Beej : (Hindi Novel) Amrit Rai

बीज (उपन्यास) : अमृत राय (कहानी)

प्राक्कथन

बीज का पहला संस्करण १९५२ में प्रकाशित हुआ था जिन लोगों को उस समय की बातें याद होंगी उन्हें शायद यह भी याद होगा कि इसके प्रकाशन का स्वागत एक छोटी-मोटी साहित्यिक घटना के रूप में हुआ था। इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि एक वैचारिक शिविर ने मुक्त कंठ से इसकी प्रशंसा की तो दूसरे बैचारिक शिविर ने उतने ही मुक्त कंठ से इसकी निन्दा की।

मैं दोनों का ही ऋणी हूँ क्योंकि एक ने मुझे आत्म-विश्वास और दूसरे ने आत्म-निरीक्षण दिया और उन आलोचनओं में जितना जो कुछ मेरा विवेक स्वीकार कर सका, उसके आलोक मैं मैंने जहाँ-तहाँ कुछ संशोधन भी किया है जिससे मेरा विश्वास है कि उपन्यास में और कसाव आ गया है।

१९५२ से अब तक इसके कई संस्करण निकल चुके है: पिछले आठ-दस वर्ष पुस्तक अप्राप्य भी रही। इसीलिए कि लेखक के मन में दुबिधा थी–पुस्तक का नया संस्करण किया जाय कि न किया जाय, और अगर किया जाय तो पुस्तक के रूप में ज्यों का त्यों किया जाये या उसे फेर बदलकर, कुछ संशोधित रूप में किया? इसीलिए कि जिस साम्यवाद का इसमें बखान किया गया है वह आज काफ़ी क्षत-विक्षत दिखायी पड़ रहा है और जिस सोवियत संघ की अद्भुत सामाजिक उपलब्धियों की प्रदर्शनी इसमें लगायी गयी है वह विघिटत हो चुका है, उसका अब कहीं अस्तित्व नहीं है।

ये दोनों ही बातें सच है, लेकिन इसके बाद भी मेरा हठीला मन इसको अंतिम सचाई मानने के लिए तैयार नहीं। और यह केवल मेरे हठीले मन की बात भी नहीं, इसके पीछे वास्तविकता का साक्ष्य भी है। अलावा इसके कि आज भी संसार में चीन जैसे विशाल और शक्तिशाली देश, उत्तरी कोरिया जैसे छोटे पर एक बार अमरीका से भी टक्कर लेने का हौसला रखने वाले देख, क्यूबा, वियतनाम जैसे कितने ही देशों में साम्यवादी व्यवस्था है, पुराने सोवियत संघ–भले आज वह मिट गया हो और उसकी जगह स्वतंत्र देशों के एक राष्ट्रसंघ ने ले ली हो–से जुड़े हुए लगभग सभी देशों में कुछ हेर-फेर से साथ अब भी वही समाजवादी व्यवस्था है जो पहले थी। पूर्वी योरप के बल्गारिया और हंगरी जैसे समाजवादी देश जहाँ भी सोवियत संघ के विघटन के बाद समाजवादी व्यवस्था का लोप हो गया था, फिर खुले चुनावों के जरिये समाजवाद पर लौटे है और लौट रहे है, ऐसा उधर से मिलने वाले समाचारों, से पता चलता है। इन समाचारों पर संदेह करने का मैं कोई कारण नहीं देखता लेकिन चूँकि इस सब भयंकर उथल-पुथल के बाद उधर जाने का सुयोग नहीं हुआ है, इसलिए यह स्वीकार करने में मुझे आपति नहीं कि इसके पीछे मेरे निजी अनुभव का साक्ष्य नहीं। इसी के साथ-साथ यह भी न भूलना चाहिए कि इतना भयानक धक्का और चोट खाने के बाद भी विश्व का साम्यवादी आन्दोलन मरा नहीं, भले लड़खड़ा गया हो। इससे और कुछ ही न हो, इसे विचारधारा की जिजीविषा का संकेत मिलता ही है।

मैं ऐसा नहीं मानता कि पिछले कुछ वर्षों में सोवियत संघ और पूर्वी योरप के या अन्य कुछ सामाजवादी देशों में जो कुछ हुआ है वह समाजवादी विचारधारा की अंतिम पराजय है जिसने उसे हमेशा-हमेशा के लिए सुला दिया है। मैं मानता हूँ कि समाजवादी विचारधारा आज भी उतनी ही सजीव और सक्रिय है जिनती कभी थी। इतना ही नहीं मैं यह भी मानता हूँ कि आज पूँजीवाद दुनिया के छठें हिस्से पर मजदूरों-किसानों का राज्य स्थापित हो जाने पर उन वर्गों में जो जागृति की लहर आयी और उन्होंने संगठित होकर अपने जीवन-स्तर को सुधारने के लिए जो संघर्ष करना शुरू किया उसी से उन्होंने पाया जो कुछ उन्हें मिला और बहुत मिला। समाजवादी-समाजवादी विचारधारा के क्रियान्वयन के स्तर पर नेताओं ने भूलें कीं और अपनी सत्ता को बनाये रखने के लिए अपराध किये, उसी के दंड के रूप में यह विस्फोट हुआ जिसने सोवियत संघ को छिन्न-भिन्न कर दिया। विचारधारा आज भी उतनी ही सप्राण है।

अतः मैंने यही निश्चय किया कि पुस्तक बिलकुल अपने मूल रूप से निकलनी चाहिए। जो अनुभव मुझे हुए, मैं जैसे-जैसे चरित्र के सम्पर्क में आया उनको ज्यों का त्यों प्रस्तुत करना ही न्यायपूर्ण होगा। रचना की आंतरिक संहित का भी यदी तक़ाज़ा है।

- अमृत

बीज (अध्याय : १)

‘तुम आज बड़ी उदास दिखायी देती हो, राजेश्वरी’, सत्यवान ने कहा।

‘कुछ तो नहीं’, राजेश्वरी ने कहा और मुसकराने की कोशिश की।

लेकिन सत्यवान ने आसानी से देख लिया कि यह मुसकराहट यों ही ओठों के फैल जाने से ज़्यादा कुछ नहीं है। उसने कहा–अपना चेहरा तो ज़रा आइने में देखो और सचमुच मेज़ पर से आइना उठाकर राजेश्वरी की तरफ़ बढ़ाया। लेकिन राजेश्वरी ने आइना नहीं लिया और लम्बा मुँह बनाकर क्रोध का अभिनय करते हुए कहा–यह तुम्हारी बड़ी बुरी आदत है, सत्य!

सत्यवान ने आज शाम राजेश्वरी का चेहरा देखते ही भाँप लिया था कि आज इसके सीने पर कोई बोझ है जी तभी हलका हो सकता है जब राजेश्वरी उसके बारे में कुछ बोले, किसी आत्मीय से आपनी तकलीफ़ बाँटे। लेकिन जैसी आत्मीय से आत्मीय आदमी के आगे भी नंगा होने में झिझक होती ही है उसी तरह दिल को भी नंगा करने में होती है।

सत्यवान ने इन्हीं सब विचारों में डूबे हुए कहा–चलो ज़रा टहल आवें।

राजेश्वरी जैसे इस प्रस्ताव का इन्तज़ार ही कर रही थी। उसने कहा–तुम ज़रा बाहर चलो, मैं साड़ी बदल लूँ।

मार्च के दिन थे। गुलाबी सर्दी थी। हलकी-हलकी हवा चल रही थी। सत्यवान और राजेश्वरी टहलते-टहलते जार्जटाउन के एक छोर पर पहुँच गये। दोनों काफ़ी ख़ामोश चले जा रहे थे। राजेश्वरी कुछ कहना चाहती थी, लेकिन बात जैसे ओठों तक आकर रुक जाती थी सत्यवान उसका बोझ हलका करना चाहता था लेकिन एक खास हद से ज़्यादा आग्रह भी अपनी तरफ़ से नहीं करना चाहता था, पता नहीं किसकी कौन सी दुखती रग छू जाय। लेकिन एक सूनी सड़क पर काफ़ी फासले तक यों ही चुप-चुप चलने में घुटन दोनों महसूस कर रहे थे। आख़िर सत्यवान से और न रहा गया, उसने हिम्मत करके पूछा–आज तुम वहाँ तो नहीं गयी थीं? राजेश्वरी ने कोई जवाब नहीं दिया।

सत्यवान ने फिर धीरे से पूछा–क्यों? तुम कुछ बोलतीं क्यों नहीं?

इस बार राजेश्वरी ने उसे घायल गाय की निगाहों से देखा।

सत्यवान ने देखा कि राजेश्वरी की आँखों में आँसू है। उसने हलके से राजेश्वरी के कंधे पर हाथ रखा और कहा–छी…

फिर दोनों घर की तरफ़ लौटे पड़े। रास्ते भर कोई कुछ नहीं बोला। राजेश्वरी रीता बादल थी और सत्यवान, जलता तवा।

घर पहुँचते ही सत्यवान ने काफ़ी कठोर स्वर में कहा–राज, उस जानवर के लिए तुम्हारी आँख में आँसू देखकर मेरे बदन में आग लग जाती है।

राजेश्वरी ने ज़मीन पर आँख गड़ाये-गड़ाये कहा–तुम कब समझोगे, सत्य…मैं किसी के लिए नहीं रोती, अपने भाग्य को रोती हूँ…

सत्यवान को जैसे किसी ने चुटकी काट ली–भाग्य? एक तीखी ज़हर में बुझी हुई हँसी। राजेश्वरी चुप रही। और राजेश्वरी की चुप्पी से ही सत्यवान को सबसे ज़्यादा चिढ़ होती है। ठीक तो है, कछुआ अपना सिर भीतर काठी के अन्दर समेट ले तो कोई उस पर चोट भी कैसे करे!

उसने राजेश्वरी का दिल दुखाने की ग़रज़ से कोई ऐसी कड़वी बात कहनी चाही कि वह अपनी चुप्पी तोड़े यानी अपनी काठी के बाहर आये। उसने कहा–तुम बार-बार पत्तल चाटने वहाँ जाती क्यों हो? वहाँ तुम्हारा ऐसा कौन खजाना गड़ा है?

इसका भी राजेश्वरी पर कुछ ख़ास असर नहीं हुआ। उसने बड़ी जालिम सादगी से कहा–आज मेरी शादी की बरसगाँठ थी…

सत्यवान मारे गुस्से के गिनगिना गया। अपने शब्दों को चबाते हुए बोला–तुम्हारी शादी की बरसगाँठ…बड़े जश्न का दिन था तब तो?

राजेश्वरी ने निरीह आँखों से सत्यवान को देखा, जैसे उसकी समझ में न आता हो कि इसे आज ऐसी दिलखराश बातें कहने में क्या मज़ा मिल रहा है। उन आँखों में हलका सा शिकायत का भाव था और वैसी ही हलकी सी याचना कि तुम आज क्यों मेरे पीछे हाथ धोकर पड़े हो। मेर चेहरा क्या तुम्हें ऐसा ख़ुश नज़र आता है कि उसे दुखी करना ज़रूरी है?

और इधर सत्यवान सोच रहा था–यह भारतीय स्त्री भी क्या अजीब जन्तु है। जिस जाहिल आदमी ने इसकी ज़िन्दगी धूल में मिला दी है, उसी की माला जपती बैठी है और उसकी शान के खिलाफ़ एक शब्द सुनने को तैयार नहीं है। जिस घर में उसके लिए कोई जगह नहीं है उसमें बार-बार धँसने की कोशिश करती है, ‘सभ्य’ तरीक़े से दुतकारी जाती है, मगर फिर-फिर वहीं पहुँचती है। स्वाभिमान भी तो कोई चीज़ है लेकिन यहाँ तो वह ग़ायब है। गोरी-चिट्टी, लम्बी, छरहरी सी, उठी हुई मगर कुछ चौड़ी भद्दी सी नाक, बड़ी-बड़ी आँखों और घनी काली पलकों वाली राजेश्वरी सूरत-शकल में, शिक्षा में, रहन-सहन में उस आदमी से हज़ार गुना अच्छी है, सचमुच वह राजेश्वरी के पैर की धोअन भी नहीं है।

सत्यवान ने एक मर्तबा राजेश्वरी के पति को देखा था, दबे हुए, पक्के रंग का, दुबला रोगी, अफीमची चेहरा जिस पर मक्खियाँ सी भिनकती थीं। सर पर बड़ी सी चुटिया रक्खे मैली सी धोती और चीकट कमीज़ और कोट पहने–पूरा कार्टून है। पढ़ाई-लिखाई में बिलकुल, साढ़े बाइस, एड़ी-चोटी का पसीना एक करके भी मेरा शेर एफ. ए. नहीं कर सका! लेकिन घर में पैसा बहुत था इसलिए लालन के एफ. ए. कर सकने पर भी ज़्यादा कुछ नहीं बिग़डा, दुकान पर उन्हें चिपका दिया गया और वह मजे में चिपक गये।

राजेश्वरी के पिता बाबू भगवानसहाय कमिश्नरी में हेडक्लर्क थे। तनख्वाह तो डेढ़ ही सौ थी लेकिन ऊपरी आमदनी काफ़ी थी, इसलिए अपनी बीस साल की नौकरी में उन्होंने काफ़ी पैसा जोड़ लिया था। राजेश्वरी की शादी भी उन्होंने अपनी समझ में लाख में एक की थी। पूरे डेढ़ साल की खोज-ढूँढ़ के बाद, कई शहरों की खाक छानने पर उन्हें यह वर मिला था–अरे दूल्हे का भी कहीं रंग-रूप देखा जाता है, वह भी क्या कोई लड़की है। नाक-नक्शे का अच्छा, घर अच्छा, बस और क्या चाहिये। शहर में अपने तीन-चार मकान है, जमा हुआ कारबार है और उससे तो फिर आप जानते ही है कितनी बरक्कत होती है।…ग़रज़ राजेश्वरी के पिता की दृष्टि में यह मियाँ मुचड़ू किसी नौलखाहार से सम नहीं थे जो वह अपनी लाड़ली राज के गले में डाल रहे थे। उन्होंने बहुत मगन होकर राज की माँ से कहा था–कितनों को मिलते है ऐसे लड़के? चलो अपनी राजो की ज़िन्दगी बन गयी राज करेगी…

और इसमें शक की गुन्जाइश भी कहाँ थी–चार बड़े-बड़े पंडितों ने बैठकर वर-वधू का ज़ायचा मिलाया था और एक स्वर से फ़तवा दिया था कि ऐसा अद्भुत योग कभी ही कभी देखने में आता है, सम्बन्ध पक्का करने में तनिक भी विलम्ब न कीजिए शुभ कार्य में देर न करनी चाहिये, भगवान का नाम लेकर जाइए, कल ही लड़का छेंक आइए, आपकी लड़की रानी बनेगी, रानी, ऐसा ही योग है।

बस फिर क्या था, बाबू भगवानसहाय दूसरे ही रोज़ गये और फलदान कर आये–कानपुर से इलाहाबाद दूर ही कितना। लड़का छिंक गया यानी राजो तो अब रानी बनेगी और बनेगी। भगवान को यह जोड़ा मंजूर था तभी तो दोनों की कुंडिलयाँ आपस में इतनी मिलीं की ज्योतिषी लोग भी दंग रह गये।

उन्हीं ज्योतिषियों ने पोथी–पत्रा देखकर विवाह के लिए शुभ से शुभ दिन और मुहूर्त भी विचार दिया और उसी दिन शुभ से शुभ मुहूर्त में दस साल की राजेश्वरी चन्द्रमाप्रसाद के संग विवाह-सूत्र में बाँध दी गयी। संयोग की बात, विवाह के तीन हफ़्ते पहले से उसे बुखार आने लगा, लेकिन इस मारे कि कहीं वह शुभतम लग्न हाथ से न चली जाय, तीन हफ़्ते के ज्वर से एकदम टूटी हुई, कमज़ोर राजेश्वरी को एक तरह से गोद में उठाकर उसकी माँ ने अग्नि के फेरे लगवाये।

और फिर जब हर नुक्ते से ऐसी बेहतरीन शादी हो रही थी तब भला यह कैसे मुमकिन था कि खर्च के मामले में बाबू साहब फिसड्डी रह जाते। उन्होंने काफ़ी शाहखर्ची दिखलायी जो चीज़ जहाँ की मशूहर थी वहाँ से मँगायी गयी–मिठाई बनाने के लिए लखनऊ से हलवाई आया, तरकारियों के लिए कशमीरी रसोइया बुलाया गया, इटावे से बीसों पीपे घी आया। एक से एक अच्छी सोने और चाँदी के काम की बनरसी साड़ियाँ मँगायी गयीं, जेवर बम्बई से बनकर आये। नौकरों को देने-लेने के लिए कानपुर की मिलों से बेतहाशा जोड़े खरीदे गये। ग़रज़ कि किसी बात में कोताही नहीं की गयी कि कोई हेडक्लर्क साहब का नाम धर सके। सभी उनकी शाहखर्ची की दाद दे रहे थे, यहाँ तक कि लड़के वाले भी उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहे, गो यह बात वह जबान पर न लाते थे क्योंकि ऐसा करने में उनकी हेठी होती।

ऊँची शिक्षा ज़िन्दगी की एक बड़ी नेमत होती है लेकिन जब सत्यवान राजेश्वरी की ओर देखता तो उसे जैसे आँख में मिर्च झोंक कर कोई यह बतलाता की ऊँची शिक्षा भी जीवन का अभिशाप हो सकती है। अगर राजेश्वरी एकदम अनपढ़ जाहिल-जपट्ट औरत होती तो कोई कारण नहीं था कि वह अपने लाख में एक कमाऊ पति के साथ और अपनी ससुराल के वातापरण के साथ पूरी तरह खप न जाती। मज़े में चौके-चूल्हे से लेकर सफ़ाई-निगरानी तक घर का सारा साम-काज देखती, रात में प्रेमपूर्वक पतिदेवता के पाँव पलोटती, उनकी शैया का अलंकार बनती कोई बात नहीं अगर थकावट के मारे उसका शरीर भुसभुसी मिट्टी हो रहा है और नींद से आँखें झपी जा रही है। हर साल दो साल में एक तोहफा मियाँ की खिदमत में पेश करती और बस इसी तरह ज़िन्दगी कट जाती। तब तो कोई झगड़ा ही न था,

लेकिन…

उसका विवाह तो दस साल की उम्र में हो गया था, लेकिन गौना हुआ सोलहवें वर्ष। उसी वर्ष उसने इन्ट्रेंस के पास किया था और सो भी फ़र्स्ट डिवीज़न में। आगे पढ़ने, लायक़ बनने, दुनिया में नाम कमाने और ऐसे ही दूसरे बचकाने सपनों को लेकर वह पहली बार पति के घर आयी। उसको भेजते समय बाबू भगवानसहाय ने शर्त लगा दी कि राजेश्वरी को और आगे पढ़ाया जाय। अकसर बातों में बाबू भगवानसहाय बहुत पिछड़े हुए विचारों के आदमी थे, लेकिन एक अजीब बात थी कि लड़कियों को पढ़ाने का उन्हें बड़ा चाव था, ख़ास तौर पर जब राज को इन्ट्रेन्स में फ़र्स्ट डिवीज़न मिला तो उनके मन में यह बात और भी पक्की जम गयी कि राज ऊँची डिग्री हासिल करे। इसीलिए राज को रुख़सत करते समय ही उन्होंने राज के चचिया ससुर से, जो उसे विदा करने गए थे, अपनी यह इच्छा प्रकट कर दी थी। उन महाशय ने इस सवाल पर बहस करना फ़िज़ूल समझा। बाबू भगवानसहाय से वह कहना तो यही चाहते थे, बिलकुल दो टूक, कि साहब हमारे यहाँ लड़कियाँ और बहुओं को बहुत पढ़ाने का रिवाज नहीं है। कोई उनसे नौकरी करानी है? लेकिन उन्होंने बात को वैसे न कहकर नीति से काम लेना ज़्यादा ठीक समझा और मुसकराकर, कुछ हाँ-हूँ करके राजेश्वरी को विदा करा लाये।

अपने इस नये घर का वातावरण राजेश्वरी को पहली ही बार में कुछ अच्छा नहीं लगा। एक तो घर की हर चीज़ में ऐसा एक टुच्चापन था जो राजेश्वरी को खल गया। पतिदेवता का हुलिया यों ही कुछ खास आकर्षक नहीं था, मगर पास से देखने और चार-छ-रोज़ संग रहने पर तो राजेश्वरी को उनसे गहरी अरुचि हो गयी। राजेश्वरी परी न सही मगर काफ़ी खूबसूरत लड़की थी और पतिदेवता के जोड़ में बिठाल देने पर तो सचमुच परी थी। चन्द्रमाप्रसाद राजेश्वरी के सामने बिलकुल कहार दिखायी देता था। यह सही है कि उनके घर में अशर्फ़ियों गड़ी थीं लेकिन अशर्फ़ियों चन्द्रमाबाबू के चेहरे-मोहरे के संग भला क्या कीमिया कर देतीं! वह तो जैसा था वैसा था। उस पर कोई रंग-रोगन मुमकिन नहीं था। मगर सबसे बड़ा गजब तो यह हुआ कि उस ठस चेहरे पर कोई अक्ल की रोशनी भी न थी वर्ना उसी से शायद कुछ बात बनती। विवाहित जीवन के न जाने क्या-क्या लुभावने सपने उसके षोडशवर्षीय मन में थे, सब पतिदेव के पहले ही दरस-परस से वहीं ठंडे हो गये। फिर, उसके मन के किसी कोने में यह चीज़ भी बैठी हुई थी ही कि यह आदमी एफ. ए. भी नहीं पास है। पढ़ने-लिखने की उसकी जो नयी-नयी उमंगे थीं उनकी पूर्ति में उसे इस आदमी से भला क्या मदद मिल सकती थी!…ग़रज़ अपनी सभी जवान उमंगों के सर्द हत्यारे की शकल में राजेश्वरी ने इस नये आदमी को देखा जो कि उसका पति था।

गर्मी की छुट्टियाँ ख़तम होने पर जब राजेश्वरी ने अपने पतिदेव से कहा कि वह चलकर उसका नाम महिला विद्यालय में लिखा दें तो पतिदेव ने ऐसा मुँह बनाया मानो यह चर्चा ही कोई बेशर्मी हो और उन्हें इस बात पर हैरत हो रही हो कि वह ऐसी गंदी बात मुँह पर लायी तो कैसे लायी!

