्रकृति के गुण धारे।

19. कृषिकर भी प्रत्येक स्वत्व की

जाँच गर्व युत करता है।

20. त्यों मनुष्य होने का मान

सबके समान मन धारता है।

21. धान तृष्णा का घृणित एक

सामान्य कुण्ड बन जावैगा।

22. नृपति शूर विद्वान आदि।

कोई भी मान नहिं पावैगा।

- श्रान्त पथिक

1. इन पद्यों में किस प्रकार संस्कृत तत्सम शब्दों का आधिक्य है, यह कथन करने की आवश्यकता नहीं। यह मैं स्वीकार करूँगा कि चन्द बरदाई के समय से ही हिन्दी भाषा की कविता में संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग होने लगा था। उत्तारोत्तार यह प्रवृत्तिा बढ़ती गई। यहाँ तक कि अवधी भाषा के मुसलमान कवियों ने भी अवसर आने पर संस्कृत के तत्सम शब्दों का व्यवहार किया। परंतु इन लोगों का संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग परिमित है। उनकी प्रवृत्तिा तद्भव या अर्धा तत्सम शब्दों के व्यवहार की ओर ही अधिक देखी जाती है। संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग वे किसी कारण विशेष के उपस्थित हो जाने पर ही करते थे। हाँ, गोस्वामी तुलसीदास अथवा प्रज्ञाचक्षु सूरदास आदि कुछ महाकवियों ने किसी-किसी रचना में विशेषकर स्तुति और वंदना-सम्बन्धी पद्यों में संस्कृत शब्दों का प्रयोग बहुत अधिक किया है और इस प्रकार किसी-किसी पद्य को संस्कृतमय बना दिया है। परंतु ऐसे पद्यों की संख्या बहुत थोड़ी है। हम उनको अपवाद मानते हैं, वे नियम के अंतर्गत नहीं। पाठक जी के पद्यों में संस्कृत शब्दों का बाहुल्य नियम के अंतर्गत है और यही खड़ी बोलचाल की रचना की बहुत बड़ी विशेषता है। तत्सम शब्दों के प्रयोग का जो आदर्श इन पद्यों में पाया जाता है, वह खड़ी बोली-संसार में आज तक गृहीत है। किसी-किसी ने पाँव आगे भी बढ़ाया है और इससे अधिक संस्कृत-परुष शब्दों से गर्भित रचनाएँ की हैं। अब तक यह प्रवाह चल रहा है। परंतु कुछ लोगों ने इसका पूरा अनुकरण नहीं किया, उन्होंने कोमल तथा ललित शब्दों को ही अपनी रचनाओं में स्थान दिया। आजकल विशेषकर कोमल और सरस शब्दों में रचना करने की ओर लोगों की दृष्टि आकर्षित है, और पहले से खड़ी बोलचाल की रचनाएँ अधिक कोमल और सरस होने लगी हैं। प्राकृत भाषाएँ संस्कृत तत्सम शब्दों के प्रयोग के प्रतिकूल थीं। इसकी कुछ प्रतिक्रिया अवधी और ब्रजभाषा में हुई। खड़ी बोली की रचना में वह पूर्णता में परिणत हो गई।

2. ब्रजभाषा और अवधी में हलन्त का सस्वर प्रयोग होता है। प्राकृत में भी अनेक स्थलों पर यह प्रणाली गृहीत है। श्रीधारजी ने अपनी खड़ी बोली की रचना में इस प्रणाली को स्वीकार कर लिया है। इसीलिए उनके ऊपर के पद्यों में चतुर्दिक'बृहत', एवं 'विद्वान' के अंतिम अक्षर जिन्हें हलन्त होना चाहिए, सस्वर लिखे गये हैं। आजकल कुछ लोगों को देखा जाता है कि हलन्त वर्णों को हलन्त ही लिखना चाहते हैं। मैं समझता हूँ ऐसा करने से मुद्रण कार्य में ही असुविधा न होगी, अनेक खड़ी बोली के पद्यों की रचना में भी कठिनता होगी। विशेषकर उन रचनाओं में जो संस्कृत वृत्ताों में की जायेगी। इसलिए मेरा विचार है कि इस प्रणाली को स्वीकृत रहना चाहिए।

3. संस्कृत का नियम है कि संयुक्त वर्ण के पहले जो वर्ण होता है उसका उच्चारण दीर्घ होता है। एक शब्द के अन्तर्गत इस प्रकार का उच्चारण स्वाभाविक होता है। इसलिए उसमें जटिलता नहीं आती। वह स्वयं सरलता से दीर्घ उच्चरित होता रहता है। जैसे 'समस्त', 'कलत्रा', 'उन्मत्ता' आदि। परंतु जहाँ वह समस्त रूप में होता है वहाँ उसका उच्चारण दीर्घ रूप में करने से हिन्दी-रचनाओं में एक प्रकार की जटिलता आ जाती है। इसलिए विशेष अवस्थाओं को छोड़कर, मेरा विचार है कि उसका Ðस्व उच्चरित होना ही सुविधाजनक है। ऊपर के पद्यों में 'सरस ध्वनि' और 'वृहत व्यवसाय' ऐसे ही प्रयोग हैं। संस्कृत के नियमानुसार 'सरस' के अंतिम 'स' को और 'बृहत' के 'त' को दीर्घ होना चाहिए। किंतु उसको दीर्घ बनाने से छन्दोभंग होगा। इसीलिए पद्यकार ने उसको Ðस्व रूप ही में ग्रहण किया। हिन्दी भाषा के पहिले आचार्यों की भी यही प्रणाली है। मेरा विचार है,इस प्रणाली को स्वीकृत रहना चाहिए। विशेष अवस्थाओं में उसके दीर्घ करने का मैं विरोधी नहीं।

4. ऊपर के पद्यों में एक स्थान पर आया है 'तरुतरुप्रति' और दूसरे स्थान पर आया है 'मन धारता है'। खड़ी बोल-चाल के नियमानुसार इनको 'तरुतरु के प्रति' और 'मन में धारता है' होना चाहिए। इनमें कारक चिद्दों का लोप है। यह प्रयोग खड़ी बोलचाल के नियम के विरुध्द है। 'के' का प्रयोग क्षम्य भी हो सकता है, क्योंकि वहाँ उसके बिना अर्थ की भ्रांति नहीं होती। परन्तु 'में' का प्रयोग न होने से वाक्य का यह अर्थ होता है कि 'मन' स्वयं किसी वस्तु को धारता या पकड़ता है। कवि का भाव यह नहीं है। वह यह कहता है कि अपने 'मन' में कोई कुछ रखता या धारता है। ऐसा प्रयोग निस्सन्देह सदोष है। ऐसा होना नियमानुकूल नहीं। कवि ने ऐसा प्रयोग संकीर्णता में पड़कर किया है। इससे उसकी असमर्थता प्रकट होती है। मेरा विचार है कि खड़ी बोलचाल के कवियों को इस असमर्थता-दोष से बचना चाहिए। खड़ी बोलचाल की रचनाओं में वहीं ऐसा प्रयोग करना चाहिए जहाँ वह मुहावरों के अंतर्गत हो, जैसा मैं ऊपर लिख आया हूँ।

5. समस्त पदों को पद्य में यदि लाया जावे तो उसको उसी रूप में लाना चाहिए जो शुध्द है। उनके शब्दों को उलटना-पुलटना नहीं चाहिए। परन्तु प्राय: हिन्दी-पद्यों में इस नियम की रक्षा पूर्णतया नहीं हो पाती। प्रयोजन यह कि सुन्दर बालक,कमल-दल, कमल-नयन, पंचमुख और बहुचिद्दित इत्यादि वाक्यों को इसी रूप में लिखा जाना चाहिए किन्तु वृत्ता एवं छन्द के बन्धानों में पड़कर उनके शब्दों को उलट-पुलट दिया जाता है। ऐसा अन्य भाषाओं में भी होता है। किन्तु यथासम्भव इस दोष से बचना चाहिए। विशेषकर तत्पुरुष और बहुब्रीहि समासों में। ऊपर के पद्यों में एक स्थान पर 'साधारण अति' लिखा गया है। ऐसा प्रयोग उचित नहीं था। विशेषकर उस अवस्था में जब 'अति साधारण' लिखा जा सकता था। मैं समझता हूँ ऐसा अमनोनिवेश के कारण असावधानी से हो गया है। ऐसी असावधानी कदापि वांछनीय नहीं।

6. ऊपर के पद्यों में एक स्थान पर 'तहाँ' के स्थान पर 'तहँ' और दूसरी जगह 'नहीं' के स्थान पर 'नहि' आया है। खड़ी बोलचाल के नियमानुसार उनको शुध्द रूप में ही आना चाहिए था। संस्कृत में 'नहि' का प्रयोग 'नहीं' के अर्थ में होता है, जैसे'नहि नहि रक्षति डुक्रिय करणम्'। इस दृष्टि से देखा जावे तो 'नहि' का प्रयोग सदोष नहीं है। क्योंकि वह संस्कृत का तत्सम शब्द है। यहाँ यह कहा जा सकता है कि गद्य में 'नहिं' का प्रयोग न होना इस विचार का बाधाक है। किन्तु मैं इस बात को इसलिए नहीं मानता कि इससे पद्य की वह सुविधा नष्ट होती है जो गद्य की अपेक्षा उसे अधिक प्राप्त है। मेरा विचार है कि पद्य में संस्कृत के तत्सम शब्द होने का धयान रखकर यदि उसका प्रयोग संकीर्ण स्थलों पर किया जाय तो वह सदोष न होगा। हाँ, 'नहि' के 'हि' पर बिन्दी नहीं लगानी चाहिए। पद्य की बीसवीं पंक्ति का 'का' और बाईसवीं पंक्ति का 'भी' लघु पढ़ा जाता है यद्यपि वह लिखा गया है दीर्घ। हिन्दी भाषा के प्रचलित नियमानुसार दीर्घ को लघु पढ़ना छन्दो-नियम के अन्तर्गत है। सवैया में प्राय: ऐसा किया जाता है। परन्तु इस प्रकार का प्रयोग न होना ही वांछनीय है, क्योंकि प्राय: लोग ऐसे स्थानों पर अटक जाते हैं और छन्द को ठीक-ठीक नहीं पढ़ सकते। यद्यपि उर्दू में ऐसे प्रयोगों की भरमार है। उर्दू में इस प्रकार का प्रयोग इसलिए नहीं खटकता कि उर्दू वाले इस प्रकार के प्रयोगों के पढ़ने के अभ्यस्त हैं। हिन्दी पद्यों में इस प्रकार के प्रयोग बहुत ही अल्प मिलते हैं, इसलिए प्राय: पढ़ने में रुकावट उत्पन्न करते हैं। ऐसी दशा में जहाँ तक सम्भव हो, इस प्रकार के प्रयोग से बचने की चेष्टा की जानी चाहिए।

7. अठारहवीं पंक्ति में 'और' के स्थान पर 'औ' लिखा गया है। खड़ी बोलचाल की कविता में प्राय: 'और' ही लिखा जाना अच्छा समझा जाता है। कुछ लोग अंग्रेजी प्रणाली के अनुसार 'औ' के ऊपर 'कामा' लगाकर उसके 'र' को उड़ा देते हैं। उनका कथन है कि जब औ' से और का भाव प्रगट हो जाता है, तो संकीर्ण स्थलों में उसका प्रयोग क्यों न किया जाय। मैं भी इस विचार से सहमत हूँ। उर्दू वाले लिखने को तो अपने पद्यों में 'और' लिख देते हैं, परन्तु अनेक स्थानों में उसका उच्चारण 'औ'ही कर लेते हैं। यह प्रणाली अच्छी नहीं, और न हिन्दी के लिए उपयुक्त है। इसलिए जहाँ तीन मात्रा वाला 'और' न प्रयुक्त हो सके, द्विमात्रिक 'औ' का लिखना आक्षेप-योग्य नहीं।

8. पंक्ति सात और आठ में 'निकाई' और 'करोर' शब्द आये हैं। 'निकाई ठेठ ब्रजभाषा' है, 'करोर' ब्रजभाषा के नियमानुसार अनुप्रास के झमेले में पड़कर 'करोड़' से बनाया गया है। पाठक जी के बाद के खड़ी बोली के कविगण इस प्रकार के प्रयोग को अच्छा नहीं समझते और वे ब्रजभाषा के इस प्रकार के शब्दों से बचना चाहते हैं। परन्तु फिर भी 'निकाई', की निकाई पर कुछ लोग मुग्धा हैं। वे अब तक इसको अपनी रचनाओं में स्थान देते हैं। मेरा विचार है कि ब्रजभाषा के ऐसे सरस शब्दों का बहिष्कार उचित नहीं। ऐसे शब्दों के ग्रहण करने से ही खड़ी बोली की कर्कशता दूर होगी। 'करोड़' को 'करोर' कर देना मैं भी अच्छा नहीं समझता। ऐसे परिवर्तनों से बचना चाहिए यदि भावुकता भी साथ दे।

9. दसवीं पंक्ति में अनुसरती है। और अठारहवीं पंक्ति में 'धारे' क्रियाओं का प्रयोग है। न तो खड़ी बोली में अनुसरना कोई क्रिया है, न धारना। खड़ी बोलचाल में 'धारना' के स्थान पर 'रखना' का प्रयोग होता है। फिर भी उन्होंने इन क्रियाओं का प्रयोग अपनी खड़ी बोली की रचना में किया है। 'धारना' क्रिया के रूपों का व्यवहार अब तक खड़ी बोलचाल की कविता में हो रहा है। 21वीं और 22वीं पंक्तियों में 'जावैगा', 'पावैगा' लिखा गया है। ये दोनों क्रियाएँ हिन्दी की हैं और अब तक इनका प्रयोग भी खड़ी बोली की रचना में हो रहा है। अन्तर इतना ही है कि 'जावेगा', 'पावेगा' अथवा 'जाएगा', 'पाएगा' लिखा जाता है।'जावेगा', 'पावेगा' के विषय में मुझको कुछ अधिक नहीं कहना है। यदि थोड़ा सम्हलकर प्रयोग किया जावे तो खड़ी बोलचाल में उसका प्रयोग शुध्द रूप में हो सकता है। हाँ, 'धारना' क्रिया के रूपों का प्रयोग अवश्य विचारणीय है। क्योंकि उसका प्रयोग दो अर्थों में होता है एक 'रखना' के और दूसरा 'पकड़ना' क्रिया के रूप में। उर्दू वाले इसके स्थान पर 'रखना' और 'पकड़ना' क्रिया रूपों ही का प्रयोग करते हैं। हिन्दी गद्य में भी ऐसा ही होता है। इसलिए उसका प्रयोग खड़ी बोली की कविता के लिये अधिक अनुकूल नहीं है। उसमें एक प्रकार की ग्रामीणता है। परन्तु यह क्रिया उपयोगिनी बड़ी है। अनेक अवसरों पर वह अकेली दो-दो क्रियाओं का काम दे जाती है और इसीलिए वह अब तक खड़ी बोली के पद्यों में स्थान पाती आती है। मेरा विचार है कि उसका सर्वथा त्याग उचित नहीं। हाँ, उसका बहुल प्रयोग अच्छा नहीं कहा जा सकता। अब रहा अनुसरती है का प्रयोग। निस्सन्देह'अनुसरना' हिन्दी में कोई धातु नहीं है। यह क्रिया ब्रजभाषा से ही आई है, परन्तु उसको खड़ी बोली का रूप दे दिया गया है। क्रिया है बड़ी मधुर। इस पर कवित्व की छाप है। मेरा विचार है कि ब्रजभाषा की ऐसी क्रियाओं को खड़ी बोलचाल का रूप देकर ग्रहण कर लेना युक्ति-संगत है। इससे खड़ी बोली वह सिध्दि प्राप्त कर लेगी जो सरसता की जननी है। पंक्ति 12 में'अधिकाई' और 'बसैहै' का प्रयोग है। 'बसैहै' में गहरा दूरान्वय दोष है। वह तो ग्रहणीय नहीं। अब रहा यह कि 'बसैहै', 'जलैहै'इत्यादि प्रयोग खड़ी बोलचाल की कविता में होना चाहिए या नहीं। किसी क्रिया का वर्तमान काल का रूप खड़ी बोलचाल में इस प्रकार नहीं बनता। इसलिए इस प्रकार का प्रयोग अच्छा नहीं 'अधिकाई' लिखा जाना भी असुन्दर है। 'देखूँहूँ' और 'दीखैं'क्रियाओं का प्रयोग पंक्ति 16 और 17 में हुआ है, यह प्रयोग भी खड़ी बोली के नियमों के अनुकूल नहीं है। इसी प्रकार पंक्ति 8के 'बलिहारौ', 'वारौ' क्रियाओं का व्यवहार भी खड़ी बोली के नियमों के अनुसार नहीं। इसलिए मेरी सम्मति यही है कि इस प्रकार की क्रियाओं से खड़ी बोलचाल की रचनाओं को सुरक्षित रखना चाहिए। पाठक जी की खड़ी बोली की आदिम रचनाओं में इस प्रकार की क्रियाओं का आना उतना तर्क-योग्य नहीं, क्योंकि वह खड़ी बोली के प्रसार का आदिम काल था। मुझे हर्ष है कि उनके बाद के सहृदय कवियों ने इस प्रकार के प्रयोगों की उपेक्षा करके खड़ी बोली की कविता का मार्ग अधिकतर निर्दोष बना दिया है।

आप लोग यदि एक बार सिंहावलोकन से काम लेंगे तो यह ज्ञात हो जायगा कि खड़ी बोली का अस्तित्व उसी समय से है जब से ब्रजभाषा अथवा अवधी का। खुसरो की कविता में उसका प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। वरन् यह कहा जा सकता है कि जैसा सुन्दर आदर्श खड़ी बोली की कविता का उन्होंने उपस्थित किया, उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक वैसा आदर्श नहीं उपस्थित किया जा सका। कबीर साहब की रचनाओं में भी उसका रंग पाया जाता है। भूषण् के कवित्ताों में भी उसकी झलक मिलती है। महन्त सीतल ने तो एक प्रकार से उसकी बाँह ही पकड़ ली और उस निरावलम्बा को बहुत कुछ अवलम्बन दिया। इंशा अल्ला खाँ ने अपनी रानी केतकी की कहानी में और नजीर अकबराबादी ने अपनी स्फुट रचनाओं में उसका रंग रूप दिखलाया। रघुनाथ, ग्वाल कवि और सूदन की रचनाओं में भी उसकी छटा दृष्टिगत होती है और वह करवट बदलती ज्ञात होती है। बाबू हरिश्चन्द्र, पं. प्रतापनारायण और पं. बदरीनारायण चौधरी ने तो उसके कतिपय स्फुट पद्य बनाकर उसे वह शक्ति प्रदान की जिसके आधार से पं. श्रीधार पाठक ने उसको दो सुन्दर पुस्तकें भी प्रदान कीं। इसी समय पं. अम्बिकादत्ता व्यास ने 'कंस वधा' नामक एक साधारण काव्य निदर्शन रूप में लिखा परन्तु अपने उद्योग में वे सर्वथा असफल रहे। खड़ी बोलचाल की कविता का रूप इन लोगों की रचनाओं में अधिकतर अस्पष्ट है और उसके शब्द विन्यास भी अनियमबध्द पाये जाते हैं। परन्तु पाठक जी के दो ग्रन्थों (एकान्तवासी योगी और श्रान्त पथिक) में उसका रूप बहुत कुछ स्पष्ट हो गया है और उसके शब्द-विन्यास के नियम भी बहुत कुछ व्यवस्थित देखे जाते हैं। पाठक जी का हृदय वास्तव में ब्रजभाषामय था। उनकी ब्रजभाषा की रचनाएँ जितनी हैं, बड़ी सरस और सुन्दर हैं। उनकी 'काश्मीर-सुखमा' नाम की पुस्तिका उनकी समस्त रचनाओं में सर्वोत्ताम है,किन्तु उसकी भाषा ब्रजभाषा है। उनके जीवन का अन्तिम समय भी ब्रजभाषा की सेवा ही में बीता। यदि वे इस स्वाभाविक प्रेम के जाल में न फँसते और दो एक मौलिक ग्रन्थ खड़ी बोल-चाल के पद्यों में और लिख जाते तो उस समय वह कुछ और अधिक उन्नत हो जाती। फिर भी उन्होंने पहले पहल जितना किया, उसके लिए वे चिर स्मरणीय हैं और खड़ी बोली कविता का क्षेत्र उसके लिए उनका कृतज्ञहै।

पाठकजी के उपरान्त खड़ी बोली के कविता-क्षेत्र में हमको पं. नाथूराम शंकर शर्मा का दर्शन होता है। ये ब्रजभाषा के ही कवि थे और उसमें सुन्दर और सरस रचना करते थे। परन्तु सामयिक रुचि का इन पर भी प्रभाव पड़ा और ये खड़ी बोली में ही कविता लिखने लगे। शर्माजी आर्य-समाजी विचार के हैं। आर्य-समाज की कट्टरता प्रसिध्द है। शर्मा जी भी अपने विचार के कट्टर हैं। इनकी यह कट्टरता इनकी रचना में ही नहीं, इनके शब्दों में भी फूटी पड़ती है। आर्य-समाज के सिध्दान्त के अनुसार समाज संशोधान सम्बन्धी विचार प्रकट करने के लिए इनको खड़ी बोली उपयुक्त ज्ञात हुई। इसलिए इनका उसकी ओर आकर्षित होना स्वाभाविक था। इनके धार्मिक विचारों में भी उग्रता है। इस सूत्रा से भी इनको खड़ी बोली की कविता करनी पड़ी क्योंकि उस समय आर्य-समाज को जनता में अपना सिध्दान्त प्रचार करने के लिए ब्रजभाषा से खड़ी बोली ही उन्हें अधिक प्रभाव जनक जान पड़ी। फिर भी यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इनकी खड़ी बोली की रचना में ब्रजभाषा का पुट बराबर आवश्यकता से अधिक रहा और अब तक है। इन्होंने छोटी-मोटी कई पुस्तकें बनाई हैं किन्तु इनकी छपी हुई चार पुस्तकें अधिक प्रसिध्द हैं। इनके नाम ये हैं-शंकर सरोज, अनुराग-रत्न, गर्भ रण्डारहस्य और वायस विजय। इनकी रचना की विशेषता यह है कि उसमें समाज संशोधान, मिथ्याचार खंडन और परम्परागत रूढ़ियों का निराकरण उत्कट रूप में पाया जाता है। इनसे पहले इस ढंग की रचनाओं का अभाव था। समय ने इनके ही द्वारा इस अभाव की पूर्ति कराई। खड़ी बोलचाल में आपकी ही ऐसी पहली रचना है, जिसमें समाज को उसके अन्धाविश्वासों के लिए गहरी फटकार मिलती है। इस विषय में हिन्दी साहित्य क्षेत्र में कबीर के बाद इनका ही स्थान है। मुँहफट और अक्खड़ भी ये वैसे ही हैं। जब आवेश में आते हैं तो इनके उद्गार में ऐसे शब्द भर जाते हैं जिनसे एक प्रकार का स्फोट-सा होता ज्ञात होता है। शर्मा जी हिन्दी संसार के एक ख्याति प्राप्त और मान्य कवि हैं। इनको गुण ग्राहकों ने पदक और उपयुक्त पदवियाँ भी प्रदान की हैं। इनका ब्रजभाषा का एक पद्य नीचे लिखा जाता है-

