बेसुरे स्वर (कहानी) : गुरुदत्त
Besure Svar (Hindi Story) : Gurudutt
रमेश बहुत ही उदार और उन्नत विचारोंवाला युवक था । उसने विवाह तभी किया , जब उसने अनुभव किया कि
अब वह अपने परिवार का भली प्रकार भरण- पोषण कर सकता है । उसने अपनी पत्नी का चयन भी अपनी
इच्छानुसार किया । वह स्वयं रेलवे विभाग में डिप्टी ट्रैफिक ऑफिसर था और जिस कन्या का उसने चयन किया
था , वह रेलवे कर्मचारियों के कन्या विद्यालय में अध्यापिका थी । उस लड़की का नाम था नीला जोसफ । नाम से
ही स्पष्ट है कि वह भारतीय ईसाई थी ।
विवाह से पूर्व दोनों ने निर्णय किया था कि दोनों अपने - अपने संप्रदाय पर स्थिर रहेंगे और कोई भी एक - दूसरे के
संप्रदाय और जीवन -मीमांसा के विषय में कुछ नहीं कहेगा। वास्तव में रमेश किसी भी पंथ का अनुयायी नहीं था
और इस कारण वह अपनी पत्नी के ईसाई- पंथिक व्यवहार में असीम आस्था पर हँसी करता था । नीला जब भोजन
करने बैठती, तो भोजन प्रारंभ करने से पूर्व कुछ क्षणों तक वह आँखें मूंदकर होंठों में कुछ बुदबुदाया करती । रमेश
को इससे हँसी आया करती थी । नीला नियमित-रूपेण गिरजाघर भी जाया करती थी । इस पर भी वे दोनों परस्पर
बहुत प्यार से रहते थे । इस प्रकार वे प्रसन्न थे ।
विवाहित जीवन के दो वर्ष बाद उनके घर में प्रथम संतति हुई , यह कन्या थी । जीवन का प्रथम विवाद हुआ
इसके नामकरण पर । नीला चाहती थी कि उसका नाम रोजी रखा जाए और रमेश का चयन था ललिता ।
नीला ने पूछा , " रोजी नाम रखने में तुम्हें आपत्ति क्यों है ? "
" इसलिए कि यह शब्द अंग्रेजी का है और हम भारतीय हैं । "
"किंतु भारत की कोई भाषा तो है नहीं ? "
" वाह, है क्यों नहीं ? देखो, सभी भारतीय भाषाओं का आधार संस्कृत है, अतः संस्कृत ही भारत की भाषा कही
जाती है । "
" मैं संस्कृत नहीं जानती । "
" कोई बात नहीं । हम नित्य ही उसके रूप का प्रत्याख्यान करते रहते हैं । ललिता उसी भाषा का शब्द है । "
" फिर भी मुझे रोजी नाम बहुत पसंद है । "
" और मुझे ललिता । "
" देखिए , हमने विवाह के पूर्व निर्णय किया था कि हम एक - दूसरे के मामलों में कोई दखल नहीं देंगे । "
" यह तो ठीक है । मैं तुम्हारे किसी भी मामले में दखल नहीं दे रहा, परंतु लड़की तो मेरी भी उतनी ही है, जितनी
तुम्हारी । "
इस प्रकार अंत में यही निर्णय हुआ कि नीला उसे रोजी नाम से पुकार सकती है और रमेश ललिता के नाम से ।
रमेश समझता था कि यह पंथिक विजय नहीं । यह तो जातीय बात है ।
दूसरे बच्चे के नामकरण के अवसर पर भी ऐसा ही हुआ । कन्या के जन्म के दो वर्ष पश्चात् उनके घर में एक
पुत्र उत्पन्न हुआ। पिता ने उसका नाम सुरेश रखा और माता ने जॉन ।
इससे भी बड़ा झगड़ा बच्चों के सर्वप्रथम स्कूल भेजने पर हुआ । रमेश चाहता था कि ललिता को किसी हिंदी
स्कूल में भेजा जाए और नीला बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में भेजना चाहती थी । नामकरण की भाँति यह बात इतनी
सरल नहीं थी । बच्चों की शिक्षा पर ही उनके जीवन का आधार होता है और नीला इस विषय में मान नहीं सकी ।
