बँटवारा (कहानी) : गुरुदत्त

Bantwara (Hindi Story) : Gurudutt

: 1 :
कर्मसिंह बहुत वृद्ध हो चुका था । उसकी आँखों की बरौनियाँ सफेद हो गई थीं । कमर टेढ़ी, गरदन झूलती हुई , टाँगें लड़खड़ाती हुई और दाँत न होने से बोलने में शब्द भी अस्पष्ट निकलते थे।

" बाबा, कितनी उमर होगी तुम्हारी ? " कर्मसिंह के पोते का लड़का खाट के पास बैठा पूछ रहा था । लड़का दस साल का था । उसका नाम था सोहन सिंह ।

" कौन पूछ रहा है ? " कर्मसिंह ने विचारों, जिनमें वह अब कभी - कभी मगन हो जाया करता था और अपनी वर्तमान अवस्था को भूल जाया करता था , से निकलते हुए पूछा ।

" सोहन हूँ बाबा, " कर्मसिंह के घर के सब प्राणी जानते थे कि उसकी आँखों की ज्योति समाप्त हो चुकी थी ।
सुनाई भी बहुत कम देने लगा था । इससे वह उसको अपना नाम और वह भी ऊँची आवाज में बताया करते थे। सोहन ने भी ऐसे ही कहा ।
" अच्छा, सोहन हो ? कहाँ गया है तुम्हारा बाप? "
" खेत पर गया है बाबा । "
" और तुम्हारी दादी तथा माँ ? "
" पड़ोसियों के घर गाने पर गई हैं । "
" वहाँ पर क्या है ? "
" नानक का विवाह है । "
" तो जाओ, उनको कहो, जल्दी घर में आ जाएँ । यहाँ भी आज गाना होनेवाला है । "
" गाना ! क्यों , क्या है यहाँ ? "
" आज मेरा भी विवाह होने वाला है "
"विवाह! " सोहन खिलखिलाकर हँस पड़ा, " बाबा! किससे विवाह कराओगे ? "
" तुम्हारी परदादी से । कभी देखा है उसको? "

सोहन को इन बेसिर - पैर की बातों से भय लग गया । उसकी परदादी की मृत्यु तो उसके बाप के पैदा होने से पहले ही हो चुकी थी । इससे वह भागा हुआ पड़ोसियों के घर माँ और दादी को बुलाने चला गया ।

कर्मसिंह की आयु पचानबे से ऊपर हो चुकी थी । उसके तीन लड़के और एक लड़की थी । लड़की सबसे छोटी थी और उसका विवाह अमृतसर में एक तहसीलदार के लड़के से हुआ था । कर्मसिंह के लड़कों में से सबसे छोटे लड़के मदनसिंह का देहांत हो गया था और दूसरे दो लड़के बाप से लड़कर पृथक् हो चुके थे। उन्होंने बूढ़े बाप में अपनी विधवा पतोहू और उसके एक लड़के बिहारी सिंह के प्रति अधिक स्नेह देख पृथक् हो जाना ही ठीक समझा था । लड़के के देहांत के समय कर्मसिंह की आयु साठ वर्ष की थी ।

जब दूसरे लड़के सुखन सिंह और मक्खन सिंह, जिनके घर भी लड़के - लड़कियाँ उत्पन्न हो चुके थे, पृथक् होने लगे तो, बाप से जायदाद में हिस्सा -पत्ती माँगने लगे । तब कर्मसिंह ने साफ कह दिया , " कुछ भी नहीं मिलेगा । अपना कमाओ और खाओ। " लड़के अपने पिता के स्वभाव और विचारों को जानते थे। इस कारण दोनों ने अपने पृथक् - पृथक् खेत ले लिये थे और बाप के इनकार करने पर बिना कुछ लिये ही अलग - अलग खेती - बाड़ी करने लगे और अपने पृथक् - पृथक् मकान बनाकर रहने लगे ।

सुखन सिंह और मक्खन सिंह की औरतें बँटवारे के लिए झगड़ा करने की राय देतीं , परंतु दोनों भाइयों ने वृद्ध बाप को तंग करने का विचार छोड़ अपनी पत्नियों को ही समझा दिया कि आखिर बूढ़ा मरेगा । जमीन छाती पर रखकर ले जा नहीं सकेगा । उनका विचार था कि अधिक - से- अधिक दस वर्ष तक और जिएगा ।

कर्मसिंह को कोई ऐब तो था नहीं । न तो वह शराब पीता था , न ही किसी अन्य प्रकार की फिजूलखर्ची। वह अक्ल का धनी और गाँठ का पक्का था । सौ एकड़ भूमि पर लाठी लिये घूमता था और तीन हजार मन गेहूँ तथा अन्य अनाज उत्पन्न कर लिया करता था । घर पर गाय - भैंस पलती थीं और घर के समीपवाले कुएँ के पास साग सब्जी पैदा होती थी । केवल कपड़ा और नमक -मिर्च बाजार से लेना पड़ता था ।

इस कारण धन एकत्र हो रहा था । परमात्मा ने सुखन सिंह और मक्खन सिंह का भाग्य भी उज्ज्वल कर दिया था । धीरे- धीरे वे दोनों भी अमीर हो रहे थे।

कर्मसिंह का अपने लड़कों से द्वेष नहीं था । वह उनकी सहायता के लिए भी सदैव तत्पर रहता था । केवल वह अपनी जायदाद को अपने जीवन - काल में बाँटना नहीं चाहता था । उसका यह विचार था कि जब तक वह भूमि और धन का मालिक है , तब तक पोते , पोतियाँ सब उसकी सेवा करेंगे, कहा मानेंगे और उसके मरने पर भी उसकी आत्मा के लिए प्रार्थना करेंगे । यदि उसने सबकुछ बाँट दिया, तो उसको पानी पिलानेवाला भी कोई नहीं रहेगा ।

