बर्लिन का अवरोध (कहानी) : एलफांस दोदे

Berlin Ka Avrodh (Story) : Alphonse Daudet

डॉक्टर बी. के साथ शाज-एलिज़े नामक मुहल्ले से जाते तोप के गोले लगी दीवारों से बन्दूक की गोलियों से पटी पक्की सड़कों से हम लोग जर्मनी के द्वारा अवरुद्ध पेरिस शहर का इतिहास इकट्ठा कर रहे थे। प्लेस द लेतॉयेल नाम की सड़क पर पहुँचने से पहले डॉक्टर रुके, रुककर उन्होंने ‘आर्क़ द त्रियोंफ’ नामक विजयतोरण (फाटक) के चारों तरफ़ जो भड़कीले मकान एक-दूसरे से लगे हुए थे, उनमें से एक की ओर अँगुली से इशारा किया, फिर कहा-‘‘देख रहे हो उस ऊपर के बरामदे की चार बन्द खिड़कियाँ ? उस विपदा से भरे 1870 ई. के अगस्त माह के आरम्भ में पक्षाघातग्रस्त एक रोगी को देखने के लिए मुझे बुलाया गया था। रोगी कर्नल जूभ प्रथम नेपोलियन के समय के एक घुड़सवार सैनिक थे, यश पाने के लिए और मातृभूमि के लिए वे एकदम पागल थे। जर्मनों के साथ युद्ध छिड़ने के समय इसी शाज़-एलिज़े मुहल्ले में, उन्होंने इस मकान  के सड़क की ओर खिड़कीवाले ये कुछ कमरे ले रखे थे-क्यों, जानते हो ? अपनी सेना के ‘विजय-प्रवेश’ का उत्सव वहाँ से देखते के लिए। बेचारा बूढ़ा ! वे भोजन करके टेबिल से उठ ही रहे थे कि विसेमबुर्ग़ के युद्ध की खबर आ पहुँची। अख़बार के नीचे सम्राट लुई नोपोलियन के पराजय की खबर पढ़कर ही वह बूढ़ा सैनिक बेहोश हो गया।

मैंने जाकर देखा कि वह बूढ़ा घुड़सवार कमरे की ज़मीन पर चित्त पड़ा है, मुँह से खून गिर रहा है, एकदम स्पन्दनहीन-लाठी के आघात से जिस तरह होता है, बिलकुल उसी तरह। खड़े होने पर वे बहुत लम्बे लगते-तब लेटे थे, फिर भी उनकी देह बहुत विशाल-सी लगी। चेहरे की बनावट बहुत सुन्दर थी। सुन्दर दाँतों की पंक्तियाँ थीं, घुँघराले सफ़ेद बाल थे। उम्र अस्सी साल की थी, पर साठ से अधिक नहीं लगती थी। बग़ल में उनकी पोती घुटने टेककर बैठी थी, उसकी पलकें आँसुओं से भीगी थीं पितामह के चेहरे से उसका काफ़ी साम्य था। फ़र्क केवल यही था, कि एक का चेहरा बुढ़ापे के कारण सिकुड़ा और मलिन था, दूसरे के चेहरे में नवीनता और उज्ज्वलता थी।

उस किशोरी को देखकर मुझे बहुत दुख हुआ। वह सैनिक की पोती थी। उसका पिता सेनाध्यक्ष मैकमेहन के ख़ास सहायकों में से एक था। बूढ़ा किशोरी के सामने बेहोश पड़ा हुआ था; किशोरी के मन में आशंका जागृत हो उठी थी। मैंने उसे आश्वासन देने की भरकस चेष्ठा की, यद्यपि वास्तव में मुझे भी कोई आशा नहीं थी। फेफड़े के रुधिर का प्रवाह रोकने के लिए हम लोग चेष्ठा कर रहे थे- अस्सी साल की उम्र में इस तरह रक्त का बहाव होने पर बचने की कोई आशा नहीं रहती है।
तीन दिन तक रोगी उसी एक-सी हालत में था-निश्चय और निस्पन्द। इसी बीच राइफ़-शोफ़ेशन से खबर आई। तुम्हें याद है न ? कैसी अद्भुत वह खबर थी ! हम लोगों की एक भारी विजय हुई है ऐसा हम लोगों ने सन्ध्या तक विश्वास किया था कि बीस हजार ज़र्मन घायल –युवराज बन्दी हुए हैं।

