भाई-बहिन (हँसेल और ग्रेटल) : परी कहानी

Bhai-Behan (Hansel and Gretel) : Fairy Tale

एक घने जंगल के किनारे एक गरीब लकड़हारा रहता था। उसके दो बच्चे थे। लड़के का नाम था हांसेल और लड़की का नाम था ग्रेथेल । जब ये दोनों बच्चे छोटे थे तभी उनकी मां की मृत्यु हो गई। कुछ दिनों बाद लकड़हारे ने दूसरा विवाह कर लिया। लकडहारा दिन-भर जंगल में जाकर लडकियां काटता था और फिर शाम को जाकर उन्हें बेचता था। इस तरह जो कुछ दो-चार पैसे मिल जाते थे, उन्हीं से वह अपने परिवार का पालन-पोषण करता था। सब लोग एक टूटी-फूटी झोंपड़ी में रहते थे। जब लकड़हारा लकड़ी काटने चला जाता था तो हांसेल और ग्रेथेल की सौतेली मां उन्हें बड़ा दुःख देती थी । वह चाहती थी कि ये दोनों बच्चे किसी तरह यहां से चले जाएं तो बड़ा अच्छा हो।

जाड़े के दिन थे। लकड़हारे का काम बड़ी मुश्किल से चल रहा था । वह दिन-भर में इतनी लड़कियां नहीं बटोर पाता था कि किसी तरह सब लोगों के खाने-भर का खर्चा चल पाता। एक दिन उसकी बीवी ने रात में उससे कहा, "हम लोगों के घर में इतना खाना नहीं है कि दो आदमी भी पेट भरकर खा सकें । तुम इन दोनों बच्चों को कहीं छोड़ आओ। मैं तो चाहती हूं कि तुम इनको घने जंगल में कही ऐसी जगह छोड़ो कि ये फिर लौटकर घर वापस न आ सकें।"

लकड़हारा बोला, "नहीं, नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है ! यह बच्चे छोटे हैं । इनको मैं जंगल में भूखा मरने के लिए कैसे छोड़ सकता है ? जंगल के जंगली जानवर इन्हें खा जाएंगे।"

इस पर उसकी बीवी ने निराश होकर कहा. "तो ठीक है। इन्हें अपने साथ रखो और सब लोग भूखों मरो । खाने के लिए तो हमारे घर में है ही नहीं । वैसे भी तुम्हारे ये बच्चे तुम्हारे साथ रहते हुए भी भूखों मर जाएंगे। अगर तुम इन्हें कहीं जंगल में छोड़ आओगे, तो हो सकता है इनका भाग्य इनका साथ दे और भटकते हुए कहीं ऐसी जगह पहुंच जाएं जहां इन्हें भूखा न मरना पड़े।"

इस प्रकार उस दुष्ट स्त्री ने अपने आदमी को बहुत बहकाने की कोशिश की । अन्त में हारकर लकड़हारे को अपनी बीवी की बात माननी पड़ी। वह बोला, "ठीक है। कल ही हम लोग दोनों बच्चों को जंगल में छोड़ आएंगे।"

लकड़हारा जब अपनी बीवी से इस तरह बातें कर रहा था तो उधर दोनों बच्चे बिस्तर में चुप पड़े सुन रहे थे । अभी उन्हें नींद नहीं आई थी। जब उन्होंने सुना कि उनका पिता और उनकी सौतेली मां उनके बारे में कुछ बात कर रहे हैं तो वे कान लगाकर सुनने लगे।

सारी बात सुनकर दोनों बच्चे बहुत घबराए । ग्रेथेल छोटी थी। वह रोने लगी और अपने भाई से कहने लगी, "ये लोग हमें कल जंगल में छोड़ने जाएंगे । वहां जंगली जानवर हमें खा जाएंगे।"

डर तो हांसेल को भी लग रहा था लेकिन वह बड़ा और समझदार था। उसने अपनी बहिन को समझाते हुए कहा, "डरो मत ! मैं तुम्हारे साथ ही रहूँगा। हम लोग कोई न कोई रास्ता ढूंढ लेंगे। मुझे एक बात सूझ रही है। तुम चुपचाप बिस्तर में लेटी रहो । मैं अभी ज़रा बाहर होकर आता हूं।"

