भारतीय वाङ्मय पर एक दृष्टि (निबंध) : महादेवी वर्मा

Bhartiya Vangmy Par Ek Drishti (Hindi Nibandh) : Mahadevi Verma

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एक विशेष भू-खंड में जन्म और विकास पाने वाले मानव को अपनी धरती से पार्थिव अस्तित्व ही नहीं प्राप्त होता, उसे अपने परिवेश से विशेष बौद्धिक तथा रागात्मक सत्ता का दाय भी अनायास उपलब्ध हो जाता है। वह स्थूल सूक्ष्म, बाह्य आंतरिक तथा प्रत्यक्ष-अगोचर ऐसी विशेषताओं का सहज ही उत्तराधिकारी बन जाता है, जिनके कारण मानव समष्टि में सामान्य रहते हुए भी सबसे भिन्न पहचाना जा सकता है । यह सामान्यता में विशेषता न उसे मानव समष्टि के निकट इतना अपरिचित होने देती है कि उसे आश्चर्य समझा जा सके और न इतना परिचित बना देती है कि उसके संबंध में जिज्ञासा ही समाप्त हो जाए।

इस प्रकार प्रत्येक भू-खंड का मानव दूसरों को जानता भी है और अधिक जानना भी चाहता है ।

मनुष्य की स्थूल पार्थिव सत्ता उसकी रंग- रूपमयी आकृति में व्यक्त होती है। इसके बौद्धिक संगठन से, जीवन और जगत-संबंधी अनेक जिज्ञासाएँ, उनके तत्त्व की शोध और समाधान के प्रयास, चिंतन की दिशा आदि संचालित और संयमित होते हैं। उसकी रागात्मक वृत्तियों का संघात उसके सौंदर्य-संवेदन, जीवन और जगत के प्रति आकर्षण - विकर्षण, उन्हें अनुकूल और मधुर बनाने की इच्छा, उसे अन्य मानवों की इच्छा से संपृक्त कर अधिक विस्तार देने की कामना और उसकी कर्म-परिणति आदि का सर्जक है ।

मानव-जाति की इन मूल प्रवृत्तियों के लिए वही सत्य है जो भवभूति ने करुण रस के संबंध में कहा है-

एको रसः करुण एव निमित्त भेदादभिन्नः पृथक पृथगिवाश्रयते विवर्त्तान् ।
आवर्तबुद्बुतरंगमयान् विकारानंभो यथा सलिलमेव तु तत्समग्रम् ।

एक करुण रस ही निमित्त भेद से भिन्न-भिन्न मनोविकारों में परिवर्तित हो जाता है, जिस प्रकार आवर्त, बुबुद्, तरंग आदि में परिवर्तित जल, जल ही रहता है।

यह निमित्त भेद अर्थात् देश, काल, परिवेश आदि से उत्पन्न विभिन्नताएँ, एक मानव या मानव-समूह को दूसरों से सर्वथा भिन्न नहीं कर देतीं, प्रत्युत् वे पार्थिव, बौद्धिक और रागात्मक दृष्टि से विशेष व्यक्तित्व देकर ही मानव सामान्य सत्य के प्रमाण प्रस्तुत करती हैं ।

किसी मानव समूह को, उसके समस्त परिवेश के साथ तत्त्वतः जानने के लिए जितने माध्यम उपलब्ध हैं, उनमें सबसे पूर्ण और मधुर उसका साहित्य ही कहा जायगा । साहित्य में मनुष्य का असीम, अतः अपरिचित और दुर्बोध जान पड़ने वाला अंतर्जगत बाह्यजगत में अवतरित होकर निश्चित परिधि तथा सरल स्पष्टता में बँध जाता है तथा सीमित, अतः चिर-परिचय के कारण पुराना लगने वाला बाह्य जगत अंतर्जगत के विस्तार में मुक्त होकर चिर नवीन रहस्यमयता पा लेता है। इस प्रकार हमें सीमा में असीम की और असीम में संभावित सीमा की अनुभूति युगपद् होने लगती है। दूसरे शब्दों में, हम कुछ क्षणों में असंख्य अनुभूतियों और विराट ज्ञान के साथ जीवित रहते हैं, जो स्थिति हमारे शांत जीवन को अनंत जीवन से एकाकार कर उसे विशेष सार्थकता और सामान्य गंतव्य देने की क्षमता रखती है। प्रवाह में बनने-मिटने वाली लहर नव-नव रूप पाती हुई लक्ष्य की ओर बढ़ती रहती है, परंतु प्रवाह से भटक कर अकेले तट से टकराने और बिखर जाने वाली तरंग की यात्रा वहीं बालू-मिट्टी में समाप्त हो जाती है। साहित्य हमारे जीवन को ऐसे एकाकी अंत से बचाकर उसे जीवन के निरंतर गतिशील प्रवाह में मिलने का सम्बल देता है।

जहाँ तक परिवर्तन का प्रश्न है, मनुष्य के पार्थिव परिवेश में भी निरंतर परिवर्तन हो रहा है और उसके जीवन में भी । जहाँ किसी युग में ऊँचे पर्वत थे, वहाँ आज गहरा समुद्र है और जहाँ आज अथाह सागर लहरा रहा है, वहाँ किसी भावी युग में दुर्लघ्य पर्वत सिर उठा कर खड़ा हो सकता है । इसी प्रकार मनुष्य के जीवन ने भी सफल-असफल संघर्षों के बीच जाग कर, सो कर, चल कर, बैठ कर, यात्रा के असंख्य आयाम पार किए हैं। पर न किसी भौगोलिक परिवर्तन से धरती की पार्थिव एकसूत्रता खंडित हुई है, न परिवेश और जीवन की चिर नवीन स्थितियों में मनुष्य अतीत बसेरों की स्मृति भूला है ।

अपने विराट और निरंतर परिवर्तनशील परिवेश तथा अनदेखे अतीत और केवल कल्पना में स्थिति रखने वाले भविष्य के प्रति मनुष्य की आस्था इतनी विशाल और गुरु है कि उसे सँभालने के लिए उसने एक विराट, अखंड और सर्वज्ञ सत्ता को खोज लिया है, जो हर अप्रत्यावर्तित अतीत की साक्षी और हर अनागत भविष्य से प्रतिश्रुत है ।

हमारा विशाल देश, असंख्य परिवर्तन सँभालने वाली अखंड भौगोलिक पीठिका की दृष्टि से विशेष व्यक्तित्व रखता है। इसके अतिरिक्त मनुष्य जाति के बौद्धिक और रागात्मक विकास ने उस पर जो अमिट चरण-चिह्न छोड़े हैं, उन्होंने इसके सब ओर महिमा की विशेष परिधि खींच दी है। यह उनका दाय भी है और न्यास भी ।

जिस प्रकार ऊँचे पर्वत-शिखर पर जल, हिम बन कर शिलाखंडों के साथ पाषाण रूप में अनंत काल तक स्थिर भी रह सकता है और अपनी तरलता के साथ प्रपात और प्रपात से नदी बन कर निरंतर प्रवाहित भी होता रह सकता है, इसी प्रकार मानव संस्कृति को विकास के एक बिंदु पर चिर निस्पंदता भी प्राप्त हो सकती है और अनवरत प्रवाहशीलता भी । एक में एकरस ऊँचाई है और दूसरी स्थिति में समतल पाने के लिए भी पहले उसका निम्नगा होना अनिवार्य ही रहेगा ।

धरती के प्रत्येक कोने और काल के प्रत्येक प्रहर में मनुष्य का हृदय किसी उन्नत स्थिति के भी पाषाणीकरण को अभिशाप मानता रहा है। इस स्थिति से बचने के उसने जितने प्रयत्न किए हैं, उनमें साहित्य उसका निरंतर साथी रहा है।

दर्शन पूर्ण होने का दावा कर सकता है, धर्म अपने निभ्रांत होने की घोषणा कर सकता है, परंतु साहित्य मनुष्य की शक्ति दुर्बलता, जय-पराजय, हास-अश्रु और जीवन-मृत्यु की कथा है। यह मनुष्य रूप में अवतरित होने पर स्वयं ईश्वर को भी पूर्ण मानना अस्वीकार कर देता है ।

पर इस स्वेच्छा स्वीकृत अपूर्णता या परिवर्तनशीलता से जीवन और उसके विकास की एकता का सूत्र भंग नहीं होता।

नदी के एक होने का कारण उसका पुरातन जल नहीं, नवीन तरंगभंगिमा है। देश-विशेष के साहित्य के लिए भी यही सत्य है । प्रत्येक युग के साहित्य में नवीन तरंगाकुलता उसे मूल प्रवाहिनी से विचिछन्न नहीं करती, वरन् उन्हीं नवीन तरंग-भंगिमाओं की अनंत आवृत्तियों के कारण मूल प्रवाहिनी अपने लक्ष्य तक पहुँचने की शक्ति पाती है।

इस दृष्टि से यदि हम भारतीय साहित्य की परीक्षा करें तो काल, स्थिति, जीवन, समाज, भाषा, धर्म आदि से संबंध रखनेवाले अनंत परिवर्तनों की भीड़ में भी उसमें एक ऐसी तारतम्यता प्राप्त होगी, जिसके अभाव में किसी परिवर्तन की स्थिति संभव नहीं रहती। समुद्र की वेला में जो धरती व्यक्त है, उसी की अव्यक्त सत्ता तल बन कर समुद्र की अथाह जलराशि को सँभालती है। हमें समुद्र के जल का व्यवधान पार करने के लिए तट की धरती चाहिए और समुद्र को जल का व्यवधान बने रहने के लिए तल की धरती चाहिए । साहित्य के पुरातन और नूतन के अविच्छिन्न संबंध के मूल में भी जीवन की ऐसी ही धरती है।

संस्कृति मनुष्य के, बुद्धि और हृदय के जिस परिष्कार और जीवन में उसके व्यक्तीकरण का पर्याय है, उसका दाय विभिन्न भू-खंडों में बसे हुए मानव मात्र को प्राप्त है, परंतु संस्कृति की साहित्य में प्राचीनतम अभिव्यक्ति वेद-साहित्य के अतिरिक्त अन्य नहीं है।

वस्तुतः देश - काल की सीमा से परे उक्त साहित्य मानव जाति के विकास की आदिम गाथा है ।

सहस्रों वर्षों के व्यवधान के उपरांत भी भारतीय चिंतन, अनुभूति, सौंदर्य-बोध, आस्था आदि में उसके चिह्न अमिट हैं। यह तथ्य तब और भी अधिक विस्मयकारक बन जाता है, जब हम समय के कुहरे के अनंत स्तर और अपनी दृष्टि की व्यर्थता का अनुभव करते हैं। पर प्रकृति के जिस नियम से मनुष्य के शरीर को पैतृक दाय के रूप में शक्ति, दुर्बलता, व्याधि विशेष के कीटाणु, रोग विशेष के प्रतिरोध की क्षमता आदि अनजाने ही प्राप्त हो जाते हैं, उसी नियम से उसके मानसिक गठन का प्रभावित होना भी स्वाभाविक कहा जायगा ।

जीवन की दृष्टि से वेद-साहित्य इतना अधिक विविध है कि उसके लिए, महाभारत की विशालता व्यक्त करने वाली उक्ति 'यन्नभारते तन्नभारते' ही चरितार्थ होती है।

दाशराज्ञ युद्ध जैसे सर्वसंहारी संघर्ष में महाभारत का पूर्वरंग है । अनेक नाटकीय संवादों में नाट्यशास्त्र की भूमिका है। विभिन्न विचारों के प्रतिपादन में दर्शन की अनेक आस्तिक-नास्तिक सरणियों की उदार स्वीकृति है । जल, स्थल, अंतरिक्ष आकाश आदि में व्याप्त शक्तियों की रूपात्मक अनुभूति और उनके रागात्मक अभिनंदन में काव्य और कलाओं के विकास के इंगित हैं । व्यक्ति और समष्टि की कल्याण कामनाओं में जीवन के नैतिक मूल्यों के निर्देश हैं। कर्म के विस्तृत विवेचन में कर्त्तव्य की रेखाएँ आँकी गई हैं। व्यापक-कोमल कल्पना के छायालोक में, जीवन के कठोर सीमित यथार्थ चित्रों ने धरती के निकट रहने का संकेत दिया है।

भारतीय जीवन के स्थूल कर्म से ले कर सूक्ष्म बौद्धिक प्रक्रिया और गंभीर रागात्मकता तक जो विशेषताएँ हैं, उनका तत्त्वतः अनुसंधान हमें किसी न किसी पथ से इस बृहत् जीवन-कोष के समीप पहुँचाए बिना नहीं रहता।

इसका तात्पर्य यह नहीं कि वर्तमान अतीत की अनुकृति मात्र हैं । पर हम यदि मानव जीवन की निरंतर और किसी सामान्य लक्ष्योन्मुख गतिशीलता को स्वीकृति देते हैं, तो उसकी यात्रा के आरंभ का कोई बिंदु स्वीकार करना ही होगा, जो गंतव्य के चरम और अंतिम बिंदु से अदृष्ट रह कर भी उससे विच्छिन्न नहीं हो सकता। विकास पथ का एक होना, यात्रियों की विभिन्नता, उनकी शक्तियों की विषमता, पाथेय की विविधता और गति की अनेकता को अस्वीकार नहीं करता। इतना ही नहीं, वह चलने वालों की बौद्धिक और रागात्मक वृत्तियों की मुक्तावस्था को भी किसी संकीर्ण क्षितिज से नहीं घेरता ।

धर्मग्रन्थों के लिए मनुष्य की एकांगी दृष्टि ऐसा अँधेरा बंदीगृह बन जाती है, जिसमें उनकी उज्ज्वल रेखाएँ भी धूमिल हो जाती हैं। एक ओर धर्मविशेष के प्रति आस्थावान तत्संबंधी ग्रन्थों के चतुर्दिक् अपने अंधविश्वास और रूढ़िवादिता की अग्निरखा खींच देते हैं और दूसरी ओर भिन्न धर्मपद्धति के अनुयायी अपने चारों ओर उपेक्षा की इतनी ऊँची दीवारें खड़ी कर लेते हैं, जिन्हें अन्य दिशा से आने वाली वायु के पंख भी नहीं छू पाते। ऐसी स्थिति में धर्मग्रन्थ, अनजान कृपण की रत्नमंजूषा बन जाते हैं, जिसके यथार्थमूल्यांकन में एक ओर मोहांधता बाधक है और दूसरी ओर अपरिचयजनित उपेक्षा ।

यह स्वाभाविक ही है कि धर्मग्रन्थों की सीमा के भीतर रह कर अपना परिचय देने वाले साहित्य को भी इस भ्रांत परिचय और अपरिचय का अभिशाप झेलना पड़ा। ऐसे धर्मग्रन्थों की संख्या अधिक है जो अपने कथ्य की मर्मस्पर्शी सामान्यता, शैली की मधुर स्पष्टता और भाषा के सहज सात्विक प्रवाह के कारण साहित्य की कोटि में स्थिति रखते हैं, परंतु उनके लिए साहित्य की देश-काल-संप्रदायातीत मुक्ति दुर्लभ ही रहेगी।

वेद-साहित्य संकीर्ण अर्थ में धर्म विशेष का परिचायक ग्रन्थ समूह नहीं है । उसमें न किसी धर्म विशेष के संस्थापक के प्रवचनों का संग्रह है और न किसी एक धर्म की आचार पद्धति या मतवाद का प्रतिष्ठापन या प्रतिपादन है। वस्तुतः वह अनेक युगों के अनेक तत्त्वचिंतक ज्ञानियों और क्रांतद्रष्टा कवियों की स्वानुभूतियों का संघात है। मनुष्य की प्रज्ञा की जैसी विविधता और उसके हृदय की जैसी रागात्मक समृद्धि वेद साहित्य में प्राप्त है, वह मनुष्य को न एकांगी दृष्टि दे सकती है न अंधविश्वास । आकाश के अखंड विस्तार में केंद्रित दृष्टि के लिए घट की सीमा में प्रतिबिम्बित आकाश ही अंतिम सत्य कैसे हो सकता है।

वेदमनीषा 'नेति नेति' कह कर जिसकी अनंतता स्वीकार करती है, उसी की सीमा निश्चित करने की भूल उससे संभव नहीं । पर यह ज्ञान - राशि ऐसा समुद्र है, जिसके तट पर बालकों को शंख घोंघे मिल सकते हैं, तैरना न जानने वाले को छिछला जल सुलभ है, गहराई में पहुँच कर आँखें खोलने वाले को मोती प्राप्त हो सकता है और अपने भार से डूबने वाले विशालकाय जहाजों का चिह्न शेष नहीं रहता। पर न घोंघे की उपलब्धि से समुद्र मूल्यरहित हो जाता है और न मोती से महार्घ । न तट पर गहराई का अभाव उसे तुच्छ प्रमाणित कर सकता है और न मँझधार के अतल जल पर ही उसकी महत्ता निर्भर है। वस्तुतः इन विविधताओं को एक अखंड पीठिका देने वाली क्षमता ही उसकी महिमा का कारण है।

अवश्य ही हमारे और इस वृहत् जीवन - कोष के बीच समय का पाट इतना चौड़ा और गहरा हो गया है कि उस तट के एक स्वर, एक संकेत को भी हम तक पहुँचने के क्रम में अनेक भूमिकाएँ पार करनी पड़ी हैं।

वेद-साहित्य के निर्माण-काल के संबंध में इतना अधिक मतभेद है कि जिज्ञासु का किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जाना ही स्वाभाविक है। विविध मतवादियों ने, मानव-मनीषा की इस आश्चर्य कथा का रचना-काल दो हजार वर्ष ईसा पूर्व से लेकर पंद्रह हजार वर्ष ईसा पूर्व तक फैला दिया है और वे अपने-अपने मत के समर्थन में जो तर्क उपस्थित करते हैं वे उन वर्षों की संख्या से भी अधिक हैं।

हमारे शोध के मापदंड इतिहास के हैं, अतः इतिहास की सीमा से अनंत दूरी रखने वाले युग यदि उनकी सीमा के बाहर हों तो आश्चर्य नहीं ।

आलोक को सूर्य से पृथ्वी तक आने में कितना समय लगता है, अंतरिक्ष के एक छोर से दूसरे छोर तक ध्वनि की यात्रा किस क्रम से कितने समय में पूर्ण होती है, यह जानने में समर्थ विज्ञान भी, इस जिज्ञासा का समाधान नहीं कर सका है कि मानवीय विचार और संवेदन का एक युग से दूसरे में संक्रमण किस क्रम और कितने समय की अपेक्षा रखता है। पर वर्षों की संख्या और इतिहास की ऊहापोह के अभाव में भी हमारे हर चिंतन, हर कल्पना, हर भावना में मानो 'तत्वमसि' तुम वही हो, का कभी स्पष्ट कभी अस्पष्ट स्वर गूँजता रहता है, जो प्रमाणित करता है कि हमारे बुद्धि और हृदय के तारों में कोई दूरागत झंकार भी है। जिसके संबंध में तर्क के निकट असंख्य उलझने हैं, उसके संबंध में हमारा हृदय कोई प्रश्न नहीं करता, क्योंकि हमारी अंतश्चेतना उसे अपना स्वीकार कर लेती है।

इतना तो निश्चित है कि वेद-साहित्य जिस रूप में हमें उपलब्ध है, उस तक पहुँचने में वेदकालीन मनीषा को विशाल समय सागर पार करना पड़ा होगा। भाषा, छंद, चित्रात्मक भाव, गहन विचार-सरणि आदि से यह किसी प्रकार सिद्ध नहीं होता कि वह जीवन का तुतला उपक्रम है।

वह तो मानवता के तारुण्य का ऐसा उच्छल प्रपात है जो अपने दुर्वार वेग को रोकने वाली शिलाओं पर निर्मम आघात करता और मार्ग देने वाली कोमल धरती को स्नेह से भेंटता हुआ आगे बढ़ता है। इस तारुण्य के पास अदम्य शक्ति, अडिग विश्वास, और अपने सुंदर परिवेश के लिए अम्लान भाव सुमन हैं। वह जीवन से विरक्त नहीं होता, संघर्ष से पराजय नहीं मानता, प्रतिकूल परिस्थितियों से पराङ्मुख नहीं होता और कर्म को किसी कल्पित स्वर्ग नरक का प्रवेशपत्र नहीं बनाता।

ऐसे तारुण्य की कथा अपनी सरल स्पष्टता में भी रहस्यमयी हो सकती है, क्योंकि उसमें प्रवृत्तियाँ, दीर्घ अभ्यास से स्थिर एकरसता नहीं पा लेतीं, प्रत्युत् उनके विकास की अनेक अपरिचित दिशाएँ और अतर्कित परिणाम संभव हैं। उदाहरण के लिए हम वैदिक चिंतन को ले सकते हैं, जो मानव-सुलभ जिज्ञासा और उसके संभावित समाधानों का संघात होने के कारण सबके लिए सामान्य है। परंतु उसकी षड्दर्शनों में परिणति जब छः विशेष चिंतन-पद्धतियों में स्थिर हो गई, तब प्रत्येक पद्धति के सावधान समर्थक और सतर्क विरोधी उत्पन्न हो गए, क्योंकि ज्ञान जब मतवाद की कठिन रेखाओं में सीमित होकर अपना परिचय देता है तब विवादैषणा उसका सहजात परिणाम है। वैदिक चिंतन के मूल में ऋत् या उस सनातन नियम का बोध था, जिससे सृष्टि का समग्र जड़-चेतन-व्यापार नियमित और संचालित होता है और इस रूप में चिंतन की सामान्यता निर्विवाद ही रहती है।