1. मंगल करन हारे कोमल चरन चारु

मंगल से मान मही गोद में धारत जात।

पंकज की पाँखुरी सी ऑंगुरी ऍंगूठन की

जाया पंचबान जी की भँवरी भरत जात।

शंकर निरख नख नग से नखत ò ेनी

अंबर सों छूटि छूटि पाँयन परत जात।

चाँदनी में चाँदनी के फूलन की चाँदनी पै

हौले हौले हंसन की हाँसी सी करत जात।

एक पद्य खड़ी बोलचाल का देखिए-

2. कज्जल के कूट पर दीप शिखा सोती है

कि श्याम घनमंडल में दामिनी की धारा है।

यामिनी के अंक में कलाधार की कोर है

कि राहु के कबंधा पै कराल केतु तारा है।

शंकर कसौटी पर कंचन की लीक है

कि तेज ने तिमिर के हिये में तीर मारा है।

काली पाटियों के बीच मोहिनि की माँग है

कि ढाल पर खाँड़ा कामदेव का दुधारा है।

एक पद्य ऐसा देखिए जिसमें खड़ी बोली और ब्रजभाषा दोनों का गहरा रंगहै-

3. ताकत ही तेज न रहैगो तेजधारिन में

मंगल मयंक मंद पीले पड़ जायँगे।

मीन बिन मारे मर जायँगे तड़ागन में

डूबडूब शंकर सरोज सड़ जायँगे।

खायगो कराल काल केहरी कुरंगन को

सारे खंजरीटन के पंख झड़ जायँगे।

तेरी ऍंखियान सों लड़ैगे अब और कौन

केवल अड़ीले दृग मेरे अड़ जायँगे।

एक पद्य डाँट फटकार का भी देखिए-

4. ईश-गिरिजा को छोड़ यीशु गिरजा में जाय

शंकर सलोने मैन मिस्टर कहावेंगे।

बूट पतलून कोट कमफाट टोपी डाटि

जाकेट की पाकेट में वाच लटकावेंगे।

घूमेंगे घमंडी बने रंडी का पकड़ हाथ

पिएँगे बरंडी मीट होटल में खावेंगे।

फारसी की छार सी उड़ाय ऍंग्रेजी पढ़ि

मानो देवनागरी का नाम ही मिटावेंगे।

इनकी एक रचना विचित्र भाषा भाव की देखिए-

5. बाबा जी बुलाये बीर डूँगरा के डोकरा ने

जैमन को आसन बछेल के बिछाये री।

ओंड़े ऊदला महेरी के सपोट गये झार

गये झोर रोट झार पेट भरे खाये री।

छोड़ी न गजरभत नेक हूँ न दोरिया में

रोंथ रोंथ रूखी दर भुजिया अघाये री।

संतन के रेवड़ जो चमरा चरावत हैं

शंकर सो बाने बंद बेदुआ कहाये री।

एक पद्य ऐसा देखिए जिसमें परसी के मुहावरे और शब्द दोनों कसरत से शामिल है-

बाग़ की बहार देखी मौसिमे बहार में तो

दिल अन्दलीप को रिझाया गुल तरसे।

हम चकराते रहे आसमाँ के चक्कर में

तौभी लौ लगी ही रही माह के महर से।

आतिशे मुसीबत ने दूर की गुदूरत को

बात की नबात मिली लज्ज़ते शकर से।

शंकर नतीजा इस हाल का यही है बस

सच्ची आशिकी में नप होता है ज़रर से।

एक उर्दू पद्य देखिए जो हसब हाल है-

बुढ़ापा नातवानी ला रहा है।

ज़माना ज़िन्दगी का जा रहा है।

किया क्या ख़ाक आगे क्या करेगा।

आख़ीरी वक्त दौड़ा आ रहा है।

इस खड़ी बोली के उत्थान के समय में ब्रजभाषा के कवियों की कमी नहीं है। इस समय भी ब्रजभाषा के सुकवि उत्पन्न हुए और उन्होंने उसी की सेवा आजन्म की। उनमें से जो दो से अधिक प्रसिध्द हैं, वे हैं लाला सीताराम बी. ए. और स्वर्गीय रायदेवी प्रसाद पूर्ण। लाला सीताराम बी. ए. बहुभाषाविद् हैं। उनको संस्कृत, अंगरेज़ी, परसी, अरबी आदि कई भाषाओं का अच्छा ज्ञान है। उन्होंने कई अंग्रेजी नाटकों का अनुवाद उर्दू में भी किया है। ब्रजभाषा की उन्होंने यह सेवा की 'मेघदूत', 'ऋतु-संहार', 'रघुवंश' का पद्यानुवाद सरल भाषा में करके उसे सौंपा। संस्कृत के 'मालती माधाव', 'उत्तार राम चरित' आदि नाटकों का अनुवाद भी गद्यपद्यमयी भाषा में किया। आप गद्य-पद्य दोनों लिखने में अभ्यस्त हैं। अपनी वृध्दावस्था में भी कुछ न कुछ हिन्दी-सेवा करते ही रहते हैं। आपके पद्य के कुछ नमूने नीचे दिये जाते हैं जो रघुवंश के पद्यानुवाद से लिये गये हैं-

भये प्रभात धोनु ढिग जाई।

पूजि रानि माला पहिराई।

बच्छ पियाइ बाँधि तब राजा।

खोल्यो ताहि चरावन काजा।

परत धारनि गा चरन सुवाहन।

सो मगधूरि होत अति पावन।

चली भूप तिय सोई मग माहीं।

स्मृति , श्रुति अर्थ संग जिमि जाहीं।

चौसिंधुन थन रुचिर बनाई।

धारनिहिं मनहुँ बनी तहँ गाई।

प्रिया फेरि अवधोश कृपाला।

रक्षा कीन्ह तासु तेहि काला।

कबहुँक मृदु तृन नोचि खिलावत।

हाँकि माछि कहुँ तनहिं खुजावत।

जो दिसि चलत चलत सोई राहा।

एहि बिधि तेहि सेवत नरनाहा।

राय देवीप्रसाद 'पूर्ण' कानपुर के एक प्रसिध्द वकील थे। आपने आजन्म हिन्दी भाषा की सेवा की और जब तक जिये उसको अपनी सरस रचनाओं से अलंकृत करते रहे। आप बड़े सहृदय कवि और वक्ता थे, धर्म प्रेमी भी थे। ब्रह्मर्वत्ता सनातनधर्म मण्डल की स्थापना भी आप ही ने की थी। 'काव्य-शास्त्रा विनोदेन कालो गच्छति धीमताम्' के आप प्रत्यक्ष प्रमाण थे। उन्होंने रसिक-वाटिका नामक एक मासिक पत्रिका भी निकाली थी। पीछे से धर्म कुसुमाकर नामक एक मासिक पत्रा भी प्रकाशित किया। आपने ब्रजभाषा में अनेकसुन्दर रचनाएँ की हैं। उनमें से कुछ पुस्तकाकार भी छपी हैं। उन्होंने मेघदूत का'धाराधार धावन' नाम से बड़ा सुन्दर और सरस अनुवाद किया है। उनका 'चन्द्र कला भानुकुमार' नाटक भी अच्छा है। उनके कुछ पद्य नीचे दिये जाते हैं-

वर्षा-आगमन

1. सुखद सीतल सुचि सुगन्धिात पवन लागी बहन।

सलिल बरसन लगो बसुधा लगी सुखमा लहन।

लहलहीलहरान लागीं सुमन बेली मृदुल।

हरित कुसुमित लगे झूमन वृच्छ मंजुल बिपुल

हरित मनि के रंग लागी भूमि मन को हरन।

लसति इन्द्रबधून अवली छटा मानिक बरन।

बिमल बगुलन पाँति मनहुँ बिसाल मुक्तावली।

चन्द्रहास समान-दमकति चंचला त्यों भली

नील नीरद सुभग सुरधुन बलित सोभाधाम।

लसत मनु बनमाल धारे ललित श्री घनस्याम।

कूप कुंड गँभीर सरवर नीर लाग्यो भरन।

नदी नद उफनान लागे लगे झरना झरन

रटत दादुर त्रिविधि लागे रुचन चातक बचन।

कूक छावत मुदित कानन लगे केकी नचन।

मेघ गरजत मनहुँ पावस भूप को दल सकल।

विजय दुंदुभि हनत जग में छीनि ग्रीसम अमल।

2. तुम्हरे अद्भुत चरित मुरारी।

कबहूँ देत बिपुल सुख जग में कबहुँ देत दुख झारी।

कहुँ रचि देत मरुस्थल रूखो कहुँ पूरन जल रासि।

कहुँ ऊसर कहुँ कुंज विपिन कहुँ कहुँ तम हूँ परकास।

3. माता के समान परपतिनी बिचारी नहीं ,

रहे सदा पर धान लेन ही के धयानन मैं।

गुरुजन पूजा नहीं कीन्हीं सुचि भावन सों ,

गीधो रहे नानाविधि विषय विधानन मैं।

आयुस गँवाई सबै स्वारथ सँवारन मैं ,

खोज्यो परमारथ न वेदन पुरानन मैं।

जिनसों बनी न कछु करत मकानन मैं ,

तिनसों बनैगी करतूत कौन कानन मैं।

उनका एक बिरहा भी देखिए-

1. अच्छे अच्छे फुलवा बीन री मलिनियाँ

गूँधि लाओ नीके नीके हार।

फूलन को हरवा गोरी गरे डरिहौं

सेजिया में होइ है बहार।

वर्तमान-काल

यह वर्तमान काल बीसवीं ईस्वी शताब्दी के आदि से ही प्रारम्भ होता है। हिन्दी भाषा के लिए इसको स्वर्णयुग कह सकते हैं। इस काल में जितना वह विस्तृत हुई, फूली फली, उन्नत बनी, वह उल्लेखनीय है। कोई वह समय था जब हिन्दी भाषा के विद्वान् इने-गिने थे और उसको एक साधारण भाषा समझ कर हिन्दी संसार के प्रतिष्ठित पुरुषों की दृष्टि भी उसकी ओर आकर्षित होते संकुचित होती थी। किंतु वर्तमान काल में संस्कृत और अंग्रेजी के उच्च कोटि के विद्वान् ही क्या उसके पुनीत चरणों पर भारतवर्ष के वे महापुरुष भी पुष्पांजलि अर्पण करते दृष्टिगत होते हैं, जो लोकमान्य और देश-पूज्य हैं। मेरा अभिप्राय महर्षिकल्प पं. मदन मोहन मालवीय और महात्मा गांधी से है। मालवीय जी चिरकाल से हिन्दी भाषा के लिए वध्द-परिकर और उत्सर्गीकृत-जीवन हैं।र् वत्तामान काल में उनको महात्मा गांधी की सहयोगिता भी प्राप्त हो गयी है, जिससे हिन्दी भाषा की समुन्नति और सौन्दर्य वृध्दि के लिए मणि-कांचन-योग उपस्थित हो गया है। राष्ट्रीयता के भावों के साथ देश में एक भाषा का प्रश्न भी छिड़ा। इस आन्दोलन ने हिन्दी भाषा को उस उच्च सिंहासन पर बैठाला जिसकी वह अधिकारिणी थी। आज दिन देश के बड़े-बड़े नेता तथा अधिकतर सर्वमान्य विद्वान् सम्मिलित स्वर से यही कह रहे हैं कि राष्ट्रभाषा यदि हो सकती है तो हिन्दी भाषा। इस विचार से उसमें एक नवीन स्फूर्ति आ गयी है और उसके प्रत्येक विभागों में यथेष्ट उन्नति होती दृष्टिगत हो रही है। भारतवर्ष का कोई प्रान्त ऐसा नहीं है जहाँ इस समय हिन्दी भाषा की पहुँच न हो और जहाँ से हिन्दी भाषा का कोई न कोई पत्रा अथवा पत्रिका न निकल रही हो। उसके प्रसार का भी यथेष्ट यत्न किया जा रहा है और उसके प्रत्येक विभागों के भण्डार की वृध्दि में लोग सयत्न हैं। इस समय मेरे सामने उसके पद्य-विभाग का विषय है। मैं देखना चाहता हूँ कि इस शताब्दी के आरम्भ से आज तक वह किस प्रकार उत्तारोत्तार उत्कर्ष लाभ कर रहा है।

मैं खड़ी बोली की कविता के आन्दोलन के विषय में पहले चर्चा कर आया हूँ। यह आन्दोलन सबलता से चला और उसको सफलता भी प्राप्त हुई। परंतु नियमबध्दता और स्थिरता का उसमें अभाव था। कोई ऐसा संचालक उस समय तक उसको प्राप्त नहीं हुआ था जो उसका मार्ग प्रशस्त करे और तन-मन से इस कार्य में लगकर वह आदर्श उपस्थित करे जिस पर अन्य लोग चलकर उसको उन गुणों से अलंकृत कर सकें जो सत्कविता के लिए वांछनीय होते हैं। सौभाग्य से उस समय प्रसिध्द मासिक पत्रिका 'सरस्वती' का सम्पादकत्व लाभ कर पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी कार्य-क्षेत्र में उतरे और उन्होंने इस दिशा में प्रशंसनीय प्रयत्न किया। कविताप्रणाली का मार्ग धीरे-धीरे प्रशस्त होता है। काल पाकर ही उसकी कोई पध्दति सुनिश्चित होती है। कार्य-क्षेत्र में आने पर ज्यों-ज्यों उसके दोष प्रकट होते हैं, उस पर तर्क-वितर्क और मीमांसाएँ होती हैं, त्यों-त्यों वह परमार्जित बनती है और उसमें आवश्यकतानुसार सरस, सुंदर और भावमयी पदावली का समावेश होता है। पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने जिस समय अपना कार्य प्रारम्भ किया, उस समय हिन्दी खड़ी बोली की कविता का आरम्भिक काल था। उल्लेख योग्य दस-पाँच पद्य-ग्रन्थ उस समय तक निर्मित हुए थे और भाषा एक अनिश्चित और असंस्कृत मार्ग पर चल रही थी। प्रत्येक लेखक खड़ी बोली की कविता-रचना का एक अपना सिध्दांत रखता था और उसी के अनुसार कार्यरत था। यह मैं स्वीकार करूँगा कि उर्दू भाषा का आदर्श उस समय सबके सामने था जो यथेष्ट उन्नत थी। किन्तु कई विशेष कारणों से उसका यथातथ्य अनुकरण हिन्दी भाषा की खड़ी बोली की कविता नहीं कर सकती थी। हिन्दी और उर्दू में बहुत साधारण अन्तर है। उर्दू की जननी हिन्दी भाषा ही है। कुछ लोगों का यह विचार है कि हिन्दी उर्दू के आदर्श पर बनी है। कम से कम मेरा हृदय इसको स्वीकार नहीं करता। उर्दू के क्रियापद अधिकांश हिन्दी भाषा के हैं। हिन्दी भाषा के सर्वनाम कारक और अनेक प्रत्यय उर्दू भाषा के जीवन हैं। उनके अभाव में उर्दू का अस्तित्व लोप हो जायेगा। वह परसी बन जायेगी अथवा कोई ऐसी भाषा जिसका नामकरण भी न हो सकेगा। परसी अरबी के अधिक शब्द हिन्दी में मिला कर उर्दू गढ़ी गयी है अथवा उसका आविर्भाव हुआ है। ऐसी दशा में वह हिन्दी भाषा का रूपान्तर छोड़ और कुछ नहीं है। जब उर्दू की प्रवृत्तिा अधिकतर परसी और अरबी प्रयोगों की ओर झुकी और लम्बे-लम्बे समस्त पद भी उसमें इन भाषाओं के आने लगे, उस समय वह हिन्दी से सर्वथा भिन्न ज्ञात होने लगी। यह बात हिन्दी के अस्तित्व की बाधाक थी इसलिए उसका कोई निज का मार्ग होना आवश्यक था, जिससे वह अपने मुख्य रूप को सुरक्षित रख सके। उसका अपने वास्तविक रूप में विकसित होना भी वांछनीय था। अतएव खड़ी बोली की कविता उस मार्ग पर चली जो उसका लक्ष्य था। उसके कुछ पथ-प्रदर्शक इस मार्ग को जानते थे। अतएव वे उसके लक्ष्य की ओर सतर्क होकर चल रहे थे। परन्तु कुछ लोग उर्दू की अनेक बातों का अन्धानुकरण करना चाहते थे। ऐसे अवसर पर जिन लोगों ने खड़ी बोली की कविता को उचित पथ पर चलाया उनमें से पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी अन्यतम हैं। अपनी 'सरस्वती' नामक मासिक पत्रिका में उन्होंने अधिकतर खड़ी बोली की कविता ही प्रकाशित करने की ओर दृष्टि रखी और अनेक कृत-विद्यों को इस कार्य के लिए उत्साहित करके अपनी ओर आकर्षित किया। मुझको यह ज्ञात है कि जो खड़ी बोलचाल की कविताएँ उनके पास उस समय'सरस्वती' में प्रकाशित करने के लिए जाती थीं, उनका संशोधान वे बड़े परिश्रम से करते थे और संशोधित कविता को ही'सरस्वती' में प्रकाशित करते थे। इससे बहुत बड़ा लाभ यह होता था कि खड़ी बोली की कविता करने वालों का ज्ञान बढ़ता था और वे यह जान सकते थे कि उनको किस मार्ग पर चलना चाहिए। इस प्रणाली से धीरे-धीरे खड़ी बोली की कविता का मार्ग भी प्रशस्त हो रहा था। पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इतना ही नहीं किया, उन्होंने कुछ खड़ी बोली की रचनाएँ भी कीं और इस रीति से भी उन्होंने खड़ी बोली की कविता-प्रणाली जनता के सामने उपस्थित की। उनका 'कुमार-सम्भव-सार' यद्यपि छोटी पुस्तक है,परन्तु उसकी खड़ी बोली की कविता बहुत परिमार्जित और सुंदर है। उसका प्रभाव भी उस काल की खड़ी बोली की कविता पर बहुत कुछ पड़ा। पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी संस्कृत के विद्वान् और उसके प्रेमी हैं। इसलिए उनके गद्य और पद्य दोनों की भाषा संस्कृत बहुला है। गद्य तो गद्य, उनके पद्य में भी संस्कृत के कर्कश शब्द आ गये हैं। जिसका प्रभाव उनके शिष्यों की रचना पर भी पड़ा है। आदिम अवस्थाओं में ऐसा होना स्वाभाविक था। सुधार विशेषकर कविता में, यथाक्रम ही होता है।

जो भाषा साहित्यिक बनकर बोलचाल की भाषा से अधिक दूर पड़ जाती है, काल पाकर वह साहित्य ही में रह जाती है और उसका स्थान धीरे-धीरे एक नयी भाषा ग्रहण करने लगती है। इस दृष्टि से और इस विचार से भी कि उर्दू और हिन्दी भाषा की रचनाएँ अधिकतर पास-पास हो जाएँ, कुछ मननशील विद्वानों का यह विचार हुआ कि खड़ी बोलचाल की कविता की भाषा जहाँ तक हो बोलचाल के निकट हो और उसमें अधिकतर संस्कृत के तत्सम शब्द न भरें तो अच्छा। संस्कृत शब्दमयी रचना को सर्वसाधारण समझ भी नहीं सकते। इसलिए भी बोलचाल की सरल भाषा में कविता रचने की आवश्यकता होती है। यह मैं स्वीकार करूँगा कि अन्य प्रान्तों से सम्बन्धा स्थापित करने के लिए यह आवश्यक है कि जैसे गद्य संस्कृत भाषामय होता है। वैसे ही पद्य भी हो क्योंकि संस्कृत के शब्द समान रूप से सब प्रान्तों में समझे जाते हैं। मेरा 'प्रिय-प्रवास' इसी विचार से अधिकतर संस्कृत गर्भित है। मैं इसका विरोधा नहीं करता। आवश्यकतानुसार कुछ ऐसे ग्रन्थ भी लिखे जायँ। परन्तु अधिकतर ऐसे ही ग्रन्थों की आवश्यकता है जिनकी भाषा बोलचाल की हो, जिससे अधिक हिन्दी भाषा-भाषी जनता को लाभ पहुँच सके। अभी इधार धयान बहुत कम गया है, उस समय भी ऐसी भाषा लिखने वालों को लोग कड़ी दृष्टि से देखते थे और समझते थे कि ऐसा करके वह हिन्दी भाषा के उच्च आदर्श को अधा:पतित कर रहा है। सन् 1900 ईस्वी में नागरी प्रचारिणी सभा का भवन-प्रवेशोत्सव था। उस समय मैंने एक लम्बी कविता हिन्दी भाषा सम्बन्धिानी लिखी थी। यह कविता 'प्रेम-पुष्पोपहार' के नाम से अलग पुस्तकाकार छपी है। मैंने उसे बोलचाल की भाषा में लिखा है। उत्सव में बाबू अयोधया प्रसाद खत्री भी आये थे। उन्होंने मेरे पढ़ने से पहले ही उस कविता को मुझसे लेकर पढ़ लिया। पढ़कर बहुत आनन्दित हुए, बोले-खड़ी बोली की कविता ऐसी ही भाषा में होनी चाहिए। परन्तु मेरी इस कविता को स्व. पं. बदरीनारायण चौधरी (प्रेमघन) ने उनकी दृष्टि से नहीं देखा। जब मैंने उत्सव के समय सभा में यह कविता पढ़ी तो कविता समाप्त होने पर वे मेरे पास अपने स्थान से उठकर आये और कहा कि यह उर्दू कविता है। आप इसे हिन्दी क्यों कहते हैं। मुझसे उन्होंने सभा भवन से बाहर आकर भी उसके विषय में बड़ा तर्क-वितर्क किया। बाबू काशी प्रसाद जायसवाल से भी उन्होंने उसके विषय में अनेक तर्क किये।

