Bauddh Dharma Ki Vishwa-Vyapakta (Hindi Nibandh) : Ramdhari Singh Dinkar
बौद्ध धर्म की विश्व-व्यापकता : रामधारी सिंह 'दिनकर'
केवल बौद्ध धर्म ही क्यों , संसार में जितने भी धर्म हैं , विश्व - व्यापकता का गुण थोड़ा - बहुत सबमें है । बिलगाव को लें तो बौद्ध मत ईसाइयत और इस्लाम से अलग मत है क्योंकि बौद्ध लोग पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं , लेकिन ईसाई और मुसलमान पुनर्जन्म को नहीं मानते । फिर यह भी है कि बौद्ध मत में ईश्वर का नाम नहीं लिया गया है । किन्तु , हिन्दू - धर्म , इस्लाम और ईसाई मत तथा यहूदी मत , ये सब ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करते हैं । फिर भी , यह नहीं कहा जा सकता कि बौद्ध धर्म धर्म न होकर केवल आचार है । प्रत्येक धर्म के दो पक्ष होते हैं । एक का सम्बन्ध उस धर्म के माननेवालों के आचरण से होता है और दूसरे का सम्बन्ध उनके दार्शनिक विश्वास से । बौद्ध मत निरीश्वरवादी होता हुआ भी अदृश्य वास्तविकता में विश्वास करता है यानी यह मानता है कि जिन्दगी वहीं तक खत्म नहीं हो जाती जहाँ तक हमारी स्थूल आँखें उसे देख सकती हैं । दृश्य के परे एक और वास्तविकता है जो अदृश्य है , नियमों के परे एक और नियम है जो दिखाई नहीं देता , लेकिन जिस नियम के अनुसार हमारे इस जन्म का कर्मफल हमें उस जन्म में भोगना पड़ता है । हाँ , है बुद्ध का यह उपदेश जरूर है कि तुम्हारे बस में तुम्हारे कर्म हैं , और उन्हें ही तुम सुधार सकते हो । जो बातें मानी नहीं जा सकतीं , उनके पीछे मत पड़ो । अनुष्ठान की विधियाँ तथा धार्मिक रीति - रिवाज धर्म के बाहरी अंग हैं और वास्तविक धर्म की दृष्टि से इनका कोई खास महत्त्व नहीं है । हिन्दू - धर्म के रहस्यवादी साधु और इस्लाम तथा ईसाइयत के सूफी सन्त धर्म के बाहरी आचारों में विश्वास नहीं करते । उनकी दृष्टि तो उस मूल उत्स पर रहती है जहाँ से सभी धर्मों का जन्म होता है । सभी धर्मों का मूल उत्स यानी पैदा होने की जगह एक है । धर्म की उत्पत्ति तब होती है जब मनुष्य यह सोचने लगता है कि मैं कौन हूँ , कहाँ से आया हूँ और कहाँ मुझे जाना होगा । यह संसार क्या है ? इसका कोई कर्ता है अथवा यह यों ही उछलकर हमारे सामने आ गया है ? जाहिर है कि ये प्रश्न सभी धर्मों के मूल में काम करते हैं । जहाँ इन प्रश्नों पर विचार नहीं किया जाता ; वहाँ दर्शन भले ही तैयार हो जाए , उदय नहीं होता है ।
रवीन्द्रनाथ ने कहा था , धर्म को गहे रहो , धर्मों को छोड़ दो । यह बात बिलकुल सच है । धर्म वह है जो हमें यह शिक्षा देता है कि हम अपनी आत्मा के साथ क्या सलूक करें। जहाँ तक आत्मा-परमात्मा के सम्बन्ध का प्रश्न है, जहाँ तक यह जानने का सवाल है कि जिन्दगी इसी दुनिया में खत्म हो जाती है या वह इसके बाद भी है , वहाँ तक संसार के सभी धर्म एक हैं । धर्म के इसी रूप को डॉ . राधाकृष्णन ने ने ' आत्मा का धर्म ' कहा है और आत्मा के धर्म के रूप में हिन्दुत्व , बौद्ध मत , ईसाइयत और इस्लाम में कोई भेद नहीं है । एक ही तत्त्व है जो सबमें व्याप्त है । एक ही दिशा है जिसकी ओर सभी धर्म इशारा करते हैं । अतएव यह प्रश्न नहीं उठता कि बौद्ध मत के सिद्धान्त अन्य धर्मों में गए हैं या नहीं । आने - जाने की कोई बात नहीं है । सभी धर्मों का मूल उत्स एक है जिसे हम यह जानने की इच्छा कह सकते हैं कि हमारे जन्म और मरण के पीछे क्या रहस्य है ।
हाँ , इससे नीचे के धरातल पर हम यह जानने की कोशिश कर सकते हैं कि बौद्ध मत ने संसार को क्या दिया , और किस रूप में वह विश्वव्यापक धर्म है । जहाँ तक हिन्दुत्व का सवाल है , बौद्ध मत उसके भीतर से उत्पन्न हुआ और अपनी जन्मभूमि में अपना मिशन पूरा करके वह फिर से हिन्दुत्व के ही भीतर समाविष्ट होकर विद्यमान है । बुद्ध भारत के लिए अजनबी या अपरिचित धर्माचार्य नहीं थे । वे अपने समय के सर्वश्रेष्ठ हिन्दू थे और इस हैसियत से उपनिषदों का मन्थन करके उन्होंने जन - कल्याण के लिए एक नई राह निकाली । हिन्दू उन्हें विष्णु के दस अवतारों में से नवाँ अवतार मानते हैं । दशावतार - वन्दना में जयदेव ने बुद्ध - अवतार की वन्दना भी उसी श्रद्धा से की है जिस श्रद्धा से उन्होंने राम और कृष्ण की स्तुति की है :
निन्दसि वेदविघेरहह श्रुतिजातम्
सदयहृदयदर्शित पशुघातम्
केशव धृतबुद्धशरीर जय जगदीश हरे ।
वास्तव में , जो सम्बन्ध यहूदी धर्म और ईसाइयत में है , जो सम्बन्ध पुराने टेस्टामेंट और नए टेस्टामेंट में है , वही सम्बन्ध वैदिक हिन्दुत्व और बौद्ध मत में भी माना जाना चाहिए । बल्कि सर हरिसिंह गौड़ ने तो गांधीजी को स्पष्ट सुझाव दिया था कि हिन्दुत्व के उसी रूप का प्रचार किया जाना चाहिए जिसका आख्यान बुद्धदेव ने किया है । और ईसाइयत एवं बौद्ध मत के बीच तो इतनी समता है कि देखकर आश्चर्य होता है । यह समता आप - से - आप नहीं आई होगी । उम्र में बौद्ध मत ईसाइयत से , और नहीं तो , पाँच सौ वर्ष बड़ा है । ईसामसीह ने जिस भूभाग में अपना धर्मोपदेश दिया , वहाँ ईसा से सैकड़ों वर्ष पूर्व बौद्ध धर्म का अमृत बरस चुका था । जब ईसामसीह ने अपना सम्प्रदाय खड़ा किया , उन्होंने बहुत - सी बातें बौद्ध सम्प्रदाय से ले लीं । ईसाई धर्म बौद्ध धर्म के समान है । ईसाई पादरियों की पोशाक बौद्ध भिक्षुओं की पोशाकों का विकसित रूप है तथा ईसाइयत के भीतर अहिंसा , विनय एवं करुणा का जो प्राचुर्य है वह बौद्ध मत की देन मानी जाती है । बौद्ध मत के प्रभावों के कारण ईसाइयत का उदय हुआ , इस बात को रोमन धर्म के अनुयायी भी मानते हैं। बल्कि सेंट बोसाफेत के नाम से वे बुद्ध को भी ईसाई सन्तों में ही गिन लेते हैं । ईसाइयत और बौद्ध मत के बीच इतनी समानता है कि जर्मन दार्शनिक नीत्से ने जब निवृत्ति - मार्गी धर्मों पर आक्रमण किया तब बौद्ध मत और ईसाइयत , दोनों को उसने एक ही लाठी से हाँक दिया ।
