Behtar Ummeed Mein Stri (Hindi Story) : Ramgopal Bhavuk

बेहतर उम्मीद में स्त्री (कहानी) : रामगोपाल भावुक

मया महा ठगिनी हम जानी

बहुत दिन बाद कबीर के भजन सुनाने बाला फकीर आया था। भजन आरम्भ करने के बाद वह आगे सुना रहा था-

विष्णू के संग लक्ष्मी बैठी
भोला संग भवानी।

सुनते हुए मैं सोच रही थी-प्रकृति ने स्त्री के साथ कैसा अन्याय किया है कि स्त्री की कोई जाति नहीं होती । वह विष्णू के संग लक्ष्मी कहलाती है तो भस्म रमाने वाले शंकर जी के साथ भवानी। यानी नारी पुरुष की जाति की हो जाती है। उसकी जाति का लय हो जाता है पुरुष में।

मैं इसी विचार में डूबी थी कि मेरी सहपाठी रानी वर्मा अचानक मेरे घर आ पहुँची। आते ही वह हर बार की तरह अपने अंदाज में बोली-‘हाय विजया! तेरे रूप में इतना नशा भरा है कि तुझे देखते ही अच्छे-अच्छे आहें भरने लगते हैं!

मैंने उसे प्यार से डाँटा-‘ बिना सिर-पैर की बातें हाँकती रहती है। गणित जैसे विषय से तूने जाने कैसे एम0 एससी0 कर लिया। ‘

उसने मेरी बात सुनकर आश्चर्य का अभिनय किया -‘मेरी बात बिना सिर पैर की ? अरी ! सच में तुझमें इतनी मिठास भरी है कि कोई तुझे देखकर गोल-गप्पे की तरह मुँह में धर लेगा, और तू उसे तृप्त कर खुद आनन्द में डूब जायेगी।’

मैंने उसे झिड़का-‘मैं ऐसी नहीं हूँ। ये तो तेरे ही चाल-चलन हैं। मैथ्स के सवाल लगाते-लगाते उस गोल-मटोल प्रोफेसर को तूने अपने चंगुल में फसा लिया। तू अपना ब्याह उसी से क्यों नहीं कर लेती?’

यह सुनकर वह गम्भीर होकर बोली-‘ उससे मेरा मोह भंग हो गया है। एक बार मैं उसके घर गई थी। उसकी माता जी किसी बात को लेकर मुझे सुनाकर कह रही थीं-‘औरत तो आदमी के पैर की जूती है। आदमी जब चाहे उसे बदलकर पहन ले।’

उसकी माँ के ऐसे प्रवचन सुनकर मुझे उनकी बात बहुत बुरी लगी थी। तू ही बता ऐसे परिवार में ब्याह करके कौन सी लड़की सुखी रह पायेगी।

मैंने कहा-‘तू तो खद ही समझदार है, अपने पापा को व्यर्थ ही कष्ट दे रही है। खुद ही अपने लिये वर ढू़ढ़ ले ।’

वह बोली-‘ और तेरे पापा तो चुपचाप बैठे होंगे। तेरे लिये छैल- छबीले दूल्हे की तलाश नहीं कर रहे होंगे, किन्तु तेरी निगाहें तो बहुत ही पैनी हैं। खुद अपने लिये किसी को तलाश लेगी। ‘

मैंने कहा-‘मुझे ब्याह की जरूरत नहीं है। मुझे पुरुष जाति के आचरण अच्छे नहीं लगते।’

‘आश्चर्य ! तेरे विचार आज तक नहीं बदले। पापा-मम्मी का कहना मान ले। क्यों बुढ़ापे में उनकी किर-किरी कराने पर तुली है। तुझे सभी में अवगुण ही नजर आते हैं। तू एक बात और सोच, आजकल स्त्रियों का अनुपात घटता जा रहा है और तुम्हारा ऐसा सोच! ऐसे में वर की तलाश में लड़कियों के ब्याह की उम्र ही निकल जाती है। ’