उस ग्रन्थ के कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं-

चार डग हमने भरे तो क्या किया।

है पड़ा मैदान कोसों का अभी।

काम जो हैं आज के दिन तक हुए।

हैं न होने के बराबर वे सभी।

हो दशा जिस जाति की ऐसी बुरी।

बन गयी हो जो यहाँ तक बेख़बर।

फिर भले ही जाय गरदन पर छुरी।

पर जो उप करने में करती है कसर।

आप ही जिसकी है इतनी बेबसी।

है तरसती हाथ हिलाने के लिए।

आस हो सकती है उससे कौन सी।

हो सके हैं क्या भला उसके किये।

कम नहीं जिन से ऍंधोरी टूटती।

भूल सकता है समय जिनको नहीं।

पर अमावस के सितारों की तरह।

लोग जो इसमें चमकते हैं कहीं।

ये पद्य बिलकुल बोलचाल के हैं। इनमें कुछ शब्द परसी के भी आ गये हैं। इसलिए प्रेमघन जी ने इनको हिन्दी का पद्य नहीं माना। इतना ही नहीं, मुझसे ही तर्क-वितर्क करके वे शान्त नहीं हुए, उसकी चर्चा उन्होंने उक्त बाबू साहब से भी की,जिससे पाया जाता है कि उस समय हिन्दी के ऐसे लब्धा-प्रतिष्ठ विद्वान् भी हिन्दी की खड़ी बोली रचना के विषय में क्या विचार रखते थे। पंडित जी का तर्क यह था कि जो हिन्दी छन्दों में कविता की जावे और संस्कृत तत्सम शब्द जिसमें अधिक आवें,वही खड़ी बोली की हिन्दी कविता मानी जा सकती है अन्यथा वह उर्दू है। मेरी रचना में हिन्दी के तद्भव शब्द अधिक आये हैं,और कहीं-कहीं परसी के शब्द भी आ गये हैं, संस्कृत के तत्सम शब्द कम हैं, इसीलिए वे उसको हिन्दी की रचना मानने के लिए तैयार नहीं थे। उस समय हिन्दी की खड़ी बोली कविता के लिए अधिकतर लोगों के ये ही विचार थे। अब भी कुछ लोगों के ये ही विचार हैं! मैं इस विचार से सहमत नहीं हूँ। तद्भव शब्दों में लिखी गई शिष्ट बोलचाल की हिन्दी ही वास्तव में खड़ी हिन्दी भाषा की रचना कही जा सकती है और ऐसी ही रचना सर्वसाधारण के लिए उपकारक हो सकती है। इस तर्क का कोई अर्थ नहीं कि यदि 'अइली-गइली' का प्रयोग किया जावे, और ग्रामीण भाषा लिखी जावे, तब तो वह हिन्दी है और यदि शिष्ट बोलचाल की भाषा के आधार से तद्भव शब्दों में हिन्दी भाषा की कविता लिखी जावे तो वह उर्दू है। यह बिलकुल अयथा विचार है। कुछ मुसलमान विद्वानों का विचार भी ऐसा ही है। वे 'ज़फर' और 'नज़ीर' की निम्नलिखित रचनाओं को उर्दू की कहते हैं, हिन्दी की नहीं-

1. यों ही बहुत दिन गुड़िया मैं खेली।

कभी अकेली कभी दुकेली।

जिससे कहा चल तमाशा दिखला।

उसने उठा कर गोदी में ले ली।

कुछ कुछ मोहें समझ जो आई।

एक जा ठहरी मोरी सगाई।

आवन लागे बाम्हन नाई।

कोई ले रुपया कोई ले धोली।

व्याह का मेरे समाँ जब आया।

तेल चढ़ाया मढ़ा छवाया।

सालू सूहा सभी पिन्हाया।

मेंहदी से रँग दिये हाथ हथेली।

सासरे के लोग आये जो मेरे।

ढोल दमामे बजे घनेरे।

सुभ घड़ी सुभ दिन हुए जो फेरे।

सइयां ने मोहें हाथ में लेली।

- ज़पर

2. यारो सुनो ए दधि के लुटैया का बालपन।

औ मधुपुरी नगर के बसैया का बालपन।

मोहन सरूप नृत्य करैया का बालपन।

बन बन में ग्वाल गौएं चरैया का बालपन।

ऐसा था बाँसुरी के बजैया का बालपन।

क्या क्या कहूँ मैं कृष्ण कन्हैया का बालपन।

परदे में बालपन के ये उनके मिलाप थे।

जोती सरूप कहिये जिन्हें सो वो आप थे।

- नज़ीर

परन्तु, हम देखते हैं कि इंशा अल्ला खाँ ठेठ हिन्दी लिखने का प्रण करके भी अपनी 'रानी केतकी की कहानी' में निम्नलिखित पद्यों को लिखते हैं-

आतियाँ जातियाँ जो साँसें हैं।

उनके बिन धयान यह सब फाँसें हैं।

बात यह है कि इंशा इनको हिन्दी का पद्य ही समझते हैं। शिष्ट भाषा में लिखे जाने के कारण वे उनको उर्दू नहीं मानते। यदि वे उनको उर्दू मानते तो उन्हें अपने ठेठ हिन्दी के ग्रन्थ में स्थान न देते। उनका सोचना ठीक था। जो उन पद्यों को उर्दू कहते हैं वे यह समझते ही नहीं कि हिन्दी किसे कहते हैं। तद्भव शब्दों में लिखी गई हिन्दी वास्तविक हिन्दी है। उसमें संस्कृत के तत्सम शब्द मिल जायँ तो भी वह हिन्दी है। उर्दू उसको किसी प्रकार से नहीं कहा जा सकता। बोलचाल के उर्दू शब्द मिल जाने पर भी वह हिन्दी ही रहेगी, उर्दू तब भी न होगी। अधिकतर परसी अरबी के शब्द मिलने ही पर उसको उर्दू नाम दिया जा सकेगा। फिर भी वह हिन्दी का रूपान्तर मात्रा है। क्योंकि जब तक क्रिया, कारक, सर्वनाम हिन्दी के रहेंगे तब तक कुछ अन्य भाषा के शब्द उसके हिन्दी कहलाने का अधिकार नहीं छीन सकते। मुझको इसकी चर्चा यहाँ इसलिए करनी पड़ी कि इस शताब्दी के आरम्भ में खड़ी बोली की पद्य रचना का विषय कितना विवादास्पद था। इस समय यह विषय बहुत स्पष्ट हो गया है, पर अब भी अधिकतर खड़ी बोलचाल की हिन्दी कविता में तत्सम संस्कृत शब्दों का ही प्रयोग होता है। मेरा विचार है कि अब वह समय आ गया है कि सरल और तद्भव शब्दों ही में खड़ी बोली की कविता की जावे, जिसमें कहीं-कहीं कोमल,मधुर एवं सरस संस्कृत शब्दों का प्रयोग भी हो। मैंने अपने चुभते चौपदे, चोखे चौपदे, बोलचाल नामक ग्रन्थों की रचना इसी आदर्श पर कीहै।

पण्डित महावीर प्रसाद द्विवेदी के उपरान्त बहुत-से खड़ी बोली के कवि हिन्दी संसार के सामने आये। उनमें कुछ ऐसे हैं जिन्होंने इस क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया है। मैं उनकी चर्चा कर देना आवश्यक समझता हूँ। इन कवियों में अधिकतर पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी के 'स्कूल' वाले ही हैं। कोई-कोई ऐसे हैं जिनका मार्ग भिन्न है। भिन्न मार्गियों में सबसे पहले मेरी दृष्टि स्व. लाला भगवानदीन की ओर जाती है। इसलिए पहले मैं उनकी चर्चा करके तब आगे बढूँगा।

1. लाला भगवानदीन प्रसिध्द साहित्य-सेवियों में थे। प्राचीन साहित्य के अच्छे मर्मज्ञ थे। उन्होंने कई ग्रन्थों की सुन्दर टीकाएँ लिखी हैं और अलंकार का भी एक ग्रंथ प्रचलित गद्य में निर्माण किया है। वे अच्छे समालोचक भी थे। उन्होंने पद्य में भी चार-पाँच ग्रन्थ लिखे हैं। वे ब्रजभाषा में ही पहले कविता करते थे। बाद को खड़ी बोली की ओर प्रवृत्ता हुए। वे कायस्थ थे,इसलिए परसी और उर्दू का ज्ञान भी उनका यथेष्ट था। उनकी खड़ी बोली की हिन्दी कविता की विशेषता यह है कि उन्होंने उसमें उर्दू का रंग उत्पन्न करने की चेष्टा की और अरबी शब्दों से भी काम लिया। उनके 'वीर प×चरत्न' और 'वीर-माता'नामक ग्रन्थ ऐसे ही हैं। उनकी रचना के कुछ नमूने नीचे दिये जाते हैं-

चाँदनी

1. लिख रही है आज कैसी

भूमि तल पर चाँदनी।

खोजती फिरती है किसको

आज घर घर चाँदनी।

घन-घटा घूँघट हटा मुसकाई

है कुछ ऋतु शरद।

मारी मारी फिरती है इस

हेतु दर दर चाँदनी।

रात की तो बात क्या दिन में

भी बन कर कुंद कास।

छाई रहती है बराबर

भूमि तल पर चाँदनी।

सेत सारी युक्त प्यारी

की छटा के सामने।

जँचती है ज्यों फूल के

आगे हो पीतर चाँदनी।

स्वच्छता मेरे हृदय की

देख लेगी जब कभी।

सत्य कहता हूँ कि कँप

जायेगी थर थर चाँदनी।

नाचने लगते हैं मन

आनन्दियों के मोद से।

मानुषी मन को बना

देती है बन्दर चाँदनी।

भाव भरती है अनूठे

मन में कवियों के अनेक।

इनके हित हो जाती है

जोगी मछन्दर चाँदनी।

वह किसी की माधुरी

मुसकान की मनहर छटा।

' दीन ' को सुमिरन करा

देती है अकसर चाँदनी।

2. होमर जो यूनान का कवि आदि कहाया।

उसने भी सुयश वीरों का है जोश से गाया।

फिरदोसी ने भी नाम अमर अपना बनाया।

जब परसी वीरों का सुयश गाके सुनाया।

सब वीर किया करते हैं सम्मान वलम का।

एक पद्य ब्रजभाषा का देखिए-

सघन लतान सों लखात बरसात छटा

सरद सोहात सेत फूलन की क्यारी में।

हिमऋतु काल जल जाल के फुहारन में

शिशिर लजात जान पाटल कतारी में।

सौरभित पौन ते बसन्त दरसात नित

ग्रीषम लौं दुख दहक्यो है चटकारी में।

दीन कवि सोभाषट ऋतु की निहारी सदा

जनक कुमारी की पियारी फुलवारी में।

2. पं. गयाप्रसाद शुक्ल वर्तमान कवियों में विशेष स्थान के अधिकारी हैं। आपकी राष्ट्रीय रचनाएँ बड़ी ओजस्विनी हैं और खड़ी बोली के क्षेत्र में आपका यही उल्लेखनीय कार्य है। खड़ी बोली की कविता में आपने जातीयता का वह राग अलापा है,जिसकी धवनि हृदयों में ओज का संचार करती रहती है। आपकी राष्ट्रीय कविताएँ त्रिसूल नाम से निकली हैं। आपने अपने'सनेही' उपनाम से जो रचनाएँ की हैं, वे बड़ी ही सरस और मधुर हैं। आप ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों ही भाषाओं में रचना करते हैं। किन्तु आपकी प्रसिध्दि खड़ी बोली की रचनाओं के लिए ही है। क्योंकि उनकी पंक्तियाँ प्राय: बड़ी सजीव होती हैं। आप 'सुकवि' नामक एक मासिक पत्रिका भी निकालते हैं। उनकी दोनों भाषाओं की कुछ कविताएँ नीचे लिखी जातीहैं।

वह बेपरवाह बने तो बने

हमको इसकी परवाह का है।

वह प्रीति का तोड़ना जानते हैं

ढँग जाना हमारा निबाह का है।

कुछ नाज़ जप पर है उनको

तो भरोसा हमें बड़ा आह का है।

उन्हें मान है चन्द्र से आनन पै

अभिमान हमें भी चाह का है।

दाह रही दिल में दिन द्वैक बुझी

फिर आपै कराह नहीं अब।

मानि कै रावरे रूरे चरित्रा गुन्यो

हिय में कि निबाह नहीं अब।

चाहक चारु मिले तुमको चित

माँहि हमारे भी चाह नहीं अब।

जो तुममें न सनेह रहा हमको भी

नहीं परवाह रही अब।


रावन से बावन बिलाने हैं बचे न एक

चाल नहिं काल से किसी की चल पाई है।

कौरव कुटिल कुल कुल के कुठार भये

कृष्ण जू से कंस की न दाल गल पाई है।

हाय की हवा सों जल गये हैं जवन जूथ

हासिल हुकुम पै न लागे पल पाई है।

याते बल पाय फल पाय लेहु जीवन को

दीन कलपाय कहो कौने कलपाई है।


चित्ता के चाव चोचले मन के

वह बिगड़ना घड़ी घड़ी बन के।

चैन था नाम था न चिन्ता का

थे दिवस और ही लड़कपन के।

झूठ जाना कभी न छल जाना

पाप का पुण्य का न फल जाना।

प्रेम वह खेल से खिलौनों से

चन्द तक के लिए मचल जाना।

चन्द्र था और और ही तारे

सूर्य भी और थे प्रभा धारे।

भूमि के ठाट कुछ निराले थे

धूलिकण थे बहुत हमें प्यारे।

सब सखा शुध्द चित्ता वाले थे

प्रौढ़ विश्वास प्रेम पाले थे।

अब कहाँ रह गईं बहारें वे

उन दिना रंग ही निराले थे।


सत्य रूप हे नाथ तुम्हारी शरण गहूँगा।

जो व्रत है ले लिया लिये आमरण रहूँगा।

ग्रहण किये मैं सदा आपके चरण रहूँगा।

भीत किसी से और न हे भयहरण रहूँगा।

पहली मंज़िल मौत है प्रेम पंथ है दूर का।

सुनता हूँ मत था यही सूली पर मंसूर का।

3. पंडित रामचरित उपाधयाय ने खड़ी बोली की कविता करने में कीर्ति अर्जन की है। वे भी वर्तमान काल के प्रसिध्द कवियों में हैं। वे संस्कृत के विद्वान हैं और हिन्दी भाषा पर भी उनका अच्छा अधिकार है। पहले वे ब्रजभाषा में कविता करते थे। उन्होंने बिहारीलाल के ढंग पर एक सतसई भी लिखी है। परन्तु अब तक वह हिन्दी संसार के सामने नहीं आई। उन्होंने'रामचरित-चिन्तामणि' नामक एक बड़ा काव्य खड़ी बोली में लिखा है और इसके अतिरिक्त और भी पाँच-सात पुस्तकें खड़ी बोली ही में लिखी हैं। खड़ी बोली की रचना करने में ये निपुण हैं और शुध्द भाषा लिखने की अधिकतर चेष्टा करते हैं। इनकी भाषा प्राय: संस्कृत-शैली की होती है और उसमें संस्कृत के ढंग से ही भाव-प्रकाशन देखा जाता है। इनकी रचनाओं में भी सामयिकता पाई जाती है, अन्योक्ति द्वारा व्यंग्य करने में आप अपने समान आप हैं। उनका वाक्य-विन्यास प्राय: मधुर, कोमल और सरस है। ये ही खड़ी बोली के ऐसे कवि हैं जिन्होंने जब से उसकी सेवा का व्रत लिया, अन्य भाषा की ओर प्रवृत्ता नहीं हुए। उनकी कुछ रचनाएँ नीचे दी जाती हैं-

सरसता सरिता जयिनी जहाँ

नव नवा नव नीति पदावली।

तदपि हा! वह भाग्यविहीन की

सुकविता कवि ताप करी हुई।

मन रमा रमणी रमणीयता

मिल गयीं यदि ये विधि योग से।

पर जिसे न मिली कविता-सुधा

रसिकता सिकता सम है उसे।

सुविधि से विधि से यदि है मिली

रसवती सरसीव सरस्वती।

मन तदा तुझ को अमरत्वदा

नव सुधा बसुधा पर ही मिली।

चतुर है चतुरानन सा वही

सुभग भाग्य विभूषित भाल है।

मन जिसे मन में पर काव्य की

रुचिरता चिर ताप करी न हो।

बातें थी करती सखी सँग

मुझे तो भी रही देखती।

गत्वा सा कतिचित् पदानि

सुमुखी आगे खड़ी हो गयी।

जाने क्यों हँसती चली फिर गयी

क्या मोहिनी मूर्ति थी।

स्वप्ने साथ न दृश्यते क्षण-

महो हा राम मैं क्या करूँ।

ऐनक दिये तने रहते हैं।

अपने मन साहब बनते हैं।

उनका मन औरों के काबू।

क्यों सखि सज्जन नहिं सखि बाबू।

ठठरी उसकी बच जाती है।

जिसको हा वह धार पाती है।

छुड़ा न सकते उसे हकीम।

क्यों सखि डाइन नहीं अपीम।

4. पं. रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी गद्य के एक मननशील गम्भीर लेखक हैं। किन्तु उन्होंने खड़ी बोलचाल के पद्य लिखने में भी विशेषताएँ दिखलाई हैं, इसलिए उनका कुछ वर्णन यहाँ भी आवश्यक ज्ञात होता है। वे भी ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों में भावमयी रचना करने में समर्थ हैं। (लाइट ऑफ एशिया) 'Light of si' का जो अनुवाद उन्होंने ब्रजभाषा में किया है, उसमें उनकी विलक्षण प्रतिभा का विकास हुआ है। पढ़ने से उस ग्रन्थ में मौलिकता का-सा आनन्द आता है। ऐसा सरस और सुन्दर अनुवाद दुर्लभ है। खड़ी बोलचाल की रचनाएँ उनकी थोड़ी ही हैं, परन्तु उनमें भी विलक्षणता है। प्रकृति-निरीक्षण-सम्बन्धिानी कविताएँ हिन्दी साहित्य में अल्प मिलती हैं। उन्होंने यह कार्य करके इस न्यूनता की बहुत कुछ पूर्ति की है और खड़ी बोली को एक नवीन उपहार प्रदान किया है। उनकी इस प्रकार की कुछ रचनाएँ नीचे लिखी जाती हैं-

दृग के प्रतिरूप सरोज हमारे

उन्हें जग ज्योति जगाती जहाँ ;

जलबीच कलम्ब करम्बित कूल से

दूर छटा छहराती जहाँ ;

घन अंजन वर्ण खड़े तृण ताल की

झाँई पड़ी दरसाती जहाँ ;

बिखरे बक के निखरे सित पंख

बिलोक बकी बिक जाती जहाँ ;

निधि खोल किसानों के धूल सने

श्रम का फल भूमि बिछाती जहाँ ;

चुनके कुछ चोंच चला करके

चिड़िया निज भाग बँटातीं जहाँ ;

कगरों पर कास की फैली हुई

धावली अवली लहराती जहाँ ;

मिल गोपों की टोली कछार के

बीच है गाती औ गाय चराती जहाँ ;

जननी धारणी निज अंक लिये

बहु कीट पतंग खिलाती जहाँ ;

ममता से भरी हरी बाँह की छाँह

पसार के नीड़ बसाती जहाँ ;

मृदु वाणी मनोहरवर्ण अनेक

लगा कर पंख उड़ाती जहाँ ;

उजली कँकरीली तटी में धाँसी

तनु धार लटी बल खाती जहाँ ;

दल राशि उठी खरे आतप में

हिल चंचल औंधा मचाती जहाँ ;

उस एक हरे रँग में हलकी

गहरी लहरी पड़ जाती जहाँ ;

कलकर्बुरतानभ की प्रतिबिम्बित

खंजन में मन भाती जहाँ ;

कविता वह हाथ उठाये हुए

चलिये कविवृंद बुलाती वहाँ।

5. पंडित गोकुलचन्द्र शर्मा एम. ए. उन चुपचाप कार्य करने वालों में हैं जो ख्याति के पीछे न पड़कर अपनेर् कर्तव्य का पालन करते हैं। किसी जाति के उत्कर्ष और सभ्यता को परिमार्जित रूप से निष्पन्न करने के लिये महापुरुषों के चरित्रों और जीवनियों की बड़ी आवश्यकता होती है। विशेषकर उस अवस्था में जब देश और समाज की प्रवृत्तिा राष्ट्रीयता की ओर आकर्षित हो। खड़ी बोली की कविता के उत्थान के समय यदि किसी सुकवि की दृष्टि इधार आकर्षित हुई तो वे पं. गोकुलचन्द्र शर्मा हैं। उनके 'गांधी-गौरव', 'तपस्वी-तिलक' नामक दो ग्रन्थ महापुरुषों के इतिवृत्ता के रूप में लिखे गये हैं, जो सामयिकता के आदर्श उपहार हैं। इन दोनों ग्रन्थों की जैसी उत्ताम और परिमार्जित भाषा है, वैसी ही विचारशैली और भाव-प्रवीणता। उन्होंने और भी छोटे-मोटे गद्य-पद्य ग्रन्थ लिखे हैं, परन्तु उनके प्रधान ग्रन्थ ये ही दो हैं। जो इस योग्य हैं कि उन्हें खड़ी बोली के कविता-क्षेत्र में एक उल्लेख योग्य स्थान प्रदान किया जावे। उनके कुछ पद्य देखिए-

इच्छा हमें नहीं है भगवन् हो सम्पत्तिा हमारे पास।

नहीं चाहिए प्रासादों का वह विलास मय सुखद निवास।

सोवें सूखी तृण शय्या पर कर फल पत्ताों पर निर्वाह।

पर समता का हृदय भूमि पर स × चालित हो प्रेम प्रवाह।

दृष्टि हमारी धुँधाली होकर धोखा कभी न दे सर्वेश।

भ्रातृ भाव के शीशे में से देखें बन्धुवर्ग के क्लेश।

पतिता जन्म भूमि के हित हो बच्चा-बच्चा बीर बराह।

रुधिर रूप में उमड़े अच्युत हृन्निर्झर से प्रेम प्रवाह 2

6. पंडित रामनरेश त्रिपाठी एक प्रतिभावान पुरुष हैं। उनकी समस्त रचनाओं में कुछ-न-कुछ विशेषता पाई जाती है। यह उनकी प्रतिभा का ही फल है। उनकी लेखनी आदि से ही खड़ी बोली की सेवा में रत है। उन्होंने दो खंड काव्य खड़ी बोली में लिखे हैं। दोनों सुंदर हैं और सामयिकता पूर्णतया उनमें विराजमान है। उनकी भाषा परिमार्जित और सुन्दर है। खड़ी बोली का विशेष आदर्श सामने उपस्थित न होने पर भी उन्होंने उसकी रचना करने में जितनी सफलता लाभ की है वह कम नहीं है। उनकी रचनाएँ भावमयी हैं और उनमें आकर्षण और मार्मिकता भी है। उन्होंने 'कविता-कौमुदी' नामक ग्रन्थमाला का संकलन कर और 'ग्रामगीत' नामक एक सुन्दर संग्रह प्रस्तुत कर हिन्दी भाषा की अच्छी सेवा की है। ऐसी रचनाएँ अथवा कविताएँ जो देश में प्रचलित हैं, पर्वोत्सवों पर गाई जाती हैं, विवाह और यज्ञोपवीत आदि के अवसरों पर स्त्रिायों के कण्ठों से सुनी जाती हैं,या जिनको ग्रामीण जन-श्रुति परम्परा से स्मरण रखते आये हैं, उनके उध्दार की उनकी प्रवृत्तिा आदरणीय है। इस प्रकार की रचनाओं में सरसता, हृदय-ग्राहिता, मधुरता की कमी नहीं है। उनमें आकर्षण भी बड़ा है, उपयोगिता भी कम नहीं। फिर भी अब तक वे कंठाग्र ही रहती आई हैं। कुछ लोगों की प्रवृत्तिा उनको पुस्तक रूप में परिणत करने की पाई गई, किन्तु जैसी चाहिए वैसी लगन के अभाव में उनको इस विषय में सफलता नहीं मिली। पंडित रामनरेश त्रिपाठी को इस विषय में यथेष्ट सफलता मिल रही है। यह उनकी सच्ची लगन और वांछनीय प्रवृत्तिा ही का फल है, जिसकी बहुत कुछ प्रशंसा की जा सकती है। हिन्दी-संसार उनकी इस प्रकार की कृतियों का आदर कर रहा है और आशा है आगे भी वे आदृत होंगी। उनकी कुछ रचनाएँ नीचे दी जाती हैं-