यह बात बहुत सीमा तक ठीक थी । सायंकाल जब वह खेतों से लौटकर आता, तो उसके स्वर्गवासी पुत्र की बहू और लड़का तो उसकी सेवा करते ही थे। साथ ही अब उसके बड़े लड़कों की बहुएँ और पुत्र भी आते और उसके पाँव दबा जाते थे । कर्मसिंह भी ऋतु के अनुसार कभी पिन्नियाँ, कभी बूंदी के लड्डू , कभी पेड़े और कभी बरफी बनवा रखता था और जो उसके पास आता, उसको खाने के लिए देता था । कभी उसके पुत्र और पोते कहते भी ,

" बाबा, अपने जीते - जीते सब बाँट जाओ, नहीं तो पीछे झगड़ा होगा ? " " सुखन, " वह कह दिया करता, " अपनी भावज पर विश्वास रखो । वह देवी है । "

इस पर भी जब किसी पोते अथवा किसी पोती का विवाह होना होता, वह सब खर्चा अपने पास से करता था । इस प्रकार परिवार का कार्य चलता जाता था । मदन सिंह की मृत्यु के समय उसका लड़का बिहारी सिंह पाँच वर्ष का था और कर्मसिंह अपने लड़के की बहू के शोक को कम करने के लिए बिहारी सिंह से विशेष प्यार करता था । उसकी सब आवश्यकताओं को पूर्ण करता था । मदन सिंह की बहू भी कर्मसिंह की ऐसी सेवा करती थी, मानो उसकी लड़की ही हो ।

: 2 :
बिहारी सिंह जब बड़ा हुआ, तो उसका विवाह कर दिया गया । बहुत ही सुंदर और सुघड़ बहू घर में आई । वह जालंधर शहर के रहनेवाले एक दुकानदार की लड़की थी । नाम था जसवीर कौर । इससे पहले घर की सब बहुएँ गाँवों की अथवा किसानों की लड़कियाँ ही थीं । जसवीर कौर पहली बहू थी , जो नगर की रहनेवाली थी और साथ ही स्कूल की नौवीं श्रेणी तक पढ़ी भी थी ।

उसने आते ही अपने कपड़े, आभूषण और जिस पर भी उसका हाथ जाता , अपने अधिकार में करने आरंभ कर दिए । कर्मसिंह को उस पर संदेह हुआ, तो उसने अपने स्वर्गवासी लड़के की सुंदरी बहू को बुलाकर कहा, " बेटा सुंदरी, मेरी जेब में से रेजगारी गायब होने लगी है । कल मैं दस का नोट लेकर एक धोती का दाम देने के लिए गया था , उसमें से चौदह आने मेरी जेब में थे । आज एक पैसा भी नहीं । "

" भापा! मैंने नहीं लिये। "
" यह मैं जानता हूँ । तुमको इस घर में आए अट्ठाईस वर्ष हो चुके हैं । एक पैसे का हेर -फेर नहीं हुआ । अब यह नगर की छोकरी आई है । इससे सावधान रहना चाहिए । "

बात बिहारी सिंह के कान में पहुँची, तो वह अगले दिन भापा के पास चौदह आने लेकर आ गया । उसने बाबा के पाँव पकड़े और अपनी बहू के लिए क्षमा माँगी । उसने कहा , " बाबा, वह शहर की रहनेवाली देहातियों के चलन को नहीं जानती । मैंने उसको समझा दिया है और अब वह ऐसा नहीं करेगी । "

" देखो बिहारी , अगर फिर तुम्हारी बहू ने ऐसा किया तो तुमको भी तुम्हारी बीवी के साथ नगर भेज दूंगा । वहाँ पर जाकर कमाना और खाना । "

" बाबा ! वह कहती है कि आपके दोनों पुत्रों ने पृथक् - पृथक् होने से पहले ही अपने - अपने खेत खरीद लिये थे। वे कहाँ से लेकर खरीदे थे? वह भी अपने लिए पृथक् खेत खरीदने के लिए रुपया इकट्ठा करने लगी थी । "

" तो उसको कह दो कि वे दोनों अपने ससुराल से रुपया लाए थे। ससुराल का रुपया उन्होंने खेत खरीदने में लगा दिया था । उन खेतों पर वे मेहनत- मजदूरी करते थे और वहाँ की कमाई फिर खेतों पर ही लगाते जाते थे। चार पाँच सौ रुपए से आरंभ कर अब वे पचास - पचास एकड़ भूमि के मालिक हो गए हैं । जसवीर भी अपने आभूषण बेचकर भूमि खरीद सकती है । साथ ही तुम भूमि पर मेहनत कर धन पैदा कर सकते हो । "

" पर बाबा, तब बीस से तीस रुपए में एक बीघा भूमि मिल जाती थी , पर अब तो एक बीघा का मूल्य भी पाँच सौ रुपए से ऊपर हो गया है । "

" ठीक है । तब सोने का मूल्य बारह से पंद्रह रुपए तोला होता था, अब उसका मूल्य अस्सी रुपए तोला है । बिहारी, तुम्हारे ससुर ने जो दिया है, सब मुझको मालूम है और उसमें से सबकुछ तुम्हारी बहू ने संदूक में बंद कर रखा है । "

जसवीर कौर समझ गई कि बूढ़ा इस प्रकार से काबू में नहीं आएगा । उसने दूसरा ढंग रचा । उसने उस ताले की दोहरी चाबी बनवाई , जो उस कोठरी में लगा था , जिसमें पूर्ण घर की संपत्ति रखी जाती थी । ताली की मोम पर छाप लगा उसने अपने छोटे भाई के हाथ शहर भेज दी और वहाँ से चाबी बनकर आ गई ।

