भार (पुर्तगाली कहानी) : रडरिगो पैगानीनो
Bhaar (Portuguese story in Hindi) : Rodrigo Paganino
सन्ध्या बीत चुकी थी। कारखाने की छुट्टी हो गई थी। सब अपने-अपने घर चले गए थे ।
आन्द्रे कारीगरों का चौधरी है। उसे काम से प्रेम है, कभी किसी काम में मालिक को धोखा नहीं देता। दिन-भर का काम खत्म करके सब के आखिर में वह घर लौटता। राह में लोगों से उसकी भेंट होती। कोई कारखाने में नौकरी की तलाश करता; कोई कहता, 'मेरा लड़का कैसा काम सीख रहा है, भाई साहब!... अब मालिक से सिफ़ारिश करके कुछ तनख्वाह दिलाओ, घर में बड़ी तंगी है !'
आन्द्रे बहुत सच्चा आदमी है। मालिक उससे प्रेम करते हैं। उस पर मालिक का गहरा विश्वास है।
उसके घर में पत्नी और बच्चे हैं। वह जो कुछ कमाता, उससे किसी तरह गुजर होती, पर किसी के बीमार पड़ने पर कठिनाई होती। डॉक्टर की फ़ीस और दवा, तथा पथ्य का मूल्य देने पर गृहस्थी के खर्च में तंगी होती। लेकिन चारा ही क्या था ?
घर में कोई बहस नहीं, न कोई झगड़ा।
उस दिन सड़क पर दो-चार मित्रों से उसकी भेंट हुई। बातचीत में वे बोले, "तुम्हारी ही वजह से कारखाना चल रहा है। मालिक की हालत कितनी अच्छी है। कितने चैन से उसके दिन बीत रहे हैं। पर तुम जैसे के तैसे ग़रीब रह गए ! मेहनत करते-करते तुम्हारा जीवन बीत गया।"
जब उसे रुपए-पैसे की तंगी होती; जब किसी बहुत जरूरी खर्च के लिए उसके पास पैसे न रहते, तब ये सब बातें उसके चित्त में उदय होतीं ।
आज मित्रों की बातों से उसके चित्त की वही वेदना जागृत हो उठी। दुख से हृदय भर आया।
उसकी पत्नी मगडलेना बैठकर बच्चों को पढ़ा रही थी। आन्द्रे घर लौटा। उसका सूखा चेहरा देखकर मगडलेना बोली, “तबीयत तो ठीक है? चेहरा सूखा क्यों है ?..."
आन्द्रे ने कहा- "नहीं, तबीयत ठीक नहीं है।"
पत्नी बोली, "तब?"
आन्द्रे ने कहा, “दुख और तंगी से कभी भी छुटकारा नहीं मिल सका !"
मगडलेना यह सुनकर चकित हो गई। बोली, "मैं नहीं समझी !”
आन्द्रे ने कहा, "समझने में क्या रखा है! रात के आठ-नौ बजे तक मेहनत करते-करते मैं मर रहा हूँ, पर कोई उसका बदला देता है? मैं क्यों मेहनत करूँगा? मैंने दुनिया से कोई मतलब नहीं रखा, कुछ नहीं देखा, देह का हाड़-मांस देकर दूसरे का कारखाना बना रहा हूँ।"
मगडलेना बोली, "मुँह-हाथ धोकर भोजन कर लो।"
आन्द्रे ने कहा, "नहीं खाऊँगा खाकर क्या होगा? ताक़त ? उस ताक़त का मजा जो कुछ है, वह सब मालिक पाएगा !"
मगडलेना हँस पड़ी। बोली, “किसने तुम्हारे दिमाग़ में यह पागलपन की बातें भर दीं? चलो हाथ-मुँह धो लो... मैं भोजन ला रही हूँ।”
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भोजन के बाद पति-पत्नी एकान्त बरामदे में बैठे हुए थे। मगडलेना बोली, “बच्चे पास नहीं हैं। अब तुम अपने दिल की बातें साफ़-साफ़ कहो।"
आन्द्रे ने कहा, "तुम्हीं कहो, मैं जी तोड़कर इतनी मेहनत करता हूँ, क्यों? किसके लिए ?"