होते जो किसी के बिरहाकुल हृदय हम।

होते यदि ऑंसू किसी प्रेमी के नयन के।

गर पतझड़ में बसंत की बयार होते।

होते हम कहीं जो मनोरथ सुजन के।

दुख दलितों में हम आस की किरन होते।

होते यदि शोक अविवेकियों के मन के।

मानते तो विधि का अधिक उपकार हम

होते गाँठ के धानी कहीं जो दीन जन के।

मैं ढूँढ़ता तुझे था जब कुंज और बन में।

तू खोजता मुझे था तब दीन के वतन में।

तू आह बन किसी की मुझको पुकारता था।

मैं था तुझे बुलाता संगीत में भजन में।

मेरे लिए खड़ा था दुखियों के द्वार पर तू।

मैं बाट जोहता था तेरी किसी चमन में।

बन कर किसी का ऑंसू मेरे लिए बहा तू।

मैं देखता तुझे था माशूक के बदन में।

मैं था विरक्त तुझसे जग की अनित्यता पर।

उत्थान भर रहा था तब तू किसी पतन में।

तेरा पता सिकन्दर को मैं समझ रहा था।

पर तू बसा हुआ था परहाद कोहकन में।

7. बाबू मैथिलीशरण गुप्त हिन्दी-संसार के प्रसिध्दि प्राप्त सुकवि हैं। हिन्दी देवी की सेवा करने वाले और उसके चरणों पर अभिनव पुष्पांजलि अर्पण करने वाले जो कतिपय सर्व-सम्मत, सहृदय भावुक हैं, उनमें आप भी अन्यतम हैं। आप खड़ी बोली कविता के अनन्य भक्त हैं और अब तक उसमें अनेक ग्रन्थों की रचना आपने की हैं। उन्होंने स्वयं ही रचना करके हिन्दी भाषा के भण्डार को नहीं भरा है, कई ग्रन्थों का सरस अनुवाद करके भी उसकी पूर्ति की चेष्टा की है। अनुवादित ग्रन्थों में बँगला मेघनाद का अनुवाद विशेष उल्लेख-योग्य है। जो एक विशाल ग्रन्थ है। उनका 'भारत-भारती' नामक ग्रन्थ देश-प्रेम से ओत-प्रोत है। उसका आदर भी बहुत अधिक हुआ। खड़ी बोली के किसी ग्रन्थ के इतने अधिक संस्करण नहीं हुए जितने'भारत-भारती' के। काव्य की दृष्टि से वह उच्च कोटि का न हो, परन्तु उपयोगिता उसकी सर्व-स्वीकृत है। उनकी भाषा की शुध्दता की प्रशंसा है। वे निस्सन्देह शब्दों को शुध्द रूप में लिखते हैं। यद्यपि इससे उनकी भाषा प्राय: क्लिष्ट हो जाती है। उन्होंने 'साकेत' नामक एक महाकाव्य भी लिखा है, जो प्रकाशित भी हो चुका है। उनकी रचना के समस्त गुण इसमें विद्यमान हैं। इस ग्रन्थ में भाषा की कोमलता, मधुरता और सरसता की ओर उनकी दृष्टि अधिक गई है। इसलिए इसमें ये बातें अधिक मात्रा में पाई जाती हैं। उन्होंने कई खंड काव्य लिखे हैं। 'झंकार' नामक एक पुस्तिका भी उन्होंने हाल में प्रकाशित की है। यह पुस्तिका भी भाव और भाषा दोनों की दृष्टि से सरस, सुन्दर और मधुर है। उनकी कुछ रचनाएँ नीचे लिखी जातीहैं-

1. इस शरीर की सकल शिराएँ

हों तेरी तन्त्राी के तार।

आघातों की क्या चिन्ता है

उठने दे उनकी झंकार।

नाचे नियति प्रकृति-सुर साधो

सब सुर हों शरीर साकार।

देश देश में काल काल में

उठे गमक गहरी गुंजार।

कर प्रहार हाँ , कर प्रहार तू

मार नहीं यह तो है प्यार।

प्यारे और कहूँ क्या तुझसे

प्रस्तुत हूँ मैं हूँ तैयार।

मेरे तार तार से तेरी

तान तान का हो विस्तार।

अपनी ऍंगुली के धाक्के से

खोल अखिल श्रुतियों के द्वार।

ताल ताल पर भाल झुका कर

मोहित हों सब बारंबार।

लय बँधा जाय और क्रम क्रम से

सब में समा जाय संसार।

2. तुम्हारी वीणा है अनमोल।

हे विराट जिसके दो तूंबे हैं भूगोल खगोल।

दयादण्ड पर न्यारे न्यारे चमक रहे हैं प्यारे प्यारे।

कोटि गुणों के ताल तुम्हारे खुली प्रलय की खोल।

तुम्हारी वीणा है अनमोल।

हँसता है कोई रोता है जिसका जैसा मन होता है।

सब कोई सुधा बुधा खोता है क्या विचित्र है बोल।

तुम्हारी वीणा है अनमोल।

इसे बजाते हो तुम जबलौं नाचेंगे हम सब भी तबलौं

चलने दो न कहो कुछ कबलौं यह क्रीड़ा-कल्लोल।

तुम्हारी वीणा है अनमोल।

8. बाबू सियाराम शरणगुप्त बाबू मैथिली शरण गुप्त के लघु भ्राता हैं। वे भी सुन्दर कविता करते हैं और वास्तव में अपने ज्येष्ठ भ्राता की दूसरी मूर्ति हैं। वे उनके सहोदर तो हैं ही, समान-हृदय भी हैं। उनकी रचना की विशेषता यह है कि उनकी पदावली कोमल एवं कान्त होती है। इस विषय में वे अपने बड़े भाई से भी बड़े हैं। उनकी रचना में मार्मिकता के साथ-साथ मधुरता भी होती है। उन्होंने पाँच-चार पद्य-ग्रंथों की रचना की है। उनकी भी समस्त रचनाएँ खड़ी बोली ही में हैं। उनकी रचनाएँ थोड़ी भले ही हों, परन्तु खड़ी बोली की शोभा हैं। उनके कुछ पद्य देखिए-

जग में अब भी गूंज रहे हैं गीत हमारे।

शौर्य वीर्य गुण हुए न अब भी हमसे न्यारे।

रोम मिश्र चीनादि काँपते रहते सारे।

यूनानी तो अभी अभी हमसे हैं हारे।

सब हमें जानते हैं सदा भारतीय हम हैं अभय।

फिर एक बार हे विश्व तुम गाओ भारत की विजय।

9. पंडित लोचन प्रसाद पाण्डेय मधयम प्रान्त के प्रसिध्द कवि हैं। आपने छोटी- बड़ी पचीस-तीस गद्य-पद्य पुस्तकें लिखी हैं। आप उड़िया भाषा में भी कविता करते हैं। मधयप्रान्त जैसे दूर के निवासी होकर भी उन्होंने खड़ी बोलचाल में सरस रचनाएँ की हैं। उनकी रचनाओं का आदर उनके प्रान्त में विशेष है और प्राय: पाठशालाओं में उनकी पुस्तकें कोर्स के रूप में गृहीत हैं। डॉक्टर जी.ए. ग्रियर्सन ने भी उनकी कविता-पुस्तकों की प्रशंसा की है। मधय प्रदेश में खड़ी बोली की कविता-सम्बन्धी जागृति उत्पन्न करने में आपका विशेष हाथ है। इस विषय में आपने अपनी कविता द्वारा भी विशेष प्रभाव डाला है। जैसा भावमय उनका हृदय है, वैसी ही भावमयी उनकी भाषा। उनका पद विन्यास भी तुला हुआ और सरस होता है। भरती के शब्दों से वे बहुत बचते हैं। उनकी कविता में ओज के साथ माधुर्य भी है और सहृदयता के साथ सामयिकता भी। उनके कुछ पद्य भी देखिए-

भोले भाले कृषक देश के अद्भुत बल हैं।

राज मुकुट के रत्न कृषक के श्रम के फल हैं।

कृषक देश के प्राण कृषक खेती की कल हैं।

राजदण्ड से अधिक मान के भाजन हल हैं।

हल की पूजा दिव्य देश गौरव-सम्बल है।

हल की पूजा सभ्य जाति का व्रत निर्मल है।

हल की पूजा देश शान्ति का नियम अचल है।

हल की पूजा मुक्ति भुक्ति का मार्ग विमल है।


कमल कुल छटा है लोचन प्राणहारी।

जिन पर करते हैं भृंग गुंजार प्यारी।

मधुमय बहती है माधाव प्रीति धारा।

कब बन सकते हैं ये तुझे शान्ति द्वारा।

विधिवत् चलता है देख संसार सारा।

थकित कब हुई है लोक में कर्मधारा।

दुख रज भय बाधा विश्व में है सदा से।

कब जग रुकता है एक की आपदा से।

10. पं. रूपनारायण पाण्डेय हिन्दी-संसार के प्रसिध्द अनुवादक हैं। आपने जितने ग्रन्थों का अनुवाद किया है, उनकी संख्या पचास से भी ऊपर है। इस कार्य में ये सिध्दहस्त हैं और ख्याति प्राप्त सहृदय हैं, इसलिए सरस कविता भी करते हैं। आपकी कुछ कविता-पुस्तकें छपी भी हैं और उनकी यथेष्ट प्रशंसा भी हो चुकी है। पहले ये ब्रजभाषा में कविता करते थे, बाद में खड़ी बोली के क्षेत्र में आये और कीर्ति भी पायी। उनकी खड़ी बोली की कविता में विशेषता यह है कि उसमें भावुकता तरंगायित मिलती है। उनका शब्द-विन्यास भी सुन्दर होता है जिसमें एक मधुर लचक पायी जाती है। कुछ पद्य ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों के नीचे दिये जाते हैं-

सारद विसारद विसारद को पारद

विरंचि हरि नारद अधीन कहियत है।

मण्डित भुजा में बर बीना है प्रवीना जू के

एक कर अभय बरादि गहियत है।

चहियत पद अवलम्ब अम्ब तेरे

पाय हरख कदम्ब ना बिलंब सहियत है।

हरन हजार दुख सुख के करन चारु

चरन सरन मैं सदा ही रहियत है।

बुध्दि विवेक की जोति बुझी

ममता मद मोह घटा घन घेरी।

है न सहारो अनेकन हैं

ठग पाप के पन्नग की रहै फेरी।

त्यों अभिमान को कूप इतै

उतै कामना रूप सिलान की ढेरी।

तू मन मूढ़ सम्हारि चलै किन

राह न जानी है रैनि ऍंधोरी।

अहह अधाम ऑंधी आ गयी तू कहाँ से।

प्रलय घन घटा-सी छा गयी तू कहाँ से।

पर दुख-सुख तूने हा न देखा न भाला।

कुसुम अधाखिला ही हाय क्यों तोड़ डाला।

तड़प-तड़प माली अश्रु-धारा बहाता।

मलिन मलिनियाँ का दुख देखा न जाता।

निठुर फल मिला क्या व्यर्थ पीड़ा दिये से।

इस नव लतिका की गोद सूनी किये से।

सहृदय जन का जो कण्ठ का हार होता।

मुदित मधुकरी का जीवनाधार होता।

वह कुसुम रँगीला धूल में जा पड़ा है।

नियति नियम तेरा भी बड़ा ही कड़ा है।

बाबू गोपालशरणसिंह ने खड़ी बोल-चाल में कवित्ता और सवैयों की रचना कर थोड़े ही समय में अच्छी कीर्ति पाई है। खड़ी बोलचाल के कवियों में से कतिपय सुकवियों ने ही कवित्ता और सवैयों की रचना कर सफलता लाभ की है। अधिकांश खड़ी बोली के अनुरक्त कवि कवित्ता और सवैयों मेंं रचना पसन्द नहीं करते और रचना करने पर सफल भी नहीं होते। बाबू गोपालशरण सिंह की लेखनी ने यह दिखला दिया कि उक्त वर्ण वृत्ताों में भी खड़ी बोली की कविता उत्तामता के साथ हो सकती है। उन्होंने अपनी रचनाओं में खड़ी बोली की ऐसी मँजी भाषा लिखी है, जो उनकी कृति को मधुर और सरस तो बनाती ही है, हृदयग्राही भी कर देती है। वे शुध्द भाषा लिखने की चेष्टा करते हैं। पर ब्रजभाषा और अवधी के सुन्दर शब्दों का भी उपयुक्त स्थानों पर प्रयोग करने में संकोच नहीं करते। उन्होंने अपनी कविताओं के संग्रह का नाम 'माधावी' रखा है। मैं कहूँगा, उनकी कविता-पुस्तक का यह सार्थक नाम है। वास्तव में वह मधुमयी है। उनके कुछ पद्य नीचे दिये जाते हैं-

बार बार मुख घनियों का नहीं देखता तू

झूठी चाटुकारि नहीं उनको सुनाता है।

सुनता नहीं तू कटु वाक्य अभिमान सने

पीछे भी कदापि उनके नहीं तू धाता है।

खाता है नवीन तृण तो भी तू समय में ही

सोता सुख से ही जब निद्राकाल आता है।

कौन ऐसा उग्र तप तूने था किया कुर ú

जिससे स्वतन्त्राता समान सुख पाता है।


इस नादान निगोड़े मन को

किस प्रकार समझाऊँ।

इसकी उलझन सुलझ न सकती

मैं कैसे सुलझाऊँ।

स्वयं मुझे कुछ नहीं सूझता

क्या मैं इसे सुझाऊँ।

बिना स्वाति जल के चातक की

किस विधा प्यास बुझाऊँ।

होकर भी मैं विमन कहाँ

तक मन की बात छिपाऊँ।

मन जिसके हित विकल हो

रहा उसे कहाँ मैं पाऊँ।

है यह मचल रहा बालक सा

किस विधि मैं बहलाऊँ।

इसके लिये कहाँ से मैं

वह चन्द्र खिलौना लाऊँ।

12. मैं सुभद्रा कुमारी चौहान की चर्चा यहाँ गौरवपूर्वक करता हूँ। इसलिए कि उन्होंने ही स्त्री-कवियों में खड़ी बोली की रचना करने में सफलता पाई। अभी हाल ही में सुन्दर कृति के लिए 500 का सकसेरिया पुरस्कार साहित्य-सम्मेलन द्वारा उन्हें प्राप्त हुआ है। स्त्री-सुलभ भाव उनकी कविताओं में बड़ी सुन्दरता से अंकित पाये जाते हैं। सामयिकता का विकास भी उनमें यथेष्ट देखा जाता है। उनकी भाषा अधिकांश सरल होती है, परन्तु सरस और मधुर। वाच्यार्थ उनका स्पष्ट है और भाव प्रकाशन-प्रणाली सुन्दर। वे क्षत्राणी हैं, इसलिए आवेश आने पर उनके हृदय से जो उद्गार निकलता है, उसमें सच्ची वीरता झंकृत मिलती है। कुछ पद्य नीचे दिये जाते हैं-

थीं मेरा आदर्श बालपन

से तुम मानिनि राधो।

तुम सी बन जाने को मैंने

व्रत नियमादिक साधो।

अपने को माना करती थी

मैं वृषभानु किशोरी।

भाव गगन के कृष्णचन्द्र की

मैं थी चारु चकोरी।

बचपन गया नया रँग आया

और मिला यह प्यारा।

मैं राधा बन गयी न था वह

कृष्ण-चन्द्र से न्यारा।

किन्तु कृष्ण यदि कभी किसी

पर जरा प्रेम दिखलाता।

नख सिख से तो जल जाती

खाना पीना नहिं भाता।

मुझे बता दो मानिनि राधो

प्रीति रीति वह न्यारी।

क्योंकर थी उस मनमोहन

पर निश्चल भक्ति तुम्हारी।

ले आदर्श तुम्हारा मन को

रह रह समझाती हूँ।

किन्तु बदलते भाव न मेरे

शान्ति नहीं पाती हूँ।

13. प्रति शताब्दी में कोई न कोई मुसलमान कवि हमको हिन्दी देवी की अर्चना करते दृष्टिगत होता है। हर्ष है, इस शताब्दी के आरम्भ में ही हमको एक सहृदय मुसलमान सज्जन चिर-प्रचलित परम्परा की रक्षा करते दिखलायी देते हैं। वे हैं सैयद अमीर अली 'मीर' जो मधय-प्रान्त के निवासी हैं। पं. लोचनप्रसाद पाण्डेय के समान ये भी वहाँ प्रतिष्ठित हिन्दी भाषा के कवि माने जाते हैं। इनको पदवियाँ और पुरस्कार भी प्राप्त हुए हैं। ये प्राचीन हिन्दी-प्रेमी हैं। पहले ब्रजभाषा में कविता करते थे। अब वे समय देखकर खड़ी बोली की सेवा में ही निरत हैं। इनकी खड़ी बोली की रचनाओं में कोई विशेषता नहीं, परन्तु इनका खड़ी बोली की ओर आकर्षित होना ही उसको गौरवित बनाता है। उर्दू और परसी में सुशिक्षित होकर भी ये शुध्द खड़ी बोली की हिन्दी में रचना करके उसका सम्मान बढ़ाते हैं, यह कम आनन्द की बात नहीं, इनके कुछ पद्य देखिए-

कोयल तू मन मोहि के गयी कौन से देश।

तब अभाव में काग मुख लखनो परो भदेस।

लखनो परो भदेस बेस तोही सो कारो।

पै बोलत है बोल महा कर्कस कटु न्यारो।

कहें मीर हे दैव काग को दूर करो दल।

लाओ फेर बसन्त मनोहर बोलैं कोयल।

आ गया प्यारा दसहरा छा गया उत्साह बल।

मातृ पूजा पितृ पूजा शक्ति पूजा है बिमल।

हिन्द में यह हिन्दुओं का विजय उत्सव है ललाम।

शरद की इस सुऋतु में है पूजा धाम धाम।

इनके अतिरिक्त पं. जगदम्बाप्रसाद हितैषी, पं. अनूप शर्मा, बाबू द्वारिकाप्रसाद रसिकेन्द्र इत्यादि अनेक कवि खड़ी बोली की सुन्दर रचनाएँ करने में इस समय प्रसिध्द हैं और उन लोगों ने कीर्ति भी पायी है।

वर्तमान काल में ब्रजभाषा की क्या दशा है, इस पर प्रकाश डालना भी आवश्यक जान पड़ता है। ब्रजभाषा के जो कवि आज तक उसकी सेवा में निरत हैं, उनका स्मरण न करना अकृतज्ञता होगी। ब्रजभाषा हो चाहे खड़ी बोली, दोनों ही हिन्दी भाषा हैं। अतएव ब्रजभाषा देवी की अर्चना में निरत सज्जन हिन्दी भाषा-सेवी ही हैं अन्य नहीं। उनकी अमूल्य रचनाएँ हिन्दी भाषा का ही शृंगार हैं और उनके अर्पण किये हुए रत्नों से हिन्दी भाषा का भण्डार ही भर रहा है, इसको कौन अस्वीकार कर सकता है। ब्रजभाषा के कुछ ऐसे अनन्य भक्त अब भी विद्यमान हैं जो उसकी कोमल कान्त पदावली ही के अनुरक्त हैं और इतने अनुरक्त हैं कि दूसरी भाषा की ओर ऑंख उठाकर भी देखना नहीं चाहते। इनमें उल्लेख-योग्य बाबू जगन्नाथदास रत्नाकर और पं. हरिप्रसाद द्विवेदी (उपनाम वियोगी हरि) हैं। इस शताब्दी में ही ऐसे ही ब्रजभाषा के एक और अनन्य भक्त थे। परंतु दुख है कि उनका स्वर्गवास हो गया। उनका नाम था पंडित सत्यनारायण, उपाधि थी कविरत्न। वे बड़े ही होनहार थे। परन्तु अकाल काल-कवलित हो जाने से वह सुधा-श्रोत बन्द हो गया जो प्रवाहित होकर श्रोताओं में संजीवन रस का संचार करता था। मैं क्रमश: इन तीनों कवियों के विषय में कुछ लिखकर इनका परिचय आप लोगों को देना चाहता हूँ।

1. बाबू जगन्नाथदास रत्नाकर की गणना इस समय के ब्रजभाषा के प्रसिध्द कवियों में है। वास्तव में ब्रजभाषा पर उनका बड़ा अधिकार है और वे उसमें बड़ी सुन्दर और सरस रचना करते हैं, उन्होंने ब्रजभाषा के कई ग्रंथ लिखे हैं, जिनमें'गंगावतरण' अधिक प्रसिध्द है। आप ग्रेजुएट हैं, परसी भाषा का भी अच्छा ज्ञान रखते हैं। उर्दू-शायरी अच्छी कर सकते हैं। खड़ी बोलचाल की कविता करने में भी समर्थ हैं, किन्तु ब्रजभाषा में उनकी कुछ ऐसी अनन्य भक्ति है कि वे अन्य भाषाओं में रचना करना पसंद नहीं करते। उनके हृदय की यह प्रतिधवनि है-

“ रह्यो उर में नाहिंन ठौर।

नंद नंदन त्यागि कै उर आनिये केहि और। “

“ ऊधो मन न भयो दस बीस।

इक मन हुतो स्याम सँग अटक्यो कौन भजै जगदीस। “

भगवान् कृष्णचन्द्र के प्रति गोपियों का जो भाव है वही भाव रत्नाकर जी का ब्रजभाषा के प्रति है। उनकी ब्रजभाषा की रचना मर्मभरी, ओजस्विनी और सरस होती है। उन्होंने आजन्म इसी भाषा की सेवा की है और अब तक इसी की समर्चना में संलग्न हैं। उनके कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं-

