भगत के बस में हैं भगवान : बुंदेली लोक-कथा
Bhagat Ke Bas Mein Hai Bhagwan : Bundeli Lok-Katha
किसी गाँव में एक चरवाहा था। वह अन्य किसानों के पशु एकत्र कर जंगल में ले जाकर चराता, दिन भर उनकी देखभाल करता और शाम के समय सबके पशु उनकी पशुशालाओं में पहुँचा देता। इस काम के बदले जो अनाज और पैसे मिलते उससे अपना परिवार पालता। एक बार सावन के महीने में लगातार बारिश हुई। इस कारण वह मवेशियों को चराने के लिए नहीं ले जा सका। कोई दूसरा काम न होने से मन उचाट हो रहा था। घर में बैठे-बैठे ऊब गया तो मंदिर में चला गया। वहाँ पंडित पोथी खोले भागवत कथा बाँच रहा था। चरवाहा मन लगाकर कथा सुनता रहा। पंडित ने कृष्ण के गोपाल रूप का वर्णन कर बताया की किस तरह वे ग्वाल-बालों के साथ जंगल में जाकर पशु चराते रहे। चरवाहे ने घर आकर कथा में सुनी बातों को सोचा तो उसे लगा मैंने अब तक जीवन व्यर्थ गँवा दिया। क्यों न मैं वृंदावन जाकर भगवान कृष्ण की गायें चराऊँ? इससे मुझे भगवन की कृपा मिलेगी और भगवान को जंगल-जंगल भटकना नहीं पड़ेगा।
अगले दिन उसने किसी से पूछा कि वृन्दावन किस दिशा में है और गमछे में सत्तू बाँधकर कंधे पर चादर लपेटकर लाठी लेकर वृन्दावन के लिए निकल पड़ा। कुछ घंटे चलने के बाद एक शहर में पहुँचा। तालाब के किनारे, पेड़ की छाया में रुका और लोगों से अपनी यात्रा का उद्देश्य बताया। लोग उसका मजाक उड़ाने लगे तो दुखी होकर वह आगे बढ़ गया। रास्ते में थोड़ी दूर पर उसे एक मठ दिखाई दिया। वह मठ में पहुँच गया। वहाँ कुएँ से पानी खींचकर उसने हाथ-मुँह धोए और एक ओर तखत पर बैठे महंत जी को प्रणाम किया। महंत जी ने नया चेहरा देखा तो उसका नाम, आने का उद्देश्य आदि पूछा। वे समझ गए कि यह भोला आदमी है। लोग इसकी भावना को न समझकर इसका मजाक बनाएँगे और तंग करेंगे। उन्होंने चरवाहे से लौट जाने को कहा पर चरवाहा न माना। तब महंत जी बोले इस मठ में कृष्ण जी की पूजा होती हैं। यहाँ गोशाला में जो गायें हैं, वे कृष्ण जी की ही गायें हैं, उन्हीं को चराया करो। चरवाहे ने हामी भर दी।
वह मठ की गायों को कृष्ण जी की गाएँ मानकर चराता और उनका बहुत ध्यान रखता। उसके रहने और भोजन की व्यवस्था मठ में ही हो गई। एक दिन मठ भंडारा था। चरवाहे ने जाते समय भोजन पाया तो महंत जी ने कहा, तुम गायें लेकर चराने चलो जाओ, मैं किसी के हाथ से तुम्हारा भोजन भिजवा दूंगा। चरवाहा महंत जी का कहना मानकर गायों को लेकर चला गया। मठ में उस दिन बहुत से भक्त आए। महंत जी उनके साथ लगातार बातचीत में व्यस्त रहे, चरवाहे को भोजन भिजवाने का उन्हें ख्याल ही न रहा। इधर दोपहर में चरवाहे को भूख लगी। पहले तो पानी पीकर भूख भगानी चाही पर कुछ देर बाद फिर भूख ने जोर मारा। उसने कृष्ण जी का ध्यान किया प्रभो! तुम्हारी ही गायें चरा रहा हूँ। तुम मुझे भूखा रखोगे क्या? तुम यही चाहते हो तो मैं भूखा रह लूँगा लेकिन लोग तुम्हारी बदनामी करेंगे कि तुम कैसे भगवान हो जो अपने चरवाहे का पेट भी नहीं भर सकते। यह सोचते हुए वह मन मसोसकर बैठा रहा। उसकी आँख लग गई। कुछ देर बाद उसे आहट मिली कि एक आदमी आया जिसके हाथ में एक पोटली थी। ऊँघ रहे चरवाहे ने समझा महंत जी ने भोजन भिजवाया है। उसने आँखें मूंदे-मूंदे ही नाराजगी के स्वर में कहा सिरहाने रख दो। वह आदमी चरवाहे के सिरहाने पोटली रखकर चला गया।
भूख ने फिर जोर मारा तो चरवाहे ने पोटली से निकालकर भोजन किया और पशुओं को एकत्र करने लगा। शाम होने पर रोज की तरह पशुओं के साथ, हाथ में थैला लिए मठ पहुँचा। महंत जी ने देखा तो उन्हें याद आया कि इसके लिए भोजन था, भूल गए। यह बेचारा भूखा रह गया। उन्होंने अपनी भूल पर पछताते हुए चरवाहे से कहा ‘बेटा! काम-काज में फँसकर भोजन भेजना भूल ही गया। आओ, जल्दी से हाथ-मुँह धोकर पहले प्रसाद पा लो।’
चरवाहे ने यह सुना तो बोला कि महाराज आप अब भूल कर गए हो, आपने भोजन भिजवा तो दिया था। आज तो भोजन बहुत ही स्वादिष्ट था। मैंने जी भरकर जीमा। महंत जी को लगा यह नाराजगी में झूठ कहा रहा है। उन्होंने पूछा भोजन काहे में था? चरवाहे ने पोटली दे दी। महंत जी ने पोटली खोलकर देखा, भगवान को पहनाए अंगवस्त्र में वही बर्तन थे जिनमें वे भगवान को भोग लगाते थे। मंदिर में जाकर देखा तो जिन बर्तनों में भोग लगाया था, अब वे और अंगवस्त्र वहाँ नहीं थे। महंत जी की बुद्धि चकरा गई. कछ देर सोचते रहे तो बात समझ में आई। महंत जी आसन छोडकर दौड़े और चरवाहे के पैरों पड़ गए। चरवाहा हक्का-बक्का था कि महंत जी को क्या हो गया है? महंत जी को उठाते हुए चरवाहे ने कहा- महाराज! हमें पाप लगहै। आप ठैरे बामन, तिस पे महंत। मोय चरनन की धूल दे दो।
महंत और चरवाहा को एक-दूसरे के पैर छूने की कोशिश करते देख बच्चे ताली बजाकर नाचने लगे। चरवाहे से कहा मैं मेहनत ही करता रह गया, आज तक प्रभु की झलक भी न मिली। तुम धन्य हो, धन्य है तुम्हारी भाव-भक्ति जिसके वश में स्वयं त्रिलोकीनाथ अपना नैवेद्य लेकर तुम्हें खिलाने गए। महंत जी ने चरवाहे को भगवन की पूजा आदि का कार्य सौंपा और आप गाय चराने जाने लगे। तभी से लगा ‘भगत के बस में हैं भगवान।’
(साभार : आचार्य संजीव वर्मा)