भालू (कहानी) : हाजरा मसरूर

Bhaalu (Story in Hindi) : Hajra Masroor

आज जुमेरात थी।

अभी चराग़ भी न जले थे।

अल्लाह रखी गुलाबी छींट का लहँगा और महीन मलमल का कुरता पहने और सर पर हरा दुपट्टा हज्जनों की तरह लपेटे, आज भी स्लीपरें घसीटती दरगाह में हाज़िरी देने निकली लेकिन ऐसी बेताबी से कि अनवरी उसकी तेज़ी का साथ न दे सकी।

मटकी बराबर पेट, उसपर दिल की प्यास का सूट, शलवार पेट पर टिकती ही न थी।

पैरों पर वो सूजन की कभी कभार पाँव में पड़ने वाली गुरगाबी से पैर तो जैसे गोश्त का बोटा होकर उबले पड़ते।

घर से दो क़दम पर तो दरगाह थी मगर मालूम होता काले कोसों की बात है।

मुट्ठी में चराग़ी के चार पैसे और दूसरी हथेली पर मलीदे की तश्तरी, यूँ मनों का बोझ न मालूम होती अगर अल्लाह रखी की चाल पर ऐसी मुँह ज़ोर जवानी न आई होती।

अनवरी ने हाँपते हुए सोचा,सब अपने काम से काम रखते हैं।

ज़रा ख़्याल नहीं करते।

अब जैसे अम्मां को ये मालूम ही नहीं कि मैं भी तो साथ हूँ। ये सोचते ही उसके रोएं-रोएं से कोई शय खोल-खोल कर सर तक आई और फिर दो नन्हे-नन्हे क़तरों की सूरत में आँखों में फैल गई।

लेकिन ये क़तरे उस वक़्त भाप बन कर उड़गए जब उसने देखा कि अल्लाह रखी मज़ार शरीफ़ के पाएंती खड़ी तम्बाकू से पीली हथेलियाँ फैला फैलाकर रोते हुए कह रही है, मियाँ, ऐ मेरे मियाँ...

फरयाद सुन लो मेरी।

वो हराम जादी फिर भाग गई।

मैं तो तुमही से लूँगी उस हर्राफा को, मियाँ ऐ मियाँ। फ़र्त-ए-एहतराम से वो छाँट-छाँट कर कम से कम रोज़मर्रामें अपना दुखड़ा मियाँ हुज़ूर की दरगाह में पेश कर रही थी।

अनवरी का दिल भी ग़ोता सा खागया मगर खुल कर रोती कैसे।

दरगाह तो दरगाह है।

कई लोग इधर-उधर खड़े थे।

यही लोग बाद में आकर छेड़ते।

नज़रें नीचे किए-किए मलीदे की तश्तरी और चिराग़ी के पैसे मज़ार के मुजाविर एहसान उल्लाह मियाँ के हवाले किए जो उन्होंने फुर्ती से मज़ार के ताक़ में चढ़ा दिए।

चढ़ावे के साथ ही अल्लाह रखी और भी बिखर गई।

ऐसा बिलक कर रोई कि अनवरी के आँसू भी बह निकले।

सवेरे से भूकी भी थी।

सुबह मुहम्मदू क़साई बचे खुचे छीछड़े और हड्डियाँ काग़ज़ में लपेट लाया था, जो पक कर भी नज़र में न समाए।

फिर पहलवान से जो बचे वो अल्लाह रखी और बच्चों के नेग लगे।

उसे बालिश्त भर ऊँचे शोरबे में एक हड्डी डूबी मिली।

वो भी चिचुड़ने को जी न चाहा।

उन दिनों गोश्त तो उसे यूँ भी अच्छा न लगता।

सवेरे से कैसा-कैसा जी हो रहा था कि एक खट्टी नारंगी चूस ले।

मगर इन दिनों उसकी फ़रमाइश आज कल पर ही टलती रहती।

हद तो ये है कि सुबह चूल्हे की मिट्टी खाने को जी मचला।

एक ज़रा सी खुरची थी कि अल्लाह रखी डकारी,अरी नास पीटी, चूल्हा ठूँसे लेती है।

तेरे यार आकर चूल्हा बनाएंगे?

अनवरी ने जल्दी से अपने आँसू पोंछ डाले और अल्लाह रखी की बाँह पकड़ कर बाहर लाई।

मियाँ एहसान उल्लाह एक तवील ठंडी साँस लेकर बोले,न रो भई! ज़माना ही बुरा है।

औलाद माँ से सरताबी करके कभी सुर्ख़रू नहीं हो सकती।

अनवरी अल्लाह रखी को समझाओ ना! रपट लिखा दो थाने में, जहाँ होगी पकड़ आएगी साली।

ख़ूब, तो गोया अल्लाह रखी अब मियाँ एहसान उल्लाह से अक़्ल सीखेगी...

वो तो उसी दिन रिपोर्ट लिखा चुकी थी जिस दिन भालू ग़ायब हुई।

दारोग़ा जी ने पहले तो अल्लाह रखी को फ़र्राशी गालियाँ सुनाईं मगर जब अल्लाह रखी ने हाथों से चाँदी के कड़े उतार कर उनके क़दमों पर रखे तो कहीं जाकर कुछ धीमे पड़े।

दारोग़ा जी का ग़ुस्सा कम होने की एक और वजह भी थी, जो अल्लाह रखी के अलावा और सभों को भी मालूम थी लेकिन किसके सर पर इतने बाल थे जो ये बात ज़ोर से कह सकता?