बोधि बुधि बिधि के कमंडल उठावत ही

धाक सुर धुनि की धाँसी यों घट घट मैं।

कहै रतनाकर सुरासुर ससंक सबै

बिबस बिलोकत लिखे से चित्रापट मैं।

लोकपाल दौरन दसौ दिसि हहरि लागे

हरि लागे हेरन सुपात बर बट में।

खसन गिरीस लागे त्रासन नदीस लागे

ईस लागे कसन फनीस कटि तट मैं।

ढोंग जात्यो ढरकि हर कि उर सोग जात्यो

जोग जात्यो सरकि सकंप पँखियानि तें।

कहै रतनाकर न करते प्रपंच ऐंठि

बैठि धारा देखते कहूँ धौ नखियानि तें।

रहते अदेख नहीं बेख वह देखत हूँ

देखत हमारे जान मोर पखियानि तें।

ऊधो ब्रह्मज्ञान को बखान करते न नैकु

देखि लेत कान्ह जो हमारी ऍंखियानि तें।

सीतलसुखद समीर धीर परिमल बगरावत

कूजत विविधा बिहंग मधुप गूँजत मनभावत

वह सुगंधा वह रंग ढंग की लखि चटकाई।

लगति चित्रा सी नंदनादि बन की रुचिराई।

2. वियोगी हरिजी अपना जीवन प्राचीन भक्तों की प्रणाली से व्यतीत कर रहे हैं। ब्रजभाषा की तदीयता के साथ उपासना करना और भगवद्भजन में, देश-सेवा में, सामयिक सुधारों के प्रचार में निरत रहना ही इनका लक्ष्य है। वे गद्य-पद्य दोनों लिखने में दक्ष हैं और दोनों ही में उन्होंने कई एक सुंदर ग्रन्थों की रचना की है। 'वीर सतसई' उनका प्रसिध्द ग्रन्थ है। साहित्य-सम्मेलन से उस पर उनको 1200 रु‑ का पुरस्कार भी मिल चुका है। इस पुरस्कार को उन्होंने साहित्य-सम्मेलन को ही अर्पण कर दिया, स्वयं नहीं लिया। उनका यह त्याग भी उनकी विरक्ति का सूचक है। उनकी ब्रजभाषा की रचनाएँ अष्टछाप के वैष्णवों के ढंग की होती हैं, उनमें सरसता और सहृदयता भी प्रचुर मात्रा में मिलती है। 'वीर सतसई' उनका आदर्श ग्रन्थ है। सामयिक गति पर दृष्टि रखकर उन्होंने इस ग्रन्थ में जिस प्रकार देश और जाति की ऑंखें खोली हैं, उसकी बहुत कुछ प्रशंसा की जा सकती है। लगभग उनकी अधिकांश रचनाएँ उपयोगिनी और भावमयी हैं। वर्तमान ब्रजभाषा कवियों में उनका भी विशेष स्थान है। कुछ कविताएँ नीचे लिखी जाती हैं-

जाके पान किये सबै जग रस नीरस होत।

जयति सदा सो प्रेमरस उर आनन्द उदोत

बैन थके तन मन थके थके सबै जग ठाट।

पै ये नैना नहिं थके जोवत तेरो बाट

प्रेम तिहारे धयान में रहे न तन को भान।

ऍंसुवन मग बहि जाय कुल कान मान अभिमान

पावस ही में धानुष अब , नदी तीर ही तीर।

रोदन ही में लाल दृग नौरस ही में बीर

जोरि नाँव सँग ' सिंह ' पद करत सिंह बदनाम।

ह्नै हौ कैसे सिंह तुम करि सृगाल के काम

या तेरी तरवार में नहिं कायर अब आब।

दिल हूँ तेरो बुझि गयो वामें नेक न ताब

वियोगी हरि जी ब्रजभाषा के अनन्य भक्त होकर भी कभी-कभी कुछ पद्य खड़ी बोली के भी लिख जाते हैं। दो ऐसे पद्य भी देखिए-

तू शशि मैं चकोर तू स्वाती मैं चातक तेरा प्यारे।

तू घन मैं मयूर तू दीपक मैं पतंग ऐ मतवारे।

तू धान मैं लोभी तू सर्वस मैं अति तुच्छ सखा तेरा।

सब प्रकार से परम सनेही मैं तेरा हूँ तू मेरा।

देखी प्यारे गगन तल में लालिमा ज्यों प्रभा की।

धाया त्योंही समझकर मैं हाथ तेरे गहूँगा।

ठंडा होगा हृदय पर हा! नाथ धोखा दिया क्यों।

मेरा ही है रुधिर उसमें दग्धा जो था बहाया।

3. जो फूल असमय कुम्हला कर सहृदय मात्रा को व्यथित कर जाता है, पंडित सत्यनारायण कविरत्न वही प्रसून हैं। वे एक होनहार युवक थे और बड़ी तन्मयता के साथ ब्रजभाषा देवी की सेवा में निरत थे। ब्रजभाषा से उनको इतना अधिक प्रेम था कि जब वे ब्रजभाषा की करुण कथा किसी सभा या किसी उत्सव में अपने सुस्वर और सुमधुर कण्ठ से सुनाते तो सुनने वालों को मन्त्रा-मुग्धा बना लेते थे। थोड़े ही समय में उन्होंने अच्छी ख्याति भी पायी। वे बी. ए. तक शिक्षा-प्राप्त थे और हिन्दी भाषा पर बड़ा अधिकार रखते थे। संस्कृत का ज्ञान भी उनका अच्छा था। जैसी उनकी रहन-सहन प्रणाली सादी थी, वैसा ही उनका जीवन भी सादा था। बड़े विनीत थे, और नम्र भाव उनके हृदय का प्रधान सम्बल था। उनकी कविताओं में उनका यह भाव स्फुटित होता रहता था। उन्होंने कई संस्कृत नाटकों का सरस ब्रजभाषा में अनुवाद किया था, दो-तीन उनके ब्रजभाषा के पद्य ग्रन्थ भी हैं। बड़ी सरस और टकसाली ब्रजभाषा लिखते थे। शुध्द ब्रजभाषा लिखने की धुन में कभी-कभी ग्रामीण ब्रजभाषा शब्दों का प्रयोग भी कर जाते थे, जिससे कहीं-कहीं उनकी रचना में जैसी चाहिए वैसी सुबोधाता नहीं रह जाती थी। ब्रजभाषा की सेवा के विषय में उनके बहुत बड़े-बड़े विचार थे, किन्तु उसकी पूर्ति किये बिना ही वे धाराधाम से उठ गये। सच है mn proposes God disposes, मेरे मन कछु और है, करता के मन और। उनकी कुछ कविताएँ नीचे लिखी जाती हैं-

मृदु मंजु रसाल मनोहर मंजरी

मोर पखा सिर पै लहरैं।

अलबेली नवेलिन बेलिन में

नव जीवन ज्योति छटा छहरैं।

पिक भृंग सुगुंज सोई मुरली

सरसों सुभ पीत पटा फहरैं।

रसवंत विनोद अनंत भरे

व्रजराज बसंत हिये बिहरैं।

श्री राधाबर निज जन बाधा सकल नसावनि।

जाकौ व्रजमान भावन जो व्रज कौ मन भावनि।

रसिक सिरोमनि मन हरन निरमल नेह निकुंज।

मोद भरन उर सुख करन अविचल आनँद पुंज।

रँगीलो साँवरो

कंस मार भूभार उतारन खल दल तारन।

विस्तारन विज्ञान विमल सेतु सँवारन।

जन मन रंजन सोहना गुन आगर चित चोर।

भवभय भंजन मोहना नागर नंद किसोर।

गयो जब द्वारिका

पावन सावन मास नई उनई घन पाँती।

मुनि मन भाई छई रसमयी मंजुल काँती।

सोहत सुन्दर चहुँ सजल सरिता पोखर ताल।

लोल लोल तहँ अति अमल दादुर बोल रसाल।

छटा चूई परै

अलबेली कहुँ बेलि द्रुमन सों लिपटि सुहाई।

धोये धोये पातन की अनुपम कमनाई।

चातक सुक कोयल ललित बोलत मधुरे बोल।

कूकि कूकि केकी कलित कुंजन करत कलोल।

निरखि घन की छटा

इंद्र धानुष अरु इंद्र बधूटिनि की सुचि सोभा।

को जग जनम्यो मनुज जासु मन निरखि न लोभा।

प्रिय पावन पावस लहरि लहलहान चहुँ ओर।

छाई छबि छिति पै छहरि ताको ओर न छोर।

लसै मनमोहना

4. इस खड़ी बोली के समुन्नत काल में जिन युवकों ने ब्रजभाषा की सेवा करना ही अपना धयेय बना रखा है, जो उसकी कीर्ति-धवजा के उत्ताोलन करने में आज भी आनंदानुभव करते हैं, उनमें पंडित रामशंकर शुक्ल एम. ए. प्रधान हैं। इन्होंने प्रयाग में ब्रजभाषा की हित-चेष्टा से एक रसिक-मण्डल नामक संस्था ही स्थापित कर रखी है। वे और उनके लघु भ्राता पं. रामचन्द्र शुक्ल सरस उसकी वृध्दि करने और उसको प्रभावशाली बनाने में आज भी जी से यत्नवान हैं। सौभाग्य से उनको ब्रजभाषा प्रेमियों का एक दल भी प्राप्त हो गया है। जो इस सत्कर्म में उनकी यथेष्ट सहायता कर रहा है। इस दल में डॉक्टर रामप्रसाद त्रिपाठी एम. ए. और पं. युगल किशोर 'जुगुलेश' बी. ए. ऐसे सहृदय और विद्वज्जन भी सम्मिलित हैं। त्रिपाठी जी इसके सभापति हैं और सच्ची लगन के साथ उसको समुन्नत बनाने में सचेष्ट हैं। पं. रामशंकर का उपनाम 'रसाल' है। वास्तव में 'रसाल' रसाल और 'सरस' सरस हैं। इन दोनों बंधुओं की ब्रजभाषा की रचनाएँ सुन्दर, सरस और भावमयी होती हैं। इन लोगों की विशेषता यह है कि ये लोग समय की गति पहचानते हैं और ब्रजभाषा देवी का शृंगार सामयिक रुचि के अनुसार करना चाहते हैं। ये लोग दूर-दूर तक कवि-सम्मेलनों में जाकर ब्रजभाषा का रस आस्वादन बहुत बड़ी जनता को कराते हैं और ब्रजभाषा के उस अनुराग को सुरक्षित रखना चाहते हैं जो अब भी हिन्दी-प्रेमी जनता के हृदय में वर्तमान है। 'सरस' जी का'अभिमन्यु वधा' नामक एक काव्य-ग्रन्थ भी हाल में निकला है। उसकी रचना ओजस्विनी और मनोहर है और उसमें सामयिक भावों का सफलता के साथ अनुकूल भाषा में सुन्दर चित्राण है। 'जुगुलेश' जी का भी 'श्रध्दांजलि' नामक एक संग्रह ग्रन्थ निकल चुका है। उनकी कविताएँ भी हृदय-ग्राहिणी और मनोमुग्धाकर हैं। 'जुगुलेश' और 'सरस' जी की कविता-पठन-शैली भी बहुत आकर्षक है। हम इस रसिक मण्डल की उन्नति के कामुक हैं। आशा है कि इन सहृदयों और ब्रजभाषा के सच्चे सेवकों द्वारा वह यथेष्ट उन्नति लाभ कर सकेगा। 'रसाल' और 'सरस' की कुछ रचनाएँ नीचे लिखी जाती हैं-

1. जामैं न सुमन फैलि फूलत फबीले कहूँ

जामैं गाँस फाँस को विसाल जाल छायो है।

काया कूबरी है पोर पोर में पोलाई परी।

जीवन बिफल जासु बिधि ने बनायो है।

ताहू पै दवारी बारि बंस-बंस नासिबे को

विधि ने सकल विधि ठाट ठहरायो है।

देखि हरियारी अपनायो ताहि बंसी करि

हरि ने रसाल अधारामृत पियायो है।

2. सुबरन स्यंदन पै सैलजा सुनंदन लौं

सुभट सुभद्रा सुत ठमकत आवै है।

' सरस ' बखानै करबीर वास पूरो किये

श्री हरि सिंगार रस गमकत आवै है।

कैधों दिव्यदाम अभिराम आफताब आब

दाबतम तोम ताब तमकत आवै है।

दमकत आवै चारु चोखो मुख मंद हास

कर बर चंद्रहास चमकत आवै है।

5. आज दिन भी ब्रजभाषा के अनेक प्राचीन कवि जीवित हैं। खड़ी बोली की कविता करने वालों में भी अनेक कवि ऐसे हैं जो खड़ी बोली के साथ ब्रजभाषा की कविता करने में प्रसिध्दि-प्राप्त हैं अनेक युवकों का प्रेम भी ब्रजभाषा के प्रति अब भी देखा जाता है और वे ब्रजभाषा की रचना करने में ही आत्म-प्रसाद लाभ करते हैं। पंडित गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' के नेतृत्व में कानपुर में भी ब्रजभाषा कविता की बहुत कुछ चर्चा पाई जाती है। उनकी मण्डली में भी अनेक प्राचीन और नवयुवक जन ब्रजभाषा की सेवा के लिए आज भी कटिबध्द हैं और तन्मयता के साथ अपनेर् कर्तव्य का पालन कर रहे हैं। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि ब्रजभाषा की ओर से सर्वथा हिन्दी-प्रेमियों को विरक्ति हो गई है। 'सनेही' जी का एक सिध्दान्त है। वे कहा करते हैं, जिस भाषा में सुन्दर भाव मिले, जिस रचना में कवित्व पाया जावे, जो सुन्दर, सरस पदावली का आधार हो, उसका त्याग नहीं हो सकता। उनके इस विचार का उनकी मण्डली वालों पर बड़ा प्रभाव है और इस सूत्रा से भी ब्रजभाषा को बड़ा सहारा मिल रहा है। यह स्वीकार करना पड़ेगा कि खड़ी बोलचाल की रचना का आजकल विशेष आदर है। कारण इसका यह है कि उसकी वही भाषा है जो गद्य की। उसमें सामयिकता भी अधिक है और वह समय की गति देखकर चल भी रही है। इसलिए उसे सफलता मिल रही है। फिर भी ब्रजभाषा अपना बहुत कुछ प्रभाव रखती है और आशा है, कि उसका यह प्रभाव अभी चिरकाल तक सुरक्षित रहेगा। आज दिन भी खड़ी बोली की कविता करने वालों से ब्रजभाषा की कविता करने वालों की संख्या अधिक है।

इसी स्थान पर मैं ठाकुर गुरु भक्त सिंह बी.ए., एल-एल. बी. की चर्चा भी आवश्यक समझता हूँ। आप एक होनहार सुकवि हैं। आपकी रचनाएँ प्रकृति-निरीक्षण सम्बन्धिानी बिलकुल नये ढंग की होती हैं। आपने अंग्रेजी कवि वड्र्सवर्थ का मार्ग ग्रहण किया है। प्राकृतिक छोटे से छोटे दृश्यों और पदार्थों का वर्णन वे बड़ी सहृदयता के साथ करते हैं। आपका भविष्य उज्ज्वल है। आपने 'सरस सुमन' और 'कुसुम कुंज' नामक जिन दो ग्रंथों की रचना की है, वे सरस और सुंदर है।

आजकल हिन्दी-संसार में छायावाद की रचनाओं की ओर युवक दल की रुचि अधिकतर आकर्षित है। दस-बारह वर्ष पहले जो भावनाएँ कुछ थोड़े से हृदयों में उदित हुई थीं, इन दिनों वे इतनी प्रबल हो गयी हैं कि उन्हीं का उद्धोष चारों ओर श्रुति-गोचर हो रहा है। जिस नवयुवक कवि को देखिए आज वही उसकी धवनि के साथ अपना कण्ठस्वर मिलाने के लिए यत्नवान है। वास्तव बात यह है कि इस समय हिन्दी भाषा का कविता-क्षेत्र प्रतिदिन छायावाद की रचना की ओर ही अग्रसर हो रहा है। इस विषय में वाद-विवाद भी हो रहा है, तर्क-वितर्क भी चल रहे हैं, कुछ लोग उसके अनुकूल हैं, कुछ प्रतिकूल। कुछ उसको स्वर्गीय वस्तु समझते हैं और कुछ उसको कविता भी नहीं मानते। ये झगड़े हों, किन्तु यह सत्य है कि दिन-दिन छायावाद की कविता का ही समादर बढ़ रहा है। यह देखकर यह स्वीकार करना पड़ता है कि उसमें कोई बात ऐसी अवश्य है जिससे उसकी उत्तारोत्तार वृध्दि हो रही है और अधिक लोगों के हृदय पर उसका अधिकार होता जाता है।

संस्कृत का एक सिध्दान्त है-'समयमेव करोति बलाबलम्'। समय ही बल प्रदान करता है और अबल बनाता है। मेरा विचार है कि यह समय क्रान्ति का है। सब क्षेत्रों में क्रान्ति उत्पन्न हो रही है तो कविता क्षेत्र में क्रान्ति क्यों न उत्पन्न होती?दूसरी बात यह है कि आजकल योरोपीय विचारों; भावों और भावनाओं का प्रवाह भारतवर्ष में बह रहा है। जो कुछ विलायत में होता है उसका अनुकरण करने की चेष्टा यहाँ की सुशिक्षित मण्डली द्वारा प्राय: होती है। इस शताब्दी के आरम्भ में ही रहस्यवाद की कविताओं का प्रचार योरप में हुआ। उमर ख़य्याम की रुबाइयों का अनुवाद योरप की कई भाषाओं में किया गया जिससे वहाँ की रहस्यवाद की रचनाओं को और अधिक प्रगति मिली। इन्हीं दिनों भगवती वीणापाणि के वरपुत्र कवीन्द्र रवीन्द्र ने कबीर साहब की कुछ रहस्यवाद की रचनाओं का ऍंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया और उसकी भूमिका में रहस्यवाद की रचनाओं पर बहुत कुछ प्रकाश डाला। इसके बाद उनकी गीतांजलि के ऍंग्रेजी अनुवाद का योरप में बड़ा आदर हुआ और उनको 'नोबल प्राइज़'मिला। कवीन्द्र रवीन्द्र का योरप पर यदि इतना प्रभाव पड़ा तो उनकी जन्मभूमि पर क्यों न पड़ता। निदान उन्हीं की रचनाओं औरर् कीत्तिामालाओं का प्रभाव ऐसा हुआ कि हिन्दी भाषी प्रान्त वाले भी उनकी इस प्रकार की रचनाओं का अनुकरण करने के लिए लालायित हुए। उनकी रचनाओं का असर यहाँ की छायावाद की कविताओं पर स्पष्ट दृष्टिगत होता है। कुछ लोगों ने तो उनका पद्य का पद्य अपना बना लिया है।

हमारे प्रान्त के हिन्दी भाषा के कुछ प्राचीन ग्रन्थ ऐसे हैं जिनमें रहस्यवाद की रचना पर्याप्त मात्रा में पायी जाती है। ऐसी रचना उन लोगों की है जो अधिकतर सूफी सम्प्रदाय के थे। इस प्रकार की सबसे अधिक रचना कबीर साहब के ग्रन्थों में मिलती है। जायसी के 'पदमावत' और 'अखरावट' में भी इस प्रकार की अधिक कविताएँ हैं। यह स्पष्ट है कि इन दोनों की रचनाएँ सूफी प्रभाव से ही प्रभावित हैं। जायसी के अनुकरण में बाद को जितने प्रबंधा-ग्रन्थ मुसलमान कवियों द्वारा लिखे गये हैं, उनमें भी रहस्यवाद का रंग पाया जाता है। जब देखा गया कि इस प्रकार की रचनाएँ समय के अनुकूल हैं और वे प्रतिष्ठा का साधान बन सकती हैं तो कोई कारण् नहीं था कि कुछ लोग उनकी ओर आकर्षित न होते। इस शताब्दी के आरम्भ में सूफियाना खयाल की जितनी उर्दू रचनाएँ हुई हैं, उनका प्रभाव भी ऐसे लोगों पर कम नहीं पड़ा। इसके अतिरिक्त इस प्रकार की रचनाएँ शृंगाररस का नवीन संस्करण भी हैं। जब देश में देश-प्रेम का राग छिड़ा और ऐसी रचनाएँ होने लगीं जो सामयिक परिवर्तनों के अनुकूल थीं और शृंगार रस की कुत्सा होने लगी, तो उसका छायावाद की रचना के रूप में रूपान्तरित हो जाना स्वाभाविक था। एक और बात है। वह यह कि जब वर्णनात्मक अथवा वस्तु प्रधान (Objective) रचनाओं का बाहुल्य हो जाता है तो उसकी प्रतिक्रिया भावात्मक अथवा भाव प्रधान (Subjective) रचनाओं के द्वारा हुए बिना नहीं रहती। दूसरी बात यह है कि व्यंजना और धवनि प्रधान काव्य ही का साहित्य-क्षेत्र में उच्च स्थान है। इसलिए चिन्ताशील मस्तिष्क और भाव-प्रवण हृदय इस प्रकार की रचनाओं की ओर ही अधिक खिंचता है। यह स्वाभाविकता भी है। क्योंकि वर्णनात्मक रचना में तरलता होती है और भावात्मक रचनाओं में गंभीरता और मोहकता। ऐसी दशा में इस प्रकार की रचनाओं की ओर कुछ भावुक एवं सहृदय जनों का प्रवृत्ता हो जाना आश्चर्यजनक नहीं। क्योंकि प्रवृत्तिा ही किसी कार्य का कारण होती है। छायावाद की कविताओं के विषय में भी यही बात कही जा सकती है। 'छायावाद' शब्द कहाँ से कैसे आया, इस बात की अब तक मीमांसा न हो सकी। छायावाद के नाम से जो कविताएँ होती हैं, उनको कोई 'हृदयवाद' कहता है और कोई प्रतिबिम्बवाद। अधिकतर लोगों ने छायावाद के स्थान पर रहस्यवाद कहने की सम्मति ही दी है। किन्तु अब तक तर्क-वितर्क चल रहा है और कोई यह निश्चित नहीं कर सका कि वास्तव में नूतन प्रणाली की कविताओं को क्या कहा जाय। इस पर बहुत लेख लिखे जा चुके हैं, पर सर्व-सम्मति से कोई बात निश्चित नहीं की जा सकी। छायावाद की अनेक कविताएँ ऐसी हैं जिनको रहस्यवाद की कविता नहीं कह सकते, उनको हृदयवाद कहना भी उचित नहीं, क्योंकि उसमें अति व्याप्ति दोष है। कौन-सी कविता ऐसी है जिससे हृदय का सम्बन्धा नहीं? ऐसी अवस्था में मेरा विचार है कि 'छायावाद' ही नाम नूतन प्रणाली की कविता का स्वीकार कर लिया जाय तो अनेक तर्कों का निराकरण हो जाता है। यह नाम बहुत प्रचलित है और व्यापक भी बन गया है।

