बसना कुशीनगर में (निबंध) : केदारनाथ सिंह

Basna Kushinagar Mein (Hindi Nibandh) : Kedarnath Singh

काफी पहले—शायद 1974-75 के आसपास मैंने कुशीनगर में जमीन का एक टुकड़ा देखा था। सोचा था, उसे खरीदकर वहाँ एक छोटा-सा घर बनाऊँगा। यह सम्भव न हो सका, क्योंकि बीच में दिल्ली आ गई। दिल्ली और कुशीनगर, ये हमारे जीवन की वास्तविकता के दो छोर हैं, जिन्हें जोड़ने वाला पुल कभी बना ही नहीं। एक बार जब दिल्ली आ गया तो फिर न चाहते हुए भी दिल्ली का ही हो रहा। कुशीनगर को तो नहीं भूला, पर वह जमीन का टुकड़ा, जहाँ रिटायर होकर बसना चाहता था, धीरे-धीरे स्मृति से ओझल हो गया। पिछले दिनों उधर जाना हुआ था और जब कुशी नगर से गुजर रहा था तो देखा, वह जमीन का टुकड़ा अब भी उसी तरह खाली है। पर वहाँ बसने की इच्छा कब की मर चुकी थी। ‘मर चुकी थी’—शायद यह मैंने गलत कहा। सिर्फ दिल्ली की धूल की अनगिनत परतों के नीचे कहीं दब गई थी। उस दिन उस जमीन के खाली टुकड़े को देखा तो दबी हुई इच्छा जैसे फिर से जाग पड़ी। पर तब और अब के बीच लम्बा फासला है। दिल्ली में बिना जमीन का एक घर ले लिया है—लगभग हवा में टंगा हुआ। यहाँ ज्यादातर लोग हवा में टंगे हुए रहते हैं—शायद यह कास्मोपालिटन संस्कृति का खास चरित्र-लक्षण है।

पहली बार जब कुशीनगर गया था तो वह खासा उजाड़ था। बुद्ध की उस निर्वाण-स्थली को देखने जाने वालों की संख्या बहुत कम थी। विदेशी पर्यटक तो बहुत कम दिखाई पड़ते थे। शायद आवागन की सुविधा का अभाव इसका एक कारण रहा होगा। अब जापान सरकार की मदद से सड़क बेहतर हो गई है। बगल में ही एक हवाई अड्डे का निर्माण चल रहा है—जिस पर कहते हैं, बड़े हवाई जहाज भी उतर सकेंगे। एक सरकारी गेस्ट हाउस के अलावा अनेक नए विदेशी होटल बन चुके हैं—बेहद महँगे और आधुनिक सुविधाओं से संयुक्त। आधुनिकता इतनी महँगी क्यों होती है ? क्या इसीलिए वह भारतीय जीवन की जो सामान्य धारा है, उसका हिस्सा आज तक नहीं बन पाई है ? ऐसे में उत्तरआधुनिकता की चर्चा विडम्बनापूर्ण लगती है—मानो एक पूरा समाज छलाँग मारकर किसी नए दौर में पहुँच गया हो।

पर जिस कुशीनगर में मैं बसना चाहता था, वह एक और कुशीनगर था। उसका स्थापत्य कुछ ऐसा था, जैसे वह पूरा परिवेश खुदाई के बाद बाहर निकाला गया हो। शाल वन तो कब का खत्म हो चुका था। पर जो वृक्ष और वनस्पतियाँ बची थीं, उनमें थोड़ा-सा ‘बनैलापन’ कहीं अब भी दिखाई पड़ता था। इसी परिवेश के एक अविच्छिन्न हिस्सा थे—चीना बाबा। हाँ, इसी नाम से उस क्षेत्र की जनता उन्हें जानती थी। उनके बारे में असंख्य कहानियाँ प्रचलित हैं। पर वे उस अर्थ से बाबा नहीं थे, जिस अर्थ में हम इस शब्द को जानते हैं। वे चीनी मूल के थे और पिछली शताब्दी के शुरू में कभी भटकते हुए कुशीनगर आ गए थे, लगभग किशोर वय में। वे पर्यटक की तरह नहीं आए, ऐसे आए थे जैसे किसी स्थान के आकर्षण से खिंचा हुआ कोई चला आता है। वे चुपचाप आए थे और एकदम चुपचाप उस स्थान के एक कोने में रहकर उन्होंने लगभग साठ बरस बिता दिए।

कोई घर नहीं था उनके पास—यहाँ तक कि एक झोंपड़ी भी नहीं। घर की जगह उन्होंने एक पेड़ को चुना था। मुझे कई बार लगता है कि पेड़ शायद आदमी का पहला घर है। इसीलिए जब उसे कहीं जगह नहीं मिलती, तो वह उसी घर में चला जाता है और यह कितना अद्भुत है कि उसका दरवाजा हमेशा खुला मिलता है। तो उस किशोर चीनी भिक्खू को भी (जिसे बाद में भारतीय मानस ने ‘चीन बाबा’ का नाम दे दिया) उसी वृक्ष-घर ने पहले शरण दी, एकदम निःशुल्क। वह वृक्ष भी कोई सामान्य पेड़ नहीं था—एक विशाल बरगद। बरगद की हजार खूबियाँ होती हैं—पर एक बहुत बड़ी खूबी यह होती है कि वह पक्षियों के लिए एक उन्मुक्त सदावर्त की तरह होता है—एकदम निर्बाध और चौबीसों घंटे खुला। वह किशोर चीनी भिक्खू भी एक पक्षी की तरह उड़कर उस बरगद के पास आ गया था और बरगद ने सिर्फ उसे रहने की जगह ही नहीं दी, खाने-पीने का भी बन्दोबस्त कर दिया। खाने के लिए ऊपर ‘पकुहे’ (बरगद की छोटी-छोटी फलियाँ) थे और नीचे पुरातन नदी का पवित्र जल।

पर उस विशाल वट-वृक्ष की एक और खूबी थी। वह एक स्तूप के ऊपर खड़ा था और उसके दबाव से स्तूप एक ओर थोड़ा झुक गया था। बौद्ध इतिहास स्तूपों से भरा है। पर निर्वाण-स्थली के पास का वह स्तूप न सिर्फ सबसे छोटा है, बल्कि सबसे अनगढ़ भी। उसकी अनगढ़ता को वट-वृक्ष ने थोड़ा ढँक लिया था और वहाँ इस तरह खड़ा था, जैसे स्तूप के साथ ही उसकी रचना की गई हो। उसी वट-वृक्ष पर चीनी भिक्खू ने एक छोटी-सी मचान बना ली थी और अपने दीर्घ जीवन के पूरे साठ साल उसी पर बिताए थे। और बातें छोड़ भी दें तो यह अपने आप में एक रोमांचकारी घटना की तरह लगता है।

अगर मैं भूलता नहीं तो सन् 1960 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री पंडित जवाहरलाल नेहरू कुशीनगर आए थे—किसी कार्यक्रम के सिलसिले में। कहते हैं कि उस समय उन्हें वह स्तूप भी दिखाया गया था, जो असल में चीनी भिक्खू का ‘घर’ था। पं. नेहरू बौद्ध संस्कृति के प्रेमी थे। उन्हें स्तूप पर बरगद का होना अटपटा—बल्कि स्तूप के लिए क्षतिकारक भी लगा। सो, उन्होंने आदेश दिया कि बरगद को काट गिराया जाए। कहते हैं कि इसकी सूचना जब वृद्ध भिक्खू को दी गई तो उसने प्रतिरोध किया। पर आदेश ऐसा था कि उसे टाला नहीं जा सकता था। इसलिए एक सुबह मजदूर बुला लिए गए और बरगद को काट गिराने का निश्चय कर लिया गया। अब बरगद पर चीनी भिक्खू था और नीचे सरकारी अहलकार। भिक्खू का तर्क था कि यह मेरा घर है और इसे काटा नहीं जा सकता और जनता की प्रतिक्रिया यह थी कि भिक्खू के तर्क में दम है। पर वही हुआ जो होना था। भिक्खू को जैसे-तैसे नीचे उतरने के लिए राजी किया गया। उसे इस तर्क ने लाचार और निहत्था कर दिया कि यदि बरगद को नहीं काटा गया तो स्तूप टूटकर गिर जाएगा। बरगद को काट गिराया गया, पर जो टूटकर नीचे गिरा वह असल में वृद्ध चीनी भिक्खू था। वह मचान से उतरकर नीचे तो आ गया—पर इस तरह जैसे उनकी आँखों के आगे के पूरे साठ साल भहराकर गिर पड़े हों।

मैं इसी घटना-क्रम के बीच उस भिक्खू से मिला था—नहीं, उसे सिर्फ ‘देखा’ था। उसके लिए स्तूप के निकट ही एक छोटा-सा कमरा बनवा दिया गया था, जिसमें वह बंद था। उसने कई दिनों से खाना-पीना बन्द कर रखा था। आसपास के लोग खाना लेकर आते थे और खिड़की से आवाज देते थे—‘चीना बाबा, खाना खा लो।’ पर वह उस आवाज से जैसे हजारों मील दूर कहीं पड़ा था—मानो चीन देश की किसी छोटी-सी पुरानी कोठरी में। यह उसका निर्वाण था—लगभग उसी भूखंड पर जहाँ बुद्ध का निर्वाण हुआ था।

अब यह घटना एक किंवदन्ती बन चुकी है। पर जब भी उस प्रसंग को याद करता हूँ तो मेरा अपना कुशीनगर में बसने का विचार और वहाँ न बस पाने की कसक—दोनों ढोंग की तरह लगते हैं।

('कब्रिस्तान में पंचायत' में से)

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