इस वक़्त जब कि वो छोटे से उजड़े मारे क़स्बे के वाहिद खुले बंदों तवाइफ़ घराने की तरफ़ से रिपोर्ट सुन रहे थे और गालियाँ बक रहे थे तो घर से मुलाज़िम छोकरा निकला और कहा, अंदर बुलाती हैं। अंदर पहुँचे तो नाज़ुक बदन सिंगार पटार से लदी हुई बेगम थाने की तरफ़ खुलने वाले दरवाज़े से लगी ग़ुस्से से थर-थर काँप रही थीं।

सुरमगीं आँखों में आँसू।

दारोग़ा जी को देखते ही तड़प कर बोलीं, अल्लाह से कुछ तो खौफ़ खाओ।

क्यों बेक़सूर निगोड़ी बुढ़िया के पीछे लट्ठ लेकर पड़ गए...

ये नहीं सोचते कि अपने ही दाम खोटे तो परखने वालों का क्या दोष...

कई दिन से क़दीर मियाँ जो रात-रात भर ग़ायब रहते हैं, ऐसे नन्हे बन गए कि समझ ही में नहीं आता। ये कहते-कहते आवाज़ भर्रा गई।

रुकी-रुकी आवाज़ में कहा,भई वाह ख़ूब ख़ानदान का नाम रौशन हो रहा है।

बड़े भाई हो कर इतना भी नहीं कर सकते कि...

आज तक हमारे घराने के लड़के रंडियों मंडियों के पीछे भागे हैं भला?

इसपर दारोग़ा जी घबरा गए।

हकला गए।

काँपते हुए कहने लगे, अरे भई कैसे कह सकती हो कि भालू के मामले में क़दीर मियाँ...

वाह मुझे तो यक़ीन नहीं आता।

अच्छा हाथ कंगन को आरसी क्या।

आज ही क़दीर मियाँ का पीछा करके देख लो।

अरे मैं तो क़दीर मियाँ की आँखें पहचान लेती हूँ, हाँ नहीं तो। इतना कह कर बेगम झाग जैसी सफ़ेद चांदनियों से ढके हुए तख़्तों वाले कमरे में खिसक लीं और गावतकिए से टिक कर बैठ रहीं।

इस अदा से दारोग़ा जी ने समझ लिया कि बेगम अपनी बात से एक इंच भी इधर-उधर होने वाली नहीं।

और वो दिल-ओ-जान से उनकी बात तस्लीम करते हुए थाने में पहुँच गए।

रिपोर्ट रजिस्टर में दर्ज न हुई।

अपनी इज़्ज़त का मामला था।

दारोग़ा जी ने चुप चुपाते भालू को बरामद करने का तहय्या करलिया था लेकिन बेचारी अल्लाह रखी को इसका क्या इल्म होता।

उसके कलेजे में तो आग भड़क रही थी।

बिछड़ी हुई सारसनी की तरह डोल रही थी।

हर तरफ़ मुँह उठाकर पुकार रही थी।

अरी भालू तुझे मौत क्यों न आगई।

कैसे दुखों से पाला, ख़ुद अच्छा न खाया तुझे खिलाया।

पाल-पोस कर सांड कर दिया।

अरे इन बालिश्त-बालिश्त भर की छिछड़ियों के सामने कमाई को कमाई नहीं समझा।

आने-जाने वालों की बग़ल से उठ-उठ कर दूध पिलाया और बातें सुनीं।

यही तो ज़िंदगी का आसरा थीं।

और अब जबकि बुढ़ापा आया तो दुनिया यूँ अंधेर हो गई।

अनवरी फ़रमांबरदार सही पर कुतिया का जन्म लेकर आई थी।

बच्चों पर बच्चे।

लाख-लाख इलाज करो।

पचासों रूपये जीना दाई खागई मगर बात न बनी और बची भालू, जो बुरे वक़्त में माँ का सहारा बनती।

उसका ये हाल कि आए दिन कमबख़्त मारी लौंडों लाड़ियों की तरह घर से भाग रही है।

इसका मतलब तो ये हुआ कि अल्लाह रखी किसी के घर बरतन मांझ कर पेट पाले?

अपना ही पेट होता तो ख़ैर मगर यहाँ तो खाने वाले कितने थे।

अल्लाह रखी, पहलवान, अनवरी के तीन लड़के और फिर अनवरी भी तो...

अब ऐसे दिनों में जबकि उठने-बैठने में बेचारी की साँस फूलती तो उसे कोई कहाँ ढकेल देता।

पूरे दिनों से बैठी थी।

चेहरा एक दम सफ़ेद खरिया मिट्टी, होंट नीले, आँखें मारे नक़ाहत के ख़ाली-ख़ाली।

इसपर से उसका छोटा बच्चा अभी तक ख़ाली छाती चिचुड़ने से बाज़ न आता था।

सारी जान खिंचने लगती।

अभी दो एक महीने पहले तक वो हँस-बोलकर किसी न किसी से अठन्नी चवन्नी तो झटक ही लेती मगर अब तो उसे मारे बोझ के हँसी तक न आती थी।

और इस ज़माने में भालू फिर चलती बनी।

हाय सचमुच बुरा ज़माना लगा है।

नफ़सी-नफ़सी है।

ये क़ुर्ब-ए-क़यामत नहीं तो और क्या है?