यह कहकर हांसेल चुपचाप उठा और अपने पिता और सौतेली मां की नज़र बचाकर झोंपड़ी से बाहर निकल आया। बाहर आकर उसने देखा कि आकाश में चांद निकला हुआ था और चांदनी में पास ही बहने वाले नाले के किनारे पड़े छोटे-छोटे कंकड़ चमक रहे थे। हांसेल ने बहुत-से कंकड़ उठाकर अपनी जेबों में भर लिए और फिर झोंपड़ी में जाकर चुपचाप सो गया।

दूसरे दिन सौतेली मां ने दोनों बच्चों को बहुत जल्दी जगा दिया और थोड़ी ही देर में हाथ-मुंह धुलाकर उन्हें तैयार कर दिया। फिर वह बोली, "चलो आज हम सब लोग जंगल में चलेंगे। वहां तुम्हारे पिताजी लकड़ी काटेंगे और हम लोग उनकी मदद करेंगे।"
उसने दोनों बच्चों को खाने के लिए मोटी-मोटी रोटियां दीं और फिर सब लोग रवाना हो गए।

रास्ते में लकड़हारे ने देखा कि हांसेल चलते-चलते थोड़ी दूर जाकर रुकता था और फिर पीछे की ओर देखने लगता था। वह बोला, “सामने देखकर चलो, हांसेल ! पीछे क्या देख रहे हो ? तुम्हें ठोकर लग जाएगी।"

हांसेल बोला, "मैं पीछे मुड़कर अपनी बिल्ली को देख रहा हूं। वह झोंपड़ी के छप्पर पर बैठी है और हम लोगों को देख रही है; लेकिन सच बात यह थी कि हांसेल किसी बिल्ली को नहीं देख रहा था बल्कि वह रास्ते में पत्थर गिराता चलता था और इस तरह वापस लौटने के लिए निशान बनाता चल रहा था।

चलते-चलते सब लोग जंगल के बीच घने भाग में जा पहुंचे। वहां जाकर लकड़हारे ने कुछ लकड़ियां बटोरी और उनका अलाव जलाकर बच्चों से कहा, "तुम लोग यहां बैठकर आग तापो । मैं अभी लकड़ी काटकर आता हूं। तुम्हारी मां भी मेरे साथ जाएगी।"

दोनों बच्चे आग के पास बैठ गए। चारों तरफ घना जंगल था। दूर तक घनी झाड़ियों और पेड़ों के अलावा और कुछ भी नज़र नहीं आता था। दूर पर कहीं खट-खट की आवाज़ आ रही थी, जिससे उन्होंने समझा कि उनका पिता लकड़ी काट रहा है। लेकिन वास्तव में लकडहारा तो वहां से बहत दूर जा चुका था। यह खट-खट की आवाज़ हवा में एक सूखी डाल के हिलने के कारण हो रही थी। धीरे-धीरे रात हो गई । लकड़हारा लौटकर नहीं आया। बच्चे वहां आग के पास थककर सो गए।

कुछ देर बाद रात में जब नींद खुली तो उन्हें बड़ा डर लगने लगा। चारों तरफ अंधेरा फैला हुआ था। पेड़ के ऊपर उल्लू बोल रहे थे और दूर कहीं सियार 'हुआ-हुआ' कर रहे थे । ग्रेथेल ने सिसकते हुए कहा, "भैया, हम लोग तो अब घने जंगल में खो जाएंगे और कभी भी लौटकर घर नहीं जा सकेंगे।"

हांसेल बोला, "घबराओ मत ! अभी चांद निकलेगा और फिर हम लोग घर के लिए चल पड़ेंगे । तुम मेरा हाथ पकड़ लेना। मैं तुम्हें आराम से घर पहुंचा दूंगा।"

थोड़ी देर बाद चांद निकला । जंगल में चांदनी फैल गई। अंधेरा कुछ कम हुआ। हांसेल अपनी बहिन का हाथ पकड़कर उसे घर की ओर ले चला। रास्ता ढूंढ़ने में उसे कोई कठिनाई नहीं हो रही थी, क्योंकि उसने रास्ते में जो कंकड़ गिराए थे वे चांदनी में चमक रहे थे. इस तरह धीरे-धीरे रास्ता खोजते हुए दोनों बच्चे झोंपड़ी के पास जा पहुंचे।

उनको देखकर उनकी सौतेली मां ने चीखकर कहा, "तुम दोनों बहुत बुरे बच्चे हो ! तुम कहां रह गए थे। हमने तो जंगल में तुमको बहुत खोजा । तुम लोग मिले ही नहीं । इतनी-इतनी देर तक घर से बाहर रहते हो !"