'रहस्यवाद' शब्द में एक प्रकार की गंभीरता और गहनता है। उसमें एक ऐसे गंभीर भाव की धवनि है जो अनिर्वचनीय है और जिस पर एक ऐसा आवरण है जिसका हटाना सुगम नहीं। किन्तु 'छायावाद' शब्द में यह बात नहीं पायी जाती। उसमें कोई अज्ञेय दृष्टिगत न हो, परन्तु कम से कम उसका प्रतिबिम्ब मिलता है और कविकर्म्म के लिए इतना अवलम्बन अल्प नहीं। इसलिए रहस्यवाद शब्द से छायावाद शब्द में स्पष्टता और बोधागम्यता है। छायावाद का अनेक अर्थ अपने विचारानुसार लोगों ने किया है। परन्तु मेरा विचार यह है कि जिस तत्तव का स्पष्टीकरण असम्भव है, उसकी व्याप्त छाया का ग्रहण कर उसके विषय में कुछ सोचना, कहना, अथवा संकेत करना असंगत नहीं। परमात्मा अचिन्तनीय हो, अव्यक्त हो, मन-वचन-अगोचर हो,परन्तु उसकी सत्ता कुछ न कुछ अवश्य है। उसकी यही सत्ता संसार के वस्तुमात्रा में प्रतिबिम्बित और विराजमान है। क्या उसके आधार से उसके विषय में कुछ सोचना विचारना युक्तिसंगत नहीं। यदि युक्तिसंगत है तो इस प्रकार की रचनाओं को यदि छायावाद नाम दिया जावे तो क्या वह विडम्बना है? यह सत्य है कि वह अनिर्वचनीय तत्तव अकल्पनीय एवं मन, बुध्दि चित्ता से परे है, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि हम उसके विषय में कुछ सोच-विचार ही नहीं सकते। उसके अपरिमित और अनन्त गुणों को हम न कह सकें, यह दूसरी बात है, किन्तु उसके विषय में हम कुछ कह ही नहीं सकते ऐसा नहीं कहा जा सकता। संसार-समुद्र अब तक बिना छाना हुआ पड़ा है। उसके अनन्त रत्न अब तक अज्ञातावस्था में हैं। परन्तु फिर भी मनीषियों ने उसकी अनेक विभूतियों का ज्ञान प्राप्त किया है। जिससे एक ओर मनुष्यों को सांसारिक और आधयात्मिक कई शक्तियाँ प्राप्त हुईं और दूसरी ओर संसार के तत्तवों का विशेष ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा और जाग्रत हो गयी। उस परम तत्तव के विषय में भी यही बात कही जा सकती है। मेरे कथन का अभिप्राय यह है कि छायावाद शब्द की व्याख्या यदि कथित रूप में ग्रहण की जाय तो उसके नाम की सार्थकता में व्याघात उपस्थित न होगा। मेरी इन बातों को सुनकर कहा जा सकता है कि यह तो छायावाद को रूपान्तर से रहस्यवाद का पर्यायवाची शब्द बनाना है। फिर रहस्यवाद शब्द ही क्यों न ग्रहण कर लिया जावे, छायावाद शब्द की क्लिष्ट कल्पना क्यों की जावे? ईश्वर-सम्बन्धी विषयों के लिए यह कथन ठीक है। परंतु सांसारिक अनेक विषय और तत्तव ऐसे हैं कि छायावाद की कविता में जिनका वर्णन और निरूपण होता है। उन वर्णनों और निरूपणों को रहस्यवाद की रचना नहीं कहा जा सकता। मैं समझता हूँ, इस प्रकार की कविताओं और वर्णनों के समावेश के लिए भी छायावाद नाम की कल्पना की गयी है। दूसरी बात यह है कि 'छायावाद' कहने से आजकल जिस प्रकार की कविता का बोधा होता है। वह बोधा ही छायावाद का अर्थ क्यों न मान लिया जावे? मेरा विचार यह है कि ऐसा मान लेने में कोई आपत्तिा नहीं। अनेक रूढ़ि शब्दों की उत्पत्तिा इसी प्रकार हुई है। आइए, एक दूसरे मार्ग से इस पर और विचार करें।

प्रात:काल फूल हँसते हैं। क्यों हँसते हैं? यह कौन जाने। वे रंग लाते हैं, महकते हैं, मोती जैसी बूँदों से अपनी प्यास बुझाते हैं, सुनहले तारों से सजते हैं, किसलिए! यह कौन बतलावे। एक कालाकलूटा आता है, नाचता है, गीत गाता है, भाँवरें भरता है,झुकता है, उनके कानों में न जाने क्या क्या कहता है, रस लेता है और झूमता हुआ आगे बढ़ता है क्यों? रंग-बिरंगी साड़ियाँ पहने, ताकती झाँकती अठखेलियाँ करती, एक रँगीली आती है, उनसे हिलती-मिलती है, रंगरलियाँ मनाती है, उन्हें प्यार करती है, फिर यह गई, वह गई, कहाँ गई? कौन कहे? कोई इन बातों का ठीक-ठीक उत्तार नहीं दे सकता। अपने मन की सभी सुनाता है, पर पते की बात किसने कही। ऑंख उठाकर देखिए, इधार-उधार हमारे आगे-पीछे, पल-पल ऐसी अनन्त लीलाएँ होती रहती हैं, परन्तु भेद का परदा उठाने वाले कहाँ हैं? यह तो बहिर्जगत की बातें हुईं। अन्तर्जगत और विलक्षण है। वहाँ एक ऐसा खिलाड़ी है जो हवा को हवा बताता है, पानी में आग लगाता है, आसमान के तारे तोड़ता है, आग चबाता है, धारती को धूल में मिलाता है, स्वर्ग में फिरता है, नन्दनवन के फूल चुनता है और बैकुण्ठ में बैठकर ऐसी हँसी हँसता है कि जिधार देखो उधार बिजली कौंधाने लगती है। संसार उसकी कल्पना है, कार्यकलाप, केलि और उत्थान-पतन रंग-रहस्य। उसके तन नहीं परन्तु भव का तानाबाना उसी के हाथों का खेल है। वह अंधा है, किन्तु वही तीनों लोकों की ऑंखों का उजाला है। वह देवतों के दाँत खट्टे करता है, लोक को उँगलियों पर नचाता है, और उन गुत्थियों को सुलझाता है, जिनका सुलझाना हँसी-खेल नहीं। जहाँ वह रहता है वहाँ की वेदनाओं में मधुरिमा है, ज्वालाओं में सुधा है, नीरवता में राग है, कुलिशता में सुमनता है और है गहनता में सुलभता। वहाँ चन्द्र नहीं, सूर्य नहीं, तारे नहीं, किन्तु वहाँ का आलोक विश्वालोक है। वहाँ बिना तार की तन्त्राी बजती है, बिना स्वर का आलाप होता है, बिना बादल रस बरसता है और बिना रूप रंग के ऐसे मनोहर अनन्त प्रसून विकसित होते हैं कि जिनके सौरभ से संसार सौरभित रहता है। बहिर्जगत और अन्तर्जगत का यह रहस्य है। इनका सूत्रा जिनके हाथ में है, उसकी बात ही क्या! उसके विषय में मुँह नहीं खोला जा सकता। जिसने जीभ हिलाई उसी को मुँह की खानी पड़ी। बहुतों ने सर मारा पर सब सर पकड़ के ही रह गये।

सब सही, पर रहस्यभेद का भी कुछ आनन्द है। यदि समुद्र की अगाधाता देखकर लोग किनारा कर लेते तो चमकते मुक्ता दाम हाथ न आते। पहाड़ों की दुर्गमता विचार कर हाथ पाँव-डाल देते तो, रत्न राशि से अलंकृत न हो सकते। लोक ललाम लोकातीत हो, उनकी लीलाएँ लोकोत्तार हों, उनको लोचन न अवलोक सकें, गिरा न गा सके। उनके प्रवाह में पड़कर विचारधारा डूब जावे, मतितरी भग्न हो और प्रतिभा विलीन। किन्तु उनके अवलम्बन भी तो वे ही हैं। उनका मनन, चिन्तन अवलोकन ही तो उनके जीवन का आनन्द है। आकाश असीम हो, अनन्त हो तो, खगकुल को इन प्रपंचों से क्या काम? वह तो पर खोलेगा और जी भर उसमें उड़ेगा। उसके लिए यह सुख अल्प नहीं। पारावार अपार हो, लाखों मीलों में फैला हो, अतल स्पर्शी हो, मीन को इससे प्रयोजन नहीं। वह जितनी दूरी में केलि करता फिरता है, उछलता रहता है उतना ही उसका सर्वस्व है और वही उसका जीवन और अवलम्बन है। मनुष्य भी अपने भावानुकूल लोक ललाम की कल्पना करता है। संसार के विकास में, उसकी विभूतियों में उस लीलामय की लीलाएँ देखता, मुग्धा होता और अलौकिक आनन्दानुभव करता है। क्या इसमें उसके जीवन की सार्थकता नहीं है? मनुष्यों में जो विशेष भावुक होते हैं, वे अपनी भावुकता को जिह्ना पर भी लाते हैं, उसको सुमनोपम कान्त पदावली द्वारा सजाते हैं, तरह-तरह के विचार-सूत्रा में गूँथते हैं और फिर उसे सहृदयता सुन्दरी के गले का हार बनाते हैं। इस कला में जो जितना पटु होता है, कार्य-क्षेत्र में उसको उतनी ही सफलता हाथ आती है। उसकी कृतियाँ भी उतनी ही हृदय-ग्राहिणी और सार्वजनीन होती हैं। इसलिए परिणाम भी भिन्न-भिन्न होता है। जो जितना ही आवरण हटाता है, जितना ही विषय को स्पष्ट करता है, जितना ही दुर्बोधाता और जटिलताओं का निवारण करता है, वह उतना ही सफलीभूत और कृतकार्य समझा जाता है। यह सच है कि ऐसे भाग्यशाली सब नहीं होते। समुद्र में उतरकर सभी लोग मौक्तिक लेकर ऊपर नहीं उठते। अधिकांश लोग घोंघे, सिवार पाकर ही रह जाते हैं। किन्तु इससे उद्योगशीलता और अनुशीलन परायणता को व्याघात नहीं पहुँचता। रहस्य की ओर संकेत किया जा सकता है। उसका आभास सामने लाया जा सकता है, हृदय-दर्पण पर जो प्रतिबिम्ब पड़ता है, अन्तर्दृष्टि उसकी ओर खींची जा सकती है, क्या यह कम सफलता है? मनुष्य की जितनी शक्ति है, उस शक्ति से यथार्थ रीति से, काम लेने से मनुष्यता की चरितार्थता हो जाती है, और चाहिए क्या? रहस्य-भेद किसने किया? परमात्मा को लाकर जनता के सामने कौन खड़ा कर सका? तथापि संसार के जितने महज्जन हैं, उन्होंने अपने र्कत्ताव्य का पालन किया,जिससे अनेक गुत्थियाँ सुलझीं। अब भी उद्योग करने से और बुध्दि से यथार्थतापूर्वक कार्य लेने से कितनी गुत्थियाँ सुलझ सकती हैं। इन गुत्थियों के सुलझाने में आनन्द है, तृप्ति है और है अलौकिक फल-लाभ जिससे मनुष्य जीवन स्वर्गीय बन जाता है। रहस्यवाद की रचनाओं की ओर प्रवृत्ता होने का उद्देश्य यही है। जो लोग इस तत्तव को यथार्थ रीति से समक्ष कर उसकी ओर अग्रसर होते हैं, वे वन्दनीय हैं और उनकी कार्यावली अभिनन्दनीय है। उनका विरोधा नहीं किया जा सकता। आधिभौतिक और आधयात्मिक जितने कार्य-कलाप हैं, उनका यथातथ्य ज्ञान एक प्रकार से असम्भव है। परन्तु उसकी कुछ न कुछ छाया या प्रतिबिम्ब प्रत्येक हृदय-दर्पण में यथासमय पड़ता रहता है। कहीं यह छाया धुँधाली होती है, कहीं उससे स्पष्ट, कहीं अधिकतर स्पष्ट। इसी का वर्णन अनुभूति और मेधा-शक्ति द्वारा होता आया है और अब भी हो रहा है, और आगे भी होगा। इन अनुभूतियों का प्रकाश वचन-रचना द्वारा करना प्रशंसनीय है, निन्दनीय नहीं। चाहे उसको रहस्यवाद कहा जावे अथवा छायावाद। इसका प्राचीन नाम रहस्यवाद ही है, जिसे अंग्रेजी में (mysticism) 'मिस्टिज्म' कहते हैं। उसी का साधारण संस्करण छायावाद है। अतएव उस पर अधिक तर्क-वितर्क उचित नहीं, उसके मार्ग को प्रशस्त और सुन्दर बनाना ही अच्छा है।

अब तक मैंने जो निवेदन किया है उसका यह अभिप्राय नहीं है कि छायावाद के नाम पर जो अनर्गल और बेसिर पैर की रचनाएँ हो रही हैं, मैं उनको प्रश्रय दे रहा हूँ। मेरे कथन का यह प्रयोजन है कि गुण का आदर अवश्य होना चाहिए। अनर्गल प्रलाप कभी अभिनन्दनीय नहीं रहा। उसका जीवन क्षणिक होता है, और थोड़े ही समय में अपने आप वह नष्ट हो जाता है। दूसरी बात यह कि सच्चे समालोचक और सत्समालोचना का कार्य ही क्या है। यही न कि साहित्य से उसकी बुराइयाँ दूर की जावें और जो भ्रान्त हैं उनको पथ पर लगाया जावे, जो चूके हैं उनको सुधारा जावे और साहित्य में जो कूड़ा-करकट हो उसको निकाल बाहर किया जावे। दोष-गुण सब में हैं, गुण का ग्रहण और दोष का संशोधान एवं परिमार्जन ही वांछनीय है। छायावाद की अनेक रचनाएँ मुझको अत्यन्त प्रिय हैं और मैं उन्हें बड़े आदर की दृष्टि से देखता हूँ। जिनमें सरस धवनि और व्यंजना है उनका आदर कौन सहृदय न करेगा? क्या काँटों के भय से फूल का त्याग किया जावेगा। यह भी मैं मुक्त कंठ से कहता हूँ कि छायावादी कवियों ने खड़ी बोलचाल की कर्कशता और क्लिष्टता को बहुत कम कर दिया है। जैसे प्राचीन खड़ी बोली की रचनाओं का यह गुण है कि उन्होंने भाषा को बहुत परिमार्जित और शुध्द बना दिया, उसी प्रकार छायावादी कविता का यह गुण है कि उसने कोमल कान्त पदावली ग्रहण कर खड़ी बोलचाल की कविता के उस दोष को दूर कर दिया जो सहृदयजनों को काँटों की तरह खटक रहा था।

संसार में जितनी विद्याएँ हैं, सब नियमबध्द हैं, जितनी कलाएँ हैं, सब सीखनी पड़ती हैं। उनकी भी रीति और पध्दति है। उनकी उपेक्षा करना विद्या और कला को आघात पहुँचाना है। साहित्य का सम्बन्धा विद्या और कला दोनों से है। इसलिए जो उसकी पध्दतियाँ हैं उनका त्याग नहीं किया जा सकता। उनको परिवर्तित रूप में ग्रहण करें अथवा मुख्य रूप में, परन्तु उनके ग्रहण से ही कार्य-सिध्दि, पथ प्रशस्त हो सकता है। साहित्य यदि साधय है तो नियम उसके साधान हैं। इसलिए उनको अनावश्यक नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक प्रतिभावान पुरुष नयी उद्भावनाएँ कर सकता है, और ये उद्भावनाएँ भी साधानाओं में गिनी जा सकती हैं। परन्तु उनका उद्देश्य साधय मूलक होगा, अन्यथा वे उद्भावनाएँ उपयोगिनी न होंगी। गद्य लिखने के लिए छन्द की आवश्यकता नहीं। किन्तु पद्य लिखें और यह कहें कि छन्द प्रणाली बिलकुल व्यर्थ है तो क्या यह कहना यथार्थ होगा? यदि छन्द-प्रणाली व्यर्थ है तो पद्य-रचना हुई कैसे? कुछ नियमित अक्षरों और मात्राओं में जो रचना होती है वही तो पद्य कहलाता है। यह दूसरी बात है कि पद्य की पंक्तियों और अक्षरों की गणना प्रथम उद्भावित छन्द-प्रणाली से भिन्न हो। किन्तु वह भी है छन्द ही, कोई अन्य वस्तु नहीं। ऐसी अवस्था में छन्द की कुत्सा करना मूल पर ही कुठाराघात करना है और उसी डाल को काटना है जो उसकी अवलम्बन स्वरूपा है। ऐसी ही बातें साहित्य के और अंगों के विषय में भी कही जा सकती हैं। हिन्दी साहित्य का जो वर्तमान रूप है वह अनेक प्रतिभावान पुरुषों की चिन्ताशीलता का ही परिणाम है। वह क्रमश: उन्नत होता और सुधारता आया है और नयी-नयी उद्भावनाओं से भी लाभ उठाता आया है। अब भी इस विषय में वह बहुत कुछ गौरवित हो सकता है, यदि उसको सुदृष्टि से देखा जाय। चाहिए यही कि उसका मार्ग और सुंदर बनाया जावे न यह कि उसमें काँटे बिछाये जावें और उच्छृंखलता को स्वतंत्राता कहकर उसकी बची-खुची प्रतिष्ठा को भी पददलित किया जावे। परमात्मा ने जिसको प्रतिभा दी है, कविता-शक्ति दी है, विद्वत्ता दी है, और प्रदान की है वह मनोमोहिनी उक्ति जो हृदयों में सुधाधारा बहाती है, वह अवश्य राका-मयंक के समान चमकेगा और उसकी कीर्ति-कौमुदी से साहित्य-गगन जगमगा उठेगा और वे तारे जो चिरकाल से गगन को सुशोभित करते आये हैं, अपने आप उसके सामने मलिन हो जावेंगे। वह क्यों ऐसा सोचे कि आकाश के तारक-चय को ज्योतिर्विहीन बनाकर ही हम विकास प्राप्त कर सकेंगे। हिन्दी-साहित्य की वर्तमान परिस्थिति को देखकर मुझको ये कतिपय पंक्तियाँ लिखनी पड़ीं। मेरा अभिप्राय यह है कि साहित्य-क्षेत्र में जो अवांछनीय, असंयत भाव देखा जा रहा है उसकी ओर हमारे भगवती वीणापाणि के वरपुत्र देखें और वह पथ ग्रहण करें जिसमें सरसता से बहती हुई साहित्य-रस की धारा आविल होने से बचे और उनके 'छायावाद' की रचनाओं को वह महत्तव प्राप्त हो जो वांछनीय है।

यह देखा जाता है कि युवक दल अधिकतर आजकल छायावाद की रचनाआ की ओर आकर्षित है। युवक-दल ही समाज का नेता है, वही भविष्य को बनाता है और सफलता की कुंजी उसी के हाथ में होती है। उसके छायावाद की ओर खिंच जाने से उसका भविष्य बड़ा उज्ज्वल है, किन्तु उसको यह विचारना होगा कि क्या हिन्दी भाषा के चिर-संचित भंडार को धवंस कर और उस भण्डार के धान के संचय करने वालों कीर् कीत्तिा को लोप कर ही यह उज्ज्वलता प्राप्त होगी? इतिहास यह नहीं बतलाता। जो रत्न हमारी सफलता का संबल है, उसको फेंककर हमारी इष्ट-सिध्दि नहीं हो सकती। भविष्य बनाने के लिए वर्तमान आवश्यक है, परन्तु भूत पर भी दृष्टि होनी चाहिए। हम योग्य न हों और योग्य बनाने का दावा करें, हमारा ज्ञान अधूरा हो और हम बहुत बडे ज्ञानी होने की डींग हाँकें, हम कवि पुंगव होने का गर्व करें और साधारण कवि होने की भी योग्यता न रखें, छायावाद की कविता लिखें और यह जानें भी नहीं कि कविता किसे कहते हैं, धूल उड़ावें प्राचीन कविवरों की और करने बैठें कवि-कर्म की मिट्टी पलीद, तो बताइये हमारी क्या दशा होगी? हम स्वयं तो मुँह की खाएँगे ही, छायावाद की ऑंखें भी नीची करेंगे। आजकल छायावाद के नाम पर कुछ उत्साही युवक ऐसी ही लीला कर रहे हैं। मेरी उनसे यह प्रार्थना है कि यदि उनमें छायावाद का सच्चा अनुराग है तो अपने हृदय में वे उस ज्योति की छाया पड़ने दें, जिससे उनका मुख उज्ज्वल हो और'छायावाद' का सुन्दर कविता क्षेत्र उद्भासित हो उठे। मेरा विचार है कि छायावाद कविता-प्रणाली का भविष्य बहुत उज्ज्वल है। जैसे पावस का तमोमय पंकिल काल व्यतीत होने पर ज्योतिर्मय स्वच्छ शरद ऋतु का विकास होता है वैसे ही जो न्यूनताएँ'छायावाद' के क्षेत्र में इस समय विद्यमान हैं वे दूर होंगी और यह वांछनीय पूर्णता को प्राप्त होगी। किंतु यह तभी होगा जब युवक-दल अपनी इष्ट-सिध्दि के लिए भगवती वीणापाणि की सच्ची आराधाना के लिए कटिबध्द होगा।

किसी-किसी छायावादी कवि का यह विचार है कि जो कुछ तत्तव है वह छायावाद की कविता में ही है। कविता-सम्बन्धी और जितने विभाग हैं वे तुच्छ ही नहीं तुच्छातितुच्छ हैं और उनमें कोई सार नहीं। अपना विचार प्रगट करने का अधिकार सबको है, किन्तु विचार प्रगट करने के समय तथ्य को हाथ से न जाने देना चाहिए। जो छायावाद के अथवा रहस्यवाद के आचार्य कहे जाते हैं, क्या उन्होंने आजीवन रहस्यवाद की ही रचना की? प्राचीन कवियों में ही हम प्रसिध्द रहस्यवादी कबीर और जायसी को ले लें तो हमें ज्ञात हो जाएगा कि सौ पद्यों में यदि दस पाँच रचनाएँ उनकी रहस्यवाद की हैं तो शेष रचनाएँ अन्य विषयों की। क्या उनकी ये रचनाएँ निन्दनीय, अनुपयुक्त तथा अनपुयोगी हैं! नहीं, उपयोगी हैं और अपने स्थान पर उतनी ही अभिनन्दनीय हैं जितनी रहस्यवाद की रचनाएँ। एकदेशीय ज्ञान अपूर्ण होता है और एकदेशीय विचार अव्यापक। जैसे शरीर के सब अंगों का उपयोग अपने-अपने स्थानों पर है, जैसे किसी हरे वृक्ष का प्रत्येक अंश उसके जीवन का साधान है, उसी प्रकार साहित्य तभी पुष्ट होता है जब उसमें सब प्रकार की रचनाएँ पायी जाती हैं, क्योंकि उन सबका उपयोग यथास्थान होता है। जो कविता आन्तरिक प्रेरणा से लिखी जाती है, जिसमें हृत्तांत्राी की झंकार मिलती है, भावोच्छ्वास का विकास पाया जाता है, जिसमें सहृदयता है, सुन्दर कल्पना है, प्रतिभा तरंगायित है, जिसका वाच्यार्थ स्पष्ट है, सरल है, सुबोधा है, वही सच्ची कविता है, चाहे जिस विषय पर लिखी गयी हो और चाहे जिस भाषा में हो। कौन उसका सम्मान न करेगा और कहाँ वह आदृत न होगी? कवि-हृदय को उदार होना चाहिए, वृथा पक्षपात और खींचतान में पड़ कर उसको अपनी उदात्ता वृत्तिा को संकुचित न करना चाहिए। मेरा कथन इतना ही है कि एकदेशीय विचार अच्छा नहीं, उसको व्यापक होना चाहिए। किसी फूल में रंग होता है, किसी की गठन अच्छी होती है, किसी का विकास सुन्दर होता है, किसी में सुगंधि पाई जाती है-सब बात सब फूलों में नहीं मिलती। कोई ही फूल ऐसा होता है जिसमें सब गुण पाये जाते हैं। जिस फूल में सब गुण हैं, यह कौन न कहेगा कि वह विशेष आदरणीय है। परन्तु अन्यों का भी कुछ स्थान है और उपयोग भी। इसीलिए जिसमें जो विशेषता है वह स्वीकार-योग्य है,उपेक्षणीय नहीं। कला का आदर कला की दृष्टि से होना चाहिए। यदि उसमें उपयोगिता मिल जावे तो क्या कहना। तब उसमें सोना और सुगंधा वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है।