इस्लाम निवृत्तिमार्गी नहीं , प्रवृत्तिमार्गी धर्म है । अतएव मौलिक इस्लाम पर बौद्ध मत का प्रभाव पड़ा होगा , ऐसा नहीं कहा जा सकता । किन्तु जब इस्लाम के भीतर तसव्वुफ या रहस्यवाद की उत्पत्ति होने लगी तब उसके पीछे हिन्दू एवं बौद्ध प्रभाव अवश्य था , ऐसा विद्वानों का मत है । इसके सिवा , अभिनव अफलातूनी मत का जो प्रभाव इस्लाम पर यूनान होकर पड़ा , वह भी मूलतः हिन्दू और बौद्ध प्रभाव ही था , क्योंकि प्लाटिनस , जो इस बात का व्याख्याता हुआ है , वास्तव में बौद्ध और ब्राह्मण धर्म से प्रभावित था । यदि भौगोलिक विस्तार को देखें तो बौद्ध मत एक समय , प्रायः समस्त एशिया में फैला हुआ था , यहाँ तक कि मुसलमान होने के पूर्व हिमालय पार के तुर्क भी बौद्ध थे एवं चंगेज खाँ और हलाकू , ये दोनों आततायी वीर इस्लाम नहीं , बल्कि किसी किस्म के बिगड़े हुए बौद्ध मत के ही अनुयायी थे । लंका , बर्मा और श्याम में बौद्ध धर्म का हीनयान रूप प्रचलित हुआ तथा चीन , तिब्बत , मंगोलिया , कोरिया और जापान में उसका महायान रूप पहुँचा । इन देशों में आज भी बौद्धों की संख्या बहुत विशाल है ।
बौद्ध मत की एक विशेषता यह भी है कि जब से संसार में धर्म का अनादर होने लगा है तब से धर्म के आलोचक अन्य धर्मों को विषय में चाहे जो भी कहें , किन्तु बौद्ध मत के प्रति वे अपनी सहानुभूति ही दिखलाते हैं । बौद्ध मत से नास्तिकों की सहानुभूति का कारण यह है कि बुद्ध ने ईश्वर की आवश्यकता पर ध्यान नहीं दिया । बुद्धिवादी लोग बौद्ध मत का आदर इसलिए करते हैं कि बुद्ध ने बार - बार अपने शिष्यों से कहा था कि मेरी बातों में इसलिए विश्वास मत करो कि वे मेरी बातें हैं , बल्कि इसलिए कि वे तुम्हारी समझ में भी आती हैं । जब तक मेरी बातें तुम्हारी अपनी बुद्धि में न आएँ , उन्हें तुम्हें नहीं मानना चाहिए । और समाज - सुधारकों को बौद्ध मत इसलिए अच्छा लगता है कि यह मत जातिप्रथा को नहीं मानता एवं जन्मना सभी मनुष्यों को परस्पर समझता है । राजनीति वाले बौद्ध मत को प्रजातन्त्री व्यवस्था का आदि प्रवर्तक और समाजशास्त्र वाले उसे विशाल मानवता का पहला आन्दोलन मानते हैं । और इस पर भी यह सत्य है कि जो भी लोग इस गए - गुजरे जमाने में धर्म को फिर से जाग्रत करना चाहते हैं , बौद्ध मत के भीतर उन्हें भी सबसे बड़ी आशा दिखाई देती है क्योंकि यही वह धर्म है जिसमें ईश्वर के अस्तित्व को लेकर शास्त्रार्थ करने की जरूरत नहीं समझी जाती , जिसके अन्दर परलोक - सम्बन्धी प्रश्नों का पूछा जाना स्वयं शास्ता के द्वारा वर्जित है तथा जो केवल मनुष्य के आचरणों की शुद्धि करके उसे ऊपर उठाता है , जो पंचशील के पालन से मनुष्य के इहलौकिक जीवन को अधिक सुन्दर तथा सुरम्य बनाता है एवं ध्यान के द्वारा उसे आगामी जीवन के लिए तैयार करता है । लगभग बौद्ध धर्म के समान ही कोई धर्म विश्व का अगला धर्म होगा , जिसका लक्ष्य मनुष्य को करुणा , मैत्री और अहिंसा की शिक्षा देना होगा तथा जो जन - जन के बीच नैसर्गिक समता का प्रचार करेगा ।
( 1956 ई . )
('वेणुवन' पुस्तक से)