लेकिन लकड़हारे को अपने बच्चों पर दया आ गई। उसने आगे बढकर उनको अपनी गोद में लिया और बड़े प्यार के साथ झोंपड़ी में ले जाकर खाना खिलाया।

कुछ दिन इसी तरह से बीते । लकड़हारे की आमदनी बहुत थोड़ी थी, इसलिए सब लोगों को आधा पेट खाना ही मिलता था । अन्त में एक दिन फिर लकड़हारे की बीवी ने ज़िद की कि दोनों बच्चों को जंगल में छोड़ दिया जाए। लकड़हारे ने पहले तो उसकी बात नहीं मानी, लेकिन फिर उसे राज़ी होना पड़ा। दूसरे दिन तैयार होकर सब जंगल की ओर चल पड़े।

इस बार हांसेल रास्ते में कंकड गिराने की बजाय उन रोटियों के टुकडे फेंकता चल रहा था जो उसकी सौतेली मां ने उसे खाने के लिए दी थीं। ग्रेथेल की रोटी उसकी झोली में थी। हांसेल ने अपनी पूरी रोटी इस तरह टुकड़े-टुकड़े करके रास्ते में डाल दी। इस बार लकड़हारा उन लोगों को बहुत ही घने जंगल में ले गया।

उस दिन भी पहले की तरह लकड़हारा आग जलाकर दोनों बच्चों को उसके पास छोड़ आया। दोनों बच्चे काफी देर तक अपने पिता की राह देखते रहे और अन्त में थककर वहां सो गए। रात में जब उनकी नींद खली तो ग्रेथेल डर के मारे रोने लगी। किसी तरह हांसेल ने उसको समझाया और कहा, "डरो मत ! इस बार भी हम लोग आसानी से घर पहुंच जाएंगे । मैं रास्ते भर रोटी के टुकड़े गिराता आया हूं। उनको देखते हुए हम लोग घर पहुंच जाएंगे।"

लेकिन इस बार ऐसा नहीं हुआ। हांसेल ने रोटी के जो टुकड़े रास्ते में गिराए थे, उनको चिड़ियां खा गई थीं। एक भी टुकड़ा बाकी नहीं बचा था। दोनों भाई-बहिन जंगल में भटकते फिरे,लेकिन उन्हें रास्ता नहीं मिला। भटकते-भटकते वे और भी घने जंगल में पहुंच गए। इस तरह भटकते हुए तीन दिन बीत गए। भूख लगने पर वे जंगली फल खाकर अपना पेट भरते थे और रात में कहीं पेड़ के नीचे या किसी गुफा में सो जाते थे। सुबह होने पर वे फिर चल पड़ते थे।

एक दिन जब वे लोग इस तरह चले जा रहे थे तो उन्होंने पेड की डाल पर एक बहुत सन्दर सफेद चिडिया बैठी हुई देखी। चिड़िया बड़ी मीठी आवाज़ में गा रही थी। दोनों बच्चे रुककर उसका गाना सुनने लगे। अचानक चिड़िया पंख फडफडाकर उड चली। वह उड़ती हुई और भी सुन्दर लग रही थी। दोनों बच्चे खेल-खेल में उसके पीछे भागने लगे। ऐसा लगता था कि जैसे चिडिया भी उनके साथ खेल रही हो। वह भी धीरे-धीरे उड़ती थी और बच्चों से आगे निकलकर किसी पेड़ की डाली पर बैठ जाती थी। जब बच्चे भागते हुए उसके पास आते थे तो वह उड़ कर आगे निकल जाती थी। अन्त में चिड़िया जंगल के ठीक बीच में बनी एक छोटी-सी कुटिया के ऊपर जाकर बैठ गई।