वैदिक साहित्य चारों वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक और उपनिषदों तक फैला हुआ है, परंतु उसका चेतना - केंद्र वेद-संहिताएँ और उनमें भी ऋग्वेद ही कहा जाएगा, जिससे मानव की बुद्धि और उसका हृदय, विविध विचार और भावनाओं को जीवन-रस पहुँचाता रहा है।

ऋग्वेद ऋक् या छंदस् का संग्रह है, जिसके दस मंडलों में 1017 के लगभग सूक्त और 106000 के लगभग मन्त्र उपलब्ध हैं, जो कथ्य की मौलिकता की दृष्टि से तो महार्घ हैं ही, भाषा, शैली, छंद और चमत्कारिक उक्तियों के कारण भी मानव जाति का महत्त्वपूर्ण उत्तराधिकार हैं ।

यजुष् में मन्त्र और ब्राह्मण. अंश अर्थात् छंद और गद्य यज्ञ-विषयक कर्म विधान को दृष्टि में रख कर संग्रहीत किए गए हैं। अतः इसके 40 अध्यायों और 1990 के लगभग मन्त्र संख्या में विविध यज्ञ-अनुष्ठान में प्रयुक्त होने वाले मन्त्रों और उनकी सफलता के लिए निश्चित विधि-विधान ही समाविष्ट है ।

साम, जिसका अर्थ प्रीतिकर भी होता है, गेय मन्त्र - समूह है, जिसके 1649 मन्त्रों में से 78 नवीन मन्त्रों के अतिरिक्त शेष मन्त्र ऋग्वेदीय ही हैं। गेय ऋक् का गान ही साम है।

प्रथम यही त्रयी वेद अभिधान के अंतर्गत आती रही, पर अंत में अथर्व ने वेद संज्ञा से अभिहित होकर वेद संहिताओं को चतुर्मुखी कर दिया।

अथर्व में ऋग्वेद के कुछ ऋक् अवश्य हैं, परंतु उसके गद्य-पद्यों में संग्रहीत विषय, अपनी नूतनता के कारण अन्य वेद संहिताओं में संग्रहीत सामग्री से भिन्न हैं । तत्त्व-चिंतन की ऊँचाई से तंत्र-मन्त्र-अभिचार के गर्त तक सब कुछ उसमें सहज प्राप्त है, मानो मनुष्य के ज्ञान और अंधविश्वास में स्थायी संधि हो गई हो। जीवन के व्यावहारिक और अलौकिक पक्ष, वनस्पति, औषधि, धरती, अंतरिक्ष, राष्ट्र, समष्टि, व्यष्टि आदि से संबंध रखने वाला इतना विविध ज्ञान-विज्ञान उसमें संग्रहीत है कि उसका तत्त्वतः परीक्षण और मूल्यांकन, युगों का अवकाश और पीढ़ियों का आयास चाहता है ।

ऋक् का मंडलों, अनुवाकों, सूक्तों और मंत्रों में विभाजन, तत्कालीन चिंतकों की दूरदृष्टि और सत्य को अक्षुण्य रखने का संकल्प का परिचायक है।

सत्य निर्मित नहीं किया जाता, उसे साधना से उपलब्ध किया जाता है, यह आज भी प्रमाणित है। वैदिक ऋषि भी अपनी अंतश्चेतना में जीवन के रहस्यमय सत्य की अनुभूति प्राप्त करता है और उसे शब्दायित करके दूसरों तक पहुँचाता है। यह सत्य उसके तर्क-वितर्क का परिणाम नहीं है, न वह इसका कर्तृत्व स्वीकार कर सकता है। जो नियम सृष्टि को संचालित करते हैं, ऋषि उनका द्रष्टा मात्र है । जीवन के अव्यक्त रहस्यों के सृजन का तो प्रश्न ही क्या, जब जगत के भौतिक तत्त्वों की खोज करने वाला आज का वैज्ञानिक भी यह कहने का साहस नहीं करता कि वह भौतिक तत्त्वों का स्रष्टा है ।

कवि या कलाकार को भी जीवन के किसी अंतर्निहित सामंजस्य और सत्य की प्रतीति इसी क्रम से होती है, चाहे भाषा, छंद और अभिव्यक्ति-पद्धति उसकी व्यक्तिगत हो । जल की एकता के कारण ही जैसे उसके एक अंश में उत्पन्न कंपन दूसरी ओर तक पहुँच जाती है, अंतरिक्ष का विस्तार ही जैसे एक ओर की ध्वनि को दूसरी ओर तक संक्रमित कर देता है, वैसे ही चेतना की अखंड व्याप्ति, अपने ऋत् रूप सत्य को भिन्न चेतना - खंडों के लिए सहज संभव कर देती है।

वाणी मनुष्य का सबसे मौलिक और चमत्कारी आविष्कार है। प्रकृति ने मनुष्य के साथ पशु जगत को भी अपने सुख-दुख व्यक्त करने के लिए कुछ ध्वनियाँ दी हैं। इतना ही नहीं, जड़ प्रकृति में भी आकर्षण - विकर्षण के नियम से कुछ स्वर उत्पन्न और विलीन होते रहते हैं। पर मनुष्य को प्राप्त ध्वनि समूह की जैसी अक्षर परिणति हो सकी है, वैसी न पशु-पक्षियों को प्राप्त ध्वनियों के लिए संभव थी न प्रकृति की निस्तब्धता भंग करने वाले स्वर- संघात के लिए, क्योंकि वे प्रकृति के परिवर्तन या अपनी आवश्यकताएँ व्यक्त करने में उनका उतना ही प्रयोग करते हैं जितना प्रकृति को अभीष्ट है।

मनुष्य ने प्राकृतिक दाय को स्वीकार करके भी उसे अपना नियामक नहीं बनने दिया, परिणामतः प्रकृतिदत्त उत्तराधिकार में अपनी सृजनात्मक चेतना मिला कर उसने उसमें जीवन के रहस्य का समाधान पा लिया।

पशु कालांतर में विशालकाय से लघुकाय होकर भी पशु ही रह गया, पक्षिकुल शून्य में उड़ान भर कर भी प्रकृति की बंदी बना रह गया। केवल मनुष्य ही ने प्रकृति के दान को निरुपायता में स्वीकार नहीं किया और वह आदिम युग से अब तक पशु से देवता तक न जाने कितनी भूमिकाओं में अवतीर्ण होता आया है। किस लक्ष्य तक पहुँच कर उसकी चेतना से और आगे बढ़ने का संकल्प मिट सकेगा, गति की विद्युत् बुझ सकेगी, इसे कोई अज्ञातनामा अनागत युग ही बता सकेगा ।

भाषा को भी उसके अथक प्रयासों ने नव-नव अवतार दिए हैं। उसने अशरीरी ध्वनि को शब्द की सार्थकता में साकारता ही नहीं दी, प्रत्युत् उसे ब्रह्म या विराट अखंड चेतना का पर्याय भी बना दिया।

मनुष्य की कल्पनाशील सृजनशक्ति का जैसा परिचय वेद में मिलता है वैसा कदाचित् ही अन्यत्र मिल सकेगा। प्रत्येक ऋक् छंदगठित शब्द-समूह है, जिसका उद्भावक ऋषि है। इस शब्दगठन द्वारा जिस शक्ति का आवाहन और अभिनंदन होता है वही उसका देवता है।

अपने शब्द संकेत के प्रति, प्रत्येक उद्गाता इतना सतर्क है कि वह किसी निरर्थक ध्वनि के प्रवेश के लिए कोई रंध्र नहीं छोड़ता । लिपि के आविर्भाव के पूर्व रचित यह साहित्य कंठ से कंठ में संक्रमण करता हुआ अपना श्रुति नाम सार्थक करता रहा। लिखित शब्द का पाठक उसके उच्चारण में जितनी भूलें कर सकता है, उतनी उच्चरित शब्द ध्वनि का अपने कंठ से अनुकरण करने वाला श्रोता नहीं करता। स्वरों को, आरोह, अवरोह की दृष्टि से, उदात्त, अनुदात्त और स्वरित के क्रमों में बाँधा गया है। पद पाठ, क्रम पाठ, जटा पाठ, घन पाठ आदि पठन-विधियों का उद्देश्य, प्रत्येक शब्द की अनेक आवृत्तियों द्वारा उसे ध्वनि और तत्त्व की दृष्टि से शुद्ध रखना है । तत्त्व- ज्ञान की उपलब्धि साधना से साध्य हो सकती है, किंतु ज्ञान की ऐसी रक्षा और उसे दूसरों तक तत्त्वतः और मूलतः पहुँचाने की ऐसी चिंता तथा इतने पूर्ण माध्यम दुर्लभ ही रहेंगे। समय के निर्मम प्रवाह से संघर्ष करते-करते वर्ण, शब्द आदि में जो परिवर्तन अनिवार्यतः आ गए हैं, उनसे उक्त प्रयत्न- परंपरा की महत्ता में अंतर नहीं आता ।

सामान्यतः जिन अनेक दृष्टियों से वेद का अर्थ ग्रहण होता है, उनमें तीन विशेष कही जाएँगी - आधिभौतिक, आधिदैवत और आध्यात्मिक, जो ऊपरी तल पर एक दूसरी से भिन्न जान पड़ने पर भी गहराई में एक हो जाती हैं। पर समय के असंख्य आवरण भेद कर दृष्टि का उस गहराई तक पहुँचना कठिन है । वेदों के निघण्टु या शब्दकोश के लिए यास्क का महत्त्वपूर्ण निरुक्त है, जिसमें शब्दों की व्युत्पत्ति मूलक व्याख्या मिल सकती है । वेदार्थ के लिए ख्यातनामा सायण के अतिरिक्त, असंख्य ज्ञातनामा अज्ञातनामा भाष्य-टीकाकार प्राप्त हैं। देश में वेद का नाम मानो घट-घटवासी हो गया है। विदेशी विद्वानों ने बार-बार मुक्त कंठ से वेद व सहित्य को मानवता का अमूल्य दाय स्वीकार किया है, किंतु यह मानव-प्रज्ञा का अक्षय कोश हमारे लिए दुर्गम से दुर्गमतर होता आ रहा है। समय उसके मूल्य से अधिक हमारा उससे अपरिचय बढ़ाता है ।

इस स्थिति का एक कारण धर्मग्रन्थ के रूप में इसकी युग-युगांतर व्यापिनी गोपनीयता है, जि भंग करना नास्तिकता का पर्याय बन जाता है और दूसरा कारण पाठक के मन में उस पूर्वग्रह में मिलेगा जो वेद को विविध वेद विषयक स्तुतिपरक मंत्र- जाल से अधिक नहीं समझना चाहता, जिसका उपयोग आधुनिक युग में संभव नहीं ।

बुद्धि और हृदय के नियम भिन्न हैं । बुद्धि का आकर्षण अज्ञात के प्रति अधिक होता है, क्योंकि उसके लिए अतिपरिचित में जानने योग्य कुछ नहीं रह जाता। पर हृदय की गति ज्ञात की ओर अनायास होती है। जो सुख-दुःख, जय-पराजय, जीवन-मृत्यु में हमारे समान है, उसी से हमारा तादात्म्य सहज है और इस तादात्म्य में हृदय की संवेदनशीलता का विस्तार है। इसी से विज्ञान बुद्धि की खोज है और साहित्य हृदय की प्राप्ति । यदि वेद - साहित्य केवल बुद्धि का विषय है और हृदय के तादात्म्य के लिए उसमें कुछ नहीं मिलता तो वह संग्रहालय की कुतूहलवर्धक सामग्री से भिन्न नहीं । पर यह मान कर हम सहस्रों वर्षों के महाकाश में फैले हुए मानव-संवेदनों को अस्वीकार करेंगे, जो अतीत से अधिक वर्तमान की निर्धनता की घोषणा है ।

वेदकालीन जीवन से अपना बौद्धिक और रागात्मक संबंध स्थापित करने के लिए हमें, ज्ञान के उन्नत शिखरों पर ही दृष्टि केंद्रित न करके उसके चरण-तल में फैली सजल श्यामल धरती का स्पर्श भी पाना होगा। समय के दूसरे छोर पर खड़े हुए मानव के सौंदर्य-बोध, उनके राग-विराग, हर्ष-विषाद, संघर्ष - विश्रांति आदि की गाथा से परिचित होने पर ही उससे हमारा ऐसा तादात्म्य संभव है, जो देशकाल की दूरी अस्वीकार कर मानव हृदय की समानता प्रमाणित कर सकता है।

किसी मानव समूह की दूसरों से भिन्न विशेषता उसके सौंदर्य-बोध से प्राप्त होती है। सौंदर्य-बोध जीवन की सहजात वृत्ति होने के कारण उसी के समान सामान्य और अपने परिवेश में विशेष रहती है । व्यापक अर्थ में वह जीवन के सभी क्षेत्रों में व्यक्त होकर उन्हें प्रभावित करती रहती है । परंतु सौंदर्य की अनुभूति जितनी सहज है उसकी परिभाषा उतनी ही कठिन हो जाती है। सामान्यतः वह ऐसी सुखद अनुभूति है, जो वस्तुओं, रंगों, रेखाओं आदि की विशेष सामंजस्यपूर्ण स्थिति में अनायास उत्पन्न हो जाती है। किसी सीमा तक यह सुख की स्थिति पशु-पक्षियों की अवचेतना या सहज चेतना में भी स्वाभाविक है। मंजरित, पल्लवित और सुरभित समीर से स्पंदित परिवेश में पक्षियों का कलरव, मधुपों का गुंजन विस्तार पाता है । पशु हर्षोन्माद से चंचल हो उठते हैं, मेघ गर्जन के ताल पर मयूर नाचते हैं, चातक पुकारते हैं, बगुले उड़ते हैं। पर ग्रीष्म से झुलसे वातावरण में यह हर्षाकुलता, यह संगीत-नृत्य समाप्त हो जाता है ।

मनुष्य के पास बाह्य जगत के समान एक सचेतन अंतर्जगत भी है, अतः उसका सौंदर्य-बोध दोहरा और अधिक रहस्यमय हो जाता है। वह केवल परिवेश के सामंजस्य पर प्रसन्न नहीं होता, वरन् विचार, भाव और उनसे प्रेरित कर्म की सामंजस्यपूर्ण स्थिति पर भी मुग्ध होता है। उसके अंतर्जगत का सामंजस्य बाह्य जगत में अपनी अभिव्यक्ति चाहता है और बाह्य जगत का सामंजस्य अंतर्जगत में अपनी प्रतिच्छवि आँकना चाहता है।

वेद काल का मानव भौतिक जीवन का भावुक कलाकार ही नहीं, आत्मा का अथक शिल्पी भी है। प्रकृति में उसका सौंदर्य-दर्शन केवल कोमल मधुर तत्त्वों तक ही सीमित नहीं है, वरन् वह उग्र और रूद्र रूपों में भी आकर्षण का अनुभव करता है। जिस तूलिका से वह अपने पार्थिव परिवेश को उज्ज्वल रेखाओं और इंद्रधनुषी रंगों में चित्रमयता देता है, उसी से अपने अंतर्जगत में मंगल संकल्पों को अजर मूर्तिमत्ता प्रदान करता है । उसकी जिस तुला पर ज्ञान की गरिमा तुलती है, उसी पर कर्म-पथ पर पड़े प्रत्येक पग का मूल्य निश्चित होता है। उषा की दीप्त छवि अंकित करने में जिस कुशलता का उपयोग हुआ है, वही नासदीय सूक्त में जिज्ञासाओं को सार्थक वाणी दे सकी है । जिस भक्तिजनित तन्मयता से वह ऋत् के रक्षक वरुण की वंदना करता है, उसी के साथ इंद्र के वज्र - निर्घोष के आह्वान में प्रवृत्त होता है। अपने आपको 'पृथिवीपुत्र' की संज्ञा देकर वह धरती के वरदानों को जैसा आदर देता है, 'आत्मा का विनाश नहीं होता' स्वीकार कर वह अखंड चेतना के प्रति भी वैसा ही विश्वास प्रकट करता है। किसी अन्य युग के काव्य में जिन्हें स्थान मिलना कठिन है, उन विषयों को भी छंदायित करने में ऋषि की प्रतिभा कुंठित नहीं हुई। उलूक, दादुर, ऊखल, श्वान आदि ऐसे ही विषय हैं।

जीवन को सब ओर से स्पर्श करने वाली दृष्टि मूलतः और लक्ष्यतः सामंजस्यवादिनी ही होती है । वेद-साहित्य में आकाश, अंतरिक्ष और पृथ्वी में व्याप्त शक्तियों को जो देवत्व प्राप्त हुआ है उसमें भी एक विशेष तारतम्यता का सौंदर्य मिलता है।

सूर्य, उषा, वरुण आदि आकाश में सबसे ऊँची स्थिति रखने के कारण सृष्टि का नियमन और संचालन करते हैं। वायु-मंडल में स्थिति रखने वाले इंद्र, मरुत आदि उथल-पुथल उत्पन्न करके भी जल-वृष्टि से पृथ्वी को उर्वर बनाते हैं। अग्नि और सोम की पृथ्वी पर इतनी उपयोगी स्थिति थी कि वे पृथ्वी के देव मान लिए गए।

यह देवताओं की अनेकता धीरे-धीरे एक केंद्र-बिंदु में समाहित हो गई, परंतु वेदकालीन चिंतक की जिज्ञासा किसी एक व्यक्तिगत देव तक पहुँचकर रुकनेवाली नहीं थी। अतः इस अनेकता का विलय एक अखंड व्यापक चेतना में उसी प्रकार हो गया जैसे विभिन्न तरंग, बुबुद् आदि समुद्र से बन कर उसी में विलीन हो जाते हैं।

इन देवताओं और प्रकृति पर आरोपित चेतना - खंडों की कल्पना को, वैदिक कवि ने सौंदर्य की जिन रेखाओं में बाँधा है वे तत्त्वतः भारतीय हैं । उनका अपने परिवेश से अविच्छिन्न संबंध ही उनकी सर्वमान्यता का कारण है। खंड सौंदर्य को विराट की पीठिका पर रख कर देखने का संस्कार गहरा है, अतः देवत्व से अभिषिक्त न होने पर भी वे खंड अपनी स्वतः दीप्ति से दीप्त हो उठते हैं। पृथ्वी, नदी, अरण्य आदि अपनी सत्ता विशेष के कारण ही जीवन के सहचर और किसी व्यापक अखंड के अंशभूत रह कर सार्थकता पाते हैं । वैदिक चिंतक की तत्त्व स्पर्शी दृष्टि, सृष्टि की असीम विविधता को पार कर एक तत्त्व-गत सूत्र खोज लेती है ।

एतावानस्य महिमाऽतो ज्यायांश्च पुरुषः ।
पादोस्य विश्वभूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि ।।
( पुरुष सूक्त )

( यह सब उसकी महिमा है, पुरुष इससे बड़ा है । विश्वभूत इसका एक पाद (अंश) है, इनके अमृत त्रिपात (तीन अंश) दिव्य लोक में अवस्थित हैं ।)

पर यह सूक्ष्म दृष्टि उसकी हार्दिकता को नहीं भेदती, इसी से वह अरण्य को ममता से सम्बोधित करती है-

अरण्यान्यरण्यान्यसौ या प्रेव नश्यसि ।
कथं ग्रामं पृच्छसि न त्वा भीरिव विंदतिम ।।
( अरण्यानी सूक्त )

(हे अरण्यानी (वन) तुम देखते-देखते अंतर्हित होकर इतनी दूर चली जाती हो कि दृष्टिगत नहीं होतीं । तुम क्यों ग्राम में जाने का पथ पूछती हो ? क्या एकाकीपन से सभीत नहीं होतीं ? )

आन्जनगंधि सुरभिं वहवन्नामकृषीवलाम् ।
प्राहं मृगाणां मातरमरण्यानिमशंसिषम् ।।
(अरण्यानी सूक्त)

(मृगनाभि के समान अरण्यानी का सौरभ है । वहाँ आहार है, पर कृषि का अभाव है। वह मृगों के लिए माता है। इस प्रकार मैं अरणयानी का स्तवन करता हूँ ।)

नासदीय सूक्त में जिज्ञासा जीवन की विविध रूपात्मकता के सौंदर्य पर दृष्टि - निक्षेप न करके प्रश्नों और अनुमानों की गंभीरता में व्यक्त होती है-

न मृत्युरासीदमृतं न तहिं न रात्र्या अह्न आसीत प्रकेतः ।
आसीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न पर किञ्चनास । ।

( उस समय न मृत्यु थी न अमरता । रात और दिन का भेद भी अज्ञात था । वायु के अभाव में अपने आत्मावलम्बन से श्वास प्रश्वास लेता हुआ केवल एक तत्त्व (ब्रह्म) था, उसके अतिरिक्त कुछ नहीं था।)

