भागभरी (कहानी) : हाजरा मसरूर
Bhaagbhari (Story in Hindi) : Hajra Masroor
यह उन दिनों की बात है जब मैंने नयी-नयी प्रैक्टिस शुरू की थी। मेडिकल कॉलेज के ज़माने में मैंने अपनेआप पर रुपयों की कैसी-कैसी बारिश होते न देखी थी। अपने बड़े-बड़े प्रोफ़ेसरों की लम्बी-लम्बी कारें देख आदमी और सोच भी क्या सकता था। मगर जब डिग्री लेकर इस बाज़ार में आयी, तो मालूम हुआ कि गली के अन्दर घटिया से कमरे पर बोर्ड लगाकर बैठने से वही दौलत वापस आनी मुश्किल है, जो बेवा माँ के जेवरात बिक-बिककर फ़ीसों और किताबों पर र्ख़च हुई। आगे चलकर मैंने क्या रुख़ इख़्तियार किया यह एक अलग क़िस्सा है, जिसका ज़िक्र करना इस मौक़े पर ज़रूरी नहीं। हाँ तो उन दिनों जब पहली बार मुझे दूर दराज के एक गाँव में ज़चगी का एक केस करने की दावत मिली तो मैं काफ़ी ख़ुश हुई। बज़ाहिर मैंने मुँह बनाया और अपने तमाम मरीज़ों की परेशानियों का ज़िक्र किया, मगर जब सीधे-सादे मुच्छड़ सन्देशवाहक ने मेरा भाव एकदम बढ़ा दिया, तो मैं फ़ौरन तैयार हो गयी। दो सौ रुपये रोज़ कम नहीं होते। मैं हैरान रह गयी कि शहर की दूसरी चलती हुई डॉक्टरनियों से बचकर यह मेरे पल्ले कैसे पड़ गया।
मैंने जल्दी से अन्दर जाकर माँ से ज़िक्र किया, लेकिन जो ख़ुश होने की बजाय परेशान हो गयी। बोली, "हटाओ, दूर की बात है! जवान कुँवारी लाख डॉक्टर हो, फिर भी..." माँ की इस ‘फिर भी’ से मैं भी परेशान हुई। लेकिन फिर एक तरक़ीब समझ में आ गयी। मैंने अपने छोटे भाई से कहा कि वह दौड़कर साइकिल पर जाये और कॉलेज में कम से कम छह दिन की छुट्टी की दरख़्वास्त दे आये। और साथ ही मैंने घर की पुरानी नौकरानी माई को सफ़ेद शलवार कुर्ता पहनाकर बतौर नर्स साथ चलने पर आमादा कर लिया। जब वापस अपने दवाख़ाने के उजड़े कमरे में गयी तो यह बात भी फ़ौरन तय हो गयी कि नर्स को दस रुपये रोज़ मिलेंगे।
फिर मैंने पूछा कि "वहाँ ट्रेन या बस किस वक़्त जायेगी?"
"कार लाया हूँ।" जवाब मिला।
और मैं यह सोचकर परेशान हो गयी कि देहात से शहर तक पहुँचते-पहुँचते कार कहीं इतनी बेकार न हो गयी हो कि रास्ते में परेशानी उठानी पड़े। लेकिन जब मैं अपने दो मुहाफ़िज़ों के साथ माँ को दुआएँ पढ़ते छोड़कर निकली और गली तय करके सड़क पर आयी तो बिल्कुल नयी कैडिलक देखकर मेरे चेहरे का रंग ज़रूर बदल गया होगा। मैं पछतायी कि मैंने फ़ीस और ज़्यादा क्यों न माँगी।
रास्ते में मेरे छोटे भाई ने कुरेद-कुरेदकर यह मालूम किया कि हम जिला सरगोधा के एक जागीरदार के यहाँ जा रहे हैं। जागीरदारनी की ज़िद थी कि लाहौर से डॉक्टरनी बच्चा जनाने आये। बड़े अरमानों की पहली ज़चगी थी।
कई घण्टे के सफ़र के बाद हम लाहौर से एक दूसरी दुनिया में दाखि़ल हुए। एक छोटे-से गाँव में एक बड़ी-सी हवेली हमारी मंज़िल थी।