गरमी की ऋतु में जब घर के सभी प्राणी घर की छत पर सोते थे, एक रात जसवीर नीचे आई और ताला खोलकर तोशेखाने की तलाशी लेने लगी । एक लोहे का संदूक था । उसको भी एक ताला लगा था । उस ताले की भी नहीं देखी थी । उसे कर्मसिंह सदा अपनी कमर से बाँधकर सोता था । अत : सब परिश्रम व्यर्थ गया ।
इस पर भी जसवीर कौर ने अपने ससुर की पूर्ण चल - संपत्ति उड़ाने का विचार छोड़ा नहीं । वह उस चाबी पर अधिकार पाने का अवसर ढूँढ़ने लगी । वह अवसर तब मिला, जब जसवीर के एक लड़की और फिर एक लड़का भी होकर आठ वर्ष का हो गया था । तब तक कर्मसिंह की दृष्टि दुर्बल हो चुकी थी और हाथ -पाँव भी शिथिल पड़ने लगे थे । अब वह खाट के साथ लग गया था । केवल शौच आदि के लिए ही उठता - बैठता था ।

अभी भी पोते- परपोते आते थे और कर्मसिंह के पाँव दबा जाते थे । कोई आकर उसके कपड़े धो देता और कोई उसको नहला जाता, तो कोई खाना आदि खिला जाता था । इसी सेवा के लोभ में वह संपत्ति को बाँटता नहीं था ।

एक दिन अवसर मिला और चाबी जसवीर कौर के हाथ लग गई । बूढ़ा जब सोने के लिए बाहर गया , तो उसकी कमर से चाबी गिर पड़ी । उसे पता नहीं चल सका । जसवीर कौर ने चाबी उठा ली । किसी ने देखा भी नहीं । उसने कोठरी खोली और फिर संदूक भी खोल लिया । सोना, चाँदी, नोट देखे। तो जसवीर कौर कितनी ही देर तक मुग्ध हो देखती रह गई । फिर उसने अपनी चादर का आँचल बिछा दिया और जितना उसमें बाँध सकती थी , बाँधकर अपने कमरे में ले गई । तदुपरांत उसने संदूक और कोठरी को बंद कर संदूक की ताली वहीं भापा की खाट पर रख दी , जहाँ वह गिरी थी ।

चाबी रख वह अपने कमरे में चोरी का सामान संदूक में बंद कर रही थी कि बिहारी सिंह की नींद खुल गई और वह अपने कमरे में दीपक का प्रकाश देख , झाँककर सबकुछ समझ गया । उसके मन में आया कि बीवी को पकड़कर और धक्के देकर घर से निकाल दे, परंतु उसको अपने बच्चों की माँ पर दया आ गई । उसने कमरे के बाहर खड़े- खड़े ही योजना बना ली और लौट गया । मकान की छत पर उसके सोने के लिए जाने के आधा घंटा पश्चात् जसवीर कौर ऊपर आई ।

अगले दिन बिहारी सिंह ने, जब जसवीर कौर सो रही थी, उसके संदूक की , जिसमें सोना, चाँदी और नोट छिपाकर रखे थे, चाबी ली । उसने सब वस्तुएँ निकाल ली और लगभग उतने ही वजन के ईट के कंकड़ आदि संदूक में भर दिए ।

वह सब सामान बिहारी सिंह ने एक गठरी में बंद कर अपनी माँ के संदूक में रख दिया । माँ के संदूक को ताला नहीं लगता था । उसकी माँ को अपने चार कपड़ों को ताला लगाने की आवश्यकता भी अनुभव नहीं होती थी ।

अगले दिन जसवीर कौर का भाई आया, तो जसवीर कौर ने अपना संदूक उठवाकर जालंधर भेज दिया और कहला भेजा कि जब वह आएगी , तो स्वयं ही उसे खोलेगी । उसकी अनुपस्थिति में उस संदूक की रक्षा की जाए ।
जसवीर कौर के भाई ने संदूक के भारीपन का अनुभव कर पूछ लिया, " बहिन, क्या है इसमें ? "
" इसमें मेरे आभूषण हैं । ध्यान रखना । "

: 3 :
सुंदरी ने अपना संदूक खोला, तो उसमें आभूषण , सोना - चाँदी और नोटों के बंडल देख वह घबरा गई । उसने कभी इतना धन देखा नहीं था । वह कितनी ही देर तक तो उस सबको देख - देख समझने का यत्न करती रही कि वह सब कहाँ से आ गया । जब कुछ समझ नहीं सकी , तो अपने लड़के बिहारी सिंह की खेतों से लौटने की प्रतीक्षा करने लगी । जसवीर रोटी बना रही थी । सोहन और गुरनाम कौर रसोईघर में बैठे खाना खा रहे थे। बाहर कर्मसिंह से मिलने के लिए सुखन सिंह और उसकी पत्नी आई हुई थी । कुछ बच्चे भी अपने बाबा के पास बैठे उसकी बातें सुन रहे थे ।

सुंदरी ने बिहारी को, जब वह वापस घर आ गया, इशारे से भीतर बुलाकर अपने संदूक में रखी हुई वस्तुएँ दिखाई, तो बिहारी सिंह ने सब बात अपनी माँ को बता दी । उसने यह भी बताया, " माँ , सोहन की माँ ने किसी भाँति ताला खोला है और यह सब बाबा की कोठरी से निकाल लिया है । "
" तुम कैसे जानते हो यह ? " .