पर यही वीतरागता दिवस के आगमन की सूचना देने वाली किरणों को रागारुण कर उन्हें चेतन व्यक्तित्व और सौंदर्य का परिधान देकर मुग्ध भाव में परिवर्तित हो जाती है-

वयश्चित्तें पतत्रिणो द्विपच्चतुष्पदर्जुनि ।
उषः प्रान्नृतूंरनु दिवोऽतेंभ्यस्परि ।।

(हे उज्ज्वलवर्णा ! हे उषा ! तुम्हारे आगमन के साथ ही सब द्विपद, चतुष्पद और पंखवाले खग आकाश मंडल के नीचे अपने कार्य में लग जाते हैं ।)

एता उत्या उषमः केतुमक्रत पूर्वे अर्धे रजसो भानुमञ्जते ।
निष्कृण्वाना आयुधानीव घृष्णवः प्रति गावो रुषीयंति मातरः । ।

(उषाओं ने आलोक फैला दिया है। वे प्रथम पूर्व दिशाकाश को आलोकित करती हैं। वीर जैसे अपने आयुधों का परिमार्जन कर उन्हें उज्ज्वल बनाते हैं, उसी प्रकार अपने तेज से संसार का परिमार्जन कर गतिशील और तेजोमयी उषा माताएँ प्रतिदिन चली जाती हैं ।)

वेद साहित्य की चिंतन-पद्धति ने यदि भारतीय चिंतन को दिशा ज्ञान दिया है तो उसकी रागात्मक अनुभूति ने भावी युगों की काव्य-कलाओं में स्पंदन जगाया है। प्रकृति से रागात्मक संबंध, उस पर चेतन व्यक्तित्व का आरोप, रहस्य को व्यक्त करनेवाली जटिल उक्तियाँ, भक्तिजनित-निवेदन आदि बिना कोई संस्कार छोड़े हुए अंतर्हित हो गए, यह समझना मानव चेतना की संश्लिष्टता पर अविश्वास करना होगा।

यह अनुभव सिद्ध है कि भाषा की परंपरा और पुस्तकीय ज्ञान का क्रम टूट जाने पर भी मनुष्य की बुद्धि और उसका हृदय, पूर्व संस्कारों का दाय सुरक्षित रखने में समर्थ है। संस्कृति इसी रक्षा का पर्याय है और इसी कारण लिखित शास्त्रीय ज्ञान से अपरिचित भारतीय ग्रामीण, नागरिक से अधिक संस्कृत कहा जायगा। वैदिक कालीन संस्कार, निधि भी इसी प्रकार सुरक्षित रही हो तो आश्चर्य नहीं ।

2

वेदकाल के पट-परिवर्तन में हमारी दृष्टि जिस कवि मनीषी और उसकी कृति पर पड़ती है, उन्हें भारतीय प्रतिभा ने आदि कवि और आदि काव्य की सार्थक संज्ञाएँ दी हैं। आर्ष वाणी का अनुगमन करनेवाली, व्याकरण नियमों से संयमित हो कर भी स्वच्छंद संस्कृत भाषा का प्रथम काव्य तो वह है ही, पर कथ्य की दृष्टि से भी उसकी विशेषता मौलिक कही जायगी। उसमें प्रथम बार मानव ने देवताओं को सिंहासनच्युत कर दिया है। अब मानव अपने संकटकाल में देवताओं का आह्वान न करके अस्त्र उठाता है और देवों के सख्य की उपेक्षा कर अपने पराक्रम और कर्त्तव्य को जीवन-संगी का आदर देता है।

ऐसी मानव- गाथा का उद्गाता कवि अपने विद्रोह में भी पहला कहा जाएगा। उसके हृदय में कथा की प्रेरणा, किसी समाधि- स्थिति से नहीं उद्भूत हुई, वरन् यह एक लघुकाय, अल्पप्राण पक्षी की वेदना से निःसृत हुई है।

हमारे नरमेध, गोमेध, अश्वमेध आदि के महारव से भरे हुए कर्णरंध्रों में, जब क्षुद्र क्रौञ्च की दीन क्रंदन ध्वनि प्रवेश पा लेती है, तब हम चौंक उठते हैं। कैसे इस लघु आँसू की बूँद को दुःख के महासागर की समानता करने का साहस हुआ ? पर जब हम क्षणिक क्रंदन के इसी अस्फुट स्वर से किसी वीतराग ऋषि की प्रतिभा को जागते और अमर सृजन करते देखते हैं, तब हमारा हृदय उक्त घटना की अभूतपूर्वता निर्विवाद स्वीकार कर लेता है। क्रौञ्च के शोक से तादात्म्य करके ऋषि को आदि कवि की पदवी और श्लोक की छंदमयता ही नहीं प्राप्त हुई, उससे उन्हें मानव-जीवन के महागीत के लिए स्वर, लय और ताल खोजने की प्रेरणा भी मिली।

रामायणकाल तक कर्म-परंपरा, नियतिवाद, स्वर्ग-नरक आदि रेखाएँ निश्चित और कठिन हो चुकी थीं। वेदकालीन देव सृष्टि में कई प्रलय आ चुके थे । कुछ शक्तियाँ लुप्त हो चुकी थीं, कुछ देवों के रूप परिवर्तन हो चुके थे, कुछ आर्य देवता अनार्य देवताओं से एकाकार होकर तीसरे रूप में अवतीर्ण हो चुके थे। सारांश यह कि जीवन का रंगमंच एक प्रकार से शून्य था । आदिकवि ने इस पर मनुष्य को अवतीर्ण ही नहीं किया, उसे ऐसी भूमिका में अवतीर्ण किया, जिसने लोक हृदय से देवताओं का मोह ही समाप्त कर दिया। और तब उन स्वर्ग-निवासियों का उपयोग, मनुष्य की पार्श्व छवि के रूप में ही रह गया।

परंतु इसका यह अर्थ नहीं कि आदि कवि ने सब दृष्टियों से पूर्णतम अतिमानव की कल्पना की है। रामायण के नायक राम का व्यक्तित्व सुंदर, शील लोकोत्तर, कर्म लोक-मंगल- विधायक और पराक्रम अजेय है, परंतु उनकी मानव-सुलभ अपूर्णताएँ और दुर्बलताएँ भी कवि के दृष्टिपथ में रहती हैं । न वे राम के अनन्य भक्त कहे जा सकते हैं और न उनके काव्य का लक्ष्य इष्ट की अर्चना - वंदना मात्र है। उनकी यथार्थवादिनी, मर्मभेदिनी दृष्टि वेदकालीन ऋषि की दृष्टि से भी भिन्न है और मध्ययुगीन भक्त की दृष्टि से भी, क्योंकि सामान्यतः एक में जीवन के विविध अभावों की पूर्ति के लिए देव या देव- समूह की प्रसन्नता की अपेक्षा रहती है और दूसरी में भवसागर संतरण के लिए इष्ट के अनुग्रह की याचना की । वाल्मीकि की चेतना मनुष्य की विजय घोषणा के लिए एक ऐसे श्रेष्ठ मानव की उद्भावना करती है, जिससे अपने लिए उसे किसी लौकिक या पारलौकिक दान की न अपेक्षा है न आवश्यकता ।

यह सत्य है कि इस अमर कृति के बाल और उत्तर कांडों में राम में विष्णु के अवतरित होने के संकेत स्पष्ट हैं, परंतु उन अंशों को रामायण का मौलिक अंश मानने के मार्ग में अनेक कठिनाइयाँ हैं। रामायण के रूप में रामगाथा मूलतः कुशीलवों या सूतों द्वारा गाई जाती थी, अतः दीर्घकाल तक उसका कंठ से कंठ में संचरण होता रहा। यज्ञ - विधान या देवाह्वान उसका लक्ष्य न होने के कारण, वेद मन्त्रों के समान, उसके वर्ण, ध्वनि, पाठ आदि की सुरक्षा और शुद्धता भी संभव नहीं थी। लोक-हृदय के अनुरंजन का लक्ष्य रखनेवाली इस श्रेष्ठ मानव- कथा से लोक की ऐसी आत्मीयता स्वाभाविक कही जायगी, जिसके कारण वह कवि की रचना को अपनी भी कृति समझ लेता है और उस पर अपनी भावना का रंग चढ़ाने में संकोच नहीं करता। आज भी अनेक लोक प्रचलित गाथाएँ इस सत्य का प्रमाण हैं । लिपिबद्ध होने तक रामायण में कुछ प्रक्षिप्तांश सम्मिलित हो गए हों तो आश्चर्य नहीं ।

जिन दो कांडों में अवतार का उल्लेख है वे शेष रचना से, वर्णन, शैली आदि की दृष्टि से कुछ भिन्न हैं । इसके अतिरिक्त समस्त रचना में व्याप्त कवि के अभिप्राय से भी यही सिद्ध होता है कि वे राम कथा द्वारा मनुष्य की श्रेष्ठता और महत्ता को वाणी देना चाहते हैं ।

जिसने वेद - छंदों की अतुल संपत्ति का उपयोग न करके नवीन छंद का आविष्कार किया, असंख्य दिव्य आख्यानों की उपस्थिति में मनुष्य के जीवन संघर्ष को अपना विषय बनाया, उसकी मौलिकता, मनुष्य को अपने विवेक और पराक्रम से ही पूर्णता का अधिकार दिलाने में है ।

इस विद्रोही आदि कवि का जीवनवृत्त और रचनाकाल अन्य प्राचीन स्रष्टाओं के जीवन और सृजनकाल के समान ही अनुमान क्षेत्र तक सीमित है। किंवदंतियाँ ऋषि कवि को प्रारंभिक जीवन में, भीमकर्मा और निष्ठुर व्याध या दस्यु के रूप में चित्रित करती हैं, जिसने नारद के उपदेश से परिवर्तित होकर ऐसा कठिन तप किया कि उसके शरीर पर दीमकों ने वल्मीक बना लिए। तपश्चरण के अंत में इस स्थिति से निकलने पर उन्हें वाल्मीक का नाम मिला, जो आदि कवि की उपाधि के समान ही उनकी संघर्ष - शक्ति का परिचायक है। इस लोक-कथा में कल्पना और सत्य का जो सम्मिश्रण है, उससे इतना निष्कर्ष तो निकल ही सकता है कि वे वैदिक ऋषियों के समान कुल परंपरा से ऋषि नहीं थे, पर उनके दृढ़ संकल्प और उसके अनुरूप कठोर साधना ने ही उन्हें ऋषित्व उपलब्ध करा दिया। उनके चरित्र में कठोरता और कोमलता का जो स्थायी संधिपत्र है, उसका मूल्य समझने के लिए हमें उनकी कठोर साधना और क्षुद्र क्रौंच की व्यथा से विगलित हृदय की भावुकता को एक साथ रख कर देखना होगा। इतना तो स्पष्ट है कि राम का चरित्र जिस धातु से बना है, उसी से राम कथा के कवि का भी निर्माण हुआ होगा ।

वेद-साहित्य में अनेक आख्यानों की स्थिति है, जो देवताओं के क्रम से चलते-चलते वीर-गाथाओं तक पहुँच जाते हैं। ये वीर आख्यान ही 'नाराशंसी' संज्ञा पाते हैं और इन्हीं नाराशंसी गाथाओं में रामायण और महाभारत जैसे, भारतीय संस्कृति की विविधता के अजर परिचायक महाकाव्यों के अंकुर हैं। वेदकालीन ऋषि राम, दशरथ, उनके पूर्वज तथा अन्य पराक्रमी राजाओं के नाम से परिचित हैं और उनकी शौर्यगाथाओं की मौखिक परंपरा भी रही होगी। आदि कवि को अपनी रचना के लिए मूल प्रेरणा सूत्र ऐसी ही किसी शौर्यगाथा में मिला होगा, परंतु उसे जीवन का उद्गीथ बना देना स्वयं उन्हीं की सृजनात्मक प्रतिभा से संभव हो सका ।

महाभारत में महर्षि वाल्मीकि और रामायण के उल्लेख हैं, किंतु रामायण में महाभारत के किसी वीर या घटना का संकेत न मिलना यह प्रमाणित करता है कि आदिकाव्य की रचना उससे पूर्व हो चुकी थी । पाणिनि ने भारत संबंधी निर्देश दिए हैं, किंतु रामायण के विषय में वे मौन हैं। आदि कवि ने भी शब्दों के कुछ ऐसे प्रयोग किए हैं, जो वेद भाषा के निकट, पर पाणिनि के व्याकरण-सम्मत प्रयोग से दूर हैं। इसके अतिरिक्त समाज, संस्कृत, धर्म, राजा, नीति आदि की दृष्टि से भी रामायण-काल, महाभारत काल से भिन्न और संस्कार की दृष्टि से उसका पूर्व कहा जाएगा। पर समय के संबंध में हमारी जिज्ञासा को ग्यारहवीं शताब्दी ई. पू. से तीसरी शताब्दी ई. पू. तक लम्बी यात्रा करके भी किसी बिंदु पर विश्राम नहीं मिलता।

महाभारत में अनेक कृतियों का कृतित्व शताब्दियों में संपादित हुआ है और रामायण में एक कवि की रचना अनेक कंठ-परंपरा पार कर दीर्घ काल के उपरांत लिपिबद्धता पा सकी है। एक का प्राप्त कलेवर संपादित है, दूसरी का रचित । महाभारत मानो विशाल और विस्तृत पट है, जिस पर अनेक चितेरों ने अपनी-अपनी रुचि के अनुसार रेखाएँ खींच कर रंग भर दिए हैं और इस प्रकार वह अनेक कल्पनाओं का सम्मिलित अंकन है। इसके विपरीत रामायण के सीमित और छोटे चित्रफलक पर एक ही चितेरे की तूलिका चली है, अतः उसके रंगों और रेखाओं में वही अंकित होता है, जो उस एकाकी चित्रकार की कल्पना में अंकित है। प्रक्षिप्त अंशों से भी यह संश्लिष्टता भंग नहीं होती, क्योंकि उनकी स्थिति दर्शकों द्वारा लगाए गए चिह्नों जैसी है, जो मूल भाव को स्पष्टतर करके देखने की प्रेरणा देते हैं।

आदि कवि की मानव- गाथा मानो कर्त्तव्य का अचल पर्वत और उससे निकली करुणा की चिर चंचल स्रोतस्विनी है। ज्यों-ज्यों स्रोतस्विनी दूर प्रवाहित होती है, अपनी गतिशीलता के लिए ही नहीं अस्तित्व के लिए भी, वह पर्वत की अचलता पर अधिक निर्भर होती जाती है।

परिवेश की विराट विविधता में मनुष्य की रहस्यमय मानसिक वृत्तियों का ऐसा सूक्ष्म निरीक्षण कर आदि कवि ने अपने पात्रों के व्यक्तित्व का निर्माण किया है कि सहस्रों वर्षों की यात्रा के उपरांत और अनेक कवियों की प्रतिभा से प्रसाधित किए जाने पर भी वे वाल्मीकि द्वारा की गई प्राण-प्रतिष्ठा से ही स्पंदित हैं। उनके राम, सीता, भरत आदि में ही नहीं, सुग्रीव, बालि, रावण, विभीषण आदि में भी तत्त्वतः कोई परिवर्तन संभव नहीं हो सका। मानो ऋषि के कमंडल - जल से अभिषेक ने उन्हें ऐसी अजरता दे दी है, जिसे मरणशील सौंदर्य छू नहीं पाता ।

इतना ही नहीं, ऋषि कवि की करुणार्द्र दृष्टि के आकर्षण से, उषा, मरुत् आदि के दिव्य रूपों में आकाशचारिणी प्रकृति अपने धूलि के देश और तृणों के कुटीर में लौट आई। जिस प्रकार मानव अपनी मानवता में महान है, उसी प्रकार तृण अपनी तृणता में महान है। प्रकृति के कठोर और कोमल, सुंदर और विरूप, लघु और विशाल सब रूपों से आदि कवि की जैसी आत्मीयता है, उसका यथार्थ मूल्य समझने के लिए उनके परवर्ती संस्कृत काव्य की दीर्घ परंपरा की शक्ति और दुर्बलता से परिचित होना आवश्यक है। महाकाव्य में प्रकृति-वर्णन, ऋतु-वर्णन आदि की अनिवार्यता के मूल में आदि काव्य का प्रकृति और ऋतु वर्णन ही रहा होगा, परंतु ऐसे महाकवियों की संख्या कम है, जिनमें आदि कवि की दृष्टि की सूक्ष्म मर्मस्पर्शिता और प्रकृति के सब रूपों के प्रति सहज हार्दिकता हो । सूक्ष्म दृष्टि और हार्दिकता के अभाव में एक स्थिति तक पहुँच कर संस्कृत काव्यों के प्राकृतिक वर्णन अप्राकृतिक और विचित्रताओं के कौतुकागार हो गए।

वाल्मीकि की प्रकृति अपने लघुतम रूप में भी स्पंदित व्यक्तित्व रखती है । कवि यदि उसके वसंत वैभव पर मुग्ध होता है तो उसके हिम कुहरावृत्त रूप में भी आकर्षण पाता है ।

मत्त कोकिल सन्नादैर्नर्तयन्निव पादपान् ।
शैलकंदर निष्क्रांतः प्रगीत इव चानिलः । ।
तेन विक्षिपतात्यार्थ पवनेन समंततः ।
अमी संसक्तशाखाग्राः ग्रथिता इव पादपाः । ।
सुपुषितांस्तु पश्यैतान् कर्णिकारान् समंततः ।
हाटक प्रतिसंछन्नान् नरान् पीताम्बरानिव । ।

: गिरि-कंदराओं से निकलता हुआ, ध्वनि युक्त पवन मानो मत्त कोकिल की कूक के ताल पर गाता हुआ वृक्षों को नचा रहा है।

: उस पवन से प्रकंपित वृक्ष एक दूसरे की शाखाओं से शाखाओं के उलझ जाने के कारण परस्पर गुथे हुए से दिखाई देते हैं ।

: इन पुष्पित कर्णिकार ( कनेर) वृक्षों को देखो जो स्वर्णाभरणों से युक्त और पीताम्बर पहने हुए पुरुष जैसे लगते हैं।

वाष्पच्छन्नान्यरण्यानि यव गोधूम वंति च ।
शोभतेऽभ्युदिते सूर्ये नदद्भिः क्रौञ्चसारसे । ।
अवश्याय निपातेन किञ्चित्प्रक्लिन्नशाद्वला ।
वनानां शोभते भूमिः निविष्टतरुणातपा ।।
स्पृशन् सुविपुलं शतीमुदकं द्विरदः सुखम ।
अत्यंत तृषितो वन्यः प्रति सेंहरते करम् ।।
एते हि समुपासीना विहगा जलचारिणः ।
नावगाहंति सलिलमप्रगल्भा इवाहवम् ।।

: कोहरे से ढके हुए वन, जिनमें जौ और गेहूँ के खेत हैं, सूर्योदय के समय बोलते हुए क्रौंच और सारस पक्षियों से शोभित हो रहे हैं।

: ओस से गीली घास से युक्त वनभूमि जिस पर सूर्योदय की धूप फैली हुई है, शोभित होती है ।

: अत्यंत तृषित वन्य गज अत्यंत ठंडे जल का स्पर्श करता है, फिर जल्दी से सूँड़ को हटा लेता है।

: ये बैठे हुए जलचर पक्षी शीत से ठंडे जल में प्रवेश नहीं कर रहे हैं जैसे कार युद्ध में प्रवेश नहीं करते।

जिस मनोयोग से कवि ने वर्षा में प्रकृति की सजल श्यामलता को चित्रमयता दी है, उसी एकाग्रता से उसने शरद की उज्ज्वल रेखाएँ अंकित की हैं।

क्वचित्प्रकाशं क्वचिदप्रकाशं नभः प्रकीर्णाम्बुधरं विभाति ।
क्वचित्क्वचित्पर्वतसंनिरुद्धं रूपं तथा शांतमहार्णवस्य ।।
व्यामिश्रितं सर्जकदम्बपुष्पैः नवं जलं पर्वतधातुताम्रम ।
मयूरके काभिरनुप्रयातं शैलापगाः शीघ्रतरं वहति ।
रसाकुलं षट्पद सन्निकाशं प्रभुज्यते जम्बुफलं प्रकामम् ।
अनेक वर्ण पवनावधूतं भूमौ पतत्याम्रफलं विपक्वम् ।।
बालेंद्रगोपान्तर चित्रितेन विभाति भूमिर्नवशाद्वलेन ।
गात्रानुपृक्तेन शुक प्रभेण नारीव लाक्षोक्षित कम्बलेन । ।

: कहीं प्रकाश युक्त कहीं अंधकारयुक्त मेघों से भरा आकाश ऐसी शोभा पा रहा है मानो शांत महासमुद्र हो, जिसका दृश्य कहीं-कहीं पर्वतों से अवरुद्ध हो गया है ।

: जिनका नया जल सर्ज और कदम्ब के फूलों से मिश्रित और पर्वत से बह कर आती हुई गेरू से लाल है तथा जिनके आसपास मयूर बोल रहे हैं, वे पर्वतीय नदियाँ तीव्र वेग से बह रही हैं ।

: रस से पूर्ण और भ्रमर के समान काले जामुन फल खाये जा रहे हैं और पवन से हिलाये हुए अनेक वर्ण के पके रसाल धरती पर गिर रहे हैं ।

: बीच-बीच में छोटी वीर बधूटियों से चित्रित नई घास के मैदानों से युक्त पृथ्वी, ऐसी शोभा पा रही है मानो शुक के समान हरे रंग वाले और बीच-बीच में लाख से लाल बिंदुओं में चित्रित दुकूल को शरीर से लपेटे हुए कोई नारी हो ।

व्यक्तं नभः शस्त्रविधौतवर्ण कृशप्रवाहानि नदी जलानि ।
काल्हार शीताः पवनाः प्रवांति तमो विमुक्ताश्च दिशः प्रकाशाः । ।
विपक्ववशालिप्रसवानि भुक्त्वा प्रहर्षिता सारस चारु पंक्तिः ।
नभः समाक्रामति शीघ्रवेगा वातावधूता ग्रथितेव माला ।।
नवैर्नदीनां कुसुम प्रहासैर्व्याधूयमानैर्मुदु मारुतेन ।
धौतामल क्षौमपट प्रकाशैः कूलानि काशैरुप शोभितानि ।।

: शस्त्र या असि के समान स्वच्छ वर्ण आकाश अब स्पष्ट है, नदियों के जल का प्रवाह क्षीण हो गया है; कमलों के स्पर्श से शीतल पवन बह रहा है तथा अंधकार से मुक्त दिशाएँ प्रकाशित हो रही हैं।

: पके हुए धान के दानों को चुग कर प्रसन्न हो जाने वाले सारसों की पंक्ति जब वेग से आकाश में उड़ चलती है, तब वायु से, वह किसी गुथी हुई माला के समान अस्तव्यस्त हो जाती है। : जिनके फूलों को वायु धीरे-धीरे हिलाती है और जो धुले हुए स्वच्छ रेशमी वस्त्र के समान प्रभा वाले हैं, ऐसे नये कांसों के समूह से नदियों के तट शोभित हैं।

आदि काव्य में प्रकृति का सहज रूप अनेक बार 'अरण्यानी' के गायक का स्मरण करा देता है । मानव अपने प्रकृति-परिवेश के बिना कितना अकेला है और उसके चिंतन और संवेदन इस स्पंदित सचेतन पृष्ठभूमि के बिना कितने पंगु हो सकते हैं, उसकी कल्पना मात्र हमें अजस्र अभावों की अनुभूति करा देती है।

3

काव्य की दृष्टि से आदि कवि के उत्तराधिकारियों में प्रमुख अश्वघोष और कालिदास कहे जाएँगे, परंतु आदि काव्य और उक्त महाकवियों की रचनाओं के बीच में बौद्धधर्म विषयक पालि वाङ्मय का इतना विस्तार है, जिसे पार किए बिना हम उन तक नहीं पहुँच सकते। इस वाङ्मय ने जब धर्म विशेष के वाहक मात्र के रूप में अपना परिचय दिया तब उसका उपयोग सीमित हो गया और उसे वेद-साहित्य के समान एक ओर अंध-विश्वास और दूसरी ओर उपेक्षा से घिर कर अपनी स्थिति की रचना करनी पड़ी। पर जहाँ वह साहित्य की वाणी में बोला है, वहाँ हृदय की बात को हृदय तक पहुँचने से रोकने में धर्म, संप्रदाय, दर्शन आदि की कोई भित्ति समर्थ नहीं हो सकी।

भाषा, धर्म-सिद्धांत आदि की दृष्टि से भिन्न होने पर भी वह वाङ्मय अपनी आत्मा में भारतीय होने के कारण भारतीय साहित्य यात्रा का एक महत्त्वपूर्ण आयाम है । विशेषतः जातक कथाओं में, जो बुद्धत्व प्राप्त करने के पहले बोधिसत्व की पूर्व-जन्म-कथाएँ हैं, हमारा इतना विशाल आख्यान - साहित्य समाहित है कि उसे अस्वीकृति देना अपने साहित्य को निर्धन बनाना है ।

त्रिपिटक में बुद्ध धर्म संबंधी साहित्य की विषयक्रमानुसार तीन मंजूषाएँ संगृहीत हैं- विनयपिटक, सुत्तपिटक और अभिधम्मपिटक । विनयपिटक में बुद्ध के अनुशासन, भिक्षुओं के संघ-जीवन आदि की व्याख्या है और अभिधम्मपिटक बौद्ध दर्शन तथा धर्म का शास्त्रीय परिचय देता है । साहित्य की दृष्टि से सुत्तपिटक ही सर्वसाधारण के लिए महत्त्वपूर्ण माना जायगा, क्योंकि उसमें धम्म-पद, जातक कथाएँ, थेरी-थेरी गाथाएँ जैसी कृतियाँ संगृहीत हैं, जिनके अभाव में हमारे साहित्य का इतिहास अधूरा रह जाता है।

बुद्ध धर्म के अपने देश से विदा हो जाने के कारण उन साहित्य-कृतियों की ओर हमारा ध्यान कम गया और कालांतर में हम यह भी भूल गए कि साहित्य संप्रदाय में जन्म लेकर भी उससे सीमित नहीं होता। फूल मिट्टी से जन्म पाकर भी उससे भिन्न होता है और सौरभ फूल में उत्पन्न होकर भी उसकी सीमा में नहीं बँध सकता। जीवन की मूलभूत प्रवृत्तियों से सम्बद्ध होने के कारण साहित्य सबका होकर ही सार्थकता पाता है।

हमारा साहित्य गीत की दृष्टि से विशेष समृद्ध रहा है। ज्ञान, आस्था, दर्शन, नीति, अनुभूति आदि को अपने प्रसार के लिए ही नहीं स्थायित्व के लिए भी, गीत के रूप में आना पड़ा है। ऐसी स्थिति में बौद्ध साहित्य में गीत का अभाव संभव नहीं था ।

वीतराग भिक्षु भिक्षुणियों के गीत हमारी अटूट गीत परंपरा की उज्ज्वल कड़ियाँ हैं। यह सत्य है कि बौद्ध साहित्य में विशाल विविधता है, पर धर्म की सीमाहीन विशालता से व्यक्ति उसी प्रकार खो जाता है जैसे समुद्र के विस्तार में तरंग | संपूर्ण समुद्र तरंग के बनने मिटने के लिए हो सकता है, पर रहेगा तो वह समुद्र ही बुद्ध के प्रवचन, बौद्ध संघ, बौद्ध धर्म, बौद्ध दर्शन आदि की विशाल परिधि में एक व्यक्ति के हर्ष-विषाद की कथा रह कर भी दृष्टि को नहीं खींच पाती। उस विराट भाव में मनुष्य का लघु मन कब और कैसे अपने अभाव की आशंका में मुखर हो उठा, यह कहना कठिन है, परंतु उस मुखरता से ही हमें कुछ करुणमधुर गीतों की उपलब्धि हुई है। और ये मुखर हो उठने वाले हृदय कितने विविध हैं ! कोई राजकुमार है कोई दासी पुत्र, कोई ब्राह्मण है कोई शूद्र, कोई साध्वी है कोई नगरवधू, कोई महिषि है और कोई क्रीत सेविका । कोई प्रिय पत्नी से वियुक्त है, कोई माता-पिता से कोई स्वयं समाज की उपेक्षा कर आया है, कोई समाज द्वारा निष्कासित है। कोई विलास-वैभव की एकरसता से थक कर आया है, कोई कठोर परिश्रम की विविध चोटों से आहत होकर । सरांश यह कि विविध वर्ण, परिवार और परिस्थितियों के भुक्तभोगी इन छंदों में अपनी कथाएँ गूँथते हैं ।

यह अनुमान सहज है कि आरंभ में इन गाथाओं की संख्या कम रही होगी और इनका लक्ष्य प्रवचन-मात्र रहा होगा। यह भी संभव है कि मूल रचयिताओं के अतिरिक्त अन्य भिक्षु भिक्षुणियों ने इन्हें दोहराया तिहराया हो और अनेक आवृत्तियों के क्रम में इनमें नए स्वर जुड़ गए हों । पर ऐसी संभावनाएँ रहने पर भी ये गाथाएँ भिक्षु, भिक्षुणियों के अंतर्गत, सुख-दुख, आनंद-विषाद, बंधनमुक्ति आदि के ऐसे मार्मिक और विश्वसनीय चित्र देती हैं कि इनके रचयिताओं को खोज लेना सहज हो जाता है।

जो राज्य-सुख छोड़कर आया है वह अपरिग्रह को अधिक महत्त्व देता है, जो कठोर श्रम करके आया है वह श्रमिक जीवन की वेदना के विषय में अधिक कहता है। जो उच्च वर्ण से सम्बंद्ध है वह ज्ञान और तप की विशेषता की चर्चा अधिक करता है, जो शूद्र कुल से आया है वह समानता को अधिक महत्त्वपूर्ण मानता है। जो दास रह चुका है वह मुक्ति की अधिक प्रशस्ति करता है, जो स्वामी रह चुका है वह पर-पीड़न की अधिक निंदा करता है। इस प्रकार इन गाथाओं में हमें तत्कालीन सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का जैसा परिचय और उसमें पोषित मानव जीवन का जैसा चित्र प्राप्त होता है, वैसा अन्यत्र नहीं मिलता ।

जिन भिक्षु भिक्षुणियों के गीत उपलब्ध हैं, उनकी संख्या क्रमशः 264 और 73 के लगभग है ।

स्तुतिपरक और दिव्यज्ञानसंभूत वेद-गीतों से ये भिन्न कहे जाएँगे, परंतु ज्ञान की महिमा, जीवन की यथार्थ पृष्ठभूमि के संकेत तथा प्रकृति के प्रति रागात्मकता के कारण ये तत्त्वतः वेदगीतों के निकट पहुँचते हैं।

जीवन और मृत्यु के प्रति वीतरागता तथा संयम में निष्ठा तो उनके अपरिग्रही स्वभाव की शपथ है-

मरणे मे भयं नत्थि निकंती नत्यि जीविते ।
संदेहं निक्खिपिस्सामि समाजानो पतिस्सतो' ति ।।

: न मुझे मृत्यु से भय है न जीवन से। मैं इस पंचतत्व के संघात को संयमित चेतना में जाग्रत अंतःकरण के साथ त्याग सकता हूँ ।

उदकं नयंति नेत्तका उसुकारा नमयंति तेजनं,
दारु नमयंति तच्छका आत्तानं दयमंति सुब्बतानि ।

: नहर बनानेवाला जल का मार्ग बनाता है। बाण बनानेवाला बाण को अनुरूप गढ़ता है। तक्षक लकड़ी के तख्तों को मिलाता है और सुव्रत अपनी आत्मा को संयमित करता है ।

इन भावनाओं के साथ कहीं-कहीं अभिव्यक्ति की वैसी ही जटिलता है, जो वेदगीतों से कबीर की उलटवासियों तक चली आई है :

पंच छिदे पंच जहे पंच चुत्तरि भावये ।
पंच संघातिगो भिक्खु ओघतिण्णो ति वुच्चति ।

: पाँच को काट दो, पाँच को त्याग दो, आगे के पाँच पर ध्यान दो। जो पंच संघात को पार कर लेता है, वह समुद्र को पार कर लेता है ।

भिक्षुओं में हर वर्ण और हर परिस्थिति से आए हुए व्यक्ति हैं, अतः उनके उद्गारों में विविधता स्वाभाविक है। कुछ भिक्षुओं के जीवन की कथा उनके उद्गारों से इस प्रकार बँधी हुई है कि एक को बिना जाने दूसरे का मर्म हृदय तक नहीं पहुँचता । उदाहरण के लिए सुमंगल थेर की कथा और उसकी गाथा को लिया जा सकता है।

भिक्षु होने के पहले सुमंगल श्रावस्ती के निकटवर्ती ग्राम का दरिद्र कृषक था। एक बार जब कौशल नरेश बुद्ध और भिक्षु संघ का स्वागत कर रहे थे, तब वह अपने अन्य साथियों के साथ लकड़ी, दूध आदि पहुँचाने आया और भिक्षु भिक्षुणियों का सम्मान देखकर उसने भिक्षु होने का निश्चय किया । प्रव्रजित होने पर उसे वन में साधना करने भेजा गया, पर वहाँ वह अपने गाँव की चिंता करते-करते इतना अस्थिर हो गया कि गाँव लौट आया। उस समय अपने कृषक साथियों को कड़ी धूप, धूल और गर्म हवा में मलिन वस्त्र पहने कठिन परिश्रम करते देखकर ही उसे कृषक और भिक्षु के जीवन का अंतर जान पड़ा और उसके कंठ से यह गाथा फूट निकली-

सुमुत्तिको सुमेत्तिको साहु सुमुत्तिकोम्ह तीह खुज्जकेहि ।
असितातु मया नंगलासु मया खुद्द कुद्दलासु मया ।
यदि पि इधमेव इधमेव अथवा पि अलमेव अलमेव,
झाय सुमंगल झाय सुमंगल
अप्पमत्तो विहर सुमंगलाति ।

: मैं मुक्त हो गया, भला मुक्त हो गया, इस तीन वक्र कार्यों से। हँसिए से खेत काटने से मुक्त हो गया । हल के पीछे घसिटने से मुक्त हो गया। मेरी पीठ इन छोटे फावड़ों पर झुके रहने से मुक्त हो गई। ये यहाँ हैं, चाहे सदैव के लिए यहाँ हैं, पर मेरे लिए अलम हैं । हे सुमंगल ध्यान कर, अप्रमत्त ध्यान में निमग्न रह ।

इसी प्रकार दासक थेर की कथा है, जो अनाथपिंडक श्रेष्ठी का दासपुत्र और उसके आदेश से बिहार का द्वार रक्षक नियुक्त था। उसके अच्छे आचरण से संतुष्ट होकर स्वामी ने उसे दासता से मुक्त कर दिया और उसने प्रव्रज्या ग्रहण की।

दास जीवन की व्यस्तता के उपरांत कुछ विश्राम का अवसर पाते ही वह भोजनोपरांत सोने लगा और उपदेश के अवसर पर ऊँघने लगा। बुद्ध ने उसे आलस्य विरत करने के लिए जो उपदेश दिया था उसी को उसने अपनी गाथा का आधार बनाया है-

मिद्धी यदा होती महाग्घसो च
निद्दायिता संपरिवत्तसायी,
महावराही व निवापपुट्ठो
पुनप्पुनो गब्भमुपेति मंदो' ति ।

: जो एक तुष्ट महा शूकर के समान अधिक भोजन कर सोता, करवटें लेता और आलस्य में पड़ा रहता है उसे जन्म के बंधन में फिर फिर आना पड़ता है।

सोपाक थेर अनाथ था। उसकी दरिद्र और पीड़ामूर्च्छित माता को लोग मृत समझ कर श्मशान ले गए, जहाँ एक बालक को जन्म देने के उपरांत वह सचमुच मृत हो गई । श्मशान में उत्पन्न होने के कारण ही उसे यह नाम मिला। भगवान बुद्ध की कृपा से प्रव्रजित हो जाने पर उसने उनकी करुणा और मैत्री भावना का मर्म समझ कर गाया-

यथापि एक पुतस्मिं कुसली सिया,
एवं सब्बेसु पाणेस् सब्बत्थ कुसलो सिया' ति

: जिस प्रकार माता अपने एकमात्र पुत्र के लिए स्नेह भाव रखती है उसी प्रकार तुम सर्वत्र सबके प्रति स्नेह भाव रखो।

ऐसे भिक्षु भी कम नहीं हैं जो किसी प्रियजन के वियोग से संतप्त होकर संघ में प्रविष्ट हुए ।

हारित थेर प्रव्रजित होने से पहले एक संपन्न ब्राह्मण कुल का वंशधर था । उसकी सुंदरी और प्रियतमा पत्नी जब नाग से दंशित होकर परलोकवासिनी हुई, तब अपने असह्य वियोग दुःख से त्राण पाने के लिए वह प्रव्रजित हुआ। बाण बनानेवाले को एक बाण सीधा करते देख उसके हृदय में जो भाव उठा उसी को उसने गाथाबद्ध कर दिया-

समुन्नमयत्तानं उसुकारो व तेजनं
चित्तं उजुं करित्वान अविज्जं छिंद हारिता' ति ।

: बाण बनानेवाला जैसे बाण को सीधा करता है, उसी प्रकार हे हारित तुम अपने चित्त को सीधा करो और अविद्या को छिन्न कर दो।

सब भिक्षु भिक्षुणियों की प्रव्रज्या के मूल में तथागत के समान सत्य की अदम्य जिज्ञासा और खोज संभव नहीं है। उनके संघ प्रवेश के कारणों में सामाजिक स्थितियाँ, जीवन के व्यापक सुख-दुःख तथा शास्ता के व्यक्तित्व का अमोघ आकर्षण रहना स्वाभाविक है। अतः वेश, संघ-विधान, आचार आदि की सामान्यता के भीतर जो स्पंदित हृदय है, वह अपनी विशेषता में भिन्न है और उसकी कथा भी विशेष रहेगी ।

प्रतिभा सामान्य नहीं होती। जिस कारण अश्वघोष कई नहीं हो सके, उसी कारण गाथाओं के गायक भिक्षु भिक्षुणी भी एक दूसरे की अनुकृति मात्र नहीं हैं।

भारतीय प्रतिभा प्रकृति के प्रति सनातन रागमयी है, इसका निश्चित प्रमाण इन वीतराग भिक्षुओं की गाथाएँ हैं । वेदकालीन कवि ऋषि तो प्रकृति के प्रति साधिकार राग रखता है, क्योंकि वह उसे माया या भ्रांति नहीं मानता। जीवन के दुःखमय दर्शन की न उसने खोज की है और न उस दुःख से मुक्ति की कामना उसकी जानी-पहचानी है :

इसके विपरीत बौद्ध भिक्षु सौंदर्य को नश्वर और भ्रांति मानता है। उसके निकट जीवन दुःख का दूसरा नाम है। न वह मधुर संगीत पर मुग्ध होने का अधिकार रखता है, न सुंदर चित्र की रंगरेखाओं में स्वयं को भुला सकता है । परंतु प्रकृति ने उसकी समस्त साधना पर विजय पा ली है-संभवतः उसके अनजाने ही :-

नीलब्भवण्णा रुचिरा सीतवारी सुचिंधरा,
गोपइंदक सन्छन्ना से सेला रमयंति मंति ।
( महागवच्छो थेरो)

: नीलाभवर्णी, सुंदर, शीतल, स्वच्छ जल के निर्झरों से युक्त और इंद्र- वधूटियों से आच्छन्न शैल मेरे मन को भाते हैं ।

नीला सुगीवा सिखिनो मोरा कारंवियं अभिनंदंति,
ते सीत वात कलिता सुत्तं झायं निवोर्धेती ति ।
(निग्रोधत्थेरो)

: नीली सुंदर ग्रीवावाले मयूर कांरविय (वन) में बोलते हैं। उनकी केकाध्वनि शीतल समीर से मधुर होकर सुप्त ध्यानी को जगा देती है ।

सुनीला सुसिखा सुपेखुणा
सचित्र पत्रच्छदना विहंगमा,
सुमञ्जुघासत्य निताभिगज्जिनो
ते तं रमिस्संति वनम्हि झायिनं ।
( तञ्ञास निपातो)

: जब तुम वन में ध्यानस्थ बैठे होगे तब गहरी नीली ग्रीवा वाले सुंदर शिखा शोभी तथा शोभन चित्रित पंखों से युक्त आकाशचारी विहंग अपने सुमधुर कलरव द्वारा घोष भरे मेघ का अभिनंदन करते हुए तुम्हें आनंद देंगे ।

यदा बलाका सुपिंडरच्छदा
कालस्स मेघस्स भयेन तज्जिता
पलेहिंति आलयमालयेसिनी तदा
नदी अजकरणी रमेति मं ।
कन्नु तत्थ न रखेंति जम्बुयो उभतो तहिं
सोति आपगा कूलं महालेनस्स पच्छतो ।
( धम्मिको थेरो)

: जब ऊपर आकाश में श्याम घटा से सभीत बगुलों की पाँत अपने उज्ज्वल श्वेत पंख फैला कर आश्रय खोजती हुई बसेरे की ओर उड़ चलती है तब (नीचे उनका प्रतिबिंब लेकर प्रवाहित) अजकरणी नदी मेरे हृदय में प्रसन्नता भर देती है ।

: मेरी गुफा के पीछे और नदी के दोनों तटों पर लगे सघन जामुन वृक्ष किसके मन को आकर्षित नहीं करते।

अपनी यात्रा का मुहूर्त भी भिक्षु वसंत के आगमन में देखते हैं-

अंगारिनो दानि द्रुमा भदंते
फलेसिनी छदनं विप्पहाय,
ते अर्च्चिमंतो व पभासयंति,
समयो महावीर भगीरसानं ।
दुमानि फुल्लानि मनोरमानि
समंततो सब्बदिसा पवंति,
पत्तं पहाय फलमाससाना
काली इतो पक्कमनाय वीर ।
( दस निपात)

: नई कोंपलों में अंगारारुण वृक्षों ने साध से, जीर्ण शीर्ण पल्लव परिधान त्याग दिया है। अब वे लौ से युक्त (अर्चिष्मान) जैसे उद्भासित हो रहे हैं । हे वीरश्रेष्ठ ! यह समय आशा से स्पंदित है ।

: द्रुमाली फूलों के भार से लदी है, सब दिशाएँ सौरभ से उच्छ्वसित हो उठी हैं और फलों को स्थान देने के लिए पल्लव झड़ रहे हैं । हे वीर यह हमारी यात्रा का मुहूर्त है।

प्रकृति का ऐसा सूक्ष्म निरीक्षण, उसके विविध रूपों के साथ मन का ऐसा लगाव और उसकी ऐसी सहज रागमयी अभिव्यक्ति, इन गाथाओं को हमारे हृदय के निकट ले आती है। जिस धरती के जीवन से मुक्त होने की साधना है, वही अपने विविध रूपात्मक सौंदर्य से ऐसी साधना की शक्ति देती है। धरती की ऐसी आसक्ति अन्यत्र दुर्लभ हो तो आश्चर्य नहीं । विरक्ति सहज है, परंतु आसक्ति द्वारा विरक्ति की साधना, प्रकृति और जीवन की किसी तात्विक एकता का संकेत देती है ।

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कुशल संगीतज्ञ, कवि, दार्शनिक और महायान के प्रवर्तकों में महत्त्वपूर्ण स्थिति रखने वाला अश्वघोष संस्कृत महाकाव्यकारों में प्रथम भक्त कवि है, जिसके निकट उसकी कथा का नायक लोकोत्तर ही नहीं उसका एकमात्र उपास्य भी है। आदि कवि को राम के लोकोत्तर गुणों ने आकर्षित अवश्य किया, किंतु वे राम के अनन्य भक्त नहीं हैं । कालिदास की विस्तृत काव्य - चित्रशाला में भी ऐसा कोई पात्र नहीं मिलता जिसे कवि का एकमात्र इष्ट कहा जा सके।

इस प्रकार अश्वघोष की श्रद्धा की तुलना मध्ययुगीन भक्त कवियों की भक्ति भावना से ही की जा सकती है।

अश्वघोष के सौंदरनंद महाकाव्य की पुष्पिका से ज्ञात होता है कि वे साकेत निवासी और सुवर्णाक्षी के पुत्र थे और उन्हें आर्य, भदंत, आचार्य महाकवि आदि उपाधियाँ प्राप्त थीं-

आर्य सुवर्णाक्षी पुत्रस्य साकेतकस्य भिक्षोराचार्य ।
भदंताश्वघोषस्य महाकवेर्वादिनः कृतिरियम् ।।
(सौंदरनंद)

बुद्ध चरित के अनुपलब्ध मूल के तिब्बती अनुवाद से भी यही प्रमाणित होता है ।

उनका वेद और कर्मकांड संबंधी ज्ञान, शास्त्र की विविध शाखाओं से संबंध रखने वाली बहुज्ञता, काव्यांगों का विस्तृत परिचय आदि सिद्ध करते हैं कि वे बौद्ध होने के पहले ब्राह्मण रहे होंगे, क्योंकि ब्राह्मणेतर वर्णों में शासन- ज्ञान की ऐसी व्यापक परंपरा न सुलभ थी न आवश्यक ।

बौद्ध ग्रन्थों में अश्वघोष विषयक ज्ञातव्य प्रचुर परिमाण में प्राप्त है। उनके ग्रन्थों के चीनी, तिब्बती आदि अनुवादों में भी उनके जीवन और रचना काल संबंधी संकेत सुलभ हैं। परंतु इतनी सामग्री की उपस्थिति में भी हम अश्वघोष के जीवनवृत्त को, अन्य प्राचीन महाकवियों के जीवनवृत्त संबंधी नियम का अपवाद नहीं बना सके । अन्य कवियों के समान ही अश्वघोष के जीवन और रचना काल के दोनों ओर शताब्दियों की सीमाएँ ही निश्चित करना संभव हो सका है।

ईसा से 483 वर्ष पूर्व बुद्ध का परिनिर्वाण हुआ और उसी वर्ष बौद्ध भिक्षुओं की प्रथम संगीति (सम्मेलन) हुई। दूसरी संगीति ई. पू. 383वें वर्ष में और तीसरी अशोक द्वारा ई. पू. 248वें वर्ष में आयोजित की गई। अश्वघोष के बुद्ध चरित के अंतिम सर्ग में, जो तिब्बती अनुवाद में प्राप्त है अशोक और बौद्ध संगीति का जैसा उल्लेख है उससे कवि का अशोक के पश्चात् होना सिद्ध होता है।

अश्वघोष के बुद्ध चरित का चीनी भाषा में अनुवाद ईसा की पाँचवी शती से पूर्व हो चुका था । ग्रन्थ को विदेशों में प्रख्यात होने के लिए भी दो शती का अवकाश चाहिए ।

चीनी परंपरा में अश्वघोष, कनिष्क के समसामयिक और गुरु के रूप में गृहीत हैं।

इस प्रकार तर्क - सरणि और चीनी परंपरा के आधार पर हम अनुमान कर सकते हैं कि अश्वघोष ई. पू. पहली शती में कनिष्क के समसामयिक या उससे कुछ ही पूर्व रहे होंगे, किंतु कनिष्क के ब्राह्मण विरोधी दृष्टिकोण से, अश्वघोष की उस उदार दृष्टि की संगति नहीं बैठती जो ब्राह्मण-परंपरा के प्रति आदरमयी है ।

भाषा की दृष्टि से अश्वघोष कालिदास के पूर्वगामी कहे जाएँगे, क्योंकि भाषा में आर्ष प्रयोगों की स्थिति के अतिरिक्त उस प्रांजल प्रवाह का अभाव है, जो कालिदास की भाषा की विशेषता है। अश्वघोष की शब्दावली की कौटिल्य के अर्थशास्त्र में प्रयुक्त शब्दावली से निकटता, यह सिद्ध करती है कि उनमें समय का अधिक अंतर नहीं रहा होगा।

किंवदंतियाँ अश्वघोष को महायान श्रद्धोत्पाद-संग्रह, व्रजसूची, गंडी-स्तोत्र - गाथा तथा सूत्रालंकार का रचियता स्वीकार करती हैं, परंतु इस विषय में मतभेद ही नहीं विरोधी प्रमाण भी उपलब्ध हैं। वज्रसूची में ब्राह्मण धर्म और उसके द्वारा स्थापित वर्णव्यवस्था पर जैसा प्रहार है, वह न अश्वघोष की शैली से मेल खाता है न उनकी उदार वृत्ति से। इसके अतिरिक्त वज्रसूची का चीनी भाषा में ईसा की दसवीं शती में प्राप्त अनुवाद, उसे छठी शती के बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति की कृति मानता है। गंडी-स्तोत्र-गाथा जिसमें 29 स्रग्धरा छंदों में पिंगल, संगीत आदि का वर्णन है, शैली की दृष्टि से अश्वघोष का नहीं माना जाता। अंशतः प्राप्त सूत्रालंकार को भी, बौद्धविद्वान कुमारलात की रचना सिद्ध किया जाता है। महायान श्रद्धोत्पादन संग्रह भी, जो महायान का महत्त्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थ और नागार्जुन की शून्य विवर्तवादी माध्यमिक शाला का आधार कहा जाता है, मतभेदों से बचा नहीं है। यह ग्रन्थ केवल चीनी अनुवाद में प्राप्त है और चीनी परंपरा उसे अश्वघोषकृत मानती है।

दार्शनिक तथा अन्य शास्त्रीय ग्रन्थों के कृतित्व के विषय में जैसे भ्रम सहज हैं, वैसे साहित्यिक कृतियों के संबंध में प्रायः संभव नहीं होते। उनमें रचयिता का व्यक्तित्व उसकी शैली में इस प्रकार व्यक्त होता है कि उसे एक से दूसरे में स्थानांतरित करना दुष्कर हो जाता है । महाकवि कालिदास के नाम से न जाने कितनी तुच्छ कृतियाँ जोड़ी गईं, किंतु वे उनकी भाषा, शैली, विषयचयन आदि की कसौटी पर ठहर नहीं सकीं। महायान श्रद्धोत्पाद - संग्रह को किसी अन्य विद्वान की रचना सिद्ध करना कठिन नहीं है, किंतु जिसने बुद्ध चरित की रचना की है, उसी ने सौंदरनंद नहीं लिखा है, यह सिद्ध करना संभव नहीं होगा, क्योंकि एक ही भावना और अभिव्यक्ति की विशेष पद्धति दोनों को आकार देती है। इसी कारण युग व्यतीत हो जाने पर भी किसी महान साहित्यिक कृति में प्रक्षिप्तांश पहचानने में कोई बाधा नहीं पड़ती।

अश्वघोष की साहित्यिक कृतियों के रूप में बुद्धचरित, सौंदरनंद दो महाकाव्य और सारिपुत्र प्रकरण के कुछ अंश उपलब्ध हैं।

बुद्धचरित महाकाव्य में 28 सर्गों में बुद्ध की कथा वर्णित है, परंतु उनमें से 9 से 13 सर्ग तक ही संस्कृत में संपूर्णतः सुरक्षित मिल सके हैं। पहले सर्ग का एक चतुर्थांश अप्राप्त है और सर्ग 12 के दो तृतीयांश । इस महाकाव्य का अनुवाद चीनी भाषा में ई. 414वें वर्ष में हुआ और तिब्बती भाषा में ई. 700-800 के भीतर और इन अनुवादों में 28 सर्ग प्राप्त हैं। इन्हीं अनुवादों से संस्कृत पाठ की शुद्धि में भी सहायता मिल सकी है।

बुद्धचरित में बुद्ध के जन्म से लेकर उनके परिनिर्वाण तक संपूर्ण जीवनवृत्त है, जिसके उपरांत उनके अवशेषों के लिए संघर्ष, प्रथम बौद्ध संगीति और अशोक के राज्य का उल्लेख करके कवि कथा का उपसंहार करता है। सौंदरनंद में बुद्ध के विमातृज भाई नंद की प्रव्रज्या की कथा 18 सर्गों में वर्णित है। सारिपुत्र प्रकरण जिसके कुछ अंश प्रो. ल्यूडर्स को, तुर्फान - मध्य एशिया में प्राप्त हुए, नौ अंकों में एक प्रकरण रूपक है, जिसका विषय बुद्ध के पट्ट शिष्य सारिपुत्र और मौद्गल्यायन की प्रव्रज्या है ।

सौंदरनंद में कथा की गठन और भाषा की अधिक माधुर्यमय प्रवाहशीलता को देख कर अनेक विद्वानों का मत है कि उक्त महाकाव्य की रचना बुद्धचरित के उपरांत हुई होगी। वस्तुतः 14 सर्ग के उपरांत बुद्धचरित में कथा की शिथिलता और बौद्ध धर्म और दर्शन की व्याख्या ऐसा रूप ग्रहण कर लेती है कि काव्य की कसौटी पर उसका मूल्य घट जाता है।

अश्वघोष के पास कवि का संवेदनशील हृदय भी है और संसार को दुःखात्मक और त्याज्य माननेवाला दर्शन भी सौंदरनंद में कवि ने स्वीकार किया है कि सत्य के प्रति लोक का आकर्षण न होने के कारण उसकी सहज संप्रेषणीयता के लिए ही काव्यशैली का प्रयोग किया गया है । अतः यह स्पष्ट है कि उनके निकट काव्य साध्य न होकर सत्य के वाहक के रूप में साधन मात्र है।

काव्य के मूल में धार्मिक उत्साह प्रेरक शक्तियों का कार्य कर सकता है, किंतु किसी धार्मिक उत्साह से काव्य की उत्कृष्टता संभव नहीं होती। इसके विपरीत कभी-कभी ऐसे उत्साह के कारण काव्य अपने सर्वमान्य उन्नत लक्ष्य से च्युत हो जाता है।

अश्वघोष के समक्ष आंतरिक और बाह्य जो सीमाएँ हैं, उन पर विचार करके जब हम उनके काव्य की परीक्षा करते हैं तो विस्मित हुए बिना नहीं रहते । वे विश्वास से बौद्ध हैं, अतः बौद्धेतर धर्म में विश्वास रखने वालों के प्रति उनकी उपेक्षा ही नहीं कटुता भी स्वाभाविक कही जायगी। उनकी बुद्धि लोक और जीवन को दुःखात्मक तथा अज्ञान संभव मानती है, अतः उसके किसी सौंदर्य को दृष्टि का विषय बनाना, असंगत ही नहीं, बोध तथा निर्वाण के मार्ग में बाधक भी है। बुद्ध की जीवन-कथा बोध प्राप्ति की साधना, उपलब्धि और संसार को आलोकदान की अमर गाथा है, अतः उनके परिवेश में जो अनेक मोहांध व्यक्तित्व दृष्टिगत होते हैं, उनका स्नेह और स्नेह-जनित व्यथा, भ्रांति के अतिरिक्त कुछ नहीं ।

पर धार्मिक रूढ़ियों और दार्शनिक मान्यताओं के साथ भी बौद्ध अश्वघोष कवि अश्वघोष से परास्त हो जाता है, अन्यथा संस्कृत महाकाव्यों की परंपरा में एक मूल्यवान कड़ी खो जाती ।

महाकाव्य का अभिप्रेत, समग्र परिवेश के साथ जीवन की कथा होने के कारण विविध आकर्षण - विकर्षण, कर्त्तव्य - प्रमाद, स्नेह - घृणा, जय-पराजय आदि, कवि की सूक्ष्म दृष्टि और हृदय की निर्विकल्प संवेदनशीलता की अपेक्षा रखते हैं। कवि का सौंदर्य-बोध भी उसकी जीवन और जगत के प्रति आस्था से असम्बद्ध रहता है । यदि वह जीवन और जगत को दुःखात्मक भ्रम मात्र मानता है तो उसके निकट, उनमें न सौंदर्य या सामंजस्य की अनुभूति सुलभ रहती है, न सौंदर्य या सामंजस्य की स्थिति उत्पन्न करने के प्रयास की आवश्यकता ।

विशेष वीतराग दृष्टिकोण के कारण अश्वघोष का चित्र - फलक इतना सीमित हो गया है कि मानव की विविध मनोवृत्तियों के अंकन के लिए उसमें अवकाश नहीं रहा। परंतु उनके अंकन की शैली अपनी करुण मधुर रेखाओं में विशेष और दार्शनिक रंगों में मर्मस्पर्शी है ।

प्रकृति के कोमल कठोर चित्र जो विरक्त सिद्धार्थ को आकर्षित करने और साधक सिद्धार्थ को तप से विरत करने की दृष्टि से अंकित किए गए हैं, अपनी सरल स्पष्टता में रामायण का अनायास स्मरण करा देते हैं। कथा के अनेक स्थल भी इस अनुमान को आधार देते हैं कि अश्वघोष आदिकवि और रामकथा से विशेष प्रभावित थे।

छंदक और कंथक को बिना कुमार सिद्धार्थ के लौटते देख कर पुरजन उसी प्रकार रुदन करते हैं जैसे सुमंत को राम, लक्ष्मण और सीता से शून्य रथ लेकर लौटते देख अयोध्यावासियों ने किया था।

निशाम्य च स्रस्त शरीर गामिनी
विनागतौ शाक्य कुलर्षभेण तौ ।
मुमोच वाष्पं पथि नागरो जनः
पुरा रथे दशरथेरिवागते । ।

: मार्ग में जब नगरवासियों ने उन दोनों को (छंदक सारथी और कंथक अश्व को ) झुके हुए शरीर के साथ, बिना शाक्य श्रेष्ठ के आते देखा, तब वे उसी प्रकार अश्रु गिराने लगे जैसे प्राचीन काल में दशरथ-पुत्र राम के रथ के लौटने पर पुरजनों ने गिराए थे ।

गौतमी के विलाप से कौशल्या के विलाप का स्मरण अनायास हो आता है, क्योंकि दोनों की विकलता के मूल में पात्रों की सुकुमारता और वनवास के कष्टों की कल्पना है। वैसे मार्मिकता की दृष्टि से, विमाता के कारण यौवराज्याभिषेक के प्रातःकाल अचानक वनवास के लिए प्रस्थान करने वाले राम और रात्रि की निस्तब्धता में स्वेच्छा से गृहत्याग करने वाले कुमार सिद्धार्थ, जिनकी सांसारिक विरक्ति से उनके माता, पिता, पत्नी आदि आरंभ से परिचित और आशंकित हैं, में अंतर है।

बुद्ध के जीवन को स्नेह के तंतुओं से घेरने वाले व्यक्तियों में यशोधरा के व्यक्तित्व को, किसी भी कवि की करुणा का सजल कोमल स्पर्श, सहज प्राप्त रहेगा। पर अश्वघोष की बुद्धानुसारिणी दृष्टि चरम विषाद के क्षण में भी उस पर कम ठहरती है ।

ततस्तु रोषप्रविरक्तलोचना विषादसम्बंधि कषायगद्गद् ।
उवाच निश्वासचलत्पयोधरा विगाढशोकाश्रुधरा यशोधरा ।।

: तब, जिसके नेत्र रोष में रक्तवर्ण हो गए थे, विषादजनित कटुता से कंठ रुद्ध था, निःश्वासों से वक्ष उद्वेलित हो रहा था और प्रगाढ़ शोक से उत्पन्न अश्रु बह रहे थे, वह यशोधरा छंदक से बोली ।

अनार्यमस्निग्मधममित्रकर्म मे नृशंस कृत्वा किमिहाद्य रोदिषि ।
नियच्छ वाष्यं भव तुष्टमानसो न संवदत्यश्रु च तच्च कर्म ते ।।
(बुद्धचरित)

: हे नृशंस मेरे प्रति अनार्य, निष्ठुर तथा अमित्र कर्म करके तू आज यहाँ क्यों रोता है ? अश्रु रोक कर मन में तुष्ट हो। तेरे कर्म के साथ ये अश्रु मेल नहीं खाते।

आश्चर्य नहीं कि इन पंक्तियों के पाठक का हृदय विवश और स्वामि-विरह - कातर छंदक के प्रति अधिक द्रवित हो जावे ।

कथा की दृष्टि से सौंदरनंद अधिक मर्मस्पर्शी है। नंद और उसकी पत्नी चक्रवाक चक्रवाकी के समान एक दूसरे में आसक्त हैं। जिस समय मुखमंडन करती हुई वधू को नंद दर्पण दिखा रहा है, उसी समय दासी, द्वार पर आकर भिक्षा बिना लौट जाने वाले तथागत का समाचार देती है । वधू गुरु-अवज्ञा के भय से पति को तथागत से क्षमा माँगने के लिए जाने देती है, किंतु विशेषक सूखने से पहले लौट जाने का अनुरोध करती है । तथागत के भीड़ से घिरे रहने के कारण नंद विलम्ब में उनके निकट पहुँच पाता है और प्रणाम के उपरांत उनसे घर चलने की प्रार्थना करता है । किंतु वे लौटना अस्वीकार कर उसके हाथ में अपना भिक्षा पात्र थमा देते हैं और वह उनके पीछे चलता चलता विहार में पहुँच जाता है, जहाँ विवशतावश प्रव्रज्या ग्रहण करनी पड़ती है ।

इधर प्रत्येक पगचाप में नंद के लौटने का अनुमान करती हुई प्रतीक्षाविकल वधू के कान में जब, ' तथागत ने नंद को प्रव्रजित कर दिया' पड़ता है, तब वह शोक से मूर्च्छित हो जाती है।

क्रौंच - मिथुन के वियोग से द्रवित हो जाने वाले आदि कवि की, इस मानव-युग्म के वियोग पर कैसी अनुभूति होती, यह कहना कठिन है, किंतु संसार के स्नेहबंधनों को भ्रांति मानने वाले कवि का हृदय भी इस वियोग के प्रति कठोर नहीं है।

तथागत तथा विहार के समस्त भिक्षु समुदाय को मानो इस एकांकी मोह से संघर्ष के लिए बद्धपरिकर होना पड़ता है और अनेक अतिमानवीय उपायों से वे उस मोह पर विजय भी पा लेते हैं। किंतु पाठक की करुणा पराजय नहीं मानती और वह मोहांध द्वंद्व ही उसकी सहानुभूति का अधिकारी बना रहता है।

वियोग को श्रेय मानने वाले अश्वघोष की नंद और सुंदरी के संबंध में उक्ति-

तां सुंदरीं चेत्र लभेत नंदः
सा वा निषेवेत न तं नतभ्रूः ।
द्वंद्व ध्रुवं तद्विकलं न शोभे-
तान्योन्य हीनाविवरात्रिचंद्रौ । ।
(सौंदरनंद)

: यदि नंद सुंदरी को न प्राप्त कर सकता और यदि सुंदरी उसे पति रूप में न पाती तो वह विकल द्वन्द्व उसी प्रकार शोभा न पाता जैसे रात्रि के बिना चंद्र और चंद्र के बिना रात्रि ।

और संयोग को श्रेय मानने वाले कालिदास की अज और इंदुमती के संबंध में उक्ति-

परस्परेण स्पृहणीय शोभं
न चेदिदं द्वंद्वमयोजयिष्यत् ।
अस्मिन् द्वये रूपविधानयत्नः
पत्युः प्रजानां वितथोऽभविष्यत् । ।
(रघुवंश)

: परस्पर स्पृहणीय शोभा वाले इन दोनों का संयोग यदि विधाता न कराता तो इन दोनों को सुंदर बनाने का उसका श्रम व्यर्थ हो जाता ।

तत्वतः एक ही कही जायगी। इतना ही नहीं पूर्वापर संबंध में अश्वघोष के सौंदर्य-चित्र, जीवन को आनंदमय और सौंदर्य को प्रत्यक्ष मानने वाले कलिदास के सौंदर्य-चित्रों से न रेखाओं में अपूर्ण हैं न रंगों में अस्तव्यस्त ।

बोधप्राप्त सिद्धार्थ अपनी प्रशांत आभा से आकर्षित रहते हैं और मोहग्रस्त नंद अपने सजल विषाद से हृदय को करुणास्नात कर देता है-

युगपज्ज्वलन् ज्वलनवच्च जलमवसृजंश्च मेघवत् ।
तप्तकनकसदृश प्रभया स बभौ प्रदीप्त इव संध्या घनः ।।

: एक साथ अग्नि के समान प्रज्ज्वलित और मेघ के समान जल बरसाते हुए तप्त स्वर्ण जैसी कांति वाले सिद्धार्थ सांध्यकालीन बादल जैसे उद्भासित हुए ।

अथो रुतं तस्य मुखं सवाष्पं प्रवास्यमानेषु शिरोरुहेषु ।
वक्राग्रनालं नलिनं तडागे वर्षोदकक्लिन्नमिवाबभासे ।।

: केशों के काट दिए जाने पर नंद का रुदित और अश्रु जल से भीगा मुख, सरोवर के उस कमल जैसा लग रहा था जो वर्षा जल से आर्द्र हो और जिसकी नाल का अग्रभाग वक्र हो ।

कुमार सिद्धार्थ के मनोरंजनार्थ एकत्र और निद्राभिभूत सुंदरियों के, उन्हें देखने की उत्कंठा से गवाक्षों पर उपस्थित और अंगनाओं के तथा उनके गृहत्याग से करुण क्रंदन करने वाली अंतःपुरिकाओं के चित्रों की रेखाएँ सधे हाथ और सूक्ष्म निरीक्षण का परिचय देती हैं ।

विवभौ करलग्नवेणुरन्या स्तनविस्रस्त सितांशुका शयाना ।
ऋजु षट् पदपंक्तिजुष्टपद्मा जलफेनप्रहसत्तटा नदीव ।।

: एक अन्य नारी जो हाथों में वेणु लिए हुए सो गई थी और जिसका श्वेत अंशुक वक्ष से खिसक गया था, ऐसी लगती थी, मानो वह भ्रमरों की सीधी पंक्ति से युक्त कमलों वाली और फेन में विहसित तटों वाली नदी हो ।

प्रसादसोपानतलप्रणार्द काञ्चीरवैर्नूपुरनिस्वनैश्च
वित्रासयन्त्यो गृहपक्षिसंघानन्योन्यवेगांश्च समाक्षिपन्त्यः । ।

: वे पुर नारियाँ अपनी मेखलाओं के रव से, नूपुरों की झनकार से और प्रसाद - सोपानों पर पगों की चाप से गृह में निवास करने वाले पक्षि-समूह को सभीत करती हुईं, एक दूसरी को, वेग से टकराने के लिए दोष देने लगीं ।

मुखैश्च तासां नयनाम्बुताडितैरराज तद्राजनिवेशनं तदा ।
नवाम्बु कालेऽम्बुदवृष्टिताडितैः स्रवज्जलैस्तामरसैर्यथा सरः । ।

: स्त्रियों के, आँसुओं की झड़ी से ताड़ित मुखों के कारण वह राजभवन ऐसे सरोवर के समान जान पड़ता था, जिसमें वर्षाकाल के प्रारंभ में मेघ-वृष्टि से ताड़ित होकर जल की बूँदें बरसाते हुए कमल हों ।

कम रेखाओं में अधिक व्यक्त करने की क्षमता के कारण अश्वघोष प्रकृति के कोमल और उग्र रूपों को ही नहीं, दर्शन की गहनता को भी सहज भाव से वाणी दे सके हैं।

मृगा गजाश्चार्तरवान् सृजंतो
विदुद्रुवुश्चैव निलिल्यिरे च ।
रात्रौ च तस्यामहनीव दिग्भ्यः
खगा रुवतः परिपेतुरार्ताः ।।

: मृग और हाथी आर्त शब्द करते हुए इधर-उधर दौड़ने और अपने आपको छिपाने लगे। उस रात्रि में, दिन के समान, पक्षि-समूह आर्त्त स्वर में बोलता हुआ सब दिशाओं में उड़ने लगा ।

दीपो यथा निर्वृत्तिमष्युपेतो
नैवावनिं गच्छति नांतरिक्षम् ।
दिशं नकाञ्चित् विदिशं न काञ्चित्
स्नेहक्षयात् केवलमेति शांतिम् ।।
तथा कृती निर्वृतिमम्युपेतो
नैवावनिं गच्छति नांतरिक्षम् ।
दिशं न काञ्चिद् विदिशं न काञ्चित्
क्लेशक्षयात् केवलमेति शांतिम् ।।

: जिस प्रकार दीपक बुझने पर, न पृथ्वी को जाता है न अंतरिक्ष को, न किसी दिशा को न विदिशा को; स्नेह समाप्त हो जाने के कारण केवल शांति को प्राप्त होता है;

: उसी प्रकार, कृती मनुष्य निर्वाण प्राप्त होने पर न पृथ्वी को जाता है न आकाश को, न किसी दिशा को न विदिशा को क्लेश का क्षय हो जाने के कारण केवल शांति को प्राप्त हो जाता है ।

जिस भारतीय मनीषा के कारण अश्वघोष विरोधी ब्राह्मण-धर्म और संस्कृत भाषा के प्रति आदर दृष्टि रख सके और रामकथा तथा अनेक पौराणिक आख्यानों उपाख्यानों से विरक्त नहीं हो सके हैं, उसी के कारण उनकी काव्य-रचना वीतराग बौद्ध का शुष्क बौद्धिक ज्ञान-विज्ञान-कोष न बनकर सहृदय कवि की रागात्मक जीवन-अभिव्यक्ति बन सकी है और इस प्रकार वे पूर्ववर्ती और परवर्ती कवियों की ऐसी संधि हैं जो दोनों ओर की विशेषताओं को जोड़ती है ।

5

संचरिणी दीपशिखा के समान भारत की वाग्देवता जिसको उद्भासित करके फिर अतीत के अंधकार में कहीं छोड़ी जा सकी, ऐसा ही व्यक्तित्व कालिदास का है । वह न किसी संप्रदाय की अग्निरेखाओं से घिरा हुआ है, न आचार्य, महाकवि आदि पदवियों से अलंकृत ।

‘मालविकाग्निमित्र' में अनेक प्रतिष्ठित नाटककारों के उल्लेख से ज्ञात होता है कि वह नवागत है-

‘प्रथितयशसां भाससौमिल्लककविपुत्रादीनां प्रबंधानतिक्रम्य वर्तमानकवेः कालिदासस्य क्रियायां कथं बहुमानः ।

: भास, सौमिल्लक, कविपुत्र आदि प्रख्यात कवियों के नाटकों को छोड़कर वर्तमान (नवीन) कवि कालिदास की रचना को क्यों इतना सम्मान दिया जा रहा है ?

इसके उत्तर में नाटककार ने अपने सूत्रधार से कहलाया है-

अयि ! विवेकविश्रान्तमभिहितम् ! पश्य ।
पुराणमित्येव न साधु सर्व न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम् ।
सन्तः परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते मूढः परप्रत्ययनेयबुद्धिः । ।

: अरे ! यह तो तुम अपने विवेक को विश्राम देकर कह रहे हो । देखो-

न पुराना होने ही से सब कुछ अच्छा हो जाता है और न नवीन होने से निंदनीय। बुद्धिमान दोनों की परीक्षा करके जो अच्छा होता है उसे ग्रहण करते हैं और मूर्ख दूसरों के कथन में ही विश्वास करते हैं।

कालिदास ने जिन्हें प्रथितयशः कहकर स्मरण किया है, उनमें भास के अतिरिक्त अन्य समय के प्रवाह में बह गए हैं। भास भी संयोग से ही कोई तट पा सके हैं।

संस्कृत कवियों में, अपने जीवन वृत्त के संबंध में कुछ न लिखने की परंपरा अविच्छिन्न चली आई है, किंतु कालिदास ने उस परंपरा का ऐसी कठोरता से पालन किया कि उनके नाम के साथ अनेक संभव असंभव किंवदंतियाँ जुड़ गईं। अन्य कवि अपने वंश, माता, पिता आदि का जो यत्किंचित् संकेत देते रहे हैं, कालिदास की कृतियों में उसका भी अभाव है, अतः भावुक भक्तों की कल्पना को अपनी उड़ान के लिए अनंत अवकाश मिल जाना स्वाभाविक था ।

उनके काव्यों की चमत्कारिक असाधारणता पर मुग्ध लोक, मानो अपने विस्मय को व्यक्त करने के लिए ही उन पर चरम मूर्खता का आरोप करने में भी कुंठित नहीं हुआ । चमत्कारिक रचना का वरदान, मूर्ख में जितनी सार्थकता पाता है, उतनी असामान्य या सामान्य बुद्धिवाले में नहीं । कारण स्पष्ट है। असाधारण प्रतिभा को चमत्कारिक वरदान की आवश्यकता नहीं होती और साधारण को अपनी त्रुटियों की इतनी पहचान नहीं होती कि वह किसी पूर्णता के वरदान के लिए साधना करे । पर ऐसी किंवदंतियाँ लोकोत्तर प्रतिभा की स्वीकृति मात्र रहती हैं ।

कालिदास के जीवन और रचनाकाल के संबंध में भी अनुमान ही प्रमाण का अभाव भर देते हैं ।

ईसा पूर्व दूसरी शती से ईसवी 11 तक अनेक आरोह अवरोहों के उपरांत भी तत्वान्वेषिनी मेधा अभी किसी निश्चित बिंदु पर स्थिर नहीं हो सकी, केवल, साहित्यगत प्रमाणों के आधार पर दोनों ओर की सीमाएँ कुछ सिमट सकी हैं ।

भास का समय उनकी संस्कृत में प्राप्त आर्ष प्रयोगों और प्राकृत की विशेषताओं के आधार पर ईसवी दूसरी शती का उत्तरार्द्ध माना जाता है और कालिदास ने अपने मालविकाग्निमित्र नाटक में अपने से पूर्व प्रतिष्ठित नाटककारों में भास का उल्लेख किया है।

अश्वघोष और कालिदास की भाषा-शैली तथा धर्म, समाज, जीवन आदि की दृष्टि से उनके काव्य, एक दूसरे से इतने भिन्न हैं कि उनमें कई शताब्दियों का अंतर स्वाभाविक कहा जायगा । ईसवी 8 में क्षीरस्वामी ने अमरकोष की टीका में और कुमारिल भट्ट ने तंत्रवार्तिक में कालिदास का उल्लेख किया है। उसी शती में वाक्पतिराज ने अपने प्राकृत काव्य गउड़वहो में रघुवंशकार के रूप में उन्हें स्मरण किया है।

ईसवी 650 में वाण और दण्डी ने कालिदास की प्रशंसा की है। इसी शती में (633-34) ऐहोल के शिलालेख में कालिदास और भारवि का उल्लेख मिलता है। बातासभट्टि के ई. 473 के मंदसौर शिलालेख की शैली पर भी कालिदास का प्रभाव स्पष्ट है। इस प्रकार कालिदास का समय ई. 4 के आसपास सिमट आता है जो चंद्रगुप्त द्वितीय के राज्यकाल ई. 374-414 के निकट है।

कालिदास के समय तक भारतीय जीवन और समाज में एक स्थिर सौंदर्य आ चुका था। महाभारत काल की चरम स्वच्छंदता और उसकी चरम ध्वंस में परिणति, बौद्ध युग का चरम बंधन और वज्रयान में उसकी चरममुक्ति के शिखर और गर्त पार कर के जीवन प्रवाह समतल भूमि पर आ गया था । समतल पर मन्थर जल का एक प्रशांत उदार सौंदर्य होता है। उसके तट पर विशाल वृक्ष आकाश छूने को सिर उठाये खड़े रहते हैं और छोटे तृण सजल धूलि को भेटने के लिए झुक-झुक जाते हैं कमल- कुमुद भी मिलते हैं और शैवालकाई भी स्थान पा लेते हैं । मधुर लय-संगीत वाले विहग-भ्रमरों का ही स्वागत नहीं होता, कर्कश स्वर वाले भेक और अपनी शून्यता में मूक घोंघे भी निराश नहीं लौटते । सुनहली रुपहली मछलियाँ ही किरणों से खेलने का अवकाश नहीं पातीं, विशालकाय नर्क को भी अँधेरे तल में कोई कोना सुलभ रहता है। तट पर घाट भी बाँधे जाते हैं और गिरने की स्वतंत्रता भी रहती है ।

पवन के पंखों पर उड़ती हुई धूलि के कितने ही स्तर नदी को मैला नहीं कर सकते, पर वह मैली तब होती है जब स्वयं उसका जल ही धूलि को साथ ले आता है, क्योंकि तब उसकी स्वच्छ उज्ज्वलता का कारण ही मटमैला हो जाता है।

इसी प्रकार तट के अरण्य, उपवन, घाट, कगार आदि से उसकी गति नहीं रुकती, परंतु सम्मुख उसके तल से उठे हुए बाँध ही उसकी चिर प्रवाहशीलता में अवरोध उत्पन्न करते हैं । कालिदास ने जीवन की गतिशीलता के मर्म और उसके विविध सौंदर्य की अनुभूति ही नहीं प्राप्त की, उस अनुभूति के सत्य को, राग-रस-रंगमयी वाणी भी दी।

'क्षणं क्षणं यन्नवतामुपेति तदेव रूपं रमणीयतायाः ।'
-माघ

: वही रमणीय है जो क्षण-क्षण में नवीन जान पड़ता है में मानो कालिदास में काव्य की अव्यर्थ परिभाषा है। उसमें अपरिचित कुछ नहीं है, किंतु चिर-परिचित ही प्रतिक्षण नवीनता की अनुभूति देता रहता है।

कालिदास की कृतियों में मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीय, और अभिज्ञान शाकुंतल तीन नाटक तथा ऋतुसंहार, मेघदूत, कुमारसंभव और रघुवंश चार काव्य उपलब्ध हैं।

ऋतुसंहार में 6 सर्गों में ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत, शिशिर और वसंत का वर्णन है, जो कवि की विशेषताओं का संकेत देता हुआ भी उसके कृतित्व के शैशव ही को व्यक्त करता है ।

मेघदूत में कुबेर द्वारा निर्वासित विरही यक्ष का, अलका निवासिनी प्रेयसी पत्नी को मेघ द्वारा भेजा हुआ संदेश है। कृति मानो दीर्घ प्रकृति-गीत है, जिसमें चेतनाशील जीवन से जड़ जगत इस प्रकार मिल गया है कि एक की रेखाओं में दूसरा साकार हो जाता है। मेघदूत अनेक दूतकाव्यों की प्रेरणा देकर भी अभी तक अकेला ही है, क्योंकि प्रेरणा कवि दृष्टि देने की क्षमता नहीं रखती ।

कुमार-संभव में पार्वती की तपस्या, शिव से परिणय और तारक का वध करनेवाले कुमार कार्तिकेय के जन्म की कथा है और रघुवंश में उसके नाम के अनुसार दिलीप से लेकर अग्निवर्ण तक रघुवंशियों के शौर्य, कर्त्तव्य और त्याग की गाथा है।

नाटकों में 'मालविकाग्निमित्र' का आधार अग्निमित्र और मालविका की प्रेमकथा और विक्रमोर्वशीय का, पुरुरवा और उर्वशी अप्सरा का पौराणिक वृत्त है । अभिज्ञान शाकुंतल की प्रेरणा महाभारत में वर्णित शकुन्तला उपाख्यान से मिली होगी, किन्तु कवि-प्रतिभा ने उस पर सौंदर्य का ऐसा सजल मर्मस्पर्शी रंग फेर दिया है, जिससे मूल कथा और अभिज्ञान शाकुंतल में मिट्टी और उससे जन्म पानेवाला फूल जैसा अंतर उत्पन्न हो गया।

कालिदास की कृतियों में यदि केवल अभिज्ञान शाकुंतल और रघुवंश ही रह जाते तो भी उनकी ख्याति में कोई अंतर न पड़ता, क्योंकि उन दोनों कृतियों में कवि का जीवनदर्शन, सौंदर्य-बोध, अनुभूति की अतल गंभीरता और अभिव्यक्ति का भाषा-शैलीगत वैभव विकास की चरम रेखा छू लेता है । कालिदास में विद्रोह का स्वर नहीं है, वे केवल सौंदर्य और विलास के कवि हैं, आदि आदि मंतव्य भी आधुनिक युग के अनुकूल कहे जाएँगे ।

कवि का समय ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान का मध्याह्न है और वह स्वयं उसी धर्म के प्रति आस्थावान है। उसके पूर्ववर्तियों की कृतियों में मिलने वाली, भाषा की स्वच्छंदता और तज्जनित शिथिलता सिद्ध करती है कि उस समय तक काव्य संबंधी मान्यताएँ रूढ़ियों के कठिन रेखाओं में सीमित नहीं हुई थीं। तत्कालीन सामाजिक जीवन अनेक आँधी तूफ़ानों से उत्पन्न अस्त-व्यस्तता के उपरांत स्थिरता चाहता था।

चिंतन के क्षेत्र में, आत्मवादी दर्शन के स्थान में पारलौकिक सत्ता और अवतारवाद के समर्थक आस्तिक दर्शन की प्रतिष्ठा हो चुकी थीं ।

बौद्ध हीनयान की प्रतिक्रिया में उत्पन्न महायान द्वारा जिन अनेक वास्तु, मूर्ति आदि कलाओं की प्रेरणा मिल चुकी थी, वे विकास के पथ पर थी ।

सारांश यह कि कालिदास का समय निर्माण का युग था । विद्रोह के स्वर की न कवि को आवश्यकता थी न समाज को ।

जीवन को गतिशील बनाये रखने वाली व्यवस्थाएँ जब विषम और कठिन हो कर उसे गतिरुद्ध कर देती हैं, तब उनमें परिवर्तन अनिवार्य हो जाता है और यह अनिवार्यता विद्रोह के स्वर में बोलती है । पर जब किसी ध्वंस के उपरांत नूतन निर्माण की बेला आती है, तब यह स्वाभाविक हो जाता है कि मनुष्य की कल्पना, बनने वाले समाज, संस्कृति आदि की सामंजस्यवादी रेखाएँ प्रस्तुत करे और उसका विश्वास, उन रेखाओं में जीवन के रंग भरे। इस स्थिति से, विद्रोही स्वरों की संगति नहीं बैठती।

कालिदास ब्राह्मण धर्म के उद्गाता हैं, किंतु उनकी कृतियों में संकीर्ण सांप्रदायिक रेखाओं का इतना अभाव है कि पाठक उनकी कृतियों के मंगलाचरणों के आधार पर ही उनके शैव होने का अनुमान कर सकता है। वस्तुतः धर्म के अंतर्गत जो कुछ आता है, उसमें से केवल उन्हीं तत्वों को उन्होंने दृष्टि का विषय बनाया, जो जीवन को व्यवस्थित गति देने की क्षमता रखते थे और इस दृष्टि से वे तत्व संप्रदायविशेष में सीमित न होकर सामान्य हो जाते हैं। रघुवंश के रघुवंशियों के जीवन और आचार-क्रम का जो वर्णन है, वह संप्रदाय विशेष का न होकर सब का है ।

वर्णाश्रम धर्म की कठिन रेखाओं ने उनके पात्रों के हृदय को कठिन न बना कर उनके कर्त्तव्य को कठिन बनाया है । कवि के निकट मनुष्य का मूल्य जीवन की रसात्मक मंगलमयता को सुरक्षित रखने में है, अतः उनके विशिष्ट चरित्रों की कठोरता भी कोमलता का लक्ष्य रखती है।

मुक्ति और बंधन के बीच में उनकी जीवन दृष्टि का संतुलन अपूर्व ही कहा जायगा। वे जानते हैं कि चरम अव्यवस्था चाहे मुक्ति न हो, किंतु चरम व्यवस्था ऐसा बंधन ही रहेगी, जिसे तोड़ने में मनुष्य अपनी सारी सृजन-: -शक्ति लगाकर श्रांत हो जायगा। अतः उनका मानव बिगड़ कर बनता है, मुक्ति से स्वयं बंधन की ओर लौटता है और इस प्रत्यावर्तन के पथ पर उसकी प्रत्येक पगचाप में जीवन के मंगल स्वर गूँजते हैं।

आश्रमवासिनी सरला शकुन्तला के रूप पर मुग्ध दुष्यन्त आश्रम के विरुद्ध आचरण करने के लिए मुक्त है और उसे भूल जाने के लिए स्वतंत्र परंतु इस चरम मुक्ति के उपरांत वही स्वयं परचात्ताप की ज्वाला में तपकर और आँसुओं से धुलकर, पुत्रवती शकुन्तला को खोजता और उससे पति तथा पिता के बंधनों की याचना करता है ।

कालिदास सौंदर्य और प्रेम के अमर गायक हैं, किंतु उनकी कृतियों में व्यक्त सौंदर्य और प्रेम का द्वन्द्व किसी प्रचलित रूढ़ भाषा में नहीं बाँधा जा सकता। केवल बाह्य रंगरेखाओं में न वह समा पाता है, न अपना यथार्थ परिचय देता है । शकुन्तला के अभिज्ञान के समान ही उसका प्रत्यभिज्ञान, परिचय, अपरिचय और पुनः परिचय के क्रम पार करता है।

चमत्कारिक बाह्य रंग-रेखाओं में व्यक्त सौंदर्य, जिसका परिचय मोहमुग्ध कर देता है, कवि का लक्ष्य नहीं, क्योंकि वह असाधारण सौंदर्य तब तक बार-बार असफल होता रहता है, जब तक उसकी असाधारण तथा अपरिचित रेखाएँ साधारण और परिचित नहीं हो जातीं और उनमें जीवन के तरल-करुण रंग नहीं छलकने लगते ।

एकांत तपोवन में आश्रमवासिनी शकुन्तला का अतिमानवीय सौंदर्य अपनी शक्ति में अपराजेय जान पड़ता है-

मानुषीसु कथं वा स्यादस्य रूपस्य संभवः ।
न प्रभातरलं ज्योतिरुपेति वसुधातलात् । ।

: मानवी में ऐसा रूप कहाँ संभव है ? तरल प्रभावाली विद्युत् पृथ्वीतल से नहीं उदित होती ।

चित्रे निवेश्य परिकल्पित सत्वयोगात्रूपो- च्चयेन मनसा विधिना कृता नु ।
स्त्री रत्न सृष्टिरपरा प्रतिभाति सा मे धातुर्विभुत्वमनुचिन्त्य वपुश्य तस्याः । ।

: विधाता ने पहले चित्र बनाकर या अपने मानस में सभी रूपों को संश्लिष्ट करके उसमें प्राण प्रतिष्ठा की होगी। विधाता के विभुत्व और शकुन्तला के कमनीय कलेवर पर विचार कर यही जान पड़ता है कि इसकी रचना अलौकिक नारीरत्न के रूप में हुई है।

अनाघ्रातं पुष्पं किसलयमलूनं कररुहै-
रनाविद्धं रत्नं मधुनवमनास्वादितरसम् ।
अखण्ड पुण्यानां फलमिव च तद्रूपमनघं
न भोक्तारं कमिह समुपस्थास्यति विधिः । ।

: वह अनघ पवित्र रूप, अनसूँघे सुमन, नखाघात से अछूते किसलय, अनविधे रत्न, अनास्वादि नव मधु और अखंड पुण्यों के फल के समान है। विधाता न जाने किसे इस सौंदर्य के उपभोग की पात्रता देगा !

प्रकृति के क्षण क्षण नूतन लगनेवाले असीम वैभव के बीच प्रतिष्ठित यह असाधारण सौंदर्य दुष्यन्त को इतना बेसुध कर देता है कि वह आश्रम के नियम और राजा के कर्त्तव्य तक भूल जाता है । परंतु यह अपूर्व रूप न उसे निरंतर बेसुध रखने में समर्थ है और न भिन्न परिवेश में आकर्षण की शक्ति रखता है। परिणामतः लोक के समक्ष वह अनादृत और असफल होता है ।

जब इस सौंदर्य को सार्थकता प्राप्त होती है तब शकुन्तला के अंतर्जगत की प्रशांत दीप्ति, उसके अलौकिक रूप की रेखाओं को धूमिल कर चुकती है। तब वह अतिमानवी के रूप से अपना परिचय नहीं देती, वरन् ऐसी लोकसामान्य माता और पत्नी के रूप में उपस्थित होती है, जिसे सबसे अयाचित आत्मीयता प्राप्त होना स्वाभाविक है। कभी उसके सौंदर्य पर मुग्ध होनेवाले और कभी उसका तिरस्कार करने वाले दुष्यन्त की, अंत में जिस शकुन्तला से भेंट होती है वह -

वसने परिधूसरे वसाना नियम क्षाममुखी धृटतैकवेणिः ।

: मलिन वस्त्रों से आवृत्त, ब्रतनियम आदि के पालन से शुष्क मुखवाली और प्रसाधनरहित केशकलाप की एक वेणी धारण किये हुए है ।

राजसभा में राजा के अस्वीकार करने पर भी जो शकुन्तला हठपूर्वक बार-बार अपना परिचय देने का प्रयत्न करती है, वही अब पुत्र के प्रश्न, 'अज्जुए को एसो माँ यह कौन है' के उत्तर में करुण वात्सल्य से कह देती है, 'वच्छ दे भाअहेआईं पुच्छेहि : वत्स अपने भाग्य से पूछ ।'

शकुन्तला के इस सामान्य रूप में, मोती की आभा के समान अंतःकरण के सौंदर्य की आभा, आनंद और विषाद के छायालोक से खेलती है और इसी के समक्ष दुष्यन्त अपने समग्र जीवन को निवेदित कर देता है ।

इसी प्रकार हिमालयकुमारिका का सौंदर्य अपूर्व है। जब वह वसंत के वैभव से रंग-रस-लासली प्रकृति के बीच उपस्थित होती है, तब क्षण भर के लिए पुष्पधन्वा को अपने सम्मोहनबाण की सफलता का निश्चय होने लगता है। परंतु परिणाम में काम दग्ध हो जाता है और वह अनिन्द्य सौंदर्य उपेक्षित ।

शैलात्मजापि पितुरुच्छिरसोऽभिलाषं-
व्यर्थ समर्थ्य ललितं वपुरात्मनश्च ।
सख्योः समक्षमिति चाधिकजातलज्जा
शून्या जगाम भवनाभिमुखी कथंचित् ।।

: शैलात्मजा भी सखियों के समक्ष अपने उन्नत मस्तक वाले पिता के मनोरथ और अपने सुंदर शरीर को व्यर्थ होते देख अधिक लज्जित होकर शून्य मन से किसी प्रकार भवन की ओर चली ।

इयेष सा कर्तुमवंध्यरूपतां समाधिमास्थाय तपोभिरात्मनः ।
अवाप्यते वा कथमन्यथा द्वयं तथाविधं प्रेम पतिश्च तादृशः । ।

: उसने समाधि में बैठकर तप द्वारा अपने रूप को सफल करने की इच्छा की, अन्यथा इस प्रकार का प्रेम और वैसा पति कैसे प्राप्त किया जा सकता था ।

कठिन तप के चरम बिंदु पर किशोर पार्वती के सौंदर्य की कोमल रेखाएँ दिव्य आभा में निमज्जित हो जाती हैं, तब काम को भस्मशेष कर देनेवाले शिव को स्वयं सकाम उपस्थित होना पड़ता है।

जैसे जलधाराओं को, आसमुद्र गतिशीलता के लिए और बालुकाराशि में खोने से बचने के लिए हिमालय की अखंड तरलता से जुड़ा रहना पड़ता है, वैसे ही बाह्य सौंदर्य को, जीवन में मंगलमयी स्थिति के लिए अंतर्जगत के अखंड सामंजस्य से जुड़े रहने की अपेक्षा रहती है। और यह संधि तप या साधना पर निर्भर है।

कालिदास के निकट आकृति की रमयणीयता मात्र मानो तूल है, जिसका हल्कापन, जीवन की ज्वाला को सँभालने की क्षमता से रहित है । पर जब यही कोमल तूल स्नेह में भीगकर भारी हो जाती है, तब वह ज्वाला को सिर पर धारण ही नहीं कर लेती, उसे स्निग्ध आलोक भी बना देती है । इस अपूर्व आलोक-दान के लिए तपना तो अनिवार्य ही रहेगा।

भारतीय काव्य में प्रकृति के उपासकों की परंपरा अविच्छिन्न और दीर्घ है। किंतु उस परंपरा में कालिदास की; अर्चना ही नहीं, देवता-विग्रह की भावना भी विशिष्ट है । जिस तीव्र संवेदन से वे अपने मानव पात्रों की अनुभूतियों को आत्मसात् करते हैं, उसी से वे प्रकृति की विविध रूपात्मकता से तादात्म्य करते हैं, अतः उनके प्रकृतिचित्र केवल रंगरेखाओं का संघात न होकर, स्पंदित व्यक्तित्व बन जाते हैं। मानव, पशु, पक्षी, नदी, निर्झर, पर्वत, शाद्वल आदि में ऐसा कुछ नहीं है, जिसकी उपस्थिति उपेक्षणीय हो ।

प्रकृति मानो ऐसा रचनागार है, जिसमें जीवन को, विराट पर चिर नवीन मूर्त्तिमत्ता दी जा रही है, अतः उसके मस्तक से पदनख तक प्रत्येक हल्की गहरी रेखा और भंगिमा पूर्णता की अंशभूत है ।

शकुन्तला की विदावेला की मार्मिकता के लिए कण्व का वाष्परुद्ध कंठ, सखियों की चिंता, मृगछौने की मूक मनुहार, वृक्षों का पल्लवपात और कोकिल का कुह सभी अनिवार्य है।

प्रकृति मानव के सौंदर्य और प्रेम के महागीत की सजग श्रोता ही नहीं, उसकी निरंतर संगिनी अनुगायिका भी है, इसी से उसके अभाव में संगीत के स्वर अकेले और प्रतिध्वनिशून्य हो जाते हैं।

पार्वती ही कठोर तपश्चरण में एकाग्र नहीं हैं, प्रकृति भी सजग प्रहरी के समान एकाग्र है।

शिलाशयां तामनिकेतवासिनीं
निरन्तरास्वन्तरवातवृष्टिषु ।
व्यलोकयन्नुन्मिषितैस्तडिन्मयै
र्महातपः साक्ष्य इव स्थितः क्षपाः ।।

: निरंतर चलनेवाली आँधी और वृष्टि में, खुले में शिला पर लेटी हुई पार्वती को, रातें विद्युत् के नेत्र खोल खोलकर इस प्रकार देखती थीं मानो वे उसके महातप की साक्षी हों ।

विरही यक्ष भी एकाकी नहीं है, क्योंकि उसे मेघ के रूप में ऐसा आत्मीय मित्र मिल गया है, जिसकी उपस्थिति मात्र उसकी निरुपायता को दूर करने में समर्थ है।

कालिदास की उपमाओं की विशेषता प्रख्यात है, किंतु इस विशेषता के मूल में कोई चमत्कार न होकर जीवन और प्रकृति के विविध रूपों में व्याप्त एकता की अनुभूति है ।

वस्तुतः चमत्कार का अभाव ही कालिदास की कृतियों का चमत्कार है। वर्षा में न जल की बूँदें असामान्य होती हैं और न सूर्य की किरणें, परंतु उनका एक विशेष बिंदु पर संगम ही इंद्रधनुष के सप्तरंगों में व्यक्त चमत्कार बन जाता है । कालिदास की कृतियों में भी न जीवन असामान्य है न प्रकृति, परंतु कवि के जिस दृष्टि बिंदु पर उनका सम्मिलन होता है, वही चमत्कारिक रंगों में प्रतिफलित हो उठता है ।

कवि का निरीक्षण उसके संवेदन का पूरक है, अतः प्रत्येक शब्दचित्र में आकृति की रेखाएँ यथातथ्य और अंतःस्पंदन सत्य रहता है। इसी से अनेक गतागत युगों की भिन्न और विपरीत कसौटियों पर परीक्षित होकर भी वह मिथ्या नहीं ठहराया जा सका।

कालिदास ने जीवन सरिता के पुलिनों पर यत्र-तत्र स्फटिक - मरकत के घाट सोपान बनाकर भी उसके प्रवाह और गहराई में कोई व्यवधान नहीं उपस्थित किया। किंतु उनके परवर्ती संस्कृत कवियों ने चमत्कार की स्पर्धा में नदी के तल में सोने चाँदी की रेत बिछाना आरंभ किया । परिणामतः ज्यों-ज्यों जल की गहराई घटने और तल की कठिनता बढ़ने लगी, त्यों-त्यों कमल सूखने और हरीतिमा तिरोहित होने लगी और अंत में चमत्कार की चकाचौंध में घाट-सोपान और सुनहली रुपहली बालुका का विस्तार दृष्टि के लिए मृगमरीचिका बन गया।

6

समय के अनेक आयाम पार कर भाव की जिस अंतःसलिला का प्रकट और सजल स्पर्श हम पाते हैं उसके भगीरथ भवभूति हैं ।

ईसा की सातवीं शती से चौदहवीं शती तक का समय ब्राह्मण धर्म के पुनरुथान की दृष्टि से विशेष उर्वर माना जाएगा।

एक ओर उद्योतकर, कुमारिल भट्ट, शंकराचार्य, वाचस्पति, उदयनाचार्य, रामानुज, सायणाचार्य आदि दार्शनिकों ने अनेक तर्क- सारणियों की उद्भावना की और दूसरी ओर भवभूति, माघ, श्रीहर्ष आदि कवियों ने विस्मृत मान्यताओं को वाणी दी ।

इनमें भवभूति का व्यक्तित्व सबसे विशिष्ट है । उनके समय के संबंध में भी हमें साहित्यगत अंतः और बाह्य साक्ष्यों का ही आधार लेना पड़ता है।

राजतरंगिणी के चतुर्थ अंक में मिलता है-

कवि वाक्पतिराज श्री भवभूत्यादि सेवितः ।
जितो ययौ यशोवर्म्मा तद्गुणस्तुतिवन्दिताम् ।।

: वाक्पतिराज और भवभूति आदि कवियों से सेवित यशोवर्मा ने पराजित होकर उसकी (ललितादित्य की ) स्तुति की।

इसके अनुसार भवभूति का कान्यकुब्जाधिप यशोवर्मा की सभा में होना सिद्ध होता है। जनरल कनिंघम के मत से ललितादित्य, जिसने यशोवर्मा को परास्त किया, का राज्यकाल 693 ई. से 729 ई. तक रहा।

भवभूति के समसामयिक वाक्पतिराज ने अपनी प्राकृत रचना 'गौड़वहो' में उसकी विशेषता का परिचय देने के लिए लिखा है-

भवभूइ जलहि निग्गय कव्वामय रसकणा इव फुरंति ।
जस्स विसेसा अज्जवि विअडेसु कहाणिवेसेसु ।।

: भवभूमि समुद्र से जो काव्यमृत निकाला गया है उसके कुछ बिन्दु 'गौड़वहो' काव्य में स्पष्ट दृष्टिगत होंगे।

राजशेखर ने जो माधवाचार्य के अनुसार शंकर के सामसामयिक थे, अपने बाल रामायण नाटक में पुरातन कवियों के साथ भवभूति का उल्लेख किया है-

वभूव वल्मीकिभवः कविः पुरा
ततः प्रपेदे भुवि भर्तृमेष्ठताम् ।
स्थितः पुनर्यो भवभूतिरेखया
स वर्त्तते संप्रति राजशेखरः ।।

: पहले वाल्मीकि, फिर भर्तृहरि पृथ्वी पर उत्पन्न हुए; फिर भवभूति नाम से जिस कवि का जन्म हुआ, वही अब राजशेखर के रूप में विद्यमान है।

राजशेखर का समय आठवीं शती के अंत और नवीं के प्रारंभ में माना जाता है, अतः आठवीं शती के अंत तक भवभूति की जीवन यात्रा समाप्त हो चुकी होगी; अन्यथा राजशेखर अपने आपको उनका अवतार कैसे कह सकते थे !

सातवीं शती के पूर्वार्द्ध में हर्षचरित, कादम्बरी और चंडिकाशतक के रचयिता बाणभट्ट, दशकुमार काव्यादर्श के प्रणेता दंडी जैसे, दीर्घ समास- युक्त, क्लिष्ट भाषा के प्रेमी विद्वान् ग्रन्थकार हो चुके थे। इनके आसन्न परवर्ती होने और स्वयं विद्वान् होने के कारण भवभूति की भाषा में दीर्घ समास बाहुल्य स्वाभाविक हो गया, परंतु अपने काव्य की दृष्टि से न वे किसी के अनुवर्ती हैं और न किसी को अपने अनुगमन का अवकाश देते हैं।

महावीरचरित और मालतीमाधव नाटकों की प्रस्तावना में भवभूति ने सूत्रधार के माध्यम से अपना जो परिचय दिया है, उससे ज्ञात होता है कि वे दक्षिणा पथ के विदर्भ देशस्थित पद्मपुर नगर निवासी, वाजपेय यज्ञ करनेवाले काश्यप गोत्रीय महाकवि गोपाल भट्ट के पौत्र नीलकंठ के पुत्र थे और उनका दूसरा नाम श्रीकंठ था । प्रस्तावना के अनुसार उनकी माता जातुकर्णी और गुरु ज्ञाननिधि थे ।

भवभूति की रचनाओं में उनके किसी आश्रयदाता का उल्लेख नहीं मिलता, अतः यह अनुमान स्वाभाविक है कि उन्हें जीवन की संध्या में कान्यकुब्जनरेश यशोवर्मा का आश्रय प्राप्त हुआ । यशोवर्मा स्वयं विद्वान् और कवि था और भवभूति अपनी कृतियों के प्रख्यात होने पर उससे सम्मान पाने के अधिकारी हो गए हों तो आश्चर्य नहीं ।

इस विद्रोही कवि का अधिकांश जीवन संघर्ष में व्यतीत हुआ, इसके पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं, परंतु उनके कटु अनुभवों ने उन्हें हताश और कटु न बनाकर उनके प्रखर विद्रोह में अमर आशावाद की प्रतिष्ठा भी की और उनकी करुणा को अधिक विस्तार और गहराई भी दी ।

उत्तररामचरित में कवि ने सूत्रधार से कहलाया है-

सर्वथा व्यवहर्त्तव्यं कुतो ह्यवचनीयता । ।
यथा स्त्रीणां तथा वाचां साधुत्वे दुर्जनो जनः । ।

: अपना कर्त्तव्य पूर्णतः करना चाहिए । निंदा से मुक्ति कहाँ संभव है ? स्त्री के सतीत्व और वाणी (रचना) के साधुत्व के विषय में मनुष्य दुर्जन ही रहता है ।

मालतीमाधव के नवे अंक में उन्होंने अपने काव्य की अवज्ञा करने वाले आलोचकों को जो उत्तर दिया है, वह युगयुगांतर तक प्रत्येक नवागत कवि के हृदय में प्रतिध्वनित होता रहेगा-

ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञां
जानंति ते किमपि तान्प्रति नैष यत्नः ।
उत्पत्स्येऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा
काले ह्ययं निरवधि विपुला च पृथ्वी । ।

: जो मेरे काव्य का अनादर करते हैं उन्हें ही इसका कारण ज्ञात होगा। उनके लिए मैंने यह प्रयत्न नहीं किया है। मेरे काव्य को समझने वाला ( मेरा समानधर्मा) कोई व्यक्ति कभी उत्पन्न होगा ही, अथवा इसी समय कहीं होगा, क्योंकि समय असीम है और पृथ्वी विपुल विस्तारमयी है ।

उपर्युक्त कथन कवि की अहंकारोक्ति मात्र नहीं है, वरन् यह उसकी अपनी कृति में व्यक्त सत्य के प्रति अडिग आस्था है । सत्य अज्ञात या उपेक्षित रहने पर असत्य नहीं हो जाता।

भवभूति के तीन नाटक उपलब्ध हैं-

महावीरचरित्, मालतीमाधव और उत्तररामचरित ।

महावीरचरित में राम की कथा उनके शैशव से चलकर रावणयुद्ध और अयोध्याप्रत्यावर्तन में समाप्त होती है।

मालतीमाधव प्रकरण रूपक है, जिसके 10 अंकों में उज्जयिनी के राजमंत्री की कन्या मालती का माधव नामक विद्वान् से प्रेम और विवाह वर्णित है। तीसरे नाटक उत्तररामचरित के 7 अंकों में राम द्वारा सीता परित्याग और उनके पुनर्मिलन की कथा सर्वथा नवीन पृष्ठभूमि पर प्रस्तुत की गई है।

बौद्धधर्म के अस्त और ब्राह्मण धर्म के पुनः उदय की द्वाभा में भवभूति ने अपने नाटकों की रचना की है। वे स्वयं वैदिक धर्मानुयायी ब्राह्मण हैं, किन्तु उनकी रचनाओं में पक्षपातजनित निंदा-स्तुति का अभाव है।

बौद्धधर्म की अस्ताचलगामिनी आभा तंत्र-मंत्र के मेघाडंबर में बिखर कर एक कुहकभरे छायालोक का सृजन कर रही थी। भवभूति ने इस अंधकार - आलोक के विषम-सम चित्र बड़ी सहृदयता से अंकित किए हैं।

समष्टिगत विषमता और विकृतियों के बीच भी व्यक्तिगत विशेषताओं के लिए कवि की करुणा का अभिषेक दुर्लभ नहीं रहता।

मालतीमाधव में अघोरघंट, कपालकुंडला आदि के तांत्रिक समाज में कवि की दृष्टि परिब्राजिका कामन्दकी के वात्सल्य को खोज लेती है-

दया वा स्नेही वा भगवती निजे ऽस्मिन् शिशु जने
भवत्या संसाराद्विरतमपि चित्तं द्रव्यति ।
अतश्च प्रवज्या समय सुलभाचारविमुखः
प्रसक्तस्ते यत्नः प्रभवति पुनर्देवमपरम् ।।

: हे भगवति शिशुमालती के प्रति आपको जो दया अथवा स्नेह है, उसने आपके संसार से विरक्त चित्त को भी द्रवित कर दिया है। इसी से आप प्रव्रजित जीवन के आचार से विमुख होकर उसके लिए यत्नशील हैं।

ब्रह्मा के कमंडलु में बंद गंगा के समान भवभूति की करुणा, जो उनकी अन्य कृतियों की सीमा में अभिव्यक्ति का मार्ग खोजकर थकती रहती है, उत्तर-रामचरित में आकाश से पाताल तक अनंत विस्तार पा लेती है, अतः उसका दुर्वार वेग युगों से दर्शकों को विस्मयमुग्ध करता आ रहा है।

अतिपरिचय से धूमिल लगनेवाली रामसीता की कथा भवभूति की करुणा का स्पर्श पाकर नूतन परिचय की दीप्ति से उद्भासित हो उठती है। राम और सीता के व्यक्तित्व मानो करुणा की वीणा के दो तूंबे हैं, जीवन के सम-विषय तारों को जोड़ने के लिए ही एक दूसरे से दूर हैं और इन तारों पर स्नेह की रागिनी अनंत आरोह-अवरोहों में मँडराती रहती है।

उत्तररामचरित में कवि की कल्पना नाटककार की करुणा की अनुगामिनी है, अतः कथा के अंत में रामसीता का मिलन संभव हो जाता है।

ग्लानि से पृथ्वी में समा जाने वाली सीता की करुण स्थिति, करुणा के उपासक भवभूति को आकर्षित नहीं करती, क्योंकि वे करुणा को चिरसृजनशीला मानते हैं। इसी से उन्होंने अपने नाटक में कथा की रेखा-रेखा का संयोजन इस प्रकार किया है कि राम-सीता का संयोग अनिवार्य हो जाता है। यदि यह संयोग संभव नहीं है तो एकनिष्ठ प्रेम असत्य है और यह असत्य मृत्यु का पर्याय है । उनके नाटक में अलौकिक तत्वों का बाहुल्य है। नदियाँ वार्त्तालाप करती हैं, वनदेवियाँ साथ चलती हैं, भागीरथी सीता को अदृष्ट रहने की शक्ति देती है आदि आदि; परंतु जिस महालय के साथ यह सब घटित होता है, उससे मनुष्य का हृदय इतना परिचित है कि वह किसी को मिथ्या नहीं मानता। दांपत्य संबंध की रेखा के भीतर या बाहर संयोग-वियोग की विविध स्थितियों में प्रतिफलित प्रेम के जिन रूपों से हमारा परिचय है, वे भवभूति के चित्रपट को नहीं भर पाते ।

संयोग में भी राम, सीता के प्रति अपने प्रेम का जैसा परिचय देते हैं, वह किसी अतीन्द्रिय मानसिक स्थिति और जीवनव्यापी तादात्म्य का संकेत है-

विनिश्चेतुं शक्यो न सुखमिति वा दुःखमिति वा
प्रमोहो निद्रा वा किमु विषविसर्पः किमु मदः ।
तव स्पर्शे स्पर्शे मम हि परिमूढेन्द्रियगणो
विकारश्चैतन्यं भ्रमयति च संमीलयति च ।।

: मैं निश्चित नहीं कर पाता हूँ कि यह सुख है अथवा दुःख, निद्रा है अथवा अतिशय मूर्च्छा, विष का प्रसरण है अथवा मादकता ।

: तुम्हारे स्पर्श से एक मनोविकार मेरी इन्द्रियों को स्तब्ध करके मेरी चेतना को भ्रमित और प्रसुप्त कर देता है ।

दीर्घ साहचर्यजनित प्रेम की सात्विक गंभीरता स्पष्ट करने के लिए ही मानो भवभूति राम से सीता के शैशव-रूप का स्मरण कराते हैं-

प्रतुनुविरलैः प्रान्तोन्मीलन्मनोहरकुन्तले
दशनमुकुलैर्मुग्धालोकं शिशुर्दधती मुखम् ।
ललितललितं ज्योत्स्ना प्रायैरकृत्रिमविभ्रमै-
रकृत मधुरैरम्बानां मे कुतूहलमंगकैः । ।

: विरल और मुकुलों जैसी दंतपंक्ति और कपोलों के दोनों ओर हिलती हुई सुंदर अलकों से युक्त मुग्धकर शिशु जैसे मुखवाली सीता तब अपने अतिशय ललित, ज्योत्स्ना के समान स्निग्ध और अकृत्रिम चेष्टाओं वाले अंगों से मेरी माताओं के हृदय में कुतूहल उत्पन्न करती थी ।

पत्नी के शैशव का ऐसा स्मरण अन्यत्र दुर्लभ है। चित्र की रेखाएँ मानो किरण को गंगाजल में डुबो कर अंकित की गई हैं।

प्रेम के विषय में राम के कथन में भवभूति की अपनी मान्यता है, परंतु उस मान्यता से किसी का विरोध संभव नहीं-

अद्वैतं सुखदुःखयोरनुगतं सर्वास्ववस्थास्य-
द्विश्रामो हृदयस्य यत्र जरसा यस्मिन्नहार्यो रसः ।
कालेनावरणात्ययात्परिणते यत्स्नेहसारे स्थितं
भद्रं तस्य सुमानुषस्य कथमप्येकं हिं तत्प्राप्यते । ।

: सुख दुःख में जो एक रहता है, सब अवस्थाओं में जो एकरस है, हृदय जहाँ विश्राम पाता है, जरावस्था जिसका माधुर्य नष्ट नहीं कर पाती और दीर्घ साहचर्य से द्वैत का आवरण हट जाने पर जो स्नेहसार के रूप में स्थिर रहता है, उस दुष्प्राप्य अद्वैत प्रेम को जो मनुष्य प्राप्त कर लेता है वह भाग्यशाली है ।

करुणा भवभूति के चिंतन का केंद्रबिंदु भी है और जीवन का सम भी, अतः किसी भी दुःखार्त्त के प्रति उनकी संवेदना सहज है।

उनके युग के समाज की नारी, शूद्र आदि के प्रति जो हीन भावना और अंध रूढ़ियों के प्रति जो निष्ठा रही होगी, उससे कवि प्रभावित नहीं जान पड़ता ।

सीता यदि करुणा की मूर्त्तिमती पयस्विनी है तो वशिष्ठपत्नी अरुंधती ज्ञान का दीप्त उन्नत शिखर । विदेह जनक अरुंधती की वंदना करते हुए कहते हैं-

यया पूतं मन्यो निधिरपि पवित्रस्य महसः
पतिस्ते पूर्वेषामपि खलु गुरूणां गुरुतमः ।
त्रिलोकी मंगल्यामवनि तल लीनेन शिरसा
जगद्वन्द्यां देवीं उषसमिव वन्दे भगवतीम् ।।

: पूर्व काल के गुरुओं में भी श्रेष्ठतम और पवित्र तेज की निधि होकर भी, जिसके पति वशिष्ठ जिसके कारण अपने आपको पवित्र मानते हैं, जो त्रिलोक की मंगलविधायक और देवी उषा के समान वंदनीया है, उस भगवती अरुंधती को मैं पृथ्वी पर मस्तक रखकर प्रणाम करता हूँ ।

वेद-साहित्य के अतिरिक्त अन्यत्र ऐसी दिव्य गरिमा - भूषित नारी मूर्ति दुर्लभ रहेगी ।

वाल्मीकि के आश्रम में विद्याध्ययन के लिए अकेली यात्रा करनेवाली आत्रेयी, नारी रूप में उपस्थित तमसा, मुरला, भागीरथी आदि नदियाँ, पृथ्वी और वनदेवियाँ सब अपनी संवेदना में गरिमामयी हैं।

राम द्वारा शूद्रतापस शम्बूक के वध की कथा में कवि परिवर्तन नहीं कर सका, किंतु उसकी करुणा ने उस क्रूर कर्म पर औचित्य का रंग नहीं फेरा।

शंबूक से वध के लिए प्रस्तुत राम कहते हैं-

हे हस्त दक्षिण मृतस्य शिशोर्द्विजस्य
जीवातवे विसृज शूद्रमुनौ कृपाणम् ।
रामस्य गात्रमसि निर्भरगर्भखिन्ना-
सीताविवासनपटोः करुणा कुतस्ते ।।

: हे मेरे दक्षिण हस्त ! ब्राह्मणपुत्र को जीवित करने के लिए शूद्रमुनि पर असि का वार कर । तू उस राम का अंग है जो गर्भभार से श्रांत सीता को निर्वासन देने में पटु है । तुझमें करुणा कैसी !

किसी प्रकार प्रहार करके भी वे अपने क्रूर कर्म के परिणाम के प्रति आश्वस्त नहीं हैं-

कृतं राम सदृशं कर्म । अपि जीवेत्स ब्राह्मणपुत्रः ।

: यह राम के अनुरूप ( क्रूर) कर्म हुआ। कदाचित् वह ब्राह्मण पुत्र जीवित हो जावे ।

उपर्युक्त मानसिक स्थिति यही प्रमाणित करती है कि राम, सीता के परित्याग और निर्वासन के समान ही शूद्र तापस के वध को क्रूर कर्म मानते हैं किंतु जिस लोकमत ने एक कृत्य करा लिया, उसी के कारण दूसरा भी अनिवार्य हो उठा।

भाव की जिस निगूढ़ और गंभीर मर्यादा के लिए भवभूति प्रकृति के हल्के लघु चित्र नहीं आँकते, उसी को अक्षुण्ण रखने के लिए उन्होंने अपने नाटकों से, विदूषक के हल्के मनोरंजन को निर्वासन दे डाला है।

परंतु तीव्र मनोविकारजनित तनाव को शिथिल करने के लिए उन्होंने ऐसे हृदय और कथन उपकथनों की उद्भावना की है, जो तत्कालीन जीवन और सामाजिक आचार का परिचय भी देते हैं, और शिष्ट हास्य भी सहज कर देते हैं। उत्तररामचरित के चतुर्थ अंक में बाल्मीकि आश्रम के अंतेवासी सौधातकि और दांडायन के वार्तालाप में ऐसे ही हास्य की कोमल दीप्ति है ।

कालिदास की रचना मानो सान पर चढ़ा कर खरादा हुआ हीरा है, जो किसी भी कोण से आनेवाली किरण को सहस्र रूपों में प्रतिफलित कर लौटा देता है। किंतु भवभूति की कृतियों की तुलना खान से सद्य निकले हुए हीरक खंड से की जा सकेगी, जिस पर आलोक का प्रतिफलन कोण विशेष पर निर्भर है। पर इससे दोनों की महार्घता में अंतर नहीं पड़ता ।

दीर्घ समाससंकुल भाषा और जटिल मनोविकारों के तटों को जोड़ कर प्रवाहित भवभूति की करुणा ने ऐसा कुछ दिया है जिसके स्पर्श से -

अपि ग्रावा रोदिति दलति वज्रस्य हृदयम् ।

: पाषाण भी रोते हैं और वज्र का हृदय भी विदीर्ण हो जाता है ।

भवभूति की 'उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा' में व्यक्त भविष्यवाणी को सत्य करने के लिए प्रत्येक युग में उसके समानधर्माओं की परंपरा अविच्छिन्न चलती आ रही है।

7

संस्कृत साहित्य की निम्नगामी प्रवृत्ति, जिसकी यात्रा भवभूति के रचनाकाल से पहले ही आरंभ हो चुकी थी, अपने वेग में दुर्वार होती जा रही थी। पर जिसकी वंशी की टेर ने इस निम्नगा को मरु में खोने से बचा कर प्रेम की ओर मोड़ दिया उस गोपालक तक इतिहास की किरणें नहीं पहुँच पाती हैं ।

कृष्ण आभीर थे या आर्य, भागवत के कृष्ण और महाभारत के कृष्ण एक हैं या नहीं, राधा का व्यक्तित्व कल्पित है या सत्य आदि आदि जिज्ञासाओं का समाधान अब तक नहीं हो सका। परंतु कवि जयदेव के हृदय के तार उसी वंशी रव से झंकृत हो उठे थे, इसका प्रमाण गीतगोविंद है ।

प्रसन्नराघव के रचयिता का नाम भी जयदेव है और चंद्रालोक के प्रणेता का भी । परंतु गीतगोविंद के गायक जयदेव तीसरे और दोनों समान नामाओं से भिन्न हैं ।

कहा जाता है कि वे बंगनरेश लक्ष्मणसेन के सभाकवि थे, जिनका समय 12वीं ई. शती का पूर्वार्द्ध है।

गीतगोविंद में उन्होंने अपना जो परिचय दिया है उसके अनुसार उनके पिता का नाम भोज और माता का नाम राधा देवी था-

श्री भोजदेव प्रभवस्य राधादेवी सुत श्री जयदेवकस्य ।
पराशरादि प्रियवर्ग कठे श्री गीतगोविन्द कवित्वमस्तु ।।

उनकी पत्नी पद्मावती का उल्लेख भी गीतगोविन्द के आरंभ में मिलता है-

वाग्देवता चरित्र चित्रित चित्तसद्मा
पद्मावती चरण चारण चक्रवर्ती।
श्री वासुदेवरतिकेलिकथासमेतमेतं
करीति जयदेवकविः प्रबंधम् ।

कवि के जीवनवृत्त के लिए हमें किंवदंतियों पर ही निर्भर रहना पड़ता है ।

जयदेव का जब आविर्भाव हुआ तब संस्कृत के शृंगारी काव्य के नायक नायिका के रूप में राधाकृष्ण की प्रतिष्ठा हो चुकी थी ।

शृंगार-भाव जीवन की मूलवृत्तियों में स्थिति रखता है, अतः अन्य मूल प्रवृत्तियों के समान उसका भी संस्कार और उदात्तीकरण स्वाभाविक है। जिस नियम से प्रत्येक अंकुर और वृक्ष धरती के कर्दम और अंधकार में स्थिति रखते हुए भी आकाश की ओर उठता है और अपनी तत्वतः अभिव्यक्ति सीमित कर्दम में न देकर मुक्त सौरभ में देता है, उसी नियम से, पाशविक कर्दम में जड़ें रखने वाली मानव-प्रवृत्तियों का क्रमशः उदात्तीकरण होना अनिवार्य है।

'एकोऽहम बहुस्याम' में काम का जो तत्व छिपा हुआ है, उससे वैदिक ऋषि भी परिचित है और उपनिषद् का दार्शनिक भी। परंतु जीवन में जब उक्त मूल प्रवृत्ति का उदात्तीकरण संभव नहीं रहता, तब उसका निम्नगा हो जाना अनिवार्य हो जाता है। भय, क्रोध, घृणा जैसी मूल प्रवृत्तियों के लिए भी यही सत्य है। या तो मनुष्य उनका परिष्कार कर लेता है या वे अपने मौलिक रूप में मनुष्य की नियामक बन कर उसे पशु के स्तर पर उतार लाती हैं।

शृंगारी उपासना के बीज, बौद्ध धर्म में ह्रास से उत्पन्न तांत्रिक और वज्रयानी संप्रदायों में खोजे जा सकते हैं, जिनकी उपासना में स्त्री पूजोपकरण के समान है।

ईसा की सातवीं शती में ही वंग वज्रयानी और तांत्रिक उपासना पद्धति से प्रभावित था ।

विकासशील वैष्णव धर्म ने शृंगार को अस्वीकार न करके राधाकृष्ण को उसका केंद्रबिंदु बना दिया और इस प्रकार मधुर भाव की उपासना ने मनुष्य के मन को तंत्र-मंत्रादि की कठिन साधना से विमुख कर दिया ।

राधाकृष्ण युग्म का विकास भी कम रोचक नहीं है। सांख्य के पुरुष और प्रकृति ने निर्गुणवादियों के ब्रह्म और आत्मा तथा सगुणोपासकों के कृष्णराधा, शिवशक्ति आदि युग्मों के विकास में कोई योग दिया है या नहीं, यह भी विशेष शोध की अपेक्षा रखता है। राधा के व्यक्तित्व की रेखाएँ ई. शती 7 से ही बनने लगी थीं, किंतु उस व्यक्तित्व में प्राणप्रतिष्ठा का श्रेय भागवत संप्रदाय को ही दिया जा सकता है। ई. शती 10 के लगभग श्रीमद्भागवत का रचनाकाल माना जाता है और उसके दशम स्कंध में कृष्ण और गोपिकाओं की रास - क्रीड़ाओं का सजीव और रसप्लावित चित्रण मिलता है ।

गीतगोविंद के कवि ने इन शृंगार चित्रों को तान लय में बाँध कर ऐसी गेयता दी है, जिसका माधुर्य चिर नूतन और झंकार सनातन है।

भारतीय गीत साहित्य अंतरंग और बहिरंग दोनों में विविध है। उषा की दिव्य सुष्मा से लेकर दादुर की ध्वनि तक को अपनी सीमा में सुरक्षित रखनेवाले वेदगीत हैं। भिक्षु भिक्षुणियों के साधनामय जीवन की कथा सुनाने वाले गीतिवृत्त हैं । दैनंदिन जीवन के अतिपरिचित और क्षणिक सुख-दुःख, मिलन-विरह, पर्व-उत्सव आदि को लय के तार में गूंथ कर अक्षय माधुर्य देनेवाले लोकगीत हर सांस में मुखरित हैं । सिद्धों के गूढ़ और गुरु ज्ञान को संगीत के पंख देनेवाले मंत्रगीत भी साहित्य का महार्घ न्यास हैं। सारांश यह कि बुद्धि की जटिल प्रक्रिया से हृदय की सरल संप्रेषणीयता तक, जो कुछ भारतीय प्रतिभा संचित कर सकी, उसे उसने जीवन का छंद बना कर कंठों में सुरक्षित रखने का अथक प्रयास भी किया है । गीतगोविंद, इस अविच्छिन्न गीतपरंपरा की मूल्यवान कड़ी है।

राधाकृष्ण को केंद्र बनाकर चलनेवाली शृंगार- उपासना और उन्हें आध्यात्मिक प्रेम का प्रतीक मान कर विकास करनेवाली भक्ति भावना की संधि में जयदेव का आविर्भाव होने के कारण उन्हें दोनों का दायभाग अनायास प्राप्त हो गया । पर इस सम्मिलित दाय से उत्पन्न द्वाभा आनेवाले युगों में अनेक मतभेदों का कारण बनती रही है।

जयदेव के गीत विच्छिन्न न होकर एक गेय प्रबंधात्मकता में बंधे हुए हैं, अतः द्वादश सर्गों में विभाजित इस गीतिकाव्य में राधाकृष्ण के मान, रास, विरह, मिलन आदि की ललित कथा कही गई है। किंतु जयदेव का चित्रपट न तो निर्गुण गीतकारों के चित्रफलक के समान विराट है, जिसमें संपूर्ण जगत एक ब्रह्म की अभिव्यक्ति बनकर समा जाता है और न वह सगुणोपासक कथाकारों के चित्रफलक के समान सीमित और विविध है, जिसमें मानव रूप में अवतरित इष्ट को जीवन के कठिन संघर्ष और उससे उत्पन्न असंख्य परिस्थितियों में रहना पड़ता है।

कवि जयदेव की विशेषता उनकी भाषा में जितनी प्रत्यक्ष है, उतनी कथ्य में नहीं। संस्कृत भाषा को उन्होंने जैसा प्रांजल और स्निग्ध-मधुर लचीलापन दिया है, उसकी तुलना में स्वभावमधुर ब्रजभाषा ही ठहर सकती है ।

गीतगोविंद अस्ताचलगामी संस्कृत काव्य का संध्या-गीत है, अतः उसके सुनहले रुपहले क्षितिज के ऊपर इंद्रधनुषी किरणें ही नहीं मंडरा रही हैं, नीचे अतल से उठते हुए अंधकार की लहरें भी उससे टकरा रही हैं।

भारतीय वाङ्मय की रूपमयता विविध और चेतना सर्वात्मिका है। उसमें से कुछ पंक्तियाँ लेकर उसका परिचय देना, कुछ बूँद जल लेकर समुद्र का परिचय देने के समान हो जाता है ।

पर यह सत्य है कि हम अपनी छोटी गंगाजली में जितना जल भर लेते हैं, उतना ही तो गंगा में नहीं होता और जितनी वर्षा से हमारा बोया बीज अंकुरित हो जाता है, उतनी ही तो मेघ के जलदान की सीमा नहीं होती। हम अपनी परिमित प्राप्ति से ही अपरिमित प्राप्य की ओर संकेत करते हैं।

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