बड़ी-सी बैठक के दरवाज़े पर पीली पड़ती धूप में एक दर्जन शिकारी कुत्तों को शाम का राशन बाँटा जा रहा था और दस बारह आदमी उन कुत्तों की जंजीरों से लिपटे हुए थे। हमारे आने पर वे चौंके, लेकिन फिर कुत्तों की ज़ंजीरों पर जुट गये। उसी पीली धूप में, गद्देदार कुर्सी पर मेरे दो सौ रुपयों रोज़ के दाता मलिक गुलनवाज़ आलती-पालती मारे बैठे थे। सफ़ेद नीली सिल्क की तहमद और नीली सिल्क की कमीज़, सिर पर बग़ैर कुलाह की पगड़ी और कलाई पर बाज़। बाज़ मलिक के हाथ पर रखी हुई फाख़्ता के पर बिखेर-बिखेरकर ताज़ा ताज़ा गोश्त नोच रहा था। यह वक़्त बाज़ के रातिब का भी था। कैडिलक के उस मालिक का तसव्वुर मैं ख़्वाब में भी नहीं कर सकती थी, फिर भी उस माहौल से मैं काफ़ी डर-सी गयी थी।
"डॉक्टरनी साहब काफ़ी तकलीफ़ उठायी आपने। मैं आपको ख़ुश कर दूँगा।" मालिक ने गहरी नज़रों से देखते भारी आवाज़ में कहा।
घर के अन्दर दाखि़ल होते हुए मुझे ख़याल आया कि मालिक साहब की सूरत उस बादशाह से मिलती थी जिसकी तस्वीर मैंने स्कूल के ज़माने में किसी किताब में देखी थी। माथे तक पेंच दरपेच बड़ी-सी पगड़ी, घनी मूँछें, कुर्सी पर आलती-पालती मारे और हाथ पर बाज़ बिठाये। बस, माँग क्या माँगता है, कहने की कसर थी।
ज़नानख़ाने का माहौल लिबास और सजावट की तब्दीलियों के अलवा ऐसा ही था, जैसा आमतौर पर हमारे पुराने ठाट के बड़े घरों में होता है। सहन में रंगीन पीढ़ियों पर काफ़ी से ज़्यादा औरतें तहमद और मोटी रेशमी किनारेवाली चादरें लपेटे फ़िक्रमन्द शक्लें बनाये बैठी थीं और एक खेस से ढँके हुए पलंग पर एक बूढ़ी फ़िक्रमन्द-सी बैठी नसवार सुड़क रही थीं मैंने अन्दाज़ा लगा लिया कि ये घर की बड़ी-बूढ़ी होंगी। सचमुच यही मालिक की वालिदा, बड़ी मालकिन थी। मुझे पूरी उम्मीद थी कि वह उठकर मेरा इस्तक़बाल करेंगी, लेकिन वह उम्मीद पूरी न हुई। मैं ठिठकती हुई पलंग के क़रीब रुक गयी।
बूढ़ी मालकिन ने मुझे ग़ौर से देखते हुए दुशाले का पल्लू सरकाकर गरदन से लेकर नाक तक डाल लिया और अब मैं उसकी तेज़ आँखें ही देख सकती थी, जो मुझे सख़्ती से घूर रही थी। मुझे इतना ग़ुस्सा आया कि मैंने जी में दुआ की कि अल्लाह इन सब औरतों को प्रसव-पीड़ा होने लगे।
"मरीज़ कहाँ है?" मैंने अटक-अटककर पूछा। सब औरतें जंगली हिरनियों की तरह गरदनें उठा उठाकर मुझे हैरत से घूरने लगी।
"बीमार कहाँ है?" अबके मेरी भाई ने बहुत ही सख़्त लहज़े में सवाल किया।
"अल्लाह का नाम लो। बीमार यहाँ कहाँ?" एक औरत ने दोनों तरफ़ छिदी हुई नाक की छिपारनुमा कीलें चमकाकर, बड़ी ही कर्कश आवाज़ में जवाब दिया। सबकी दुश्मनी भरी नज़रें मुझी पर जमी थीं।
मैंने समझा, मैं देर से पहुँची हूँ इसीलिए सबकी नफ़रत का निशाना हूँ। शायद बेचारी ख़त्म हो चुकी और मैं अफ़सोस में डूबी हुई दुबारा मालिक की सोफ़ों की ठुँसी हुई बैठक में पहुँच गयी।
"अफ़सोस है मालिक साहब, मैं मरीज़ा को नहीं देख सकी।" मैंने देखा कि इस फ़िकरे से मेरे भाई के चेहरे का रंग यूँ उड़ गया, जैसे उसे सदमा पहुँचा हो। ज़ाहिर है कि मेरे भाई को तालीम के लिए फ़ीस की ज़रूरत भी होती है मगर मालिक साहब के पीले हुए चेहरे पर मुस्कुराहट आ गयी।