ये भालू हराम ज़ादी मेरी कमाई पर पल-पल कर जवान हुई और जब एहसान चुकाने के लायक़ हुई तो हर्राफ़ा हमारी कटी उंगली पर मूतती भी नहीं।

तगड़े यारों के पीछे भागती है।

अरे क्या हम कभी इसकी उम्र के नहीं थे।

कभी पैसे के सिवा किसी से कोई लालच नहीं की और एक ये भालू है।

अरे क्या ये भालू जानती नहीं कि अनवरी किसी की कमाई खाने वाली नहीं।

बस ये मजबूरी के दिन सदा थोड़ी रहेंगे।

ये वक़्त निकल जाता तो अपनी जवानी का सदक़ा उसे साल भर बिठाकर रोटी खिला देती।

पर उसे मेरा ख़्याल कहाँ?

अनवरी दरगाह से वापसी पर रेंग-रेंग कर चलते हुए सोच रही थी।

उजड़े क़स्बे का उजड़ा बाज़ार इस वक़्त चराग़ों और लालटेनों की रौशनी में चमक गया था।

कई लोगों ने अनवरी को यूँ चलते देख कर आवाज़े भी कसे और अनवरी शर्म से पानी-पानी होगई।

उसने चुपके से आँख उठाकर देखा।

अल्लाह रखी स्लीपरें घसीटती, गुलाबी छींट का लहँगा घुमाती, घर के दरवाज़े में ग़ायब होगई और अनवरी फिर खौल उठी।

सच है किसी को किसी का ख़्याल नहीं।

अब अम्मां को नहीं मालूम कि मैं भी साथ हूँ।

और ये दिल की प्यास की शलवार भी तो मुसीबत है। अनवरी का जी चाहा कि बीच बाज़ार में एड़ियाँ रगड़-रगड़ कर इस बात पर ख़ूब रोए।

पर वो रो ना सकी।

बस चकराकर एक दुकान के पटिए से लग कर आँखें बंद करलीं।

ए है अनवरी यहाँ क्यों रुक गईं, घर चलो। किसीने धीरे से कहा।

अनवरी ने पसीने में डूबे-डूबे एक ज़रा आँखें खोलीं।

ये ग़ालिबन हफ़ीज़ था।

नहीं ये यक़ीनन हफ़ीज़ था।

ये नर्मी हफ़ीज़ के सिवा किसके हाथ में हो सकती है?

उसने कमर में दर्द की लहर महसूस करते हुए आँखें थोड़ी-सी खोल कर सोचा और फिर अपना बाज़ू हफ़ीज़ के नर्म हाथ में पकड़ाए अपने घर में दाख़िल हुई...

और अंगनाई में पड़ी हुई खाट पर धम्म से गिर पड़ी...

घर में भी ज़रा देर को सुकून न मिला।

अल्लाह रखी और पहलवान घरेलू और बाज़ारी सियासत पर ज़ोर-शोर से तबादला-ए-ख़्याल कर रहे थे।

ऐ ख़ाला ज़रा अनवरी को देखो।

इसका जी बिगड़ रहा है। हफ़ीज़ ग़ालिबन ज़िंदगी में पहली मर्तबा कड़ी आवाज़ में बोला।

अल्लाह ख़ैर करियो, मियाँ हुजूर का सदक़ा। अल्लाह रखी झपट कर अनवरी के क़रीब आई और झिलंगी खाट में अनवरी के डूबे हुए जिस्म को टटोलने लगी।

जीना दाई को बुलाऊँ बेटा?

ऐं नहीं, बस अब ठीक है जी। अनवरी नक़ाहत से बोली और अल्लाह रखी लम्हा भर रुक कर फिर अपने मोर्चे पर जा डटी।

छपरिया तले बने हुए चूल्हे के पास लहँगा फैलाकर बदस्तूर बैठ गई।

चिलम को हथेलियों में एक ख़ास ज़ाविए से दबाकर एक-दो ज़ोर के कश लिये।

हफ़ीज़ बीड़ी सुलगाता बोला,ख़ाला मैं दुकान पर चला, फिर आऊँगा। अल्लाह रखी ने जवाबन एक-दो कश और लिये।

इस बार लौंडिया आती दिखाई पड़े है।

पूरे दिन भर रहे हैं। अल्लाह रखी ने रूठे हुए पहलवान को ख़ुशख़बरी सुनाई।

हाँ ले ठेंगा।

हुई न हो लौंडिया।

देख लिजियो।

पेशाब से मूँछ मुंडा दूँ जो फिर लौंडा न जने।

छाती पर चढ़ कर कमाई खाएंगे कुत्ते के बच्चे।

तीन क्या कम हैं जो चौथा भी घर देख रहा है।

पतुरिया ज़ात शर्म नहीं आती।

शरीफ़ ज़ादियों की तरह लौंडे जनते। पहलवान अपनी पिंडलियों पर तेल की मालिश करते हुए डकारा।

