भाग्य और पुरुषार्थ : लोककथा (उत्तराखंड)

Bhagya Aur Purusharth : Lok-Katha (Uttarakhand)

धनीराम नाम का एक सेठ था । उसे अपने धन और दौलत का घमण्ड था । उसके चार लड़के थे । एक दिन उसने अपने चारों लड़कों अपने पास बुलाया और उनसे पूछा, ‘‘ तुम किसके भाग्य का खाते हो ? ‘‘

‘‘ हम सब आपके भाग्य का ही खा रहे हैं ।‘‘- सेठ के तीनों लड़कों ने एक साथ जवाब दिया।

सबसे छोटे लड़के चैतराम ने कहा, ‘‘ इस संसार में कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे के भाग्य का नहीं खा सकता है । इसलिए मैं भी अपने भाग्य का ही खाता हूँ आपके भाग्य का नहीं ।‘‘

यह सुनकर धनीराम को क्रोध आ गया । उसने डांटते हुए चैतराम से कहा, ‘‘ तुम अपने ही भाग्य का खाते हो तो निकल जाओ मेरे घर से ।‘‘

धनीराम की पत्नी ने उसे समझाया, बुझाया लेकिन वह नहीं माना । उसने अपने बेटे को घर से निकाल दिया । चैतराम को विदा करते समय उसकी माँ ने उसे कुछ रोटियां दी । उसके पिता देख न सकें, इसलिए उन रोटियों के अंदर चाँदी के सिक्के छिपाकर दे दिए ।

चैतराम घर से निकल पड़ा । चलते -चलते रास्ते में रात पड़ गई । वह काफी थक गया था । तभी उसकी नजर एक उड्यार ( गुफा) पर पड़ी । वह गुफा के अन्दर जाकर सुस्ताने लगा । कुछ देर बाद उसे नींद आ गई । आधी रात को कुछ लोगों की आवाज को सुनकर उसकी नींद टूट गई । उसने गुफा से चार लोगों को बातें करते हुए देखा । उनमें से एक कह रहा था, ‘‘ हमें इस राज्य की जासूसी सतर्कता से करनी है। हममें में से दो लोगों को राजदरबार में नौकरी हासिल करनी है । यहाँ के चप्पे -चप्पे की जानकारी हमें अपने राजा तक पहुंचानी है । मौका देखकर बाद में हम इस राज्य पर आक्रमण कर देंगे।‘‘ कुछ देर बाद वे वहाँ से चले गए ।

चैतराम ने सोचा, ‘‘ मुझे इन जासूसों की सारी बातें राजा को बता देनी चाहिए ।‘‘ सुबह होने से पहले वह दरबार में पहुंच गया । उसने रात को सुनी सारी बातें राजा को बता दी । कुछ देर बाद वे दो जासूस नौकरी मांगने राजदरबार में आए। उन्हें पकड़ कर कैद कर लिया गया । राजा चैतराम से खुश हुआ । राजा ने कहा, ‘‘ तुम मुझसे जो मांगना चाहते हो मांगो ।‘‘ चैतराम को घुड़सवारी का शौक था । उसने राजा से एक घोड़ा मांगा । राजा ने खुशी-खुशी उसे घोड़ा दे दिया ।

चैतराम उस घोड़े पर सवार होकर आगे चल दिया । उसे भूख लगी तो उसने अपनी माँ की दी हुई रोटियां खाई । चांदी के सिक्कों को भुनाकर उसने अपने लिए जरूरी चीजें खरीदीं । रास्ते में उसे बकरी का एक बच्चा दिखाई दिया । वह अपने झुण्ड से बिछुड़ गया था । चैतराम ने उसे अपने पास रख लिया । बकरी का बच्चा भी धीरे - धीरे बड़ा होने लगा ।

एक बार चैतराम को रास्ते में ही रात हो गई । कुछ ही दूरी पर उसे एक गाँव दिखाई दिया । वह घोड़े और बकरे सहित उस गाँव में पहुंच गया । उसने गाँव वालों से कहा कि उसे एक रात रुकने के लिए कमरा चाहिए । उस गाँव के लोग दुष्ट स्वभाव के थे । उन्होंने गाँव के ऊपर धार में एक मकान बना रखा था । यह खुला मकान था । इसमें दरवाजे और खिड़कियां हमेशा खुली रहती थीं । रात को वहाँ ठण्डी हवा आती थी । जो भी यात्री रात के समय इस गाँव में आता, गाँव वाले ठहराने के लिए उसे इस मकान में ले आते । रात की ठण्ड से सुबह वह यात्री मरा हुआ मिलता । वह उसका सामान और पैंसे आपस में बांट लेते ।