ओ फ़्हो डॉक्टरनी साहब, मैंने अभी तक वालिदा से ज़िक्र नहीं किया था कि लाहौर से डॉक्टरनी बुलायी है।
यह कहकर मालिक साहब उठ खड़े हुए और मुझे अपने साथ आने का इशारा किया।
"मगर मालिक साहब अब अन्दर जाने से क्या फ़ायदा।" मैंने गरदन झुकाकर कहा।
"डॉक्टरनी साहब आप बुरा न मानें। दरअसल मेरी वालिदा रस्म-ओ-रिवाज़ के खि़लाफ़ जाना पसन्द नहीं करती। इसीलिए मैंने पहले ज़िक्र करना मुनासिब नहीं समझा।" वह ज़रा शरमाकर बोले और मैं कुछ न समझकर उलझती हुई उनके साथ हो ली।
लेकिन घर के अन्दर पहुँचकर मालिक और बड़ी मालकिन में झक-झक शुरू हो गयी। वह बार-बार मेरी तरफ़ इशारा करके मुँह बनाती और बेटे से कहती, "बीमार, बीमार! हूँ बीमार कहती है।"
यह क़िस्सा मेरी समझ में नहीं आ रहा था। बाद में मालिक ने गहरी नज़रों से मुझे देखकर धीरे-से बताया, "बड़ी मालकिन को आपकी यह बात नागवार गुज़री कि आपने पहले-पहल की ज़च्चा को बीमार कह दिया, ज़चगी, आप जानती है मुबारक चीज़ है। वगै़रह-वग़ैरह।
"वह सामने महल में है।" मालिक ने एक लम्बे कमरे के दरवाज़े की तरफ़ यूँ इशारा किया जैसे इच्छित मोती का पता दे रहे हों और मैं बजाय हँसने के और खिसयाकर रह गयी।
सिर्फ़ एक दरवाज़े वाले लम्बे-से अँधेरे कमरे में ज़च्चा को देखने के लिए मुझे खिड़कियों और रौशनदान ढूँढ़ने के लिए नज़रें दौड़ानी पड़ीं और फिर मायूस होकर मैंने उन औरतों की तरफ़ ध्यान दिया जो उस कमरे में मैजूद थी। एक सिड़ी बुढ़िया, होने वाली माँ का पेट पकड़े पलंग पर चढ़ी बैठी थी और उस जैसी कई औरतें उसके हाथ-पाँव और सिर दबा रही थीं। सबने मुझे इस तरह देखा कि मैंने ज़च्चा की बजाय महल की सजावट देखनी शुरू कर दी। कमरे के हर कोने में बिछे हुए रंगीन पलंग और ख़ूबसूरत खेस, दीवार पर क़िस्म-क़िस्म के बरतन, आईने और पंखे! ‘तो यह महल है’ मैंने सोचा।
ज़च्चा तीस-पैंतीस साल की औरत थी, जो अपने इलाक़े के तमाम ज़ेवरात पहने हुए थी। अगर उसको प्रसव पीड़ा न हो रही होती तो काफ़ी ख़ूबसूरत नज़र आती।
मैंने अपनी माई की तरफ़ देखते हुए कहा कि ज़च्चा को फ़ौरन उस ठुँसे हुए घुटे कमरे से किसी और जगह ले जाया जाये।
माई ने औरतों के सामने तजवीज़ रखी और हुल्लड़-सा मच गया। उँगलियाँ नाक और होंठों पर पहुँच गयी और हुल्लड़ में बड़ी मलकनी हाँफती हुई आ गयी।
मेरी तजवीज़ उनकी आम सहमति से रद्द हो गयी क्योंकि इस क़िस्म का कमरा ज़नानख़ाने का ‘महल’ कहलाता है और ज़रूरी है कि घर की बहू इसी जगह अपने बच्चे को जन्म दे।
"औरतें कमरा ख़ाली कर दें।" मेरी दूसरी तजवीज़ भी नामंजूर हो गयी क्योंकि ग़ैर औरत के हाथ में ज़च्चा को सौंप देना उनके हिसाब से हिमाकत थी, लिहाजा मैंने माई से कहा कि वह ज़च्चा के पाँयती खेस की ओट करें, ताकि मैं मरीज़ा का मुआयना कर सकूँ।
पहली ज़चगी थी। मरीज़ा ने बताया, "बड़ी मिन्नतों-मुरादों के बाद ये दिन पूरे हुए है, वरना पहले तो कभी नौ महीने पूरे ही न होते। एक फ़कीरनी कहती थी, एक जान रहेगी-माँ या बच्चा। मेमसाहब, दोनों को बचाओ। बड़ा ईनाम देंगे। ख़ुश कर देंगे।
