भंडारा (कहानी) : सन्ध्या गोयल सुगम्या

Bhandara (Hindi Story) : Sandhya Goel Sugamya

घंटाघर का यह इलाका शहर के बीच होने पर भी थोड़ा कम व्यस्त इलाकों में गिना जाता था। पर आज यहाँ बहुत भीड़ थी। भीड़ का कारण था यहाँ होने वाला भंडारा। आज यहाँ शहर के एक धनी उद्योगपति ने माता वैष्णो देवी के नाम का भंडारा किया था। बहुत व्यापक स्तर पर सारे प्रबन्ध किये गए थे। यहाँ जो भी आया, वह हलवा चने, पूरी सब्जी का प्रसाद पाकर तृप्त होकर गया। बड़े आदर भाव से सबको भोजन कराया गया। भंडारे में अच्छी बात यह भी होती है कि आने वाले किसी भी जाति के हों, उनमें कोई भेद नहीं किया जाता। सबको समान भाव से भरपेट भोजन कराया जाता है। माँ के दरबार से कोई भूखा नहीं जाता। चार घंटे तक भंडारा चला। फिर शाम तक भंडारा संपन्न कराके उद्योगपति तथा भोजन का प्रबंध करने वाली पूरी टीम अपने अपने घर के लिए रवाना हो गयी। प्रसाद पाकर तृप्ति के साथ लोगों ने अपनी अपनी राह पकड़ी। अब यहाँ कुछ रह गया तो वह था जूठे पत्तलों और दोनों का अम्बार जो यहाँ वहाँ बिखरा पड़ा था। सामान्यतया भंडारा कराने वाले भूल जाते हैं कि बाद में यहाँ की सफाई कराना भी कितना जरुरी होता है।

थोड़ी देर बाद हरि वहाँ झाड़ू लगा रहा था। हरि एक सफाई कर्मचारी था, उसका घर वहीं पास में था। उसका पडोसी रवि वहाँ से निकल रहा था। वह हरि को झाड़ू लगाते देख ठिठका, फिर बोला,

"तुझे क्या सेठ ने कहा है सफाई करने को? कितने रुपये देंगे इस काम के?"

हरि बोला, "हमसे किसी ने नहीं कहा सफाई करने को। ये तो हम खुद ही करने लगे।"

"दिमाग ख़राब है तेरा! फालतू में इतना सारा काम करेगा।"

हरि रुककर रवि से बोला,

"देखो भई, सेठ ने आज बड़ा अच्छा प्रसाद खिलाया। आज हमारे घर में खाना नहीं बना, हम सबने यहीं पर खाया। अब सेठ तो गया। रह गया यह कूड़ा यहाँ। अब जो भी लोग यहाँ से निकलेंगे इस कूड़े को देखकर सेठ को भला बुरा कहेंगे। हमें यह बात अच्छी नहीं लगी। और हमने सोचा कि हम सेठ की तरह भंडारा तो करा नहीं सकते। पर यहाँ की सफाई तो कर ही सकते हैं। माँ के दरबार में थोड़ी सी सेवा हमारी ओर से भी हो जायेगी।"

रवि को उसकी बात थोड़ी समझ आई, थोड़ी नहीं। वह बोला,

"ठीक है, तू कर सेवा। हम तो चले पैर पसारकर लेटने। इतना खा लिया है कि अब कुछ काम करना हमारे बस की बात तो है नहीं।"

रवि चला गया। लेकिन वहाँ कोई और भी था जिसे न हरि देख सकता था, न रवि और न कोई और। यह अदृश्य शक्ति थी भगवान की। भगवान मुस्कुरा रहे थे मानो मन ही मन कह रहे थे,

"सेठ ने हजारों रूपये खर्च करके जो पुण्य कमाया, वह हरि ने बिना एक भी पैसा खर्च करे, कमा लिया। जब भी किसी मनुष्य पर दुख पड़ता है, वह कहता है, "हे भगवान! मुझे ही यह कष्ट क्यों मिल रहा है? और लोग क्यों सुखी हैं? तूने मेरे ही हिस्से में दुख क्यों लिखे?" नादान मनुष्य यह नहीं जानता कि मैं किसी को कम या ज्यादा नहीं देता। मैं तो सबके कर्मों का हिसाब रखता हूँ। जो अच्छी भावना से और सही काम करने में अपना समय या पैसा लगाते हैं, उन्हें अच्छा फल मिलता है, और जो बुरा कार्य करते हैं उन्हें बुरा। भगवान के दरबार की यही व्यवस्था है।

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