बहराम की बहादुरी (हिंदी कहानी) : गोपाल राम गहमरी
Behram Ki Bahaduri (Hindi Story) : Gopalram Gahmari
जब हम महाराजा बिलासपुर (शिमला हिलस्टेट) के साथ रामेश्वरम् स्टेशन से धनुषकोटि पहुँचकर कोलंबो के लिए डुपलेक्स जहाज पर सवार हुए तब स्टीमर की रवानगी का भोंपा बजा, उससे कई मिनट पहले हम सब साथियों ने समुद्र का जल माथे चढ़ाकर प्रणाम किया। यह हिंद महासागर हम लोगों का प्राचीन तीर्थ है और लौटती बार न जाने किस रास्ते आएँ, इसका कुछ ठिकाना नहीं है। इस कारण सामने आए हुए अवसर को छोड़ना नहीं चाहिए ।
बातें यों है कि राजा बिलासपुर महाराजा सर विजयचंद बहादुर के सी.आई. डी. हर साल समुद्र में दो-चार सप्ताह सैर करने जाते थे। सन् 1907 से हर साल हमको भी अपने साथ ले लिया करते थे। ‘भारत जीवन' के संपादक और अध्यक्ष बाबू रामकृष्ण वर्मा ने मुझसे राजा साहब का परिचय सन् 1906 में करा दिया था । उस साल राजा साहब बजरों पर सवार होकर हरिहर क्षेत्र का मेला देखने के लिए काशी से कार्तिक शुक्ल परिवा को रवाना हुए थे। रास्ते में गहमर पड़ा। गंगा तट पर ठहरकर वहीं उन्होंने उस दिन का भोजन किया। राजा साहब यात्रा में रसोई विभाग के सब कर्मचारियों को सदा रखते थे। चार रसोई बनानेवाले, एक रसोई का दरोगा, एक रसोई का सामानवाला और चार पहरेदार साथ रहते थे। खजांची टहलुओं और अन्य सेवक अलग सब मिलकर पचास आदमी थे। राजा साहब ने गहमर नाम सुनकर जासूस की याद की । और रामकृष्ण ने मेरे झोंपड़े पर सिपाही भेजा ।
मैं जासूस के लिए झोंपड़े पर बैठा हुआ लिख रहा था। सिपाही ने सामने पहुँचकर कहा, "राजा बिलासपुर आपको याद कर रहे हैं।” मैंने पूछा, “कहाँ हैं?" उसने कहा, " तत्पर पधारे हैं। "
मैं तुरंत उसके साथ ही शिवाला घाट पहुँचा, वहीं वर्माजी ने मुझसे उसका परिचय कराया । उसी साल दिसंबर में बाबू रामकृष्ण का देहांत हो गया । हर साल राजा साहब नवंबर से जनवरी तक भारत के विभिन्न तीर्थों की यात्रा करते थे। सन् 1914 में राजा साहब ने लंका की यात्रा की तैयारी की। दूसरी यात्रा में धनुषकोटि से हम लोग कोलंबो के लिए रवाना हुए।
हम लोगों की यात्रा रामेश्वरम् स्टेशन से हुई थी । वहाँ से धनुषकोटि पर गए थे। धनुषकोटि का वर्णन वहाँ वालों ने यों बताया कि भगवान् रामचंद्र जब लंका विजय करके लौटे, पुल से जो समुद्र पर नल-नील द्वारा आदि बनाया गया था, उसे धनुष के धमके से तोड़ दिया गया। उसी स्थान का नाम धनुषकोटि है ।
उसी धनुषकोटि से हम लोग 'डुपलेक्स' स्टीमर पर सवार होकर लंका के लिए रवाना हुए। रवानगी का भोंपा बजने से पहले ही हम लोगों ने रत्नाकर का निर्मल नीर माथे चढ़ा लिया था । यह हिंद महासागर हम लोगों का प्राचीन तीर्थ है - लंका दहन के बाद जब हनुमानजी अपनी पूँछ बुझाने के लिए एक कुंड में कूद पड़े थे, वहीं पूँछ बुझाकर तब सीता के यहाँ विदा माँगने अशोक वाटिका में गए थे।
लेकिन हम लोगों का ‘डुपलेक्स' स्टीमर बीस ही पच्चीस मील आगे गया होगा कि पीछे से एक मोटर डोंगी तीर की तरह सीधी आती हुई दिखाई पड़ी। उस पर जो झंडियों का कुछ इशारा हुआ, उसके परिणामस्वरूप 'डुपलेक्स' समुद्र में खड़ा हो गया । जब मोटरबोट पास पहुँची, तब पेंडी लगा दी गई। डोंगी पर से हथियारबंद पुलिस इंस्पेक्टर उतरकर स्टीमर पर आ गए। एक ने स्टीमर के कप्तान से कान में कुछ कहा । कप्तान साहब भकभकाकर इंस्पेक्टर की ओर देखने और उसके हाथ का पिस्टल टटोलने लगे ।
इंस्पेक्टर ने कहा, “आप स्टीमर छोड़िए। हम लोग कोलंबो तक चलेंगे। यहाँ रोकने की कुछ जरूरत नहीं है। "
कप्तान, “लेकिन हमको तो उसका कुछ पता नहीं है । उसकी हुलिया भी मिली है?"
“हमको मद्रास पुलिस कमिश्नर का टेलीग्राफ मिला है कि बहरामजी डुपलेक्स स्टीमर पर माना हुआ है, अपना नाम उसने बदल दिया है, और मुहम्मद कासिम अली के नाम से कोलंबो फोर्ट के बंबई होटल का मालिक बना है। पहले दरजे का टिकट लिया है। रंग गोरा, कद का कुछ लंबा, छोटी गरदन, आँखें उज्ज्वल, बदन पर अचकन और पाजामा, माथे पर खोजों की पगड़ी, पाँव में सलीमशाही, लाल जोड़ा है, कंधे पर उसके जख्म है, साथ में नौकर-चाकर कोई नहीं, अकेला है।"
यह बात कप्तान साहब और पुलिस इंस्पेक्टर में बहुत धीरे हुई, लेकिन थोड़ी देर में सब या स्त्रियों को इसकी खबर लग गई। सुनते ही सबका कलेजा काँप गया।
जिस बहराम के डर से बंबई भर के धनी-मानी थर्राते हैं, कभी जवान, कभी बूढ़ा, कभी साहब, कभी डॉक्टर बनकर, कभी भोजपुरी लटैन होकर, कभी मराठा का रूप लेकर जो लोगों का माल मारा करता है, जिसकी गिरफ्तारी के लिए मध्य प्रदेश के सुप्रसिद्ध जासूस मुहम्मद सरवर भी खासतौर से तैनात हुए हैं, वही बहराम आज इस जहाज पर सवार है। सुनते ही सबकी धोती ढीली हो पड़ी। लोगों के पाजामे- पतलून पसीज गए।
बात बड़े आश्चर्य की है। बहराम तो अकेला कुछ सहस्रबाहु तो है नहीं न, पुराने जमाने का भीम है, फिर वह धरती पर भी नहीं है कि भाग सके। एक थोड़े से लंबे-चौड़े जहाज पर मानो नजरबंद है। तो भी इस देश के लोगों की कमजोरी का क्या कहना कि उस स्टीमर पर जितने महाराष्ट्र, तामिल, हिंदू, मुसलमान, क्रिस्तान थे सब थर्रा उठे। सब पर मानो उसका जज्बा आ गया।
दशा तो सचमुच ऐसी ही है। वह भारत है भी इसी दशा में। किसी के पास बचने का कोई हथियार नहीं है। अगर कोई हथियारबंद या एक भी प्रबल शत्रु हिंदुस्तान के किसी के घर में आ जाए तो उसका पाँव पकड़कर गिड़गिड़ाने और हाथ जोड़ने के सिवाय और कोई उपाय ही नहीं है। तब इस तरह एक डाकू का जहाज पर आना सुनकर सब पर कँपकँपी का आना कुछ आश्चर्य तो है नहीं ।
पहले दरजे में पेड़ा साहब नाम के एक अँगरेज सयाने थे। यह लंका के गवर्नर के दफ्तर में काम करते थे। साथ में अठारह उन्नीस वर्ष की एक लड़की मिस एलिस थी । साहब हिंदुस्तान की सैर करके तूतोकेगरिन होकर गए थे। घूम-घामकर मद्रास से कोलंबो लौट रहे थे। उनसे मेरी मुलाकात मद्रास के एक मोर स्टेशन पर वेटिंगरूम में हुई थी। उनकी कन्या एलिस के साथ मैं मद्रास से ही हुआ था । मेरा उसका कोर्टशिप भी शुरू हो गया था ।
एलिस ने मुझसे कहा, “क्यों मिस्टर नेल! बहराम इस स्टीमर पर है, तब तो बड़ी आफत की बात है, लेकिन तसल्ली की बात यह है कि वह गिरफ्तार हो गया । "
मैंने कहा, “अच्छा चलो देखें, लेकिन सुनते हैं वह बहराम है बड़ा धूर्त | मैं नहीं कह सकता, वह कैसे पकड़ा जा सकेगा ! "
एलिस, “लेकिन वह तो इस स्टीमर में बंद सा हो चुका है। अब गिरफ्तार नहीं होगा तो जाएगा कहाँ?"
अब जहाज के कप्तान पहले दरजे के यात्रियों की हाजिरी लेने पहुँचे, थे ही वे उँगलियों पर गिन लेने लायक । बारी-बारी से पुकार होने लगी और साथ में इंस्पेक्टर खड़े सबका चेहरा देखने लगे।
मैं जब एलिस के साथ पहुँचा, तब उन्होंने पुकारा - 'मिस्टर टेलर ! ' हाजिर कहकर टेलर सामने आए। एक आदमी ने उनको पहचाना। कप्तान ने पुकारा - मेजर वाटलिंग! अब वाटलिंग सामने आए, एक ने आवाज दी मेरे काका हैं।
कप्तान ने पुकारा, " सोराब! "
एलिस बोली, " सोराब तो गोरा नहीं है । "
इनमें तो कोई बहराम नहीं है। किसी के साथ उसका हुलिया नहीं मिला।
जो लोग अकेले थे, जिसके साथ और कोई या परिवार नहीं था, उनको भी देखा जाँचा गया। एक आदमी और बाकी रहे। वह कोने में खड़े थे, उनका नाम पुकारा गया - मिस्टर मुहम्मद ! मिस्टर मुहम्मद कोने से निकलकर सामने आए। सबने देखा । उनका गोरा रंग, आँखें उज्ज्वल, कोतह गरदन है, पोशाक अचकन नहीं, कोट- पतलून है। पुलिस इंस्पेक्टर ने पूछा, " अच्छा मिस्टर मुहम्मद को कौन पहचानता है? "
किसी ने कुछ जवाब नहीं दिया।
अब तो इंस्पेक्टर का संदेह बढ़ा। उन्होंने पूछा-
"आप तो मुसलमान हैं न?"
मुहम्मद सरवर, " जी हाँ । मुसलमान होना तो कोई पाप नहीं । "
इंस्पेक्टर, “ आपका पूरा नाम ?”
" पूरा नाम है, दीन मुहम्मद कासिम अली । "
इंस्पेक्टर, " बहराम मुहम्मद नाम बताकर इस स्टीमर पर सवार हुआ। अच्छा आपके कंधे पर कोई जख्म है?"
बिगड़कर उन्होंने कोट उतार दिया। देखा गया तो कंधे के पास पीठ में जख्म है। अब सबको विश्वास हो गया कि बहरामजी यही हैं।
अब इंस्पेक्टर उनको साथ लिये हुए कप्तान के केबिन में पहुँचे। इसी समय बीबी रास साहिबा वहाँ हाँफती हुई आई। बोलीं, “अरे मेरा सर्वनाश हो गया ! मेरे नेकलेस के हीरे और याकूत- पुखराज सब किसी ने निकाल लिये हैं। "
अब हम सब लोग मिसेस रास के केबिन की ओर दौड़ पड़े। वहाँ देखा तो नेकलेस पड़ा है। हीरे-जवाहरात सब निकाल लिये गए हैं।
बड़े आश्चर्य की बात है कि बीबी रास के केबिन से बराबर यात्रियों का आना-जाना हो रहा है।
वह नेकलेस गहने के बॉक्स में था, जो कपड़ों की तह में था । बहुत थोड़ी देर के लिए मिसेस रास वहाँ से हटी थीं। इतने में ही वह सब माल हीरे-जवाहरात कैसे निकाल लिये गए। इनका कुछ भी पता नहीं चला।
सब लोग कहने लगे, यह काम उसी बहराम का है। दूसरे से ऐसी सफाई हो ही नहीं सकती । यह काम बड़े पक्के चोर का है।
सब लोग घंटी की आवाज सुनकर दस्तरखान पर पहुँचे, तब मालूम हुआ कि मिस्टर मुहम्मद गिरफ्तार कर लिये गए हैं। अब सब लोग बहुत डरे, लोगों में यह बात होने लगी कि बहराम किसी का कीमती माल नहीं छोड़ेगा ।
मैं एलिस के साथ डेक पर चहलकदमी कर रहा था। चाँदनी छिटकी थी । चाँदनी में जहाज की मनोहर छवि निहार रहा था । हम दोनों में खुलकर बातें हो रही थीं। जब सवेरा होने को आया तो देखा मिस्टर मुहम्मद टहल रहे हैं। मालूम हुआ कि सब बातों का उचित और विश्वास योग्य जवाब देकर पुलिस के हाथ से छूट गए हैं। अब सबको यह चिंता बढ़ी कि बहराम है कौन?
पुलिस ने दीन मोहम्मद को छोड़ तो दिया, लेकिन अभी बहुतों के मन में पहला विश्वास जमकर बैठा था। एलिस ने कहा, "देखो यह मिस्टर मुहम्मद गोरा है। अकेला है। कंधे पर जख्म है। छोटी गरदन है। जरूर यही बहराम है । सब हुलिया इसी से मिलता है। नहीं तो दूसरा कौन बहराम हो सकता है? लेकिन है यह बड़ा जादूगर । नहीं तो भला इस तरह सफाई से इतनी जल्दी इतना काम कर लेना दूसरे से कहाँ हो सकता है?"
हम लोग कई संगी-साथी खड़े यही बात कर रहे थे कि मिस्टर मुहम्मद लोगों की ओर आए। इस समय एलिस और मिसेज रास हटकर यहाँ से सरक गई। थोड़ी देर पर उस जहाज में एक विज्ञापन घुमाया गया कि जो आदमी बहराम को पकड़ेगा उसको पाँच सौ रुपया इनाम दिया जाएगा। मिस्टर मुहम्मद ने कप्तान से कहा, " अगर बहराम को पकड़ने में कोई मदद नहीं देगा तो मैं खुद उस पाजी से लडूंगा। ऐसी बदमाशी मुझसे सही नहीं जाएगी।"
यात्रियों ने ताने से कहा, "क्या खूब ? बहराम पर बहराम! डाकू पर डाकू ! "
उसी दिन से मिस्टर मुहम्मद स्टीमर का कोना-कोना ढूँढ़ने लगे।
नाविकों से पूछने लगे। यात्रियों से जाँच करने लगे । रात-दिन छाया की तरह घूमते रहे, लेकिन बहरामजी या चोरी की गई चीजों का कुछ भी पता नहीं लगा । कप्तान ने भी स्टीमर भर ढूँढ़वा डाला। दोनों पुलिस इंस्पेक्टरों ने भी बड़ी कोशिश की, लेकिन कुछ भी पता नहीं चला। सब मेहनत बेकार गई ।
एलिस ने कहा, “अगर अच्छी तरह ढूँढ़ खोज की जाए तो जरूर चीजें मिल जाएँगी। वह हजार चालाक है तो क्या, जवाहरात कहीं फेंक देगा थोड़े ! जरूर कहीं इसी स्टीमर पर छिपा रखा है। "
मैंने कहा, “छिपा रखा है जरूर ! लेकिन देखना यह चाहिए कि रखने की जगह कहाँ-कहाँ है ? जहाज को ढूँढ़ डालना तो अनहोनी बात है । जैसे मान लो कि हमीं बहराम हैं तो इसी अपने बैग में तो वह हीरे-पत्थर छिपा सकता है, उसका छिपाना कौन कठिन है? उन चीजों की बिसात ही क्या है ? "
एलिस, "मैं सुनती हूँ, चोर- खूनी अपना काम कितनी ही सफाई से करें, अपने पीछे कुछ-न- कुछ छोड़ जाते हैं, जिससे जासूस लोग उनको पकड़ने के लिए सूझ निकालकर उन्हें गिरफ्तार कर ही लेते हैं। "
“हाँ, लेकिन बहरामजी तो कुछ रख नहीं गया! क्यों ?"
"बात यह है कि बहरामजी अव्वल दरजे का उस्ताद है । वह चोरी करने के साथ ही इस बात का ध्यान रखता है कि पीछे उसको कोई पकड़ न सके। इसी चालाकी से तो वह अब तक पकड़ा नहीं गया! "
एलिस, “ तो तुम्हारे कहने का मतलब है कि वह पकड़ा नहीं जाएगा, न चोरी की गई हुई चीजें मिलेंगी, क्यों?"
“मैं तो ऐसा ही समझता हूँ।”
अंत में मेरा ही कहना सत्य हुआ । बहुत कुछ खाक छानने पर भी बहरामजी का कहीं पता नहीं लगा । न चोरी किए हुए माल की कुछ खबर मिली।
दूसरे दिन सूरज उगते ही मालूम हुआ कि कप्तान साहब की सोने की घड़ी नहीं मिलती । अब तो कप्तान के मिजाज का पारा बहुत ऊँचे चढ़ गया । वह बड़ी सरगर्मी से अपनी घड़ी की खोज करने लगे। उन्होंने मिस्टर मुहम्मद पर बड़ी कड़ी नजर रखी।
उसके दूसरे दिन जब सबेरा हुआ, असिस्टेंट कप्तान की जेब में वह घड़ी पाई गई। लोगों में बड़ी ही दिल्लगी की लहर आई । बहराम बड़े मजाक का डाकू है। किसी की उसको कुछ परवाह नहीं है, जब चाहा, तब माल मारा, जब चाहा, तब लौटा दिया।
मिसेज रास ने कहा, “मिस्टर मुहम्मद उर्फ बहराम तो बड़ा भयंकर आदमी है। माल चुराकर पकड़ने का इश्तिहार जारी करता है । चोरी करके भी तमाशा देखने के लिए उसको लौटा देता है। ऐसा जबरदस्त चोर कौन होगा?"
कोलंबो पहुँचने से एक दिन पहले रात में एक नाविक डेक पर पहरा देता था । इसी समय एक ओर से किसी की चिल्लाहट सुनाई दी, वहाँ अँधेरा था । नाविक ने देखा तो एक आदमी पड़ा हुआ, हाय-बाप मचाए है। कभी-कभी जोर से चिल्ला उठता है। उसके सिर पर शॉल लिपटी है। हाथ-पाँव रस्सी से कसकर बँधे हैं। नाविक ने उसके बंधन खोल दिए । वह जब उठ खड़ा हुआ तो देखा मिस्टर मुहम्मद हैं। जब उनका मिजाज ठिकाने हुआ, तब उन्होंने बयान किया—
“मैं चोर की खोज में लगा था। इसी समय किसी ने पीछे से आकर मेरा सिर कपड़े से ढककर बाँध दिया और मुँह ऐसा कर दिया कि मैं बोल नहीं सका। जब वह चला गया, तब मुँह ढीला पाकर चिल्लाया हूँ। "
देखा तो मुहम्मद के कपड़े में एक कागज पिन किया हुआ है । उसको पढ़ा गया तो यों लिखा था—
'बहराम मिस्टर मुहम्मद का 500 रुपए लेकर उनका धन्यवाद करता हूँ ।'
मिस्टर मुहम्मद ने देखा तो सचमुच उनके नोटों में से 500 रुपए के नोट गायब हैं।
अब इस घटना के बाद किसी को मिस्टर मुहम्मद को बहराम कहने का साहस नहीं हो सकता। लेकिन यात्रियों में इतना विवेक विचार कहाँ! सब कहने लगे कि यही मुहम्मद चोर है। वही सब चालाकी चल रहा है।
लेकिन फिर भी समझदारों के मन में यह बात आई कि कोई आदमी अपने को इस तरह जकड़कर बाँधे, हो ही नहीं सकता। अब सब यात्री डर के मारे काँपने लगे। बड़े संकट का सामना है। जो सामने नहीं, जिसका कुछ पता नहीं, उसका कौन सामना करेगा। अगर यह जाहिर हो जाए कि अमुक आदमी बहराम है, तब तो सब उससे खबरदार हो सकते थे या उसके मुकाबले में आते। नहीं मालूम इतने आदमियों में कौन बहराम है। क्या जाने यह मेरे मित्र ही बहराम हों। मैं खुद भी बहराम हो सकता हूँ। एक-दूसरे का विश्वास कैसे कोई करे ।
अब यात्रियों में संध्या के बाद किसी को बाहर निकलने की हिम्मत नहीं होती। दिन को भी सब मन में डरने लगे कि क्या जाने किस पर किस ओर से कौन आफत आ पड़े।
सब लोग घड़ी-घड़ी आफत के कगार पर तैयार समझकर भीतर ही भीतर सुकड़कर सोंठ होने लगे। एक आदमी के उसने जवाहरात चुराए, दूसरे को जकड़कर बाँधा और 500 रुपए के नोट उड़ा लिये। कप्तान की घड़ी लेकर लौटा दी। अब न जाने किसकी जान ले ले। अब सब यात्री डर गए। नाविक, कप्तान सब पर जज्बा आ गया । सबमें हड़कंप होने लगा। अंतिम दिन जब कोलंबो पहुँचना था, सबके चेहरे पर हवाइयाँ छूट रही थीं।
लंका की राजधानी कोलंबो बंदरगाह दूर से दिखाई देने लगा। अब मन में भरोसा हुआ कि वहाँ वह चांडाल जरूर पकड़ा जाएगा । तब पता लग जाएगा कि कौन बहरामजी है । कहीं जरूर वेश बदलकर हम लोगों में ही छिपा है।
जब स्टीमर बंदरगाह में जा पहुँचा, मिलिटरी पुलिस के कई आदमी आ चढ़े। उन्होंने भी कहा, " इस स्टीमर पर बहरामजी डकैत सवार है । सब आदमी एक एक कर उतर जाएँ । ”
देखा तो बंदरगाह का प्लेटफॉर्म हथियारबंद पुलिस से भरा है। मैंने एलिस को पुकारकर कहा, " देखा, बहराम की अगवानी किस ठाठ से हो रही है! "
एलिस, “हाँ तैयारी तो हुई है लेकिन अगर वह हम लोगों से पहले ही यहाँ आ डटा हो तो आश्चर्य है।"
मैं एलिस की बात पर चौंक उठा। कहा, “देखो प्यारी ! वह जो बूढ़ा आदमी है, जिसकी वर्दी पर पुलिस लाल मखमल से टाँका गया है, वह जो पुलिस बोट पर खड़ा है।"
एलिस, "हाँ, वही न जो काला छाता लिये है! "
“हाँ-हाँ! पहचानती हो वह कौन है? एलिस न ।”
मिस्टर टेलर, मेजर वालटिंग, मिस्टर सोराब । सब बारी-बारी से उतर गए। उनके बाद मिस्टर मुहम्मद उतरने लगे, एलिस बोल उठी, “क्यों मिस्टर वेल! मैं तो समझती हूँ यही बहरामजी है । " 'अगर यही बहराम है तो इसका और मुहम्मद सरवर का एक ही फोटो लेना चाहिए । हैं कैमरा उठाओ।" कहकर कैमरा एलिस को दिया।
लेकिन फोटो नहीं लिया जा सका, क्योंकि मिस्टर मुहम्मद उतर गए थे। जब उतरती बेर मिस्टर मुहम्मद मुहम्मद सरवर के पास बगल में पहुँचे, तब कप्तान और दोनों इंस्पेक्टरों ने उनसे कान में कुछ कहा था। मुहम्मद सरवर ने सिर हिलाकर नाहीं की और मिस्टर मुहम्मद चले गए। अब निश्चित हो गया कि मिस्टर मुहम्मद बहरामजी नहीं हैं, तब वह है कहाँ ।
अभी स्टीमर पर पच्चीस-तीस यात्री बाकी थे। मैंने एलिस से कहा, "चलो अब भीड़ कम है, हम लोग उतर चलें। तुम्हारे माँ-बाप पीछे आएँगे।"
बस पहले एलिस चली, मैं उसके पीछे-पीछे चला। थोड़ा आगे जाने पर मुहम्मद सरवर ने हाथ के इशारे से मुझे रोका।
मैंने कहा, "क्यों?"
मुहम्मद सरवर, “जरा ठहरिए । जल्दी मत कीजिए। इतनी भीड़ है। "
मैं, “देखते नहीं साथ में महिला है, भीड़ में।"
मुहम्मद, “आप बहरामजी नहीं हैं?"
मैंने हँसकर कहा, “क्या खूब ! मैं बहराम, न बहराम का भाई मैं तो मिस्टर वेल हूँ।"
मुहम्मद, "अच्छा।"
"जी हाँ बहराम तो मिस्टर मुहम्मद के नाम से इस पर सवार..."
मुहम्मद, "यह सब तुम्हारी चालाकी अब नहीं चलेगी। बहराम नाहक क्यों तंग करते हो?"
इसी समय मुहम्मद सरवर ने मेरे कंधे पर हाथ मारा। मैं तकलीफ के मारे चिल्ला उठा। मुहम्मद सरवर ने ठीक उसी हुलियावाले टेलिग्राम के अनुसार मेरे जख्म पर हाथ मारा था। अब एलिस को देखता हूँ तो उसका चेहरा पीला हो गया है। हाथ काँप रहे थे। वह हम लोगों की बातें सुनकर ही सूख गई थी। मैंने उसके चेहरे को देखकर उसका हाथ ताका, जिसमें मेरा कैमरा लिये हुए थी।
वह खड़ी रहने के बदले खटाखट आगे बढ़ी। मैं समझ गया कि वह मेरा इशारा समझ गई है। एलिस पैड़ी ही पर थी कि उसके हाथ से कैमरा छूटकर सिंधु जल में जा गिरा । नहीं जानते, उसने खुद फेंका या छूट पड़ा।
अब उसी कैमरे में मिस्टर मुहम्मद का 100 रुपए का नोट और बीबी रास के जवाहरात रखे थे। मेरी चोरी के सबूत तो जो कुछ थे, सब सिंधुदेव के उदर में जा रहे ।
अब मैंने मुहम्मद सरवर से कहा, “अच्छा, चलो मुहम्मद सरवर, अब मैं तुम्हारे साथ चलने को राजी हूँ। इस घड़ी इनकार नहीं करूँगा।"
बस दोनों साथ लिये ।
उपसंहार
कोलंबो में जब हम लोग सवेरे राजा साहब सहित पहुँचे, संध्या के पाँच बजे एलिया प्रेस गए। अपने मासिक जासूस के वास्ते कॉपी चंद्रप्रभा प्रेस को भेजने की चिंता चढ़ी, मन में सोच रहा था। महाराजा साहब का दिया हुआ फाउंटेनपेन कागज पर दौड़ने को तैयार था कि किसी ने पीछे से आकर मेरी आँखें बंद कर लीं। मैंने मियाँ सोहनसिंह, जमादार कीनाराम, शृंगारसाज बैजूराम, हाजिरी बाबू हरीदास, प्रधान योद्धा लहना सिंह, मास्टर दयासिंह, वैद्य धरमसिंह सबका नाम लिया, लेकिन आँख नहीं खुली। तब मैंने कहा नहीं पहचान सकता! तब उसने हाथ आँखों से हटाकर कहा, "पहचान कभी की नहीं है। आप चिंता में क्यों बैठे हैं?"
मैंने कहा, “ जासूस के वास्ते कॉपी भेजने की चिंता है।"
उसने कहा, “मैं बहरामजी हूँ। मुहम्मद सरवर को धोखा देकर भाग आया हूँ। मैं डुपलेक्स स्टीमर पर आपबीती कहता हूँ! यही जासूस के लिए काफी होगा । वही लिख लेवे। इस घड़ी मेहनत न करें! "
मैं उसकी बात पर राजी हो गया । यही ऊपर लिखा हाल उसने बयान किया। मुहम्मद सरवर के हाथ से कैसे छूटे यह मैं पूछता ही रहा कि वह खटाखट नीचे उतरकर रफूचक्कर हो गया, कुछ नहीं बतलाया।
बहराम बंदीखाने में
बहराम की विशेषता
हम इस बात से बहुत प्रसन्न थे कि बहराम अपनी बात का बड़ा सच्चा था। उस पर उसी की करनी से आफत के बादल चारों ओर से मँडरा रहे थे, लेकिन वह किसी की कुछ परवाह नहीं करता था, सदा हँसता चेहरा लिये मस्त बना रहता था।
वह जब मिलता, तब प्रसन्न बदन ही मिलता था । उसमें एक बात बड़ी विचित्र देखी कि वह जब मिला, तब वह नए रूप में ही मिला और हर बार तभी उसको पहचाना, जब उसने स्वयं अपना परिचय दिया ।
इस कारण हम आज तक उसकी असली सूरत नहीं देख सके। एक बार बहराम ने मुझसे कहा था ।
"आईने में अपनी सूरत देखकर मैं खुद अपने को पहचान नहीं सकता। मैं खुद अपनी आकृति भूल गया हूँ, तब दूसरे मुझे कैसे पहचान सकते हैं? "
यह आज तक कोई नहीं कह सकता कि यह बहराम है या बहराम का रूप है। लोग कहा करते हैं, यह काम बहरामजी का है। मतलब यह है कि हमारे काम से ही हमारा परिचय मिलता है।
कहने का अभिप्राय यह है कि रूप बदलने में उसकी बराबरी का दूसरा कोई है, यह कहते संदेह होता है। चेहरे की मांसपेशियों को वह अच्छी तरह अपने काबू में रखता था । इसी से अपना रूप जैसा नए-नए शेप में बदला करता था।
बहराम डाकू था, लेकिन उसका डाका डालना भी नए ढंग का था । वह कभी किसी गरीब का एक पैसा भी नहीं लेता था । साधारण चोर की तरह वह जो पाता था, वही नहीं हथिया लेता था । वह अपना हथकंडा, नित नया-नया हुनर सदा दिखलाया करता था । उसके हथकंडे देखकर बड़े-बड़े जासूसों को भी चक्कर आ जाता था । खूबी यह कि जहाँ से वह काम कर जाता था, वहाँ अपना कुछ भी पता - निशान नहीं छोड़ जाता था।
बहराम खून कभी नहीं करता था। एक बार उसने कहा था कि खून करके किसी का माल लेना तो कुछ बहादुरी का काम नहीं है। जैसे कोई सोता है और हाथ में भुजाली लिये गए, उसका गला रेतकर या पेट में भोंककर उसका सब लूट लिया इसमें कौन सी करामात है। ऐसे कामों को मैं बड़ी नफरत से देखता हूँ। खून-खराबे की तो कुछ जरूरत ही नहीं है । चतुराई से ही सब काम हो सकता है। मैं सब अपना काम सफाई और चालाकी से ही करता हूँ ।
बात यह है कि बहराम अपनी काररवाई से सर्वसाधारण की भी हमदर्दी पाया करता था । जासूस तातजी उसके प्रधान बैरी थे। उन्होंने कैसे कोलंबो में उसको गिरफ्तार किया, यह अलग लिखने की बात है । लेकिन गिरफ्तारी के बाद सेंट्रल जेल में बंद रहकर भी उसने किस तरह काशी में डकैती की थी वही आज कहना चाहता हूँ ।
दीवान रघुवंश प्रसाद नारायण सिंह
काशी में रघुवंश प्रसाद नारायण सिंह के राजमहल सी सुदृढ़ सुविशाल अटारी पतित पावन जाह्नवी के बाएँ तट पर सर्वजन दर्शनी, सबकी श्रद्धा की वस्तु थी । उसको दीवान - मंडल कहते थे किंतु उसको एक दुर्भेद्य किला कहना अधिक उपयुक्त होता । उसके तीन तरफ पत्थर की अलंघ्य चहारदीवारी थी, खाई नहीं और एक ओर मातेश्वरी भगवती गंगा पाददेश धोती हुई कल- कल नाद से बह रही थी। इसी कोठी में हिंदुस्तान के सबसे पहले बड़े लॉर्ड वॉरेन हेस्टिंग्स, जिनके ऊपर बनारस के राजा और अवध की बेगमों पर अत्याचार करने के अभियोग में विलायत में मुकदमा चला था, जान बचाने के लिए छिपे हुए थे । उस समय राजा चेतन सिंह के आदमियों ने उन्हें पकड़ने के लिए इस कोठी को घेर लिया था । उस समय बड़े लॉर्ड वॉरेन हेस्टिंग्स साहब बहादुर ने एक सुरंग के रास्ते भागकर अपनी जान बचाई थी । रघुवंश प्रसाद नारायण सिंह के परदादे श्रीमान काशिराज सरकार के दीवान थे। वे अपने बाहुबल से अपार धन कमाकर मर चुके थे। उन्होंने अपने समय में गंगातट का वह विशाल महल और लाट साहब की वह बनारसवाली कोठी ये दोनों अटारियाँ बनवाई थीं।
लेकिन बाबू रघुवंश प्रसाद नारायण सिंह के पूर्वज ऐसे हुए कि सब संपत्ति फूँक - तापकर खाली हाथ हो गए। जो कुछ बची-खुची संपत्ति थी, उसी के श्री रघुवंश प्रसाद नारायण सिंह अधिकारी हुए।
लेकिन रघुवंश नारायण प्रसाद सिंह की कृपणता में बड़ी प्रसिद्धि थी । वह अपनी कंजूसी के कारण घर-घर की चर्चा में रोज शामिल किए जाते थे। इतने कंजूस थे कि उनके नाते-गोते के आदमी भी उनसे खुश नहीं रहते थे और इसी कारण रघुवंश प्रसाद नारायण सिंह भी सबसे अलग रहते थे। रघुवंश प्रसाद नारायण सिंह के मन में यह धारणा थी कि सब लोग उनकी संपत्ति हथियाने के लिए ही तैयार हैं। इसी कारण वह सदा सशंक रहते थे। रोज सूरज डूबते बेरा उनका सिंहद्वार झनाके के साथ बंद कर दिया जाता था और उसमें वह अपने हाथ से खूब मजबूत दूसरी चाबी से हरगिज न खुलनेवाला ताला लगाकर चाबी अपने पास रखते थे और कोई रास्ता उनके उस महल में घुसने का नहीं था ।
एक दिन जब चिट्ठी बाँटनेवाला पोस्टमैन बोला, “मैं और कोई नहीं हूँ दीवान साहब! मैं आपके दरबार का पुराना चिट्ठी - रसा हूँ ।" यही कहकर उसने कहा, “एक रजिस्टरी चिट्ठी आपके नाम की आई है। "
उन्होंने सही करके रजिस्टरी चिट्ठी ले ली। वे उसे बहुत ही विस्मित होकर खोलने लगे। बात यह है कि उस समय कोई कहता कि आपके नाम का वारेंट है तो भी उनको उतना आश्चर्य नहीं होता, जितना रजिस्टरी चिट्ठी से हुआ। उनका कोई भी दुनिया में अपना नहीं था, न किसी नाते- गोते के आदमी से अपना कुछ ऐसा नाता ही रखते थे, न किसी से कभी चिट्ठी-पत्री करते थे। ऐसी दशा में यह सुनकर बहुत अकचकाए थे कि उनके नाम रजिस्टरी चिट्ठी आई है, वह चिट्ठी मद्रास से आई है, जानने पर तो और आसमान से गिरे । चिट्ठीवाला सही की हुई रसीद लेकर चला गया था। अब रघुवंश नारायण प्रसाद सिंह उसे खोलकर पढ़ा। उसमें लिखा था—
सेंट्रल जेल मद्रास
9 सितंबर, सन् 1890
रघुवंश नारायण प्रसाद सिंह
महोदय
आपके महल के पूरब ओर एक कोठरी है, जिसमें छोटा-सा दरवाजा लगा है। उसमें चौबीसों घंटे घोर अंधकार रहता है। उस गुप्त कोठरी का पता हमारे आपके सिवाय और किसी को नहीं है । उसी कोठरी में अनेक जवाहरात जड़े हाथीदाँत का एक बेशकीमती सिंहासन पसंद है । आपको तो मालूम ही हैं कि उस सिंहासन को आपके परदादा दीवान साहब ने महाराजाधिराज काशिराज के स्वागत के लिए बनवाया था। जब कभी किसी सुअवसर पर महाराजाधिराज पधारते थे, तब उसी पर विराजमान होते थे। वैसा सिंहासन आजकल बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं के यहाँ भी दुर्लभ है। वह इस समय बेचा जाए तो दस लाख का भी नहीं मिलेगा । मैं सिंहासन लेना चाहता हूँ, इसी से लिखता हूँ कि अच्छी तरह खूब खबरदारी से पैक करके महसूल चुकता रेल से मेरे नाम भेज दीजिए। आज के आठवें दिन तक अगर पार्सल रवाना नहीं हो जाएगा तो 31 सितंबर की रात को मैं उसे ले लूँगा और साथ ही उदूल- हुकुमी के जुर्माने में आपका सोने का अतरदान भी ले आऊँगा ।
आपका
बहरामजी
चिट्ठी पढ़ चुकने पर रघुवंश नारायण प्रसाद सिंह को जड़ैया आ गया। सिर से पाँव तक काँपने लगे। साथ ही बहराम का दस्तखत पढ़ने पर उन पर भय घहराया। बात यह है कि दीवान साहब बराबर अखबार पढ़ा करते थे । बहरामजी का डकैती का हाल उनसे छिपा नहीं था । वह यह भी जानते थे कि बहरामजी पर बहुतेरे जासूस पकड़ने के लिए छुटे हुए हैं। ठगी-डकैती के कमिश्नर वहाँ दूर उसकी गिरफ्तारी के वास्ते जी-जान से लगे हुए हैं, लेकिन वह हाथ नहीं आता । जासूस मुहम्मद सरवर उसके ऊपर तैनात है। यह भी दीवान साहब को अखबारों से पता लग चुका था कि कोलंबो से पकड़कर वह मद्रास लाया गया है, यहीं की सेंट्रल जेल में बंद है। ऐसी दशा में वह काशी आकर डाका कैसे डाल सकता है! इतना तो सिंहजी को भरोसा था, लेकिन उसको गुप्त कोठरी और उसमें रखे हुए दसलखी सिंहासन का पता कैसे मालूम हुआ, जब इस बात पर विचार करते थे, तब और हवास खो देते थे, क्योंकि उनको पक्का विश्वास था कि उनके उस सिंहासन का पता उनके सिवाय और किसी को नहीं है ।
अब रघुवंश नारायण प्रसाद सिंह मन में कहने लगे कि हमारे इस दुर्गम महल में वह कैसे घुस सकता है। यह तो बिल्कुल अनहोनी बात है । तो भी उनके भीतर यह बात लगी कि क्या जाने उस धूर्त डाकू बहरामजी का इस अटारी में किसी तरह दाखिल होना संभव हो जाए तो क्या ठिकाना है ।
निदान उन्होंने उसी दम वह चिट्ठी पुलिस के बड़े साहब को भेजकर अपनी रक्षा का निवेदन किया। जवाब में बड़े साहब ने लिखा कि बहराम इस घड़ी मद्रास की जेल में बंद कर दिया गया है । उस पर बहुत कड़ा पहरा है। ऐसा हो नहीं सकता कि जेलखाने से ऐसी चिट्ठी लिख सके। न वह डकैती करने के लिए यहाँ आ ही सकता है। किसी ने आपको डराने के लिए यह चिट्ठी मसखरापन से लिखी है।
लेकिन पुलिस के बड़े साहब के जवाब से सिंहजी को तसल्ली नहीं हुई । वह बार-बार बहराम की चिट्ठी पढ़ने और विचारने लगे कि वह सिंहासन के साथ ही अतरदान भी ले जाने को धमकाता है और तारीख बतलाता है । इस तरह तारीख घंटा बतलाकर डाका डालना किसी वैसे का काम हरगिज नहीं है, न बहराम ऐसा-वैसा डाकू ही है। अखबारों में हम उसकी बहादुरी का हाल बराबर पढ़ते रहते हैं। दक्षिण हाते में उसका हुक्म दर्शनी हुंडी की तरह सकारा जाता है । पुलिस के बड़े साहब तसल्ली दे रहे हैं तो क्या, हमको हरगिज धीरज नहीं आता ।
पुलिस ने जब इनको कुछ सहायता नहीं दी, तब रात उनकी इसी चिंता में बीती । उनके भीतर बड़ा उद्वेग, बड़ी खलबली और बड़ा भय रहा। उन्होंने अब समझ लिया कि इस महासंकट से कोई नहीं बचा सकता ।
मन में सोचने लगे कि अब किसकी सलाह लें, किसकी शरण में जाएँ। किसी से ऐसा मेल- जोल भी नहीं है। यही सब सोचते-सोचते चारों ओर से निराश हो गए, तब उनके मन में आया कि किसी बड़े होशियार, तजुरबेकार, बहादुर जासूस की शरण लेनी चाहिए, तभी यह बेड़ा पार लगेगा। कई दिनों तक दीवान साहब को बड़ी चिंता रही। उसी अवसर पर एक अखबार में उन्होंने नई खबर छपी देखी उसमें लिखा था-
" मशहूर जासूस तानजी मालश्री एक महीना की छुट्टी लेकर काशी गए हैं। उनको इंदौर सरकार से फरमान खास मिला है, अहिल्याबाई घाट पर एक अटारी में रहते और वहीं जी बहलाने के लिए मुंशीघाट एक अटारी में बुर्जी पर गंगाजी में वंशी फेंककर मन प्रसन्न करने की परवानगी दी गई है। उनको मछली के शिकार का बड़ा शौक है।
इस खबर के पढ़ते ही श्री रघुवंश प्रसाद नारायण सिंह को बड़ी आशा हुई। उन्होंने कहा कि तानजी मालश्री बंबई के जासूसों में प्रमुख हैं। वह जरूर इस अवसर पर हमारे आड़े आएँगे। सिंहजी ने यह भी कहा कि इस मौके पर खर्च में कोताही करना ठीक नहीं होगा ।
मुंशीघाट की बुर्जी पर
रघुवंश प्रसाद नारायण सिंह मन में खूब सोच-विचारकर एक दिन मुंशीघाट पहुँचे। वहाँ ती पहर देखते हैं तो एक ओर कई आदमी साबुन से कपड़े साफ कर रहे हैं, दूसरी ओर एक बुर्जी पर ढलती उम्र के एक आदमी पानी में वंशी फेंककर टंडेरी ताक रहे हैं ।
दीवान साहब ने पास जाकर उन्हें खूब देखा । फिर सम्मान दिखाकर नरमी से बोले, “आपका नाम क्या तानजी है?"
उस आदमी ने दीवान साहब को एड़ी से चोटी तक अच्छी तरह निहारकर कहा, "जी हाँ! फरमाइए। "
इतना जवाब देने पर भी उनकी नजर बराबर पानी पर तैरती हुई टंडेरी पर ही रही । रघुवंश प्रसाद नारायण सिंह ने नरमी से ही कहा, "मैं आपके शिकार में खलल डालने आया हूँ, पहले इसी की माफी चाहता हूँ ।"
अब शिकारी बाबू ने उनकी बातों पर उचित ध्यान दिया। पास बिठाकर बोले, “आपका क्या मतलब है, कहिए। मैं शिकार भी खेलता रहूँगा और आपकी बातें भी सुनूँगा । मैं एक साथ काम कर सकता हूँ, किसी में कमी नहीं आ सकती। मैं गट्टूलाल शतावधानी का चेला हूँ।"
अब रघुवंश प्रसाद नारायण सिंह ने अपने ऊपर आई हुई सब विपत्ति कह सुनाई। तानजी ने अपनी वंशी पर ठीक तरह से ताकते हुए ही सारी बातें सुनकर कहा, " चोर में इतना साहस कहाँ है जो इस तरह नोटिस देकर चोरी करेगा और बहराम को तो मैं अच्छी तरह जानता हूँ। वह इस समय जेल में बंद पड़ा है। मैं ही उसे कोलंबो से गिरफ्तार करके लाया हूँ। वह इस घड़ी ऐसे विकट पहरे में बंद है कि मद्रास सेंट्रल जेल से हरगिज हट नहीं सकता। आप बिल्कुल बेफिक्र रहें। "
रघुवंश प्रसाद नारायण सिंह, "अगर वह जेल से भाग आए तब ?"
तानजी ने उन्हें घूरकर कहा, " आप कैसी बात करते हैं! मद्रास की सेंट्रल जेल ऐसी नहीं है कि ऐसे-वैसे चूहों की चौकड़ी उसकी चहारदीवारी लाँघ सकें।"
रघुवंश प्रसाद नारायण सिंह, “ लेकिन बहराम तो बड़ा...।"
बीच में ही बात काटकर तानजी बोल उठे, “आप नाहक घबराते हैं । बहरामजी आदमी है। न तो वह पुराने जमाने का ऋषि-मुनि है, न उसने उड़नखटोला ही रखा है, जिस पर वह उड़कर आ सके। वह तो आजकल ऐसे पिंजड़े में बंद है, जिसमें चिड़िया भी पर नहीं मार सकती । " रघुवंश प्रसाद नारायण सिंह वहाँ से होकर लौट गए, लेकिन निश्चिंत भी नहीं हो सके। कई दिन बीत गए। आप ही आप कहने लगे, जासूस तानजी का कहना सही है । आजकल नोटिस देकर कोई डाका डालेगा। जरूर किसी ने दिल्लगी की है।
उसके बाद 30वीं सितंबर को एक टेलीग्राम रघुवंश प्रसाद नारायण सिंह के नाम आ पहुँचा। उसमें लिखा था-
माल नहीं आया। कल रात के वास्ते सब तैयार रहे खबरदार ! तार को भेजनेवाला बहरामजी ही था। तार पढ़ लेने के बाद रघुवंश नारायण सिंहजी
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अब दीवानजी बढ़ने लगे । जनता में वह दीवान साहब ही मशहूर थे । सब लोग उन्हें कृपण दीवान ही कहा करते थे। लेकिन इस मौके पर वह बढ़ने लगे। सौ से दो सौ, तीन सौ, पाँच सौ, एक हजार फिर होते-होते वह पाँच हजार तक गए। फिर बोले, “इससे अधिक तो मैं नहीं दे सकता तानजी साहब । "
अंत में तानजी को राजी होना पड़ा। इच्छा न रहते भी अब दीवान साहब की बात को टाल नहीं सके। बोले, "क्या कहें सिंहजी ! मैं तो चाहता नहीं था, लेकिन आपकी विनती अब इतनी चढ़ गई है कि अब नहीं करना आदमियत के बाहर होगा। खैर! कल शाम को मैं आऊँगा । आपके नौकर लोग हैं तो विश्वासी आदमी न? "
रघुवंश नारायण, “विश्वासी की बात ऐसी है कि वे लोग काम तो बहुत दिन से करते हैं। लेकिन..."
तानजी, “अगर लेकिन है तो जाने दीजिए। मैं अपने ही विश्वासी आदमी लाऊँगा । आप जब उनका विश्वास नहीं करते तो बेहतर है कि कल रात के वास्ते आप उन्हें बिदा कर दीजिएगा । वह सब घर में रहने नहीं पाएँ । क्योंकि कच्चे आदमियों से काम बनता नहीं बिगड़ता ही है। नीम- हकीम खतरे जान होते हैं।"
सबेरा होते ही डाका पड़ने का दिन आ पहुँचा। विचार कर दीवान साहब ने अपना घर राई - रघी, कोना-अँतरा सब ढूँढ़कर देख लिया कि कोई पहले से आकर छिपा तो नहीं है। जब पूरी तसल्ली कर चुके तब उन्होंने नौकरों को बाहर भेजकर अपना सिंहद्वार बंद किया और दो बंदूकें खूब साफ लकदक करके रख दीं।
संध्या को तानजी अपने दो विश्वासियों के साथ आ पहुँचे। उन्होंने राजमहल सी दुर्भेद्य अटारी अच्छी तरह देख डाली । बोले, "बाप का मकान तो खूब मजबूत है । सिंहद्वार के सिवाय कहीं से कोई भीतर आ ही नहीं सकता। तीन ओर खूब मजबूत दीवार खड़ी है। एक ओर गंगाजी हैं। द्वार बंद कर देने पर तो कहीं से किसी के आने की सुविधा नहीं है ?"
रघुवंश नारायण, "नहीं, एक सुरंग भर है। "
तानजी, " वह कहाँ है?"
रघुवंश नारायण, " वह पश्चिम ओर है।"
तानजी, “खैर, तो बहराम अगर सुरंग से नहीं आए, तब तो उसको कोई दूसरा उपाय नहीं है। बेहतर है कि हम और आप दोनों उस सुरंग के मुँह में रात भर पहरा देवें । ज्यों ही सुरंग के मुँह से निकलेगा, मैं उसी दम उसको गोली मारूँगा । अच्छा आपका वह दौलतखाना है कहाँ ?"
रघुवंश नारायण, "वह तो पूरब तरफ है। "
तानजी, “वहाँ मेरे दोनों आदमी पहरे पर रहेंगे।"
तानजी ने उन दोनों को बुलाकर समझाया, कहा, "देखोजी, तुम लोगों का इसी खजाने पर रात भर के वास्ते पहरा रहेगा । पल भर भी आँख झपकने नहीं पाए। और इस जगह को छोड़कर कहीं जाना नहीं, समझे न ? खूब खबरदारी से रहना होगा । कुछ भी आवाज या संदेह हो तो तुरंत पुकारो या पिस्तौल फायर करो । मैं पश्चिम ओर रहूँगा । अच्छा अब चलिए सिंहजी, हम लोग अपनी सुरंग पर चलें। "
अब तानजी और दीवान साहब सिंहद्वार के मुँह पर हो रहे । पश्चिम की ओर सिंहद्वार के पास ही पहरेदार के लिए छोटी सी गुमटी थी । वह इस समय टूट गई थी । उसमें अंधकूप-सा दिखाई दिया, वही सुरंग का मुँह था । उसी घर में दो कुर्सियाँ मँगाकर तानजी और दीवान सिंह पास ही पास बैठे। दोनों ने एक-एक बंदूक भी ले ली।
तानजी बोले, “कुछ परवाह नहीं सिंहजी, हम लोग चार आदमी इस कोठी में हैं। आप खजाने का ताला बंद कर ही आए हैं। हमारे दोनों आदमी पहरे पर हैं। आप हम लोगों के भीतर आते ही सिंहद्वार पर अपने ही हाथ से ताला भर चुके हैं । बहराम आएगा कहाँ से? अगर आएगा तो आप ही मरेगा। "
कोई तीन घंटे बीत गए। चारों ओर सन्नाटा छाया था । तानजी को आँख बैठे ही बैठे लग गई, लेकिन रघुवंश प्रसाद नारायण सिंहजी की आँखों में नींद कहाँ! वह बराबर सुरंग का मुँह ताकते रहे ।
अब एक बजे किसी की आवाज आई। रघुवंश प्रसाद नारायण सिंहजी ने तुरंत तानजी को झकझोरकर जगाया। तानजी सजग हो बैठे। बोले, “क्या है?"
रघुवंश नारायण, "कुछ आवाज आई है। "
"कहाँ! आवाज तो नहीं आती। "
रघुवंश नारायण, "नहीं, आप सुनिए तो!"
तानजी, "गाड़ी की घरघराहट तो है। सड़क पर बग्घी जा रही है। आप क्या समझते हैं कि बहराम बग्घी पर चढ़कर डाका डालने आएगा। वह आएगा ही नहीं सिंहजी कोई आवाज नहीं ।" तब तानजी फिर सो गए।
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