बैरंग शुभकामना और जनतंत्र (व्यंग्य) : हरिशंकर परसाई

Bairang Shubhkamna Aur Janatantra (Hindi Satire) : Harishankar Parsai

नया साल राजनीति वालों के लिए मतपेटी का और मेरे लिए शुभकामना का बैरंग लिफाफा लेकर आया है। दोनों ही बैरंग शुभकामनाएं हैं, जिन्हें मुझे स्वीकार करने में 10 पैसे लग गए और राजनीतिज्ञों को बहुत बैरंग चार्ज चुकाना पड़ेगा।

मेरे आसपास ‘प्रजातंत्र’ बचाओ के नारे लग रहे हैं। इतने ज्यादा बचाने वाले खड़े हो गए हैं कि अब प्रजातंत्र का बचना मुश्किल दिखता है। जनतंत्र बचाने से पहले सवाल उठता है- किसके लिए बचाएं? जनतंत्र बच गया और फालतू पड़ा रहा, तो किस काम का। बाग की सब्जी को उजाड़ु ढोरों से बचाते हैं, तो क्या इसलिए कि वह खड़ी-खड़ी सूख जाए? नहीं, बचाने वाला सब्जी पकाकर खाता है। जनतंत्र अगर बचेगा तो उसकी सब्जी पकाकर खाई जाएगी। मगर खाने वाले इतने ज्यादा हैं कि जनतंत्र के बंटवारे में आगे चलकर झगड़ा होगा।

पर जनतंत्र बचेगा कैसे? कौन-सा इंजेक्शन कारगर होगा? मैंने एक चुनावमुखी नेता से कहा, ‘भैयाजी, आप तो राजनीति में मां के पेट से ही हैं। जरा बताइए, जनतंत्र कैसे बचेगा? कोई कहता है, समाजवाद से जनतंत्र बचेगा। कोई कहता है समाजवाद से मर जाएगा। कोई कहता है, गरीबी मिटाए बिना जनतंत्र नहीं बच सकता। तब कोई कहता है, गरीबी मिटाने का मतलब तानाशाही लाना है। कोई कहता है, इंदिरा गांधी के सत्ता में रहने से जनतंत्र बचेगा। पर कोई कहता है- इंदिराजी ही तो जनतंत्र का नाश कर रही हैं। आप बताइए, जनतंत्र कैसे बचेगा?’

भैयाजी ने कहा, ‘भैया हम तो सौ बात की एक बात जानते हैं कि अपने को बचाने से जनतंत्र बचेगा। अपने को बचाने से दुनिया बचती है। ‘जरा चलूं, टिकट की कोशिश करनी है।’

सोचता हूं, मैं भी चुनाव लड़कर जनतंत्र बचा लूं। जब जनतंत्र की सब्जी पकेगी तब एक प्लेट अपने हिस्से में भी आ जाएगी। जो कई सालों से जनतंत्र की सब्जी खा रहे हैं, कहते हैं बड़ी स्वादिष्ट होती है। ‘जनतंत्र’ की सब्जी में जो ‘जन’ का छिलका चिपका रहता है उसे छील दो और खालिस ‘तंत्र’ को पका लो। आदर्शों का मसाला और कागजी कार्यक्रमों को नमक डालो और नौकरशाही की चम्मच से खाओ! बड़ा मजा आता है।

सोचता हूं, जब पहलवान चंदगीराम और फिल्मी सितारे-सितारिन जनतंत्र को बचाने पर आमादा हैं, तो मैं भी क्यों न जनतंत्र को बचा लूं। मास्टर को तो बादाम पीसने से फुरसत नहीं मिलेगी और सितारों को किसी बैकग्राउंड म्यूजिक पर होंठ हिलाना पड़ेगा। मेरे बिना जनतंत्र कैसे बचेगा?

पर तभी यह बैरंग लिफाफा दिख जाता है और दिल बैठ जाता है। मैंने ग्रीटिंग कार्डों को बिछाकर देखा है- लगभग 5 वर्गमीटर शुभकामनाएं मुझे नए वर्ष की मिली हैं। अगर इतने कार्ड मुझे कोरे मिल जाते तो मैं इन्हें बेच लेता। पर इन पर मेरा नाम लिखा है, इसलिए कोई नहीं खरीदेगा। दूसरे के नाम की शुभकामनाएं किस काम की?

इनमें एक बैरंग लिफाफा भी है। कार्ड पर सुख-समृद्धि की कामना है। सही है। पर इस शुभकामना को लेने के लिए मुझे 10 पैसे देने पड़े। जो शुभकामना हाथ में आने के दस पैसे ले ले, वह मेरा क्या मंगल करेगी? शुभचिंतक मुझे समृद्ध तो देखना चाहता है, पर यह मुझे बताने के ही 10 पैसे ले लेता है।

शुभ का आरंभ अक्सर मेरे साथ अशुभ होता है। समृद्ध होने के लिए लॉटरी की दो टिकटें खरीदी- हरियाणा और राजस्थान की। खुली तो अपना नंबर नहीं था। दो रुपए गांठ के चले गए। एक दिन मेरा एक छात्र मिला तो मैंने पूछा-‘तुम्हारे ऐसे ठाठ कैसे हो गए? बड़ा पैसा कमा रहे हो।’ उसने कहा-‘सर, अब मैं बिजनेस लाइन में आ गया हूं।’ मैंने पूछा-‘कौन-सा बिजनेस करते हो।’ उसने कहा- ‘सट्‌टा खिलाता हूं।’ इस देश में सट्‌टा, बिजनेस लाइन में शामिल हो गया। मंथन करके लक्ष्मी को निकालने के लिए दानवों को देवों का सहयोग अब नहीं चाहिए। पहले समुद्र- मंथन के वक्त तो उन्हें टेक्निक नहीं आती थी, इसलिए देवताओं का सहयोग लिया। अब वे टेक्निक सीख गए हैं।

हर अच्छी चीज बैरंग हो जाती है। पिछले साल सफाई सप्ताह का उद्घाटन मेरे घर के पास ही हुआ था। अच्छी ‘साइट’ थी। वहां कचरे का एक बड़ा ढेर लगाया गया। फोटोग्राफ कोण और प्रकाश देख गया और तय कर गया कि मंत्रीजी को किस जगह खड़े होकर फावड़ा चलाना है। अफसर कचरे की सजावट करवाने में लग गए। एक दिन मंत्रीजी आए और दो-चार फावड़े चलाकर सफाई सप्ताह का उद्घाटन कर गए। इसके बाद कोई उस कचरे के ढेर को साफ करने नहीं आया। उम्मीद थी कि हर साल यहीं सफाई सप्ताह का उद्घाटन होगा और हर साल चार फावड़े मारने से लगभग एक सदी में यह कचरा साफ हो जाएगा। मैं इंतजार कर सकता हूं, पर इस साल दूसरी जगह चुन ली गई।

यह भारतीय जन कैसा हो गया। कैसा हो गया इसका मन? लगता है, मुझे ही नहीं सारे देशवासियों को बैरंग शुभकामनाएं आती रही हैं और आज उसका यह हाल हो गया है कि कहता है-खुशहाल होने से भी क्या होगा?

मित्र कहते हैं- तुम तो जनता के उम्मीदवार हो जाओ। जनसमर्थित उम्मीदवार। पर मैं इसी भारतीय जन की तलाश में हूं। वह मिलता ही नहीं। कहां है भारतीय जन? क्या वह, जो कहता है- खुशहाल होने से भी क्या होगा? या यह जो भारतीय होने के लिए चलता है कि रास्ते में कोई उसे रोककर कहता है- चल वापस, तू भारतीय नहीं फलां जाति का है।

बैरंग मंगल कार्ड मुझे घूरकर देखता है और कहता है- वक्त के इशारे को समझ और बाज आ। तुझसे प्रजातंत्र नहीं बचेगा।

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