" जब से बाबा की नजर दुर्बल हुई है, मैं ही संदूक में रखता -निकालता हूँ । इन आभूषणों को मैं भली- भाँति पहचानता हूँ । यह सोने की डली मैं पिछले वर्ष गेहूँ बेचकर अमृतसर से लाया था । "
" तो इसका मैं क्या करूँ ? तुमने मेरे संदूक में क्यों रख दिया है यह सब? "

" माँ , मैं विचार कर रहा था कि जिस दिन बाबा कुछ भीतर रखने को अथवा भीतर से निकालने को चाबी देंगे , तब मैं यह सबकुछ चुपचाप भीतर रख दूंगा । मुझे जसवीर कौर से झगड़ा करना ठीक प्रतीत नहीं हुआ । वह मूर्ख है , परंतु मुझसे अधिक पढ़ी है । मैं जब उसको कुछ समझाने लगता हूँ , तो समझा नहीं पाता । "

" अच्छा, तो मैं इस ट्रंक को ताला लगा दूँ। मुझको भय है कि कहीं तुम्हारी बहू को संदेह हो गया , तो वह यहाँ से भी चुरा लेगी । "

" माँ , यदि ताला लगाया, तो वह संदेह करने लगेगी । मेरा विचार है कि तुम तनिक सतर्क रहना । बनिया सौ मन मकई के दाम देने के लिए आएगा, तब मैं बाबा से चाबी मागूंगा । उसी समय यह सब भी वहीं पर रख दूंगा । "

अवसर मिलते ही सारा सामान रख दिया गया । कर्मसिंह कुछ दिन से कह रहा था कि उसके पाँव ठंडे रहने लगे हैं । आज मध्याह्नोत्तर उसने एकाएक सोहन को कहा, "जाओ, माँ और दादी को बुला लाओ। सोहन भागा- भागा गया और माँ और दादी को बुला लाया । सुंदरी ने आते ही पूछा, " भापा , क्या बात है ? "

कर्मसिंह हँसा और बोला, " अपने ज्येष्ठों को बुलवा लो । बिहारी को भी बुला लो । मैं समझता हूँ कि चलने का समय आ गया है । "
" नहीं बाबा, " जसवीर ने कहा, " अभी तो वाहे गुरु की कृपा है । वैसे ही आपको कुछ भरम हो गया है । "
" नहीं , जसवीर, बैठ जाओ और जपजी साहब का पाठ करो । "

जसवीर कौर भीतर चली गई । हाथ-मुँह धो, चटाई ले आई और चटाई को बाबा की खाट के पास बिछा जपजी साहब की पुस्तक निकालकर पाठ करने लगी ।
" एक ओंकार । सत नाम । कर्ता पुरुष निभौं निर्वैर । अकालमूर्त अजनीसई भंग गुरुप्रसाद जप आदि सच जुगादि सच। "
जसवीर कौर पढ़ ही रही थी कि सोहन अपने बाबा के भाइयों और अपने पिता को बुला लाया ।

जब तक जसवीर कौर पढ़ती रही , सब चुपचाप बाबा की खाट के चारों ओर बैठे रहे । कर्मसिंह को उठाकर खाट पर बैठा दिया गया था । सुखन सिंह अपने पिता की पीठ के पीछे बैठ उसको आश्रय देकर बैठा था । कर्मसिंह शांत भाव से सुन रहा था । जसवीर कौर आगे पढ़ रही थी

" जत पाहारा धीरज सुनिआर ।
अहरणि मत वेद हथियार ॥
भउ खला अगान तपताउ ।
भांडा भाउ अमृत तित ढाल ॥
घडिए सबद सच टकसाल ।
जिन कउ नदर कर्म तिन कार ।
नानक नदर नदर निहाल ॥ "

अब सब वाहे गुरु , वाहे गुरु कहने लगे । इस समय कर्मसिंह ने कुछ कहा । जब उसके होंठ फड़के , तो सब चुप हो गए । सुखन सिंह, जो उसके पीछे उसको ढासना देकर बैठा था , कान के समीप मुख कर बोला, " भापा! " कर्मसिंह ने कहा, " सुखन! "

" हाँ , भापा । "
" मक्खन को बुलाओ। "
" यह बैठा है ! "
"बिहारी! "
" बैठा हूँ भापा! "
" सुनो, मेरी जेब से चाबी निकाल लो । देखो, धर्म पर अड़े रहना । "
एक क्षण तक चुप रहने के बाद कर्मसिंह ने कहा , " जसवीर कौर ! "
" हाँ , बाबा। "
" इस समय सबकुछ यहाँ ही रह गया है । सुन रही हो । "
" हाँ , बाबा । "
" दया, धर्म, दान और क्षमा ही साथ जा रहे हैं । समझी हो ? "
" हाँ , बाबा । " उसके मुख का रंग पीला पड़ रहा था ।

कर्मसिंह ने कहा, " देखो, लड़ना नहीं । वाहे गुरु तुम सबको बुद्धि दे। " इसके साथ ही कर्मसिंह की गरदन लुढ़क गई ।

: 4 :
सुखन ने बाबा की जेब से चाबी ले सुंदरी को दे दी । वह नहीं चाहता था कि बँटवारे से पहले चाबी उसके पास रहे ।

बाबा की अरथी बड़ी धूमधाम से उठी, बाजे बजे, अरथी पर झंडियाँ और गोले लगाए गए । फूल - मखाने और छुआरे निछावर किए गए । आगे - आगे कीर्तन -मंडली थी । पीछे-पीछे औरतें शबद गा रही थीं । सारा गाँव बूढ़े की अरथी के साथ था । गाँव के सिखों के अतिरिक्त हिंदू भी रहते थे । अरथी श्मशान के बाहर पहुँची तो हिंदू ने कह दिया, “ बोलोई राम! " अन्य लोग इस पर बोल उठे, “ राम भज राम! " एक सिख ने कह दिया , " शोर न मचाओ। कीर्तन सुनो ! "

संस्कार हुआ । कड़ाह - प्रसाद बाँटा गाया । सबने खाया और सतश्री अकाल के अभिवादन के पश्चात् सब घर लौटे । घर पर ग्रंथ साहब का पाठ रखाया गया और तेरहवें दिन पाठ का भोग पड़ा । उस दिन भोज हुआ । सारे परिवार और गाँव के सब लोगों को भोज खिलाया गया ।

उस दिन सायंकाल परिवार के सब लोग घर में एकत्रित हुए । कर्मसिंह की लड़की कुलवंती अपने घरवाले सरदार समुंदर सिंह और अपने लड़के , उसकी बहू और पोतों के साथ आई थी ।

सुखन सिंह सबसे बड़ा था । उसने सबके सामने अपनी छोटी भाभी को संबोधित कर पूछा, " भाभी, हम सब अपनी जायदाद में हिस्सा लेने आए हैं । क्या है भापा के पास । " " भैया, " सुंदरी ने कहा , " मैं सौगंधपूर्वक कहती हूँ कि मैंने आज तक नहीं देखा कि उनके पास क्या है और कितना है । हाँ , बिहारी जरूर उसमें रखने और निकालने जाता है । भापा की चाबी आपने मुझको दी थी । वह यह है । अब आप ही देख लो । "
" क्यों बिहारी, क्या है और कहाँ है ? "
" तायाजी, सबकुछ ठीक है । आप सबकुछ पहले विचार कर लें कि किस-किस को क्या - क्या और कितना कितना लेना है । "

" हाँ , बिहारी ठीक कहता है । कुछ तो है ही । भूमि भी है । किस प्रकार बँटवारा होगा, यह लिख- पढ़ लो । तब जो कुछ नकद निकले और जो कुछ भूमि का दाम लगे , सब जमा कर लो, फिर लिखे के अनुसार सबको मिल जाए । "
इस पर हिस्सेदारों के नाम लिखे जाने लगे । समुंदर सिंह ने पूर्ण जायदाद के चार हिस्से करने चाहे ।
" चौथा किसका ? " मक्खन सिंह ने पूछ लिया ।
" तुम्हारी बहिन का । "

सब चुप रहे । कुलवंती ने जब से उसका विवाह हुआ था , एक दिन भी अपना मुख गाँव में आकर नहीं दिखाया था । सोहन ने शांति को भंग करते हुए कह दिया , " बाबा, मैं बताऊँ ? "
" क्या बताओगे ? "

" घर के बच्चे- बूढ़े, मर्द- औरतें सब मिलाकर हम सब पैंतीस बंदेहैं । जो कुछ नकद हो उसके पैंतीस हिस्से कर दिए जाएँ । "

" ओ सोहनू, यह धर्म- शास्त्र तुझको किसने सिखाया है? " सरदार समुंदर सिंह का विचार था कि जसवीर कौर ने ही उसको सिखाया होगा, इससे उसने पूछ लिया ।

सोहन सिंह ने कह दिया , " एक दिन बाबा मुझको यह सब बता रहे थे। वह सबकी गिनती करके बोले कि हम सब पैंतीस बंदे हैं । सबको बराबर - बराबर मिलना चाहिए । सबने ही उनकी बराबर सेवा की है । नकदी सब उनकी कमाई है । वह सबमें बाँट दी जाए । भूमि उनके पिताजी की है, इसके तीन हिस्से किए जाएँ । "

इस बात को सुना तो सबने कह दिया , " बाबा की इच्छा पूर्ण की जाए । " इस प्रकार सबसे कम भाग मिलनेवाला था मदन सिंह के परिवार को । वे केवल पाँच प्राणी थे। इनकी तुलना में सुखन सिंह के घर के चौदह प्राणी थे और मक्खन सिंह के घर के सोलह थे। इस पर सुखन सिंह ने अपनी भाभी सुंदरी से पूछ लिया, " भाभी, क्या कहती हो
तुम ? "

सुंदरी ने दीर्घनिश्श्वास छोड़कर कहा , " जब भापा की यह इच्छा है, तो मैं कैसे अस्वीकार कर सकती हूँ ? तुम सब जो कुछ भी दोगे, मैं बड़ों का आशीर्वाद समझकर ले लूँगी । "

सुखन सिंह को उसके पिता ने एक बार कहा था , " अपनी भाभी पर विश्वास रखो । वह देवी है । " आज उसकी समझ में आया कि भापा सत्य कहता था । उसने कह दिया , " भाभी, मैं जानता हूँ कि तुमको हानि हो रही है । इस पर भी यह विश्वास रखो कि वाहे गुरु सब ठीक करेगा । भापा की इच्छा का पालन होने दो । "
" कैसे पालन होने दें । इन पैंतीस में मेरी और मेरे बच्चों की गिनती नहीं है । "
" परंतु तुम हो कौन? " सोहन ने कह दिया, " तुमको कभी देखा नहीं । कभी तुम्हारी बात तक सुनी नहीं । "

" मैं तुम्हारे बाबा का बहनोई हूँ । जानते हो ? सरकार ने कानून बना दिया है कि लड़की का लड़के के बराबर हिस्सा होता है । "

इस पर मक्खन सिंह की पत्नी ने कह टिया, " बहिन कुलवंती अपने पति के ही बुजुर्गों की जायदाद में से लेगी । हमको अपनी जायदाद में से लेने दो । "

समुंदर सिंह ने खड़े होकर कह दिया , " देखो, मैं अभी थाने में रपट लिखाने के लिए जाता हूँ । किसी ने मेरी अनुपस्थिति में तोशाखाना खोला तो हथकड़ी लगवा दूंगा । कुलवंती, तुम यहीं बैठना, मैं जा रहा हूँ । "

सुखन सिंह इस झगड़े से बाप की और परिवार की बदनामी समझता था । इसलिए उसने हाथ जोड़कर समुंदर सिंह की मिन्नत - खुशामद करना आरंभ कर दी । उसने कहा, " जीजा, आप बैठिए । बताइए, आप क्या चाहते हैं ? "

" मैंने बताया कि जायदाद के चार भाग होने चाहिए । उसके पश्चात् अपने हिस्से में से अपने लड़के - लड़कियों को दिया जाए । बच्चे तो जने तुम्हारी बीबी और हिस्सा जाए मेरा ? ऐसे नहीं हो सकता। "

मक्खन सिंह की पत्नी को इस कटाक्ष पर क्रोध चढ़ आया । उसने कह दिया , " मैं सब फूंककर स्वाहा कर दूंगी , पर इस हमारे बच्चों की गिनती करनेवाले को पाई भी नहीं लेने दूंगी । भापा के जीवन - काल में तो एक दिन भी नहीं आए और अब आए हैं जायदाद के मालिक बनकर । "
" जाओ बहिन, चुपचाप चली जाओ, नहीं तो फौजदारी हो जाएगी । "

समुंदर सिंह उठकर घर से निकल गया । सब यह समझते थे कि वह थानेदार को बुलाने गया है । इस पर सब सुंदरी का मुख देखने लगे । चाबी अभी भी सुंदरी के पास थी । सुंदरी ने अपने जेठ से कह दिया, “ भैया , आज यह बँटवारा नहीं होगा । इससे आज सब आराम करो । कल किसी को बीच में सरपंच डाल लेना और उसके कह मुताबिक बँटवारा कर लेना । "
मक्खन सिंह ने पूछा, “ भाभी, तुम जायदाद में समुंदर सिंह का हिस्सा समझती हो ? "
" भैया , यह मेरे समझने की बात नहीं । बात आपकी और आपकी बहिन तथा बहनोई के समझाने की है । उसको समझाने का एक ही तरीका है ।किसी को पंच बनाकर उसके फैसले पर फूल चढ़ाओ। " "
मेरी तो राय है कि संदूक खोलकर सबको निकालकर उसके आने से पहले ही बाँट लिया जाए । "
" यह तो पाप हो जाएगा । ऐसा आप नहीं कर सकोगे । पहले मेरी हत्या करनी होगी, तब कोठरी का ताला खुलेगा । "

सुखन सिंह ने बात सँभाली । उसने मक्खन सिंह से कहा , " भाभी ठीक कहती है । झगड़ा कर कचहरी में वक्त और रुपया बरबाद करने की क्या जरूरत है ? "
" पर भापा, जमीन भी बाँटी जाएगी क्या ? "
" हाँ, नहीं तो सरकार तीस एकड़ से अधिक लेने का कानून बना रही है। "

इस पर दोनों भाई उठकर बाहर चले गए । परिवार की स्त्रियाँ और शेष मर्द कोठरी के बाहर लेटे रहे । सुंदरी उठकर अपने कमरे में चली गई । उस समय जसवीर कौर अपनी सास के पास आ पहुँची और बोली, " माताजी, आप क्यों झगड़ा मोल लेती हैं । चाबी अपने जेठ के सामने रख दें । भगवान् जाने बीच में कुछ है भी या नहीं ? "

सुंदरी की समझ में आ गया कि जसवीर कौर क्यों ऐसा कह रही है । वह सोचती थी कि जसवीर को अभी भी विश्वास है कि भीतर कुछ नहीं और सबकुछ वह निकालकर ले जा चुकी है । इससे वह मुसकरा दी और बोली,
" बहू , भगवान् और धर्म भी कुछ है या नहीं ? सारे परिवार की अमानत मैं किस-किस को दे दूँ? "

जसवीर कौर यह सुनकर उठी और बाहर चली गई । बिहारी सिंह आया, तो उसने माँ को एक दूसरी ही बात कह दी । उसने कहा, " यह सोहन ने सब गड़बड़ कर दी है । अब उसके यह कहने पर कि बाबा की यही इच्छा थी , हमको सबसे अधिक हानि रहेगी । "

" बेटा, मैं तो कुछ जानती नहीं । मेरे लिए तो वह पूज्य थे। इससे मैं उनकी बात पर फूल चढ़ाए बिना नहीं रह सकती । रही हानि - लाभ की बात । धन प्रभु की माया है । सबके पास समान नहीं होता । न ही यह सदा रहता है । जितना अपने इन दो हाथों से कमाया जा सकता है, उस पर ही संतोष करना चाहिए । "
" मैं तो समझता हूँ कि मैंने वह सबकुछ फिर बीच में ही रखकर भूल की है । "
" पर मैं समझती हूँ कि तुमने अमानत को ठीक जगह पहुँचाकर धर्म का काम किया है । "

जसवीर कौर पहले तो अपने सबकुछ ले जाने पर बहुत प्रसन्न थी , परंतु फिर अपनी करतूत का भेद खुल जाने के भय से खाट पर लेट रही । वह कभी सोचती थी कि उसने ठीक ही किया है, जो सबकुछ पहले निकालकर ले गई , फिर सोचती कि जब घरवालों को पता चलेगा कि अंदर तो कुछ भी नहीं , तो खूब हो -हल्ला होगा । यह भी संभव है कि हत्याएँ हो जाएँ । इस संभावना पर भयभीत हो वह अपने किए पर पश्चात्ताप करने लगी ।

: 5 :
समुंदर सिंह थानेदार के पास गया , तो वह गाँव के सरपंच को लेकर उसके साथ चल पड़ा । घर पहुँचा, तो देखा कि परिवार के सब प्राणी कोठरी के बाहर बैठे थे। कोठरी को ताला लगा था । सरपंच ने एक ऊँची चौकी पर बैठकर पूछा, " क्या झगड़ा है ? "

सुखन सिंह ने अपनी बात कह दी । इस पर समुंदर सिंह ने कह दिया , " कर्मसिंह ने मरने के समय सुखन सिंह को चाबी देते हुए कहा था , धर्म पर खड़े रहना , परंतु अब ये लोग धर्म से बदल रहे हैं । "
सरपंच ने पूछा, " क्यों मक्खन सिंह, क्या यह सरदार ठीक कहता है? "
" जी हाँ , यह ठीक कहता है । "
" तो फिर झगड़ा क्या ? तुम सब समझदार हो । धर्म पर खड़े रहो और अपना- अपना हिस्सा ले लो । "

समुंदर सिंह ने कह दिया , “ ये जायदाद के पैंतीस हिस्से करना चाहते हैं और बाल -वृद्ध सबको बराबर- बराबर हिस्सा देना चाहते हैं । "
" क्यों ? "

" इसलिए, " सोहन ने फिर आगे बढ़कर कह दिया “ कि बाबा ने एक दिन कहा था कि नकदी सब मेरी कमाई है । यह मैं उन सबको देता हूँ, जिन्होंने मेरी सेवा की है । बाबा ने पैंतीस की गिनती करके कहा था कि सबने मेरी सेवा की है, सबको ही बराबर- बराबर हिस्सा मिलना चाहिए । भूमि के विषय में बाबा ने कहा था कि यह उनके पिता की है । इसलिए इसके तीन हिस्से कर उनके तीनों बेटों को दी जाएगी । "

" यह तुम सत्य कहते हो ? "
" हाँ चौधरीजी, मैं गुरुमहाराज की सौगंध खाकर कहता हूँ कि बाबा ने यही कहा था । "
" तुम किसके बेटे हो ? "
" बिहारी सिंह का । "
"कितने भाई - बहिन हो ? "
" हम दो ही हैं । मेरी एक बहिन है । "
" तो तुमको तो कुछ भी नहीं मिलेगा । "
" पर चौधरी , यह धर्म की बात हो रही है, मिलने -मिलाने की नहीं । "
जसवीर इस समय सबसे पीछे खड़ी रो रही थी । चौधरी ने उसको देखा तो पूछा लिया, " तुम क्यों रोती हो ? "

उत्तर समुंदर सिंह ने दे दिया , " यह सोहन इसी का बेटा है और इसके कहने से इस बेचारी को सबसे कम मिलेगा । सुखन के घर के चौदह प्राणी हैं । मक्खन के सोलह हैं और इसके घर के केवल पाँच । इसलिए यह रोती है । "
" और तुम कौन हो ? "
" मैं कर्मसिंह का दामाद हूँ । मेरी पत्नी कुलवंती का बँटवारे में कहीं जिक्र ही नहीं । "
" अच्छा, कल पंचायत होगी और फैसला होगा । चाबी किसके पास है? "
" भाभी सुंदरी के पास । "
" चाबी मुझको दे दो । कल सब पंचों के सामने कोठरी खोली जाएगी । "

सुंदरी ने कोठरी और संदूक की दोनों चाबियाँ सरपंच को दे दी । थानेदार ने एक सिपाही को वहाँ बैठा दिया , जिससे फौजदारी न हो जाए ।

अगले दिन गाँव की पंचायत बैठी । सबसे पहले सुंदरी के बयान हुए, फिर समुंदर सिंह ने अपनी माँग उपस्थित कर दी । उसने कहा कि सब चल और अचल संपत्ति के चार भाग होने चाहिए । तीन तो कर्मसिंह के पुत्रों के लिए और एक उनकी पुत्री के लिए ।

इसके पश्चात् सुखन सिंह और मक्खन सिंह के बयान हुए । बिहारी सिंह के भी बयान हुए । बिहारी सिंह ने केवल इतना कह दिया, " धर्म जो कहता है , वह मुझको मंजूर है । "

इसके बाद पंचायत ने सबको बाहर निकाल दिया और पंचायत में बहुत वाद-विवाद के बाद फैसला हुआ । फैसला सुनाते हुए सरपंच ने कहा

" पंचों ने सोहन के बयान को सच्चा माना है । इसलिए धर्म यह है कि चल संपत्ति के पैंतीस भाग किए जाएँ । मर्द औरतें , बाल -वृद्ध सबको एक - एक हिस्सा दिया जाए । स्वर्गवासी जीव का कहना था कि ये पैंतीस ही उसकी सेवा करते रहे हैं और इनको ही उसकी जायदाद का हिस्सा दिया जाए । इनमें कुलवंती अथवा उसके बच्चों का कोई हक नहीं है ।

" शेष रही जमीन की बात । धर्म से तो तीन हिस्से बनते हैं । कानून से चार । हम कानून से धर्म ऊँचा मानते हैं । इस कारण हमारा फैसला है कि तीन हिस्से ही तीनों भाइयों को मिलें । धर्म से लड़की का कोई हिस्सा नहीं बनता । इस पर भी यदि कुलवंती धर्म पर फूल नहीं चढ़ाती , तो वह अदालत में जा सकती है । "

इसके बाद समुंदर सिंह ने कह दिया, "मैं पंचायत के फैसले की जजी में अपील करूँगा। इसके लिए कुछ खुर्द बुर्द न किया जाए । "

इस पर सरपंच ने आज्ञा दे दी कि पंचों के सामने सब वस्तुओं की सूची बन जाए और उन वस्तुओं को किसी के पास अमानत के रूप में रख दिया जाए ।