गाँव वालों ने चैतराम की व्यवस्था उसी मकान में कर दी । पहले तो सब ठीक रहा । ज्यों ही रात गहराने लगी तेज ठण्डी हवाएं चलने लगी । आधी रात को ठण्ड बहुत बड़ गई । इस ठण्ड में कैसे जीवित रहा जाए ? इस पर चैतराम ने अक्ल दौड़ानी शुरू कर दी । उसे मकान में एक जंदरा (हाथ की चक्की) दिखाई दिया । उसने इसे हाथ से चलाना शुरू किया । जंदरा चलाते-चलाते वह पसीने से तर हो गया । उसने सारी रात इसी तरह काट दी । रात खुलने पर गाँव के ठग वहाँ आए । चैतराम को जिन्दा देखकर उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा । वे बोल पड़े,‘‘ अरे! तुम जीवित कैसे हो ?‘‘

‘‘मेरे ठण्ड में जीवित रहने का राज यह बकरी है ।‘‘ -चैतराम बोला।

‘‘बकरी कैसे ?‘‘

‘‘रात को जैसे ही ठण्ड बड़ती गई, मैं इस बकरे को कहता गया- ‘‘ बुकौ बाखरु जाडु (हे बकरे ! इस जाड़े को खा )‘‘ । मेरी बात को सुनकर यह बकरा जाड़े को खाता रहा । इससे पूरा कमरा गर्म रहा ।‘‘

चैतराम की इस बात को सुनकर गाँव के ठगों की नजरों में वह बकरा खटकने लगा । उन्होंने उससे वह बकरा बेचने को कहा । चैतराम पहले मना करता रहा किन्तु बाद में उसने वह बकरा भारी कीमत में उसने उन्हें बेच दिया । चैतराम के वहाँ से जाने के बाद गाँव के ठगों में उस मकान में रहने की होड़ लग गई । वे सब रात को उस मकान में रहने के लिए आ गए । जहाँ वे सोए थे वहाँ उन्होंने एक कोने पर बकरे को बांध दिया । रात में जैसे ही ठंडी हवा चली उन्होंने बकरे की ओर देखकर कहना शुरू किया ,‘‘ ‘‘ बुकौ बाखरु जाडु।‘‘ ठण्ड और बढ़ती गई । देखते ही देखते गाँव के ठग वहीं ढेर हो गए ।

आगे चलकर चैतराम ने एक युवती को रोते हुए देखा । पूछने पर उसने बताया, ‘‘मेरी माँ बहुत बीमार है । उसके पैरों में चोट लगी है । उसे हकीम के पास ले जाने के लिए मेरे पास कोई साधन नहीं है।‘‘ चैतराम ने उसे अपने घोड़े पर बिठाया । वह उसे उसके घर ले गया। वहाँ से उसकी बूढ़ी माँ को घोड़े पर बिठाकर वह हकीम के पास ले गया । हकीम की दवाई से वह स्वस्थ हो गई । चैतराम कुछ दिनों तक उन्हीं के घर रहा । बुढ़िया ने अपनी लड़की का ब्याह चैतराम से कर लिया ।

चैतराम अपनी पत्नी के साथ घर वापस आ गया । घर पहुंच कर उसने देखा कि उसके माता-पिता बूढ़े हो चुके हैं। उनमें अब काम करने की ताकत भी नहीं रही थी । उसके तीनों भाई गरीबी में जीवन यापन कर रहे थे । चैतराम को देखकर उसके पिता बोले, ‘‘ बेटा! तूने सच कहा था । इस संसार में हर व्यक्ति को अपने ही भाग्य का खाना पड़ता है । जो दूसरों के भाग्य पर निर्भर रहते हैं उसे तेरे भाइयों जैसे अभाव और गरीबी में जीवन बिताना पड़ता है ।‘‘

चैतराम पत्नी के साथ माता-पिता के पैर छूते हुए बोला, ‘‘ हर व्यक्ति को अपने भाग्य के अनुरूप बुद्धि और परिश्रम से जीवन में कुछ पाना पड़ता है । मैंने जो भी पाया अपने भाग्य और परिश्रम से पाया है किन्तु आपके दिए चांदी के सिक्कों ने मेरी बहुत सहायता की थी ।‘‘

सिक्कों वाली बात धनीराम अभी भी नहीं समझ पाया था लेकिन उसकी माँ की मुस्कराहट बता रही थी कि उसे यह बात अभी भी याद है ।

(साभार : डॉ. उमेश चमोला)

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