मगर वह इस मुँह बिचका देने से हार मानने वाली नहीं थी। लिहाज़ा वह पूरे ज़ोर से अपनी बात पर अड़ी लेकिन जब उसका कोई असर न हुआ, चन्द्रमाबाबू टस से मस न हुए और घर का सारा काम काज उसकी इस उमंग को पैरों तले रौंदकर ज्यों का त्यों चलता रहा जैसे कोई बात ही नहीं हुई तो उसने मायके जाने की जिद की और अपने बाबू को चिट्टी भी लिख दी कि मुझे आकर लिवा जाओ। जब इसकी भी कोई सुनवाई यहाँ न हुई तो जवानी के जोश में वह खाना-पीना छोड़कर पड़ गयी। एक-दो रोज़ सासू जी ने और घर के दूसरे लोगों ने इस पर भी बहुत ध्यान नहीं दिया। मगर यह चीज़ भला कब तक चलती। आख़िरकार तंग आकर और चिढ़कर चन्द्रमा के चाचा जी ने बाबू भगवानसहाय को लिखा कि आकर अपनी लाड़ली को ले जाइये, ऐसी नकचढ़ी तो लड़की ही नहीं देखी! आपके घर में क्या लड़कियों को बेअदबी की ट्रेनिग दी जाती है?…वगैरह-वहैरह पता नहीं क्या-क्या उन्होंने तैश में आकर बाबू भगवानसहाय को लिख मारा। बाबू भगवान सहाय खत मिलने के तीसरे दिन आकर राज को अपने साथ ले गये। बाबू साहब राज को ले तो गये लेकिन मन ही मन डर रहे थे कि कहाँ इसका अन्जाम बुरा न हो।

इस चीज़ की गम्भीरता को वे न समझते हो, ऐसी बात नहीं थी। इसलिए उन्होंने घर से चलते समय ही सोच लिया था कि चलकर सबसे पहले राज को समझाऊँगा–बेटी, जैसा देस वैसा भेस, अब अपने इन बड़ों को ख़ुश रखना ही तुम्हारा कर्तव्य है, ऐसा काम करों जिसमें यो लोग तुमसे ख़ुश रहें क्योंकि इन्हीं की खुशी में तुम्हारी ख़ुशी है…लेकिन जब उन्होंने अपनी बेटी का सूखा मुर्झाया हुआ चेहरा देखा तो सब उनके दिमाग़ से जैसे उड़-सा गया और पहली बार उनके मन में जैसे बिजली सी चमकी कि अरे, यह कैसे कसाइयों के हाथ मैंने अपनी लड़की दी। अपने उस आवेश में उन्होंने किसी से ज़्यादा बात भी नहीं की और राज को लेकर पहली गाड़ी वापस चले गये।

आवेश ठंडा होने पर परिस्थिति की पूरी गम्भीरता धीरे-धीरे उनके मन में उतरने लगी।

ज्योतिषियों ने कहीं झूठ तो नहीं कहा? जिस सौदे को उन्होंने अपनी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा शाहकार समझा था, उसकी यह क्या गत बनी?

राजेश्वरी के वैवाहिक जीवन की यह पहली खरोंच थी बाघ के नखों की जो वक़्त के साथ भरी नहीं, उल्टे जिसे वक़्त ने एक गहरे जख़्म की शकल दे दी जो कि नासूर बना, वही नासूर जिसे राजेश्वरी की ज़िन्दगी भी कहते है।

राजेश्वरी उस बार उनके घर से क्या गयी, सदा के लिए चली गयी उसके सुसरालवालों ने समझ लिया कि वह मर गयी थी और इसका उन्हें कोई गम नहीं था क्योंकि रकम जो उनके हाथ लगनी थी लग ही चुकी थी। उन्होंने भूलकर भी, फूटे मुँह से भी एक बार राजेश्वरी को नहीं बुलाया और राजेश्वरी मायके में रहकर वक़्त काटने लगी और वक़्त काटने की ग़रज़ से पढ़ने लगी जितना ही आगे पढ़ती गयी, उसके और पति के बीच की खाई उतनी ही ज़्यादा गहरी होती गयी।

बाबू भगवानसहाय अपनी लड़की की बेकस जवान ज़िन्दगी को देखते थे और खून के आँसू रोते थे, रात की रात बिस्तर में करवटे बदलते रह जाते थे। लेकिन अब कोई चारा न था, पाँसा ग़लत पड़ा था और बाजी हार गयी थी।

राजेश्वरी भी उस खाई को देखती थी जो उसने खुद अपने हाथों खोदी थी मगर अब लाख चाहने पर भी जिसको पाटना उसके हाथ में न था। अब तो वह खाई राजेश्वरी मिसेज राजेश्वरी निगम एम.ए.एल. टी. जो लड़कियों को नागरिक शास्त्र और दुनिया का और बहुत-सा अल्लम-ग़ल्लम पढ़ाती थी।

बीज (अध्याय : २)

सत्यवान साढ़े पाँच फुट का, साँवले रंग का, मामूली जिस्म का आदमी है। उसकी आँखें देखने में तो ख़ास बड़ी नहीं, मगर बड़ी तेज़ है। वह जब बहुत ग़ौर से किसी की बात सुनता है या किसी के चहरे पर निगाहें गड़ाता है कि उस जगह पर अभी देखते-देखते एक बड़ा छेद हो जायगा। उसका माथा खूब चौड़ा है पर सर के बाल बहुत छोटे-छोटे है। ज़्यादातर खादी का कुर्त्ता-पजामा पहनता है, कभी-कभी खादी का सफ़ेद पतलून और सफ़ेद कमीज़ पहनता है। कुल मिला कर उसके बहिरंग में कुछ खास आकर्षण न होते हुए भी कुछ है जो उसके व्यक्तित्व को रुचिर बनाता है। वह शायद उसके चिन्तनशील चेहरे की ताज़गी है, जो उसकी भीतरी ताज़गी का दर्पन है।

सत्यवान के पिता के देहान्त को छ साल हुए। वह जुबली स्कूल में ड्राइंग मास्टर थे। काफ़ी कम उम्र में ही उनका अन्त हो गया–पैंतालिस के पेटे में ही होंगे तब वह। काफ़ी परेशानियों में उनकी ज़िन्दगी गुज़री थी। दो लड़कों को पढ़ाना था और एक लड़की की शादी के लिए पैसा जोड़ना था। इन्हीं सब फिक्रों ने उन्हें घुन की तरह अन्दर ही खोखला कर दिया था। अपने बच्चों के लिए वह करना बहुत कुछ चाहते थे मगर कुछ ख़ास कर नहीं सके, असमय मृत्यु ने सभी मंसूबे धूल में मिला दिये। तब तक वह बस इतना कर पाये थे कि अपनी सारी जमा-जथा लगाकर उन्होंने सत्यवती की शादी कर दी थी। दोनों लड़कों में से बड़ा सत्यव्रत पिता के देहान्त के समय मैट्रिक में और सत्यवान नवीं में था। पिता का साया सर से उठ जाने पर उन लोगों का वक़्त बहुत भारी गुज़रा। घर में भूनी भाँग नहीं थी और खाने वाले कम से कम तीन तो थे ही–सत्यवती का शुमार अगर न भी करें, गो कि दूसरे-तीसरे महीने वह भी आठ-दस रोज़ के लिए आ ही जाती थी। पास रायबरेली के एक गाँव में ही उसका घर था। बस दाल-रोटी पर गुजर थी। सत्यव्रत मैट्रिक पास करके एक जेनरल मर्चेडाइज की दुकान पर नौकर हो गया। घर को कुछ सहारा हुआ। सत्यवान की पढ़ाई चलती रहती। मैट्रिक की परीक्षा में प्रान्त भर में उसकी आठवी पोजीशन आई, वजीफा मिला और पढ़ने का सिलसिला रुका नहीं।

सत्य को अपनी पढ़ाई के लिए जो लम्बा संघर्ष करना पड़ा था उसने उसके स्वभाव में एक ख़ास तरह की गम्भीरता ला दी थी जो आम तौर अच्छे खाते-पीते घरों के लड़को में नहीं पायी जाती, जो पढ़ाई के नाम पर, ठाठ के साथ बाप के पैसों पर गुलछरें उड़ाते है. खूब चाय पीते है, खूब सिनेमा देखते है, खूब लड़कियों को घूरते है और खूब जीट हाँकते है। इसके ठीक विपरीत, जीवन के संघर्ष ने ही जीवन के प्रति सत्य के दृष्टि कोण को गम्भीर बना दिया था।…किसी लेखक का यह मकूला सत्य के मर्म पर जाकर बैठ गया था कि आदमी की ज़िन्दगी के हर पल का कोई न कोई लक्ष्य होना चाहिये। सत्य से अब अगर कोई पूछे भी कि यह बात किसने कही तो वह कोई जवाब न दे सकेगा, लेकिन वह चीज़ अब उसके खून में घुल गयी है।

देश के प्रति गहरा प्यार, अंग्रेज़ों से उतनी ही ज़बरदस्त नफ़रत, सादा जीवन और देश के लिए कोई भी कुर्बानी बड़ी नहीं है–ये चन्द बातें चरित्र का अंग हो रही थीं। यही उसकी राजनीति का ककहरा भी था। सत्यवान की अब भी अपने लड़कपन के वह दिन याद है जब पार्कों में नमक बनाया जाता था और सड़कों पर हज़ारों आदमियों के जुलूस निकलते थे, जब लाख-लाख दो-दो लाख लोगों की मीटिंगें होती थीं जिनमें तिल रखने को जगह न होती थी, जब वालंटियर आज़ादी या मौत, का बिल्ला सीने पर लगाये जुलूस के आगे-आगे चलते थे और दौड़-दौड़ कर मीटिंग का इन्तजाम करते थे, जब मीटिंग से ज़रा हटकर बिसाती गाँधी और जवाहर सरदार भगतसिंह और बटुकेश्वरदत्त के बैज बेचते थे जिन्हें नौजवन बड़ी आन बान से अपने सीने पर टाँक लेते थे। सत्यवान तब बहुत छोटा था, मुशकिल से सात-आठ साल का, लेकिन उन दिनों जो एक आम हलचल थी उसने जैसे हवा में बिजली दौड़ा दी थी बच्चे-बूढ़े-जवान, औरत-मर्द सब उस बिजली को अपने खून में दौड़ता महसूस करते थे। उस सरकश ज़माने की धुँधली सी याद सत्यवान के मन में बाकी है। सत्यवान कभी-कभी सोचताः लड़कपन में भी कैसा जोश होता है वैसा जोश तो जवानी में भी नहीं होता। कैसा मज़ा था गला फाड़-फाड़ कर नारे लगाने में अशर्फ़ी पार्क में वह जब नमक बनाया जा रहा था तब उस नमक के कड़ाहे के लिए पुलिसवालों और वालंटियरों मैं कैसी छीनाझपटी हुई थी! वह दिन भी मज़ेदार थे।

सत्यवान को गाँधी और जवाहर से भी ज़्यादा मुहब्बत थी सरदार भगतसिंह से क्योंकि उसे फाँसी लगी थी और वह जवान था और बहादुर था–फाँसी का झूला झूल गया मर्दाना भगतसिंह उसने अपनी माँ से छ पैसे लेकर सरदार भगतसिंह का बैज ख़रीदा था और उसे अपनी गुलाबी पाँपलिन की कमीज़ में लगाकर ख़ुश-ख़ुश-घर आया था।

घर के लोग भी इन मीटिंगों में जाते थे, सत्यवान की माँ जाती थीं। लेकिन इस ज़रा से, अँगूठे बराबर, लड़के का मीटिंग या जुलूस में जाना उनको अच्छा न लगता था। जब तक घर लौट न आता, प्राण उनके नहों में समाये रहते, लड़का कहीं खो न जाय, कहीं दब न जाय, बीसों तरह की शंकाएँ मन में जागती थीं। लाठी भी जुलूसों पर अकसर बरसती ही थी, घोड़े भी भीड़ पर दौड़ाये जाते ही थे। इन सभी का उनको डर लगता था। और फिर भीरू मन का तो स्वभाव ही होता है कि वह बुरी से बुरी बातें अपने और प्रिय-जनों के लिए झट सोच डालता है, जैसे लाठी अगर चलेगी तो कोई कांस्टेबुल ताक कर एक लाठी इस ज़रा से छोकरे के सिर पर ही तो मार देगा! उन दिनों की याद करके अब भी सत्य को बड़ा सुख मिलता है। संयोग से उन दिनों लखनऊ में सत्य का घर एक ऐसे मुहल्ले में था, अमीनुद्दौला पार्क में, जहाँ से ही सारे जुलूस उठते थे और खत्म होते थे। मीटिंग भी तमाम वहीं होती थीं।

सारे प्रदर्शनों का केन्द्र वही था, इसलिए जुलूस हमेशा ही सत्य के घर के सामने के निकलते थे और वह हमेशा माँ की नज़र बचाकर उनमें शामिल हो जाता था। तभी से अंग्रेज़ों के प्रति एक ज़बरदस्त घृणा उसके मन में भर गयी थी, जैसी कि बच्चे के दिल में ही भर सकती है। और हम जब कहते है कि हमें तुम्हारा राज नहीं चाहिये, हमें हमारा मुल्क वापिस दे दो तो सब हमारे आदमियों को पकड़ कर जेल ले जाते है और वहाँ खूब पीटते है उन्हें बूटों से कुचलते है। जेल बुरी जगह है, वहाँ खाने को भी ठीक से नहीं मिलता।…सरदार भगतसिंह बड़ा था उसने बड़े लाट पर बम फेंका था। पर उसे फाँसी हो गयी…सरदार भगतसिंह के बारे में उसने शायद घर में ही लोगों को जो बातें करते सुना था, उनमें से एक बात उसके मन पर अमिट छाप छोड़ गयी थी। बड़ा बहादुर था भगतसिंह। जब जल्लाद भगतसिंह के मुँह पर काली टोपी पहनाने के लिए आगे बढ़ा तो जानते हो भगतसिंह ने क्या कहा? भगतसिंह ने कहा–रहने दो उसकी ज़रूरत नहीं है। मैं मौत से नहीं डरता। अरे बेवकूफ़ तुझे क्या नहीं मालूम कि यह हिन्दुस्तान है जहाँ के बहादुर मौत को मुसकराकर गले से लगाते है। यह कहकर भगतसिंह ने आगे बढ़कर खुद अपने हाथों से फाँसी का फन्दा अपने गले में डाल लिया और चिल्लाकर कहा–

इंक़लाब ज़िन्दाबाद। फिर जल्लाद से कहा–अब किस बात की देरी है? ऐसा बहादुर था वह भगतसिंह!

पता नहीं, शायद ऐसी कोई बात भगतसिंह ने नहीं कही! घर पर जो बातचीत सत्य ने सुनी थी शायद उसमें भी इतने तफ़सील के साथ यह बात नहीं कही गयी थी, लेकिन अपनी ही गढ़ी हुई यह कहानी अकेली सच्चाई की तरह सत्य के मन में जमकर बैठ गयी थी।

और अब अगर उसे कोई बतलाता कि भगतसिंह ने यह बात नहीं यह बात कही थी तो वह हरगिज़ न मानता और दूसरा आदमी अगर अपनी बात पर अड़ जाता तो सत्य रो देता। अपने वीर की पूजा वह जिन फूलों से कर रहा था, उनके अलावा उसे और कोई फूल नहीं चाहिये।

भगतसिंह से ज़रा घटकर जिस दूसरे आदमी की जगह उसके दिल में थी वह था अशफ़ाक़उल्ला-काकोरी केसवाला अशफ़ाक़उल्ला।

फाँसी की तरफ़ बढ़ते हुए रामप्रसाद बिस्मिल ने यह शेर पढ़ा था जो तभी से सत्य को याद हैः

दरो दीवार पर हसरत से नज़र करते है।
ख़ुश रहो अहले वतन हम तो सफ़र करते है।

अशफ़ाक़उल्ला को फ़ैज़ाबाद जेल में फाँसी लगी थी। उसके बारे में यह बात मशहूर थी कि फाँसी की कोठरी में उसका वजन चालीस पौड़ बढ़ गया था दुनिया के इतिहास में यह एक अनोखी घटना थी। जो बात वीरों के सम्बन्ध में सिर्फ़ एक कविकल्पना थी उसे अशफ़ाक़उल्ला की ज़िन्दगी और मौत ने उसकी छाती कैसी फूल उठी थी, उसके भीतर जोश का जैसे उबाल सा आया था और उसके मन ने चिल्लाकर कहा था ताकि सारी दुनिया सुन सके–यह हिन्दुस्तान है!

बाग़ी ज़माने की यह हलचलें उसकी घुट्टी में पड़ी थी। मगर उनके साथ ही साथ सत्य के मन की बनावट में उसके एक मामा का भी बड़ा हाथ था।

सत्य के मामा बनारस के एक गाँव में रहते थे। अच्छे धनी किसान थे। घर में कभी घी-दूध की कमी नहीं पड़ी। खूब खाते थे और एक हज़ार डंड और तीन हज़ार बैठक रोज़ निकालते थे। बड़े मस्तमौला जीव थे। शाम को भाँग उनके लिए रोटी से भी ज़्यादा ज़रूरी पड़ती थी। उर्दू शायरी के बड़े शौकिन थे। उपन्यासों में सिवाय प्रेमचंद के और कुछ भी पढ़ता गुनाह बेलज्जत समझते थे। बड़े मुँहफट इन्सान थे, बेधड़क कहते थे। इन वाहियात लिक्खाडों से मुझे सख्त चिढ़ है। धोती बाँधे की तमीज नहीं, चले है नाविल लिखने! सब के सब एक सिरे से झख मारते है झख। वही मसल है, पैसा न कौड़ी, नाक छिदाने दौड़ी। जनाब नाविल लिखना कोई खाला जी का घर नहीं है। ज़िन्दगी देखते नहीं आदमी की ख़ाक-धूल पहचान नहीं लेकिन साहब, हम तो नाविल लिखेंगे! हम तो साहब झख मारेंगे, कोई हमारा क्या कर लेगा!

घर में, गाँव में, अज़ीज़-रिश्तेदारों में वह किसी क़दर ख़ब्ती मशहूर थे। और क्यों न होते, वह सदा किसी न किसी छोर पर रहते थे। मध्यम मार्ग तो उन्होंने सीखा ही नहीं था। और जिस चीज़ को हम आज के रोज़ दुनिया या समाज कहते है यह मध्यम मार्ग पर चलने ही को अक़्लमंदी समझता है। और फिर उनको लल्लो-चप्पो भी नहीं आती थी, जो कि आज दिन जीवनयात्रा का एक ज़रूरी पाथेय है। और इतना ही नहीं उनके संग एक तीसरा ग़ज़ब यह भी तो था कि काम-धन्धे के ख़याल से वह खासे मटियाफूस आदमी थे, खेती-बाड़ी काम घर के दूसरे लोग करते थे और आप डंड पेलते थे और भाँग का गोला चढ़ाते थे और एक साँस में तीन सेर दूध पीते थे… ऐसा आदमी ख़ब्ती नहीं तो और क्या होगा।

मगर सत्य पर अपने इस ख़ब्ती मामा का बहुत असर था। मामा उसे प्यार भी कम न करते थे, जब भी आते ढेर-सी मिठाइयाँ लाते। मगर सत्य के मन में उनको जो जगह मिली हुई थी उसका ख़ास कारण ये था कि वह दो बार जेल गये थे, जब कि सत्य के घरवालों या निकट सम्बन्धियों में दूसरा कोई दो तो क्या एक बार भी जेल नहीं गया था। सत्य के मामा को राजनीति की किताबें पढ़ने का भी शौक था, लेकिन दाँव-पेंच ज़्यादा कुछ नहीं समझते थे, लठ्टमार आदमी थे लट्ठमार राजनीति समझते थे–इन हरामज़ादे गोरों को यहाँ किसने बुलाया? हम पर हुकूमत करने का इन्हें क्या हक़?