मरीज़ा दर्द और ख़ौफ़ से सफ़ेद हो रही थी। मैंने उसे तसल्ली दी और कहा कि सब ठीक है। यह सुनकर कृतज्ञता से मरीज़ा के आँसू निकल आये और नाक बह आयी। रूमाल से उसके आँसू पोंछ चुकने के बाद नाक पोंछने में बड़ी दिक्कत हुई क्योंकि हीरे की बड़ी-बड़ी कीलों से नथुने ढँके हुए थे।
मैंने देने को तसल्ली दे दी, मगर यह क़िस्सा सुनकर ख़ुद परेशान-सी हो गयी। पक्की उम्र की औरत की औलाद ज़रा मुश्किल से होती है और फिर ज़च्चा को दर्द भी बड़े बेतुके थे और बच्चे की दिल की हरकत सुस्त। मैंने अल्लाह मियाँ से दुआ की कि इज़्ज़त रख लेना, वरना वापसी के लिए कैडिलक तो क्या ख़ाक मिलेगी।
रात आ गयी। औरतें उसी तरह आपस में बोलती रहीं और बारी-बारी मरीज़ा का जिस्म दबाती रही। माई ने एक दफ़ा चुपके से कहा कि मैं भी मरीज़ा का पेट पकड़ लूँ, क्योंकि औरतें कहती हैं, यह डॉक्टरनी मुफ़्तख़ोरी है, हाथ धरे बैठी है। मैंने माई के हुक्म की तामील की।
जब मरीज़ा ज़ोर-से कराहने और होंठ काटने लगी, तो मैंने सब औरतों से बाहर निकल जाने को कहा। लेकिन कई औरतें लपकी और पलंग के पास दो ईंटें रख दी फिर सब मिलकर ज़च्चा को उठाने लगी, ताकि वह ईंटों पर उकड़ूँ बैठ जाये।
बिस्मिल्लाह ख़ैर अल्लाह। मरीज़ा उनके हुक्म की तामील कर रही थी और मैं सूरते हाल देखकर ख़ौफ़ से चीख़ पड़ी।
सब छोड़ दो। भाग जाओ यहाँ से। तुम सब इसे मार डालोगे।
औरतें इस दख़लअन्दाज़ी पर हुल्लड़ मचाने लगीं। माई ने मरीज़ा को बाजुओं से पकड़कर लिटा दिया और मजबूरन बग़ैर किसी ओट के बच्चे को सबके सामने पैदा करना पड़ा। बच्चा कमज़ोर-सी आवाज़ में रोने लगा।
मुबारक सलामत का शोर उठा और बाहर से जितनी औरतें अन्दर आ सकती थी आ गयी। बाक़ी दरवाज़े से अन्दर झाँकने की कोशिश करने लगी। मैं देख रही थी कि इस वक़्त ज़च्चा की हालत ख़राब है। मैंने ब्लीडिंग कम करने के लिए उसे इंजेक्शन कुहनियों के टहोकों के दरमियान दिया। सुई देखकर कई औरतें दर्द से कराह उठीं। ज़च्चा को गश आ गया था। अचानक बाहर बन्दूक़ों से फायर होने लगे और फिर ढोल नफीरियाँ बजने लगी। इसके बाद रस्मों और शगुनों का एक लम्बा सिलसिला शुरू हो गया और कई बार मेरा ध्यान ज़च्चा की तरफ़ से हट गया।
ज़ाहिर है कि मेरे लिए ये सारी चीज़े दिलचस्प थीं मगर यह अजीब बात थी कि उस घर में मौजूद तमाम लोगों का रवैया अभी तक मेरे लिए दोस्ताना नहीं था। हालाँकि मैंने कई रस्मों में दूसरी औरतों की देखा देखी रुपये भी दिये, चूँकि मुझे क़दम-क़दम पर ज़च्चा और बच्चा की ज़िन्दगी की ख़ातिर उनसे झगड़ना भी पड़ता था, इसलिए मेरी दिलजोई ऊपर ही ऊपर गयी।
रात भर ढोल बजी। ज़च्चा को पूरी नींद लेनी चाहिए थी क्योंकि उसे बुख़ार था। मगर वह उस हंगामे में इतनी दिलचस्पी महसूस कर रही थी कि मैं मजबूरन ख़ामोश रही। सुबह, जब मैं नाश्ते के लिए मालिक साहब के बुलावे पर बैठक में गयी तो मेरे भाई ने बताया कि बाहर भी रातभर आतिशबाज़ी छूटी और मलिक के सैकड़ों खेतिहरों ने नाच गाकर सुबह की। मालिक साहब को बच्चे की पैदाइश पर बड़े तोहफ़े मिले। मैं उन तोहफों वाली रस्म पर काफ़ी हैरान हुई।