बेचारा रोगी अब तक बाहर की घटनाओं की ओर से बहिरा था। जाने किस चुम्बक-शक्ति के प्रभाव से इस जातीय आनन्द की प्रतिध्वनि उसके कानों में पहुँची, यह मैं नहीं कह सकता। किन्तु उस रात को रोगी की शय्या के बग़ल में आकर देखा कि वह मानो कोई दूसरा ही मनुष्य है। आँखें क़रीब-क़रीब साफ़ हो गई थीं, बातें करने में भी विशेष कष्ट नहीं हो रहा था; चेहरे पर मुस्कान की एक लकीर दीख रही थी, और तुतलाने की तरह कह रहा था-‘विजय ! विजय !’
‘‘हाँ, कर्नल एक भारी विजय हुई है।’’ फिर जब मैं सेनाध्यक्ष मैकमेहन की विजय के विषय में सविस्तार वर्णन करने लगा, तब उसका रूप शिथिल हो आया, उसका चेहरा उज्ज्वल हो उठा।
मैं कमरे से निकला, तो रोगी की पोती मेरे लिए प्रतीक्षा कर रही थी। उसका चेहरा सफ़ेद हो गया था, और वह निःशब्द हो रही थी। मैंने उसके दोनों हाथ पकड़कर रहा, ‘‘कर्नल अब बच गए हैं।’’

किशोरी को मेरी बात का उत्तर देने का साहस नहीं हुआ। कुछ समय पहले युद्ध की वास्तविक ख़बर मिल गई थी कि मैकमेहन भाग गया है, और सारी फ्रांसीसी सेना बुरी तरह पराजित हुई है। एक आतंक के भाव से हम दोनों एक-दूसरे की ओर देखने लगे। किशोरी अपने दादा के लिए उत्कंठित थी, और थर-थर काँप रही थी।
मैंने कहा, ‘‘अवश्य ही वे इस नए धक्के को नहीं सँभाल सकेंगे। फिर अब क्या उपाय हो ? जिस ख़बर ने उसको जीवित किया है, अब वे उस खबर का भ्रम ही उपभोग करें। पर हाँ, हम लोगों को उनसे प्रतारणा करनी पड़ेगी।’’
साहसी किशोरी बोली,‘‘अच्छा तो मैं ही उनसे प्रतारणा करूँगी।’’ यह कहकर शीघ्रता से आँसू पोंछ कर मुस्कान-भरे चेहरे से उसने अपने पितामह के कमरे में प्रवेश किया।

किशोरी ने स्वयं इस कठिन कार्य का भार लिया। प्रथम कुछ दिनों तक तो यह काम कुछ सहज था, क्योंकि बूढ़े का दिमाग़ उस समय दुर्बल था- छोटे बच्चे की तरह वे अंट-संट विश्वास कर लेते थे। किन्तु स्वास्थ्य की उन्नति के साथ ही साथ उनका दिमाग़ भी साफ़ हो आया। उन्हें प्रतिदिन की ख़बर सुनाने की आवश्यता होती, बना-बना कर उन्हें नई-नई ख़बरे सुनानी पड़तीं। सुन्दर किशोरी रात-दिन जर्मनी के नक्शे पर झुकी रही। यह देखने पर दुख होता। छोटे-छोटे झंडों से वह नक्शे को चिह्नित करती-विजय-यात्रा के पथ में सेनाध्यक्ष वाजेन बार्लिन (जर्मनी की राजधानी) की ओर चढ़ रहा है, सेनाध्यक्ष फ्रसर्ड बेवेरिया (जर्मनी का एक प्रान्त) में है, सेनाध्यक्ष मैकमेहन बाल्टिक सागर पर है, आदि। इन विषयों पर वह मेरी सलाह लेती; अपने साध्यानुसार मैं उसकी सहायता करता। किन्तु इस काल्पनिक युद्ध के विषय में हम लोग उसके दादा से अधिक सहायता पाते, प्रथम नेपोलियन के इस समय में फ्रांसीसियों ने कितनी ही बार जर्मनी पर विजय पाई थी, इसलिए बूढ़ा पहले ही से युद्ध की चालें जानता था। ‘अब उनको वहाँ जाना चाहिए। अब वे ऐसा करेंगे।’ अपनी भविष्यवाणी सफल हो रही है, देखकर अपने मन में वे गर्व अनुभव करते। दुर्भाग्य से, हम लोग चाहे जितने शहरों पर दख़ल कर लें या युद्ध में विजयी हों, उनसे उन्हें सन्तोष नहीं होता था।