मगडलेना पति की ओर देखती रही, कुछ नहीं बोली।
आन्द्रे कहता गया, "मैंने अपनी सारी जिन्दगी देकर मालिक का कारखाना बना डाला। मालिक को सोने के पलंग पर बैठा कर रखा है, पर उन्होंने उसका क्या बदला दिया है? किसी तरह रोटी कपड़ा मिल रहा है। मैं आज अगर मर जाऊँ, तो तुम और बच्चे भूखे मर जाएँगे। हम लोग कुछ पैसा बहा नहीं देते, किसी तरह का शौक भी नहीं करते। पाँच बच्चे हैं, उन्हें तो पालना पड़ेगा, शिक्षित करना होगा। मैं मालिक के लिए जान दे रहा हूँ, पर मालिक तो इन सब की तरफ़ नहीं देख रहे हैं!"
ठंडी साँस लेकर मगडलेना बोली, “चारा ही क्या है? हम लोगों ने ग़रीब होकर जन्म लिया है... सहारे के लिए परमात्मा ने दिए हैं सिर्फ़ हाथ-पैर और मेहनत !”
आन्द्रे ने कहा, "तुम स्त्री हो ये सब बातें तुम ठीक-ठीक नहीं समझ सकोगी।"
मगडलेना बोली, "मैं तुम्हारी पत्नी हूँ...तुम मुझे समझा दो।"
तब आन्द्रे पत्नी को समझाने लगा, "काम का जो लाभ होगा, उस लाभ पर केवल उन्हीं लोगों का हक हो सकता है जो काम करते हैं। जिसने कारखाना खोला है, वह किस अधिकार से लाभ के पन्द्रह आने अपने घर ले जाता है?"
यह सब कहते-कहते उत्तेजना से आन्द्रे का स्वर ऊँचा चढ़ने लगा। ऐसे ही समय में जाने कब दो कारीगर कारखाने से उसी समय बरखास्त होकर आन्द्रे के पास उससे प्रार्थना करने के लिए आए थे कि वह मालिक से सिफ़ारिश करके उन लोगों को रखवा दे।
आन्द्रे के स्वर में स्वर मिलाकर ये बोल पड़े, "अगर हम लोग मिलकर कारखाने का काम बन्द कर दें तो क्या हो...?"
तब क्या हो, इसका उत्तर सुनने के लिए प्रतीक्षा न करके ही उन दोनों ने छिपे-छिपे जाकर मालिक से आन्द्रे की सब बातें कह सुनाई ।
सुबह उठकर आन्द्रे चुपचाप बैठा रहा। दिन चढ़ने लगा। मगडलेना बोली, “उठो, नाश्ता करके काम पर जाओ। देर हो रही है।"
आन्द्रे ने कहा, "देर होने दो। आज मालिक खुद काम करें। हज़ारों की थैली बक्स में रखें और चैन करें, अब यह नहीं होगा। मैं आज कारखाने में नहीं जाऊँगा...."
मगडलेना सुनकर काँप उठी। बोली, "हाय, ये कैसी बातें कह रहे हो! किसने तुम्हारा दिमाग खराब कर दिया है?"
बाहर मालिक की आवाज़ सुनाई दी! मालिक ने पुकारा, “आन्द्रे !”
आन्द्रे बाहर गया। मालिक ने कहा, "मैं एक जरूरी काम से तुम्हारे पास आया हूँ।"
आन्द्रे ने कहा, “फरमाइए!”
मालिक ने कहा कि शहर के बाहर एक जायदाद खरीदी है। वहाँ जाकर कम से कम दो महीने रहकर वहाँ का सब बन्दोबस्त करना है। यहाँ के सारे कारखाने का भार वे आन्द्रे को सौंप कर जाना चाहते हैं, क्योंकि वह सच्चा आदमी है। इसके सिवाय उसी ने अपना हाड़-मांस देकर कारखाने की तरक्की की है। उनकी गैरहाजिरी में वह उनका प्रतिनिधि होकर कारखाने का काम देखता रहेगा इसके लिए वह उसे सब अधिकार दे जाएँगे । आन्द्रे के सिवाय वे और किसी को यह काम नहीं सौंप सकते।
चेहरा गम्भीर बनाकर आन्द्रे सब सुनता रहा। मालिक बोले, “ना न कहो। मैं आज ही जा रहा हूँ। तुम्हारे दफ्तर में आने पर सब काग़ज़ात समझा दूंगा, और वहीं पर तुम्हारी तनख्वाह भी मालूम हो जाएगी।"
मालिक चले गए।
आन्द्रे ने मगडलेना की ओर देखा। मनडलेना बोली, "कोई जाकर कल रात की बातें मालिक को सुना आया है...अब नौकरी चली जाएगी। मैं नहीं समझती, तुम क्यों अंट-संट बका करते हो!"
आन्द्रे ने कहा, "तो क्या कोई अपनी पत्नी से हृदय की बातें नहीं कहेगा ऐसी नौकरी से भीख माँगना बेहतर है।"
आन्द्रे कारखाने की ओर चला। उसका चेहरा देखने पर ऐसा लगता था, मानो वह फाँसी पर चढ़ने जा रहा है।
कारखाने में मालिक से भेंट हुई। मालिक बोले, "तुम्हें एक हजार रुपए तनख्वाह मिलेगी। कोई शारीरिक मेहनत नहीं करनी है तुम्हारा काम केवल यह होगा कि तुम सब लोगों से काम लोगे। तुम अपना मकान छोड़कर अहाते में मेरा जो बँगला है, उसी में आकर रहो। अब शायद तुम्हारे दुखों का अन्त होगा। और देखो, अगर तुम सब काम ठीक-ठीक सँभाल सको, तो इस कारखाने का भार तुम्हीं को सौंप कर मैं सदा के लिए छुट्टी ले लूँगा।"
मालिक ने सब आदमियों को बुला कर इस व्यवस्था के बारे में जता दिया। बोले,
“आज से आन्द्रे इस कारखाने का मैनेजर है। तुम लोग मेरा हुक्म जैसे मानते रहे, उसी तरह अब से आन्द्रे का हुक्म मानोगे। आज से आन्द्रे चौधरी कारीगर नहीं, कारखाने का मैनेजर है।"
मगडलेना और बच्चे सब बहुत खुश हुए रहने को ऐसा सुन्दर मकान, असबाब, नौकर-चाकर, मोटर । अहा! जीवन कितना चैन और सुख का हो गया!
पर आन्द्रे के चित्त में बेचैनी की सीमा नहीं रही। इतना भारी उत्तरदायित्व ! सबसे काम लेना है...सब सँभालना है! इसके सिवाय बाहर से हजारों तकाजे आ रहे हैं... किसी को रुपया चाहिए, कोई शिकायत कर रहा है, किसी को ठीक-ठीक माल नहीं पहुँचा। चारों ओर से मानो हजारों भ्रमर डंक मारने की चेष्टा से क्षुब्ध और क्रोधित होकर गुंजन कर रहे हैं।
इतना भारी उत्तरदायित्व मालिक का इतना विश्वास! यह कारखाना स्वच्छन्दता से अनायास चल रहा है। हज़ारों कामों में कोई गड़बड़ी नहीं अब उसकी जिम्मेदारी में कोई गड़बड़ी न हो।
पहले संध्या के बाद घर जाकर उसे फुर्सत मिल जाती थी। अब कारखाना बन्द होने पर रात को भी फुर्सत नहीं मिलती! कल क्या काम है, कहाँ से रुपए का तकाजा आएगा, किसका माल पड़ा रह गया, कहाँ कौन कारीगर दल बनाकर झगड़ा फ़साद करने का षड्यन्त्र कर रहा है.....
उसके दिमाग़ के भीतर ये सब चिन्ताएँ दिन-रात रहती हैं। कोई सुख नहीं, कोई शान्ति नहीं जरा भी फुर्सत नहीं, चैन नहीं उसकी पत्नी मगडलेना! अब वह भी बदल गई है, वह पहले की तरह नहीं है। उससे बहुत कम भेंट होती है। साक्षात् होने पर सिर्फ एक ही तरह की बातें होतीं, "अजी, इतनी कंजूसी न करो, इतने में भला, कभी गृहस्थी चल सकती है? ईश्वर की इच्छा से अब हालत कुछ अच्छी हुई है..."
आन्द्रे जवाब देता, "रुपए कहाँ से लाऊँ?"
मगडलेना कहती, “पत्नी और बच्चों का ख्याल नहीं करोगे? तुम जाने कैसे होने लगे हो!"
बच्चों की नित्य नई माँगें रहती हैं किसी की कुछ चाहिए, किसी को कुछ !
मगडलेना कहती, "मुझे एक हीरे का लाकेट चाहिए, बहुत बड़ा हीरा बहुत सस्ते दाम में मिल रहा है..."
दो महीने में आन्द्रे की हालत ऐसी हो गई, मानो वह पागल होने लगा है.....
उस दिन सुबह आन्द्रे ने कठिन स्वर से कहा, "यह सब अमीरी अब छोड़नी पड़ेगी। मैं आज ही मालिक के पास जा रहा हूँ... यह मकान छोड़ दूँगा...मैनेजरी छोड़ दूँगा....इतनी घबराहट मैं नहीं सह सकता। इससे मेरा कारीगर का काम अच्छा था, मैं वही कारीगर रहूँगा।"
मगडलेना चिल्ला उठी, "क्या तुम पागल हो गए हो?"
बच्चे कहने लगे, “बाबू जी की बुद्धि हमेशा ऐसी ही रही !”
पर आन्द्रे जाकर मालिक के पैरों पर गिर कर रो पड़ा, "अगर आप सचमुच ही मुझसे प्रेम करते हैं, तो इस बोझ को मेरे कन्धे से उतार लीजिए।"
मालिक ने मुस्करा कर कहा, "क्यों, क्यों ?..."
आन्द्रे ने कहा, "कृपा कीजिए...कृपा! यह बोझा लादे रहना मेरे लिए असाध्य है!”
"पर तुम्हारे मरने पर तुम्हारे बाल-बच्चे भूखे मर जाएँगे। तुम्हारे हाड़-मांस से वह कारखाना बना है। मैं लाभ के पन्द्रह आने घर ले जाता हूँ।"
आन्द्रे रो पड़ा। उसने कहा, “मुझे क्षमा कीजिए मैं अन्धा था, अब देख रहा हूँ। बाल-बच्चों के दुख...उनके दुख इतनी दौलत में भी नहीं मिटे, बिलकुल वैसे ही हैं। रोज़ शिकायत, मुझे यह नहीं मिला, न मिलने पर मुँह फुलाए रहेंगे। बहुत है, पर चित्त को उससे शान्ति नहीं मिलती, और ज्यादा पाने के लिए व्याकुल रहता है!...."
मालिक बोले, “पर पहले की हालत में उन लोगों का दुख और बढ़ेगा।"
आन्द्रे अपने बाल-बच्चों को लेकर फिर अपने टूटे-फूटे मकान में चला गया।
अब मालिक उसके सुख-दुख का पता लेने लगे। आन्द्रे की तनख्वाह बढ़ गई। मगडलेना ने संचय करना सीखा।
कारीगर लोग माथे का पसीना पोंछते हुए शिकायत करते, "हम लोग मेहनत करते-करते खून-पसीना एक कर रहे हैं, और मालिक चैन से..."
बात काट कर आन्द्रे कहता, "चुप रहो जी मुझे सब पता है। तुम लोगों को कुछ भी पता नहीं! धनी सोचता है कि कारीगर लोग सुखी हैं। वे काम करके छुट्टी पा जाते हैं, उन्हें मेरी तरह घबराहट नहीं है! और हम लोग सोचते हैं...! यानी असल में हम लोगों का मेहनत करने पर भी चित्त हल्का रहता है; उन लोगों को शारीरिक मेहनत नहीं करनी पड़ती है, पर उनके सिर पर सदा पहाड़ की तरह भारी बोझ रहता है।"