लेकिन दूसरे दिन मेरी हैरानी शदीद ख़ौफ़ में तब्दील हो गयी, जबकि यह वाक़या हुआ।
एक तो सर्दी का ज़माना, उस पर से सवेरे से ही बादल आने शुरू हो गये। मैं नहाना चाहती थी, क्योंकि मुझे अपने जिस्म पर मनों गन्दगी लिपटी हुई मालूम हो रही थी। यह तो मैंने बिल्कुल तय कर लिया था कि इस घर में मेरी सबसे तनातनी है, इसलिए मैंने नहाने के लिए गरम पानी किसी से तलब न किया। रात भर की जगायी के बाद और बुखार की शिद्दत से थोड़ी नींद लेने के बाद ज़च्चा ने मेरी तरफ़ करवट ली और उसकी आँखें हीरे की कीलों के साथ चमकीं तो मैंने उससे कहा "क्या नहाने के लिए गरम पानी मिल जायेगा।"
"बिस्मिल्लाह ज़रूर नहाओ जी।" और फिर उसने मुस्कुराकर बच्चे को घेरे बैठी औरतों में से एक से कहा, "भागभरी से कहो कि मेमसाहब के लिए पानी गरम कर दें।"
ज़च्चा को इंजेक्शन देने के बाद मैंने माई से कहा कि सूटकेस से मेरे कपड़े निकाले।
"कपड़े तो जी, तुम्हें मेमसाहब, हम ईनाम में देंगे।" ज़च्चा ने मीठी अदा से मुस्कुराकर कहा।
और मुझे बहुत बुरा लगा। ख़ुदा जाने, वह गँवार मलकनी मुझे कोई दाई खि़दमतगार समझती है, जो बेटा जनने की ख़ुशी में जोड़ा देगी।
"हम डॉक्टर हैं मलकनी, अपनी मुक़र्रर की हुई फ़ीस लेते हैं, जोड़े नहीं।" मैंने गुरूर से मुँह बनाकर जवाब दिया और वह हैरत से मुझे देखने लगी।
"मेमसाहब तुमने हमारी खि़दमत की है। फिर हम सभी को कुछ देंगे। अल्लाह ने यह दिन दिखाया है।"
"अच्छा, अच्छा मेरी माई को दे देना। मैं तो..."
इतने में एक दस बारह साल की लड़की भदर-भदर अन्दर आ गयी। ख़ूबसूरत, तन्दुरुस्त, चम्पई-सा रंग, माथे पर महीन गुँथी हुई मेढ़ियों की मेहराब, कानों में चाँदी के बुन्दे। यह भागभरी थी।
"हम इसे भी जोड़ा देंगे, बेटा जो हुआ है।" ज़च्चा मुझे अपनी बात पर कायल करने पर तुली हुई थी।
और भागभरी मुझे देखकर एकदम शरमाने लगी।
"पानी रख दिया भागभरी? मेमसाहब को ग़ुस्लख़ाने ले जाओ।" ज़च्चा ने उससे कहा और मैं नहाने चली गयी।
नहाते हुए मैं झल्ला-झल्लाकर सोचती रही कि कैसे लोग हैं किसी की पोजीशन तक को नहीं जानते। जोड़ा देगी मुझे, हुँह।
जब मैं नहाकर, सिर पर तौलिया लपेटे निकली तो गीले बाल सुखाने के लिए सहन में बैठकर आती जाती धूप में सियाने लगी। भागभरी ने किसी कोने से मुझे देखा और दौड़कर मिट्टी के कंकारोंवाली अँगीठी लाकर मेरे पास रख गयी। उस वक़्त भागभरी मेरे दिल को भा गयी।
घर में बड़ी चहल-पहल थी। औरतों पर औरतें उमड़ी चली आ रही थी। उस वक़्त फिर गाने बजाने का प्रोग्राम था।
अचानक मलिक साहब खाँसते-खाँसते जनानख़ाने की तरफ़ आये। मुझे गहरी गहरी नज़रों से देखा। ज़च्चा-बच्चा के बारे में एक-दो बातें दरयाफ़्त कीं और फिर बड़ी मालकनी की तरफ़ चले गये। चन्द मिनट बाद वह दुबारा बाहर चले गये।