बच्चे दौड़ते हुए जब वहां पहुंचे तो जंगल में ऐसी सुन्दर कुटिया देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। पास आकर उन्होंने देखा कि वह पूरी कुटिया तरह-तरह की मिठाइयों, मिठाई की गोलियों, मिश्री वगैरा खाने की चीज़ों की बनी हई थी। दीवारें बर्फी की बनी थीं। छत लड्डू और पेड़े से बनी थी। खिड़की में जलेबियां लटक रही थीं। दरवाजे के सामने सीढ़ियां मिश्री की बनी थीं। दोनों बच्चे खुशी-खुशी मिठाई तोड़कर खाने लगे।

थोड़ी ही देर में कुटिया का दरवाज़ा खुला और उसमें से एक बहुत बूढ़ी स्त्री लाठी के सहारे चलती हुई बाहर निकल आई। उसे देखकर दोनों बच्चे डरकर थर-थर कांपने लगे। उनके हाथ से मिठाई छूटकर ज़मीन पर आ गिरी । बुढ़िया बोली, "बच्चो, डरो मत ! तुम खूब पेट-भर मिठाई खाओ, लेकिन मेरे घर को मत तोड़ो। अन्दर आओ। मैं तुमको तरह-तरह की मिठाइयां दूंगी।"

दोनों बच्चे बुढ़िया के साथ कुटिया के अन्दर चले गए। वहां बुढ़िया ने उनको बहुत अच्छा खाना खिलाया। कई दिनों से दोनों बच्चों को खाने के लिए कुछ नहीं मिला था। इसलिए दोनों ने भरपेट खाना खाया। इसके बाद उस बुढ़िया ने दो छोटे-छोटे पलंगों पर उनके लिए बिस्तर लगा दिए । बच्चे थके हुए थे। थोड़ी ही देर में गहरी नींद में सो गए।

यह बुढ़िया असल में एक दुष्ट जादूगरनी थी। वह छोटे बच्चों को बहकाकर उन्हें पकड़ लेती थी और फिर मौका देखकर उन्हें खा जाती थी। उसकी आंखें बहुत कमजोर थीं। वह दूर की चीजें नहीं देख पाती थी लेकिन उसकी नाक बहुत तेज़ थी और सूंघकर बहुत-सी बातों का पता लगा लेती थी। उसे मालूम हो गया था कि हांसेल और ग्रेथेल जंगल में भटक रहे हैं। किसी तरह उनको पकड़ने के लिए ही उसने मिठाई की इस कुटिया का नाटक रचा था।

दूसरे दिन सुबह वह बुढ़िया उन बच्चों को देखने के लिए गई। दोनों बच्चे आराम से अपने-अपने बिस्तर में सो रहे थे। उसे यह देखकर बड़ी खुशी हो रही थी कि एक साथ दो बच्चे उसके जाल में फंस गए हैं।

उसने अपने मन में कहा, "अगर ये बच्चे मोटे-ताजे होते तो ज्यादा अच्छा होता। ये बड़े दुबले-पतले हैं, लेकिन चलो खैर ! फिर उसने हांसेल को चुपके से उठाया और उसे एक लोहे के पिंजरे में बन्द कर दिया। हांसेल सोता ही रहा । उसे पता न चला कि क्या हुआ।

इसके बाद वह ग्रेथेल के पास पहुंची और उसे झकझोरकर जगाते हुए बोली, "उठ आलसी लड़की, उठ! जल्दी उठ और ज़रा काम करा । चल पहले चूल्हा जला और इसके बाद पानी गरम कर । फिर जल्दी नाश्ता तैयार करने में मेरी मदद कर। मैंने तुम्हारे भाई को पिंजरे में बन्द कर दिया है। मैं खिला-पिला कर उसे मोटा करूंगी और उसके बाद उसको खाऊंगी।"

ग्रेथेल बेचारी यह सुनकर हक्का-बक्का रह गई। बड़ी मुश्किल से आंखें मलते हुए वह उठी। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था । बुढ़िया उसे धक्का देते हुए रसोईघर में ले गई और उसे काम में लगा दिया । ग्रेथेल रोते हुए काम करने लगी।

इसके बाद बुढ़िया ने तरह-तरह की खाने की चीजें तैयार की । उसने पिंजरे में बन्द हांसेल को अच्छी-अच्छी चीजें खाने के लिए दीं; हलवा-पूड़ी, दूध-मलाई, वगैरा । लेकिन ग्रेथेल को रूखी-सूखी और बासी रोटियां और बची-खुची चीजें खाने के लिए दीं।

इस तरह रोज़ चलने लगा। हर रोज़ बुढ़िया पिंजरे के पास जाती थी और हांसेल को बढ़िया खाना खिलाने के बाद उससे कहती थी, “लड़के, ज़रा अपनी उंगली दिखाओ। मैं देखना चाहती हूं कि तुम बढ़िया माल खाकर कितने मोटे हो गए हो।"

लेकिन हांसेल बड़ा चालाक था । उसे बुढ़िया की सारी चाल का पता था। उसे यह भी मालूम हो गया था कि बुढ़िया को आंखों से साफ-साफ दिखाई नहीं देता है, इसलिए वह अपनी उंगली दिखाने की जगह खाने-पीने की कोई चीज़ दिखा देता था और उससे बुढ़िया समझती थी कि लड़का रोज़ मोटा होता जा रहा है। लेकिन इतने पर भी वह भुनभुनाती रहती थी, “मैं तुम्हें खाने के लिए इतनी बढ़िया चीजें देती हूं, फिर भी तुम बहुत धीरे-धीरे मोटे हो रहे हो !"

अन्त में एक दिन बुढ़िया बोली, “भई, अब मुझसे ज़्यादा इन्तज़ार नहीं किया जाता। लड़की, तुम कल सुबह ज़रा जल्दी उठना और झटपट सारा काम निपटा लेना। मैं कल तुम्हारे भाई को उबालकर खाऊंगी !"

यह सुनकर ग्रेथेल फूट-फूटकर रोने लगी और बोली, "इससे तो अच्छा यही होता कि हम लोग जंगल में ही भटकते फिरते और कोई जंगली जानवर हमें खा जाता।" ।

बुढ़िया ने उसे डांटते हुए कहा, “चुप रहो ! बकवास मत करो। तुम्हारे चाहने न चाहने से कुछ नहीं होगा, और इस तरह आंसू बहाना बन्द करो।"

दूसरे दिन सुबह ग्रेथेल को मन मारकर बुढ़िया की आज्ञा का पालन करना पड़ा । वह सुबह जल्दी उठी और चूल्हा जलाने के बाद उसने एक बड़े भारी वर्तन में पानी उबलने के लिए रख दिया। इसके बाद बुढ़िया ने उसे हुक्म दिया, "जाओ, जल्दी से आटा सानो और रोटी बनाने की तैयारी करो।"

जब ग्रेथेल ने आटा गूंथ दिया तो बुढ़िया ने उससे कहा, "अच्छा, अब ज़रा इस चूल्हे के अन्दर घुसकर देखो कि यह अच्छी तरह गरम हो गया है या नहीं।"

बुढ़िया ने अपना चूल्हा बहुत बड़ा बना रखा था । ग्रेथेल समझ गई कि बुढ़िया क्या चाहती है। उसने सोचा कि यह मुझे चूल्हे के अन्दर ही बन्द कर देगी और इस तरह पहले मुझे ही भून डालेगी। उसने बुढ़िया से कहा, "चूल्हे का मुंह बहुत छोटा है । मेरी समझ में नहीं आ रहा कि मैं इसमें किस तरह से जाऊं।"

बुढ़िया ने चिल्लाकर कहा, "क्या ? कितनी बेवकूफ हो तुम ! तुम्हें पता नहीं,चूल्हे के अन्दर किस तरह घुसा जा सकता है ? देखो यह तो इतना बड़ा है।" यह कहकर उसने अपना सिर चूल्हे के अन्दर डालकर दिखाया। " ग्रेथेल ने फौरन पीछे मुड़कर बुढ़िया को ज़ोर का धक्का दिया वह पूरी की पूरी चूल्हे के अन्दर जा गिरी। बाहर से ग्रेथेल ने चूल्हे का मुंह बन्द कर दिया । इसके बाद उसने हांसेल के हिंजरे का ताला खोला और फिर वह दौड़ती हुई उसके पास पहुंची। उसने अपने भाई को पिंजरे से बाहर निकाल लिया और बताया कि किस तरह वह बुढ़िया को जलते हुए चूल्हे में झोंक आई है !
हांसेल उस पिंजरे से बाहर आकर बहुत खुश हुआ।

इसके बाद दोनों भाई-बहिनों ने बुढ़िया की कुटिया में खूब लूट मचाई । बुढ़िया ने तरह-तरह के हीरे-मोती के जेवर और बहुत-सी कीमती चीजें जमा कर रखी थीं। दोनों बच्चों ने अपनी जेबें हीरे-मोतियों से भर लीं। इसके बाद दोनों वहां से भाग निकले।

दोनों इतनी तेज़ी से भागे कि थोड़ी ही देर में बहुत दूर निकल आए। आगे चलने पर उन्हें एक बहुत बड़ी झील मिली। यह झील इतनी बड़ी थी कि बिना नाव में बैठे इसे पार करना संभव नहीं था। हांसेल बोला, " अब क्या किया जाए? इस झील पर तो कोई पुल नहीं है, और न आसपास कोई नाव ही दिखाई दे रही है। हम लोग इसको पार कैसे करेंगे !"

ग्रेथेल बोली, "देखो, देखो ! उधर वह एक बड़ी-सी सफेद बत्तख तैर रही है। चलो हम उसके पास चलें । वह हमारी मदद करेगी।"

बत्तख के पास पहुंचकर ग्रेथेल ने गाना शुरू किया। थोड़ी ही देर में बत्तख तैरती हुई उनके पास आ गईं और उन दोनों को झील के पार ले जाने के लिए राजी हो गई। बत्तख ने पहले हांसेल को अपनी पीठ पर बिठाया और झील के पार उतार दिया। इसके बाद उसने ग्रैथेल को भी इसी तरह दूसरे किनारे पर पहुंचा दिया।

झील के दूसरे किनारे पर पहुंचने पर दोनों बच्चों की खुशी की सीमा न रही। उन्हें यह समझते देर नहीं लगी कि जंगल का यह भाग तो उनका बहुत जाना-पहचाना था। उन्होंने जल्दी-जल्दी घर की तरफ चलना शुरू किया। थोड़ी देर में उन्हें अपने घर का रास्ता मिल गया और वे अपनी झोंपड़ी के पास जा पहुंचे।

उन्होंने एक पेड़ की ओट से देखा कि उनका पिता एक कोने में बैठा लकड़ी चीर रहा था । वह बहुत दुःखी मालूम होता था। जैसे ही बच्चे लकड़हारे के पास पहुंचे उसने दौड़कर उन्हें गले से लगा लिया। वह बोला, "आओ बच्चो, जिस दिन से मैंने तुम लोगों को जंगल में छोड़ा है, उस दिन से आज तक मुझे चैन नहीं मिला । मैं हमेशा तुम्हारी याद में रोता रहता हूं। अब किसी तरह भगवान की दया से तुम लोग घर औट आए हो। अब मैं हमेशा तुम्हें अपने साथ रखूंगा और तुम्हें किसी तरह की तकलीफ नहीं होने दूंगा।"

दोनों बच्चे भी अपने पिता से मिलकर बहुत खुश हुए। फिर उन्होंने जंगल की उस बुढ़िया जादूगरनी की बात बताई और अपनी जेबों से निकालकर तरह-तरह के हीरे-मोती और दूसरी कीमती चीजों का ढेर अपने पिता के सामने लगा दिया । लकड़हारे को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था । इतना सारा धन तो उसने कभी सपने में भी नहीं देखा था। इतना धन पाकर उनकी सौतेली मां भी बड़ी खुश हई। इस तरह उन लोगों की गरीबी दूर हो गई। हांसेल और ग्रेथेल हीरे-मोती से खेलने लगे। लेकिन अब भी उन्हें हीरे-मोती और जवाहरातों से भी ज्यादा सुन्दर नाले के किनारे के वे पत्थर लगते थे जिनसे वे बचपन से खेलते आए थे।

(ग्रिम्स फेयरी टेल्स में से : अनुवादक - श्रीकान्त व्यास)

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