कवि-कर्म का विशेष गुण वाच्यार्थ की स्पष्टता है। प्रसाद गुणमयी कविता ही उत्ताम समझी जाती है। वैदर्भी वृत्तिा का ही गुणगान अब तक होता आया है। किन्तु यह देखा जाता है कि छायावादी कुछ कवि इसकी उपेक्षा करते हैं और जानबूझ कर अपनी रचनाओं को जटिल से जटिल बनाते हैं, केवल इस विचार से कि लोग उसको पढ़कर यह समझें कि उनकी कविता में कोई गूढ़ तत्तव निहित है, और इस प्रकार उनको उच्च कोटि का रहस्यवादी कवि होने का गौरव प्राप्त हो। ऐसा इस कारण से भी होता है कि किसी-किसी भावोच्छ्वास उनको उस प्रकार की रचना करने के लिए बाधय करता है। वे अपने विचारानुसार उसको बोधागम्य ही समझते हैं, पर भाव प्रकाशन में अस्पष्टता रह जाने के कारण् उनकी रचना जटिल बन जाती है। कवि-कर्म की दृष्टि से यह दोष है। इससे बचना चाहिए। यह सच है कि गूढ़ता भी कविता का एक अंग है। गम्भीर विषयों का वर्णन करने में या अज्ञेयवाद की ओर आकर्षित होकर अनुभूत अंशों के निरूपण करने में गूढ़ता अवश्य आ जाती है किन्तु उसको बोधागम्य अवश्य होना चाहिए। यह नहीं कि कवि स्वयं अपनी कविता का अर्थ करने में असमर्थ हो। वर्तमान काल की अनेक छायावादी कविताएँ ऐसी हैं कि जिनका अर्थ करना यदि असंभव नहीं तो बहुत कष्टसाधय अवश्य है। मेरा विचार है, इससे छायावाद का पथ प्रशस्त होने के स्थान पर अप्रशस्त होता जाता है। यह स्वीकार करना पड़ेगा कि कविता में कुछ ऐसी गिरह होनी चाहिए जिसके खोलने की नौबत आवे। जो कविता बिलकुल खुली होती है उसमें वह आनंद नहीं प्राप्त होता, जो गिरह वाली कविता की गुत्थी सुलझाने पर मिलता है। किन्तु यह गिरह या गाँठ दिल की गाँठ न हो जिसमें रस का अभाव होता है। सुनिए एक सुकवि क्या कहता है-

सम्मन रस की खान , सो हम देखा ऊख में।

ताहू में एक हानि , जहाँ गाँठ तहँ रस नहीं।

कविता यदि द्राक्षा न बन सके तो रसाल ही बने, नारिकेल कदापि नहीं। साहित्य-मर्मज्ञों की यही सम्मति है। किसी-किसी का यह कथन है कि भावावेश कितनों को दुरूहतर कविता करने के लिए बाधय करता है। मेरा निवेदन यह है कि वह भावावेश किस काम का जो कविता के भाव को अभाव में परिणत कर दे। भावुकता और सहृदता की सार्थकता तभी है जब वह असहृदय को भी सहृदय बना ले। जिसने सहृदय को असहृदय बना दिया वह भावुकता और सहृदयता क्या है, इसे सहृदय जन ही समझें।

छायावाद की कविताएँ व्यंजना और धवनि-प्रधान होती हैं। वाच्यार्थ से जहाँ व्यंजना प्रधान हो जाती है वही धवनि कहलाती है। छायावाद की कविता में इसकी अधिकता मिलती है। इसीलिए वह अधिक हृदयग्राहिणी हो जाती है। छायावादी कवि किसी बात को बिलकुल खोलकर नहीं कहना चाहते। वे उसको इस प्रकार से कहते हैं जिससे उसमें एक ऐसी युक्ति पाई जाती है जो हृदय को अपनी ओर खींच लेती है। वे जिस विषय का वर्णन करते हैं उसके ऊपरी बातों का वर्णन करके ही तुष्ट नहीं होते। वे उसके भीतर घुसते हैं और उससे सम्बन्धा रखने वाली तात्तिवक बातों को इस सुंदरता से अंकित करते हैं, जिससे उनकी रचना मुग्धाकारिणी बन जाती है। वे अपनी आन्तरिक वृत्तिायों को कभी साकार मानकर उनकी बातें एक नायक नायिका की भाँति कहते हैं, कभी सांसारिक दृश्य पदार्थों को लेकर उसमें कल्पना का विस्तार करते हैं और उसको किसी देव-दुर्लभ वस्तु अथवा किसी व्यक्ति-विशेष के समान अंकित करते हैं। कभी वे अपनी ही सत्ता को प्रत्येक पदार्थ में देखते हैं और उनके आधार से अपने समस्त आन्तरिक उद्गारों को प्रकट करते हैं। उनकी वेदनाएँ तड़पती हैं, रोती-कलपती हैं, कभी मूर्ति नई आह बन जाती है, और कभी जलधारों समान अजò अश्रु विसर्जन करने लगती है। उनकी नीरवता में राग है, उनके अन्धाकार में अलौकिक आलोक और उनकी निराशा में अद्भुत आशा का संचार। वे ससीम में असीम को देखते हैं, बिन्दु में समुद्र की कल्पना करते हैं, और आकाश में उड़ने के लिए अपने विचारों को पर लगा देते हैं। आलोकमयी रजनी को कलित कौमुदी की साड़ी पहिना कर और तारकावली की मुक्तामाला से सुसज्जित कर, जब उसे चन्द्रमुख से सुधा बरसाते हुए वे किसी लोकरंजन की ओर गमन करते अंकित करते हैं, तो उसमें एक लोकरंजिनी नायिका-सम्बन्धी समस्त लीलाओं और कलाओं की कल्पना कर देते हैं, और इस प्रकार अपनी रचनाओं को लालित्यमय बना देते हैं। उनकी प्रतिभा विश्वजनीन भावों की ओर कभी मन्थर गति से, कभी बड़े वेग से गमन करती है और उनके समागम से ऐसा रस सृजन करती है, जो अनेक रसिकों के हृदय में मन्द-मन्द प्रवाहित होकर उसे स्वर्गीय सुख का आस्वादन कराती है। थोड़े में यह कहा जा सकता है कि उनकी रचना अधिकतर भाव प्रधान (Subjective) होती है, वस्तु प्रधान (Objective) नहीं। इसी से उसमें सरसता, मधुरता और मनमोहकता होती है। मैंने उनके लक्ष्य की ही बात कही है। मेरे कथन का यह अभिप्राय नहीं कि छायावाद के नाम पर जितने कविता करने वाले हैं,उनको इस लक्ष्य की ओर गमन करने में पूरी सफलता मिलती है। छायावाद के कुछ प्रसिध्द कवि ही इस लक्ष्य को सामने रखकर अपनी रचना को तदनुकूल बनाने में कुछ सफल हो सके हैं। अन्यों के लिए अब तक वह वैसा ही है जैसा किसी वामन का चन्द्रमा को छूना। किन्तु इस ओर प्रवृत्तिा अधिक होने से इन्हीं में से ऐसे लोग उत्पन्न होंगे जो वास्तव में अपने उद्देश्य की पूर्ति में सफल होंगे। अभ्यास की आदिम अवस्था ऐसी ही होती है किन्तु असफलता ही सफलता की कुंजी है। एक बात यह अवश्य देखी जाती है कि छायावाद के अधिकांश कवियों की दृष्टि न तो अपने देश की ओर है, न अपनी जाति और समाज की ओर, हिन्दू जाति आज दिन किस चहले में फँसी है, वे ऑंख से उसको देख रहे हैं पर उनकी सहानुभूति उसके साथ नहीं है। इसको दुर्भाग्य छोड़ और क्या कहें। जिसका प्रेम विश्वजनीन है वह अपने देश के, जाति के, परिवार के, कुटुम्ब के दुख से दुखी नहीं, इसको विधि-विडम्बना छोड़ और क्या कहें? शृंगारिक कवियों की कुत्सा करने में जिनकी लेखनी सहòमुखी बन जाती है,उनमें इतनी आत्म-विस्मृति क्यों है? इसको वे ही सोचें। यदि शृंगार-रस में निमग्न होकर उन्होंने देश को रसातल पहुँचाया तो विश्वजनीन प्रेम का प्रेमिक उनको संजीवनी सुधा पिलाकर स्वर्गीय सुख का अधिकारी क्यों नहीं बनाता? जिस देश, जाति और धर्म की ओर उनकी इतनी उपेक्षा है, उनको स्मरण रखना चाहिए कि वह देश जाति और धर्म ही इस विश्वजनीन महामंत्रा का अधिष्ठाता, òष्टा और ऋषि है। जो कवीन्द्र रवीन्द्र उनके आचार्य और पथ-प्रदर्शक हैं, उन्हीं का पदानुसरण क्यों नहीं किया जाता? कम-से-कम यदि उन्हीं का मार्ग ग्रहण किया जाय तो भी निराशा में आशा की झलक दृष्टिगत हो सकती है। यदि स्वदेश-प्रेम संकीर्णता है तो विश्वजनीन-प्रेम की दृष्टि से ही अपने देश को क्यों नहीं देखा जाता? विश्व के अंतर्गत वह भी तो है। यदि संसार भर के मनुष्य प्रेम-पात्रा हैं तो भरत-कुमार स्नेह भाजन क्यों नहीं? क्या उनकी गणना विश्व के प्राणियों में नहीं हैं? यदि सत्य का प्रचार किया जा रहा है, प्रेम की दीक्षा दी जा रही है, विश्व-बंधुत्व का राग अलापा जा रहा है, तो क्या भारतीयजन उनके अधिकारी नहीं? जो अपना है, जिस पर दावा होता है उसी को उपालम्भ दिया जाता है। जिससे आशा होती है, उसी का मुँह ताका जाता है। मैंने जो कुछ यहाँ लिखा है वह ममतावश होकर, मत्सर से नहीं। मैंने इसकी चर्चा यहाँ इसलिए की कि यदि छायावाद की रचना ही सर्वेसर्वा है, तो इसमें इन भावों का सन्निवेश भी पर्याप्त मात्रा में होना चाहिए,अन्यथा हिन्दी-साहित्य-क्षेत्र में एक ऐसी न्यूनता हो जावेगी, जो युवकों के एक उल्लेख-योग्य दल को भ्रान्त ही नहीं बनावेगी,देश के समुन्नति-पथ में भी कुसुम के बहाने वे काँटे बिछावेगी जो भारतीय-हित प्रेमिक पथिकों के लिए अनेक असमंजसों के हेतु होंगे। मैंने जो विचार एक सदुद्देश्य से यहाँ प्रकट किये हैं यदि कार्यत: उनको भ्रान्त सिध्द कर दिया जावेगा तो मैं अपना अहोभाग्य समझूँगा।

छायावाद की कविता पर मैंने अपने विचारानुसार जो प्रकाश डाला, सम्भव है उसका कुछ अंश रंजित हो। परन्तु मैंने सत्य बात को प्रकट करने की चेष्टा की है। सम्भव है, अपेक्षित ज्ञान होने के कारण मैं उसके सर्व्वांश का परिचय न दे सका होऊँ। परन्तु जो कुछ मैंने लिखा है, आशा है उससे उसकी प्रणाली का कुछ न कुछ ज्ञान अवश्य पाठकों को होगा। अब मैं उन लोगों की चर्चा करना चाहता हूँ जो उसके प्रसिध्द कवि और उद्भावक हैं। उनकी रचनाओं को पढ़कर आशा है, आप लोगों का ज्ञान छायावाद के विषय में और अधिक हो जायेगा। छायावाद के कवियों की बहुत बड़ी संख्या है। परन्तु उनमें से अधिकांश ऐसे हैं जिन्होंने थोड़े ही दिन से इस क्षेत्र में पदार्पण किया है। मैं पहले उन्हीं लोगों के विषय में कुछ लिखूँगा जिन्होंने प्रसिध्दि प्राप्त कर ली है और जो छायावाद के मान्य कवि हैं। इसके उपरान्त कुछ ऐसे लोगों की भी चर्चा करूँगा, जो छायावाद के क्षेत्र में बहुत कुछ अग्रसर हो चुके हैं-

1. सबसे पहले मेरी दृष्टि बाबू जयशंकर प्रसाद पर पड़ती है। आपने छायावाद के कई ग्रन्थ लिखे हैं। पहले आप भी ब्रजभाषा में ही कविता करते थे। खड़ी बोली के आन्दोलन के समय खड़ी बोली में कविता करने लगे। अब छायावाद कविता का पथ प्रशस्त करने में दत्ताचित्ता हैं। आपकी रचना सुन्दर और भावमयी है, भाषा भी भावानुगामिनी है। आपके कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं-

1. भूलि भूलि जात पद कमल तिहारो कहो

ऐसी नीति मूढ़ मति कीन्ही है हमारी क्यों।

धाय के धाँसत काम क्रोधा सिंधु संगम में

मन की हमारे ऐसी गति निरधारी क्यों।

झूठे जग लोगन में दौरि के लगत नेह

साँचे सच्चिदानन्द में प्रेम ना सुधारी क्यों।

बिकल बिलोकत न हिय पीर मोचत हौ

ए हो दीनबन्धु दीनबन्धुता बिसारी क्यों ?


ले चल वहाँ भुलावा दे कर

मेरे नाविक धीरे धीरे।

जिस निर्जन में सागर लहरी

अम्बर के कानों में गहरी।

निश्छल प्रेम-कथा कहती हो

तज कोलाहल की अवनी रे।

जहाँ साँझ सी जीवन छाया

ढीली अपनी कोमल काया।

नील नयन से ढुलकाती हो

ताराओं की पाँति धानी रे।

जिस गम्भीर मधुर छाया में

विश्व चित्रापट चल माया में।

विभुता पड़े दिखाई विभु-सी

दुख सुख वाली सत्य बनी रे।

श्रम-विश्राम क्षितिज बेला से

जहाँ सृजन करते मेला से।

अमर जागरण उषा नयन से

बिखराती हो ज्योति घनी रे।

2. पं. सुमित्रानंदन पन्त की गणना भी प्रसिध्द छायावादी कवियों में है। उन्होंने दो-तीन ग्रन्थ भी लिखे हैं, 'पल्लव'उनका सबसे प्रसिध्द ग्रन्थ है। उनकी रचनाएँ एक अनूठापन लिये हुए हैं, जिनमें उनकी हृत्तांत्राी बड़ी मधुरता से झंकृत होती है। उनकी अधिकतर कविताएँ भाव-प्रधान हैं, उसमें मार्मिकता भी पायी जाती है। जितने युवक छायावादी कवि हैं उनमें इनका प्रधान स्थान है, और वास्तव में ये हैं भी इस योग्य। इनकी कुछ रचनाएँ देखिए-

सुख-दुख

मुझको न चाहिए चिर सुख

चाहिए न रे अविरत दुख।

सुख दुख की खेल मिचौनी

खोले जीवन अपना मुख।

सुख दुख के मधुर मिलन से

यह जीवन हो परिपूरन।

फिर घन में ओझल हो शशि

फिर शशि से ओझल हो घन।

जग पीड़ित है अति दुख से

जग पीड़ित रे अति सुख से

दुख-सुख से औ सुख-दुख से

अविरत दुख है उत्पीड़न।

अविरत सुख भी उत्पीड़न

सोता जगता जग-जीवन।

यह साँझ उषा का ऑंगन

आलिंगन विरह मिलन का।

चिरहास अश्रुमय आनन

रे इस मानव जीवन का।

याचना

बना मधुर मेरा जीवन

नव नव सुमनों से चुन चुन कर धूल सुरभि मधु-रस हिम कण।

मेरे उर की मृदु कलिका में भरदे करदे विकसित मन।

बना मधुर मेरा भाषण

वंशी से ही करदे मेरे सरल प्राण औ सरस बचन।

जैसा जैसा मुझको छेड़े बोलूँ और अधिक मोहन।

जो अकर्ण अहि को भी सहसा कर दे मंत्रामुग्धानतफन।

रोम रोम के छिद्रों से मां फूटे तेरा राग गहन।

बना मधुर मेरा तन मन

3. पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' छायावादियों में सबसे निराले हैं। यदि प्राचीनों के प्रति किसी छायावादी में कुछ श्रध्दा और प्रेम है तो इन्हीं में। इनमें सहृदयता भी अधिक है। ये सरस और भावमय रचना का आदर करते हैं, वह चाहे जहाँ मिले। इनकी रचनाओं में इस भाव की सच्ची झलक मिलती है। इनमें मनस्विता अधिक है, इसलिए उसका विकास भी इनकी कृतियों में यथेष्ट मिलता है। बंगाल में अधिकतर रहने के कारण इनकी रचनाओं में बंगभाषा के कवियों का भाव और ढंग भी पाया जाता है। भाव प्रकाशन-शैली इनकी गंभीर है, किन्तु इतनी नहीं कि वह बोधागम्य न हो। छायावादी कवियों में इनका भी विशेष स्थान है। इनकी दो कविता पुस्तकें भी निकल चुकी हैं, जो सरस और सुन्दर हैं। उनके कुछ पद्य देखिए-

गीत

जग का एक देखा तार।

कण्ठ अगणित देह सप्तक मधुर स्वर झंकार।

बहु सुमन बहु रंग निर्मित एक सुन्दर हार।

एक मृदु कर से गुँथा उर एक शोभा भार।

गंधा अगणित मंद नंदन विश्ववंदन सार।

सकल उर चंदन अलौकिक एक अनिल उदार।

सतत सत्य अनादि निर्मल सकल सुख-विस्तार।

अयुत अधारों में सुसिंचित एक किंचित प्यार।

तत्तव नभ-तम में सकल भ्रम शेष प्रेमाकार।

अलक-मंडल में यथा मुखचन्द्र निरलंकार।

4. पं. मोहनलाल महतो कवि हैं और चित्राकार भी। इसलिए वे चित्राण कला का मर्म पहचानते हैं। यही कारण है कि उनकी रचनाओं का रंग मनोहर होता है। उनमें भावों का ऐसा सुन्दर विकास होता है कि जटिलता नहीं आने पाती। छायावादी कवि होकर भी प्रांजल कविता करने की ओर आप की रुचि अभिनन्दनीय है। आपके दो ग्रंथ निकल चुके हैं और दोनों सुन्दर हैं। उनकी कुछ रचनाएँ देखिए-

वरदान

मिले अधारों को वह मुसकान।

जिसे देख सहृदय का अन्तर भर जावे भगवान।

नयनों को ऐसी चितवन दे जो करुणा छलका दे।

रो दें वीणापाणि कण्ठ को देना ऐसे गान।

मिले हृदय जिसकी धाड़कन से मिली विश्वतंत्राी हो।

न्योछावर होना सिखला दें देना ऐसे प्राण।

इस कवि को ऐसे अवरोहण आरोहण सिखलाना।

हों जिसके अनुरूप जगत के पतन और उत्थान।

दे ऐसी तन्मयता जिसमें अपनापन खो बैठूँ।

फिर तुझको अपने में पाऊँ दे ऐसे वरदान।


तुम्हारे अश्रु कणों का दान।

नयनों को इस सजल भीख पर है सकरुण अभिमान।

यौवन की मधुमय दोपहरी में अपनापन भूला।

शतदल की पंखड़ियों से मिल विकसित होते प्राण।

आलोकित था अन्तरतर किसकी मुसकान विभा से।

सुला रहे थे चेतनता को थपकी देकर गान।

था निसर्ग प्याला सारी सुखमा मादक मदिरा थी।

मैं पीता था और पिलाता था कोई अनजान।

तू करुणामय करुणा में था ये ऑंखें पगली थीं।

तू रोदन में मैं विनोद में था विलीन भगवान।

अच्छा किया छिपा छलना से ममता पूर्ण खिलौना।

मिथ्या सुख विस्मृति को अपनी ओर दिलाया धयान।

सर्वशून्य जीवन का तू है आशामय आधार।

तेरी निर्ममता में है करुणा का छिपा प्रमाण।

5. बाबू सत्यप्रकाश एम.एस-सी. की एक ही पुस्तक निकली है, उसका नाम है 'प्रतिबिम्ब' किन्तु उस एक ही पुस्तक से उनकी सरस हृदयता का पता चलता है। उसमें जितनी रचनाएँ हैं, परिमार्जित रुचि की हैं और यह बतलाती हैं कि उनका लेखक चिन्ताशील और कवि-कर्म का मर्मज्ञ है। उनकी रचना में प्रवाह है और मधुरता भी। उन्होंने अपनी रचना में जटिलता नहीं आने दी, यह प्रशंसा की बात है। उनके कुछ पद्य देखिए-

सान्त बनाकर मुझको नटवर का हो जाना परम अनन्त।

निर्जन बन में मुझे छोड़कर भटकाना जीवन पर्यंत।

संख्यातीत रूप धारण कर बहला कर भग जाना।

मेरी फिर इस विकट व्यथा पर कभी-कभी मुसकाना।

लीला यह सर्वज्ञ शक्य की उसके यदि ये ही व्यापार।

तो फिर कैसे सान्त पथिक का हो सकता है अब उध्दार।

6. श्रीमती महादेवी वर्मा, बी. ए. पहली महिला हैं जिन्होंने छायावाद की रचना प्रारम्भ की है। स्त्री हृदय में जो स्वाभाविक कोमलता होती है, इनकी रचनाओं में वह पायी जाती है। स्त्री-सुलभ भावों का चित्राण यथार्थ रीति से स्त्री ही कर सकती है। इनके पद्यों को पढ़कर यह बात असंदिग्धा हो जाती है। उनमें स्थान-स्थान पर जटिलता है, किन्तु मधुर कोमलकान्त पदावली में वह छिप जाती है। इनके कोई-कोई पद्य इतने भावमय हैं कि यह स्वीकार करना पड़ता है कि उनमें भावुकता की मात्रा यथेष्ट है। इनके कुछ पद्य देखिए-

कहीं से आयी हूँ कुछ भूल।

रहरह कर आधी सुधि किसकी , रुकती-सी गति क्यों जीवन की

क्यों अभाव छाये लेता , विस्मृति सरिता के कूल।

किसी अश्रुमय घन का हूँ कन टूटी स्वर-लहरी का कम्पन।

या ठुकराया गिरा धूलि में हूँ मैं नभ का फूल।

दुख का कण हूँ या सुख का पल करुणा का घन या मरुनिर्जल।

जीवन क्या है मिला कहाँ सुधि बिसरी आज समूल।

प्याले में मधु है या आसव बेहोशी है या जागृति नव।

बिन जाने पीना पड़ता है ऐसा विधि प्रतिकूल।

अब छायावाद के कुछ अग्रसर कविता लेखकों की चर्चा करता हूँ-

1. पंडित माखनलाल चतुर्वेदी आरम्भ काल से ही छायावादी कविता के प्रेमी हैं। जहाँ तक मेरा ज्ञान है उन्होंने जब लिखी तब छायावादी कविता ही लिखी। उनकी रचनाएँ थोड़ी हैं, परन्तु हैं बड़ी भावमयी और सुन्दर। यदि मैं भूलता नहीं हूँ तो यह कह सकता हूँ कि पत्रा-पत्रिकाओं में 'भारतीय आत्मा' के नाम से जितनी कविताएँ निकली हैं वे सब उन्हीं की कृति हैं। चतुर्वेदी जी की वक्तृताओं में जैसा प्रवाह होता है वैसा ही प्रवाह उनकी रचनाओं में भी है। उनकी अधिकांश रचनाएँ मर्म-स्पर्शिनी हैं। मैं समझता हूँ, आप ही ऐसे छायावादी कवि हैं जिनकी रचनाओं में देश-प्रेम का रंग यथेष्ट पाया जाता है। उनकी कुछ रचनाएँ देखिए-


चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ।

चाह नहीं प्रेमी-माला में ¯ बधा प्यारी को ललचाऊँ।

चाह नहीं सम्राटों के शव पर हे हरि डाला जाऊँ।

चाह नहीं देवों के सिर पर चढ़ईँ भाग्य पर इठलाऊँ।

मुझे तोड़ लेना बन माली उस पथ पर तुम देना फेंक।

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जावें वीर अनेक।

2. पं. बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' छायावादी कविता करने में कुशल हैं। वे अपनी रचनाओं के लिए बहुत कुछ प्रशंसा प्राप्त कर चुके हैं। उनका मानसिक उद्गार ओजमय होता है। इसलिए उनकी रचनाओं में भी यह ओज पाया जाता है। वे कभी-कभी ऐसी रचनाएँ करते हैं जिनसे चिनगारियाँ कढ़ती दृष्टिगत होती हैं। परन्तु जब शान्त चित से कविता करते हैं तो उनमें सरसता और मधुरता भी पायी जाती है। उनकी कविता भावमयी के साथ प्रवाहमयी भी होती है। उनमें देश-प्रेम भी है, एक पद्य देखिए-

साखी

साकी मन घन गन घिर आये उमड़ी श्याम मेघमाला।

अब कैसा बिलम्ब तू भी भर भर ला गहरी गुल्लाला।

तन के रोम रोम पुलकित हों लोचन दोनों अरुण चकित हों।

नस नस नव झंकार कर उठे हृदय विकम्पित हो , हुलसित हो।

कब से तड़प रहे हैं , खाली पड़ा हमारा यह प्याला।

अब कैसा विलम्ब साकी भर भर ला अंगूरी हाला।

और और मत पूछ दिये जा मुँह माँगा बरदान लिये जा।

तू बस इतना ही कह साकी और पिये जा और पिये जा।

हम अलमस्त देखने आये हैं तेरी यह मधुशाला।

अब कैसा बिलम्ब...