ऐसा ही किया गया । पूर्ण संपत्ति सोना - चाँदी और नकदी तौली और गिनी गई । साथ ही उसकी सूची बनाकर सबके हस्ताक्षर करा लिये गए । सब सामान सुंदरी के हवाले कर उससे रसीद बनवा ली गई । सरपंच ने पंचायत का फैसला लिखकर नीचेलिख दिया कि तीन महीने में जिसे अपील करनी हो , कर दे अथवा यही फैसला पक्का होगा ।

जब सब विदा हो गए, तो जसवीर कौर ने अपने पति से कहा, " आपने जमीन पर जो मेहनत की और खून पसीना एक किया, तो आपको उसका क्या मिला? "
" मुझको धर्म का फल मिलेगा । "

" मैं यह धर्म - कर्म व्यर्थ की बात मानती हूँ । मुझको पहले ही इस बात की आशा थी कि हमको कुछ भी नहीं मिलेगा । हमारी मेहनत और सेवा सब हराम में जाएगी । इसलिए मैंने भी अपना धर्म- पालन किया है । अपनी मेहनत का फल मैंने पहले ही निकाल लिया है । "

जसवीर कौर का विचार था कि उस दिन जल्दी- जल्दी में उसने बहुत- कुछ पीछे भी छोड़ दिया है । इस पर भी उसके मन में संतोष था कि उसने बहुत कुछ, अपने भाग का पहले ही निकाल लिया है । अब उसने अपनी कारगुजारी अपने पति को भी बता दी ।

बिहारी ने पहले तो यह उचित समझा कि यह भी अपनी कारगुजारी बता दे, परंतु फिर कुछ विचारकर उसने पूछा ,
" सत्य ? "
" जी हाँ ! मैं आपकी तरह बुधू नहीं हूँ । "
" एक दिन चलकर दिखाओ तो सही कि कितना ले गई थीं ? "

समय पाकर जसवीर कौर अपने पति को लेकर अपने बाप के घर गई और संदूक निकालकर ताली खोल देखने लगी, तो भौंचक्की हो देखती रह गई । बिहारी सिंह उसके पीछे खड़ा था । उसने अपने मन की बात छिपाते हुए पूछ लिया, " जसवीर , क्यों , क्या हुआ ? "
"किसी ने सोना - चाँदी सब निकाल लिया है और कंकड़ आदि भर दिए हैं । "
"किसने भर दिए हैं ? "
" मेरे पिताजी ने ही ऐसा किया होगा । "
" मेरा मन कुछ और ही कहता है । "
" क्या ? "
" यही कि परमात्मा ने तुम्हारे इस काम को अधर्म समझा और सोने - चाँदी के स्थान पर ये कंकड़ - पत्थर भर दिए
" यह सब बकवास है । कहाँ है परमात्मा , जो ऐसा कर सकता है । यह तो निश्चय ही मेरे माँ - बाप की करतूत
" नहीं जसवीर , यह परमात्मा की ही बात है । "

इस पर जसवीर और उसके पिता बलवंत सिंह में बहुत झगड़ा हुआ और बाप- बेटी में सदा के लिए लड़ाई हो गई ।

बिहारी सिंह के मन में एक बार तो आया कि वह सबकुछ बता दे, परंतु उस बेईमान बेटी का बाप के साथ झगड़ा ठीक ही प्रतीत हुआ और वह चुप रहा ।

वे दोनों उलटे पाँव अपने गाँव को लौट आए । बिहारी सिंह ने मार्ग में जसवीर को बता दिया था कि माल चुराने के विषय में वह किसी को भी न बताए ।

घर पहुँच उसने अपनी बुआ को घर बैठी माँ से बातें करते देखा तो पूछा, " बुआ, क्या हुआ है, किसलिए आई हो ? "

उत्तर सुंदरी ने दिया, " बुआ कहती है कि इनको घर से निकाल दिया गया है । "
" क्यों ? "

कुलवंती ने कह दिया, " वे अपील लिखवाकर लाए थे और कहने लगे कि मैं हस्ताक्षर कर दूं। मैंने इनकार किया, तो मार - मारकर घर से निकाल दिया है । "
" पर बुआ , तुमने इनकार क्यों किया ? "
" सरपंच कहता था कि धर्म से लड़की का भाग नहीं होता । मैंने यही सोचा कि अब इस बूढ़ी अवस्था में भला धर्म की बात को क्यों छोड़ें ? इसलिए मैंने हस्ताक्षर नहीं किए । "
बिहारी सिंह भौंचक्का हो बुआ का मुख देखता रह गया ।

तीन महीने बाद जब अपील की मियाद बीत गई, तो बँटवारा होने लगा । सुखन सिंह ने कह दिया , " भाई ! धर्म से तो ठीक हो रहा है, परंतु बहिन की बलि धर्म पर चढ़ानी अच्छी प्रतीत नहीं होती । इसलिए मेरा विचार है कि समुंदर सिंह के कहे अनुसार बँटवारा कर उसका हिस्सा उसको दे दिया जाए । "

सुंदरी ने कहा, " भैया, सोच लो, बहुत हानि हो जाएगी तुम दोनों को ? "
" मैंने सब विचार कर लिया है भाभी, क्यों मक्खन, क्या कहते हो ? "
" भापा , बहिन का सुहाग कायम रहे , मैं यही चाहता हूँ । "
" परंतु भापा, " बिहारी ने कह दिया , " मुझको अकारण लाभ होगा । "
" तो हो जाए । समुंदर सिंह तो प्रसन्न हो जाएगा । "
" परंतु धर्म कहाँ गया ? "
" बहिन की अपने पति से सुलह होगी । यह क्या कम धर्म की बात है ? "