उसने कहा, " मैं नहीं चाहती कि मेरी बच्ची दास - जाति की भाषा तथा चलन सीखने में अपने समय का अपव्यय
करे । "
यह तो रमेश के लिए भी सहन करना कठिन हो गया । उसने कहा , " इसका अभिप्राय तो यह हुआ कि तुमने
एक दास- जाति के व्यक्ति के साथ विवाह किया है? किसी दास से प्रेम करना अथवा उसके द्वारा प्रेम किया
जाना तो बड़ी लज्जास्पद बात है ? "
"किंतु तुम तो हर समय मुझसे अंग्रेजी में ही बात करते हो । "
" कुछ भी हो । मैं हिंदुस्तानी हूँ और चाहता भी यह हूँ कि मेरी संतान भी वैसी बने । तुम स्वयं को भारतीयों से
कुछ उच्च समझती हो और यह अच्छा होता कि तुम अपने से निन्न श्रेणी के व्यक्ति से विवाह न करतीं । "
“किंतु मैं तो तुमसे प्यार करती थी और अब भी उसी तरह प्यार करती हूँ । कोई अपने से निन्न श्रेणी के व्यक्ति
को प्यार क्यों नहीं कर सकता ? मैंने तो तुम्हें हर प्रकार से अपने बराबर ही समझा है । यह तो हमारे बच्चों के
भविष्य की बात है । तुम उन्हें कैसा बनाना चाहते हो । मेरी तो इस विषय में आकांक्षा है कि वे डॉक्टर बनें , प्रोफेसर
बनें , इंजीनियर बनें या कम - से - कम किसी सरकारी विभाग में ऊँचेपद पर तो अवश्य ही प्रतिष्ठित हों । "
" जो तुम्हारी आकांक्षा है, मैं उसका विरोध नहीं करता । मैं केवल यह चाहता हूँ कि मेरी संतति को व्यावसायिक
शिक्षा के अतिरिक्त भारतीय संस्कति , सभ्यता एवं जीवन मीमांसा का प्रशिक्षण भी भली- भाँति प्राप्त हो , किंतु जिस
प्रकार तुम चाहती हो , वैसे यह संभव नहीं है । "
इस प्रकार दोनों किसी बात पर सहमत नहीं हो सके । इस कठिनाई से निकलने का एक ही मार्ग रह गया कि
पत्नी को स्वंतत्रता दी जाए कि वह लड़की को जिस प्रकार चाहे बनाए और पति लड़के को जैसा बनाना चाहे बना
ले । इस प्रकार घर में दो धड़े बन गए । एक का झुकाव भारतीयता की ओर था और दूसरे का पाश्चात्य सभ्यता की
ओर ।
रमेश का सदा यही यत्न रहता था कि दोनों में किसी प्रकार समझौता हो जाए , किंतु नीला के मस्तिष्क में यह
बात समाती ही नहीं थी कि पश्चिमी जीवन - मीमांसा में कोई सुधार भी हो सकता है ।
इस प्रकार वर्ष बीतते गए और इसके साथ दो धड़ों की खाई भी बढ़ती ही गई , किंतु इस पर भी पति - पत्नी को
जो चीज साथ रखे हुए थी, वह था उनका तारुण्य और यौन- आकर्षण, और यह भी शीघ्रता से कम होता जा रहा
था । अंत में एक दिन वह अपेक्षित संकट भी आ उपस्थित हुआ ।
ललिता की आयु इक्कीस वर्ष की हो गई थी और अन्यान्य ईसाई कन्याओं की भाँति वह भी स्टेनोग्राफर बन
गई । उसको रेलवे के ऑडिटर जनरल की पी . ए. की नौकरी मिल गई और निरंतर उसके साथ निरीक्षण व प्रवास
पर रहने लगी ।
सुरेश ने बी. ए. करने के बाद इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश ले लिया था । एक दिन सहसा वह घर आया और
रोजी के विषय में अपनी माँ से पूछने लगा, " माँ, जानती हो ललिता कहाँ है ? "
" हाँ, वह अपने अफसर के साथ प्रवास पर है । "
" किंतु वह तो यहीं इसी नगर में है!
इससे उसकी माँ को कुछ चिंता हुई । उसने ऑडिटर जनरल को फोन कर अपनी लड़की के बारे में जानना
चाहा । वहाँ से उत्तर मिला कि पिछले चार दिन से वह लापता है । नीला ने जब उसे यह कहा कि चार दिन पूर्व वह
यह कहकर घर से चली थी कि वह प्रवास पर जा रही है, तो उस ऑफिसर ने बताया कि एक सप्ताह से तो वह
कहीं गया ही नहीं । तब नीला ने अपने लड़के से पूछा कि उसको वह किस प्रकार विदित हुआ कि लड़की अपने
काम पर नहीं गई है ।
लड़के ने बताया कि उसने उसको किसी अपरिचित व्यक्ति के साथ रेलवे स्टेशन पर देखा है ।
जब रमेश को इस स्थिति से अवगत किया गया, तो वह केवल हँस दिया और उसने सुरेश को कहा, “ सुरेश ,
तुम्हें ललिता के विषय में चिंता करने की आवश्यकता नहीं । मैं जानता हूँ कि क्या होनेवाला है । मैं चाहता हूँ कि
तुम अपनी बहिन का विचार छोड़ स्वयं भद्र पुरुष बनो । "
नीला ने जब रमेश से कहा कि ललिता के विषय में पता लगाया जाए तो उसने कह दिया, “ यह सब व्यर्थ है ,
उसको शिक्षा ही इस प्रकार की मिली है कि जिससे वह स्वच्छंद हो विचरण करे । मुझे यह भी विश्वास है कि वह
वापस आ जाएगी । "
बात यहीं पर समाप्त हो गई । रोजी जब वापस आई तो उसके पाँच मास का गर्भ था । माँ निश्चय नहीं कर सकी
कि क्या करे और लड़की चुपचाप अपने कमरे में रहने लगी ।
पिता को जब पता चला कि लड़की वापस आ गई है, तो उसने उस मकान में रहना उचित नहीं समझा । वह
सुरेश और दो अन्य बच्चों को साथ लेकर दूसरे मकान में रहने चला गया । नीला इससे बहुत उत्तेजित हुई और
स्पष्टीकरण के लिए रमेश के पास जा पहुंची ।
रमेश ने कहा , " मैं अपने बच्चों के मन में यह बात नहीं बैठने देना चाहता कि मेरी दृष्टि में भी ललिता का
क्रिया - कलाप उचित ही है । " ।
"किंतु अब उसका क्या होगा?
" कुछ नहीं । उसके बच्चा होगा और वह उसका पालन - पोषण करेगी । "
" क्या तुम्हारे मन में उसके प्रति कोई सहानुभूति नहीं है । मैं तो समझती हूँ कि उसका बहिष्कार करने की अपेक्षा
इस समय उसके पास रहकर उसको सांत्वना दे, प्यार से उचित मार्ग पर लाना अधिक उपयुक्त होगा। "
" मैं तो उसको अभी भी प्यार करता हूँ और अपने मन में उसके लिए गहन सहानुभूति भी रखता हूँ , किंतु इसके
साथ ही केवल उसके लिए अपने अन्य बच्चों से स्नेह नहीं तोड़ सकता । उनके मन में यह धारणा बैठाना भी मूर्खता
होगी कि वे सभ्य जीवन की अपेक्षा ललिता के क्रिया - कलापों की पुनरावृत्ति कर अपने अभिभावकों की अधिक
सहानुभूति प्राप्त कर सकते हैं । "
" मेरी समझ में तो तुम्हारी बात आई नहीं । तुमने यह कैसे कह दिया कि इस विपत्ति के समय ललिता से
सहानुभूति रखने से अन्य बच्चों के प्रति तुम्हारा प्यार कम हो जाएगा । "
" तुम समझ नहीं सकतीं, नीला, तुम्हारी शिक्षा किसीहिंदुस्तानी की भाँति नहीं हुई । मेरे मस्तिष्क में सदा राम का
सीता को वन में भेजने का उदाहरण रहता है । हिंदुओं ने राम के उस कर्तव्य पर कभी यह नहीं कहा कि इससे
सीता के प्रति राम का प्रेम और सहानुभूति क्षीण हो गई थी । व्यक्ति की अपेक्षा समष्टि का हित सर्वदा महत्त्वपूर्ण
माना जाता है । "
" यह बर्बरता है । हम उस प्रागैतिहासिक युग में तो नहीं रहते? "
रमेश और नीला के सह - अस्तित्व का यह अंत था । दोनों अलग रहने लगे । सबसे छोटी लड़की रानी ने अपने
पिता से पूछा, “पिताजी, माँ चली क्यों गई ? "
" क्योंकि वह केवल स्वप्न और माया थी । "
जीवन में बाँधनेवाली शक्ति यौन- आकर्षण के अतिरिक्त कुछ और है । उसके बिना स्वर बेसुरे ही रहते हैं ।