"भागभरी! भागभरी! मलिक जी नहायेंगे, तौलिया बाहर गुस्लख़ाने में रख आ।" बड़ी मलकनी ने हुक्म दिया।
और भागभरी उसी तेज़ी से भदर-भदर भागती हुई मर्दाने गुस्लख़ाने की तरफ़ चल दी।
गाने बजाने की तैयारियों को देखकर मैं बोर होने लगी। मैं इत्मीनान से सो जाना चाहती थीं मेरे ख़याल में ज़च्चा को भी सुकून से सो जाना चाहिए था। लेकिन कोई बस न चला। मैंने उस वक़्त सोचा कि किसी पश्चिमी लेखक का कौल है कि "देहात सेहतबख़्श क़ब्र हैं।" मगर मेरे अल्लाह यह क़ब्रें कितनी शोर भरी हैं। कितनी ज़िद्दी हठीली लाशें। कितना साम्य है। मैं तो हूँ ही शहर का कीड़ा, मगर शर्त बदकर कह दूँ की शहर की मुर्ग़ी या कुत्ते तक को यहाँ ले आओ तो साधनावस्था में जाकर जान दें दे। मैं निहायत तल्ख़ी से सोचती रही और बस सोचती रही। मुझे अपने रोज़ के दो सौ रुपयों का ख़याल तक न आया और फिर जैसे साधनावस्था में झोंक दी गयी। दरअस्ल मुझे सख़्त नींद आ रही थी।
अचानक भागभरी रोती घुटती मेरे पास से गुज़री। उसका मुँह सुर्ख़ हो रहा था। एकाएक वह डगमगाई और ज़मीन पर गिर पड़ी। उसका नीला तहमद ख़ून के धब्बों से लाल हो रहा था। मैं दौड़कर उसे उठाने लगी। काँय-काँय शुरू हो गयी और एकदम बावर्चीख़ाने (रसोई) से एक औरत दौड़ती हुई आकर महीन सुरीली आवाज़ में रोने लगी। वह भागभरी की माँ थी।
भागभरी ने फ़ौरन आँखें खोल दी।
"माय! मलिक जी! मलिक जी! माय।" भागभरी ने माँ की तरफ़ हाथ फैलाकर कहा और आँखें बन्द कर ली। फिर माँ ज़ोर-ज़ोर से विलाप करने लगी।
ज़ाहिर है कि क्या हो चुका था। मैं, कुँवारी लड़की, दहशत से काँप रही थी। तमाम औरतें इकट्ठा हो गयीं। माई मुझे कँपकँपाती देखकर सहारे से ज़च्चावाले कमरे में ले आयी। अचानक सहन में बड़ी मलकनी की दबंग आवाज़ शोर करने लगी।
माई दोबारा टोह लेने बाहर चली गयी। मैं सुन्न-सी बैठी रही।
थोड़ी देर बाद ज़रा-सी ख़ामोशी छा गयी। ज़च्चा अब तक आँखें फाड़े बाहर की आवाज़ों पर कान लगाये हुए थी।
जब माई बाहर से आयी, तो उसने चुपके-चुपके क़िस्से को संक्षिप्त करके सुनाया कि बड़ी मलकनी भागभरी की माँ को रोक रही थी कि बच्चे वाले घर में रोना मत डालो। लेकिन वह अपनी बच्ची की हालत पर विलाप करती ही रही तो बड़ी मलकनी आपे से बाहर हो गयी, कि तेरी लड़की ख़ुद मस्तानी हुई है। तौलिया रखकर वहाँ रुकी क्यों? मर्द है, क्या करें? और यह भी कहा कि बड़ी बेटी की इज़्ज़त की दुहाई देने आयी। वह दिन भूल गयी जब तेरा खाविन्द खेतों पर होता था और तू मलिक जी की बैठक में होती थी। भागभरी की माँ ने रो रोकर अपने बराबर वालियों से फ़रियाद की, तो बड़ी मलकनी और भी जल गयी कि देखें कौन है मरियम की बीवियाँ जिन्हें तू पुकार रही है। इस पर धीरे-धीरे ख़ामोशी हो गयी। भागभरी की माँ जब रोने से बाज न आयी तो मलकनी ने उसे धक्के मारकर घर से बाहर निकाल दिया। जाती हुई भागभरी को ले जाना चाहती थी मगर जवाब नहीं मिला, "नहीं जायेगी, आज काम बहुत है हवेली में। सब रिश्ते-नाते वाले जमा है। ऐसी कौन-सी मौत आ गयी है भागभरी को..."
"हाय, लौंडिया ख़ून से तरबतर है! तौबा मेरी! कैसे बेवक़ूफ़ लोग हैं। खामख़ाँ भागभरी की माँ को और ग़ुस्सा दिलाया। वह ऐसे ग़ुस्से में गयी है कि पुलिस लायेगी, देख लेना।"
माई ने ‘समापन’ के तौर पर एक ज़ोरदार आह खींची और सोच में डूब गयी। मैंने डरते-डरते ज़च्चा की तरफ़ देखा। वह ख़ामोश और संजीदा लेटी हुई थी। उसके पहलू में उसका, मिन्नतों और मुरादों का पहला बच्चा, गण्डां और ताबीज़ों से गुँथा पड़ा था।
मैंने सोचा इन्सान के साथ शैतान क्यों लगा हुआ है? अब यह पहला बच्चा देखो और बाप के लिए जेल का दरवाज़ा खुला हुआ है। ख़ैर, चाहे मुझे ज़च्चा पर कितना ही रहम क्यों न आये, मैं तो सच्ची गवाही दूँगी। भले ही मुझे दो सौ रुपये रोज़ के न वसूल हों।
इसके बाद बाहर सहन में ज़ोर-ज़ोर से ढोल ढमकने लगे और किसी बोल के गीत गूँजने लगे।
मैं उस मौक़े पर ढोल की आवाज़ से हौल गयी। गीत के बोल सुनकर उदास लेटी हुई ज़च्चा को जैसे होश आने लगा। और उसने मेढियों से गुथा हुआ-सा आहिस्ता से बच्चे पर झुका दिया और उसे हौले से चूमकर रहस्यात्मक ढंग से मुस्कुराई। ऐसी एहतियात भरी मुस्कुराहट, जैसे वह मकड़ी के जालों जैसी हो और वह डर रही हो कि कहीं कोई तार टूट न जाये।
मैंने एक आह भरकर कहा "बच्चे की क़िस्मत भी कैसी है।"
"नसीबों वाला है, जीवे मेरा लाल।" ज़च्चा ने चौंककर जवाब दिया। मैंने सोचा, ‘मुझे बच्चे के बारे में ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए थी। माँ का दिल बड़ी से बड़ी मुसीबत और तबाही की ज़िम्मेदारी भी अपने बच्चे पर नहीं डालेगा।’ मगर फिर भी मैंने क़ानून के बारे में अपनी जानकारी सबकी सब उसके सामने उगल दी।
वह ताज्जुब और ख़ौफ़ से आँखें फाड़े मेरी बातें सुनती रही और फिर एक लम्बी साँस लेकर बच्चे को चूमने लगी।
बुखार से या न जाने क्या सोचकर ज़च्चा का चेहरा सुर्ख़ हो रहा था। मैं ख़ामोश हो गयी। हवेली की अँगनायी में ढोल के साथ गीतों के बोल लहराते रहे। एक औरत अन्दर आयी और उसने ज़च्चा पर झुककर कुछ कहा, जो मैं न सुन सकी।
मैंने ज़च्चा का टेम्परेचर लिया। बुखार और भी तेज़ हो गया था। बच्चे को भी बुखार था। मैं अब यहाँ से जल्द से जल्द छुटकारा पाना चाहती थी। होने को तो यह भी हो सकता था कि मैं दवाएँ देकर रुख़सत हो जाती, मगर मुझे अपने पाँव में एक ज़ंजीर-सी बँधी मालूम हो रही थी। ज़ाहिर है यह ज़ंजीर कौन-सी थी?