चल रहने दे निखट्टू।

लौंडे हों या लौंडियाँ।

तेरी कमाई थोड़ी खाएंगे। अल्लाह रखी का पारा एक दम चढ़ गया, अरे हाँ कमबख़्त की नाक भों हर वक़्त चढ़ी रहती है।

जैसे सचमुच का ख़ावंद हो।

खा-खा के सारी कमाई उड़ादी कमबख़्त ने।

है दो कौड़ी का नहीं।

नख़रे लाख रूपये के।

हूँ, बड़ी कमाई है तेरे घर, ख़ुद तो दो कौड़ी की नहीं।

एक लौंडिया कुतियों की तरह साल पीछे जनने बैठ जाती है।

दूसरी मस्तानी हाथी हो रही है।

कमाई के नाम धेला नहीं।

भाग-भाग कर तबर्रुक की तरह बटती है।

तू भी जवानी में ऐसी ही होगी।

बेटी माँ पर जाती है। पहलवान ने चीख़-चीख़ कर कहा।

कहे देती हूँ ज़बान रोक ले।

लो भला मैं क्यों ऐसी होती, जो माँ ने कहा वो किया।

मजाल है जो कभी किसी से माँ की मर्ज़ी के बग़ैर हाथ भी छुआया हो।

अब तो ज़माना ही बुरा है, इसमें किसी का क्या दोष।

दोष क्यों नहीं।

अरी तूने किसी मेरे जैसे के पास एक-बार रखा होता तो सारी मुँह ज़ोरी...

ऊँट पहाड़ तले आए तो बिलबिलाना छोड़दे।

मैंने कितनी बार कहा कि... पहलवान के मुँह पर दिल की बात आगई।

बस-बस शर्म घोल कर पी गया, ले भला कोई देखो तो सही, हाय मरी माँ! अल्लाह रखी चिलम चूल्हे में औँधा कर बेबसी से रो पड़ी।

सचमुच रोने की बात थी।

जब लोग सारे क़ायदे क़रीने पाँव तले रौंदने को तैयार होजाएं तो फिर बेचारी अल्लाह रखी और करे भी क्या।

दो दिन से पैसे कौड़ी की सूरत नज़र न आई थी।

आज तो पंसारी ने आटा दाल भी उधार न दिया था।

भालू जो भागी हुई थी।

अब इसमें बेचारे पंसारी का भी क्या क़सूर जब गिरवी रखने को चीज़ ही न हो तो फिर उधार कोई किस बरते पर दे?

इधर तो पेट की हाय दय्या पड़ी उधर पहलवान पर पहलवानी सवार।

अल्लाह रखी छपरिया तले बैठी दर्द से आँसू बहा रही थी।

अच्छा ख़ासा अंधेरा हो गया था।

अभी तक घर में चराग़ भी न जला था।

पहलवान महाज़ पर ख़ामोशी देख कर लाल लँगोट पर तहबंद बाँधता हुआ बाहर निकल गया।

आज यहाँ रोटी का आसरा न था, फिर बैठ कर क्या करे?

इस बेरुख़ी पर अल्लाह रखी और भी फूट-फूट कर रोने लगी।

एक ज़माना वो था, एक ज़माना ये है। अल्लाह रखी ने रोते हुए सोचा,अम्मां बूढ़ी होचुकी थीं।

दांत टूट रहे थे।

पर ख़ैरू काफ़ी टाठा था।

उसकी ब्याहता के घर दो साल पहले ही बच्चा हुआ था...

मगर अल्लाह-अल्लाह क्या वज़ादारी थी।

उस ज़माने में अल्लाह रखी की जवानी पके फोट की तरह खिल रही थी।

मजाल है जो ख़ैरू क़साई ने कभी अल्लाह रखी की तरफ़ ऐसी वैसी नज़र डाली हो।

बेटी कह कर पुकारा और बेटी ही समझा।

और एक ये पहलवान है, खाने चाटने को आगे-आगे।

नाम करे अल्लाह रखी से यारी का और नज़र रखे उसकी बेटी भालू पर...

आग लगे ऐसे ज़माने को।

नीयतें सलामत नहीं रहीं।

जभी तो हर चीज़ सोने के भाव होगई।

जवान-जवान लड़के क़स्बे से भाग लेते हैं।

कभी बरस दो बरस में फ़ौजी सिपाही बन कर आते हैं या फिर किसी मिल के मज़दूर तो नाक भों चढ़ाते फिरते हैं।

जो इस उजड़े दयार में वो रह गए तो समझो दूर-अंदेश हैं।

अल्लाह रखी के घर क़दम रखते हैं तो पैसे-पैसे पर तकरार करते हैं।

न कोई इनाम न कोई तोहफ़ा।

क़स्बे में सच पूछो तो अब एक अल्लाह रखी का घर ही मुश्किल कुशाई और हाजत रवाई का मम्बा न था।

अब तो चोरी छिपों कईयों के घर फ़ैज़ जारी था।

हाय दूसरों के पेशे में घुसते।

दूसरे के पेट पर लात मारते शर्म नहीं आती लोगों को...

अम्माँ नानी के ज़माने का बना हुआ मकान जगह-जगह से नमक लग-लग कर गिर रहा है।

इतना नहीं कि दो नई ईंटें लग जाएं।

अरे जिसके दो बेटियाँ पहले ज़माने में होतीं तो समझो कहीं की महारानी।

और अब दो बेटियों के होते भिखारिन से बदतर।

आटा रूपये का दो सेर नहीं जुड़ता।

इसपर एक जन्म जली सहरे जलवों वाली शरीफ़ ज़ादी की तरह साल पीछे बच्चा जनती है।

और दूसरी आग लगी दूसरों के पीछे छछूँदर की तरह छिछियाती फिरती है।

और ये पहलवान बस कमबख़्त रोटियाँ ठूँसने बैठ जाता है।

इससे क्या कोई ऐश उठाए।

अल्लाह रखी उमंड घुमंड कर आँसू बरसाने लगी।

अरी भालू तू मरजाए।

किसी कव्वे कुत्ते की आई तुझे आजाए, तो मेरे कलेजे में ठंडक पड़जाए।

अरी भालू मिचमिचाती खटिया निकले।

अरी मय्या मेरी, ये औलाद तो मेरे लिए सांप बिच्छू होगई री मय्या...

और उसी लम्हे तीन अदद औलाद घर के अँधेरे में चें पें करती घुसी।

अल्लाह रखी का रोना पीटना सुन कर ठिटकी।

किसी ने कीचड़ से लत पत कुरते से नाक पोंछी।

किसी ने आँख और किसी ने नाक।

औलाद बड़ी आसानी से समझ गई कि इस वक़्त खाना मिलने की उम्मीद नहीं।

और फिर सबने इकट्ठा रोना शुरू करदिया।

छोटी-छोटी पुरानी ईंटों की गिरती हुई दीवारें एक दम भयानक सी लगने लगीं।

आसमान पर एक तारा चमक कर टूटा।

अनवरी हौल कर चीख़ी,ए है अम्मां, बच्चों वाले घर में शाम को न रो... और उसने जल्दी से हाथ

बढ़ाकर सबसे छोटे बच्चे को घसीट लिया जैसे वो उसे कहीं भागने से रोक रही हो।

अल्लाह रखी इस मुदाख़लत बेजा पर सांप की तरह फनफनाकर उठी, क्या कहा तूने?

लो ये और आई हराम जादी बच्चों वाली।

अरी ये चोंचले तुझे नहीं सजते।

शर्म होती तो डूब मरती किसी तलय्या में।

एक तो हरामी पिल्लों की फ़ौज खड़ी करदी।

इसपर से सदक़े करूँ इस फ़ौज को।

अनवरी ग़रीब सदा की नाज़ुक, कम सुख़न और फ़रमांबरदार मगर इस वक़्त तो वो भी उठ कर बैठ गई, बस-बस अम्मां, ख़बरदार जो मेरे बच्चों को कोसा, वाह ज़रा ख़्याल नहीं।

मेरे बच्चे किसी की रोटी नहीं तोड़ेंगे।

अपनी जवानी का सदक़ा तुम्हें बहुत खिलाया।

अपनी जान को जान नहीं समझा।

बीमारी दुखी में भी कमाई से मुँह नहीं मोड़ा और तुम्हारी मुट्ठी गर्म की।

कोसना है तो उस हर्राफ़ा को कोसो, मेरा नाम लोगी तो मैं अपने बच्चों को लेकर कहीं मुँह काला कर जाऊँगी।

अल्लाह की ज़मीन बहुत बड़ी है।

जहाँ बैठूँगी रूखी सूखी कमा खाऊँगी।

फिर देखेंगे तुम भालू को कैसे मेरी तरह दबा लोगी।

अनवरी की इस ख़ौफ़नाक धमकी के बाद ख़ुदा जाने अल्लाह रखी क्या तूफ़ान उठाती मगर ख़ैर हुई कि उस वक़्त बाज़ार के बहुत से लोग एक लाल पगड़ी के पीछे-पीछे अंदर घुस आए और फिर किसी ने बढ़ कर चराग़ रौशन करदिया।

ये हफ़ीज़ था।

वही शलवार और सुरमई रेशमी क़मीज़ और वही तेल में चुपड़े हुए पट्टे।

सुरमे से लबरेज़ आँखें और पान से सुर्ख़ होंट।

अनवरी को बे-तुका सा ख़्याल बिजली की तरह कौंद कर आया, अरे ये तो मुआ हफ़ीज़ दोस्ती-दोस्ती में हमारे घर घुस कर हमारे गाहक अपने वास्ते फँसाने आता है...

तौबा हफ़ीज़ को अनवरी के इस ख़्याल का पता लगा तो उसके ख़ुलूस को कैसी ठेस लगती...

उसे यही करना होता तो कमबख़्त पनवाड़ी की दुकान से सर क्यों मारता?

ऐ ख़ाला भालू आगई।

मुबारक। हफ़ीज़ ख़ुशी से चहक कर बोला।

और उसी वक़्त मजमे में गप शप शुरू होगई।

भालू को मजमे के बीच में से ढकेल कर थाने का सिपाही सामने लाया।

हाथ रस्सी से कस कर बँधे हुए।

मलमल की वही नई सारी जो वो भागने के वक़्त पहने हुए थी।

पेटीकोट के बजाय सुर्ख़ रंग का जांगिया और वही छोटी-सी कुरती मगर हर चीज़ कीचड़ में लत पत और नुची खुची।

हब्शियों जैसे सख़्त घुंघरियाले बाल, झोंझ की तरह खोपड़ी पर छाए हुए, जैसे उसने सभों से ख़ूब डट कर हाथा पाई की हो मगर अब माँ के सामने नज़र नीची किए खड़ी झूम रही थी।

मारे तंदुरुस्ती के झूमते रहना उसकी आदत थी।

जभी तो सब उसे भालू कहते थे।

आ गई...

अल्लाह रखी ने अपने और भालू के दरमियान एक ऐसी क़तार सी सड़ी-सड़ी गालियों की खड़ी करदी...

और फिर।

चल अंदर ये कह कर उसने भालू का हाथ पकड़ा और कोठरी में धकेल कर कुंडी चढ़ादी।

चलो क़िस्सा ख़त्म।

मजमा बड़ा मायूस हुआ, ज़रा भी तो गर्मा गर्मी न पैदा हुई।

लेकिन अल्लाह रखी की तज्रिबाकार निगाहें समझ गई थीं कि इस वक़्त लोग बातें करने और सुनने के मूड में हैं।

हाँ भई किसी का घर जले और कोई तापे...

अच्छा तापने न दिया हो भला।

अल्लाह रखी तेवरी चढ़ाए चूल्हे के पास गई और चिलम भरने लगी।

जंगल में मानिकपुर की तरफ़ जाती मिली।

मैंने पकड़ लिया। सिपाही मूंछों पर ताव देकर बोला।

अल्लाह रखी चिलम भरती रही।

अब बाँध कर रखो मादर...

को अब कभी चें पें करे तो मुझे बताना।

सारी मस्ती मार-मार कर निकाल दूंगा...

पंसारी टाँग खुजाकर बोला, भाई अल्लाह रखी कम मार देती है?

पिछली दफ़ा भागी थी तो तीन दिन खाना नहीं दिया।

ज़ंज़ीर में बाँध कर रखा, पहलवान ने जूते मारे सो अलग।

बिल्कुल सीधी होगई थी मगर फिर थोड़े दिन में भाग गई...

क्यों अल्लाह रखी?

अल्लाह रखी इतमीनान से ठुमकती आई और चिलम सिपाही को पकड़ा दी और ख़ुद अनवरी के बच्चों को लेकर मटकती हुई छपरिया तले बैठ कर चूल्हा सुलगाने लगी।

मतलब ये कि दरबार बर्ख़ास्त, खाने पकाने का वक़्त है।

लोगों को क्या पड़ी थी कि अपना हर्ज करते।

एक-एक करके खिसक लिये।

सिपाही ने बैठ कर तम्बाकू के दो एक कश लगाए।

अनवरी या तो अब तक मिट्टी के माधव की तरह बैठी थी या सिपाही को अपनी तरफ़ देखते पाकर दोबारा झिलंगा खाट में डूब गई।

उसका छोटा बच्चा दूध चिचुड़े जारहा था।

सिपाही ने उकताकर गोबर जैसी बेमज़ा तम्बाकू के दो एक कश और लिये।

क़तई घरेलू फ़िज़ा थी।

वहाँ वो ज़्यादा देर न टिका।

चलते-चलते सोचा...

आहा भालू है बड़ी...

कल परसों अल्लाह रखी से बात करूंगा।

सिपाही के जाने के बाद अल्लाह रखी लहँगा झाड़ कर उठी और बाहर निकल गई और जब चंद मिनट बाद वापस आई तो दुपट्टे के पल्लू में अरहर की खिचड़ी बँधी हुई थी।

चूल्हे के पास बैठे हुए बच्चों की आँखें आग की रौशनी में चमक उठीं।

अनवरी और अल्लाह रखी में कोई बात न हुई।

अनवरी को अंगनाई में ठंड लग रही थी और नींद भी आरही थी मगर वो जाए कहाँ।

छपरिया तले अल्लाह रखी और कोठरी में भालू...

इस वक़्त तो उसे सभी से नफ़रत हो रही थी।

वो चुपचाप पड़ी ऊँघती रही।

रात काफ़ी गुज़र चुकी थी।

ओ अनवरी उठ ये खाले। अल्लाह रखी तामचीनी की प्लेट में बड़े सलीक़े से खिचड़ी लिए हाज़िर हुई।

नहीं खाना। अनवरी की नाक में घी की ख़ुशबू आई।

उसने जबर करके करवट बदल ली।

खालो अनवरी। हफ़ीज़ इत्र में महकता पट्टी पर बैठ गया, ए हे बेचारी ख़ाला ने अभी तक कुछ नहीं खाया तुम खालो तो... मगर हफ़ीज़ का सुलह का झंडा अनवरी ने पैरों तले रौंद दिया।

नहीं मुझे दूसरे की कमाई सुअर हराम है।

अब तो मैं इस घर में नहीं रहूँगी। अनवरी ने ज़ोर से कहा।

प्लेट में खिचड़ी रखी हुई आम के अचार की फाँक भी कितनी ज़ालिम होती है।

अनवरी ने मुँह का पानी निगल कर दूसरी तरफ़ करवट बदल ली।

अरी तू कहीं नहीं जाएगी।

अब छोड़, तुझे खाना है, सो कहने से खाले। हफ़ीज़ उसे उठाने लगा और उस वक़्त उसे हफ़ीज़ ज़हर लगा, आख़िर ये क्यों हमारे फटे में पाँव अड़ाता है।

मुआ पनवाड़ी अपनी दुकान सँभाले जाकर।

अनवरी ने बिगड़ कर सोचा।

वो हफ़ीज़ के और अपने घराने के गहरे हमदर्दाना तअल्लुक़ात को यकसर भुला बैठी थी।

मगर हफ़ीज़ ने जो कहा वो सच ही था।

उसे कहीं नहीं जाना था।

और खाना तो बहरहाल खाता ही है इंसान, फिर जब कि आम का अचार हो।

बिल-आख़िर वो नींद के झोंकों में प्लेट साफ़ करके छपरिया तले बिछे हुए अपने बिस्तर पर लेट गई।

पहलवान चूल्हे के पास उकड़ूँ बैठा खिचड़ी के बड़े-बड़े निवाले निगल रहा था।

अनवरी को देख कर उसने भालू की जिंसियत के बारे में कुछ गुफ़्तगू छेड़ी मगर अनवरी तो सो भी चुकी थी।

पहलवान सच कहता था अनवरी तो थी ही सदा की मिट्टी, पता नहीं ऐसी मिट्टी पर कौन अपने दाम फेंक जाता है।

आधी रात के क़रीब जब आसमान पर सितारे जगमगा रहे थे और अंगनाई शबनम से भीग रही थी तो बेचारा हफ़ीज़ उल्लाह रखी के मशवरे के मुताबिक़ खिचड़ी की प्लेट और चराग़ लेकर भालू की कोठरी में पहुँचा।

भालू ज़मीन पर पड़ी मज़े से सो रही थी।

उसके हाथ अब तक रस्सी में जकड़े हुए थे।

मलमल की सारी घुटनों से ऊपर थी और सुर्ख़ जांगिया रानों पर बिल्कुल फ़िट था।

हफ़ीज़ को हँसी आगई।

कैसी जंगली है ये भी।

रंडी को मर्दों की क्या कमी।

फिर भी मर्दों के पीछे भागती है।

सच कहता है पहलवान, इसके लिए तो सचमुच भालू ही हो।

मगर बेचारी उसकी ख़ातिर कितनी बदनाम है।

कितने जूते खाती है।

कई बार थाने में भी पिटी।

हज़ार बार तौबा की मगर किया फिर वही।

अल्लाह ये कैसी आग की बनी हुई है?

हफ़ीज़ के दिल में हमदर्दी और हैरानी की एक मिली जुली सी लहर उठी और उसने चराग़ ताक़ पर रख कर भालू को जगाया।

भालू ने लाल-लाल आँखें खोल दीं।

भालू ये खाले, ख़ाला से चुराकर लाया हूँ। भालू मिट्टी कीचड़ में सने हुए हाथों से खिचड़ी खाने लगी।

हफ़ीज़ अपनी सफ़ेद शलवार समेट कर उकड़ूँ बैठ गया और बीड़ी पीते हुए गुफ़्तगू शुरू करने के लिए कोई उम्दा फ़िक़रा तलाश करने लगा।

भालू तू जानती है, मेरा तुझसे कोई मीठा लालच नहीं।

न ख़ाला मुझे कुछ दे देती है।

न तू...

पर कहूँगा सच्ची बात।

भला बता तो सही इस तरह रोज़-रोज़ भागने से क्या फ़ायदा।

दो कौड़ी की नहीं रहेगी।

अब तू ही देख ले ये तो छटी दफ़ा भागी है।

अब की किसके पास रही थी।

ला मुझे दिखा इसने तुझे क्या दिया?

भालू ने एक लम्हे को खिचड़ी पर से हाथ उठा लिया।

अपनी मोटी सियाह रोएं से ढकी हुई पिंडली खुजाकर धीरे से नफ़ी में सर हिला दिया।

सच बता क़दीर बाबू के पास रही थी ना?

तो मिला कुछ नहीं, अरे ये बाबू लोग तो मुफ़्त काम चलाते हैं।

ठीक कहता हूँ ना?

भालू ने इस्बात में सर हिला दिया और खिचड़ी खाती रही।

अरी, सर तो ढाई सेर का यूँ हिलाती है जैसे तुझे पहले ही सब पता था।

फिर तू गई क्यों थी?

बस समझ ले थानेदार दुश्मन होगया कि तू उसके भाई को फँसाती है।

अब यूँ भी उसने तेरे मुँह में कौन-सा सोने का निवाला दिया?

रोटी का निवाला भी पेट भर न दिया।

अबरार के घर कोठरी में बंद करके दिन भर को चला जाता था और शाम को एक-दो रोटी लेकर आता था।

रात भर सोने न देता था।

फिर भी सब्र किया। भालू रुहाँसी होकर आँखें मलने लगी।

अरी दीवानी इस तरह भला रंडियाँ करती हैं।

सब्र करे तेरी जूती।

इससे पहले तू जिनके साथ भागी थी उन्होंने भी दो-चार दिन के बाद घर से निकाल बाहर किया।

अच्छा क़दीर के पास से तू ख़ुद भागी या...?

हफ़ीज़ कुरेदता ही गया।

उन्होंने कहा अब जाओ भालू, भाबी नागिन की तरह फनफना रही है।

मैं वहाँ से चल पड़ी।

अच्छा ये तो बता तू उसके साथ गई किसलिए थी?

हफ़ीज़ उसे दांव पर लाकर चारों शाने चित क़ाइल करने पर तुला हुआ था।

क़दीर बाबू कहते थे भाबी के नख़रे नहीं उठते, सूखी छुहारा तो है पर नख़रे गाड़ी भर दिखाती है।

ये बात थी तो बाबू साहब को अपने घर बुलाती।

ज़रा बाबू साहब की गिरह से कुछ निकलता।

अरे बाबा दो पैसे आने से कम में तो पान भी नहीं मिलता है।

मुझे तो तेरी अक़्ल पर ग़ुस्सा आता है।

मैं तो कहता हूँ अगर ख़ाला से तेरा दिल ख़ुश नहीं तो अलग होजा।

मकान दिलाने का मेरा ज़िम्मा बस ख़ाला का रोज़ीना बाँध देना।

अब बेचारी ख़ाला का भी तेरे सिवा कौन बैठा है?

हफ़ीज़ ने अल्लाह रखी की पूरी-पूरी वकालत की...

भालू ख़ामोशी से खाती रही।

हफ़ीज़ को अपना जादू असर करता मालूम हो रहा था, इसलिए उसकी ज़बान भी क़ैंची की तरह चल रही थी।

क़स्बे भर में उसका कोई संजीदगी से नोटिस तक न लेता था।

इस घर में उसकी बात तो सुनी जाती थी फिर वो क्यों न इस घर को बनाने की कोशिश करता।

सारे मर्द एक जैसे होते हैं कोई सोने या हीरे का बना थोड़ी होता है। हफ़ीज़ ने हज़ार बातों को एक बात में समो दिया।

भालू ने खिचड़ी से हाथ उठाकर इस्बात में सर हिलाया और बड़ी देर तक हिलाती रही और सियाह ताक़ में रखे हुए चराग़ को घूरती रही...

हफ़ीज़ समझा भटका हुआ राह पर लग गया।

चल उठ भालू, ख़ाला के पाँव पकड़ कर माफ़ी मांग और वादा कर फिर कभी किसी मर्द के पीछे नहीं भागेगी।

हफ़ीज़ ने भालू का मोटा सा बाज़ू पकड़ कर खींचा।

भालू चुप रही मगर वो उठी भी नहीं।

बस चुपचाप चराग़ को घूरती रही।

अब किस सोच में पड़गई हो?

भालू फिर भी चुप रही।

हफ़ीज़ तंग आकर अपने सर के पट्टे खुजाने लगा।

ये भालू भी बस साली...!

हफ़ीज! भालू ने धीरे से पुकारा।

हाँ भालू?

हफ़ीज़ ने भालू के सर पर हाथ रख दिया।

भालू की आँखों में जाने कहाँ से एक दम आँसू उबल पड़े।

थाने में एक बार चोरों से बदतर मार पड़ी जब तो आँसू न गिराया और आज पता नहीं कैसी चोट लगी।

हफ़ीज़ बौला कर रह गया।

मैं जिसके साथ भागी, अच्छा किया या बुरा किया।

इस बात को जाने दे।

भालू ने जल्दी-जल्दी आँसू ख़ुश्क किए।

फिर तू क्या चाहती है?

हफ़ीज़ झुँझला गया।

मैं तो सोचती थी मेरे बच्चे हों, मैं भी टाट के परदे वाले घर में रहूँ जैसे तेरी माँ रहती है।

भालू धीरे से बोली।

अच्छा?

हफ़ीज़ को कुछ ग़ुस्सा आया और फिर वो खिसियाकर हँस पड़ा।

वो भालू के मुँह से अपनी बेवा दुखियारी माँ का ज़िक्र नहीं सुनना चाहता था।

हफ़ीज?

हाँ?

तू सचमुच मर्द नहीं?

भालू ने भोलेपन से मुँह उठाकर पूछा।

हफ़ीज़ इस अचानक हमले से लचक गया।

एक लम्हे को उसने सर उठाया और फिर उसकी आँखों में आँसू आगए वो मर्द नहीं तो इसमें उसका क्या क़सूर।

बक़ौल उसकी माँ, अल्लाह देने वाला है जो चाहे दे दे।

मैं तेरी दुकान के लिए छालिया कतरा करूंगी।

तेरी माँ की खिदमत करूंगी हफ़ीज।

मैं बहू बन कर रहूँगी।

हफ़ीज! हफ़ीज!

उसी रात भालू फिर भाग गई।

दूसरे दिन हफ़ीज़ अकड़-अकड़ कर चलता जो दुकान पर आया तो लोग वो सारे घिसे पिटे फ़िक़रे भूल गए।

जिन्हें सुन-सुन कर हफ़ीज़ के कान पक गए थे।

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