 हम लोग उनका पीछा ही नहीं कर पाते, वे और आगे बढ़ जाते। किसी तरह भी उन्हे सन्तोष नहीं होता था। प्रतिदिन वह किशोरी मुझे नई-नई विजय की ख़बरें सुनाकर आभिवादन करती। हृदय तोड़ने वाली एक मुस्कान का भाव चेहरे पर लाकर, वह मुझसे मिलती और दरवाज़े के भीतर से मैं सुन पाता-एक हर्ष से भरा स्वर कह रहा है, ‘‘हम लोग सुगमता से आगे बढ़ रहे हैं, और एक सप्ताह में हम लोग बर्लिन में प्रवेश करेंगे !’’
उस समय जर्मन-सेना अधिक दूर नहीं थी, एक सप्ताह में ही शायद पेरिस में आ पहुँचेगी। पहले हम लोगों ने सोचा कि बूढ़े को गाँवों की तरफ ले चलना ठीक है; पर यहाँ से एक बार निकलने पर, गाँवों का हालत देखने पर सब बात प्रकट हो जाएगी।
उस समय भी वे इतने दुर्बल थे कि असल बात जान जाने पर और सहन नहीं कर सकते थे। इसलिए निश्चित हुआ कि वे यहीं रहें।

पेरिस के अवरोध के प्रथम दिन, मैं रोगी को देखने के लिए गया। मुझे अच्छी तरह याद है कि मैं उस समय बहुत चिन्तित था। पेरिस के फाटक बन्द हो गए थे। शहर के चारों तरफ दीवार के नीचे युद्ध हो रहा था। बहुत ही व्यथित था। तब यह व्यथा सभी तीव्र रूप से अनुभव कर रहे थे।
जाकर देखा कि बूढ़ा बहुत ही आनन्दित और गर्वित है। उन्होंने कहा, ‘‘अवरोध तो शुरू हो गया है !’’
मैं चकित होकर उनकी ओर देखता रहा। फिर कहा, ‘‘आपको कैसे मालूम हुआ कर्नल ?’’
उनकी पोती ने मेरी ओर घूमकर कहा, ‘‘हाँ, डॉक्टर, यह ख़बर आज के अख़बार में है। हमारी सेना ने बर्लिन शहर को घेर लिया है।’’ सिलाई करते हुए उसने शान्त भाव से यह बात कही। बूढे के मन में सन्देह कैसे हो सकता है ? बूढ़े ने तोपों की आवाज़ नहीं सुनी; पेरिस का वह शोक-भरा गम्भीर भाव और उखड़ी हालत भी नहीं देख पाई। जो कुछ अपनी शय्या पर लेटे-लेटे देख रहे थे, उससे उनका भ्रम एक-सा ही चला आ रहा था। बाहर आर्क़-द-त्रियोंफ़ (विजय-तोरण) और कमरे में प्रथम

नेपोलियन के समय की प्राचीन वस्तुओं का एक अच्छा संग्रह था। फ्रांसीसी प्रधान सेनापतियों की तस्वीरें थीं, बालक की पोशाक पहने हुए इटली के राजा का चित्र था, सम्राट् नेपोलियन के सृमृति-चिन्ह, ताँबे की मूर्तियाँ, काँच के आवरण में ढँका ‘सेंट हेलेना’ टापू का (जहाँ नेपोलियन ने क़ैद रहकर अन्तिम जीवन बिताया था) एक पत्थर-ये सब चीज़ें थीं। अहा, सरल-भोला कर्नल ! हम लोग चाहे कुछ कहें, प्रथम नेपोलियन की उस विजय-कीर्ति के बीच से उन्होंने सरल भाव से विश्वास किया था कि फ्रांसीसी सेना के द्वारा बर्लिन अवरुद्ध हुआ है।

उस दिन से हम लोगों की युद्ध के विषय में आलोचना सहज हो आई। अब केवल बर्लिन पर दख़ल करने में धैर्य रखना था। जब वे प्रतीक्षा करते-करते थक जाते, तब कभी-कभी उनके पुत्र की चिट्ठियाँ पढ़कर उनकों सुनाई जातीं। हाँ, सब चिट्ठियाँ तब काल्पनिक थीं, क्योंकि उस समय पेरिस में कुछ भी प्रवेश नहीं कर पाता था। और ‘सेडान’ के युद्ध में बन्दी होने के बाद के पुत्र, सेनापति मैकमेहन के सहायक सेनाध्यक्ष को एक जर्मन किले में भेज दिया गया था। उस किशोरी के हृदय में अपने बन्दी पिता के लिए कैसी निराशा और आशंका जागृत हो रही थी, यह तुम अच्छी तरह कल्पना कर सकते हो। बाप का कोई समाचार नहीं पा रही थी; बाप बन्दी है, आराम और सुख की सब वस्तुओं से वंचित है; कदाचित् पीड़ित है ! फिर भी उसकी ज़बान से, छोटे पत्रों के रूप में, झूठ बात कहलानी पड़ रही है कि विजित देश में, क्रमशः जय करता हुआ बढ़ रहा है ! कभी-कभी जब रोगी कुछ अधिक दुर्बल ही जाता, तब नई ख़बर आने में कितने ही सप्ताह बीच जाते। फिर जब वे बहुत उत्कंठित होते, उन्हें नींद नहीं आती, तब सहसा जर्मनी से लड़के के पास से एक पत्र आता; किशोरी उस पत्र को भाव से पढ़कर सुनाती। कर्नल बड़ी श्रद्धा से ध्यान लगाकर सुनते, उनके चेहरे पर गर्व की मुस्कान रहती, कभी पत्र के किसी विषय की आलोचना कर रहे हैं।

 उनका सबसे अधिक गुण प्रकट होता जब वे अपने पुत्र को जवाब लिखाते। लिखवाते- ‘तुम एक फ्रांसीसी हो, यह बात कभी मत भूलना; उन अभागे जर्मनों पर सदा उदारता दिखाना ! यह आक्रमण उनके लिए अधिक कठोर न हों।’ सलाह की कमी नहीं रहती; सम्पति के प्रति सम्मान दिखाने के सम्बन्ध में, महिलाओं के प्रति शिष्टाचार के सम्बन्ध में कितने ही उपदेश रहते। एक शब्द में, बूढ़े ने विजयी के व्यवहार के लिए एक सामारिक धर्म-संहिता की रचना की थी। इन पत्रों में राजनीति की बातें भी रहती, विजित पर संधि की शर्तें किस तरह थोपी जाएँगी, ये सब बातें भी रहती यह मानना ही होगा कि बूढ़े ने विजितों से कुछ भी अधिक दावा नहीं किया। उन्होंने लिखवाया-‘युद्ध में हार का अर्थ धन का दंड, इसके सिवाय और कुछ भी नहीं है; देश पर दखल कर लेने से कोई लाभ नहीं हैं। क्या तुम जर्मनी को कभी फ्रांस में परिणित कर सकते हो ?’

वे उत्तर लिखवाते समय ऐसे दृढ़ स्वर से, ऐसी देश-भक्ति से भरे विश्वास के साथ बातों को कहते कि किसी के लिए वह सब अविचलित भाव से सुनना असम्भव था।

इसी बीच अवरोध का कार्य चलने लगा। हाँ, यह बर्लिन का अवरोध नहीं था। हाय! इस समय ठंड, तोपों का वर्षण, महामारी और दुर्भिक्ष सिरे पर पहुंच गए थे। पेरिस की हालत बहुत ही बुरी हो गई थी। पर हम लोगों के यत्न से और घर के लोगों की अक्लान्त सेवा से बूढ़े की शान्ति एक क्षण के लिए भी विचलित नहीं हुई थी। अन्त तक मैंने उनके लिए केवल उन्हीं के लिए-सफ़ेद आटे की डबल रोटी और ताजा गोश्त जुटाया था। बूढ़े का सुबह का भोजन बहुत ही हृदय-स्पर्शी होता। दादा शान्त मन से गर्वित रहते। उनके चेहरे पर ताजा भाव और मुस्कान खिली रहती। वे शय्या पर उठकर बैठे हैं, ठोड़ी के नीचे एक बड़ा रूमाल बँधा है (जिससे भोजन के देह पर गिरने से कपड़े खराब न हों), शय्या के बग़ल में पोती, अभाव और क्षुधा से पीली, बूढ़े के हाथ को पकड़कर उनके मुँह की ओर उठा दे रही है और सब प्रकार की रुचिकर निषिद्ध चीजों के भोजन करने में सहायता कर रही है।

खा-पीकर कुछ स्वस्थ होकर उस दिन वे अपने गरम कमरे में जरा आराम उपभोग कर रहे थे। कमरे के भीतर जाड़े की हवा प्रवेश नहीं कर पा रही थी, पर बाहर बर्फ का तूफ़ान चल रहा था। ऐसे समय में बूढ़े सैनिक उत्तर यूरोप के युद्ध के किस्से कहना पसन्द करते थे। रूस के साथ युद्ध में, रूसियों का वह सत्यानाशी 'पीछे हटने' का वर्णन करते। रूस जाने के रास्ते में बर्फ में जमाये बिस्कुट और घोड़े के गोश्त के सिवाय कुछ भी नहीं मिलता था।
बोले, “समझी पोती, हम लोग घोड़े का गोश्त खाते थे?"
किशोरी बहुत अच्छी तरह समझ रही थी, क्योंकि इन दो महीनों में उसने घोड़े के गोश्त के सिवाय कुछ भी नहीं खाया था।

वे जैसे-जैसे स्वस्थ होने लगे, हम लोगों का काम भी प्रतिदिन कठिन होने लगा। उस समय कर्नल की सब इन्द्रियों और अंगों की सिकुड़न, जिसके कारण हम लोगों को कुछ सुविधा थी, क्रमशः गायब होना आरम्भ हुई। इसी बीच, दो बार फ़ोर्ट मेलोर की तोपों की भयानक आवाज से वे चौंक पड़े थे और युद्ध के घोड़े की भांति कान ऊँचे किए थे। इसीलिए मजबूर होकर हम लोगों को एक बात बनाकर कहनी पड़ी। हम लोगों ने उनसे कहा कि बर्लिन के सामने युद्ध में हम लोगों की विजय हुई है, इसके सम्मानार्थ 'ऍवालीड' से तोपों की आवाज़ की गई है। और एक दिन उनका पलंग खिड़की के पास हटा कर लाया गया था, उस समय नेशनल गार्ड का एक सेनादल सामने के मैदान में इकट्ठा हुआ था। देखा गया कि वह सेना देखकर कुड़कुड़ा रहे हैं। उन्होंने पूछा, “वे सब किस सेनादल के हैं? उनकी कवायद की शिक्षा बिलकुल ही अच्छी नहीं हुई। बुरी शिक्षा हुई है-बुरी शिक्षा हुई है!"

इसका फल कुछ भी बुरा न हुआ, पर हम लोग समझ गए कि अब और अधिक सावधान होने की आवश्यकता है। किन्तु दुर्भाग्य से हम लोग काफ़ी सावधान नहीं रह सके।
उस रात को देखा कि किशोरी बहुत चिन्तित हुई है। उसने कहा, "कल जर्मन सेना हमारे शहर में प्रवेश करेगी।"

पितामह के कमरे का द्वार क्या उस समय खुला था? जब मुझे लग रहा है कि रात-भर उनके चेहरे पर एक अद्भुत भाव रहा था। कदाचित् हम लोगों की बातें उनके कानों में पहुंची थीं। हम लोग जर्मनों की बातें कह रहे थे, किन्तु वे सोच रहे थे कि हम लोग, फ्रांसीसियों की बातें कह रहे हैं। इतने दिनों से उन्होंने जो आशा की है कि प्रधान सेनापति मैकमेहन फूलों की बौछार के बीच से, बिगुल के शब्द के साथ, शहर में प्रवेश कर रहे हैं, और प्रधान सेनापति का सहायक सेनाध्यक्ष उनका पुत्र, प्रधान सेनापति के बगल में घोड़े पर सवार होकर आ रहा है, यह सब कल देख पाएँगे, सोच कर अपनी कर्नल की वर्दी पहन कर, बारूद के धुएँ से मैले युद्ध के झंडे को अभिवादन करने के लिए उन्होंने बरामदे में बैठने का निश्चय किया।

बेचारे कर्नल जूभ! बूढ़े ने शायद सोचा था कि उनके हृदय का आवेग असह्य न हो जाए, इसलिए हम लोग उन्हें रोकेंगे। इसलिए शायद अपने मन की इच्छा हम लोगों से प्रकट नहीं की थी। पर उसके दूसरे दिन मेलोर से ट्वीलरी तक जो लम्बी सड़क गई है, उस सड़क पर से जब जर्मन सेना सावधानी से आ रही थी, बिलकुल उसी समय यह दीख पड़ा कि बरामदे का द्वार धीरे-धीरे खुल गया, और सिर पर टोपी पहनकर, कमर में तलवार लटकाकर वे बरामदे में आकर खड़े हो गए!

अनेक बार मैंने मन-ही-मन सोचा कि इस तरह सामरिक पोशाक पहन कर खड़े होने में उन्हें कितनी इच्छाशक्ति का प्रयोग करना पड़ा होगा-ऐसी दुर्बल हालत में, जाने कैसे एक भयानक आकस्मिक आवेग ने उनको परिचालित किया होगा! पर उन्हें आश्चर्य हो रहा था कि क्यों सड़क इतनी सुनसान है, क्यों मकान की खिड़कियों बन्द हैं। पेरिस मानो कोढ़ियों का एक अस्पताल है; सर्वत्र झंडे लगे हुए हैं, लेकिन अपरिचित विदेशी झंडे लगे हैं, लाल क्रास-अंकित सफ़ेद रंग के झंडे हैं। हमारी सेना को देखने के लिए कोई तो नहीं आया है! क्षण-भर के लिए उनको लगा कि कदाचित् उनकी भूल हुई है।

पर नहीं! उधर, 'विजय-तोरण' के पीछे एक भारी शोर है। दिन के प्रकाश की वृद्धि के साथ-साथ एक काली रेखा-सी दीखी, फिर क्रमशः उनकी टोपियाँ चमक उठी, तलवारें झनझना उठी और फिर श्यूवेयर का बनाया जर्मन विजय-गीत आकाश को कम्पित करके गूंज उठा!

तब सड़क की उस मृत-सी निस्तब्धता के बीच एक चीत्कार-एक भयानक चीत्कार सुनाई दिया-"सब हथियार पकड़ो, हथियार पकड़ो! जर्मन सेना आ गई है।"

आगे के सेना-दल के चार घुड़सवारों ने तब कदाचित् देखा होगा-उस ऊपर के बरामदे से एक लम्बा बूढ़ा हिलता-डुलता, हाथ उठाता हुआ नीचे गिर पड़ा। इस बार कर्नल जूभ मृत थे।

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