बड़े बिकट हम पीने वाले तेरे गृह आये मतवाले।

इसमें क्या संकोच लाज क्या भर भर ला प्याले पर प्याले।

हम-से बेढब प्यासों से पड़ गया आज तेरा पाला।

अब कैसा बिलम्ब...

तू फैला दे मादक परिमल जग में उठे मदिर रस छल छल।

अतल बितल चल अचल जगत में मदिरा ,

झलक उठे झल झल।

कल् कल् छल् छल् करती बोतल से उमड़े मदिरा वाला।

अब कैसा बिलम्ब...

3. बाबू रामकुमार वर्मा, एम. ए. ने थोड़े ही समय में छायावाद के क्षेत्र में अपना अच्छा नाम कर लिया। जैसा उनका कण्ठ मधुर है वैसी ही मधुर उनकी कविता भी है। कविता-पाठ के समय जैसा वे रस की वर्षा करते हैं वैसी ही रसमयी उनकी कविता भी है। इनका शब्द-चयन भी अच्छा है और भावानुकूल उसका प्रयोग करने में भी वे समर्थ हैं। जिस प्रकार की कविता उनकी होती है, वैसी कविताओं को वे छायावाद कहने को प्रस्तुत नहीं है। परन्तु प्रचलित परम्परानुसार उनकी कविता को भी मुझको छायावाद की कविता ही मानना पड़ा। उनकी कविताएँ छायावाद न हों, जो हों, पर हैं हृदयग्राहिणी। इनके कुछ पद्य देखिए-

रूपराशि

यह प्रशान्त छाया।

सोती है शिशु-पल्लव के हिलने से कम्पन आया।

प्रेयसि शयन धारा पर करने में है स्वर्गोल्लास।

देखो छाया पड़ी हुई है मृत पल्लव के पास।

और तुम्हारे उर में जो है भाग्यवान वह हार।

कभी गिरेगा भूपर लेकर अपना सूखा भार।

आओ हम दोनों समीप बैठें देखें आकाश।

वे दोनों तारे देखो कितने कितने हैं पास।

उपसंहार

हिन्दी साहित्य का विकास किस प्रकार हुआ और कब-कब वह किन-किन रूपों में कैसे परिणत हुआ, मुझको यही प्रकट करना इष्ट था। यह यथासम्भव प्रकट किया गया। इतना ही नहीं, इस विषय में जितने आवश्यक साधान थे उनको भी ग्रहण किया गया। हिन्दी भाषा का वर्तमान रूप बहुत समुन्नत है और वह दिन-दिन विस्तृत और सुपरिष्कृत हो रही है। किंतु एक बात मुझको यहाँ और निवेदन कर देने की आवश्यकता ज्ञात होती है, वह यह कि जितना सुगठित, प्रांजल और नियमबध्द हिन्दी-गद्य इस समय है, उतना उसका पद्य भाग नहीं। गद्य हिन्दी के अधिकांश नियम भारतवर्ष के उन सब प्रान्तों और भागों में सर्वसम्मति से स्वीकृत हैं, जहाँ उसका प्रचार अथवा प्रवेश है। किन्तु पद्य के विषय में यह बात नहीं कही जा सकती। पद्य-विभाग में अभी तक बहुत कुछ मनमानी हो रही है, जिसके मन में जैसा आता है उस रूप में उसको वह लिखता है। मैं पहले खड़ी बोली के कुछ नियम बतला आया हूँ। उन नियमों का अब तक अधिकतर पालन हो रहा है। परन्तु थोड़े दिनों से कुछ लोगों के द्वारा उनकी उपेक्षा हो रही है। यह उपेक्षा यदि भ्रान्ति अथवा बोधा की कमी के कारण होती तो मुझको उसकी विशेष रूप से चर्चा करने की आवश्यकता नहीं थी। किन्तु कुछ लोग तो जान-बूझकर इस प्रकार के कितने प्रयोग कर रहे हैं, जिनको वे प्रचलित करना चाहते हैं, और कुछ लोग इस विचार से ऐसा कर रहे हैं कि वे अपने विचारानुसार भाषा की उन्मुक्त धारा को बंधान में डालना नहीं चाहते। सम्भव है कि कुछ भाषा-मर्मज्ञ इसको अनुचित न समझते हों। परन्तु मेरा निवेदन यह है कि यदि नियमों की आवश्यकता स्वीकृत न होगी तो न तो भाषा की कोई शैली निश्चित होगी और न काव्य शिक्षा-प्रणाली का कोई मार्ग निधर्रित हो सकेगा। किसी विद्या के पारंगत के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता किन्तु प्रत्येक विद्या और कला सीखनी पड़ती है। कोई किसी विद्या का पारंगत यों ही नहीं हो जाता, पहले उसको शिक्षा-लाभ करने की आवश्यकता होती है। यदि कोई नियम ही न होगा तो शिक्षा-सम्बन्धी इस आरम्भिक जीवन का मार्ग ही प्रशस्त न हो सकेगा। इसीलिए साहित्य और व्याकरण के नियम निश्चित किये गये हैं और उन नियमों का पालन करके चलने से ही प्रत्येक शिक्षार्थी इष्ट की प्राप्ति कर सका। मैं जानता हूँ कि भाषा परिवर्तनशील है। वह बदलती है और उसके नियम भी बदलते हैं। परन्तु नियम ही बदलते हैं, यह नहीं होता कि उसका कुछ नियम ही न हो। ऐसी अवस्था में नियम का त्याग नहीं हो सकता।

कहा जाता है कि स्वतंत्रा विचार वाले परतंत्रता कभी स्वीकार नहीं करते। एक सज्जन कहते हैं कि जो लोग उच्छृंखलता का राग अलापते हैं उनको सोचना चाहिए कि उच्छृंखलता शब्द ही में बंधान और परस्परागत पराधीनता का भाव भरा है। उनसे मेरा यह निवेदन है कि नियम के भीतर रहकर जो आवश्यक सुधार अथवा परिवर्तन किये जाते हैं। उनको कोई उच्छृंखलता नहीं कहता। मनमानी करना ही उच्छृंखलता है। इसी मनमानी से सुरक्षित रहने के लिए ही नियम की आवश्यकता होती है। फिर उसमें क्या बंधान है और क्या परम्परागत पराधीनता? प्रतिभावान और साहित्य-मर्मज्ञ जिस मार्ग पर चलते हैं उसका विरोधा कुछ काल तक भले ही हो, परन्तु काल पाकर उनकी प्रणाली आदर्श बन जाती है और उसी पर लोग चलने लग जाते हैं। अतएव विचारणीय यह है कि क्या साहित्य-पारंगत और मर्मज्ञ जन उन्मार्गगामी होते हैं? मेरा विचार है वे उन्मार्गगामी नहीं होते। वे सत्पथ-प्रदर्शक होते हैं। इसीलिए उनके पथ पर स्वीकृति की मुहर लग जाती है। इसका विरोधा मैं नहीं करता और न यह बात है कि मैं इस स्वाभाविकता को स्वीकार नहीं करता हूँ। मेरा कथन यह है कि जो विविधारूपता और अनियमबध्दता साहित्य में दिखलायी दे रही है उसका प्रतिकार किया जावे और खड़ी बोलचाल की कविता की ऐसी प्रणाली निश्चित की जावे, जिसमें एकरूपता हो, जो एक प्रकार से सर्वमान्य हो सके। इसी बात को सामने रखकर मैं कुछ ऐसे प्रयोग भाषा मर्मज्ञों के सामने रखता हूँ जिन पर विचार होने की आवश्यकता है। यदि वे प्रयोग उचित हैं तो जाने दीजिये, मेरी बातों को न सुनिये। यदि अनुचित हैं तो उचित मीमांसा होकर उनके विषय में कोई सिध्दान्त निश्चित कीजिए।

आजकल उर्दू में जिसको रोजमर्रा कहते हैं उनकी परवा हिन्दी रचनाओं में, विशेषकर आधुनिक खड़ी बोली की कविताओं में, कम की जाती है। रोजमर्रा का अर्थ यह है कि जैसा आपस में बोलते-चालते हैं वैसा ही शब्दों का व्यवहार गद्य और पद्य में भी करें। यदि हम बोलते हैं 'ऑंख देखी बात' तो 'ऑंख देखी बात' ही लिखना चाहिए, 'ऑंख बिलोकी' या 'ऑंख निहारी बात लिखना' संगत नहीं। बोलचाल है कि हमारा पाँव दुख रहा है। यदि इसके स्थान पर हम लिखें कि 'हमारा पाँव दुख पा रहा है'तो ऐसा लिखना उचित न होगा। इसी प्रकार मुहावरे के जितने वाक्य हैं वे उन्हीं शब्दों में परिमित हैं, जिन शब्दों में बोले जाते हैं। उनके शब्दों को बदल देना और उसी मुहावरे में उस वाक्य को ग्रहण करना नियम-विरुध्द है। मुहावरा है 'दाँत निकालना'। यदि हम 'दाँत' के स्थान पर 'दसन' या 'दंत' प्रयोग कर देंगे तो यह प्रयोग नियमानुकूल न होगा। परंतु ऐसे प्रयोग किये जाते हैं। मेरा कथन यह है कि ऐसा होना उचित नहीं।

एक पक्ष वालों का यह सिध्दांत है कि ब्रजभाषा के शब्द खड़ी बोलचाल की कविता में आने ही नहीं चाहिए, उसकी क्रियाओं का प्रयोग तो किसी अवस्था में न होना चाहिए। दूसरे पक्ष के लोग कहते हैं कि ब्रजभाषा के कोमल और मुधार शब्द अवश्य ले लिये जायँ और विशेष अवस्थाओं में क्रिया भी ले ली जाय, परंतु तब जब उसको खड़ी बोली का रूप दे दिया जावे। आजकल की रचनाओं में दोनों प्रकार के प्रयोग मिलते हैं और उन लोगों को इस प्रकार का प्रयोग करते देखा जाता है जिनकी रचनाएँ प्रामाणिक मानी जाती हैं। इस भिन्नता से दूर होने की आवश्यकता है। मेरा पक्ष दूसरा है। परंतु मैं 'पत्ता' के स्थान पर 'पात', 'पुष्प' के स्थान पर 'पुहुप', 'हृदय' के स्थान पर 'हिय, हिया' अथवा 'रिदै', 'ऑंखें' के स्थान पर 'ऍंखियाँ', 'समय' के स्थान पर'समै', 'पवन' के स्थान पर 'पौन' 'भवन' के स्थान पर 'भौन', 'गमन' के स्थान पर 'गौन', 'नयन' के स्थान पर 'नैन', 'वचन'के स्थान पर 'बैन' या 'बयन', 'मदन' के स्थान पर 'मैन' या 'मयन', 'यम' के स्थान पर 'जम', 'यज्ञ' के स्थान पर 'जग्य', 'योग' के स्थान पर 'जोग' आदि लिखना अच्छा नहीं समझता। इसलिए कि इससे शब्द अधिक बिगड़ते हैं और उस रूप में सामने आते हैं जो खड़ी बोली के नियम के विरुध्द हैं।

खड़ी बोली का यह नियम है कि उसके कारक के चिद्द लोप नहीं किये जाते। पहले इस नियम की रक्षा सतर्कता के साथ की जाती थी किन्तु अब यह देखा जाता है कि इस बात की परवा कम की जाती है विशेषकर पद्य के अन्त में। यह ब्रजभाषा का अनुकरण है। खड़ी बोलचाल के नियमानुसार या मुहावरों में जहाँ कारक के चिद्द लुप्त रहते हैं, उनके विषय में मुझे कुछ नहीं कहना है। परन्तु अन्य अवस्थाओं में कारक के चिद्दों का त्याग न होना चाहिए।

खड़ी बोली में अब तक यह होता आया था कि 'न' का अनुप्रास 'ण' को मान लेते थे। परंतु 'प्राण' के स्थान पर 'प्रान'लिखना पसंद नहीं करते थे। इसी प्रकार युक्त विकर्ष को भी अच्छा नहीं समझते थे। अब देखते हैं कि युक्त विकर्ष भी होने लगा है और णकार का नकार किया जाने लगा है। शकार को भी सकार कर दिया जाता है, कभी अनुप्रास के लिए, कभी कोमलता की दृष्टि से। जब सकार का अनुप्रास शकार मान लिया गया है तब अनुप्रास के लिए 'शकार' का सकार करना उचित नहीं। शब्द की कोमलता के धयान से शकार का सकार होना अच्छा नहीं। क्योंकि ऐसी अवस्था में शब्द की शुध्दता का लोप हो जाता है।

यह देखा जाता है कि अंग्रेजी मुहावरों का अनुवाद करके ज्यों का त्यों पद्यों में रख दिया जाता है। जैसे, 'golden end' का'स्वर्ण अवसान' 'Golden dream' का 'स्वर्ण स्वप्न', 'Golden shadow' का 'कनक छाया', और 'Dreamy splendour' का 'स्वप्निल आभा'। इसका परिणाम यह होता है कि कोई अंग्रेजी का विद्वान् उन अनुवादित मुहावरों का अर्थ भले ही समझ ले, परन्तु अधिकांश हिन्दी भाषा भाषी जनता उसको नहीं समझ सकती। इसका कारण पद्य की जटिलता और दुरूहता होती है। इसलिए इस प्रकार का प्रयोग वांछनीय नहीं। एक भाषा के मुहावरे का अनुवाद दूसरी भाषा में नहीं होता। इसका नियम यह है कि या तो उसका भाव अपनी भाषा में रख दिया जाय अथवा उसी भाव का द्योतक कोई मुहावरा अपनी भाषा का चुन कर पद्य में रखा जावे। मैं यह नहीं कहता हूँ कि नये मुहावरे नहीं बनते या नहीं बनाये गये। मेरा कथन इतना ही है कि मुहावरों की रचना के भी नियम हैं। उर्दू में कितने ही मुहावरे बन गये हैं, जैसे 'हवा बाँधना', 'हवा हो जाना', 'हवा बिगड़ जाना' इत्यादि। किन्तु विचारना यह है कि ये मुहावरे बने कैसे? ये मुहावरे बोलचाल में आकर बने और फिर कवियों और लेखकों द्वारा गृहीत हुए। प्रमाण इसका यह है कि हिन्दी के जितने मुहावरे हैं, वे सब प्राय: तद्भव शब्दों से बने हैं। हिन्दी का कोई मुहावरा प्राय: संस्कृत शब्दों से नहीं बना है। कारण इसका यह है कि जनता की बोलचाल ही मुहावरों को जन्म देती है। संस्कृत के तत्सम शब्द कभी जनता की बोलचाल में नहीं थे। इसलिए मुहावरों में वे न आ सके। उर्दू के मुहावरों की भी उत्पत्ति ऐसे ही हुई है। यही प्रणाली ग्रहण कर यदि नये मुहावरे बनाये जायँ तो कोई आपत्ति नहीं। अन्यथा पद्यविभाग जटिल से जटिलतर हो जावेगा। दूसरी बात यह है कि जब गद्य में इस प्रकार के मुहावरे नहीं लिखे जाते तो पद्य में उनका प्रयोग कहाँ तक संगत है। विशेषकर उस अवस्था में जब गद्य और पद्य की भाषा की एकता का राग अलापा जाता है। मैं यह जानता हूँ कि गद्य की भाषा से पद्य की भाषा का कुछ अन्तर होता है। किन्तु इसके भी कुछ नियम हैं। उन नियमों की रक्षा के विषय में ही मेरा निवेदन है।

आजकल यह भी देखा जाता है कि कुछ ऐसे समस्त शब्द बना लिये जाते हैं जो संस्कृत के नियमानुसार अशुध्द तो हैं ही, हिन्दी भाषा के नियमानुसार भी वे न तो गृहीत होने योग्य हैं, न उनका इस प्रकार प्रयोग होना उचित है। ऐसे समस्त शब्छ भी कुछ अंग्रेजी प्रणाली के अनुसार बनाये जाते हैं, और कुछ कवि की अहम्मन्यता अथवा प्रमाद के परिणाम होते हैं। ऐसे शब्दों या वाक्यों का अर्थ इतना दुर्बोधा हो जाता है कि उसके कारण् प्रांजल से प्रांजल पद्य भी जटिल बन जाते हैं। यदि कहा जाय 'उन्मत्ता क्रोधा', 'सरसईर्षा', 'ललित-आवेश', 'विहँसित-क्रन्दन', 'रुदित हँसी', 'खिलखिलाती चिन्ता', 'नाचती निद्रा', 'जागती नींद', 'उड़ता हृदय', 'सोता कलेजा' तो बतलाइये, इन शब्दों का क्या अर्थ होगा बोलचाल में तो इनका स्थान है ही नहीं, कवि-परम्परा में भी ऐसे से प्रयोग गृहीत नहीं हैं फिर कहिये इस प्रकार का प्रयोग यदि किया जाता है तो उसको निरंकुशता छोड़ और क्या कह सकते हैं। जहाँ दोषों की गणना की गई है वहाँ एक दोष 'अप्रयुक्त' भी माना गया है। जिसका प्रयोग न हुआ हो, उस शब्द या वाक्य का प्रयोग करना ही अप्रयुक्त दोष कहलाता है। जैसा वाक्य मैंने ऊपर लिखा है, इस प्रकार का वाक्य विन्यास तो अप्रयुक्त दोष से भी दो कदम आगे है। फिर भी आज दिन इस प्रकार के प्रयोग होते हैं। मेरा विचार है कि ऐसे प्रयोग चाहे नवीन आविष्कार कहलावें और प्रयोग कत्तर् के सिर पर नवीन आविष्कारक होने का सेहरा बाँध दें, परन्तु भाषा में ऐसा विप्लव उपस्थित करेंगे, जिससे वह पतनोन्मुख होगी और उसका स्थान कोई दूसरी उन्नतिशील और सुगठित भाषा ग्रहण कर लेगी। हम इस प्रकार के प्रयोगों को चमत्कृत बुध्दि का विलास नहीं कह सकते और न वह विलक्षण प्रतिभा की ही विभूति है। हाँ, उसे किसी अवांछनीय मनोवृत्तिा का फल अवश्य मान सकते हैं। यह मैं मानूँगा कि इस प्रकार की निरंकुशता और उच्छृंखलता होती आई है। यदि ऐसा न हो तो 'निरंकुशा: कवय:' क्यों कहा जाता? सब भाषाओं में ऐसे लेखक और कवि मिलते हैं कि नियमबध्दता होने पर भी उनके विषय में यह कहावत चरितार्थ होती है-मुरारे: तृतीय: पन्था:। यह मान भी लें तो यह स्वीकार करना पड़ेगा कि सब बातों की सीमा होती है। सीमोल्लंघन होना अच्छा नहीं होता। दूसरी बात यह कि निरंकुशता निरंकुशता ही है, उस पर निन्दनीयता की मुहर लगी हुई है। वह नियम के अन्तर्गत नहीं है,अपवाद है। यदि उच्छृंखला एवं निरंकुशता की उपेक्षा होती तो समालोचना प्रणाली का जन्म ही न होता। समालोचना का कार्य यही है कि वह इस प्रकार की नियम-प्रतिकूलता को साहित्य में स्थान न ग्रहण करने दे। जिससे किसी व्यक्ति विशेष का इस प्रकार का अनियम अन्यों का आदर्श बन सके। यह भी देखा गया है कि समालोचना के आतंक ने उनको भी सावधान कर दिया है, जो निरंकुश कहलाने ही में अपना गौरव समझते थे। सारांश यह कि साहित्य के हित की दृष्टि से जो बात उचित हो,उसकी ओर साहित्य-मर्मज्ञों की दृष्टि का आकर्षित होना आवश्यक है, जिससे साहित्य लांछित होने से बचे और इसी सदुद्देश्य से इस बात की चर्चा यहाँ की गयी है।

मेरा विचार है और मुझको आशा है कि खड़ी बोली का पद्य विभाग सुविकसित होकर बहुत उन्नत होगा और वह साहित्य सम्बन्धी ऐसा आदर्श उपस्थित करेगा जो उसके सामयिक विकास के अनुकूल होगा। यहाँ जो कुछ लिखा गया वह इसी विचार से लिखा गया कि हमारी यह आशा फलीभूत हो और इस मार्ग में जो बाधाएँ हैं उनका नियन्त्राण हो, और जो बातें सुधार-योग्य हों उनका सुधार हो, मुझको यह भी विश्वास है कि यदि मेरी बातों में कुछ भी सार होगा तो अवश्य वे सुनी जायँगी और उनका प्रभाव भी होगा।

  • मुख्य पृष्ठ : अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' हिन्दी नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां
  • मुख्य पृष्ठ : अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' की काव्य रचनाएं
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां