Bharat Ki Sabhi Bhashayon Ki Jay Ho (Hindi Nibandh) : Ramdhari Singh Dinkar

भारत की सभी भाषाओं की जय हो : रामधारी सिंह 'दिनकर'

गुजरात और बंगाल–भारत के दो अन्यतम अग्रणी प्रान्त हैं और नवीन भारत के निर्माण का बहुत अधिक श्रेय, सच पूछिए तो, इन्हीं दो प्रान्तों को है। गुजरात और बंगाल ने मध्यकालीन इतिहास में भी अपने–अपने स्वभाव का बहुत अच्छा परिचय दिया था, किन्तु उन्नीसवीं सदी में भारत में सांस्कृतिक महाजागरण की जो लहर उठी, उसके नेता तो विशेष रूप से इन्हीं दो प्रान्तों में उत्पन्न हुए। बंगाल ने हमें राममोहन राय, रामकृष्ण और रवीन्द्र दिये, तो गुजरात ने स्वामी दयानन्द और महात्मा गांधी को उत्पन्न किया। बंगाल भारत के वाम भाग में है, इसलिए वह राष्ट्र के हृदय का काम करता है। गुजरात उसके दक्षिणांग में पड़ता है, इसलिए उसके जिम्मे राष्ट्र के फेफड़े का काम है। बंगाल का दान उज्ज्वल, कोमल और सुकुमार थाय गुजरात के दान में तेजस्विता और कर्मठता की मात्रा प्रधान रही। बंगाल ने एक स्वप्न देखा था, एक कल्पना पाई थीय गुजरात ने पसीना बहा–बहाकर उस सपने को मूर्त रूप दे दिया। हमारे राष्ट्र–देवता के बायें हाथ में कलम है जो कल्पना और अनुभूति को कविता का रूप देती हैय किन्तु उसके दाहिने हाथ में कर्मठता का चक्र भी है जो ज्ञान और कर्म में समन्वय लाता है, जो प्रत्येक सुविचार को किसी कुकर्म में बदलकर देखना चाहता है। सौन्दर्य देश को चाहे जहाँ से भी मिल जाए, किन्तु उसे स्वास्थ्य देने की जवाबदेही गुजरात ने उठाई है। हमें पूरा विश्वास है कि गुजरात के नौजवान अपने इस अमूल्य उत्तराधिकार को गौरव के साथ आगे ले चलेंगे। यह कोई आकस्मिक बात नहीं है कि महात्मा गांधी की कला में सोद्देश्यता और मेघाणी के काव्य में लोक–कल्याण की भावना प्रधान रही। यह संयम के प्रहरी लोगों की भूमि है। यहाँ वे लोग जनमते आए हैं जो कला के जीवन से अधिक जीवन की कला के उपासक थे। हाँ, महाकवि नानालाल जैसे कलाकार इस नियम के अपवाद समझे जा सकते हैं। किन्तु उपवादों का एक महत्त्व यह भी है कि उनसे साधारण नियम की पुष्टि होती है।

किन्तु इस चर्चा को आप मनोरंजन का ही विषय मानिए, क्योंकि देश की आत्मा का ऐसा भौगोलिक विभाजन चल नहीं सकता। असल में विविध होता हुआ भी अपना सारा भारतवर्ष एक है और देश में भाषाएँ चाहे जितनी भी हों, लेकिन उन सबके भीतर भारत की एक ही आत्मा अपने को अभिव्यक्त करती है। एक ही गंगोत्री का जल है, जो अनेक नदियों में बह रहा है। एक ही सूर्य का बिम्ब है जो अनेक पात्रों में जगमगा रहा है और एक ही भाव है जो अनेक छन्दों में फूट रहा है। वेद, उपनिषद्, रामायण और महाभारत–ये ही वे घाट हैं जहाँ पर हमारी सभी भाषाएँ पानी पीती हैं। भाषा मूक भी होती है। भाषा संकेत को भी कहते हैं। और भाषा के इन रूपों को सभी लोग एक समान समझ भी लेते हैं। अतएव मुख्य वस्तु भाषा नहीं, भाव है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने कहा है : ‘भाव अनूठो चाहिए, भाषा कोऊ होय’। सो भाव की एकता को लेकर ही यह सारा देश एक रहा है और विभिन्न भाषाओं के भीतर से हम भावों की इसी एकता की अनुभूति करते रहे हैं। भारत की भारती एक है। उसकी वीणा में जितने भी तार हैं, उनसे एक ही गान मुखरित होता है। असल में ज्ञान की गाय हमारी एक ही है। ये सारी भाषाएँ उसके अलग–अलग थन हैं जिनसे मुँह लगाकर भारत की समस्त जनता एक ही क्षीर का पान कर रही है। भारत की संस्कृति एक है। विभिन्न भाषाएँ उसी संस्कृति से प्रेरणा लेकर अपने–अपने क्षेत्र में साहित्य रचती हैं और इन सभी साहित्यों से, अन्तत:, उसी संस्कृति की सेवा होती है, उसी संस्कृति का रूप निखरता है जो सभी भारतवासियों का सम्मिलित उत्तराधिकार है।

रोटी के बाद मनुष्य की सबसे बड़ी कीमती चीज उसकी संस्कृति होती है। एक जाति की अधीनता से दूसरी जाति सिर्फ इसीलिए निकलना नहीं चाहती कि पराधीनता में उसे रोटियाँ कम मिलती हैं, बल्कि मुख्यत: इसलिए कि पराधीनता में रहनेवाली जाति का धीरे–धीरे सांस्कृतिक पतन हो जाता है। जब गांधी जी ने वायसराय को यह लिखा था कि कांग्रेस अंग्रेजी राज के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ने को क्यों विवश है, तब इसके अनेक कारणों में से एक प्रमुख कारण उन्होंने यह भी बतलाया था कि विदेशी शासन की अधीनता में रहते–रहते इस देश का सांस्कृतिक विनाश हो गया है।

जातियों का सांस्कृतिक विनाश तब होता है जब वे अपनी परम्पराओं को भूलकर दूसरों की परम्पराओं का अनुकरण करने लगती हैंय जब वे अपने रस्म–रिवाजों को छोड़कर दूसरों के रस्म–रिवाज अपनाने लगती हैंय जब उन्हें अपने पूर्वजों पर ग्लानि और दूसरों के पूर्वजों पर श्रद्धा होने लगती है तथा जब वे मन–ही–मन अपने को हीन और दूसरों को श्रेष्ठ मानकर मानसिक दासता को स्वेच्छया स्वीकार कर लेती हैं। पारस्परिक आदान–प्रदान तो संस्कृतियों का स्वाभाविक धर्म है, किन्तु जहाँ प्रवाह एकतरफा हो, वहाँ यही कहा जाएगा कि एक जाति दूसरी जाति की सांस्कृतिक दासी हो रही है।

किन्तु सांस्कृतिक गुलामी का इन सबसे भयानक रूप वह होता है, जब कोई जाति अपनी भाषा को छोड़कर दूसरों की भाषा को अपना लेती है और उसी में तुतलाने को अपना परम गौरव मानने लगती है। यह गुलामी की पराकाष्ठा है, क्योंकि जो जाति अपनी भाषा में नहीं सोचती, अपनी भाषा में अपना साहित्य नहीं लिखती, अपनी भाषा में अपना दैनिक कार्य सम्पादित नहीं करती, वह अपनी परम्परा से छूट जाती है, अपने व्यक्तित्व को खो बैठती है और उसके स्वाभिमान का प्रचंड विनाश हो जाता है। यह ध्यान देने की बात है कि भारत में कोई भी क्रान्तिकारी कार्य करने के पूर्व गांधी जी ने यही भाषा की क्रान्ति की थी और काशी में यह कहकर विद्वानों की एक बड़ी सभा में उन्होंने खलबली मचा दी थी कि जब वे अंग्रेजी बोलनेवालों की वक्तृताएँ सुन रहे थे, तब उन्हें ऐसा भासित हो रहा था, मानो वे भारत में नहीं बल्कि इंग्लैंड में बैठे हों! और गांधी जी ने भाषा–विषयक इस क्रान्ति के झंडे को कहीं भी रंच–मात्र झुकने नहीं दिया और वे जब तक जीवित रहे, अंग्रेजी के खिलाफ देश–भाषाओं को भरपूर उत्तेजना देते रहे।

किन्तु भारत के स्वतन्त्र होते ही जैसे अन्य क्रान्तियाँ शिथिल हो गईं, वैसे ही भाषा–विषयक इस महाक्रान्ति की आग भी ठंडी पड़ रही है और जहाँ लोग आज पचास वर्षों से यह सुनते आ रहे थे कि गुलामी के कलंक से छूटने के लिए यह आवश्यक है कि हम अंग्रेजी पर निर्भर रहना छोड़ दें, वहाँ अब उनके कानों में यह आवाज डाली जा रही है कि अंग्रेजी छूटी तो इस देश की एकता टूट जाएगी, कि अंग्रेजी छूटी तो हम सारे संसार से छूट जाएँगे और अंग्रेजी छूटी तो हमारा शैक्षिक एवं सांस्कृतिक स्तर अचानक पतन के गर्त में चला जाएगा। मानो राममोहन राय, बंकिमचन्द्र तथा दयानन्द से लेकर महात्मा गांधी तक देश के महानेताओं ने जो बात कही थी, वह मिथ्या थी, मानो अंग्रेजी का विरोध अंग्रेजों का विरोध करने की एक चाल रही हो! मानो देश–भाषाएँ एकता और आजादी की दुश्मन हों! मानो यह देश छ: हजार वर्षों के ज्ञान का अधिकारी नहीं, बल्कि हजार–पाँच सौ साल का कोई बच्चा राष्ट्र हो! मानो दुनिया की सारी रोशनी केवल अंग्रेजी के तेल से ही फैली हो और, मानो सौ साल की संगति से अंग्रेजी इस देश के बच्चे–बच्चे की मातृभाषा बन गई हो जिसका त्याग अब असम्भव कृत्य हो!

दु:ख की बात है कि अंग्रेजी को प्रभुता के पद पर अधिष्ठित रखने की कोशिश उनके द्वारा की जा रही है, जिनमें से अधिक लोगों ने अपनी मातृभाषा की सेवा तो वाजिबी ही वाजिबी की है, किन्तु अंग्रेजी में कमाल हासिल करने के कारण जिन्हें देश को समय–कुसमय परामर्श देने का अधिकार प्राप्त है। सम्भव है, इन विद्वानों को सचमुच ही यह भासित होता हो कि अगर अंग्रेजी में पढ़ाई बन्द हुई तो इस देश का सांस्कृतिक पतन हो जाएगा और भारतवासी उस बारीकी से विचारों को व्यक्त नहीं कर सकेंगे जिस बारीकी से वे अंग्रेजी में अपनी बात कहते हैं। मैं इन विद्वानों की सच्चाई पर सन्देह नहीं करता और न यही कहता हूँ कि अंग्रेजी की सारी बारीकियाँ इस देश की भाषाओं में अभी मौजूद हैं। किन्तु देश–भाषाओं का एक विनम्र सेवक होने के नाते मेरा यह दावा है कि केवल हिन्दी ही नहीं, इस देश में ऐसी सात–आठ भाषाएँ विद्यमान हैं जो गुण और शक्ति की दृष्टि से इतनी विकसित हो चुकी हैं कि उनमें से कोई भी राष्ट्र–भाषा का पद अभी, इसी दम सँभाल सकती हैं और अंग्रेजी की सारी बारीकियों तक पहुँचे बिना भी वे शासन, न्याय और साहित्य का सारा कार्य सुचारु रूप से सम्पादित कर सकती हैं। और कौन कहता है कि देश–भाषाओं में वे बारीकियाँ नहीं आ सकतीं जो अंग्रेजी की खासियत समझी जाती हैं? देश–भाषाओं में शक्ति की कमी नहीं है, दुर्भाग्य की असली बात तो यह है कि जो सपूत उनका दूध पीकर बड़े होते हैं, वे अंग्रेजी पर रीझकर मन से परदेशी हो जाते हैं और उनकी विचार–शक्ति से रगड़ खाने का मौका हमारी भाषाओं को मिलता ही नहीं। राजनीति और अर्थशास्त्र, समाजविज्ञान और कानून–इनसे उलझने का मौका पाते ही देश–भाषाओं के भीतर भी वे ही भंगिमाएँ और संकेत उत्पन्न हो जाएँगे जिनके अभाव के कारण हमारे अपने विद्वान हमारी भाषाओं का अविश्वास करते हैं। किन्तु इसके लिए आवश्यक है कि अविलम्ब देश–भाषाओं को उन कामों पर जाने का अवसर दिया जाए जो काम अभी अंग्रेजी में हो रहे हैं। बारीकियाँ उत्पन्न करने का अवसर दिये बिना इन भाषाओं से बारीकियों की माँग करना उतना ही हास्यास्पद है जितना किसी युवक से यह कहना कि तुम पहले सूखे में तैरना सीख लो, तब हम तुम्हें नदी में उतरने देंगे।

अंग्रेजी जितनी भी विकसित भाषा हो, किन्तु वह हमारी संस्कृति को उसी खूबी से अभिव्यक्त नहीं कर सकती, जिस खूबी से वह उन लोगों की संस्कृति को अभिव्यक्त करती है जो उसे अपनी मातृभाषा मानते हैं। एक यही दलील उन सभी दलीलों को काटने के लिए काफी है जो अनेक दिशाओं से अंग्रेजी के पक्ष में दी जा रही हैं। किन्तु बहस के लिए अगर हम यह मान भी लें कि अंग्रेजी के द्वारा इस देश में शिक्षा और ज्ञान का प्रसार किया जाए तो एक दूसरी कठिनाई सामने आती है जिसका समाधान नहीं है। असल में अंग्रेजी में दक्षता प्राप्त करने का समय इस देश से निकल गया। अंग्रेजी के पक्ष में जो एक मनोवैज्ञानिक अनुकूलता थी, वह इस देश से विदा हो चुकी है और उसकी अनुपस्थिति में अब अंग्रेजी उस जोर से चल नहीं सकती, जिस जोर से लोग उसे चलाना चाहते हैं। जब अंग्रेजों का प्रताप यहाँ मध्याह्न सूर्य की तरह चमक रहा था, तभी इस देश में अंग्रेजी भी चमकी थी। जब से राष्ट्रीयता जगी और देशभाषा का प्रेम बढ़ने लगा, तभी से अंग्रेजी हमारे छात्रों के लिए भारी पड़ती गई है। आज जो भी ज्योतिष्मान् नक्षत्र भारत में अंग्रेजी के भीतर से चमक रहे हैं, उनमें से अधिकांश वे ही हैं जिनका जन्म 19वीं सदी में हुआ था और जो उन दिनों स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ रहे थे जब इस देश के प्रत्येक विद्यार्थी का यह सुदृढ़ विश्वास था कि अंग्रेजी को छोड़कर उसके सामने और गति नहीं है और अंग्रेजी में वह जितनी दक्षता प्राप्त करेगा, गोरे प्रभुओं के दरबार में उसे इज्जत की उतनी ही बड़ी जगह हासिल होगी। स्वतन्त्रता की जय हो कि यह भाव नवयुवकों के हृदय से बिलकुल निकलता जा रहा है और वे अपने व्यक्तित्व के विकास के लिए देशभाषा का माध्यम खोज रहे हैं। इस पर भी अगर कोई यह कहे कि नवयुवकों के हृदय में अंग्रेजी के लिए फिर वही इज्जत पैदा की जानी चाहिए जो अंग्रेजी राज के समय थी, तो स्पष्ट ही यह परामर्श राष्ट्रीयता का विरोधी और देश के स्वाभिमान का घातक होगा। अंग्रेजी इस देश में रखी जा सकती हैय क्योंकि एक सीमा तक वह हमारे लिए आवश्यक है। किन्तु अब वह इस देश में शिक्षा का माध्यम बनाकर रखी नहीं जा सकती। फिर भी जो लोग दुराग्रह पर डटे हुए हैं, वे पहले ढूँढ़कर यह देख लें कि देश के किस कोने में, काफी संख्या में, ऐसे शिक्षक मौजूद हैं जो अंग्रेजी के माध्यम से शिक्षा दे सकने के योग्य समझे जा सकें और कहाँ वे छात्र हैं जो दस–दस वर्षों तक अंग्रेजी रटने के बाद भी इतनी योग्यता प्राप्त कर लेंगे कि और नहीं, तो एक पत्र ही वे शुद्ध अंग्रेजी में लिख सकें? अभिभावकों और माता–पिताओं के आर्त्त कोलाहल से ऊबकर यूनिवर्सिटियों ने अपनी परीक्षाओं के स्टैंडर्ड गिरा दिये। फिर भी तीस–पैंतीस प्रतिशत से अधिक छात्र उत्तीर्ण नहीं हो पाते। परीक्षाओं में हर साल देश की जवानी का कलेजा दला जाता है। हर साल अनुत्तीर्णता के शोक से लाखों नौजवानों का रक्त सूख जाता है, फिर भी लोग यह नहीं सोच पाते कि अंग्रेजी के कृत्रिम माध्यम को छोड़कर हम अब शीघ्र से शीघ्र, देशभाषाओं द्वारा शिक्षा देना आरम्भ कर दें। यह बड़े लोगों का जादू है जो छोटों का विनाश कर रहा है। यह बूढ़ों की बुढ़भस है जो नौजवानों का गला दबा रही है। यह पुष्ट–वेतन–भोगी पंडितों का व्यामोह है जिसके जाल में सारा देश छटपटा रहा है। समय आ गया है कि देश के नौजवान बुजुर्गों के ऐसे परामर्श को मानने से इनकार कर दें और उस बची–खुची गुलामी को भी तोड़ फेंकें जो अंग्रेजी के भीतर से हमें दबा रही है।