आज़ादी की लड़ाई का रूप भी उन्होंने अपने ढंग से समझ रखा था। कहते थे–यह पुलिस के डंडे खाना भी कोई लड़ाई है? यह मेरे बस का रोग नहीं। लाठी का जवाब लाठी–यह तो ठीक है मगर यह बकरी की तरह सिर झुकाकर डंडे खाना! छि, इस तरह भी क्या कभी कोई मुल्क आज़ाद हुआ है? सब बुद्धूपन की बातें है, गाँधी के किये–धरे कुछ होगा नहीं…हाँ हाँ गाँधी ने लोगों को जगाया वह सब ठीक है मगर इससे ज़्यादा उम्मीद बुढ्ढे से न करो। आज़ादी की लड़ाई का मतलब है हथियारों की लड़ाई…

उनकी युवावस्था के कई दोस्त आंतकवादी आन्दोलन में चले गये थे। पिस्तौल और बम ही उनके साथी थे। अपने घर-बार, बाल-बच्चों की मजबूरियों और स्वभाव में किसी ध्येय के प्रति आत्यन्तिक निष्ठा की कमी के कारण वह उस मार्ग पर नहीं जा पाये और अपने मस्तमौला ढंग से डंड पेलते और दूध पीते रहे लेकिन उनके स्वभाव में जो उग्रता थी और जवानी के जो संस्कार थे उनके कारण उनका स्वाभाविक झुकाव हथियारबन्द राजनीति की ओर होता था। इसीलिए बावजूद इसके कि वह दो बार गांधी जी के आन्दोलन में जेल गये सजा काटी, कभी उन्हें वह ‘डंडे खाने वाली राजनीति’ समझ में नहीं आयी। वह अक्सर अहिंसा का मखौल उड़ाते हुँ: अहिंसा बरतो! उन लोगों के साथ जिनके पास दिल की जगह मुर्दा खाल की मशक है! यह भी अच्छा खटखटा बाँधा है गांधी जी ने हम लोगों की दुम में।

यह मामा जब भी घर आते तो सदा इसी लहजे में बात करते और सत्य को उनकी बातें सदा बहुत अच्छी लगतीं–और इस तरह अलक्ष्य रूप में उसके मन का एक ख़ास तरह का ढांचा तैयार होता जा रहा था। मगर यह चीज़ हो रही थी उसके भीतर ही भीतर चलने वाले एक गहरे संघर्ष के ज़रिये। यों कहें तो यह सकते है कि बरसों तक उसके दिल दिमाग़ में ज़बरदस्त रस्साकशी रही। बचपन के संस्कारों और साहस के कारनामों के प्रति तरूणाई के सहज आकर्षण से उसका दिल उसे भगतसिंह की तरफ़ खींचता था (और इसमें रत्ती भर शक नहीं कि बरसों तक वही उसके हृदयासन का एकछत्र स्वामी रहा, गांधी और जवाहर किसी के लिए वह जगह उसके दिल में न थी)…लेकिन उसका दिमाग़ उसे गांधी की तरफ़ खींचता था क्योंकि जैसे-जैसे सत्य में चीज़ों को समझने का माद्दा पैदा हो रहा था वैसे-वैसे उसके मन में यह शंका स्पष्ट रूप लेती जा रही थी कि भगतसिंह और बटुकेश्वरदत्त और चन्द्रशेखर आज़ाद का रास्ता सही रास्ता नहीं है आज़ादी का रास्ता नहीं है। उसके मन में सवाल-जवाब चलतेः उनकी बहादुरी दुनिया में बेजोड़ है। देश को आज़ाद कराने के लिए वह लोग जिस तरह सिर हथेली पर लेकर लड़े उसके आगे दुनिया के बड़े से बड़े वीरों का सिर झुक जायगा मगर तुम मुझको यह बतलाओ उस सबका नतीजा क्या निकला। आपने किसी गोरे अफसर या गवर्नर पर बम फेंका या गोली चलायी। अगर आपका वार कामयाब हुआ (जैसा कि अकसर नहीं होता था)

तो एक गोरा मारा गया और उसकी जगह ठीक उसी की कारबन कापी एक दूसरा गोरा आ गया…और इसकी कीमत आपको क्या चुकानी पड़ी? अगर सैकड़ों नहीं तो बीसियों हिन्दुस्तानियों की जानें, लम्बा-चौड़ा षड्यन्त्र का केस, दस-पाँच को फाँसी दस-पन्द्रह को कालापानी और उतनों ही को दस-दस पाँच-पाँच साल की बामशक्कत सजाएँ। और बस फिर काफ़ी दिन के लिए उस इलाके में जोश ठंडा…नहीं नहीं, तुम यह मत समझो कि मैं फाँसी और कालापानी की बात कहकर जान जाने की बात कहकर तुम्हें डरवाने की कोशिश कर रहा हूँ। जानें तो जायेंगी ही, उससे क्या बात है, आज़ादी की लड़ाई में जानें तो जाती है लोग फाँसी चढ़ते है, गोली से उड़ाये जाते है, कालापानी भेजे जाते है। वह सब तो आज़ादी की लड़ाई का दस्तूर है। मैं उससे कब इनकार करता हूँ। लेकिन यहाँ पर सवाल जान का नहीं है सवाल आज़ादी का है। आज़ादी तुम किसके लिए चाहते हो? देशवालों के लिए। तो फिर उनलोगों ने क्या कभी देश के लोगों को पुकारा? क्यों नहीं पुकारा? इसलिए कि उन्होंने जनता को मिट्टी का लोदा समझा, हाँ मिट्टी का लोंदा, गोबर का ढेर! और मैं कहता हूँ इसीलिए तुम्हें कामयाबी नहीं मिली। और इसीलिए गांधी जी को कामयाबी मिली। यह ठीक है कि गाँधी ने देश को डंडा गोली खाने की ही शिक्षा दी, डंडा-गोली चलाने की नहीं, जिसके बिना कभी कोई देश आज़ाद नहीं हुआ करता। मगर इस बात से क्या कोई इनकार कर सकता है कि गांधी ने देश की जनता को पुकारा और जनता उसकी पुकार पर दौड़ी। गांधी की यह ‘साधन की पवित्रता’ वाली बात मुझे भी बकवास मालूम होती है।

मैं यह तक मानने को तैयार हूँ कि अहिंसा ने देश को किसी क़दर निर्वीर्य भी बनाया है, और ज़रूर बनाया है, लोगों में लड़ने-मरने के माद्दे को कमज़ोर किया है। यहाँ तक कि खून देखकर उन्हें गश या ग़श नहीं तो मिलती तो ज़रूर आने लगती है। मैं यह तक मानने को तैयार हूँ लेकिन इसके बाद भी मैं यह कहूँगा कि गांधी जनता का नेता है जो जनता की नब्ज़ पहचानता है, जिसने कभी इस बात को नज़र की ओट नहीं होने दिया कि देश की करोड़ों जनता को पीछे छोड़कर कोई आज़ादी की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती।

मगर सन् ४॰ में गांधी जी ने वह व्यक्तिगत सत्याग्रह क्यों चलाया था? वह भी कैसा अजीब आन्दोलन था। इंगलैण्ड ने बिना हिन्दुस्तानियों की मर्ज़ी के हिन्दुस्तान को अपने साथ लड़ाई में घसीट लिया…कितनी सख्त बेहूदा, जाबिराना हरकत थी। इससे बड़ा तमाचा हमारे मुँह पर और क्या हो सकता था और इससे बड़ा सबूत हमारी गुलामी का। सारी दुनिया ने देखा कि अंग्रेज़ की दुम की तरह हिन्दुस्तानी भी लड़ाई में खिंच आये… मगर इस ज़िल्लत का जवाब गांधी जी ने काहे से दिया? व्यक्तिगत सत्याग्रह से! समझ में नहीं आता उस वक़्त वह अपना व्यक्तिगत सत्याग्रह का चर्खा लेकर क्यों बैठ गये? यह चीज़ उसे सदा अखरती थी, लेकिन इसका कोई जवाब उसके पास नहीं था। फिर भी जब भी उसे व्यक्तिगत सत्याग्रह का ध्यान आता तो उसके साथ-साथ उसे उन कांग्रेसी नेताओं का भी ध्यान आये बिना न रहता जो मजिस्ट्रेट को टेलीफ़ोन करके कि मैं घर पर ही हूँ आप आकर मुझे गिरफ्तार कर लीजिए और मजे़ में गले में जयमाल पहनकर, पान चबाते हुए मन ही मन अपने आप को बड़ा क्रान्तिकारी समझते हुए इत्मीनान के साथ पुलिस की वैन अकसर मजिस्ट्रेट की निजी कार मैं बैठकर कृष्णमन्दिर का रास्ता लेते थे।

बीज (अध्याय : ३)

प्रफुल्ल बाबू–श्री प्रफुल्लकांति बैनर्जी-गवर्मेंट इन्टरमीडिएट कालेज में गणित के अध्यापक है। मझोला कद, गन्दुमी रंग, छरहरा जिस्म जिसकी हड्डियाँ खासी चौड़ी और मजबूत है। मिल की धोती और कुर्ता ही उनकी पोशाक है। खादी वह नहीं पहनते। सन इक्कीस से लेकर सन् बयालीस तक उन्होनें बराबर खादी पहनी, खादी छोड़ कर एक सूत उनके शरीर पर न होता था। मगर फिर उनके विचारों में थोड़ा परिवर्तन आने लगा कहते, खादी बहुत मँहगी पड़ती है, हर आदमी खादी नहीं पहन सकता। या कहते, यह चीज़ नेता लोगों के ही बदन पर शोभा देती है, हर नत्थू-बुद्धू के लिए नहीं है खादी! कभी ज़्यादा गम्भीर होते तो खादी के अर्थशास्त्र की बखिया उधेड़ना शुरू करते। मगर तब तक खादी उन्होंने छोड़ी न थी। काफ़ी दिन तक यह सिलसिला चला। फिर लड़ाई छिड़ी और फिर वह पूरब में फैली, पर्ल हारबर की घटना हुई, जापान उसके अन्दर शरीक हुआ और फिर हिन्दुस्तान भी खिंचकर मैदाने जंग में आ गया।

यह सही है कि हिन्दुस्तान की ज़मीन पर लड़ाई नहीं हुई, सिवाय बाद के कुछ दिनों के। मगर लड़ाई शुरू होने के पहले दिन से हिन्दुस्तान को उस महामारी का सामना करना पड़ा जिसे ब्लैकमार्केट कहते है और जो आजकल की लड़ाई का एक ज़रूरी नतीजा होता है, वैसा ही ज़रूरी नतीजा जैसा लड़ाई के मैदान में लाशों का गिरना। फ़र्क़ बस इतना होता है कि लड़ाई के मैदान में लाशें गिरती है राइफल से और मशीनगन से और भीतर देश में लाशे गिरती है भूख से और ठिठुरन से। इसीलिए कुछ लोग कहते है कि लड़ाई और ब्लैकमार्कैट का चोली-दामन का साथ है। असल बात शायद यह है कि लड़ाई खुद पैसा बनाने का एक विराट् ब्लैकमार्केट है। इसलिए वह भी ब्लैकमार्केट और यह भी ब्लैकमार्केट सारा मामला गँठ जाता है, यहाँ से वहाँ तक।

हाँ तो जबसे ब्लैकमार्केट वालों ने खादी पर इनायत करनी शुरू की तबसे प्रफुल्ल बाबू की निगाह में खादी गिरने लगी और वह अपनी इक्कीस साल की आदत धीरे-धीरे छोड़ चले। यहाँ तक कि होते-होते उनको खादी से दिली नफ़रत हो गयी और वह उसे अहिंसक भेड़ियों की पोशाक कहने लगे, उन लोगों की जो शायद आदमी की खाल की पंपशू भी पहन सकते है बशर्ते वह अपनी मौत से मरा हो (चाहे फिर उन्हीं की पैदा की हुई भूख से, सड़क किनारे उसका दम टूटा हो!) कहते अब तो भाई खादी एक ज़रूरी साइनबोर्ड हो गया है ब्लैकमार्केट का। बस, स्वच्छ श्वेत खादी का परिधान पहन लो, फिर जो मन में आवे करो, कोई तुमसे जवाब तलब नहीं कर सकता। देशभक्ति का इससे बड़ा प्रमाण दूसरा क्या हो सकता है। … कहने का मतलब यह कि जैसे-जैसे इस अभागे देश में ब्लैकमार्केट करने वालों का चक्रवर्ती सामाज्य बढ़ने लगा और जैसे-जैसे आदमखोरों ने जिनके मुँह में आदमी का खून लगा हुआ था, खादी को भेड़ की खाल की तरह ओढ़ना शुरू किया वैसे-वैसे प्रफुल्ल बाबू जो सन इक्कीस से खादी का सेवन करते आ रहे थे, उससे किनाराकश होने लगे, यहाँ तक कि अब वह खादी का सूत भी अपने शरीर पर धारण करना महापातक समझते है, महापातक। आप चाहें तो उन्हें सिड़ी समझ सकते है बहुत से लोग बहुत-सी बातों के लिए उनको सिड़ी समझते भी है, आप भी अगर उनको सिड़ी समझ लेंगे तो कोई नयी बात न हो जायगी, मगर यह बात बिलकुल सही है कि अब उनको खादी हराम है।

प्रफुल्ल बाबू की उम्र पचास के आस-पास होगी, मगर उनके शरीर में गजब की फुर्ती है, आजकल के तो अच्छे-अच्छे नौजवानों में उतनी फुर्ती मुश्किल से मिलेगी। आलस्य सा प्रसाद की उनके यहाँ गुज़र ही नहीं है। शिथिलता किस बीमारी को कहते है यह प्रफुल्लबाबू ने जाना ही नहीं, सदा किसी न किसी काम से लगे रहने ही को वह ज़िन्दगी समझते है और जब ऐसा न हो तब वही उनके ख़याल से मौत है। प्रफुल्लबाबू की समय की पाबन्दी दो शहर की चर्चा का विषय हो गयी है (अजीब देश है यह भी जिसमें समय की पाबन्दी चर्चा का विषय बनती है!) आप भी जब चाहें आजकल देख सकते है, घड़ी का काँटा नौ बजकर पचपन पर पहुँचा नहीं कि प्रफुल्लबाबू अपना छाता लिये कालेज गेट में दाखिल होते दिखायी दिये–यह एक ऐसा सिलसिला है जिससे आज तक, इतने बरसों में एक भी रोज़ व्यतिक्रम नहीं हुआ है सिवाय उन कुछ दिनों के जब प्रफुल्लबाबू को आजमाया है और यह काफ़ी कुछ उनके कौतुक का विषय है कि कोई आदमी समय का इतना पाबन्द हो। वक़्त की ऐसी भी क्या पाबन्दी!

आदमी न हुआ घड़ी हो गये! कुछ लड़के उन्हें भले सिड़ी समझ ले मगर बहुत से ऐसे भी है जो प्रफुल्लबाबू को देखकर अनी घड़ी ठीक करते है। मसलन अगर कोई रात को घड़ी में चाभी देना भूल गया और वह सबेरे रूक गयी और उसके कालेज आने के लिए पास-पड़ोस के किसी बनिये या वकील साहब की दीवाल घड़ी से मिलाकर अपनी घड़ी चला ली और उसे इसका भरोसा न हुआ कि उसका वक़्त ठीक है तो फिर उसकी घड़ी में दस-बीस मिनट का चाहे जो हेर-फेर हो वह ज़रूर प्रफुल्लबाबू को कालेज गेट में दाखिल होते देखकर अपनी घड़ी के काँटों को नौ बजकर पचपन मिनट पर पहुँचा देता इन्हीं सब बातों से लड़के भीतर ही भीतर उनसे डरते थे, इसमें कोई शक नही। डाँट-डपट वह ज़रा भी नहीं करते मगर तो भी एक से एक बीहड़ लड़के जो दूसरे मास्टरों की नाक में दम किये रहते है, प्रफुल्लबाबू के यहाँ आकर एकदम भीगी बिल्ली बन जाते है। उन्हें खुद पता नहीं चलता कि उन पर यह क्या जादू चल जाता है। कभी-कभी वे अपने ऊपर लानतें भी भेजते है अपने आपको कोसते है और बड़ी कोशिश करते है कि दूसरे क्लासों ही का सिलसिला यहाँ भी चालू करे, मगर कर नहीं पाते, वह क्या चीज़ है जो उनकी जबान को उनके हाथ-पाँव को जकड़ देती है, जैसे अपने शिकंजे में ले लेती है।

प्रफुल्लबाबू में जो चीज़ लड़कों को सबसे ज़्यादा कौतुक की मालूम होती है, वह है उनका छाती। उस छाते के बिना उनकी तसवीर ही लड़के अपने दिमाग़ में नहीं खड़ी कर पाते। सुबह हो, दोपहर हो, शाम हो, जाड़ा हो, गर्मी हो, बरसात हो, धूप हो चाहे न हो, पानी गिर रहा हो चाहे न गिर रहा तो मगर प्रफुल्लबाबू के हाथ में उनका छाता ज़रूर होगा। लड़के अकसर आपस में इसका मज़ाक बनाते।

एक कहता–लगता है प्रोफुल्लो बाबू यह छाता लेकर माँ के पेट से निकले थे…

दूसरा कहता–मुमकिन है एक रोज़ तुम देखो कि मास्टरमोशाइ अपनी एक टाँग को आराम करने के लिए घर छोड़ आये है लेकिन इस गरीब छाते को उस दिन भी छुट्टी नसीब न होगी–

तीसरा कहता–बंगाली बाबू कहीं रात को भी छाता लगाकर तो नहीं सोते?

चौथा जो अखबारी दुनिया की ज़्यादा ख़बर रखता, कहता–प्रफुल्लबाबू हमारे कालेज के चेम्बरलेन है।

पाँचवा उसमें हल्का सा संशोधन पेश करता–नहीं यार चेम्बरलेन नहीं खुड़ो ज़्यादा ठीक रहेगा।

ग़रज़ उनके छाते को लेकर जितने मुँह उतनी बातें थीं, मगर यह सारी भनभन और जुमलेबाजियाँ और अटकलें तभी तक थीं जब तक प्रफुल्ल्बाबू क्लास में नहीं आये है। उधर वह क्लास में दाखिल हुए और इधर सबको साँप सूँघ गया। सब यों सीधे होकर बैठ जाते थे जैसी सबकी रीढ़ को सीधा करने के लिए बाँस की चौड़ी खपाचियाँ बाँध दी गयी हों और सबके कान यों खड़े हो जाते थे जैसे शिकारी का आभास मिलने पर खरहे के कान खड़े हो जाते हैं।

प्रफुल्लबाबू सींगवाले फ्रेम का, काले रंग का चश्मा लगाते है बाल कुछ-कुछ पक चले है, ख़ासकर कनपटी के पेशानी पर झुर्रियाँ भी काफ़ी है जो कि एक ऐसी ज़िन्दगी की गवाही देती है जिसके दिन आसान नहीं गुजरे है। वेश-भूषा चाल-ढाल सबसे प्रफुल्लबाबू रूपये में सवा सोलह आने बंगाली है, मगर बोल-चाल में उनको पकड़ सकना आपके लिए मुश्किल होगा, बरसों से यू. पी. में रहते-रहते वह बहुत साफ़ हिन्दी बोलने लगे है, अगर उनकी बोली में बँगला टोन रहता भी है तो इतना हल्का कि सिर्फ़ मँजे हुए कान ही उसको पकड़ सकते हैं।

नये बैरहने में उनका घर है और वहाँ से वह पैदल ही कालेज आते हैं और ठीक साढ़े नौ बजे घर से निकल कर नौ बजकर पचपन मिनट पर कालेज के गेट में दाखिल होते है। पिछले पन्द्रह साल से, यानी जबसे वह इस कालेज में आये, यही उनका नित्य का क्रम है। उसके पहले की बात बहुत पुरानी हो गयी है पर यहाँ पर किसी को नहीं मालूम।

बीज (अध्याय : ४)

नौ अगस्त सन् बयालिस को जो आँधी देश में आयी उसने सत्यवान को भी सीखचों के पीछे ला खड़ा किया। उस समय वह एम. ए. फाइनल का छात्र था।

वह भी एक ऐतिहासिक दिन था। सबेरे लड़के रेस्तराँ में चाय पी रहे थे जब रेडियो पर ख़बर आयी कि गाँधी जी, जवाहरलाल, मौलाना आज़ाद और दूसरे सभी लोग वर्किंग कमेटी की बैठक के ठीक बाद पकड़ लिये गये। फिजा में पहले ही से काफ़ी सनसनी थी।

नेताओं की गिरफ्तारी की ख़बर बिजली की करेंट की तरह लोगों को लगी। प्रायः दो घन्टे बाद, ठीक दस बजे जब यूनिवर्सिटी का वक़्त हुआ लड़के यूनियन के दफ़्तर में इकट्टा हुए। यूनियन की ज़बरदस्त मीटिंग हुई, हाल खचाखच भरा हुआ था। सभी बड़े तैश में थे। बड़ी तेज-तर्रार स्पीचें हुई, इतने जोशों के साथ नारे लगे कि लगता था हॉल की दीवारें गिर पड़ेंगी। सत्यवान तो यों बहुत ही शान्त स्वभाव का आदमी था और स्पीच वगैरह देने से दूर ही रहता था, पब्लिक के सामने आने के ख़याल से ही उसकी नानी मरती थी। मगर वह भी उस दिन इतने आवेश में था कि उसने भी एक तगड़ी गरमागरम स्पीच दे डाली। पहले तो उसकी जबान थोडा़ लटपटायी, चार-छ बार वह शब्दों के लिए टका, दो-एक बार दिमाग़ से वह ख़ास प्वाइंट भी उड़ गये जिन पर वह ज़ोर देना चाहता था, जिस चीज़ से उसे सख्त घबराहट मालूम हुई, लेकिन उसके सच्चे आवेश ने उसे जल्दी ही सँभाल लिया और जब उसका भाषण खत्म हुआ, हाँल तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज रहा था और सत्य के दिमाग़ के भीतर जैसे इंजन चल रहा था। लड़कों ने काफ़ी कुछ हैरत से, मंच पर से उतरते हुए सत्य को देखा, जैसे उन्हें यकीन न आ रहा हो कि यह झेंपू लड़का जो सामने से किसी लड़की को आते देखकर रास्ते से तीन गज दूर हट जाया करता हो, जो किसी से बोलता-चालता भी कम ही हो और न तो रेस्तराँ में चाय और कहवे का जाम उँडेलता हो और न यूनियन के एलेक्शन में कभी सामने आता हो और जिसके कपड़े भी इतने हद से ज़्यादा मामूली हों, कैसे इतनी पुरअसर तक़रीर कर सका।

बहरसूरत आन्दोलन को चलाने के लिए दो लड़कियों समेत नौ व्यक्तियों की जो जंगी कमेटी बनी उसमें सत्य को भी रक्खा गया। और सत्य पूरे दिलोजान से अपने काम में जुट गया। कालेजों में, बाजारों में सब जगह अपने आप ही हड़तालें हो रही थीं। सारी बात प्रदर्शनी के संगठन की थी।

सत्य पूरे जोश से काम कर रहा था। व्यक्तिगत सत्याग्रह के प्रति उसके मन में जो आक्रोश था उसे अब निकास मिल रहा था। उसने फ्रांस की राज्यक्रान्ति के बारे में इधर-उधर जो कुछ भी पढ़ा था और रूस के इंक़लाब के बारे में जो किताबें पढ़ी थीं, उनके सहारे उसने समझ लिया कि हिन्दुस्तान में भी इंक़लाब की असली घड़ी आ पहुँची, अब बस इसी में मैदान मारने भर की देर है।

…और आख़िरकार बीस तारीख को यानी ग्यारहवें रोज़ वह पकड़ गया। रेल की पटरी के पास सन्देहजनक हालत में घूमते हुए पाये जाने के अभियोग में उसे नौ महीने की सजा हुई।

जेल में उसे अपने संग वीरेंन्द्र नाम के एक राजनैतिक कैदी को पाकर बड़ा अचंभा हुआ। उसकी समझ में नहीं आया कि ऐसे किसी दल का आदमी यहाँ पर क्यों बन्द है। कहीं ऐसा तो नहीं कि आन्दोलनकारियों का भेद लेने के लिए…

लिहाज़ा सत्य उससे काफ़ी अप्रिय ढंग से मिला, जैसे जान-बूझकर उसे अपमानित करने के लिए, निगाहों में कुछ यह भाव लिये हुएः हाँ-हाँ मैं तुम्हें खूब जानता हूँ। मुझसे मत उड़ो, हम लोग उड़ती चिड़िया पहचानते है, तुम किस खेत की मूली हो।

लेकिन सत्य का यह भाव बहुत दिन नहीं चल सका क्योंकि वीरेन्द्र ने इसके लिए ईधन नहीं जुटाया। उसका शान्त मीठा बर्ताव सत्य की सन्देहाग्नि पर ठंड़े पानी का काम करता। वह कभी किसी बात पर नाक-भौ न चढ़ाता, अगर कोई लगने वाली बात कही जाती तो भी हँसकर ही उसका जवाब देता, कुछ इतने निष्कलुष ढंग से कि उस पर सन्देह करने वाला शर्मा जाय, जैसे उसकी दृढ़ निर्निमेष दृष्टि कह रही होः यह क्या छोटी-छोटी बातें उठा लाये, यह कहाँ का कबाड़खाना बटोर लाये! एक मुस्कराहट थी जो कभी उसके चेहरे से अलग न होती थी…

…और उसकी इस मुसकराहट, इस मीठे बर्ताव ने ही धीरे-धीरे सत्य को उसके प्रति आश्वस्त किया। उसी ने सत्य के मन में धीरे-धीरे वीरेन्द्र के प्रति मैत्री का एक हलका-सा भाव जगाना शुरू किया। अभी यह विचारों की मैत्री नहीं थी, संग-संग रहने को, सहज मानवीय संबन्ध की मैत्री थी। लेकिन फिर भी वह आकर्षण की एक डोर थी जो सत्य को वीरेन्द्र की ओर खींच रही थी और सत्य वीरेन्द्र की उसी अपराजेय, ढीठ मुसकराहट के आगे लगातार हारता और झुकता चला जा रहा था।

और बात सिर्फ़ मुसकराहट की नहीं थी, वीरेन्द्र का सारा रहन-सहन सत्य को बहुत बाइज्जत ढंग का, गम्भीर और स्वाभिमानपूर्ण मालूम पड़ता, जैसा कि राजनीतिक कार्यकर्ताओं का होना चाहिये। जैसे कि जेल अधिकारियों के प्रति उसका अक्खड़ रूख और बिलकुल बेमुरौवत बर्ताव। वही वीरेन्द्र जो एकदम मिठास का पुतला था, जो अपने साथ के सियासी कैनियों गैर-सियासी कैदियों, मशक्कतियों, नंबरदारों सबसे सदा मुसकराकर बोलता था, सुपरिन्टेन्डेन्ट और जेलर के सामने बिलकुल दूसरा ही आदमी हो जाता, बर्फ की तरह सर्द, एकदम पत्थर, सजीव चुनौती। उस वक़्त उसके चेहरे पर मुसकराहट की एक रेखा न होती। यह सही है कि दूसरे लोग भी भीगी बिल्ली नहीं बन जाते थे, लेकिन वे अपने और जेल अधिकारियों के बीच वैसा तीखा अलगाव भी नहीं करते थे। सत्य को लगा कि शायद इसीलिए उनके बर्ताव में एक तरह की कमजोरी आ जाती थीः यह कोई खाला जी का घर नही है। यह जेल है।

यहाँ बाहर की तरह कुलाँचें भरने की कोशिश मत करो। यहाँ तो ऐसे रहो कि सब खुशी-खुशी बीत जाये, निबह जाय, पानी में रहकर मगर से बैर नहीं किया जाता!

यह चीज़ उनके बर्ताव में एक तरह का ओछापन ला देती थी जिसे कोई नाम देना कठिन है मगर जो सत्य को मन ही मन बहुत खलती थी इसीलिए और भी खलती कि वह अपने अनजान में ही उसका मिलान वीरेन्द्र के आचरण से करता था। जब वह अपने साथियों को प्याज और आलू और मक्खन और डबलरोटी और लाइमजूस के लिए झगड़ते देखता और वीरेन्द्र सदा आगे बढ़कर अपना हिस्सा दूसरे को देने के लिए तैयार रहता तो उसकी छाती पर घूँसा सा लगता! और फिर सत्य यह भी देखता कि जहाँ बारिक के ज़्यादातर लोग ज़िन्दगी से उकताये हुए से दिन भर इधर-उधर लुढ़कते फिरते, अपने बिस्तरों में पड़े हुए ऊँघते रहते या फिजूल की बकवास करके खुद भी थकते और दूसरों को भी थकाते, वहाँ वीरेन्द्र सही माने में एक सैनिक की-सी ज़िन्दगी बसर करता। उसका मन हर समय प्रसन्न रहता और उसका साँवला चेहरा आन्तरिक प्रसन्नता से चमकता रहता। और न उसकी वह जादूभरी मुसकराहट कभी चेहरे से अलग होती। वह प्रायः दिन भर और रात के बाहर एक और कभी-कभी दो-तीन बजे तक भी अपनी मेज़ पर बैठकर भौतिकवादी दर्शन की, इतिहास और विज्ञान की, साहित्य और मजबूर आन्दोलन की मोटी-मोटी पुस्तकें पढ़ता और उनके नोट लेता रहता।

सत्य को स्वयं पढ़ने का व्यसन था, वीरेन्द्र में भी यही व्यसन पाकर वह अनायास उसकी ओर खिंचा। उसी तरह खिंचा, बिलकूल उसी तरह, जिस तरह रस्साकशी में कमज़ोर आदमी मजबूत आदमी की तरफ़ खिंचता चला जाता है, बार-बार ज़मीन में पैर ग़ड़ाकर अड़ने की कोशिश के बावजूद चला जाता है।

मगर सत्य का वीरेन्द्र की तरफ़ खिंचना सिर्फ़ एक कमज़ोर आदमी का दूसरे मजबूत आदमी की तरफ़ खिंचता नहीं था, बल्कि एक कमज़ोर विचारधारा का मजबूत विचारधारा की तरफ़ खिंचना भी था। लेकिन जो अहमियत सत्य के लिए वीरेन्द्र के दैनिक आचरण की थी।

जेल से छूटते समय जब सत्य वीरेन्द्र से गले मिला तो उसकी आँख में आँसू थे, उसका एक बड़ा गहरा दोस्त और हमदर्द साथी छूट रहा था, ऐसा साथी जिसने उसे अपनी ज़िन्दगी की राह पहचानने में मदद दी थी, तकलीफ़ में और आराम में हर समय उसका साथी था, जिसने इक्कीस रातें जाग-जगाकर उसे दवा और पानी दिया था और सर सहलाया था। इन नौ महीनों में वह वीरेन्द्र से कई बार झगड़ा था, कई बार उसने उसे सख्त लगने वाली बातें कहीं थीं लेकिन वीरेन्द्र एक बार भी उस पर गुस्सा नहीं था, एक बार भी उसके चेहरे की वह जादूभरी मुस्कराहट उसके चेहरे से अलग नहीं हुई थी।

सत्य ने कहा–अब तो बाहर ही मुलाकात होगी…

वीरेन्द्र ने कहा–देखो कब तक होती है!

सत्य–ऐसा क्यों कहते हो?

वीरेन्द्र–मेरे निकलने का कुछ ठीक नहीं है न।

सत्य–मगर यह डिफ्रेंस ऑफ इन्डिया रूल्स के मातहत नज़रबन्दी भी निरवधि तो होगी नहीं?

वीरेन्द्र–नहीं, निरवधि तो नहीं है, निरवधि तो दुनिया में कुछ नहीं होता सत्य, थोड़ा अनिश्चित है और क्या…अच्छा अब तुम चलो, देखो तुम्हें ले जाने वाला वार्डर बेचैन हो रहा है…

वार्डर ने अपनी ओर से आश्वस्त करने के लिए कहा–नहीं-नहीं बाबू जी आप लोग जी खोलकर बातें कर लीजिए मुझको कोई जल्दी नहीं है…

फिर ज़रा रूककर कहा–हम लोग भी आदमी ही होते है सरकार हमारे भी दिल होता है।

उलाहना स्पष्ट था। वीरेन्द्र ने ज़ोर से हँसते हुए कहा–मेरी बात बहुत बुरी लग गयी रामनाथ…सरकार का हर काम अपने वक़्त से होता है न इसीलिए मैंने वैसा कहा था। तुम्हारा दिल दुखा हो तो मुझे माफ कर दो। अब देखो न, सत्यबाबू की रिहाई करने के लिए वहाँ दफ़्तर में जेलर से लेकर अकाउन्टेन्ट तक सब बेचैन हो रहे होंगे, कितने जल्दी हिसाब-किताब साफ़ हो और कैदी को फाटक से बाहर किया जाय–

वार्डर से जितनी देर ये बातें हुई उतनी ही देर में वीरेन्द्र ने अपनी उस क्षणिक कमजोरी को जीत लिया था। काफ़ी एक चौड़ी-सी मुस्कराहट उसके चेहरे पर फैली हुई थी जब उसने कहा–घबराओ नहीं सत्य जल्दी ही बाहर आकर तुमसे मिलूँगा।…फिर एक बार उससे गले मिला, ज़ोर से हाथ मिलाया सत्य के और भी चार साथियों को नमस्ते की और घूम पड़ा। इतनी तेज़ी से यह सब काम हुआ कि सत्य यह नहीं देख पाया कि वीरेन्द्र के चेहरे पर मुस्कराहट ही थी या और भी कुछ, मसलन, साथी के छूट जाने की, फिर अकेले रह जाने की उदासी।

सत्य मई में जेल से छूटा। यूनिवर्सिटी बन्द हो चुकी थी। आन्दोलन भी कब का ठंड़ा पड़ चुका था।

बीज (अध्याय : ५)

हाँ, नौ महीने से रोज़ को नहीं देखा।

सत्य पहुँचा तो राज नहाकर निकली ही थी। सर-वर अच्छी तरह धोया था, कंघा कर रही थी। कंघा बाल में फँसा कर राज बाहर, विकेट गेट तक आयी। सत्य ने मिलाने के लिए हाथ बढ़ाया। राज ने भी अपना दाहिना हाथ उसके दाहिने हाथ में डाल दिया और उसे अपनी तरफ़ खींचते हुए कमरे की ओर चली। खूब तरोताजा हो रही थी, एकदम सफ़ेद साड़ी पहने थी और ओडिकोलोन की ख़ुशबू से वह और उसका कमरा गमक रहा था। सत्य को भी ओडिकोलोन की खुशबू बहुत अच्छी लगती है, लेकिन उसने सदा उसको अपनी औकात से बाहर की चीज़ समझा, गो वह ऐसी कुछ ख़ास मँहगी चीज़ नहीं है। पहले तो बहुत दिनों तक वह ओडिकोलोन को दवाई समझता था क्योंकि उसका वही इस्तेमाल उसने देखा था, किसी को बहुत तेज बुखार चढ़ता तो पानी में ओडिकोलोन मिलाकर उसी की पट्टी माथे पर रखते। उलाहने के स्वर में एक मीठी सी फटकार सुनाते हुए राज ने कहा–तुम इतने नालायक कब से हो गये जी?

सत्य ने मुसकराते हुए कहा–क्यों क्या बात है?

–शर्म नहीं आती, पूछते हो क्यों क्या बात है? कब छूटे जेल से, आज आने की फुरसत मिली है?

–ख़फ़ा मत हो राज, अभी परसों दोपहर को तो छूटा हूँ सिर्फ़ कल का दिन बीच में गया है, सच पूछो तो जेल के फाटक से निकले अभी अड़तालिस घंटे भी नहीं हुए।

राज ने सत्य को कुर्सी पर बिठालकर टेबुलफैन चलाया और स्वयं पास ही तखत पर बैठते हुए बोली–तुम दुबले हो गये हो सत्य।

–गर्मी नहीं देखतीं कैसी भयानक पड़ रही है, और तुम अपना चेहरा भी तो देखो ज़रा आइने में, आँखों के नीचे हल्के पड़े जा रहे है–

–कुछ पड़े भी तो! मुझे यही तो रोना है कि मेरे शरीर को क्यों कभी कुछ नहीं होता, सबसे ज़्यादा नीरोग रहने लायक पुण्य मैंने कौन-सा किया है? मुझे तो कभी-कभी लगता है कि मैं सूखी लकड़ी के समान होती जा रही हूँ जिस पर मौसम का कोई असर नहीं होता–सीजन्ड वुड! मुझको देखकर तुम्हें भी ऐसा ही लगता है न सत्य?

–नहीं मुझको तो वैसा नहीं लगता। उलटे मैं देख रहा हूँ कि इस बार मौसम का असर तुम्हारे ऊपर पहले से कहीं ज़्यादा है, तुम खासी दुबली हो गयी हो, इन चन्द महीनों में ही।

–ऐसा! देखो मुझे डरवाओ मत, नहीं तो मेरी जान ही निकल जायेगी, कहकर उसने अजब एक शोखी से सत्य को देखा, ओठों को जोड़कर बाहर की तरफ़ फेंका और हलके से मुसकरायी। यह सब कुछ उसने इस तरह किया जैसे वह तेरह-चौदह साल की छोकरी हो। सत्य को अच्छी लगी यह चीज़ लेकिन थोड़ी अजीब ज़रूर लगी। उसने कोई जवाब नहीं दिया।

सत्य की समझ में नहीं आया कि किस तसवीर को ठीक समझे।

तभी राज ने मुसकराते हुए पूछा–कहो अब क्या इरादा है?

सत्य ने जवाब दिया–अभी तो मुझे एम.ए. करना ही बाकी है, अभी इरादे का क्या सवाल उठता है।

राज ने कहा–मेरा पूछने का मतलब यही है कि अब पढ़ोगे न या फिर वही पॉलिटिक्स करोगे?

सत्य ने कहा–फिलहाल तो कोई जेल-वेल जाने का सिलसिला है नहीं, इसलिए पढ़ भी सकता हूँ और थोड़ी बहुत पाँलिटिक्स भी कर सकता हूँ।

–तो फिर आ रहे हो अबकी यूनियन एलेक्शन में?

–न बाबा, यूनियन एलेक्शन मुझसे न होगा। उसके लिए तो यों ही खँचियों लोग है। मैं तो ज़रा मजदूरों के बीच काम करना चाहता हूँ।

राज ने कीक-सी मारते हुए कहा–अच्छा तो अब आप साम्यवादी बनने की सोच रहे है, हूँऽऽऽऽ…! कहकर वह फिर ज़रा साभिप्राय ढंग से मुसकराती। और फिर सत्य को उस कीक और उस मुसकराहट से लगा कि जैसे राज की उमर कई बरस कम हो गयी है। सत्य को यह चीज़ धूप-छाँह के खेल जैसी लगी, ज़रा देर में बदली घिर आयी, फिर ज़रा देर में धूप खिल गयी और ज़रा ही देर में धूप ग़ायब और बदली छायी हुई।

सत्य ने राज की चुटकी का रस लेते हुए जवाब दिया–साम्यवादी नहीं, राज, सत्यवादी!

इसी तरह बातों का सिलसिला बहुत देर तक चलता रहा और इस बीच दो बार ताजे नीबू का शर्बत पिया गया। राज सत्य को जैसे छोड़ना ही न चाहती थी। जब-जब वह चलने को होता, तब-तब या तो सीधे डपट देतीः अभी बैठो, अभी कहीं नहीं जाना। या कुछ रूठने का–सा भाव दिखलातीः हाँ भाई, .यहाँ क्यों अच्छा लगेगा, यहाँ क्या रक्खा है? मिलने चले आये, यही क्या कम हुआ।…ग़रज़ इसी सब में बारह बजने आये। बाहर, जेठ की चिलचिलाती हुई धूप, आँख नहीं दी जाती थी।

आख़िरकार सत्य जब चलने के लिए उठ ही खड़ा हुआ तो भी राज ने कहा–अब कहाँ जाते हो इस चिलचिलाती धूप में। यहीं खाना खाओ और आराम करो। शाम को चलेंगे घूमने, कोई अच्छा सिनेमा हो तो उसमें चलेंगे। फिर रात को घर जाना।

सत्य ने मन में कहा–यह तो अच्छा दिन भर का प्रोग्राम बतलाया राज ने।…उसने छेड़ने के लिए उसकी बात में बात जोड़ी–रात को भी जाने की क्या ज़रूरत है यहीं सो जाऊँगा!

राज ने छेड़ का पूरा रस लेते हुए मुसकराकर कहा–बुरा भी क्या है! पर सत्य माना नहीं। बोला–माँ भी तो खाना बनाकर बैठी राह देख रही होगी। नहीं यह नहीं हो सकता। कल–परसो में फिर आऊँगा। तब दिन भर रहूँगा–और कहोगी तो रात भर भी। कहकर सत्य मुसकराया। राज ने सत्य की मुसकराहट का कोई जवाब नहीं दिया, वह अपने किसी ख़याल में डूबी रही। यकायक उसने ज़रा चढ़े हुए स्वर में, सत्य को ठेलते हुए कहा–अच्छा तो जाओ।

सत्य राज के पास से चला तो यह चीज़ उसे किसी कदर तंग कर रही थी। राज की यह आन-बान, यह उमंग, यह शोखी, किशोरियों जैसी यह चपलता एक नयी चीज़ थी। अब तक राज की जो शकल उसकी आँखों में थी वह थी हिन्दू समाज के प्रति एक मूर्त अभियोग की, एक पाषाण प्रतिमा की, जिसे समाज के शाप ने ही पाषाण बना दिया है, जिसके पास अपनी अभिव्यक्ति भी नहीं, जो मूक, निःशब्द दुख सहन करना ही जानती है।

मगर राज पाषाण-प्रतिमा तो नहीं। वह तो जीवित व्यक्ति है। सत्य ने यदि उसको पाषाण-प्रतिमा समझ लिया हो तो उसमें राज की क्या गलती।

यों गलती ज़्यादा सत्य ने भी नहीं की क्योंकि उसने तो कभी राजेश्वरी को रात की तारीकी में देखा जब घर में सिर्फ़ वह होती थी और उसकी बुड्ढी नौकरानी और उसका वह सर्द पलंग, जिस पर वह बेचैन करवटें बदलती थी। राजेश्वरी तरस जाती थी कि कोई उसे अपनी गोद में भर ले और उसे इतने ज़ोर से चूमे कि उसके होंठों की जलन मिट जाये। वह किसी का परस अपने चिबुक पर चाहती थी। उसकी भी उमंग थी कि वह किसी की आँखों में आँखें डाले क्योंकि वह मन को अच्छा लगता है। अपने मन की इस उमंग को वह क्या करे, कोई तो उसे नहीं बतलाता।

पर वह उमंग तो उठती ही है, उसका गला वह कैसे घोट दे। सत्यवान ने अगर कभी राज की उन बड़ी-बड़ी आँखों में उतरने की कोशिश की होती तो सारी उमंगें और ये सारे सवालात उसे दिख जाते। लेकिन सत्य ऐसा करता भी कैसे, अभी तो वह खुद लड़का है, दिनभर की दौड़धूप के बाद मुर्दे की नींद सोता है। उसे क्या मालुम कि आँखों से नींद उड़ भी जाया करती है। हाँ उसे इतना मालूम है कि शरीर की भी भूख होती है, लेकिन जानना महसूस करना तो नहीं होता। वह भूख कितनी भयानक होती है इसे तो कोई किसी को नहीं बतला सकता।

जैसे आज ही तब वह चला गया तो फिर यह देखने तो वह नहीं आया कि राज ने उसके बाद क्या किया।

सत्य को पीठ फिरते ही राज की सारी खुशी न जाने कहाँ हवा हो गयी। उसके ऊपर फिर वही निविड़ उदासी छा गयी। इतने महीनों बाद सत्य को देखकर और उससे भी ज़्यादा सत्य को आज़ाद देखकर उसके मन में उमंग आयी थी, वह सब उसके संग ही जैसे चली गयी और वह फिर अपनी घुटन और घुलन पर लौट आयी, जो सब उसकी आँखों के नीचे गड्डों में दिखायी दे रहे थे।

आवेग की बाढ़ उतर जाने पर एक अजीब थकन मन-प्राण को जकड़ लेती है। वह भागकर अपने सोने के कमरे में चली गयी और बड़ी देर तक तकिये में मुँह गाड़कर पेट के बल लेटी रही। थोड़ी देर तक कुछ फफकने की भी आवाज़ आयी, फिर खामोशी छा गयी। चुपचाप पड़ी-पड़ी वह तकिये को भिगोती रही। खाने के लिए यों ही काफ़ी देर हो चुकी थी नौकरानी पूछने के लिए आयी। पर राज ने मना कर दिया। इसी तरह पड़े-पड़े न जाने कब उसकी आँख लग गयी। आँख खुली तो पाँच का समय हो रहा था धूप और गर्मी का अब भी वही हाल था। दिन भर के सन्नाटे के बाद सड़कों का चलना अब शुरू हो रहा था। राज को ख़याल आया कि उसने भी सत्य से बाहर निकलने की घूमने की, घूमने जाने की बात कहीं थी। मगर अब तो सत्य नहीं था और अकेले कहीं घूमने जाने के ख़याल से उसे डर लगता था।

लिहाज़ा मजबूर होकर उसने ‘दीपशिखा’ मेज़ पर से उठा ली और लेटे-लेटे बड़ी देर तक पढ़ती रही। राज को महादेवी की कविताएँ ख़ासकर ‘दीपशिखा’ बहुत अच्छी लगती है उसके बहुत से गीतों को वह अकेले में बैठी गुनगुनाती रहती है। मन को कोई सहारा तो नहीं मिलता, हाँ अन्दर की पीड़ा और घुटन को भी आँसूओं कभी उच्छवासों और कभी अपने भाग्य की वक्रगति पर एक हल्की-सी मगर नीम की तरह कड़वी विद्रूप की मुसकराहट के रूप में बाहर फेंकने का मौक़ा ज़रूर मिलता है। उससे ही दिल का बोझ कुछ हलका होता है। उतनी ही सान्त्वना बहुत है।

सत्य दूसरे रोज़ ठीक दुपहरिया में आया।

जेठ की दुपहरिया के सन्नाटे में कमरे में अकेले बातचीत का रंग कुछ बदला। सत्य ने छेड़ निकाली–कल तो तुम बड़ी बश्शाश नज़र आती थीं, आज फिर तुम्हारे चेहरे की रंगत उड़ी हुई है–

राज ने कोई जवाब नहीं दिया, कुछ पढ़ती रही!

सत्य ने हँसकर हाथ से किताब छीनते हुए कहा–यह सब नहीं चलेगा, बाबी जी। मैं अपनी खोपड़ी का मक्खन पिघलाकर मुठ्टीगंज से यहाँ चला आ रहा हूँ तो इसीलिए नहीं कि आप बैठकर–कौन-सी किताब है यह ओह ‘सान्ध्यगीत’ है…महादेवी से तुम्हें बहुत इश्क़ हो गया है।

दरवाज़ों और खिड़कियों पर हरे-हरे कागज लगे थे जिनसे छनकर हरी-हरी रोशनी कमरे में आ रही थी। कमरे की सजावट भी अच्छी थी। दो-तीन खूब अच्छी फ्रेम की हुई तसवीरें दीवारों पर टँगी थीं। बिहार टेक्सटाइल के खूबसूरत पर्दें और मेज़पोश कमरे के वातावरण में कुछ एक अजब बात पैदा कर रहे थे। सत्य ने उसको नाम देने की कोशिश करते हुए कहा–बड़े पोएटिक ढंग से कमरा सजाया गया है। और इसमें बैठकर महादेवी के गीत गुगुनाये जाते है…अब फिर तुम्हें और चाहिये ही क्या…

राज ने सत्य को तरेरा। सत्य ने टिटकारी मारते हुए कहा–ऐसे मुझे मत देखो राज वर्ना मैं जलकर खाक हो जाऊँगा। और मुसकराया।

इस बार राज भी मुसकरा दी।

–तुम इतनी घरघुसनी क्यों हो राज? न कहीं जाओ न आओ, न तुम्हारा कोई संगी न सँगाती…

–मुझे कहीं जाना-आना अच्छा नहीं लगता। पता नहीं क्यों ऐसा लगता है कि इलाहाबाद में सब मेरा राई-रत्ती हाल जानते है। सब जानते है कि मेरी ज़िन्दगी कितनी खोखली है, और सब जैसे होंठ दबाकर मेरे हँसते है…

–नहीं राज, यह तुम्हारा वहम है। दुनिया में सब लोग ऐसे नहीं है…

–मुझे तो ज़्यादातर ऐसे ही लोग नज़र आते है, और फिर कोई बात भी किसी से क्या करे…

–दुनिया भर की बातें है। बातों की कोई कमी है दुनिया में।

–कौन जाय किसी से बात करने फायदा भी क्या। मेरा तो यह कमरा ही भला।

सत्य ने कुछ झिड़की के स्वर में कहा–कैसी बातें करती हो राज फिर कुछ रूककर, धीरे से मुसकराकर कहा–अगर मर्दो से डर लगता है (गो मर्द भी सब बुरे नहीं होते) तो कुछ लड़कियों से ही दोस्ती पालो… –लडकियाँ तो कई आती है मेरे पास…

–कई आती है! जैसे मुझे पता नहीं! एक तो वह आती है मिसेज वार्ष्णेय और दूसरी वह है, क्या नाम है उनका, मिसेज सक्सेना…अजब खूसटों से पाला पड़ा है…ज़रा कुछ नौजवान लोगों से मेल-जोल बढ़ाओ। तुम तो अभी से बैरागी हुई जा रही हो।

राज ने इस तरह से कहा जैसे ऊँघते उसने ये तमाम बातें सुनी हों। वह अपने किसी दूसरे ही विचार में डूब गयी थी। बोली–मैं…मैं? सब ठीक है, सत्य…

प्रायः एक या डेढ़ मिनट की खामोशी के बाद राज ने फिर कहा–तुम भर मुझे मत छोड़ना…

कहते-कहते उसके कानों की लवें जलने लगीं जैसे उनके नीचे किसी ने दो बहुत छोटे-छोटे दिये रख दिये हों। यह एक वाक्य कहने में उसे पता नहीं कितना संघर्ष करना पड़ा था–थोड़ी देर को जैसे किसी ने आकर उसके चेहरे पर गुलाल मल दिया। वह ताक दूसरी ओर को रही थी, दिल अलग धड़क रहा था, कान की लवें जल रही थीं और आँखें भर आयी थीं।

सत्य की समझ में नहीं आया कि यह सब क्या और क्यों हो रहा है यह उन्माद किसलिए? मैंने तो ऐसी कोई बात कही नहीं। मैंने तो सिर्फ़ यही कहा कि मेल-जोल बढ़ाओ, लोगों में आओ-जाओ, ज़िन्दगी का रंग-ढंग बदलो, बैरागी बनने से काम नहीं चलेगा, ज़िन्दगी पहाड़ हो जायगी…तो कुछ ग़लत तो कहा नहीं मैंने तो फिर यह रो क्यों पड़ी। बड़ी दुखी है बेचारी। उसका भी दिल अनायास भर आया।

बोला-कैसी बात करती हो राज!

राज आँचल के छोर से आँखें पोंछकर प्रकृतिस्थ हो चुकी थी।

उसने मेज़ पर आँखें गडाये-गड़ाये कहा–मैं बहुत अभागी हूँ सत्य। यह मेरे दिल की सच्ची आवाज़ है। मुझे डर लगता रहता है कि सब मुझे छोड़ देंगे…मगर तुम मुझे मत छोडना सत्य। कभी मत छोड़ोगे न, तुम मेरे बड़े अच्छे दोस्त हो…

कहते-कहते एक बार फिर राज की आँखें छलछला आयीं। यह ख़याल क्यों इसे इतना सता रहा है? वह उठकर गज भर की दूरी पर राज की कुर्सी के पास गया, जेब से रूमाल निकालकर राज की आँखों को लगाया, उसके बालों में और गालों पर बहुत प्यार और हमदर्दी से धीरे-धीरे हाथ फेराया, उसका बहुत ज़ोर से जी हुआ कि राज की आँखें चूम ले और उसका सिर बाँहों में भरकर सीने से चिपका ले और बड़ी देर तक चिपकाये रहे और आँखें बन्द कर ले। राज की आँखें बन्द थीं।

सत्य ने कहा–अच्छा राज अब मैं चलूँगा।

राज का जैसे सपना टूटा, बोली–जाओगे अब? अच्छा–

सत्य चला गया और राज आकर पंलग पर लेट गयी और सोचने लगीः सत्य ने भी क्या सोचा होगा दिल में, ज़रा काबू नहीं अपने पर…मगर सत्य बहुत अच्छा आदमी है, वह कुछ बुरा नहीं सोच सकता…फिर भी, इस तरह रो पड़ता तो कोई अच्छी बात नहीं, इससे आदमी का छिछलापन जाहिर होता है…पर मैं जानबूझ कर तो रोयी नहीं…फिर भी फिर भी…सत्य के दिल में दूसरों का बड़ा दर्द है…सत्य ने आज मेरे बालों पर हाथ फेरा था, उसने मेरे गालों को छुआ, सत्य बहुत नेक आदमी है, सत्य बहुत नेक आदमी है, मेरे बालों पर जब वह हाथ फेरने लगा तो मेरी आँखें क्यों झँप गयीं? आदमी को जब बहुत सुख पहुँचता है तब क्या आँखें झँप जाती है, पता नहीं…पर सत्य बहुत अच्छा है, वह मेरी तकलीफ़ को समझता है, और आज उसने मेरे गाल छुए और मेरे बालों पर हाथ फेरा और धीरे से कहा–छिः। मैंने सुन लिया, मुझको सुनाने ही को तो कहा था उसने, मेरा रोना उसको अच्छा नहीं लगता, उसका बालों में हाथ फेरना मुझको अच्छा लगता है…और अपने उस निर्जन कक्ष में भी जहाँ कोई था, वह संकोच के मारे सिमट गयी। उसके मन में हल्का–सा पुसका भी था प्रश्न भी, विस्मत भी, और आकांक्षा भी और न जाने किस पर आक्रोश और खुद अपने आप पर ग्लानि…मुझसे एकाध साल छोटा ही होगा सत्य और वैसा ही तो मैं उसे मानती भी आयी हूँ…

जो सवाल राज को तंग कर रहा था वही सत्य को भी तंग कर रहा था। राज के सिर को बाँहों में भरकर सीने से लगा लेने का, उसकी आँखों को चूमने का ख़याल मेरे दिल में क्यों आया? मैं उससे वैसी मुहब्बत करता हूँ? नहीं तो। फिर? मगर भाई, कोई बुरा ख़याल तो मेरे दिल में आया नहीं।

किसी ने जैसे उसे चिढ़ाने के लिए कहा–इससे भी बुरा और कौन सा ख़याल चाहते हो!

सत्य ने आवेश से मन ही मन उसका जवाब दियाः फिजूल की बात मत करो। राज के बारे में कोई बुरा ख़याल मेरे मन में नहीं था, मैं अच्छी तरह जानता हूँ न उस वक़्त था न इस वक़्त है। जिस आदमी को सत्य ने इतने कसकर डाँटा था उसने ढिठाई से कहा–अगर इतनी ही पक्की तरह तुम अपने दिल की हर बात जानते हो तो फिर इतने बेचैन क्यों हो तुम! बेचैन हूँ मैं! नहीं तो, मैं तो बेचैन नहीं हूँ! बेचैनी किस बात की? मुझे बेचैनी क्यों होगी, मैंने कोई बुरा काम तो किया नहीं।’…दिल में तो पाप लाये।’ किसी दोस्त को दर्द में देखकर…और देखो, मैंने उसको चूमा नही!–तो यह तो ऐसा कुछ पाप नहीं।’ ‘कैसे नहीं है, तुम्हारी बात से ही जाहिर है कि कुछ दाल में काला है।’ दाल में काला?…पता नहीं…पता नहीं…नहीं नहीं…

उसको सचमुच नहीं पता था। मगर चोर उसके दिल में था और उस चोर की तह में था उसके रक्त में और उसके भी बाप-दादों के रक्त में घुला हुआ, सदियों से चला आता यह संस्करण कि युवती स्त्री का स्पर्श पाप है इसके अलावा और कुछ नहीं था। पुरूष और स्त्री दो इन्सानों की तरह आपस में मिल ही नहीं सकते। और अगर मिलें तो ज़रूर कुछ दाल में काला है! सत्य को अगर कोई बतला देता तो कितना अच्छा होता–मगर कोई बतलाता भी कैसे, किसी के सामने सत्य अपने दिल को तो नंगा करन से रहा!–कि स्त्री और पुरूष होने के पहले भी दोनों आदमी है, इन्सान है, और दो इन्सानों के बीच अगर ऐसा प्यार का भाव आ जाय तो न तो वह अनुचित है और न उस पर दाँतों तलें उँगली देने की ज़रूरत है। बेशक मनुष्य के हृदय में अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग तरह का प्यार होता है, मगर मनुष्य का हृदय कोई मुनीम नहीं है जिसके यहाँ हर हिसाब के लिए अलग-अलग बहियाँ है और हर बही में अलग-अलग मदें बनी हुई है जिनमें रकमों को टाँका जाता है!

राज और सत्य को जब अपने अन्दर उस भाव का पता चला तो दोनों को अपने ऊपर बहुत शर्म आयी, जैसे उन्होंने कोई भारी पाप कर डाला हो।

बीज (अध्याय : ६)

सत्य अमूल्य के पास उसके घर पर ही बैठा हुआ था। संयोग की बात उस दिन प्रफुल्लबाबू भी उन लोगों के साथ ही बैठे रहे। बात यों हुई कि सबेरे के वक़्त जब सत्य अमूल्य से मिलने के लिए पहुँचा, तब बाप-बेटे में ज़ोरदार बहस छिड़ी हुई थी। बंगाल से अकाल की खबरें आने लगी थीं। गाँवों से भुखमरों के काफिले कलकत्ते की तरफ़ चल पडे थे। अभी यह आम भगदड़ नहीं थी,। दुनिया के लिए यह चीज़ अभी शुरू ही हो रही थी। मरने वालों की संख्या भी अभी शायद सैकड़ों ही में थी। पिछले कुछ दिनों से दो-दो चार-चार आदमियों के भूख से मरने की खबरें मैमनसिंह से, जेसोर से, मागदा से, रंगपूर से, राजशाही से, मेदिनीपुर से आने लगी थीं। इन खबरों का लोगों पर कुछ ख़ास असर नहीं था। अखबार वाले अकाल के कारणों के बारे में ज़्यादातर चुप ही रहते। सन बयालिस में उनकी जो कुटम्मस हुई थी, अभी तक उसका असर उन पर बाकी था, सोचते थे, बोलने मैं खैर नहीं। इक्का-दुक्का ज़रा हिम्मती अखबार वाला लिखता कि सरकार सारा खाना मोर्चे पर भेजे दे रही है। सरकार की पलटन खा रही है और बंगाल भूखों मर रहा है…सारा गल्ला मिस्त्र और ईराक और रंगून और सिंगापुर चला जा रहा है, दनादन माल की रफ्तानी हो रही है, इधर लोग भूख से दम तोड़ें तो तोड़े किसे इसका गम है। कुत्तों की ज़िन्दगी जीने वाले कुत्तों की मौत मरते है तो मरें उनकी ज़रूरत ही किसे है, हमें तो ज़रूरत सिर्फ़ उनकी है, जो पलटन में भरती हो सकें और ये लोग भला पलटन के किस काम के! अच्छा है दस-बीस लाख आदमी मर जायें, धरती का भार कम हो।

कुछ हल्क़ों में ये कनफुसकियाँ चलती थीं कि अँग्रेजों ने जानबूझ कर, एक शैतानी साजिश के मातहत, अकाल की हालत पैदा की है जिसमें एक तरफ़ तो लोग झख मार कर पलटन में नाम लिखायें और दूसरी तरफ़ वह इतने लाग़र और कमज़ोर हो जायें कि जिस वक़्त नेताजी सुभाष बोस के सेनापतित्व में आज़ाद हिन्द फौज हिन्दुस्तान में दाखिल हो, लोग उनकी मदद के लिए कुछ कर ही न सके, किसी काम के न रहें। बाजारों में, हाटों में, सड़कों पर, लोगों के घरों में सब जगह इसी तरह के बगूले उठते रहते।

प्रफुल्लबाबू और अमूल्य में भी काफ़ी देर से इसी चीज़ को लेकर तलवारें चल रही थीं। जिस वक़्त सत्य पहुँचा, प्रफुल्लबाबू तैश के साथ कह रहे थे–

ब्लैकमार्केट ब्लैकमार्केट ब्लैकमार्केंट। तुम लोगों ने यह एक अच्छी स्टंट शुरू किया है।

अमूल्य अपने पिता की इस बात से काफ़ी तिलमिला उठा, पर उसने जब्त करके कहा–बाबा आप क्या सचमुच यह सोचते है कि ब्लैकमार्केंट हम लोगों का स्टंट है?

प्रफुल्लबाबू ने उसी बिफरे हुए स्वर में कहा–स्टंट नहीं तो क्या है। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि अकाल का कारण ब्लैकमार्केंट नहीं है। देश का सारा गल्ला खींचकर मोर्चे पर पहुँचाया जा रहा है। इसीलिए हमारा देश मरता जा रहा है, जिसे बस अपनी लड़ाई जीतने की धुन है।

अमूल्य ने कहा–इससे कौन इनकार करता है? लेकिन अगर इसका प्रमाण हो कि जनता को भूखों मारने में हिन्दुस्तानी करोड़पतियों का भी हाथ है तो क्या इसी नाते हम उन्हें बख्श देंगे कि वे हिन्दुस्तानी है? कलकत्ते का बच्चा-बच्चा जानता है कि सूरजमल नागरमल ने, इस्फहानी ने लाखों मन चावल अपने गोदामों में भर रक्खा है, बस सरकारी रेट से रूपया दो रूपया ज़्यादा लगाया और सारी फसल हथिया ली और अब उसे ब्लैकमार्कंट में मनमाने दाम पर बेच रहे है, कोई उनको रोकने वाला नहीं है और अब खुद उन्हीं किसानों के पास कानी कौड़ी नहीं है कि चावल ख़रीद सकें–कौन ख़रीद सकता है पचास रूपये और साठ रूपये और सत्तर रुपया मन।

प्रफुल्लबाबू ने कहा–गल्ला जब होगा ही नहीं बाजार में तो जिस भी व्यापारी के पास थोडा-बहुत होगा वह स्केयर्सिटी प्राइस लेगा ही…यह तो सप्लाई और डिमांड वाली बात है–

अमूल्य ने बात काटते हुए कहा–बाबा, हमारा यही कहना है कि यह झूठी स्केयर्सिटी है जो पैदा की गयी है, जो खुले बाजार से चावल खींचकर अँधरी खत्तियों में भर लेने के कारण पैदा हुई है–

प्रफु्ल्लबाबू ने कहा–तुम्हारी बात अगर सच हो तो सरकार ऐसे लोगों को ठीक क्यों नहीं करती?

अमूल्य ने कहा–वह क्यों करे? उसके बाप का क्या जाता है? मरते तो हम-आप है? उसे इसका गम क्यों होने लगा? और फिर वही बड़े-बड़े व्यापारी सरकार को भी तो सप्लाई करते है, यही लोग तो उसके एजेन्ट है इन्हीं के जरिये तो वह अनाज ख़रीदती है। बस फिर क्या है, पाँचों घी में है। कौन पूछने जाता है कि कितनी गल्ला कहाँ से ख़रीदा। अगर किसी ने बहुत पूछ-ताछ की तो कोई भी अंट-संट बही उठाकर दिखा दी। कौन पता लगाने जाता है कि सरकारी एजेन्ट ने पाँच हज़ार मन चावल ख़रीदा या पचास हज़ार। किसी ने अगर ज़्यादा सताया तो चाँदी की ईंट से उसका मुँह बन्द कर दिया…यहाँ से वहाँ तक सारा-का-सारा ढाँचा ही सड़ा हुआ है, इसका हो भी क्या सकता है?

प्रफुल्लबाबू पर थोड़ा असर हुआ, लेकिन वह अपनी जगह से हिलना न चाहते हों, कुछ इसी अंदाज में उन्होंने कहा–सारा प्रश्न तो खोखा, इस बात का है कि मेन एम्फैसिस तुम किस जगह पर देते हो?

अमूल्य ने कहा–हमारा मेन एम्फ्रैसिस ब्लैकमार्केट पर है। हाँ अब आप यह सवाल अलबत्ता मुझसे कर सकते है कि ब्लैकमार्केट को रोका क्यों नहीं जाता। इसलिए कि बगैर जनता के यानी किसानों के और मजदूरों के और शहर के हम और आप जो लोग है उनके सहयोग के ब्लैकमार्केट को रोकना असम्भव है, और उनका सहयोग सरकार किसी काम में नहीं लेना चाहती, क्योंकि यह साम्राज्यवादी सरकार है क्योंकि वह अपने साम्राज्यवादी ढ़ाँचे में सूत बराबर भी फर्क नहीं आने देना चाहती, क्योंकि वह हमको गुलाम बनाने वाली सरकार है और उसमें इतना दम नहीं है कि वह हमारी-आपकी देशभक्ति को उभार सके…बाबा युद्ध देश का सबसे बड़ा संकट होता है, कुछ थोड़े ,से नौकरशाह उसका मुकाबला नहीं कर सकते और जब करने की कोशिश करते है तो फिर यही सब होता है जो कुछ हो रहा है…सलामत रहें उनके कागज के नोट, वह तो उन्हीं से यह चढ़ी हुई नदी पार कर जाना चाहते है, मगर वह कागज की नाव है…

प्रफुल्लबाबू ने कहा–मैं और क्या कहता हूँ। इन्फ्लेशन…

अमूल्य ने कहा–हाँ, इन्फ्लेशन…मगर इन्फ्लेशन और ब्लैकमार्केट एक दूसरे की विरोधी चीज़ें तो है नहीं। दोनों एक दूसरे की पूरक है, दोनों साम्राज्यवादी व्यवस्था की सन्ताने है-

सत्य चुपचाप बैठा पिता-पुत्र की इस गरमागरम बातचीत को सुन रहा था। अकाल के सम्बन्ध में स्वयं उसके मन में जो शंकाएँ थीं अमूल्य की बातों से कुछ दूर हुई और उसको भी मुँह खोलने का साहस हुआ–दादा., ब्लैकमार्केंट तो कोई बहस की चीज़ नहीं है, वह तो प्रत्यक्ष सत्य है और प्रत्यक्ष का क्या प्रमाण? आपके इसी शहर इलाहाबाद में जबर्दस्त ब्लैकमार्केंट है। आपको एक-एक धोती और एक-एक गज कपड़ा और एक-एक सेर चावल और गेहूँ और एक बोतल मिट्टी के तेल के लिए हाय-हाय करनी पड़ती है, राशन की दूकान पर जाकर अपना सिर तुड़वाना पड़ता है और आप मुझे माकूल पैसे दीजिए, जो चीज़ जितनी आप कहें मैं लाकर आपके घर में हाजिर कर देता हूँ। सारा सवाल बस मुँह माँगे दाम देने का है–अगर ब्लैकमार्केट नहीं है तो ये चीजें आती कहाँ से है? हाँ यह ज़रूर है कि हमको-आपको यह दिखायी नहीं देता–और दिखायी ही दे तो ब्लैकमार्केंट काहे का। यह भी है कि हमारी-आपकी पहुँच उस तक नहीं है, हमसे-आपसे ब्लैकमार्केट या व्यापारी डरता है क्योंकि हमारे कपड़े उजले है और हम अंग्रेज़ी पढ़े-लिखे लोग है, पर वह है तो अपनी जगह पर अटल, मजबूती से बैठा हुआ। मेरे एक परिचित है उनकी खूब रसाई है वहाँ। उनकी मार्फत मैं आपको जो कहिए जितनी कहिए मँगाकर दिखा दूँ।

प्रफुल्लबाबू चुप होकर कुछ सोचने लगे।

सत्य ने कहा–दादा ब्लैकमार्केट युद्ध का जारज पुत्र है। और हँसा। प्रफुल्लबाबू भी हलके से मुसकराये पर कुछ बोले नहीं।

अमूल्य ने कहा–चलो सत्य अपने कमरे में चलकर बैठे, तुमसे कुछ ज़रूरी बातें करनी है।

अपने कमरे में पहुँच कर कुर्सी पर बैठते हुए अमूल्य ने कहा–सत्य, बंगाल से तो अब ये अकाल की बडी डिस्टर्बिंग रिपोर्ट आने लगी। हम लोगों को फौरन कुछ करना चाहिये।

सत्य ने कहा–हाँ, इस काम में तो बिलकुल देरी नहीं की जा सकती।

अमूल्य ने कहा–मैं सोचता हूँ कि तत्काल हम लोगों को अकाल पीड़ितों से सहायतार्थ एक वैरायटी शो करना चाहिये, कुछ गाने दो-एक नृत्य और अगर सम्भव हो तो एक छोटी-सी नाटिका–

सत्य को अमूल्य का प्रस्ताव बहुत अच्छा लगा, बोला-अच्छा तो रहेगा। दो-ढ़ाई घंटे का प्रोग्राम होना चाहिये?

अमूल्य ने कहा–और क्या…तो इसका जिम्मा तुम लो।

सत्य ने कहा–मैं तो भाई, मजदूरों में काम करना चाहता हूँ, मुझे ऐसे कामों में न तो कुछ ख़ास रूचि है और न रत्ती भर अनुभव।…इसके लिए मेरा ख़याल है सुशील बहुत अच्छा रहेगा। नाच गाने में ही तो प्राण बसते है उसके।

अमूल्य ने अविश्वास के स्वर में कहा–सो तो ठीक है, मगर सुशील बड़ा बोहीमियन है, उसको कोई जिम्मेदारी देते डर लगता है। और यह काम बहुत जिम्मेदारी का है।

सत्य ने कहा–जैसा समझो।

अमूल्य ने पूछा–कब तक कर सकोगे?

सत्य ने कहा–वह अभी कैसे कह सकता हूँ। लोगों से मिलकर तय करना पड़ेगा।

अमूल्य ने कहा–वह सब झोल बात है। वैसे कभी कुछ नहीं होगा। खुद तुम्हारे दिमाग़ में एक डेडलाइन होनी चाहिये कि अमूक तारीख तक शो ज़रूर दे दूँगा ज़रा भी ढील डालने का समय नहीं है।

अमूल्य की बात सत्य को थोड़ी अखरी। बोला-ढील से तो मुझे खुद सख्त नफ़रत है जो काम हो चौकस हो।

अमूल्य ने कहा–इसीलिए तो मैंने पूछा, कब तक कर सकोगे, सोच कर बताओ।

सत्य का मन आश्वस्त हुआ, अमूल्य के मन में कोई बुरा भाव नहीं था, वही उसका तरीका है। मिनट भर की खामोशी के बाद उसने कहा–पन्द्रह दिन तो लगेगा ही कम से कम गाने वाले ढूँढ़ने होंगे ऑर्केस्टा के लिए बात करनी होगी नाचने के लिए नहीं कोई मिलता भी है कि नहीं-

अमूल्य ने थोड़ी बेसबी से कहा–वह सब तुम अपना घूमकर पता लगाओ, मुझको जो कुछ करने कहोगे करूँगा। पर शो मुझे पन्द्रह जुलाई तक चाहिये ही चाहिये- आज २६ जून है…

सत्य ने कहा–बीस तक रक्खो युनिवर्सिटी तब तक खुल गयी रहेगी।

सत्य ने सचमुच यह सब काम कभी नहीं किया था लेकिन पार्टी ने जब यही काम दे दिया तो फिर इसी में जी जान से लग गया। यहाँ सवाल नृत्य-गीत का तो था नहीं। यहाँ तो सवाल था बंगाल के अकालपीडित को सहायता भेजने का। उम्मीद थी कि अच्छे पैसे इकट्ठा हो जायेंगेः युनिवर्सिटी तब ताजी-ताजी खुलेगी, लड़के आ ही गये रहेंगे, उनकी गिरह में पैसा भी होंगे। सिनेमा-थियेटर का नाच-गाने का शौक यों ही सबों को बहुत होता है और फिर इसमें तो अकालपीड़ितों की सहायता की भी बात है। एक पंथ दो काज। ठीक रहेगा, लड़कों से काफ़ी पैसे बसूल किये जा सकेंगे।

नन्हें-नन्हें बच्चों की आँखों के नीचे हल्के है, उनके पेट के भीतर भट्ठियाँ धधक नहीं है, उनकी आँखों में भूख का रेगिस्तान है, भूख की दहशत…उनकी समझ में भी ठीक से न आता होगा कि वह कैसे रहते है और फिर वहीं उसी फुटपाथ पर पेट में एक भयानक दर्द और ऐंठन लिये, कभी चीखते-कराहते और कभी यह भी नहीं कली की डंठल पर बाँस की कमानी सन्न से चलाये तलवार की तरह और कली गिर कर ज़मीन में लोटने लगे। बच्चे आख़िर क्या समझे कि उनके पेट में वह कैसी आग जल रही है, यह दर्द कैसा है, शरीर की एक-एक माँसपेशी का यह टूटन कैसा यह किसने उन्हें शिकंजे में कस दिया, यह किसने उनमें ऐंठन भर दी वह कौन हाथ था जिसने उनका गला घोंट दिया। जिन्हें भूख लगने पर एक मिनट को सब न होता था उन्हें अब सब ही सब था, उनकी आँखों में बस एक इन्तज़ार जिसका कहीं न था, जो काली चिकनी सड़क की तरह चलता गया था, दूर-दूर दूर दूर…और बस फिर जैसे आसमान की नीली घुलावट में खो गया हो…

आसमान की नीली घुलावट यह आँखें ही तो नहीं…उनकी ठहरी हुई पथरायी हुई पुतलियाँ जो दूध का या भात का या लंगरखाने की खिचड़ी का इन्तज़ार करते-करते पथरा गयीं…इन्तज़ार का ठोस नीला आसमान ये पुतलियाँ…नहीं सत्य, इतना नहीं और तेज और तेज–

सत्य को ऐसा लगता जैसे किसी ने अपने नाखूनी पंजों से उसका दिल मसल दिया हो। भूख की मौत…परमात्मा दुश्मन को भी यह सजा न दे। वह दर्द दूसरा आदमी क्या कभी समझ सकता है।

भूख से दम तोड़नेवाली जवान, साँवली लड़कियों का ख़याल आते ही एक दूसरी ही तसवीर उसकी आँखों में फिर जाती। एक ओर बाँस की नर्म कोपल की तरह उनका गहरा नीला और हलका हरा-सा ताजा-ताजा चेहरा उनका गठा हुआ, खेत की धूप और मिटटी से तैयार कसा हुआ शरीर, उनकी काली-काली बड़ी-बड़ी आँखें उनके लम्बे-लम्बे बाल…और दूसरी ओर अर्द्धनारीश्वर के समान, सिर से पैर तक दो बराबर हिस्सों में बँटी हुई एक दैत्य आकृति…एक हिस्से का चेहरा पत्थर की सिल के मानिन्द, क्रूर और बेजान और मग़रूर हाथ अपनी बन्द मुठ्टियों में इन्सान की ज़िन्दगी को दबोचे हुए और बड़े-बड़े जगंली नाखूनों वाली उँगलियों से खून टपकता हुआ, दूसरे हिस्से का चेहरा मक्खन या तेल या चर्बी की तरह चिकना, गाल फूला हुआ, एक हलकी सी लाली लिये, आँख में सुर्मा, जिस्म पर रेशमी कुर्ता और उँगलियों से पसीने की तरह कोई लिजलिजी चीज़ चूती हुई, भीतर की वासना जो बाहर आ गयी है, और पैर उद्दाम काम का बोझ सँभालने में असमर्थ, काँपते हुए-

सत्य का सिर चकराने लगता। नादान बच्चे मौत की साजिश को न समझते हुए निगाहों में अजब एक हैरानी और बेबसी लिये, जलती हुई सड़कों के फुटपाथों पर एक कोने में दम तो़ड़ते हुए और जवान लड़कियाँ जाल में फँसी मछलियों की तरह छटपटाती हुई, वहशियों के उजले बिस्तरों पर दम तोड़ती हुई या राह चलते सफ़ेदपोश उचक्कों की भूरी निगाहों के नेजे़ अपने उभरे हुए सीनों पर झेलती हुई।

यह था बंगाल का अकाल, मुनाफे का जाल, आदमी भूख से बेहाल, उनकी जेबों में माल…

सत्य के सामने सवाल सिर्फ़ शो की तैयारी का नहीं, टिकट बेचकर अच्छे पैसे खड़े करने का भी था। दूसरे साथियों को भी टिकटों की बहियाँ पकड़ा दी गयी थीं कि वे अपने दोस्तों और पार्टी के हमदर्दों और आम जनता से बंगाल के अकाल के नाम पर चन्दा इकट्ठा करें। सभी साथी उनके लिए कुछ-न-कुछ कर रहे थे मगर असल जिम्मेदारी तो सत्य की ही थी। यह चन्दा इकट्ठा करने का काम उसने कभी नहीं किया था, उसे बडी मुशकिल हो रही थी, क्या करे। यह तो ठीक है कि अकाल कोई छोटी बात नहीं है मगर कैसे कहे और किससे कहे। अगर कोई मुँह बिचकाकर भीतर घर की ओर चल दे तो उस हालत में क्या करे-यह सारी बातें सोच-सोचकर उसको हौल होता था।

अपने काम की अच्छाई को जान समझकर भी…यह किसी के आगे मुँह खोलना ही तो सबसे बड़ी विपत्ति है। मुझे तो गुस्सा आ जाय अगर कोई आदमी मेरे संग बदतमीजी से पेश आये। मैं तो ऐसे आदमी को सरीहन उसके मुँह पर गालियाँ सुनाऊँ और चार झापड़ रसीद करके घर चला आऊँ…चूल्हे में जायें ये टिकट-फिकट लोगों में जब इन्सानियत ही नहीं!…सारी ही बातें उसने सोच डालीं, दुनिया भर की अच्छी-बुरी शंकाओं के संग करती है, कहीं किसी आदमी में कोई कमजोरी देखी नहीं कि बस फिर कुछ पूछिए मत। सत्य का मन इस चन्दे के सवाल पर बड़ा कमज़ोर था, बस फिर क्या था सारी होनी-अनहोनी बातें एक साथ उसके दिमाक में कौंध गयी। अगर उसे पता होता कि यह चन्दे वाला झमेला भी उसके सिर पड़ने वाला है, तो वह ऐसा बगटुट भागता कि अमूल्य को उसकी बू-बास भी न मिलती कुछ रोज़! मगर अब तो वह ढोल गले पड़ ही गयी, अब बजाये बगैर कैसे बने।…लिहाज़ा उसने सोचना शुरू किया कि कैसे हो। इतना तो उसने समझ लिया कि अकेले ठीक न बनेगा, किसी को साथ लेना चाहिये और किसी को साथ लेने का ख़याल आते ही राज उसके सामने आकर खड़ी हो गयी। सत्य मन ही मन मुस्कराया–अब जम गयी बात। अब ज़रूर कुछ हो जायगा।

दूसरे दिन छ बजे ही वह राज के यहाँ जा धमका। राज ने अभी बिस्तर भी नहीं छोड़ा था। लेटे-लेटे ही बोली–आज इतने सबेरे-सबेरे कैसे?…और बड़े इत्मीनान के साथ तकिये में और ज़ोर से सिर गाड़ती हुई, पैर को हलके से समेटकर, मुस्कराते हुए बोली–तुम भी कैसी भूत हो सत्य? सबेरे ही तो ज़रा मज़ा आता है, कुछ थोड़ी ठंड हो जाती है न, रात तो तड़पते गुजर जाती है।

सत्य ने कहा–मैं तो रात को नहीं तड़पता राज।…और जवाब में मुसकराया।

राज ने थोड़ा लजाते हुए कहा–मैं तो गर्मी की बात कह रही थी उल्लूराम।…और मुस्करायी।

–मैं भी तो गर्मी की ही बात कर रहा था रानी जी!…और मुसकराया।

राज ने जैसे डपटते हुए पूछा–तुम्हें नींद आ जाती है रात को?

–घोड़ा बेचकर सोता हूँ। उधर बिस्तर से पीठ लगी इधर आँख लगी, दोनों काम एक साथ होता है, और बस, आँख लगी और सबेरा हो गया एक करवट में गर्मी नहीं गर्मी का बाप हो, तड़पना किस चिड़िया को कहते है मैं नहीं जानता–

–तुम अभी बच्चे हो न सत्य इसीलिए ऐसा होता है।

–और तुम कब से बुढ़िया दादी बन गयी?…

–वह तो अब पुरानी बात हो गयी।

–अच्छा…तब तो फिर अब पाँव कब्र में लटके होगें?

–उसमें भी अब कोई कसर है? राज ने कहा और कहने के साथ ही उसका चेहरा न जाने कैसा बन गया, जैसे यह कहते-कहते ही वह बुढ़डी हो गयी और उसने कब्र में पाँव सचमुच लटका दिये। चेहरा कुछ अजीब विकृत-सा हो गया और न जाने कितने युगों की थकान का गहरा सा लेप उस पर चढ़ गया। सत्य तो थोड़ी देर तक उसे भौचक होकर देखता रहा, उसकी समझ में ही न आया कि वह देख क्या रहा है। बस इतना उसकी समझ में अच्छी तरह आ गया कि यह एक अप्रिय प्रसंग है और इसे यहीं इसी दम बन्द कर देना चाहिये। उसने राज की बात का कोई जवाब नहीं दिया, मगर उसका दिल बराबर उससे सवाल करता रहा, आदमी का दिमाग़ कैसे-कैसे अजीब ढंग से काम करता है। यही हाल रहा तो यह राज जल्दी ही पागल हो जायगी।

उसने कहा–तुमने तो आज आते ही आते लड़ाई छेड़ दी राज।

राज ने कहा–लड़ाई मैंने छेडी कि तुमने?

सत्य ने कहा–मैं तो तुम्हारे पास एक ज़रूरी काम से आया था।

राज–ज़रूरी काम से? मेरे पास?

सत्य–क्यों तुम अपने को किसी काम का नहीं समझते क्या?

–मेरी ज़िन्दगी ने खुद मुझे उठाकर घूर पर फेंक दिया है।

–तुम अब यह अपना फिलासफी छाँटना बन्द करोगी या नहीं? सत्य ने डाँटते हुए कहा, अकेले तुम्हीं पर दुखों का पहाड़ नहीं टूट पड़ा है।…बंगाल में अकाल पड़ा हुआ है लोग पेड़ की छाल और पत्तें और घास खाकर जी रहे है, पता है न तुम्हें? माँ अपने बेटे का कौर छीनकर खा रही है, बाप अपने हाथ से अपनी लड़की को रंड़ी के दलाल के हाथ बेच रहा ह। इंसान एक-एक दाने के लिए कुत्तों की तरह आपस में लड़ रहे है…और तुम्हें बस अपनी पीड़ा दिखायी देती है।

–बस–बस बन्द करो अपना लेक्चर।

–मैं तुम्हें लेक्चर देने नहीं आया हूँ। मैं आया हूँ तुमसे बिनती करने की अपनी तकलीफ़ को सारी दूनिया की तकलीफ़ के साथ मिला दो। खुद अपनी तकलीफ़ से छुटकारा पाने का भी कोई और रास्ता नहीं है राज!

–मुझसे कुछ नहीं होगा सत्य।

–होगा कैसे नहीं। तुमसे नहीं होगा तो फिर किससे होगा?

–तुम बड़े जिद्दी हो सत्य। तुम किसी के हाल पर रहम नहीं खाते।

–मैं जानता हूँ कि मैं किससे क्या माँग रहा हूँ राज, सत्य ने बिस्तर से उठकर बैठी हुई राज की आँख में आँख डालकर कहा।

राज ने कोई बचत न देखते हुए, अगत्या कहा–अच्छा चलना ही है तो शाम को चलेंगे–जिन दो-चार लोगों से मेरी जान पहचान है उनसे ले जाकर तुम्हें दूँगी। बस मेरा काम खत्म। मुझसे और कुछ करने को न कहना।

–वह तो मैं सब कर लूँगा पर यह मत समझना कि मुझे झिझक नहीं मालूम होती लोगों के सामने जाकर हाथ फैलाने में। लेकिन मैं कहता हूँ, मैं तो इधर अपना लजाधुरपन लेकर बैठूँ और उधर नन्हें-नन्हें बच्चे एक-एक बूँद के लिए दम तोड़ें। नहीं, यह ज्यादती है। यहाँ से वहाँ तक आग का यह जो झुरमुट तैयार हुआ है न, मैंने अपनी सारी झेंप-झिझक उसी में झोकनी शुरू कर दी है, कहते-कहते सत्य अपने ख़याल में खोया हुआ-सा बहुत दूर किसी चीज़ को देखता रहा। थोड़ी देर खामोशी रही, फिर सत्य ने जैसे होश में आते हुए हलके से, बहुत ही हलके से चौंककर कहा–हाँ तो लोगों से कहना-सुनना तो मैं सब कर लूँगा, लेकिन तुम्हें चलना जो है न वह शाम को नहीं अभी इसी वक़्त होगा, शाम को मुझे दूसरा काम है।

–अच्छे सूदखोर काबुली हो-मगर मैं नहीं जाती, जाओ, कोई ज़बरदस्ती है।…राज ने मान करते हुए कहा।

–नहीं जाती, अच्छा…कहकर सत्य राज से ऐसे गुँथा जैसे दोनों अभी छोटे-छोटे बच्चे हों!

–राज ने एकदम बेकाबू होते और हँसते हुए कहा–तुम तो बड़े बुरे आदमी हो सत्य, तुम्हारी तो अगर किसी लड़की से शादी हो जाय तो तुम उसकी जान ही निकाल लो, बिलकुल अपनी लौंडी बनाकर छोड़ो।

–और नहीं क्या शंकर जी की बटिया की तरह उठाकर घिनौची पर रख दूँ और दही-अच्छत से पूजूँ! कहकर सत्य ने फिर राज को छेड़ना शुरू किया। राज खिलखिलाती थी और चाहती थी कि सत्य इसी तरह उसको गुदगुदाता और चुटकी काटता और छेड़ना रहे। पता नहीं अभी और कितनी देर तक गो नादानों का यह खिलवाड़ जारी रहता जब कि-

अँगनाई में दाख़िल होते हुए एक गोरी-सी तरुणी ने कहा–बहन जी, अभी उठी नहीं आप!

राज का चेहरा तो ऐसे फ़क हो गया जैसे किसी ने उस पर घड़ों पानी डाल दिया हो, इस वक़्त यह कहाँ आ मरी…क्या कहेगी अपने दिल में, कहेगी बहन जी के यहाँ ये-ये गुल खिलते है।

इस तरुणी के अचानक आगमन से थोड़ी अचकचाहट तो सत्य को भी हुई मगर ज़्यादा नहीं। राज के चेहरे पर तो जैसे कोई सेंदुर मल गया था, जैसे तेज़ रोशनी में किसी लाल कागज़ का अक्स उसके चेहरे पर पड़ रहा हो। उस एक सेकेंड में निगाहों का जो लेन-देन हुआ उसमें सत्य ने जैसे राज को उलाहना दिया-अरे जब अपने मन में चोर नहीं तो इतना घबड़ा क्यों उठी हो तुम! यह तो एकदम निष्पाप खेल था।

राज ने निगाहों-निगाहों में ही उसे जबाब दिया-पाप और निष्पाप का निर्णय इतना आसान होता तो फिर बात ही क्या थी…

राज ने जवाब तो दे दिया मगर सत्य के सरल-सहज आचरण ने उसे भी कुछ न कुछ आश्वस्त किया। उसने कुछ-कुछ अपने ऊपर काबू पाते और बिस्तर से उठते हुए कहा–अरे उषा तुम यह आज सुबह-सुबह?…चलो-चलो अन्दर कमरे में बैठें…कहते हुए राज आगे-आगे चली। राज ने परिचय कराने का सिलसिला जारी रखते हुए कहा–यह है मेरा बड़ा नटखट भाई सत्यवान, मुझे बहुत सताता है और सत्य, यह है उषा मालवीय…मेरी छात्रा रह चुकी है, इस वर्ष बी.ए. के दूसरे साल में है। क्यों न उषा?

उषा ने हामी भरी।

सत्य ने उषा को और उषा ने सत्य को नमस्कार किया।

नमस्कार करते हुए सत्य ने पहली बार उषा को ध्यान से देखा-साफ़ गोरा रंग मगर बहुत गोरा नहीं, बड़ी-बड़ी आँखें, बहुत खूबसूरत नाक, चौड़ा-सा माथा, छोटा क़द, छरहरा बदन।

उसको देखकर सत्य को ऐसा तो ज़रा भी नहीं लगा कि यह कोई असाधारण रूपसी, उर्वशी या मेनका सामने आ गयी हो जिसे देखकर आदमी की आँख में चकाचौंध लग जाती है, नहीं ऐसी कोई बात नहीं। मगर तब भी, सत्य सोचता रहा, इस चेहरे में यह इतना आकर्षण काहे का है। क्योंकि इस चीज़ से वह अपने तईं भी इनक़ार नहीं कर सका कि देखते ही उषा का चेहरा उसे बड़ा आकर्षक लगा था जैसे कि सारी ज़िन्दगी में एक ही चेहरे लगे होंगे। इसलिए जब राज उषा से उसका परिचय करा रही थी तो सत्य जंगली हूश की तरह, बड़े ग़ौर से उषा के चेहरे को देख रहा था और अन्दर ही अन्दर इस सवाल से उलझ रहा था कि यह चेहरा क्यों इतना आकर्षक है, बल्कि यह लड़की इतनी आकर्षक क्यों है, क्योंकि बात केवल अकेले चेहरे की नहीं है। देखते ही यह चेहरा उसकी आँख में खुब गया था, उसका वह चन्दन जैसा शीतल सुगन्धित सौन्दर्य, मन और शरीर को झुलसा देने वाली आग जैसे रूप से कितना भिन्न!

अन्दर जाकर जब सब लोग बैठे तब भी अपने आप में ही खोया हुआ था। इसीलिए जब राज ने परिचय कराते हुए कहा कि इस वर्ष बी.ए. के दूसरे साल में है तो सत्य जैसे आसमान से गिरा क्योंकि बड़ी मुशकिल से जिस उलझे हुए सूत के गोले का एक छोर उसके हाथ आया था वह फिर उसके हाथ में जाता रहा। यह एक किशोरी का भोला-सा चेहरा है, सत्य अपने प्रश्न की इसी मीमांसा पर पहुँचा था और बी.ए. के दूसरे वर्ष में पढ़ रही है’ ने उसे फिर आघात लगाया, क्योंकि सत्य के नज़दीक इन दोनों बातों का कुछ अच्छा मेल नहीं बैठता था। मगर इस आघात को सहकर भी वह उसी डगर पर बढ़ता रहा और उसने अपने मन में कहा: वह जो भी हो यह एक किशोरी का चेहरा है-यही इसका गहरा आकर्षण है। किशोर सरलता और सलज्ज गांभीर्य का ही वह विचित्र सा रासायनिक संमिश्रण है जिसका एक गहरा-सा लेप किसी ने बड़े दुलार से उस पर चढ़ा दिया है। सत्य ने प्रश्न की मीमांसा तो कर ली मगर मन आश्वस्त नहीं हुआ। यह चौदह-पन्द्रह साल की छोकरी बी.ए. के दूसरे वर्ष में पढ़ती है। सत्य को उषा चौदह पन्द्रह से ज़्यादा किसी हालत में लगती ही न थी-शरीर की गठन भी तो कोई चीज़ है।…और तब भला बी.ए. के दूसरे वर्ष में कैसे पढ़ सकती है? इसे तो हद से नवीं-दसवीं की छात्रा होना चाहिये था। अभी तो इसके मुँह से दूध की बू भी नहीं गयी होगी। देखते नहीं इसके होंठ, गुलाब की पँखुरियों जैसे गुलाबी-गुलाबी गीले-गीले…यानी अभी औरत भी तो नहीं हुई यह छोकरी। खद्दर की एक पतली-सी सफे़द-गाड़ी और नीली ज़मीन पर छोटे-छोटे सफे़द चारखानों का ब्लाउज़ पहने यह लड़की बी.ए. के दूसरे वर्ष में पढ़ती है, हुँ; भैया की बातें। कहीं पढ़ती ही न हो!

थोड़ी ही देर बैठकर उषा चली गयी। एक अपरिचित आदमी को देखकर यों भी उसके मुँह पर ताला जड़ गया था, ऊपर से सत्य एकदम अपने आप ही में लिपटा-लिपटा सा ऐसा बैठा रहा कि बातचीत की ज़्यादा गुंजाइश ही नहीं थी।

उषा चली गयी तो राज ने चुटकी ली-उषा को देखकर तुम्हें हो क्या गया सत्य? ऐसा लगता था कि आँखों-आँखों में ही उसे उठाकर खा जाओगे। कहती होगी बड़ा जंगली आदमी है!

सत्य ने बिना झेंपे कहा–उँह, कहने दो। मैं तो यह पता लगाने की कोशिश कर रहा था कि यह चेहरा आख़िर सादा होते हुए भी इतना आकर्षक क्यों है।

राज ने पूछा–तो यह चेहरा तुम्हें बहुत आकर्षक लगा?

सत्य ने कहा–बहुत, ऐसा-वैसा नहीं, बहुत।

राज की आँखों में एक हलकी सी शरारत की चमक आयी। सत्य ने उसको पहचाना और ज़रा लजाया, और उठकर राज को हलके से एक धौल जमाते हुए बोला-बीबी जी, यह आप आँखों ही आँखों में मुस्करा क्यों रही है?

राज ने शरारत के रंग को और गाढ़ा करते हुए कहा–कहाँ? मैं तो नहीं मुसकरा रही हूँ।

सत्य ने कहा–मैं इतना गधा नहीं हूँ। मैं भी कुछ समझता हूँ। वैसी कोई बात नहीं है।

राज ने कहा–हो भी कैसे सकती है भला!

सत्य ने कहा–देखो राज, ठीक न होगा। अब तुम पिटोगी मेरे हाथ से।

राज ने कहा–तो मैं नहा-धो लूँ फिर हम लोग चलें उषा के घर।

सत्य ने कहा–तुम बाज़ नहीं आओगी अपनी शरारत से?

राज ने कहा–तुम तो खामखा भड़कते हो।…तुम्हारे उस काम के लिए, वैरायटी शो का टिकट…

सत्य ने कहा–नहीं, आज वहाँ जाना ठीक न होगा।

राज ने बहुत भोलेपन से पूछा–क्यों? मैं तो आज सचमुच सबसे पहले तुम्हें उषा के यहाँ ही ले जाने वाली थी।

सत्य ने कहा–अब तो कहोगी ही।

राज ने कहा–क्यों, अब कोई खास बात हो गयी है क्या?

सत्य–नहीं…मगर आज उनके यहाँ नहीं जाऊँगा।

राज ने उसी तरह शरारत के साथ एक नन्हीं सी बच्ची की तरह हठ करते हुए कहा–क्यों नहीं जाओगे उनके यहाँ। ऐसी भी भला क्या बात हो गयी?

बार-बार उड़ाने पर भी मक्खी के आ-आकर नाक पर बैठने से आदमी को जैसा लगता है, कुछ-कुछ वैसा ही सत्य को भी लगा। उसने उठकर राज को नोचते हुए और उसका कंधा पकड़ कर ज़ोर से हिलाते हुए कहा–बात यही है कि कुछ बात नहीं है।

राज ने मुँह बनाते हुए कहा–यह नोचने-बकोटने की सैया नहीं। मुँह से बात करो।

बीज (अध्याय : ७)

अमूल्य के दो भाई थे। एक भाई तो अभी बहुत छोटा था, यही तेरह-चौदह साल का, सी.ए.वी. हाई स्कूल में आठवीं में पढ़ता था। उसका नाम था ज्योतिर्मय। सब उसे ज्योति पुकारते थे। क्लास के लड़के का नाम बिगाड़कर उसे ‘जूती’ पुकारते थे। अमूल्य का दूसरा भाई सुव्रत उससे सिर्फ़ तीन साल छोटा था और बी.ए. में पढ़ता था। उसका बुलाने का नाम था टुटु। अपने नाम के मारे इस बेचारे की भी बड़ी छीछालेदर थी। मुहल्ले-टोले के जो ज़्यादा पाज़ी लड़के थे सब के सब उसे तूतू कहकर बुलाते थे। टुटु यों भी बड़ा लजीला लड़का था, किसी से मिलते तो उसकी जान पर बनती थी, उस पर जब लड़के तू तू कहकर बुलाते तो उसका बड़ा बुरा हाल हो जाता। उसका सबसे प्यारा शगल था पढ़ना, जब देखो वह अपनी कोठरी बन्द किये कुछ पढ़ रहा है। बढ़ा शीलवान, शान्त, आज्ञाकारी लड़का था।

उसके जिम्मे घर का सिर्फ़ एक काम था, बाज़ार से साग-भाज़ी लाना और इस काम को सबेरे-सबेरे पूरा करके फिर सारा दिन किताबें ही उसकी सगी रहतीं। ज्योति का स्वभाव उसका किताबें तो जैसे वह छूता ही न था, दूसरा भी किसी किताब से उसे प्रेम न था। उसका अकेला काम था मुहल्लों के लड़कों के साथ गोली या गुल्ली-डंडा खेलना और कभी इसके साथ कभी उसके साथ मारपीट करना। इस मारपीट में वह हातिम था और इसी की वजह से वह अपने मुहल्ले के लड़कों का लीड़र था, उसकी मर्जी के ख़िलाफ़ गया तो समझिए उसके हाथ पाँव की खैर नहीं। जिस्म से वह कुछ ऐसा तगड़ा नहीं था, औसत लड़कों के जैसा ही उसका शरीर था। मगर मारपीट करने के लिए उन हाथों में पता नहीं कहाँ से शक्ति आ जाती थी। अपने से ड्योढ़े लोगों से भी वह बिना झिझके बे-खटक भिड़ जाता था और अगर कभी पिट जाता था तो अकसर पीट भी लेता था। उसका शरीर शायद ही कभी लड़ाई के घावों से खाली होता, कभी कोई नीला दाग़ होता कभी आँख सूजी हुई होती गाल छिला हुआ होता, कभी कोई ऊँची दीवार फाँदने में पैर में मोच आ जाती, कभी और कुछ। यह उसका रोज़ का धन्धा था। उसकी माँ का जी डरता रहता कि पता नहीं आज लड़का सही-सलामत लौटता है कि नहीं। और शायद ही कभी ऐसा होता हो। वह लड़का दौड़-भाग कूँद-फाँद मार-पीट के लिए बनाया ही गया था और उसी में उसके प्राण बसते। उसके बाहर की हर चीज़ उसके लिए फीकी थी, एकदम नीरस, जैसे चूसकर फेंकी हुई गँडेरी की खाई। स्कूल में उसने न जाने कितने ‘जूती जूती’ कहकर चिढ़ाने वालों को पीट-पीट कर ठीक कर दिया था।

अमूल्य की माँ अपने सभी बेटों में सबसे ज़्यादा चाहती थी। शायद इसीलिए कि वह सबसे छोटा था वर्ना माँ भला कब किसी को कम और किसी को ज़्यादा चाहती है।

अमूल्य की माँ दोहरे की स्त्री थीं। यों देखने में स्वस्थ मालूम होतीं, मगर वह थी दिल की मरीज़। जब दौरा पड़ता तो ऐसा भयानक दर्द उनको अपनी छाती से मालूम होता कि वह सुध-बुध खोकर चिल्लाने लगतीं। उनको बस ऐसा लगता कि जैसे कोई उनकी छाती में बरमा लगाकर सूराख किये चला जा रहा है। साँस भी भारी चलने लगती है और आँखें भी दम घुटने की तरह बाहर निकल पड़तीं। अकसर ये दौरें उन पर पड़ते रहते, और तब घर के सभी लोगों की आँखों से नींद उड़ जाती। प्रफुल्लबाबू को अपनी जगह पर इस बात का पूरा यकीन था कि एक रोज़ ऐसे ही किसी दौरे में अमूल्य की माँ का दम निकल जायगा। हर तरह की दवा करके हार गये थे, किसी से कुछ लाभ न हुआ था। अन्त में प्रफुल्लबाबू हार-थककर उनकी बीमारी को भी एक तरह की नियति मान चुप होकर बैठ गये थे, इलाज करवाते अब भी थे मगर बग़ैर किसी उम्मीद के। सिर्फ़ इसलिए कि उनका इस तरह से छरे की चोट खाये जानवर के समान ज़मीन पर लोट-लोट कर छटपटाना उनसे देखा न जाता था और डाक्टर शफ़ा दे चाहे न दे शफ़ा की उम्मीद तो देता ही है और उम्मीद पर दुनिया कायम है। बहरहाल, प्रफुल्लबाबू को ज़िन्दगी की दूसरी चिंताओं के साथ-साथ स्त्री की बीमारी की भी एक बड़ी चिन्ता थी।

आज जब सत्य अमूल्य के यहाँ गया तो सब का हाल बुरा हो रहा था। रात माँ बाप को दौरा पड़ा था और अकेले ज्योति को छोड़कर दूसरे किसी ने आँखें भी नहीं झपकायी थी। प्रफुल्लबाबू आरामकुर्सी पर लेटे हुए थे, उनका चेहरा रात के जागने से एकदम खड़िये जैसा हो रहा था।

बीज (अध्याय : ८)

पिछली मुलाकात के दो रोज़ बाद सत्य और राज सबेरे उषा के घर पहुँचे। उषा का घर वहीं जार्जटाउन में राज की बँगलिया के पास ही था, मुशकिल से डेढ़ फ़र्लाग। उषा का बँगला भी खा़स बड़ा नहीं था, छोटा ही कहना चाहिये, बस एक परिवार उसमें खूबसूरती के साथ रह सकता था बशर्ते उसे रहने का सलीक़ा आता हो जो बदनसीब देश में ज़्यादातर लोगों को नहीं आता। और आवे भी कहाँ से जब हर वक़्त की हाय हाय है। हाँ, अगर आप उनकी बात करते है जिनके पास पैसा है मगर फिर भी रहने की तमीज़ नहीं है तो वह एक अलग चीज़ है। वहाँ पर दूसरी मज़बूरी है, दिमाग़ नहीं है।

उषा वहीं बगीचे में पौदों की खाद-वाद ठीक कर रही थी, झुकी-झुकी खुरपी चला रही थी। सत्य को उस वक़्त वह और भी मोहक लगी। आहट पाकर उसने वहीं मैदान में पड़ी खाटें उठा रहा था, कुर्सी बाहर लाकर रखने को कहा। अपने आने का मक़सद उसे प्रकृतिस्थ होते, बात उसने कह ही डाली और कह जाने के बाद महसूस किया कि जैसे उसकी ज़बान पर लगी फफूँद छट गयी हो, कि जैसे कुछ मकड़ी के जाले टूट गये हों, कि जैसे उसका आत्मविश्वास बढ़ गया हो।

उषा ने दस रुपये लाकर दिये।

सत्य का वैरायटी शो बहुत कामयाब रहा, दोनों ही दृष्टियों से। शो अच्छा था दूर बैठे लोगों के सामने भूख से मरते हुए बंगाल की तसवीर खड़ी करने का, उनके दिलों में दर्द जगाने का जो काम था, उसे इन नाँचों ने, गानों ने बहुत अच्छी तरह पूरा किया; और पैसे भी अच्छे उठे थे। कुल सोलह सौ इक्यासी रुपये मिले, जो एक शो के लिहाज से कुछ बुरी रकम नहीं थी।

उषा और राज भी सामने की सीटों पर बैठी हुई थी। आख़िरी चीज़ एक मूक अभिनय था। मंच पर काले पर्दे की पृष्ठभूमि में चावल के भारी बोरे की तरह अचल बैठा हुआ था एक चिकने चेहरे का बनिया जिसके सिर पर पगड़ी थी जिसके ऊपर थी लाल-लाल फुँदनेदार तुर्की टोपी जो बड़े नाज़ के साथ बैठी हुई थी और उससे भी ऊपर बंगाल जो दम तोड़ रहा था, जिसकी आँखों में दर्द था, जिसके पैर लड़खड़ा रहे थे और लाउड़स्पीकर पर सुनायी दे रही थी सत्य की आवाज़…मुँह का कौर छीना है उन्हें उसका बदला चुकाना होगा, उन्हें जवाब देना होगा; हम उनसे जवाब माँगते है…

पर्दा गिर गया। हवा में सत्य की आवाज़ गूँजती रही।

दो मिनट बाद सत्य वहाँ आया जहाँ उषा और राज़ बैठी हुई थीं। उषा ने कुछ नहीं कहा। राज का चेहरा उदास था। मगर सत्य को देखकर प्रसन्न होने की सच्ची कोशिश करते हुए उसने कहा–तुमने तो समा बाँध दिया!…फिर चिढ़ाने के लिए जोड़ा- मैं तो समझती थी यों ही इधर-उधर लुढ़कते फिरते हो।

सत्य ने कहा–जी! कुछ पता है सोलह सौ रुपये उठे है!

राज-वही तो मैं भी कहती हूँ।

सत्य–तुम कुछ नहीं कहती तो, तुम बहुत शैतान हो, कहते हुए उसके हाथ राज को चुटकी काटने के लिए बढ़े लेकिन उषा तो वहीं खड़ी थी, हाथ रुक गया।

राज ने पूछा–यह बैले वाला नाच किसने किया है?

सत्य ने कहा–पार्टी की एक ही लड़की है, दीप्ति सेनगुप्त…क्यों, कैसा था नाच?

राज ने कहा–बहुत खूब…उषा तो रो दी, और कनखियों से उसकी ओर देखकर कहा–झूठ कहती हूँ उषा?…रूमाल अब भी गीली होगी।

उषा ने शरमाकर आँखें नीची कर लीं, अपनी बड़ी-बड़ी आँखें। उसके गाल हलके-हलके रक्तिम हो चले। सत्य को उस वक़्त वह अपरूप सुन्दरी लगी। उसने अच्छी तरह आँख जमाकर उसके चेहरे को देखा। उषा को भी शायद इसका हलका-सा आभास हुआ। उसका चेहरा और भी रँग उठा।

सत्य ने कहा–अच्छा तुम लोग अब जाओ; मुझे तो अभी यहाँ दूसरी ही बकवास भुगतनी है, कई चीज़ें यहाँ-वहाँ से आयी है, उन्हें अपनी-अपनी जगह पर पहुँचाना है…फूल तो आप लोगों ने देखा, अब उसकी याद तो मुझी को ठीक करनी है…कहकर उसने उषा को देखा। उषा ने फिर भी कुछ नहीं कहा, मगर सत्य की बात का संकेत किसकी तरफ़ है, यह उससे छिपा नहीं रहा।

बीज (अध्याय : ९)

एक रोज़ लाइब्रेरी में सत्य की मुलाक़ात उषा से हो गयी। इधर कई रोज़ से वह उषा से नहीं मिला था, उसके घर जाने का कोई कारण न था और कालेज में मुलाक़ात का कोई सिलसिला नहीं था। अलग-अलग इमारतों में उनके क्लास होते थे और सत्य को यह नागवार थी कि वह संकल्प करके उषा से मिले। न जाने क्यों यह चीज़ उसे लुच्चापन मालूम होती थी, जैसे खामखा की छेड़। आज यों ही अचानक मुलाक़ात हो गयी तो सत्य को बड़ी खुशी हुई। उसने पूछा–कहिए, क्या लेने आयी है?

उषा ने कहा–क्या लूँगी, किताबें मिलती भी हों। लूकस की ‘ट्रैजेड़ी’ के लिए चार चक्कर लगा चुकी हूँ…

सत्य ने कहा–वह तो मैं आपको दे सकता हूँ।

उषा–है आपके पास? सत्य–और नहीं तो।

उषा–तो फिर आप ही से लेकर पढ़ लूँगी। यहाँ के भरोसे रही तो सात जनम बैठी रह जाऊँगी।

सत्य–क्यों रहिये यहाँ के भरोसे। मैं घर आकर दे जाऊँगा किताब। लेकिन अभी से आप घोखना शुरू कर देंगी तो आसमान फट पड़ेगा उषा जी। अभी तो अगस्त ही है।

उषा के चेहरे पर मुसकराहट आ गयी।

बोला-आप भी कैसी बात करते है सत्यबाबू, घोखने की एक ही कही। अभी से थोड़ा-बहुत देखती रहूँगी तो धीरे-धीरे सारा काम हो जायगा, बोझ नहीं बनेगा।

सत्य की आँख में शरारत की जब उसने कहा–आप तो बड़ी समझदार है उषा जी! काश कि मैं भी आपकी तरह हो सकता। मैं तो इम्तहान के बीस दिन महीना भर पहले किताब उठाता हूँ, उसके पहले तबीयत ही उस ओर झुकती।

उषा ने कहा–आपको दूसरे काम भी रहते है न…

सत्य–आपको भी घर के बीसों काम-काज रहते होंगे!

उषा–ऐसा क्या काम-काज…पढ़ने-लिखने में ही थोडा वक़्त कट जाता है वर्ना दिन पहाड़ हो जाये, कहकर उषा जैसे, कुछ शरमाकर अपने में ही सिमट गयी। आध मिनट की ख़ामोशी के बाद उषा ने बरामदे से बाहर की तरफ़ बढ़ते हुए कहा–तो कब आयेंगे आप?

सत्य–दिन अगर साफ़ रहा, बूँदाबाँदी न होती रही तो मैं कल सबेरे आपके पास किताब पहुँचा दूँगा।

उषा ने हलके से मुस्कराकर कहा–आयेंगे न?…आपका कुछ ठीक नहीं…आप तो बस चन्दा लेने आये थे। उलाहना स्पष्ट था। सत्य के दिल में हल्की-सी गुदगुदी हुई। उसने भी मुसकराकर जवाब दिया-नहीं, ऐसी बात नहीं, कल किताब देने आऊँगा-मगर वह पानी न बरसने वाली शर्त है। आजकल यह बारिश भी तो नाक में दम किये रहती है…और यह लीजिए, फिर यह टिपिर-टिपिर शुरू हो गयी। मुझे इस चीज़ से सख़्त नफ़रत है। जितना बरसना हो एक बार खूब गड़गड़ा कर बरस ले और खुल जाय, यह मुझे अच्छा लगता है। यह हर वक़्त की बदली और टिप् टिप् टिप् टिप्-यह चीज़ मेरा दिमाग़ खराब कर देती है। धूप के बिना मैं नहीं जी सकता।

उषा ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। छाता खोलते हुए बोली–तो कल सबेरे…

आसमान रात भर चलनी की तरह चूता रहा। सत्य ऊपर अपने कमरे में बिस्तर पर पड़ा-पड़ा कुछ पढ़ रहा था और हाथ से पंखा झलता जाता था-लानत है इस बारिश और इस उमस पर, बारिश के पहिले की उमस तो समझ में आती है आदमी ही की तरह आसमान भी घुटता-घुटता रहता है और फिर बरस पड़ता है, मगर बरस पड़ने के बाद फिर यह घुन क्यों, यह भयानक उमस ये मच्छर यह गर्मी–

ऐसे में नींद का भला क्या जिक्र मगर सत्य तो सोने के मामले में पूरा कुंभकर्ण है न। पता नहीं कब अख़बार के पन्ने पलटता-पलटता सो गया।

सपने में उसने एक मखनिया-श्वेत रंग का गुलाब देखा, बहुत बड़ा सा और बहुत खूबसूरत। उस पर एक भौंरा आकर बैठा।

भौंरे ने गुलाब से पूछा–तुम हो?

गुलाब ने कहा -हाँ।

भौंरे ने कहा–नहीं तुम गुलाब नहीं हो। तम्हारा रंग चम्पा जैसा क्यों है?

गुलाब ने कहा–वाह रे, वही तो मेरा रंग है।

भौंरे ने नाख़ुश होकर कहा–नहीं तुम गुलाब नहीं हो।

गुलाब ने बहुत भोलेपन से पूछा–तब फिर मैं कोन हूँ?

भौंरे ने कहा–जैसे मुझे पता न हो, तुम मिस्र की राजकुमारी क्लियौपैट्रा हो…

भौरे का यह कहना था कि अरे यह क्या हुआ! उसमें से सचमुच यह कौन लड़की निकल आयी-गुलाब जैसी ही नाजुक और वैसी ही ताज़ी और वैसी ही हसीन।

लड़की ने भौरे से कहा–प्रियतम, अब मैं तुम्हारी हूँ, तुम मुझको ले चलो। तुम्हीं मेरे राजकुमार हो। सौ साल से गुलाब की इन्हीं पँखुड़ियों में कैद मैं तुम्हारा ही रास्ता देख रही थी। देवी ने मुझको शाप देते हुए यही कहा था कि सौ साल बाद एक काली घटाओं की तरह काला भौंरा आवेगा और वह गुलाब की पँखुड़ियों के घूँघट के नीचे से तुझे पहचान लेगा, और उस दिन तू फिर अपना पुराना शरीर पा जायेगी।…सौ साल से मेरी पँखुड़ियाँ यों ही झर जाती है और मेरा पराग इसी तरह धूल में खो जाता है और मैं सौ सालों से इसी तरह इसी जगह बार-बार झरती और बार-बार उगती रही हूँ, इसी जगह इसी तरह सौ साल से, तुम्हारी ही प्रतीक्षा में कि एक दिन तुम आओगे और मेरा मुँह चूमोगे और कहोगे-उठो अब तुम शापयुक्त हुई और मेरे इन गुलाबी ओठों का स्पर्श लगते ही तुम्हारा भी रूप बदलता जायेगा और तुम जाओगे मेरे साँवले सलोने मेरे सदा-सदा के प्रियतम…मेरे…

सत्य की नींद खुल गयी। घड़ी उठाकर देखी, दो बजा था।

सुबह हुई क्योंकि रात के बाद सुबह होती है, लेकिन उदास-उदास। बारिश जो रात में ही किसी समय बन्द हो गयी थी, लेकिन भूरे-भूरे से, चमड़े के रंग बादलों से घिरा हुआ आसमान खँजड़ी जैसा दिखायी दे रहा था और उससे खँजड़ी के फटे हुए स्वर जैसी ही ऊब और थकान रिस रही थी। सुबह का मतलब है सूरज और सूरज का कहीं पता न था। गली चलने लगी थी और लोग दिन के ज़रूरी तकाजे के तौर पर अपने नित्य नैमित्तिक कामों पर जा रहे थे मगर उनको देखकर लगता था कि जैसे वह सभी अपनी कोई बहुत ज़रूरी चीज़ कहीं गिरा आये है और वह चीज़ थी हँसता हुआ, गोल-गोल सूरज जिसके दर्शन मात्र से हर चीज़ जैसे खिल उठती है।

सत्य ने खिड़की में से चमड़े के रंग के आसमान को देखकर, बिस्तर छोड़ते हुए, अपने मन में कहा, यह रोशनी की भूख भी आदमी की कितनी ज़बरदस्त भूख होती है…मगर इसका पता चलता है ऐसी बदली ही के रोज़, वैसे ही जैसे साँस आदमी के लिए कितनी ज़रूरी चीज़ है इसका पता चलता है तब जब नाक बन्द हो जाती है और आदमी की कितनी ज़बरदस्त भूख होती है…मगर इसका पता चलता है ऐसी बदली ही के रोज़, वैसे ही जैसे साँस आदमी के लिए कितनी जरूरी चीज़ है इसका पता चलता है तब जब नाक बन्द हो जाती है और आदमी साँस नहीं ले पाता–

उषा बरामदे में बेंत की एक कुर्सी डाले बैठी कुछ पढ़ रही थी जब सत्य उसके यहाँ पहुँचा। उषा नहा-धोकर एकदम तरोताज़ा हो रही थी। किसी की आहट पा उसने आँख उठायी तो देखा सत्य खड़ा है। कुछ हड़बड़ाकर वह कुर्सी से उठी, बड़े शालीन ढंग से हाथ जोड़ कर नमस्कार किया और कहा–आप आ गये! मैंने तो समझा था…आज का दिन बड़ा वैसा सा है न।

सत्य ने कहा–आपको बदली नहीं अच्छी लगती क्या? लोग तो इसकी तारीफ़ों के पुल बाँध देते है!

उषा ने हलके मुँह से बिचकाकर कहा–बाँधते होंगे, मुझे तो कुछ ख़ास अच्छी नहीं लगती बदली।

सत्य ने पूछा–यह क्या पढ़ रही है?

उषा–यों ही, हार्डी का एक उपन्यास है।

सत्य–टेस?

उषा–हाँ।

सत्य–टेस बड़ी ही प्यारी लड़की है, कितनी भोली कितनी खूबसूरत! बड़ी पागल लड़की है टेस-मैं तो उपन्यास के पन्नों में ही उसे पाकर उसका हो बैठा हूँ। कई बरस होने आये जब टेस पढ़ा था मैंने, मगर आज भी उसकी गर्मी और एक हलकी सी गुदगुदी दिल में बाक़ी है, जैसे कोई बड़ा हसीन ख्वाब कभी देखा हो। मैं तो उसकी सरलता, उसके भोलेपन पर निछावर हूँ। टेस गुलाब की कली है–

उषा ने मुसकराते हुए कहा–मैं तो समझती थी आपको इन चीज़ों में दिलचस्पी न होगी मगर आप तो टेस के बड़े भारी प्रेमी निकले!

सत्य ने अनजाने में ही, उलाहने के स्वर में कहा–ऐसा क्यों समझा आपने, मेरे पास हृदय नहीं है क्या? और फिर उषा जी, उपन्यास की नायिका से प्रेम करना आसान भी तो होता है-प्रतिदान की अपेक्षा नहीं होती न! और मुस्कराया।

उषा ने कहा–मैं अभी एक मिनट में आयी, उसकी चाय के लिए कह आऊँ।

सत्य ने प्रतिवाद करते हुए कहा–आप तो तकल्लुफ करती है। मैं घर से चाय पीकर चला था।

उषा ने सूरज की रोशनी जैसी मुसकराहट बिखेरते हुए कहा–ज़रूर पीके चले होंगे, मगर इस बदली में चाय का एक और प्याला ऐसा कुछ बुरा न होगा। और अन्दर चली गयी।

उषा के यहाँ से लौटते हुए राज के पास पहुँचा। राज कालेज जाने की तैयारी में थी। कहो, आज इस वक़्त किधर से?

सत्य ने कहा–उषा के यहाँ आया था…

राज ने बात को बीच में ही काटते हुए कहा–ओ…

सत्य ने बात पूरी की-एक किताब देनी थी…तुम बड़ी पाजी हो राज।

राज ने अपनी उसी शैतान मुसकराहट के शीरे में बात को लपेटते हुए कहा–तुम खामखा मेरी हर बात पर चिटकते हो! तुम उषा के यहाँ किताब देने आये थे, बस इतनी ही सी तो बात है, मैं कब कुछ कह रही हूँ। मगर तुम मेरे पास कभी कोई किताब देने नहीं आते!

–नहीं आता! यह झूठ! ऐसा पटकूँगा मैं तुमको उठाकर कि याद करोगी!

–फिर वही बात! तुम्हारा चिबिल्लापन कब छूटेगा…छूटेगा…सब ने कहा–तुम आजकल बड़ी तेज़ हो गयी हो राज ठीक न होगा तुम्हारे हक़ में कहे देता हूँ!

राज ने वैसे ही मुस्कराते हुए कहा–मुझमें अब तेज़ी कहाँ! मगर तेज़ होना कोई बुरी बात है?

सत्य ने कहा–बताऊँगा!

दोनों साथ-साथ घर से निकले! चौराहे से दोनों के रास्ते अलग हो गये।

बीज (तीन डायरियाँ : सत्य)

२७ अगस्त

मैं अपने आप को समझ नहीं पाता। उषा इतनी लजाती क्यों है? और मुझे उसका लजाना अच्छा क्यों लगता है? उस दिन जब राज के यहाँ पहली बार उसको देखा था तब भी वह इतना शरमा रही थी। आजकल की लड़कियाँ आमतौर पर तो काफ़ी बेधड़क होती है! उषा इतनी छुई मुई क्यों है, निगाहों की उगलियों के छू जाने भर से वह मर जाती है…उषा बहुत भोली है। मैंने उसके साथ बेअदबी तो नहीं की?

मैं उसे बहुत बुरी तरह घूर रहा था। उसने ज़रूर मुझको बहुत जंगली आदमी समझा होगा…मगर आज लाइब्रेरी में (हाँ आज अचानक वहाँ उससे भेंट हो गयी लूकस की ‘ट्रैजड़ी’ के लिए दस बार चक्कर लगा चुकी है। मैंने कह दिया है कि मैं अपनी किताब दे जाऊँगा। बडी प्रसन्न हुई वह। मैं कल सबेरे जाकर उसे किताब दे आऊँगा।

२९ अगस्त

उषा को किताब दे आया। उसने मेरी बड़ी आवभगत की। चाय पिलायी और बड़ी देर तक बातें करती रही, पूछती थी वह बैले वाली कॉमेंटरी किसने लिखी थी।

उषा को वह अच्छी लगी शायद! उषा बहुत भली लड़की है। मुझे उससे मिलकर सुख होता है…मगर राज बड़ी पाजी है, वह समझती है कुछ और बात है। देखा नहीं, कैसा ओंठ दबाकर हँस रही थी और उसकी आँखें नहीं देखी, शरारत भरी हुई थी उनमें! आदमी किसी लड़की से मिला नहीं कि लोग अटकलें लगाने लग जाते है, अजब दस्तूर है यह भी-मैं तो उसमें कोई बुराई नहीं देखता। बुराई कौन देखता है! बुराई की बात तो कोई नहीं कहता। बुराई तो किसी चीज़ में नहीं है।

१॰ सितम्बर

अभी शाम को राज के यहाँ बैठा हुआ था आज। इतने में उषा आयी। पता नहीं किस काम से आयी थी। मुझे देखकर ज़रा ठिठकी। फिर आकर बैठ गयी। इधर-उधर की बहुत-सी बातें हुईं। तुम देखते राज को! पता नहीं वह मेरे अन्दर क्या पढ़ने की कोशिश कर रही थी। मैं भी तो एक घाघ हूँ, ऐसे बैठा रहा जैसे कुछ हुआ ही नहीं, उषा के आने का जैसे मुझ पर कोई असर न हो। राज कभी नज़र बचाकर मुझको देखती थी कभी उषा को। मुझे बड़ा मज़ा आया इसमें। राज बिलकुल बुद्धू है, समझती है कि मैं। उषा के प्रेम में दीवाना हो रहा हूँ। और मैं भला किसी से क्यों प्रेम करने लगा? मैं उषा से प्रेम करता हूँ क्या? मुझे उषा अच्छी लगती है, उससे बात करना अच्छा लगता है, तो क्या यही प्रेम है? प्रेम तो दूसरी ही चीज़ होती होगी। शेली और कीट्स के गीत तो यही बतलाते है और शेक्सपियर के सानेट भी। हाइने ने लिखा है: देयर इज़ ए टुथएक इन माइ हार्ट (मेरे दिल में दाँत के दर्द जैसा मीठा-मीठा दर्द होता है) मालूम होता है कवि जी को कभी कसकर दाँत का दर्द हुआ नहीं। मुझे दो-तीन बार हुआ है। मैं जानता हूँ अगर प्रेम में वैसा दर्द होता है तो मैं बिना प्रेम का ही भला! राज शायद इसी दर्द की कचोट या टीस की रेखाओं को मेरे चेहरे पर पढ़ने की कोशिश कर रही थी। मुझे बड़ी दया आती है बेचारी पर। वहाँ पर कुछ हो भी तब तो वह पढे़।…

चलते-चलते अपने घर के रास्ते में उषा ने एक मजे़दार बात बतायी। बोली–सत्य बाबू, आप उस रोज़ चले आये न, तो मेरे पिताजी ने मुझसे पूछा–उषा, यह कौन लड़का था? मैंने कहा–मेरे कालेज में पढ़ते है।

–तेरे संग?

–नहीं मेरे संग नहीं। एम.ए. में पढ़ते है, दूसरा साल है।

–आदमी अच्छा मालूम होता है।

–मैंने कुछ नहीं कहा, चुप रही। आप ही बताइये मैं इसका क्या जवाब देती? कहकर उसने मुझे इतने भोलेपन से देखा कि कुछ न पूछो-मेरे जी में एक बार तो आया कि कह दूँ कम्युनिस्ट है, लेकिन मैंने कहा नहीं। पिताजी कम्युनिस्टों से बहुत चिढ़ते है। पता नहीं क्यों। आप कम्युनिस्ट है यह सुनकर उनका मुँह ज़रूर बन जाता और फिर जैसे उस मुँह का ख़याल करके उसे हँसी आ गयी। सच, हँसते समय उषा की खूबसूरती चौबाला हो जाती है।

मैंने कहा–बतला दिया होता तो मज़ा रहता।

–आप तो थे ही नहीं उसका मज़ा कौन लेता?

–अच्छा किसी रोज़ अपने पिता जी से मुझे मिलाइयेगा तो मेरा यही परिचय दीजियेगा।

–उषा ने एकदम अछूते खिलंडरेपन से कहा–किसी रोज़ क्यों, कल ही आइये न।

–क्यों नहीं। अब तो पानी भी उतना नहीं बरसता।

११ सितम्बर

उषा ने आज मुझे अपने पिताजी से मिलाया। बड़ी-बड़ी मूछें है उनकी। मूछ देखकर डर लगता है। लेकिन आदमी बुरे नहीं लगे। कांग्रेस में बहुत काम किया है। कई बार जेल गये है। सन् ४२ के आन्दोलन में भी गये थे। उषा ने जब उन्हें बताया कि मैं कम्युनिस्ट हूँ तो वह ऐसे चौंके जैसे अंगार पर पैर पड़ गया हो-सचमुच बड़ा मज़ा आया। उषा बहुत गंभीर मुद्रा बनाये बैठी थी, मगर उस वक़्त उसने मेरी ओर निहारा। मुझे बड़ी हँसी आयी लेकिन रोक गया। उषा के पिताजी बोले-आप कम्युनिस्ट है? फिर वही बहुत-सी बातें कम्युनिस्टों के बारे में कहीं। मैंने उन्हें बतलाया कि वह सब फ़िजूल की बकवास है, मैं खुद उन्हीं सब बातों पर यक़ीन करता था, मैं भी बयालिस में जेल गया था। पता नहीं मेरी बात से वह कितना आश्वस्त हुए नहीं हुए मगर मज़ा बहुत आया। और मैं तो उषा को देख रहा था, उसकी आँखें इतनी बातें कर रही थीं जैसे उनके पास अपनी ज़बान हो-उसकी वो बड़ी-बड़ी आँखें। उसे सारी चीज़ में नाटक का-सा मज़ा आ रहा था। आँखों ही आँखों में वह कितनी बातें कह देती है।…मगर कितनी भोली है उषा, कितनी नेक, और कितनी खूबसूरत-उसकी आँखों की जबान जो मैं पढ़ लेता हूँ उसमें कहीं मेरे अपने मन के भाव तो मुझसे छल नहीं कर रहे?

१४ सितम्बर

मेरे मन के भाव उषा के प्रति क्या है, वह मुझे सिर्फ़ अच्छी लगती है या और कुछ? अरे यही तो और क्या?…क्या सभी से मिलने की तुम्हारे दिल में इतनी ही ख्वाहिश रहती है? या न मिलने पर इतनी सी बेचैनी? क्या राज से मुलाकात न होने पर तुमको ऐसा ही लगता है? तो क्या मुझे उषा से प्रेम हो गया है? मैं नहीं जानता। होगा, शायद यही प्रेम होगा। मैं कैसे कहूँ? मैं तो बस इतना जानता हूँ कि उषा से मिलकर मुझे अच्छा लगता है, बड़ा अच्छा, उससे अच्छा कुछ भी नहीं लगता। उषा की आँखें मुझे अच्छी लगती है, उषा का मुँह मुझे अच्छा लगता है, उषा की उँगलियाँ मुझे अच्छी लगती है, कितनी बार मेरा जी हुआ कि उन्हें चूम लूँ। उषा का भोलापन मुझे अच्छा लगता है, उषा का शरमाना मुझे अच्छा लगता है, यानी यह कि उषा जो कुछ है न, वह सब कुछ मुझे बड़ा अच्छा लगता है। क्या यही प्रेम है? होगा। नहीं-नहीं प्रेम भी कहीं इस तरह होता है? एक बार दो बार चार बार मिले और प्रेम हो गया-यह तो वही लव ऐट फर्स्ट साइट वाली बात हो गयी। उहुँक, वह चीज़ कभी मेरी समझ में न आयी।

२४ सितम्बर

पता नहीं किस गधे ने लिखा है-सारा प्रेम प्रथम दर्शन का प्रेम होता है।

२८ सितम्बर

हाइने की टुथएक इन माइ हार्ट (दाँत के दर्द जैसा मीठा-मीठा दर्द, सीने में) वाली बात बिलकुल ग़लत है, बिलकुल ग़लत!

१॰ अक्टूबर

मौसम कितना सुहाना हो गया है, कितना! कैसी प्यारी, गुलाबी सी सर्दी पढ़ने लगी है। बरसात का मुँह काला हुआ। पता नहीं कवियों ने बरसात की शान में इतने कसीदे कैसे रहे है, मुझे तो सख्त नफ़रत है बरसात से, हर चीज़ चिप-चिप करती रहती है, ज़मीन आसमान सब कुछ, आदमी का खुद अपना जिस्म भी। यह सही है कि पानी न बरसे तो कोई चीज़ पैदा ही न हो, सारी दुनिया एक रेगिस्तान हो जाये, लेकिन तब भी यह पानी का बरसना है तो बड़ी साँसत की चीज़, इसमें कोई शक नहीं। अगर ऐसा हो सके कि पानी बरसा न करे और यों ही हो जाया करे तो बड़ा अच्छा हो…नहीं तो बस कीचड़, जहाँ तक नज़र जाती है कीचड़ ही कीचड़, आसमान से भी कीचड़ टपक रहा है (तीन-चार दिन की झड़ी के बाद वह भी कीड़ ही हो जाता है) और ज़मीन तो जैसे कीचड़ है ही। कीचड़, और दस करोड़ मक्खियाँ और ऊब-बाप रे बाप, मक्खियाँ भी कितनी हो जाती है, जजमान के घर हलुआ-पूड़ी जीमनेवाले बाँभनों के ग़ोल के ग़ोल की तरह मक्खियाँ, खाने पर मक्खियाँ, पानी पर मक्खियाँ, और तो और खुद आदमी के मुँह पर मक्खियाँ…

बरसात का अगर कोई मज़ा होगा तो खूब पैसे वालों के लिए जिन्हें कभी बरसते पानी में निकलने की ज़रूरत नहीं पड़ती, जिनके पैर कभी कीचड़ में नहीं सनते, क्योंकि मन की मौज़ आने पर वह बाहर कहीं निकलते भी है अपनी चमचमाती हुई मोटर पर सवार होकर; जिसके लिए पानी का बरसना पकौड़ी और चाय का कवाब और व्हिस्की का सिगनल है; जिनके पास इतनी फुरसत है कि पानी बरसते समय वह घर में बैठकर चार दोस्त चाय के दौर के संग ब्रिज या रमी या शतरंज खेल सकते है। ऐसों ही के लिए बारात का कुछ मज़ा हो सकता है, क्योंकि वह बरसात की बेहूदगियों को गरदनिया देकर बाहर निकाल सकते है।

उँह, पानी बरसता है बरसे, हमारे ठेंगे से! मगर हमाँ-शुमाँ के लिए तो बरसात मौत है। घर चू रहा है इसलिए रात भर यहाँ-वहाँ इस-उस कमरे में तसला लगाते घूम रहे है। और दिन भर रात की रोटी का बन्दोबस्त कर रहे है। कीचड़ हो, काँदो हो, आँधी हो, तूफान हो, कुछ हो, सबेरा होने के साथ सारे धन्धे शुरू हो जाते है, राशन की खिटखिट है या दफ़्तर है या छोटी-मोटी दूकान-दौरी है, बहरहाल कुछ-न-कुछ है जो दिन निकल आने के बाद फिर आपको एक मिनट चैन से नहीं बैठने दे सकता। बड़ा जालिम मालिक है वह, नाँध ही दोता है आदमी को कोल्हू के बैल की तरह। बस घूसो अपने कोल्हू के इर्द-गिर्द अपने उसी छोटे से चक्कर में, आँख पर पट्टी बँधी हुई। आज घूमो और कल घूमो और परसों घूमो और उसके भी एक रोज़बाद और उसके भी एक रोज़बाद और उसके भी एक रोज़ बाद…और इसी तरह कोल्हू में जुते-जुते एक रोज़ वहीं ढेर हो जाओ क्योंकि तुमसे अब बचा ही क्या, तुम्हारा तेल तो सारा निकल गया!…अरे तुम्हें-पता नहीं चला, अपना ही तेल तो तुम निकाल रहे थे घूम-घूम कर!

…हम ऐसों के लिए बरसात नहीं। किसान की बात अलग है। उसके पैर साफ़ मिट्टी में सनते है, शहर की लीद के कीचड़ में नहीं। धोती ऊपर चढ़ाकर वह उसी मिट्टी और पानी के घोल में फावड़ा और कुदाल लेकर हल जाता है और फिर उसके संग कुश्ती करता है। उसे कुर्ते के दामन को भीगी हुई चप्पल के छीटों से बचाना नहीं पड़ता और न उसके कपड़े भीगते है, क्योंकि उसके तन पर कपड़ा होता ही नहीं। पानी की बूँदे सीधे उसके शरीर पर पड़ती है। वह तो मेरी समझ में नहाने जैसी बात हो जाती है। वह चीज़ समझ में आती है। किसान के लिए पानी का मतलब है फ़सल, जो उसकी भले न सही, भले उस पर ज़मीदार और महाजन और पटवारी के दाँत हों लेकिन तब भी वही उसकी जौ की रोटी और बथुआ के साग का सहारा है। किसान के लिए बरसात का मतलब है हरियाली, चारों तरफ़ हरियाली, चारों तरफ़ हरियाली, हरी घास और हरी पत्तियाँ, नहायी हुई और चमकती हुई। हमारे लिए बरसात का मतलब है चिपचिप सड़कें और नहूसत की अफी़म पिये ऊँघते हुए से, कठघरे जैसे मकान-और मक्खियाँ, अनगिनत। किसान के घर में भी मक्खियाँ होती है मगर इतनी नहीं।

Oh hell!

Not for us

Not for us the oozing sky

The accursed leathery drip-drop sky

For us

The sun

The good round sun

Like a warm brown baked

Indian bread fresh from the oven

The life-giving the everlasting sun

The indestructible.

Like hope indestructible.

Like the proud destiny of man

...........
...........

  • मुख्य पृष्ठ : अमृत राय हिन्दी कहानियाँ, उपन्यास और गद्य रचनाएँ
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां