बर्फानी तूफान में (पंजाबी कहानी) : मनमोहन बावा

Barfaani Toofan Mein (Punjabi Story) : Manmohan Bawa

सूरज छिपने की तैयारी में है। डूबते सूरज की रोशनी से पीर पंजाल की गगनचुंबी बर्फ की चोटियाँ सुनहरी हो चमकने लगीं। पर्वत के पैरों में बने एक गुफानुमा कमरे में कुछ मुसाफिर आकर बैठे। एक को छोड़कर बाकी सभी को अगले दिन इस पर्वत को पार कर दूसरी वादी में जाना है, जहाँ चंद्रभागा नदी बहती है। इसे पंजाब के मैदानों में चनाब कहा जाता है। कुछ मुसाफिर अभी आ रहे हैं। कुछ वर्ष पहले एक विशाल चट्टान की ओट में स्थानीय विभाग द्वारा यह कमरा बनाया गया था, इस प्रकार के पर्वत यात्रियों के ठहरने के लिए।

इन मुसाफिरों कई लोग शामिल हैं। नौजवान अमर ने अपने कंधे से कैमरा उतारकर दीवार में धँसी एक कील पर लटका दिया। दिगंबर नामक स्थानीय व्यक्ति के पिट्ठू के पास उसकी बंदूक रखी है, पुरानी सी। सुजाता और वेद प्रकाश दंपती हैं। सुक्खू अमर का पांडी है। सुजाता और वेद प्रकाश का पांडी उनका सामान कमरे में रखकर अगली सुबह आने को कहकर कहीं चला गया है। बस के ये सभी यात्री आखिरी पड़ाव तक, दो दिन के पैदल सफर के बाद यहाँ तक पहुँचते हुए कहीं न कहीं आपस में टकरा ही जाते हैं। अमर और दिगंबर के दरम्यान इस पर्वत को पार करने के अलावा भी एक संबंध है, आपसी समझ है। अमर की इच्छा है, सफेद बर्फानी चीते की तस्वीर खींचने की है और दिगंबर उसका शिकार करना चाहता है।

अमर के कहने पर एक ओर चूल्हा जलाकर सभी के लिए खिचड़ी बनाई गई। खाने के बाद सुक्खू ने बाहर जाकर प्लेटें साफ कीं। फिर अंदर आकर बोला, ‘‘मौसम खराब हो रहा है। आकाश में काले बादल हैं। भीतर बैठने से कुछ पता नहीं लगता। बाहर हवा बहुत तेज और ठंडी है।’’

‘‘यहाँ ऐसा ही होता है, सुबह तक ठीक हो जाएगा।’’ दिगंबर ने कहा।

चूल्हे की लकड़ियाँ जल गई थीं, अब केवल कोयले रह गए थे—लाल-लाल चमकते हुए। जैसे-जैसे कोयले बुझने लगे, कमरे में ठंड बढ़ने लगी। सभी अपने-अपने कंबलों और स्लीपिंग बैंग में घुस गए। लेकिन ठंड इतनी ज्यादा थी कि कंबल सूती खेस समान लग रहे थे। वेद प्रकाश बार-बार कह रहा था, ‘‘अरे सुक्खू, आग जला दे।’’ दिगंबर जानता था कि बाहर किसी कोने में कुछ सूखी लकडियाँ पड़ी होंगी। लेकिन वह चुप रहा, ‘‘कौन अपने कंबल से निकल कर बाहर जाए? लकड़ियाँ कौन लाए?’’

सारी रात बवंडर चलता रहा। कभी-कभी एकदम शांत दिगंबर और सुक्खु जानते थे कि बाहर बर्फ गिर रही होगी। कभी उनकी आँख लग जाती, कभी नींद खुल जाती। वेद प्रकाश सारी रात करवटें बदलता रहा। सुबह होने से कुछ देर पहले ही बहुत तेजी से बर्फ गिरने की आवाज़ सुनाई दी। ‘‘एवलांच ! बर्फानी तूफान !’’ दिगंबर घबराया सा बोला। ‘‘यहीं कहीं नजदीक ही।’’ अमर के मुँह से निकला।

सुबह हुई तो देखा कि रात को इतनी ज्यादा बर्फ गिरी कि गुफानुमा कमरे का मुँह लगभग ढँक गया था। केवल ऊपरी हिस्से से कुछ रोशनी अंदर आ रही थी।

अमर के कहने पर सुक्खू ने चूल्हे में कुछ और लकड़ियाँ डालकर उन्हें जला दिया। अमर और सुजाता ने सभी के लिए प्रेशर कुकर में खिचड़ी चढ़ा दी। खिचड़ी खाते हुए अमर और दिगंबर आपस में बतियाने लगे। बीच-बीच में सुजाता भी कोई बात जोड़ देती थी। सुजाता पहाड़ से पार की पांगी वादी के बारे में जानना चाहती थी, जहाँ वेद प्रकाश और सुजाता अगले कई महीने या साल बिताने वाले थे। दिगंबर ने चंद्रभागा वादी के बारे बताते हुए अमर को संबोधित करते हुए बोला, ‘‘आप पर्वतों की फोटोग्राफी करते हैं। पार वाली वादी की निकटवर्ती वादियाँ इतनी खूबसूरत हैं कि कश्मीर भी उनके सामने कुछ नहीं। मेरे कुछ दोस्त भी वहाँ रहते हैं। वैसे मैं भी वहाँ हूँगा। किसी से भी पूछ लीजिएगा, दिगंबर ‘नुक्कड़ नाटक’ वाला। हो सकता है कि बर्फ में रहने वाला चीता भी नज़र आ जाए।’’

‘‘रहने दो, गप्प...।’’ अमर ने कहा, ‘‘सारे हिमालय में मुश्किल से चौंसठ बर्फानी चीते बचे हैं। लेह-लद्दाख से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक।’’

‘‘कसम मुझे मुरकला देवी की। मैंने अपनी आँखों से देखा है। वह चीता मेरे कुत्ते को उठा ले गया था। यदि मेरे हाथ लग गया तो...।’’

‘‘यह चीता दिखाई दे न दे, हम तो होंगे ही।’’ सुजाता ने कहा। ‘‘किलाड़ में इनका आफिस है, आकर किसी से भी पूछ लेना।’’

‘‘हाँ, हाँ! जरूर आना।’’ वेद प्रकाश को लगा, उसे भी कुछ कहना चाहिए।

‘‘वैसे कल वापस जाएँगे या ऊपर की ओर?’’ सुजाता ने कहा।

‘‘इस पर्वत के ऊपर तक तुम्हारे साथ जाऊँगा। उसके बाद फिर नीचे।’’

सुजाता कुछ पूछने ही वाली थी कि बाहर से किसी की ऊँची आवाज सुनाई दी। सुक्खू ने उठकर बर्फ के दो गिठ रह गए छेद से बाहर की ओर देखा। बाहर बर्फ में १५-१६ वर्ष के एक लड़के को देखकर हैरानी से बोला, ‘‘अरे, तुम कहाँ से आ गए इतनी सुबह-सुबह?’’ सुक्खू की बात काटते हुए वह लड़का बोला, ‘‘मैं बहुत मुश्किल से यहाँ तक पहुँचा हूँ। कुछ दूरी पर तीन आदमी एक चट्टान की ओट में बैठे हैं।’’

‘‘सारी रात?’’

‘‘हाँ, सारी रात। मुझे नहीं मालूम, कौन जीवित है, कौन नहीं।’’ फिर उसने बताया, वह उनका नौकर है। मुंबई से आए हैं। इस गुफा के कमरे में रहने की बजाय उन्होंने दो दिन पहले अपने तंबू लगा लिए थे। उन तीनों में एक दंपती और बाईस वर्ष की उनकी बेटी थी। रात की बर्फबारी और तूफान के कारण उनके तंबू गिर गए। उन्होंने मुझे आपके पास सहायता के लिए भेजा है।’’ ऐसा सुनते ही अमर, दिगंबर और सुक्खू ने जूते पहने और कंबल उठाकर उसके साथ चल दिए।

चट्टान भले उस स्थान से पौन किलोमीटर ही दूर थी, परंतु वहाँ पहुँचने में उन्हें एक घंटा लग गया। रास्ते में बर्फ कई फुट ऊँची थी और पानी का एक नाला। नाले के ऊपर पंद्रह-बीस फुट चैड़ा बलियों पर स्लेट टिकाकर एक पुल बना हुआ था। नाले में बर्फ तैर रही थी और पुल के ऊपर दो-तीन गिठ बर्फ की तह थी। अपने हाथ में पकड़ी लाठियों के सहारे अमर, सुक्खू, दिगंबर और नौकर चंदू ने अत्यंत सावधानी से पुल को पार किया।

वहाँ जाकर देखा कि दो तंबू बर्फानी कब्र की तरह एक ओर पड़े थे। उनसे कुछ दूरी पर एक चट्टान की ओट में परिवार के सभी सदस्य अपने स्लीपिंग बैग में सिमटे बैठे थे। लड़की कुछ ठीक लग रही थी, परंतु उसके माँ-बाप की साँस धीमी चल रही थी।

‘‘ओह! परमात्मा का शुक्र है! आप लोग आ गए।’’ लड़की ने मुश्किल से कहा, ‘‘इस तंबू से निकलकर चट्टान की ओट में आने में माँ के पाँव में मोच आ गई। वरना हम खुद आपके पास आने की कोशिश करते।’’

उस लड़की का नाम रीटा था और माता-पिता का नाम उमाशंकर और सौदामिनी था। उन्होंने मिलकर सभी को स्लीपिंग बैग से निकाला। पैरों में जूते व जुराबें पहनाईं। कंबल लपेट उन्हें सहारा देकर खड़े करने की कोशिश की। सौदामनी खड़ी हो गई, परंतु मोच के कारण चल नहीं पा रही थी। अमर और रीटा सहारा देकर उसे चलाने की कोशिश कर रहे थे। अत्यधिक बर्फ होने के कारण चलना मुश्किल हो रहा था। घुटनों तक की बर्फ, ऊपर से ठंडी हवा के कारण उनके हाथ-पैर अकड़ रहे थे। चारों ओर धुधलापन था। नौ-दस बज जाने के बावजूद सूरज कहीं नजर नहीं आ रहा था।

रीटा ने देखा, पिता ने हाथ में पिट्ठू, बैग और कैमरा उठा रखा था, इसलिए उन्हें चलने में बहुत मुश्किल हो रही थी। ‘‘आपने यह सब क्यों उठा लिया ?’’ रीटा ने खीझकर कहा।

‘‘मेरा आईपैड और पैसे?’’

‘‘इसे यहीं फेंक दे।’’ अमर ने कहा, ‘‘आपको गुफा में छोड़कर मैं दुबारा आकर ले जाऊँगा। फिक्र न करें। इस समय यहाँ कोई व्यक्ति तो क्या, कोई जानवर भी नहीं आ सकता।’’

मन-ही-मन अमर ने सोचा, ‘हूँ, आ जाते हैं साले मुंबई से बर्फ देखने। हॉलीडे करने।’ जिस गुफा को वे पिछले दिनों दुत्कारकर निकल गए थे, आज महल प्रतीत हो रही थी। सौदामनी ‘हे राम, हे प्रभु’ धीमे-धीमे से बुदबुदा रही थी।

आधे घंटे के बाद वे सभी पुल के पास पहुँचे। सौदामिनी को थामकर बर्फ से ढँके और तंग पुल को पार करना संभव नहीं था। जरा सा फिसलने पर मौत यकीनी थी। सौदामिनी अर्ध-बेहोशी में चल रही थी।

अंत में सभी ने मिलकर एक तरकीब निकाली। अमर ने अपने ऊपर लिये कंबल में सौदामिनी को लपेटा, पुल से उठाकर ले जाते हुए उसे गिरने से बचाने के लिए अमर अपनी पगड़ी उतारने लगा तो सौदामनी ने उसे इशारे से मना किया और अपनी दुपट्टा उतारकर उसे थमा दिया। फिर कंबल का एक सिरा सुक्खू ने थामा, दूसरा दिगंबर ने। कंबल को घसीटते हुए उन्होंने पुल पार किया। उसके बाद उन्होंने सोचा, वे सौदामिनी को उसी प्रकार से खींचते हुए ले चलें।

कुछ देर बाद रुई के फाहों सी बर्फ गिरने लगी। गुफानुमा कमरा दिखाई देने लगा, परंतु धुंध काफी थी। घुटनों तक बर्फ में वे धंसते जा रहे थे, अमर की पगड़ी और सभी की टोपियाँ बर्फ से ढँक गई थीं। गुफा के मुहाने सुजाता और वेद उनका बेसब्री से इंतजार कर रहे थे। वेद प्रकाश ने उमाशंकर को और सौदामिनी को सुजाता ने सँभाला। गुफा से जाने से पहले सुक्खू ने सुजाता को बाहर पड़ी लकड़ियों के बारे में बता दिया था। गुफा में आग जल रही थी, जिससे भीतर काफी गरमाहट थी, जानलेवा ठंड नहीं थी। चूल्हे पर पड़ी केतली में चाय तैयार थी। अमर ने सौदामिनी को कंबल पर लिटाकर, उसके ऊपर तीन कंबल और डाल दिए। दिगंबर ने रीटा से कहा, तुम अपनी मम्मी के साथ सटकर लेट जाओ, इससे उन्हें आराम मिलेगा। कोने में सिकुडे बैठे चंदू ने कंबल उतारकर सभी को चाय पीने को दी।

आधा दिन बीत गया। बर्फबारी अभी भी जारी थी। सुजाता और अमर ने मिलकर कुकर में दलिया बनाया और सभी को गरमागरम परोसने लगे। तभी रीटा जोर से चीख उठी, ‘भालू!’ अमर ने पलटकर देखा, काली चमड़ी वाला भालू अपने पंजों से बर्फ हटाकर गुफा में घुसने की कोशिश कर रहा था। शायद उसे इस आसरे के बारे में मालूम था। अमर उसे हटाने के लिए उसके मुँह पर डंडा मारने ही वाला था कि कुछ सोचते हुए उसका हाथ रुक गया। उसने सोचा, इस गुफा पर उसका भी हक है, शायद हम सबसे ज्यादा।

‘‘मारो, मारो इसे!’’ तीन कंबलों में दुबका उमाशंकर बोला। अमर ने हाथ के डंडे को पीछे छिपा लिया। दिगंबर समझ गया, अमर क्या सोच रहा है। उसने सभी को खामोश रहने और न हिलने का इशारा किया। सभी साँस रोककर भालू की ओर देखने लगे। भालू ने अपने अगले दो पैर गुफा में रखते हुए सभी की ओर देखा। शायद वह समझ गया, उसे कोई डंडा नहीं मारेगा। वह डरते-डरते अंदर घुस आया। उसने शरीर को हिलाकर अपने ऊपर की बर्फ को झाड़ा और एक कोने में दुबक गया।

सभी ने चैन की साँस ली, हालाँकि अभी संशय दूर नहीं हुआ था। दिगंबर, अमर और सुक्खू ने एक-दो बार जंगल में भालू देखा था, परंतु मुंबई वालों ने केवल ‘जू’ में ही इसे देखा था। दिगंबर ने कहा, दलिया खाकर सभी अपनी प्लेटें धीरे से नीचे रखें। अधिक हिलना-जुलना नहीं। यह भालू है, किसी पर भी हमला कर सकता है। दिगंबर ने एक प्लेट में दलिया डालकर धीरे से भालू के आगे रख दिया। भालू ने एक-दो बार नजरें घुमाकर इधर-उधर देखा, फिर दलिया चाटने लगा।

कुछ देर के बाद बर्फ गिरना बंद हो गया। भालू भी जैसे इस आदम भीड़ में नहीं रहना चाहता था। वह उठा, उसने सभी की ओर जैसे धन्यवाद की नजर से देखा और जैसे आया था, उसी प्रकार बाहर निकल गया।

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सभी सारा दिन गुफा के भीतर बैठे रहे या सोते रहे। कुछ देर के बाद बादल भी हट गए। आकाश साफ हो गया। धूप निकल आई। ठंड कम हो गई। सभी बाहर निकल कर धूप सेंकने लगे। जैसे जान में जान आ गई। पहले लोग सूरज की पूजा किया करते थे। सारे भारत में सूरज के मंदिर है। मालूम नहीं, परमात्मा है कि नहीं, वह दिखाई नहीं देता, परंतु सूरज तो दिखाई देता है।

बाहर आकर सभी इधर-उधर पत्थरों पर बैठ गए। परंतु सौदामिनी उठकर बाहर न आई। उसके पैर की मोच के बारे में याद आते ही दिगंबर ने कहा, मैं अभी ठीक कर देता हूँ। वह रीटा को लेकर अंदर गया। पहले उसका पैर पकड़कर खींचा, फिर एक हाथ और लात से और दूसरे पैर से पकड़कर दो-तीन बार झटके दिए। जोर से खींचा। एक बार सौदामिनी ने जोर से हाय कहा और दूसरे ही पल उसे लगा कि दर्द खत्म हो गया है। चेहरे पर मुसकान आ गई। रीटा उसे सहारा देकर बाहर धूप में ले आई।

उमाशंकर को अपने आईपैड की चिंता सता रही थी। उसने धीरे कहा, ‘‘मेरा आईपैड?’’ अमर जाने के लिए उठा। दिगंबर भी उसके साथ चल दिया।

‘‘नहीं, आप पहले भी गए थे, अब मैं जाती हूँ।’’ कहते हुए सुजाता उठी। उसने अपने सिर की ऊनी टोपी को सँवारा और एक लाठी लेकर अमर के साथ चल दी। पहले दिन सुजाता को अमर के साथ चलना अजीब सा लगा था, परंतु अब कल रात से एक ही गुफा में रहने के कारण, ये सभी मानसिक स्तर पर एक-दूसरे के निकट आ गए थे। वैसे भी यहाँ तक पहुँचने से पहले वे एक-दूसरे से टकराते रहे थे।

बर्फ अभी भी घुटनों तक थी। कई बार पाँव धँस जाने पर उन्हें एक-दूसरे की सहायता करनी पड़ी। उन्होंने उमाशंकर का आईपैड उसके सामने लाकर रख दिया। कुछ देर बाद उनके पांडी आ पहुँचे और पैर पकड़कर माफी माँगने लगे। अब तक राशन भी काफी कम हो चुका था। उमाशंकर के परिवार को नीचे की ओर जाना था और अन्य मुसाफिरों को ऊपर की ओर। ऊपर जाने के लिए अमर, दिगंबर और वेद प्रकाश को बर्फ के टिकने तक अभी यहीं रुकना था। अमर ने उन दोनों पांडियों और सुक्खू से कहा कि वे नीचे जाकर गाँव से खाने-पीने का कुछ सामान ले आएँ।

दो दिन बाद जब यह गुजराती परिवार नीचे की ओर जाने लगा तो उन्होंने अमर और दिगंबर का धन्यवाद करते हुए अपना विजटिंग कार्ड देते हुए कहा, ‘‘आप लोग मुंबई अवश्य आएँ। मैं आपको हवाई जहाज की टिकट भेज दूँगा।

‘‘हाँ, हाँ, अवश्य आएँगे, भाईसाहब! आपको मेरी कसम! पंजाबी में बड़े भाई को क्या कहते हैं?’’

‘‘भा जी या वीरजी।’’ अमर ने कहा।

‘‘आपने अपनी जान की परवाह न करते हुए जो हमारे लिए किया, उसका धन्यवाद करने के लिए हमारे पास शब्द नहीं हैं।’’ सौदामिनी ने कहा।

‘‘यह तो हमारा फर्ज था। अगर आप हमारे स्थान पर होते तो आप भी यही करते।’’ अमर ने कहा।

‘‘नहीं अमर जी। बड़े शहरों में रहने वाले हम बहुत स्वार्थी होते हैं। मुझे खुशी है कि सुजाता और मेरी बेटी रीटा ने मुझे सच्चाई का, अपने आप का सामना करना सिखा दिया।’’

मौत समान खतरों और मुश्किल भरे दिन-रात से निकल आने के बाद सभी सुकून महसूस कर रहे थे। सुख और संतृष्टि का अजीब एहसास हो रहा था, जो अनेक बार बहुत कुछ हासिल कर लेने या सुखों की प्राप्ति के बाद भी संभव नहीं होता, जितना किसी विशेष परिस्थितियों या समय के साथ उसका संबंध होता है। परंतु पिछले कुछ अनुभवों के कारण सभी एक-दूसरे के निकट आ गए थे।

सुजाता, खासकर रीटा ने ‘हीरो’ को फिल्मों में देखा था या उपन्यासों या कहानियों में उनके बारे में पढ़ा था। अब उन्हें अमर और दिगंबर जैसे जीवित और असली हीरो देखने का अनुभव हुआ था। वे दोनों आपस में सिर जोड़कर बातें करतीं। जान गई थीं, यह दुनिया दो दिनों का मेला है। जीवन में ऐसा साथ और अवसर कभी-कभी और किसी को ही प्राप्त होते हैं। परंतु इस प्रकार के संयोग वर्षों तक स्मृति शेष में अपना स्थान बना लेते हैं। दूसरे दिन उमाशंकर के परिवार के चले जाने के बाद दिगंबर अपनी बंदूक उठाकर जाने लगा तो अमर ने कहा, ‘‘क्यों, बर्फानी चीते का शिकार करने जा रहे हो?’’

उत्तर में दिगंबर मुसकरा दिया। अमर ने फिर कहा, ‘‘सोच लो! दो दिन पहले मैंने बर्फानी चीते को देखा था, लेकिन कैमरा निकालने से पहले ही वह कहीं गायब हो गया।’’

‘‘अब नहीं! तुमने और गुफा में आए भालू ने कुछ पलों ने मुझे वह सिखा दिया, जो मैं सारी उम्र सीख नहीं पाया था।’’

धीरे-धीरे सूरज छिपने लगा। डूबते सूरज की लाली से यों महसूस होने लगा, मानो आकाश में सोने की परत चढ़ गई हो। इसके साथ ही पीर पंजाल की बर्फानी चोटियाँ सुनहरी होकर चमकने लगीं। सुजाता कुछ सोचते हुए उठी और उसने दिगंबर को अपने पास आने का इशारा किया, जैसे वह उसका कोई भाई या भतीजा हो। कुछ देर बाद दोनों सभी के लिए गरम चाय के प्याले ले उनके पास आ बैठे।

मालूम नहीं! ये सभी मुसाफिर फिर कभी आपस में मिले या नहीं। लेकिन एक-दूसरे को भुला पाए होंगे। आपका क्या विचार हैं?

(अनुवाद : जसविंदर कौर बिंद्रा)

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