और सरकारी क्षेत्रों में जब अंग्रेजी की पलाइस की जाती है, तब तो यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि लोग जनता की सुविधा–असुविधा की तनिक भी परवाह नहीं करते। जिस देश ने बुनियादी तालीम को सिर–आँखों पर बिठा लिया हो, उस देश की सरकार को यह अधिकार कहाँ रह जाता है कि वह शिक्षा अथवा शासन का कोई भी काम अंग्रेजी में चलने दे? जब तक शासन के काम अंग्रेजी में चलते रहेंगे, तब तक शासक तैयार करने के लिए शिक्षा का माध्यम भी अंग्रेजी बनी रहेगी और बुनियादी पद्धति से पढ़ने वाले छात्र इस योग्य नहीं हो सकेंगे कि वे किसी दिन मन्त्री अथवा सेक्रेटरी के पद पर नियुक्त किए जा सकें। और तब तक जनता भी यह बोली कसती रहेगी कि बुनियादी तालीम भैंसों की तालीम है, जिनसे सरकार खेत जोतने का काम लेने वाली हैय बाकी जो लोग शासन का काम सँभालने वाले हैं, उनकी शिक्षा के लिए अलग इन्तजाम रहेगा। शिक्षा में क्रान्ति का नारा एक ऐसा नारा है जिसे उठाने से, शायद ही, कोई विद्वान बचा हो, किन्तु हमारे विद्वान केवल विद्वान ठहरे। उन्होंने जिन्दगी नहीं, किताबों का दूध पिया है और शिक्षा में क्रान्ति के नारे चाहे वे जितने भी लगाएँ, वास्तविक क्रान्ति का आलिंगन वे नहीं करेंगे। क्योंकि शिक्षा में क्रान्ति हुई तो उसका माध्यम देश–भाषाएँ हो जाएँगी और शासन के अधिकार विकेंद्रित होकर सर्वत्र फैल जाएँगे।

इस देश के कुछ बड़े–बड़े कारोबार महाजनी भाषा में चल रहे हैं। अभी कल तक देशी राजवाड़ों के सारे काम देश–भाषाओं में किए जा रहे थे, फिर क्या है कि देश–भाषाओं में काम करने से देश का शासन डूब जाएगा? असल में अंग्रेजी का पल्ला इसलिए नहीं पकड़ा जा रहा है कि उसके बिना इस देश का काम नहीं चल सकता, बल्कि इसलिए कि हमारे शासनाधिकारी काम करना कम, अच्छे नोट लिखना अधिक जानते हैं और उन्हें भय है कि अंग्रेजी छूटी तो उनके हाथ से वह अस्त्र भी जाता रहेगा, जिससे देश का काम चाहे हो या नहीं, किन्तु अधिकारियों की इज्जत की धाक खूब बैठती है। जिसके दिमाग में अक्ल है, जिसके दिल में सच्चाई है और जिसे काम करने की धुन है, वह लम्बे–लम्बे नोट लिखे बिना भी देश के काम को आगे बढ़ा सकता है। हाँ, जिसे कुछ किए बिना ही इज्जत की रोटी और आडम्बर की कुर्सी की चाह है, उसके लिए रास्ता यही है कि वह देशवासियों पर रौब जमाता रहे कि हमारे चिन्तन की सूक्ष्मता इतनी सूक्ष्म है कि वह महारानी एलिजाबेथ की भाषा के सिवा और किसी भाषा में लिखी ही नहीं जा सकती।

शिक्षा का सार अच्छी भाषा नहीं, अच्छा ज्ञान है और ज्ञान तो बिना साक्षरता के भी दिया जाता है। अपने देश में विद्यालयों और पाठशालाओें से अधिक महत्त्व हमेशा सत्संगति को दिया जाता रहा है, क्योंकि सत्संगति वह स्कूल है जहाँ कागज छुए बिना भी आदमी ज्ञानी और विद्वान हो जाता है। अकबर निरक्षर था, मगर उसकी योग्यता उन लोगों से कहीं बड़ी थी जो अच्छी भाषा और खूबसूरत नोट पर नाज करते हैं। शिवाजी, महाराणा प्रताप और शेरशाह कुछ बहुत बड़े विद्वान नहीं थेय किन्तु शासन के कामों में उनकी योग्यता पर कभी सन्देह नहीं किया गया। नानक, कबीर और दादूदयाल भी पंडित नहीं थेय किन्तु सत्संगति के प्रताप से सारा ज्ञान उनमें प्रकट हो गया। भारत में साक्षरता का बहुत अधिक प्रसार कभी नहीं था, फिर भी यहाँ की जनता अज्ञानी नहीं थी और न शिक्षितों और अशिक्षितों के बीच यहाँ वह दरार थी जो आज देखने में आती है। कारण स्पष्ट है कि जब तक इस देश में शिक्षा का माध्यम देशभाषा थी, तब तक थोड़े लोगों का जो ज्ञान पुस्तकों से प्राप्त होता था, वह संगति के द्वारा फैलकर बहुतों तक पहुँच जाता था। किन्तु जब से शिक्षा अंग्रेजी के माध्यम से होने लगी, ज्ञान के प्रसार का यह क्रम अवरुद्ध हो गया, क्योंकि अंग्रेजी पढ़े–लिखे लोग भाषा के उस प्रवाह से कटकर अलग हो गए जो इस देश के शिक्षितों और अशिक्षितों को एक रखे हुए था। पिछले डेढ़ सौ साल इस देश में शिक्षितों की प्रगति और अशिक्षितों की अधोगति के साल रहे हैं। इस काल में जनता जितनी भावशून्य हो गई, उतनी वह पहले कभी नहीं थी। कारण यह कि इस काल में हमारा शिक्षित वर्ग जनता के बीच अपने ज्ञान की सुगन्ध को नहीं बिखेर सका, क्योंकि सुगन्ध बिखेरने की राह ही उसके पास नहीं रही, क्योंकि जिस मार्ग से उसने अपना ज्ञान अर्जित किया था, वह इस देश के लिए अप्राकृतिक और अपरिचित मार्ग था। विदेशी भाषा के द्वारा जनता को शिक्षित करने का काम सभी देशों में अप्राकृतिक समझा जाता है और भारत में वह इसलिए प्राकृतिक नहीं हो जाएगा कि यहाँ के अंग्रेजी के विद्वान उसे प्राकृतिक बनाना चाहते हैं। प्राकृतिक तो वह तभी होगा जब कि अंग्रेजी इस देश की मातृभाषा बना दी जाए और बच्चे उसे माँ के दूध के साथ पीने लगें।

और जो कुछ मैं कह रहा हूँ, वह केवल साहित्य या ह्यूमेनिटिज पर ही लागू नहीं है, प्रत्युत उसे मैं विज्ञान और शिल्प पर भी लागू मानता हूँ। अगर आपका उद्देश्य केवल कुछ ऐसे विशेषज्ञों को उत्पन्न करना है जो जनजीवन से दूर रहकर प्रयोगशालाओं में काम किया करें, तो सम्भव है, अंग्रेजी से आपका काम चल जाएगा। किन्तु यदि आप विज्ञान को सर्वसाधारण की वस्तु बनाना चाहते हैं, यदि आप वैज्ञानिक दृष्टि को समाज के भीतर पचाना चाहते हैंय संक्षेप में यदि आप विज्ञान को जनता की अस्थि और मज्जा में ले जाना चाहते हैं, तो आपको शीघ्र से शीघ्र वह उपाय सोचना होगा जिससे विज्ञान और शिल्प की भी शिक्षा देश–भाषाओं में दी जा सके। अंग्रेजी के द्वारा पढ़ाया गया विज्ञान हमेशा विदेशी रहेगा, वह हमेशा थोड़े लोगों की चीज होगा। जनता का हृदयहार वह तभी हो सकेगा जबकि शिक्षा देश–भाषाओं में दी जाए और उसके पारिभाषिक शब्द भी यथासम्भव इसी देश के शब्द हों।

कभी–कभी हमें यह भय भी दिखलाया जाता है कि अगर हमने अंग्रेजी को छोड़ दिया तो फिर हम जवाहरलाल और राधाकृष्णन् को उत्पन्न नहीं कर सकेंगे। जवाहरलाल और राधाकृष्णन् जीनियस हैं और जीनियस किसी भी योजना के अधीन जन्म नहीं लेते। वे नियमों और स्वाभाविक प्रक्रियाओं के अपवाद होते हैं। वे अचानक उसी प्रकार निकल पड़ते हैं, जैसे शरीर के किसी भाग पर ट्यूमर या मांसवृद्धि निकल पड़ती है और इसमें कोई सन्देह नहीं कि मानवता चाहती है कि उसके अंग पर ये ट्यूमर अधिकाधिक संख्या में बराबर निकलते रहें। मगर वाजे रहे कि राधाकृष्णन् और जवाहरलाल इस बात के प्रमाण नहीं हैं कि अंग्रेजी ने भारतीय प्रतिभा की उर्वरता में वृद्धि की है, बल्कि इस बात के कि भारत की उर्वरता इतनी प्रखर है कि वह अंग्रेजी में भी जवाहरलाल और राधाकृष्णन् को जन्म दे सकती है। किन्तु कहीं हमने अपनी भाषा के द्वारा ज्ञान की साधना की होती, तो इन सौ–डेढ़ सौ वर्षों में हमने राधाकृष्णन् और जवाहरलाल के एक नहीं, अनेक जोड़े उत्पन्न किए होते। फिर भी विदेशी भाषा में जवाहरलाल और राधाकृष्णन् हम चाहे उत्पन्न भी कर लें, किन्तु रवीन्द्र और इकबाल, भारती और वल्लाथोल, नानालाल और मेघाणी तथा प्रसाद और प्रेमचन्द अंग्रेजी में नहीं, भारतीय भाषाओं में ही जन्म ले सकते हैं। प्रत्येक देश की अपनी जीनियस होती है और इस जीनियस की सम्यक् अभिव्यक्ति उसी देश की भाषा में की जा सकती है। ज्ञान और तर्क के परे, भावना और सहजानुभूति की जो कोमल भूमि है, उसकी पगडंडी मातृभाषा में बनती है, अजनबी भाषाओं में नहीं। यही कारण है कि ज्ञान और तर्क की जमीन पर काम करने वाले भारतीय विद्वानों को विदेश वालों ने यतिं्कचित् स्वीकृति तो दे दी, किन्तु अंग्रेजी भाषा में लिखने वाले भारतीय कवि और कलाकार यूरोप के दरवाजे पर सुयश की भीख माँगते खड़े–के–खड़े रह गए और यूरोप ने उनका सत्कार नहीं किया। अंग्रेजी कविता का कोई भी प्रतिनिधि–संग्रह उठाकर देख लीजिए, उसमें रवीन्द्र और सरोजिनी, तोरूदत्त और माइकेल तथा भारती साराभाई और हरींद्रनाथ चट्टोपाध्याय की एक भी रचना देखने को नहीं मिलेगी। और यह ठीक भी है क्योंकि इन कवियों की काव्य–सामर्थ्य चाहे जितनी बड़ी हो, किन्तु अंग्रेजी भाषा के साथ इनकी आत्मा एकाकार नहीं हो सकी और इसी कारण इनके भावों की सूक्ष्म झलकियों को अंग्रेजी में ठीक से उतरने का मार्ग नहीं मिला। गुरुदेव से जब हम पहली बार मिले तब उन्होंने बातों के सिलसिले में यह कहकर हम सबको अचंभे में डाल दिया कि बंगाल को छोड़कर वे किसी भी अन्य भाषा के शब्दों के साथ लिपटे हुए वातावरण–विशेष को ग्रहण नहीं कर पाते और अपनी यह सीमा उन्होंने अंग्रेजी के विषय में भी स्वीकार की। अभी–अभी श्रीयुत् चार्ल्स नेपियर ने, जो हिन्दी के बहुत अच्छे अंग्रेज लेखक हैं, ‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ में एक लेख लिखा है जिसमें उन्होंने हिन्दीवालों को यह सलाह दी है कि आप दो भाषाओं पर स्वामित्व प्राप्त करने की लालसा छोड़कर केवल अपनी ही भाषा की गहराई में उतरने की चेष्टा कीजिए। तभी आपको अपनी भाषा की बारीकियों और विलक्षणताओं का पता चलेगा और तभी आप हिन्दी में शुद्ध भारतीय साहित्य की सृष्टि कर सकेंगे। उन्होंने कहा है : ‘अंग्रेजी नये युग का जनेऊ है, जिसके बिना आदमी का कोई आदर नहीं होता। जब तक भारतीय इस मोह से न छूटेंगे, जब तक वे अपनी सांस्कृतिक स्वतन्त्रता पर उतना गर्व न करेंगे जितना कि अपने राजनीतिक स्वराज्य पर, तब तक हिन्दी का पूर्ण विकास नहीं हो सकेगा।’ आगे वे लिखते हैं कि ‘मेरी समझ में, यदि कई प्रतिभाशाली साहित्यिक भारतवासी, और सब कुछ छोड़कर हिन्दी में ही तन्मय हो जाएँ, ऐसे लोग जो हिन्दी पढ़कर नये विचार प्राप्त कर सकें और हिन्दी में लिखकर नये विचारों का प्रचार कर सकें, ऐसे लोग जो हिन्दी में ही बोलें, सोचें, पढ़ें, लिखें और स्वप्न देखेंय तभी हिन्दी–साहित्य स्वतन्त्र, प्रभावपूर्ण और ओजस्वी हो सकेगा।’

स्पष्ट ही, चार्ल्स नेपियर महोदय ने हिन्दी के बारे में जो बात कही है, वह सभी भारतीय भाषाओं पर एक समान लागू होती है। जो लोग अंग्रेजों को हटाकर निश्चिन्त हो गए हैं और इस भ्रम में भूले हुए हैं कि अंग्रेजी भाषा के साथ गुलामी की कोई जंजीर बँधी हुई नहीं है, उन्हें नेपियर महोदय जैसे अंग्रेजों की सलाह से होश में आना चाहिए। जिस पराधीनता की जंजीर को हमने सन् 1947 ई. के अगस्त में काट गिराया, वह हमारी शारीरिक गुलामी की जंजीर थी। मानसिक गुलामी की कड़ियाँ तो अब भी अंग्रेजी के साथ बँधी हुई हैं और जब तक अंग्रेजी इस देश में प्रभुता के पद पर आसीन है, तब तक हम मानसिक और आध्यात्मिक स्वराज्य से वंचित रहेंगे।

यह सत्य है कि अंग्रेजी भाषा के प्रचार से ही इस देश की अपनी भाषाओं में नया जीवन और नई गति आई है। यह भी सत्य है कि अंग्रेजी के साहचर्य से ही भारतीय भाषाओं में नई दिशाएँ प्रकट हुईं, नूतन अभिव्यंजनाएँ उतरीं और नया आलोक विकीर्ण हुआ। किन्तु साथ–साथ यह भी मानना पड़ेगा कि भारतीय भाषाओं में जो नया साहित्य लिखा जा रहा है, उसका देश की जनता के साथ वही सीधा सम्पर्क नहीं है जो अंग्रेजी के पहले वाले साहित्य का था। हमारा नया साहित्य, मुख्यत: अंग्रेजी पढ़े–लिखे लोगों का साहित्य है। बाकी जनता उसे उसी दृष्टि से देखती है जिस दृष्टि से वह बी.ए. पास नवयुवकों को देखती है। जब से देश में राष्ट्रीय और सामाजिक आन्दोलन छिड़े, तब से साहित्य का एक अंश ऐसा भी अवश्य प्रस्तुत हुआ जो जनता तक पहुँच सका है। किन्तु प्रचार के इस धरातल से ऊपर जो संस्कृति का सुरभिपूर्ण निर्लिप्त शिखर है, उस पर बैठकर हम देश की जनता से बात नहीं कर सकते। ऐसा लगता है कि अंग्रेजी लिख–पढ़कर हम जो साहित्य तैयार कर रहे हैं, उसके मुख्य श्रोता भारत नहीं, यूरोप हो। और यह सीमा हम पर इसलिए आई है कि हम अपनी भाषाओं की विलक्षणताओं से अधिकांश में अपरिचित रह गए। कविता की आलोचना, अन्तत:, उसकी भाषा की आलोचना होती है। अगर अनुकूल भाषा न मिले तो बड़े–से–बड़े कवि के भाव लिखित होकर भी अलिखित रह जाते हैं। कविता में साधारणीकरण के सिद्धान्त को हम सभी लोग मानते हैंय किन्तु भाषा का जो रूप जनता के अवचेतन मन में बसता है, उसे पूर्ण रूप से आत्मसात् किए बिना कोई भी कवि साधारणीकरण की प्रक्रिया में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। साधारणीकरण की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि कवि के व्यक्तित्व में जनता का पूरा व्यक्तित्व समाहित रहे और कवि इस प्रकार खड़ा हो, मानो वह जनता की भाषा और भाव, दोनों का सोलह आना प्रतिनिधि बनकर आया हो! किन्तु यही वह बिन्दु है जहाँ भारत का आधुनिक कवि फीका पड़ जाता है। वह जनता के भावों का प्रतिनिधित्व तो कर लेता है, किन्तु उसकी भाषा का प्रतिनिधित्व वह नहीं कर पाता। असल में उसका व्यक्तित्व फटा हुआ है। उसका मन कहीं और, और तन कहीं और है। इतने दिनों के प्रयोग से जो शिक्षा निकलती है, वह यह है कि भारतीय साहित्यिकों का वही दल भारतीय जनता के हृदय–द्वार तक पहुँचेगा जिसकी सारी शिक्षा मातृभाषा अथवा भारत की किसी भाषा में पूरी होगी। आज तो हम जो कुछ लिखते हैं, वह एक ऐसे क्षितिज से उतरता दीखता है जिस क्षितिज से इस देश की जनता का कोई परिचय ही नहीं है। उसे वे ही लोग पहचानते हैं जिनकी अंग्रेजी से खासी जान–पहचान है। देश के लेखक और कवि जनता की भावनाओं को आलोड़ित नहीं कर सकें, वे उसकी चेतना के समुद्र में तरंगें उठाने में असमर्थ हों, यह एक ऐसा आध्यात्मिक विनाश है जो हमारी कला को पंगु बनाए जा रहा है। उस पर भी देश के चिन्तक और बड़े लोग देश–भाषाओं को अंग्रेजी से ऊपर उठने देने का विरोध करें, यह एक ऐसा दृश्य है जिसे ईश्वर ही देख सकता है।

संस्कृति की रचना और अभिव्यक्ति कला के माध्यम से होती है और भारतीय कला का यह स्वभाव है कि वह यूरोप की कलात्मक भंगिमाओं से सामंजस्य नहीं बिठा सकती। बहुत प्राचीन काल में, यूनानी कला का सम्मिश्रण भारतीय कला से हुआ था। परिणामस्वरूप, गांधार–कला का जन्म हुआ। किन्तु वह भारत में टिक नहीं सकी, क्योंकि वह अभारतीय थी, क्योंकि भारत की आत्मा अपने को इस मिश्रित कला के भीतर से व्यक्त नहीं कर सकती थी। इसी प्रकार, जब अंग्रेज आए तब बिहार में चित्रकारी का एक स्कूल पटना में चल पड़ा, किन्तु वह स्कूल भी खत्म हो गया, क्योंकि उसकी विशेषता वर्णसंकरता को लेकर थी और इस वर्णसंकरता को देखकर भारतीय कला को उबकाई आती है। इसके विपरीत, भारत के एक क्षेत्र की कला उसके दूसरे क्षेत्र की कला से घुल–मिलकर बड़े आनन्द से फूलती–फलती रही है। यही नहीं, प्रत्युत मुगलों के समय में ईरानी कला का भारतीय कला से जो गठबंधन हुआ, उसके परिणाम बहुत अच्छे रहे और मुगलकलम के द्वारा भारतीयता ने अपनी बहुत कुछ अभिव्यक्ति की। इससे एक बार फिर यह स्पष्ट हो जाता है कि एशिया की आत्मा का भारत की आत्मा से अच्छा मेल हो सकता है, किन्तु यूरोपीय कलाएँ हमारी कलाओं में पच नहीं सकतीं। अत: जैसे यूरोप की कलाएँ भारतीय कलाओं से एकाकार नहीं हो सकतीं, उसी प्रकार यूरोपीय साहित्य भारतीय साहित्य से घुल–मिलकर एक नहीं हो सकता। इतने पर भी जो लोग अंग्रेजी के वृक्ष पर भारतीयता की कलम लगाने को बेकरार हैं, उनके सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है कि वे भारत की आत्मा को ठीक से नहीं पहचानते। यूरोपीय भाषाओं में जो तेज है, उनके साहित्य में जो ज्ञान है, यूरोपीय सभ्यता में जो उद्दामता और प्रबलता है, उसे हम अवश्य लेंगे। किन्तु अपनी भाषाआें का दलन करके नहीं, प्रत्युत अनुकरण, अनुवाद अथवा निचोड़ के रूप में उन्हें अपने ढाँचे में ढालकर।

अंग्रेजी को सत्तारूढ़ रखने के पक्ष में एक और तर्क दिया जाता है जो अन्य तर्कों से कहीं खतरनाक है। और वह यह है कि अगर अंग्रेजी अभी तुरन्त हटाई गई तो उसकी जगह पर हिन्दी नहीं, कोई क्षेत्रीय भाषा आसीन हो जाएगी। यह भय भी एक विचित्र प्रकार का भय है, क्योंकि अंग्रेजी को तो हम ठीक इसीलिए हटाना चाहते हैं कि उसकी जगह पर क्षेत्रीय भाषाएँ आसीन हो सकें। अंग्रेजी अपनी प्रभुता की सारी जगह केवल हिन्दी के लिए खाली नहीं करेगी और न हिन्दी उस पर क्षेत्रीय भाषाओं की सहमति के बिना आसीन ही हो सकती है। सच तो यह है कि विभिन्न भाषा क्षेत्रों में अंग्रेजी को प्रभुता के पद से हटाने का काम वहाँ की मातृभाषाएँ कर सकती हैं–राष्ट्रभाषा नहीं, क्योंकि जनता में जो उत्साह मातृभाषा के लिए जगाया जा सकता है, वह राष्ट्रभाषा के पक्ष में जगाया नहीं जा सकता। मैं यह नहीं मानता कि प्रान्तों के जो–जो कार्य अंग्रेजी में चल रहे हैं, वे एक दिन हिन्दी में चलने लगेंगे। यह कल्पना गलत है और इसका विरोध उन सभी लोगों को करना चाहिए, जो प्रजातन्त्र के सच्चे अनुरागी हैं। स्वतन्त्रता केवल हिन्दी को बढ़ाने के लिए नहीं आई है। उसे तो सभी भाषाओं की उन्नति और विकास करना है। हिन्दी को तो हम सार्वदेशिक सम्बन्धों की भाषा के रूप में स्वीकार कर रहे हैं। परन्तु प्रान्तों के अधिक कार्य तो ऐसे ही हैं जिनके लिए वहाँ की मातृभाषाएँ यथेष्ट होंगी। जब तक राष्ट्रभाषा की उपयोगिता की इस सीमा को हम नहीं समझ लेते, तब तक क्षेत्रीय भाषा–क्षेत्रों में राष्ट्रभाषा का प्रसार शंकाओं से त्रासित रहेगा, इसमें सन्देह नहीं।

असल में, राष्ट्रभाषा के आन्दोलन को हमें सभी भाषाओं के आन्दोलन के साथ–साथ आगे ले चलना है। राष्ट्रभाषा की किस्मत मातृभाषाओं की किस्मत के साथ बँधी हुई है, इस तथ्य को देश जितना शीघ्र समझ ले, हमारा भाषा–विषयक विवाद उतना ही शीघ्र शान्त हो जाएगा। आज भारतवर्ष में भाषा–विषयक जो जागृति दिखाई देती है, उसके मूल में स्वतन्त्रता और आत्माभिव्यक्ति की भावना काम कर रही है। और इस भावना से डरने के बदले हमें उसका आदर करना चाहिए। प्रत्येक भाषा के सिर पर एक चट्टान पड़ी हुई है और इस चट्टान को तोड़कर वह ऊपर आना चाहती है। और यह चट्टान राष्ट्रभाषा की नहीं, अंग्रेजी और अंग्रेजियत की चट्टान है।

राष्ट्रभाषा ने किसी भी क्षेत्रीय भाषा का कोई अहित नहीं किया है। वस्तुस्थिति यह है कि देश की सभी भाषाएँ अंग्रेजी के दबाव के कारण अकुला रही हैं और जब तक अंग्रेजी का यह दबाव नहीं हटता, तब तक देश की यह आकुलता भी मौजूद रहेगी। आज जो भाषा–विषयक युद्ध चल रहा है, उसमें एक ओर तो हिन्दी समेत भारत की सारी राष्ट्रीय भाषाएँ हैं और दूसरी ओर किले पर कब्जा किए हुए अंग्रेजी लड़ रही है। जब तक इस किले पर अंग्रेजी का आधिपत्य है, हिन्दी और हिन्दीतर भाषाओं को अपने विकास का मार्ग नहीं मिलेगा, और सम्भव है, अंग्रेजी कूटनीति से काम लेकर इन भाषाओं में मनमुटाव भी पैदा कर दे। इसलिए राष्ट्रीय एकता के हित में यह अत्यन्त आवश्यक है कि हम अंग्रेजी को प्रभुता के पद से शीघ्र–से–शीघ्र हटाकर उसकी जगह पर देशी भाषाओं को प्रतिष्ठित कर दें। यह पहला काम है जो अविलम्ब पूरा किया जाना चाहिए। इसके बाद के कार्य, अर्थात् अंग्रेजी के द्वारा रिक्त स्थानों की पूर्ति कहाँ पर राष्ट्रभाषा और कहाँ पर मातृभाषाएँ करेंगी, इस योजना का विचार देश की सुविधा पर छोड़ देना चाहिए। हमारे देश के आगे मंगलमय भाविष्य का विस्तार है और हम सभी भारतवासी हर हालत में एक रहना चाहते हैं। हमारा प्रत्येक प्रान्त एक सुन्दर पुष्प, एक आबदार मोती है किन्तु ये सभी पुष्प, ये सभी मोती एक ही हार में गुँथे हुए हैं और सारे देश का यह संकल्प है कि यह हार नगाधिराज हिमालय के कंठ से लगा रहेगा।

अन्त में, मैं उन सभी भाइयों और बहनों को प्रणाम करता हूँ जो हिन्दी को अपनी राष्ट्रभाषा समझकर उसे उत्साह और प्रेम से सीख रहे हैं। भाषा के क्षेत्र में भारत का जो राष्ट्रीय महल तैयार हो रहा है, संयोग की बात कि उस तैयारी का सारा बोझ अहिन्दी प्रान्तों के लोगों पर जा पड़ा है। एक भाई कड़ी धूप में चलकर गारा और चूना ढो रहा है और दूसरा छाया में निश्चेष्ट बैठा है। छाया में आराम करने वाला निकम्मा भाई मैं हूँ और जो परिश्रमपूर्वक गारा और चूना ढो रहा है, वह कर्मठ भाई आप हैं। आपकी परेशानी और कठिनाई को देखकर हमारा मस्तक नत हो जाता है। किन्तु यह प्रसंग ही ऐसा है जिसे आपको सँभालना है। हम तो सिर्फ यही आश्वासन दे सकते हैं कि हिन्दी के राष्ट्रभाषा हो जाने से जो स्थिति उत्पन्न हुई है, उसका कोई भी अनुचित लाभ हम हिन्दी वाले नहीं उठाएँगे।

(भावनगर में 23 मई, 1952 ई. को हुए गुजरात–सौराष्ट्र–कच्छ–प्रान्तीय राष्ट्रभाषा–प्रचार– सम्मेलन में दिया गया अध्यक्षीय भाषण।)

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