रानी वर्मा की ये कडवी बातें सुनकर ऐसा पहली वार हुआ कि मैं चुप रह गई। लगा था-शायद ये सच ही कह रही है। उधर पापा-मम्मी की उदास नजरें मुझे खल रही थी। यकायक लगार मैंने शादी न करने का निर्णय लेकर अच्छा नहीं किया। मैं भी कैसी हूँ ,जो सृष्टि के नियम का बहिष्कार कर रही हूँ।

एक दिन मैंने मम्मी से कह दिया-‘मम्मी आप ब्याह की बात कहती हैं तो जहाँ चाहे रिस्ता तय कर दीजिए, लेकिन जिससे ब्याह करें ,मैं भी उसे देखना-परखना चाहूँगी कि मैं उसके साथ जीवन यापन कर भी पाऊँगी या नहीं।’

मम्मी चकित होकर मेरी बात सुन रहीं थी। वे तुरन्त तैयार हो गईं। उन्हें लगा होगा-चलो कैसे भी इस सिर चढ़ी लड़की से पिण्ड तो छूटे।

वर की तलाश की जाने लगी।

इन्हीं दिनों एक संस्कृत के प्रोफेसर मुझे देखने के लिये आये। मम्मी ने मुझे तमाम हिदायतें दे डालीं। मैं चाय की ट्रे लेकर उनके पास गई। वे एक टक मुझे देखते ही रह गये। मैंने उनके टकटकी वाले दृष्टिकोण को बदलने के लिये कहा-‘मैं मैथ्स में एम0 एससी0 हूँ।’

‘जी मुझे ज्ञात है।’ उन्होंने उत्तर दिया।

‘आपके जीवन का निर्वाह गणित विषय वाले के साथ हो पायेगा?’ मैंने प्रश्न किया।

वे बोले-‘यह तो आपके सोचने का विषय है। क्या आप संस्कृत के आचार्य के साथ अपना जीवन यापन कर पायेगीं?’

मैंने कहा-‘यही तो इस देश की नारी का दुर्भाग्य है। उन्हें पति-परमेश्वर के अनुसार ढलने के लिये विवश किया जाता है।

वे बोले-‘नारी का ढलना, पारिवारिक जीवन की आधारशिला है।’

मैंने उत्तर दिया-‘हमारे लिये आप लोगों के पास केवल सिद्धांत है। हम नारियों को तो विवश होकर जीवन यापन करना पड़ता है।’

यह सुनकर वह बोला-‘आपकी दार्शनिक बातें सुनकर ,रूप और ज्ञान का पारखी यह प्रोफेसर आपसे विवाह करने उद्यत है।’

‘लेकिन मैं इस गणित के सवाल को हल करने में असमर्थ हूँ।’

‘फिर ?’

‘मेरा उत्तर आपको मिल गया है।’

यह सुनकर वह उठकर चला गया। जाते-जाते पापा से कह गया-‘मुझे गणित विषय की लड़की नहीं चाहिये।’

यों साँप का साँप मर गया और लाठी भी नहीं टूटी।

मम्मी-पापा पहले तो कुछ चकित से हुए कि मना क्यों कर गया लड़का, फिर शांत हो गये। वे इस वजह से नाराज नहीं हुए कि उन्हें लगा होगा कि शायद संस्कृत और मैथ्स विषय की परस्पर विरोधी प्रवृति सुनकर लड़का मना कर गया होगा। वे दोनों चुप रह गये, उन्होंने मुझ से कुछ नहीं कहा।

मैं सोचने लगी- कहीं इस लड़के को अस्वीकार कर मैं गच्चा तो नहीं खा गई। प्रत्येक मनुष्य की मनोंवृति की भिन्नता की तरह अध्ययन के विषय संस्कृत और मैथ्स का भिन्न होना, कोई मायने नहीं रखता। फिर इतने कम समय में उसके स्वभाव को मैं कैसे समझ पाती? इससे अच्छा रिस्ता जाने जीवन में कभी मिल भी पायेगा या नहीं। मैं लम्बे समय तक इसी उहापोह में बनी रही।

इन्हीं दिनों पापाजी के प्रयास से एक एम0 बी0 बी0एस0 डॉक्टर मुझे देखने के लिये आया। मेरे सामने पड़ते ही बोला-‘हाय विजिया जी।’

मुझे भी कहना पड़ा-‘हाय कैसे हैं?’

वह बोला-‘फाइन।’

मैंने उसके मन की बात जानने के लिये पूछा-‘मेरे खर्चे बहुत हाईफाई हैं। मेरे साथ आपकी गुजर हो पायेगी ?’

उसने उत्तर दिया-‘मैं एक डॉक्टर हूँ। आपको इस डॉक्टर की आमदानी का अंदाजा नहीं है। वेतन के अतिरिक्त मरीज फीस भी देकर जाता है।’

मैंने कहा-‘डॉक्टर में सेवा भाव होना चाहिये।’

वह बोला-‘यह सब कहने-सुनने में आदर्श की बातें हैं।’

मैंने जोश में आकर कह दिया-‘फिर तो तुम डॉक्टर नहीं मरीज के कातिल हो।’

यह सुनकर उसे बहुत बुरा लगा। वह जाते-जाते पापाजी से कह गया-‘आपकी पुत्री को तो जैसा लड़का चाहिये। मैं वैसा नहीं हूँ।’

पापाजी गुस्से में पास आकर डॉटते हुए बोले-‘तुझे ब्याह नहीं करना है तो न कर। कहीं किसी प्रायवेट स्कूल में नौकरी करले। जिससे खाली दिमाग शैतान का घर तो न रहेगा।’ ।’

मुझे भी लगा-पापाजी ठीक कह रहे हैं। उसे कातिल कह कर उसका अपमान तो मुझे नहीं करना चाहिए था। यह बात कहने में उसके समक्ष मैं बड़ी सिद्धांत वादी बन गई। अरे! मुझे जच नहीं रहा था तो प्रोफेसर साहब की तरह प्यार से समझा देती। जिससे पापाजी भी नाराज नहीं होते।

अब इस तरह जीवन किसके भरोसे चलेगा। जब विद्रोह ही कर रही हूँ तो अपने पैरों पर खडे होकर करूँ। किसी के आश्रित रहकर जीवन जीना ठीक नहीं है।

यह सोचकर मैंने नगर के पब्लिक स्कूलों में चक्कर लगाये। राधे-राधे पब्लिक हाई स्कूल में गणित विषय में एम0 एससी0 होने के कारण नौकरी मिल गई। मैं विद्यालय जाने लगी।

विद्यालय की दीवार से लगा हुआ हमारी बुआ का घर था। बुआ की मृत्यु के कुछ दिनों बाद फूफाजी ने दूसरा ब्याह कर लिया था। ये बुआजी भी मुझे बहुत प्यार देतीं हैं। इन्टरवेल के समय मैं उनकी लड़की कृष्णा से मिलने गई। वहाँ मेरी क्लासमेट रानी वर्मा पहले से ही बैठी थी। मुझे देखते ही वह कृष्णा को सुनाकर बोली-‘यार विजया ! तेरी तो बडी लम्बी उम्र है। हम तेरी ही बातें कर रहे थे।

मैंने आश्चर्य से पूछा-‘मेरी बातें !‘

‘हाँ यार तेरी बातें, यही कि तू पढने-लिखने में बडी इन्टेलीजेन्ट थी। बडा अच्छा स्वभाव था। सभी से हँसकर बोलना किन्तु अब तुझे जाने क्या हो गया है ?’

मैंने झट से पूछा-‘अब मुझे क्या हो गया है? बोल ....।’

वह रिरियाते हुये बोली-‘मैं तो यों ही मजाक कर रही थी।’

इसके बाद मैं, कृष्णा और रानी इधर-उधर की बातें करने लगीं। कृष्णा अपने किरायदार की प्रशंसा करने लगी-‘हमारा किरायेदार बडा अच्छा लडका है। उम्र में तो मुझसे बडा है किन्तु दीदी कह कर बुलाता है।

रानी ने कहा-‘वह तो एफ0 सी0 आई0 में अधिकारी है।

कृष्णा बोली-‘वही तो! इतना बडा अधिकारी होने पर भी उसमें घमण्ड नाम की चीज नहीं है।’

मैंने पूछा-‘क्या नाम है उसका ?’

‘प्रकाश‘

रानी को मजाक सूझा-‘किस का प्रकाश ,वल्व का अथवा ट्यूवलाइट का।’

कृष्णा झट से बोली-‘नहीं सी0 एफ0 एल0 का।’

‘अरे !फिर तो बहुत ही अच्छा है।’ रानी ने आश्चर्य व्यक्त किया।

कृष्णा बोली-‘लो वह आ गया। चलो तुम दोनों को अपने भाई से मिलवा दूँ।’

हम उसके कमरे में पहुँच गई। कृष्णा ने मेरा परिचय दिया-‘मेरे मामा की लडकी विजया, मैथ्स से एम0 एससी0 है। रानी से परिचय पहले करा ही चुकी हूँ।’

यह सुनकर वह नम्रता व्यक्त करते हुये बोला-‘मैथ्स में एम0 एससी0 तो मैं भी हॅू किन्तु अब तो मैं नौकरी कर रहा हूँ।’ कहते हुये गैस पर चाय की केटली चढा दी। यह देखकर रानी बोली-‘लो कृष्णा, तुम्हारे भैया तो बडे समझदार हैं। देखा ,चाय बनाने लगे।’

प्रकाश बोला-’मुझे चाय पीना है। आप लोग साथ देंगी तो मुझे अच्छा लगेगा। अकेले में चाय पीने में मजा नहीं आता।’

मैंने कहा-‘भाभी जी को क्यों नहीं ले आते ?’

प्रकाश ने उत्तर दिया-‘हम यहाँ परदेश में हैं। वहाँ वाले इतनी दूर अपनी लड़की का हमसे विवाह करना नहीं चाहते और यहाँ के लोगों के लिये हम परदेशी हैं!

कृष्णा चहकी-‘आप हमें तो परदेशी नहीं लगते।’

उसने उत्तर दिया-‘यह आपकी महानता है।’

रानी बोली-‘कृष्णा आपकी दीदी है और हम ?’

वह बोला-‘आप हमारी दीदी की सहेली हैं। चाहें तो आप हमारी मित्र बन सकतीं हैं।’

रानी के मुँह से निकल गया-‘आप उम्र में हमसे बडे हैं आप मेरा नाम लें !‘

वह बोला-‘सम्मान देने से सम्मान मिलता हैं।

चाय बन चुकी थी। वह हमें चाय के प्याले देते हुए बोला-‘आज आप लोगों के ऐसे चरण पडे़ तो घर पवित्र हो गया।’

मुझे लगा-चापलूस, कैसी खुशामद कर रहा है! फिर तत्क्षण यह सोचकर मैंने अपने को धिक्कारा कि वह हमें प्रेम से चाय पिला रहा है। हम हैं कि इसमें भी उसके दोष देख रहे हैं। मुझे तो हर किसी में दोष ही दोष दिखाई देते हैं।

यह सोचते हुये मैंने उसके चेहरे पर दृष्टि डाली। भोलापन स्पष्ट झलक रहा था। उसकी आभा मन को अच्छी लगी। उसने मुझे अपनी ओर देखते देखकर सिर झुका लिया।

बाद के दिनों में मुझे जाने क्या हुआ कि कृष्णा के बहाने प्रकाश के यहाँ जाने का मन होने लगा। इन्टरवल के समय मैं उसके यहाँ पहुँच जाती।

एक दिन उसने कहा-‘‘मैं मूर्ति पूजा को नहीं मानता। हम विज्ञान के छात्र हैं। अन्ध विश्वास में मेरी श्रद्धा नहीं है।’

मैंने उसके इस दर्शन पर सहमति प्रकट की-‘मेरा भी ऐसा ही विश्वास है।’

वह बोला-‘हमारा दृष्टिकोण संकुचित विचारों वाला नहीं होना चाहिये। हम पढ़े-लिखे लोग हैं।’

मैं बोली-‘आपकी इन बातों से मैं सहमत हूँ।’

यह सुनकर उसका चेहरा खिल गया। बोला-‘चलो, हमारे कुछ विचार तो आपस में मिलते हैं।

वह अपने दिल पर हाथ रखकर बोला-‘सच कहूँ आपको देख लेता हूँ तो मन को बड़ा चैन मिलता है।’

मैंने उसे झिडका-‘और किस-किस को देखकर चैन मिलता है।’

यह सुनकर वह रिरियाते हुए बोला-‘आप तो नाराज होने लगी। मेरी बात बुरी लगी हो तो मैं अपने शब्द वापस लेता हूँ।’

प्रकाश ने अपनापन दिखाने के लिये फिर भी पूछा-‘जल पियेंगी ?’

मैं उठी। मैंने उसके घड़े में से गिलास में जल उड़ेला और गट-गट करके सारा गिलास खाली कर दिया। यह देखकर वह बोला-‘हाय राम ! आप कितनी प्यासी थीं! आप हमें आदेश देतीं, हम पिला देते। जब सामने जल का घड़ा भरा रखा है आदमी को इतना प्यासा रहने की क्या जरूरत है ?’

उसकी बात सुनकर मैंने अपने स्वभाव का वर्णन किया-‘मैं जहाँ जाती हूँ घर समझकर जाती हूँ। इसीलिये खुद उड़ेलकर पानी पी लिया।’

वह रिरियाते हुये बोला-‘हमारा सौभाग्य है। हमारे घर को आपने अपना घर तो समझा। इसी खुशी में बिस्कुट लीजिये।

मैं सोचने लगी ,लूँ या नहीं। मुझे सोचते हुये देखकर बोला-‘मैंने इसे आपके सामने खोला है। इसमें नशे इत्यादि की कोई चीज नहीं मिलाई।’

मैं क्या कहूँ ? मुझे बिस्कुट लेना पडा। उसने भी बिस्कुट ले लिया। मैंने बिस्कुट एक कोने से कुतरा। किन्तु वह एक क्षण में उसे कुतर-कुतर कर पूरा खा गया। वह मुझे धीरे-धीरे खाते हुये देखकर बोला-‘है न मजेदार!‘

उसने मुझसे व्यवहारिकता में कहलवा लिया-‘हाँ है तो।’

प्रकाश खुश होते हुये बोला-‘चलो आपको हमारी कोई चीज तो पसन्द आई। देखना धीरे-धीरे हमारी पसन्द की सारी चीजें आपको अच्छी लगेंगीं।’

मैंने इस बात का कोई उत्तर नहीं दिया। वह चाय छानने उठा। व्यवहारिकता में मुझे कहना आवश्यक लगा-‘आप बैठें ,जब आप मुझे अपने घर का मानने लगे हैं तो चाय मैं छान देती हूँ।’

वह बोला-‘ऐसी बात है तो कौन मना करेगा?’

वह चाय छानना छोड़, झट से मेरे पास आकर सोफे पर मुझसे सटकर बैठ गया। यह देखकर मैं झट से उठी। मैंने कप में चाय छानी और उसे दे दी। उसने प्याली माथे से लगाई और बोला-‘हमारे तो भाग्य ही खुल गये। आपने तो हमारा चौका चूल्हा ही सभ्हाल लिया।’

कुछ क्षण की चुप्पी के बाद वह फिर से बोला-‘देखो ,हम कृष्णा दीदी के भाई हैं। इस वर्ष पर हम राखी पर घर ना जा पाये तो कलाई सूनी थी। इसलिये उनसे राखी बँधाई है।’ कलाई सूनी थी। इसलिये उनसे राखी बँधाई है। वैसे ना भी बँधाते। पूरा व्यवहारिक है। ऐसे लोग जितने होते हैं वे धोखेबाज ही होते हैं। आज बहिन है। हो सकता है कल बिस्तर सूना लगे तो कोई भी रिश्ता बना बैठें। यह सोचकर मैंने कलाई में बँधी घडी पर नजर डाली।

बोली-‘अरे ! समय हो गया।’ यह कहते हुये मैं उसके कमरे से बाहर निकल आई थी।

कहने- सुनने की बातें अलग थीं किन्तु हम दिन प्रतिदिन नजदीक आते चले गये। मैं प्रकाश की बातों में खो सी जाती थी। हमारी बातों में समय कब पंख लगाकर उड़ जाता, मुझे पता ही नहीं लगता। मैं घर लौटती तो प्रकाश की बातें और उसके विचार मेरे कानों में बारी- बारी से गूंजते। और आश्चर्य यह था कि उसका भरा पूरा बदन, बड़ी-बड़ी उत्सुक आंखें और बिशाल भुज-दंण्ड मुझे कतई याद न आते। जो कि उस संस्कृत वाले प्रोफेसर और उस चिकित्सक की तुलना में ज्यादा आकर्षक थे।

एक दिन वह मुझ से बोला-‘अब तो तुम मेरे घर में आकर रहने लगो।’

मैंने दोनों कान पकडते हुये कहा-‘ना बाबा ना। ऐसे कैसे ?’

वह बोला-‘कृष्णा तो कह रही थी कि तुम विवाह ही नहीं करना चाहतीं। तुमने संस्कृत के आचार्य और डॉक्टर जैसे लडके रिजेक्ट कर दिये। फिर हम किस खेत की मूली हैं।’

यह कहते हुये सहसा प्रकाश ने मुझे अपनी दोनों भुजाओं के घेरे में लेकर सीने से लगा लिया।

मैंने उसके चंगुल से छूटना चाहा तो उसने अपनी पकड और मजबूत करली।

वह बोला-‘अब चाहे जो हो। मैं आपको जिन्दगी भर छोड़ने वाला नहीं हूँ।’

यह सुनकर तो मैंने उससे बलपूर्वक अपने को छुड़ाते हुये कहा-‘एक तरफा प्रणय निवेदन को पुरुष नारी का भी पूर्ण समर्पण मानता है। स्त्री की स्वीकृति पाकर पुरुष अपनी जीत और स्त्री की हार समझता है।’

बेहतर इन्सानियत की उम्मीद में ऐसा प्यार नहीं करना मुझे। मैं सोचती हूँ कि औरत को भी उतना ही हक है जितना पुरुष को। आज गहरी मानवता की उम्मीद में स्त्री जी रही है। उसे तलाश है ऐसे पुरुषकी जो एक स्त्री की तरह ही उसके समक्ष समर्पण करे।’

यह कहकर मैं उसके कमरे से चली आई।

बाहर निकलते ही सोच में डूब गई- कैसी हूँ मैं ? मुझे हर किसी में अवगुण ही अवगुण नजर आते हैं। मैं यह जानती हूँ, मेरे जैसी अनेक लड़कियाँ इसी तरह की ऊहापोह में जिन्दगी भर अविवाहित ही रह जातीं हैं और उन्हें कभी मन का मीत नहीं मिल पाता।

सहसा उसे लगा- मुझे अपनी जिन्दगी के बारे में कुछ न कुछ तो सोचना ही पड़ेगा।

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