थोड़ी देर बाद वही औरत आयी, ज़रा पहले ज़च्चा से खुसुर-पुसुर कर गयी थी। अब उसके साथ भागभरी थी। भागभरी की आँखों में वह शर्म नहीं थी जो पहली बार इस कमरे में आते हुए उसकी आँखों में देखी थी। वह किवाड़ का सहारा लिए चुपचाप मेरी तरफ़ देख रही थी।
"मेमसाहब इसका भी इलाज करो।" ज़च्चा ने गिड़गिड़ाते हुए कहा और मैं उस देहाती जागीरदारनी की महानता के सामने सन्नाटे में आ गयी।
भागभरी की तकलीफ़ का जो भी इलाज मुमकिन था, मैंने किया। भागभरी उस वक़्त कितनी भावनाविहीन हो रही थी।
एक दिन और गुज़र गया। दूध उतरने की वजह से ज़च्चा का बुखार बहुत तेज़ हो गया। वह बार-बार अचेत-सी हो जाती। लेकिन उसी दिन मैं वापस चल दी। शायद मैं ज़च्चा की हालत देखकर एक दिन और रुक जाती लेकिन उसी दिन चल देने में मेरी माई का शदीद इसरार शामिल था।
क़िस्सा यूँ हुआ कि सुबह-सुबह अपने भाई के साथ क़ीमती सोफ़ों से ठुँसे दीवानख़ाने में मुर्ग़ और पराठों का नाश्ता कर रही थी और मलिक साहब मुझे ज़च्चा बच्चा की ख़ैरियत पूछ चुकने के बाद बाहर धूप ले रहे थे। उनके शिकारी कुत्तों को सुबह का रातिब बाँटा जा रहा था। क़रीब ही कहीं ढोल नफीरियाँ बज रही थी। और उस लम्हे में मैंने तय किया कि दो एक दिन और रहना चाहिए, पैसे बन रहे हैं।
इस लम्हे के बाद क़रीब के मकान की ओट से निकलकर भागभरी की माँ आती नज़र पड़ी। जाड़े की धूप में उसका स्याह तहमद, सुर्ख़ लम्बा कुर्ता और गहरी जर्द चादर चमक रही थी। वह धीमी चाल से चल रही थी। उसके सिर पर एक बड़ा थाल था, जो गोटे लगे सुर्ख़ दुपट्टे से ढका हुआ था उसके पीछे और भी कई औरतें थी। वह भी कुछ न कुछ सिर पर उठाये हुए थीं। और मर्द भी थे। कुछ लोग नाच रहे थे और कुछ ढोल नफीरियाँ बजा रहे थे। भागभरी की माँ के नेतृत्व में यह जुलूस बिल्कुल क़रीब आ गया। रातिब पर झगड़ते हुए कुत्ते भौंकने लगे। ढोल की धम-धम और उचकते फाँदते मर्दों की हाव हू से मलिक साहब के हाथ पर बैठा हुआ बाज़ एकदम उड़ा और अपनी जगह पर आ बैठा।
और सबके बाद अकड़ते बरतते घोड़े की लगाम एक शख़्स की तरफ़ उछालकर थानेदार मलिक साहब की तरफ़ बढ़ा।
हवेली की ड्योढ़ी से औरतें सैलाब की तरह बाहर आ गयीं। बहुत-सी रेशमी कपड़ों वालियाँ दीवानख़ाने में भी घुस पड़ी। मेरा भाई घबराकर बाहर निकल गया और मैंने औरतों के हुजूम में धक्के खाते हुए देखा कि भागभरी की माँ ने थाल उतारकर मलिक साहब के क़दमों के क़रीब रख दिया।
"बच्चे के कपड़े आये हैं।" का शोर अन्दर से बाहर तक बरपा था। मैं एकदम माई को ढूँढ़ने अन्दर भागी। आँगन ख़ाली था। ज़च्चाख़ाने में ज़च्चा पलंग पर बैठी हुई थी और भागभरी की मेढियाँ उसके हाथ में थीं और उसका चेहरा बिल्कुल वैसा ही हो रहा था जैसे वह प्रसव पीड़ा से ग्रस्त हो। मुझे देखकर वह चौंक पड़ी।
"बदतमीज़ ने पानी बिस्तर पर गिरा दिया।" वह मुझसे मुख़ातिब हुई।
और उसका चेहरा यूँ शान्त और खिला-सा हो गया जैसे वह अभी-अभी बच्चा जनकर फारिग़ हुई हो। भागभरी के दोनों गालों पर उँगलियों के सफ़ेद निशान उभरे हुए थे और बिस्तर या कमरे में पानी का नाम तक न था।
मैंने जल्दी से माई को ढूँढ़कर उससे खुसुर-पुसुर की। उसने भी मेरे साथ बातें की और हम फ़ौरन चलने को तैयार हो गये। मुझे उन पलों में यूँ लग रहा था जैसे मैं अकेले घर में हूँ। ऐसे घर में, जिसकी दीवारें गिर चुकी हों।
घर पहुँचकर तीन दिन के छह सौ रुपये माँ के हाथ पर रखते ही बड़े ज़ोर की बहस शुरू हो गयी। सही या ग़लत? मतलब यह कि मैंने फ़ौरन चले आने में हिमाक़त की या नहीं। माँ कहती, बिल्कुल ठीक किया। भाई कहता, बिलावजह घबराकर भागीं।
इससे पहले कि इसका कोई फ़ैसला हो, मैं यह बता दूँ कि कुर्ता टोपी के जिस जुलूस की अगुवाई भागभरी की माँ कर रही थी, वह थानेदार के घर से आया था।