बन्नू (कहानी) : सुमित्रानंदन पंत
Bannu (Hindi Story) : Sumitranandan Pant
( १ )
स्वामी की मृत्यु के बाद सब तरह से आश्रयहीन हो जिस समय कामना अपनी दो साल की बच्ची को छाती से चिपकाकर अपने जेठ दीनानाथ के यहाँ पहुँची उस समय वृष्टि से धुले शरद के आकाश की क्रोड़ में दूज की कला मन्द मन्द मुसकुरा रही थी । दीनानाथ बाग़ में अपनी झोपड़ी की देहरी पर बैठा एक स्वच्छ भूरी रङ्ग की बछिया का गला सुहला रहा था। जान पड़ता था कि शरद की कोमल सन्ध्या ही उस पिङ्गल बछिया का रूप धर कर अपने काले, चिकने नयनों की तन्द्रिल चितवन उस पर डाले हुए उसके स्नेह का उपयोग करने झोपड़ी के द्वार पर आई हो ।
यकायक सामने से एक अधेड़ स्त्री को अपनी ओर आते देखकर वृद्ध दीनानाथ उठने का उपक्रम करने लगा । कामना ने पास पहुँचकर बच्ची को उसकी गोद में रख दिया और उसके पाँव छूकर अपने स्वामी के स्वर्गवास की कथा कहते-कहते उन्हें आंसुओं की झड़ी से धो डाला ।
अपने भाई की अकाल मृत्यु का समाचार पाकर दीनानाथ के भी आँसू न रुके। उसने कामना को प्रबोध दिया और लड़की को घुटनों पर चढ़ाकर खिलाने लगा । लड़की उसse रत्ती भर भी नहीं सहमी, और बात की बात में उस स्नेह में सुफेद बुड्ढे से हिल गई । उस हँसमुख चाँद के टुकड़े पर रीझकर, सामने नवोदित दूज की कला को देख, दीनानाथ ने उस लड़की का नाम कला रख दिया ।
( २ )
दस साल पहले, पत्नी के स्वर्गवासी हो जाने के कारण, दीनानाथ संसार से विरक्त होकर घर से निकल आया था। वह चालीस पार कर चुका था, सन्तान सुख से वंचित था, छोटे भाई की शादी हो ही गई थी, मुट्ठी भर खेती भी उसी को सौंपकर वह तीर्थ-यात्रा करने चला आया था । प्रायः सन्तान, स्त्री, सम्पत्ति ही वस्तु-जगत में मनुष्य को संसार से बाँधे रहती हैं ।
दो एक साल साधुओं की सङ्गत में रह कर अन्त में वह गाँव से दस कोस दूरी पर कान्तार बन में एकलिंग स्वामी की सेवा में जीवन यापन करने लगा ।
कान्तार एकलिंग शिव के मन्दिर के कारण चारों ओर प्रसिद्ध था, वह बहुत पुराना मन्दिर था, उसके पुजारी उसी के नाम से पुकारे जाते थे ।
परिश्रमशील दीनानाथ अधिक समय तक निष्क्रिय, निश्चेष्ट जीवन व्यतीत न कर सका, पत्नी का वियोग-दुख कम हो जानेपर उसे मालूम पड़ने लगा जैसे मिलन बिछोह, मोह-ममता, सुख-दुख के संसार से कटकर इस प्रकार विरक्त और तटस्थ हो काल-यापन करने से उसके भीतर शान्ति के बदले सूनापन आ रहा है । प्रकृति ममत्व की जिस इकाई को देकर मनुष्य को जीवन-संग्राम के लिए अग्रसर करती है, उस इकाई का त्यागकर सुख-शान्ति ग्रहण करने की कल्पना उसे ठीक नहीं जान पड़ी । वास्तविक अभाव की पूर्ति न कर काल्पनिक भाव में रहना उसने पसन्द नहीं किया । उसे मालूम पड़ने लगा कि अनेक प्रकार के धार्मिक, नैतिक सत्य, आचार-व्यवहार के नियम-बन्धन, जिनकी चर्चा उसे अब नित्य सुनने को मिलती थी, उसी मोह-ममत्व के संसार को स्थित एवं सुव्यवस्थित रखने के लिए बनाए गए हैं । वे जैसे अन्तः स्तल की भूमि में दिए हुए कन्द-मूल मात्र हैं। बाहर का क्रियाशील, सुख- दुख की शाखा-प्रशाखाओं से पूर्ण जीवन ही उनका वास्तविक स्वरूप है। तीर्थ के लिए आए हुए अनेक तरह के स्त्री-पुरुषों के संपर्क में आने से उसकी यह धारणा और भी दृढ़ होती गई । उसे अपने गाँव घर और खेतों की याद आती, पड़ोसियों के मैत्री-कलह, दैनिक जीवन के घात-प्रतिघात, भाई का स्नेह, उसके गाय- बैल और बछड़े आँखों के सामने खड़े हो जाते, खेतों की लहराती हुई हरियाली उसे अपनी ओर खींचती - उन सब में जैसे उसी का व्यक्तित्व मिला था, उन सब के द्वारा वह जैसे अपनी सृजनशील आत्मा की प्रवृतियों का, अपनी शक्तियों का परिचय पाकर सुखी होता था । फलतः उसने धीरे-धीरे कान्तार का एक बड़ा-सा भाग साफ़ कर डाला और उसमें बारी-बारी से आम, सन्तरा, नींबू, लीची, अमरूद, कटहल, केले आदि के पेड़ लगाना शुरू कर दिया । बाग़ के बीच में उसने अपने लिए एक छोटी सी झोपड़ी भी बना ली, जिसके सामने गेंदा, चमेली, बेला आदि के पौधे, और आसपास मौलसिरी, हरसिंगार, कचनार आदि के वृक्ष लगा दिए ।
खाना-पीना उसका एकलिंग स्वामी के पास से हो जाता था, मन्दिर में पर्याप्त चढ़ावा चढ़ता था, दिन-रात दूर-पास के यात्री आते-जाते रहते थे, साल में दो बार मेला भी लगता था । कुछ ही सालों में दीनानाथ का बाग़ फूलने - फलने लगा । और धीरे-धीरे उसमें यात्रियों के ठहरने के लिए इधर-उधर अनेक छोटी-मोटी झोपड़ियाँ भी पड़ गई । पत्र-पुष्प, फल-तोय से अतिथियों की सेवा कर दीनानाथ सन्तुष्ट रहने लगा। यात्रियों की सुविधा के लिए उसने एकलिंग स्वामी से दो-एक गायें भी लेकर पाल ली थीं। इस प्रकार पेड़-पौधों, पशु-पक्षी और आने-जानेवाले बटोहियों की सेवा में पन्द्रह साल और व्यतीत कर वह अपनी सेवावृत्ति के लिए चारों ओर प्रसिद्ध हो चुका था । उसका भाई भी इस बीच कई बार आकर उससे मिल गया था । पर आज अचानक उसके मृत्यु- समाचार ने आकर वृद्ध के मन में अपने पुराने जीवन, गाँव और गृह की याद को फिर से जाग्रत कर अपने भाई को उस छोटी-सी स्मृति कला के प्रति उसके हृदय को मोह-ममता से पूर्ण कर दिया था ।
(३)
कला, शुक्लपक्ष की कला की तरह, दीनानाथ की देख-रेख में बढ़ने लगी, कामना का समय भी तीर्थ यात्रियों की सेवा और भजन-पूजन में निश्चिन्त रूप से व्यतीत होने लगा । कला के आने से उस वृद्ध की झोपड़ी में चन्द्रोदय हो गया, गृहिणी के हाथों के स्पर्श से घर की सुव्यवस्था, स्वच्छता और सुप्रबन्ध में सजीवता आ गई। गायें मोटी, चिकनी और स्वच्छ हो गईं, फुलवाड़ी के पौधे हरे-भरे और लहलहे होकर फूलों से लद गए ।
कान्तार और बाग़ के बीच एक छोटी-सी जल धारा बहती थी, जिसे रेवती कहते थे । रेवती के ऊपर छोटी-सी कच्ची पुलिया बनी थी । उसी से केवल आने-जाने का रास्ता था। पुलिया की लकड़ियाँ दीनानाथ बदलता रहता था, वे पानी से काली पड़ जाती थीं, बरसात में उनमें हरी-हरी काई जम जाती, और थोड़ी-सी फिसलन भी पैदा हो जाती थी ।
कान्तार के उलङ्ग, निर्भीक वृक्ष महाशून्य की ओर विशाल बाहों की तरह अपनी शाखाएँ फैलाए मानो आकाश के गौरव की स्पर्धा करते थे । बाग़ के हरे-भरे पेड़ फल और फूलों के भार से विनत हो मानों पृथ्वी से मिलने को झुक-झुक पड़ते थे । वे जैसे स्वर्ग से वरदान पाने के अजस्र प्रार्थी थे, ये पृथ्वी को दान देने के निरन्तर अभिलाषी । कान्तार के घने पत्रों को साँय-साँय में बन की विषण्ण, निश्चेष्ट वायु का सूनापन और काँपते हुए छाया- प्रकाश में उस विराट वन की निष्क्रिय, निष्फल आत्मा अपने ही भय और शंका से सिहर उठती थी; बाग़ के पेड़ों की टहनियों पर पक्षियों का मधुर कलरव, पुष्पों पर भवरों की गूँज बाटिका के सफल सक्रिय जीवन में संगीत और रस की सृष्टि करते थे । वहाँ एकलिंग के मन्दिर का शंखनाद चारों ओर दिशाओं में कम्पन पैदा करता, वहाँ कला का वीणा विनिन्दक स्वर उस छोटी-सी झोपड़ी के भीतर मधुरता बरसाता था। एक प्रकृति का विशाल, विशृङ्खल क्रीड़ा स्थल था दूसरा मनुष्य के हाथों से सँवारा हुआ छोटा-सा आँगन ।
कला इसी आँगन में खेल-कूद कर बड़ी हुई थी । बसन्त के सुन्दर फूल उसके साथी थे, वर्षा ऋतु के उड़ते हुए मेघ उसकी बाल- भावनाओं की तरह अनेक आकार-प्रकार धारण कर उसका मन बहलाते थे । शरद की उज्ज्वल, स्वप्नमयी चाँदनी और पूस कोमल दिनमानो से उसका एक अज्ञात, गूढ़ साहचर्य था, उसकी कल्पना चुपचाप उनमें मिल जाती थी । ग्रीष्म की अलसाई - दोपहर और हेमन्त की लम्बी उनींदी रातों के साथ-साथ बढ़कर अब वह यौवन की पहली सीढ़ी पर पाँव रख चुकी थी । उसकी मा ने उसे गृह के छोटे-मोटे कामों में दक्ष बना दिया था । कण्व के तपोवन की शकुन्तला की तरह वह रेवती के जल से वृक्षों के आलबाल भरती, पूजा के लिये फूलों की मालायें गूँथती, और दीना के अतिथियों का स्वागत-सत्कार एवं सेवा करती । वह पढ़ना-लिखना नहीं जानती थी, पर भले-बुरे को पहचानती थी। गेंदा, गुलदावदी, बेला, जूही की तरह वह वस्तुओं का मूल्य उनके आकार-प्रकार रूप-रंग से, मनुष्यों का मूल्य उनके हाव-भाव चेष्टाओं द्वारा आँक लेती थी । दीनानाथ के यहाँ सभी स्वभाव, सभी अवस्थाओं के यात्री आकर ठहरते थे, कला स्वभावतः उनके गुण-दोषों को जान लेती थी । उसके विचार-बुद्धि न थी, सहज बुद्धि थी । संक्षेप में वह सहज सुन्दर परिस्थितियों की सहज सुन्दर सृष्टि थी ।
( ४ )
कान्तार में मन्दिर से कुछ दूर एकलिंग स्वामी का निवास था । वह इस समय अत्यन्त जीर्णावस्था में था । उसका एक भाग गिर गया था, पर दूसरा भाग रहने योग्य था, और सब तरह से साफ-सुथरा रक्खा जाता था। चारों ओर एक छोटा-सा बगीचा था जिसकी देख-रेख न हो सकने के कारण उसमें झाड़-झंखाड़ और बनैले पेड़ उग आए थे। बीच की पुष्करिणी की हालत भी अच्छी न थी, बरसात में उसमें पानी भर जाता, गर्मियों में वह प्रायः सूख जाती और महीनों में उसमें मच्छरों से गूँजती हुई काई जमी रहती ।
एकलिंग स्वामी वृद्ध हो चले थे । वे बाल-ब्रह्मचारी, उद्भट विद्वान, धर्म और नीति के ज्ञाता तथा सौजन्य की प्रतिमूर्ति थे । उनके मुख मंडल पर कान्ति विराजमान रहती, आँखों में तेज; उनके काँस-गुच्छ के सामान सुफ़ेद दाढ़ी-मूछों और सिर के बालों ने उनकी मुखाकृति को और भी शारद, प्रशान्त और दर्शनीय बना दिया था। अपना समस्त जीवन इसी निःसंग, निर्जन वन में व्यतीत कर वह वन ही की तरह गम्भीर, गहन एवं शून्य हो गए.थे । उनका शिष्य विनोदानन्द, जिसका व्यक्तित्व बन्नू शब्द से अधिक स्पष्ट होता था - जो उसके सम्बोधन का नाम था- उनके भावी पद का अधिकारी था। दस साल की उम्र में उसके मा-बाप उसे एकलिंग भगवान की सेवा में समर्पित कर गए थे । गुरु ने उसे दीक्षा देकर नवीन रूप से उसका नामकरण किया। अब वह पच्चीस साल का हो चुका था और गुरु की कृपा से धर्म, शास्त्र, वेदान्त, नीति, दर्शन सभी में पारंगत हो चुका था ।
विनोदानन्द के स्वभाव में विनोद कभी प्रवेश न कर पाया था। समस्त वन की विषण्ण निर्विकार क्रिया-शून्य स्वच्छन्द आत्मा- उसका स्वप्न-पूर्ण, सशंक, रहस्यमय छायालोक - उसके निर्भीक, बलिष्ट, विविध रूप के वृक्षों का मौन साहचर्य - उस विशाल, भयावह, जनहीन एकान्त का गम्भीर अभेद्य वैचित्र्य किसी प्रबल मंझा के झोकों से शब्दायमान होकर जैसे उस बन्नू शब्द में सजीव एवं सकार हो गया था । वन की घनी छाया के रंग का उसका श्यामल वर्ण, विटप स्कन्धों से सशक्त मांसल अङ्ग, पेशल- हरीतिमा सा भरा हुआ गोल आनन, कृष्ण, ओज-स्निग्ध नयन, भय- शून्य दृष्टि, मत्त गति--सभी कुछ वन की कला के प्रतिरूप था ।
वह वन के छाया-गम्भीर विषाद से अपने मन को भर कर अपने को भूला रहता था । कभी-कभी नीचे के बदन में मृर्ग चर्म और उत्तराङ्ग में बाघ की छाल लपेटे वह वन्य मृगों और नील- गायों के पीछे दौड़ कर उन्हें भयभीत किया करता था । और उन्हें पूँछ उठा कर आत्मविस्मृत हो भागते हुए देख कर अपने घन घोष अट्टहास से कान्तार के एकान्त मौन को कम्पित कर देता था ।
कामना व्रत के दिनों में एकलिंग के दर्शन करने कान्तार में प्रायः जाया करती थी । आज भी तीसरे पहर के समय हाथ में पूजा का थाल लिये कन्या के साथ-साथ उसने मन्दिर में प्रवेश किया। कला का जी अन्दर नहीं लगा, वह वन की शोभा देखने बाहर चली आई । वास्तव में आज कान्तार की शोभा दर्शनीय थी । वसन्तागम से पेड़ों में रुपहले, सुनहले, हरे, नीले सिन्दूरी रंग के नये-नये कोंपल और पत्ते निकल आये थे । इधर-उधर अमलतास, कचनार, सिरिस, मदार, और नीम के फूलों ने अनेक वर्णों की श्री का इन्द्रजाल फैलाया था । वन्य पुष्पों की उन्मत्त सौरभ से वायु झूम रहा था । आज किसी अज्ञात स्पर्श से जैसे कान्तार में नवीन जीवन का संचार हो उठा । पलास की ज्वाला में मानो उसकी चिरसुप्त कामनायें सुलग उठी थीं, और कोकिल की पंचम कूक रह रह कर उसकी शून्य आत्मा में सक्रिय कल्पनाओं की कम्पन एवं आवेश पैदा कर देती थी । प्रकृति के गूढ़ रहस्यों की वह विराट सौन्दर्य-भूमि आज नववसन्त की उद्दाम आकांक्षाओं से उद्वेलित हो उठी थी ।
नीम के एक बड़े से बड़े पेड़ की छाया में बन्नू उस समय कुहनी हथेली और सिर का तिकोन बनाये, लेटे-लेटे किसी अज्ञात स्वप्न-लोक में विचर रहा था । वन की आत्मा उसके जीवन को भी संचालित करती थी । कान्तार का नवीन जीवन- सौन्दर्य उसके भीतर प्रवेश कर अन्तस्तल में अनेक अस्पष्ट, आकुल, अपूर्व भावनाओं की सृष्टि कर रहा था। उनमें न रूप था न अर्थ, केवल अनुभूति थी, संवेदना थी । शीतोष्ण अनिल के कोमल स्पर्शों से उसके अङ्गों में बार बार मधुर- वेदना जग उठती थी । पृथ्वी से एक अनजान आकांक्षा निकल कर, उसकी टाँगों से ऊपर को प्रवेश कर, उस अनभिज्ञ युवक की आत्मा को अपनी कोमल, ऊष्ण, मधुर पूर्व-स्मृति में, अज्ञेय अनुभूति में लेपेट लेती थी; उसके अंगों में स्वास्थ्य की मादकता भर जाती, उसके मुख में रस का स्रोत फूट पड़ता था । उस मधुर अशान्ति का रहस्य उसकी समझ में कुछ भी न आता था, वह चुपचाप जैसे उसी में आविष्ट हो गया था ।
जिस समय कला की चंचल दृष्टि बन्नू की ओर फिरी उस समय उसके सिरहाने की ओर से एक लम्बा, मोटा, काला चितकबरा साँप लहर की तरह टेढ़ी-मेढ़ी क्षिप्रगति से उसकी ओर जा रहा था । उसकी मूर्तिमान भयंकरता देख कर कला के हृदय को चीर कर अचानक एक जोर की चीख निकल पड़ी । हठात् स्वप्न से जग कर उस युवती की भयभीत दृष्टि का अनुसरण करते ही बन्नू ने भी उस सर्प को देख लिया। वह बांये हाथ के बल पर उठ कर उसी तरह निर्भय होकर वहाँ बैठा रहा; साँप चुपके से उसके पास से होकर निकल गया । उस सुन्दर निर्भीक युवक की ओर दृष्टि गड़ाये, कला, विस्मय से अवाक् हो, आत्मविस्मृत-सी, वहीं खड़ी रह गई । बन्नू की वलिष्ट देह दोषों की गोलाई, तैलाक्त वर्ण, स्वस्थ सौन्दर्य, अकृत्रिम स्वरूप, कान्तिमान मुख एवं निर्दोष दृष्टि ने जैसे उसे अज्ञात रूप से बरबस अपनी ओर खींचना शुरू किया । बन्नू की विजय-स्मित दृष्टि जब उस नवयुवती के विस्मित मुख पर पड़ी तो वह उस चित्रस्थ सौन्दर्य की प्रतिमा को देखता ही रह गया । कला की सुन्दर आँखें विस्मय से विकसित हो उठी थीं, उसकी समस्त आत्मा जैसे चितवन ही चितवन बन गयी थी । उसके नये पल्लवों से अधर आधे खुल गये थे; उनके भीतर से बारीक दन्त रेखा सेम्हर के फूल से रुई की तरह झलक रही थी, मुख भय से गुलाब की तरह लाल हो उठा था। उसका बायाँ पाँव आगे की ओर बढ़ा था, और दायाँ हाथ छाती तक उठ कर, सीप के संपुट की तरह, वहीं रुक गया था। वह गुलाबी रंग की धोती पहने थी, हरे रंग की सादी कुरती । बन्नू को ऐसा मालूम होने लगा कि वसन्त के समस्त सौन्दर्य का, मलयानिल के कोमल स्पर्शों का, कोकिल की व्याकुल वाणी का, नवीन पल्लवों के विविध रङ्गो का, उसकी भावनाओं और मधुर अशान्ति का जैसे यही तात्पर्य, यही सन्देश और यही सार है । उस तरुणी के दर्पण में जैसे उसे अपना अदृष्ट अन्तर-जगत स्पष्ट रूप से प्रतिबिम्बित दिखाई दिया । भाव रूप का आश्रय ग्रहण कर चरितार्थ हो गया, अर्थ शब्द के मिल जाने से अभिव्यक्त हो उठा।
पूजा समाप्त कर कामना लड़की की खोज में वहाँ पहुँच गयी थी । बन्नू ने आत्मस्थ होकर उसे प्रणाम किया । कला अन्यमनस्क हो मा के साथ घर को चली गई ।
( ५ )
मनोविज्ञान के अनुसार मन तीन वस्तुओं से निर्मित है बुद्धि, राग, और संकल्प अथवा ज्ञान भावना और कार्य - प्रेरणा बन्नू का केवल ज्ञान-कोष विकसित था, उसका रागतत्व एक प्रकार से सुप्त ही था; छुटपन से वह वैसी ही परिस्थितियों में रहा था । आज जब कि कान्तार की समस्त शिराओं में वसन्त का तरुण रक्त प्रधावित हो रहा था, जब शिशिर की सूखी डालियाँ नवीन यौवन के पल्लवों से मांसल हो उठी थीं, एक संवेदना - शील नव- युवती के पवित्र सम्पर्क एवं मधुर रूप-राशि ने उसकी चिर - निर्जीव भावनाओं को जाग्रत तथा प्रज्वलित कर दिया था ।
वस्तुओं की क्षणभंगुरता, एवं जीवन की निस्सारता का आधार लेकर जो ज्ञान उसे संसार को मिथ्या बतलाता आया वही ज्ञान जैसे आज भावना की शक्ति से सार्थक हो उसे वस्तुओं की मरणशीलता, जीवन की सारता और संसार के नित्य होने का सन्देश सुनाने लगा, आत्मा और शरीर जन्म और मरण निःसीम असीम और जैसे अपना विरोध खोकर भावना के एक ही पाश में बँध कर अभिन्न और अखण्ड हो गए हैं। आज सारा कान्तार उसके भीतर समा गया। उसके समस्त छोटे-बड़े, विविध आकार प्रकार के पेड़-पौधे, परस्पर गुँथी हुई शाखा-प्रशाखायें, लता-कुंज, फूल-पत्ते अपना अस्तित्व खोकर एक विराट आत्मा में विलीन हो विराम सृजन - सौन्दर्य में बदल गए हैं । यह अनेक रूप-रंग, पुष्प-पल्लव, तृण-तरुओं में व्याप्त सत्य ही जैसे अमर सत्य है शेष सब इसका अभाव है । अनादि काल से अनन्त शिशिर और पतझड़ों पर हँसते हुए, रूप-रंग भरते हुए, जीवन के वसन्त ने आज जैसे उसके हृदय में अपना अपरिवर्तनशील, भावात्मक रूप उद्भासित कर दिया । यही चिरन्तन सत्य बट के विशाल वृक्ष को एक छोटे से बीज में भर कर उस क्षुद्र बीज को फिर से महान आकार में परिणत कर देता है ।
अनेक प्रकार के त्याग-विराग, साधना-संयम, जप-तप, नीति- रीतियों के नियम बन्धनों के सहारे हम जिस सत्य को ग्रहण करने का सम्भव निष्फल प्रयत्न करते आए हैं, वही अज्ञेय, अग्रहणीय सत्य जैसे अनन्त अनुराग, आनन्द, सुख, सौन्दर्य, लीला, नृत्य, आशा, आकांक्षा, रूप-रङ्गों द्वारा अपने को सृष्टि के चिरन्तन बन्धनों में बाँध रहा है। आत्मा अपने को रूप के लिए फिर फिर बलिदान कर रही है । हमारे दर्शनों ने सत्य के जिस महाभाव का हमें बोध कराया है हमने उसे न समझ सकने के कारण उस महाभाव को अभाव और शून्य में घटित कर दिया है। ज्ञान का निष्क्रिय प्रयोग कर हमने निःसीम को ससीम से, भाव को रूप से विछिन्न कर उन्हें भिन्न मान लिया है। ज्ञान के सक्रिय-प्रयोग द्वारा हम उस महाभाव का नाम रूप में, निःसीम का ससीम में साक्षात् नहीं कर पाये हैं ।
आज कान्तार की अपार वसन्त श्री एक क्षुद्र तरुणी को सरल मधुर मूर्ति बनकर बन्नू के हृदय में सदैव के लिए नवीन रूप से प्रतिष्ठित हो गई । सृष्टि का समस्त तात्पर्य उसके सामने मूर्ति धर स्पष्ट हो गया । उसका निःसीम ससीम में साकार हो गया। वह मन ही मन सोचने लगा- आत्मा की मुक्ति जैसे माँस के सुन्दर कोमल बन्धनों में बँधकर चरितार्थ होती रहती है । भावना निरन्तर रूप में, विनाश-सृजन में, काल-क्षण में अभिव्यक्ति पाकर अपनी सम्पूर्णता, सार्थक करता रहता है ।
( ६ )
कला सुबह के समय फुलवाड़ी में फूल बीनने गई थी । मा की पूजा के लिए फूल चुनना और ठाकुर जी के प्रसाद की माला बनाना उसका नित्य का काम था। वह फुलवाड़ी के बीच में पत्थर के छोटे से चबूतरे पर बैठी जूही की माला गूँथ रही थी । आम के बौरां की सुगन्ध से सारा वारा महक रहा था । पक्षी कलरव कर रहे थे । प्रभात की कोमल स्वर्ण आभा उसके सुन्दर अरुण मुख पर पड़ कर उसी में लीन हो गई थी । उसके माथे से धोती खिसक गई थी, और दो-एक लटें जूड़े से निकल कर चार वायु में दौड़ रही थीं। उसके अन्तस्तल में भी रह रह कर एक अज्ञात लहर सी दौड़ पड़ती थी। अपनी उस चंचल भावना का रहस्य उसे मालूम न था, पर उसके हृदय में वही सब से वेगवती थी, उसमें एक तीव्रता और व्याकुलता मिली थी । कला के मन का संसार केवल थोड़ी-सी किशोर स्मृतियों का बना था । उसके बाबा का मधुर व्यवहार, मा का लाड़-प्यार, तीर्थ यात्रियों के कुछ क्षीणसंस्मरण, आस-पास के कुछ पेड़, फुलवाड़ी के फूल-पौधे, कुछ चिड़ियों की बोलियाँ, काली-धौली गाय, मुन्नी बछिया और उसका प्यारा हिरनौटा कानू । इन्हीं के सम्बन्ध की कुछ मधुर बातें, कुछ आकार-प्रकार, कुछ रूप-रङ्ग, कुछ वार्तालाप, कुछ सुखद- दुखद भावनायें उसके भीतर बार-बार घूम-फिर कर उदय और अस्त होती रहती थीं । पर पिछली साँप वाली घटना के बाद उसके अन्तःकरण में एक अज्ञात भय, अननुभूत आकुलता उठती रहती थी। जैसे उस भयंकर सर्प ने उसके भीतर घुसकर एक अचिन्त्य, सुप्त आवेश को जाग्रत कर दिया हो, चिर-विस्मृति के आवरण को चीर कर एक अवश-प्रवृत्ति के लिए हृदय में बिल बना दिया हो ।
बन्नू को उसने शायद और भी कई बार संयोगवश देखा था। पर उस दिन का उसका विजय-दीप्त आनन, बलिष्ट, सुगठित शरीर और सर्वोपरि उसके निर्भीक अन्तःकरण की छाप कला के कोमल, भीरु हृदय में अंकित हो गई थी। उसके अन्तः स्तल की समस्त स्मृतियों में उस दिन की स्मृति जैसे सबसे प्रधान, सबसे स्पष्ट और सबसे अधिक अपनी बन गई थी । उस स्मृति की छाया सबसे मनोरम रूप धर कर उसके ध्यान को बरबस अपनी ओर आकर्षित कर लेती थी ।
कानू ने दौड़ते हुए आकर अपनी सखी को मानो एक ही छलाँग में भीतर के संसार से बाहर के संसार में लाकर आसीन कर दिया । अरुई के कोमल अंकुरों के समान अपने छोटे-छोटे नए सींघों से वह कला के पैर सहलाने लगा। अपने प्यारे साथी को अपने ही पास पा कर कला ने मन्त्रमुग्ध की तरह हाथ की माला उसके गले में डाल कर उसे छाती से चिपका लिया। कानू उस प्यार की अतिशयता के कारण घबड़ा उठा ।
फूलों के लिए देर तक लड़की की प्रतीक्षा करने के बाद कामना उसकी खोज में जब फुलवाड़ी के पास पहुँची तो उसके मन से कन्या के इस आवेशपूर्ण एकान्त-मिलन का मर्म छिपा न रहा। एक अन्त: प्रेरणा ने उसके भीतर चुपचाप लड़की की अज्ञात मनोदशा का रहस्य खोल दिया । कामना ने गहरी साँस ली, उसका हृदय लड़की के प्रति ममता से भर गया । वह वहीं से उलटे पाँव लौट गई। राह में कुछ फूल बीन कर उसने आकुल हृदय से ठाकुर जी पर चढ़ाए और देर तक उन्हें भक्ति पूर्वक प्रणाम करती रही ।
कामना ने दूसरे दिन अवकाश ढूँढ कर दीनानाथ से कला के विवाह की चर्चा की । वृद्ध को यद्यपि स्वयं इसकी चिन्ता थी पर उसने कामना को धीरज देने के लिए संयोग एवं नियत घड़ी के उपस्थित होने की प्रतीक्षा करने को कहा । 'विवाहं जन्म- मरणं' पर उसका विश्वास था ।
( ७ )
वसन्त के बाद निदाघ चला गया, वर्षा ऋतु भी आधी से अधिक बीत गई है । मौलसिरी, गिरगिट्टी एवं करौंदे की मादक सुगन्ध से बरसात का वाष्पाकुल वायु और भी अधीर हो उठा है। पेड़ की डाल पर बैठा पपीहा बार-बार मर्मभेदी स्वर में पूछ रहा है - पी कहाँ ? साँझ का सुहावना समय है, वृक्षों के अन्तराल से अस्तमित सूर्य की किरणों ने बाग में सोने का जाल बिछा दिया है । अपने निःसंग, एकाकी जीवन के साथी कानू की खोज में इधर-उधर घूमकर कला अन्त में पपीहे की हृदय स्पर्शी पुकार से विकल हो हरसिंगार के पेड़ के नीचे खड़ी, डाली का सहारा लिए, मानो उस विधुर, अनुभवशील पक्षी के प्रश्न का उत्तर सोचने में तल्लीन है। वह पक्षी जैसे उसी के अन्तः स्तल में छिपी हुई उसकी अज्ञात, गूढ़, अजेय आकांक्षा है। उसका मन चुपचाप रेउती के कच्चे पुल को पार कर कान्तार- वन में पहुँच गया है । और एक स्वस्थ, सुन्दर, तरुण मूर्ति अपने आप उसके हृदय में उदय होकर उस पक्षी के प्रश्न का उत्तर बन जा रही है। इस बीच उसका कई बार उस मूर्ति से साक्षात् हो चुका है, फिर भी वह उसकी गुप्त मोहिनी विद्या का मर्म नहीं जान सकी है। अपने हृदय की इस सब से प्रबल, सब से उन्मादक प्रवृत्ति की इंगित को समझने में वह जैसे असमर्थ है।
कला धानी रंग की धोती पहने है । दौड़ने से उसका आँचल सरक गया है, जूड़ा खुलकर सावन की घनी नील मेघमाला की तरह वक्ष और कटि प्रदेश में फैल गया है। पपीहे की पुकार से चंचल हो उसने हरसिंगार की डालों को हिलाकर ढेर-ढेर फूल अपने ऊपर बरसा लिए हैं। फूलों की मेंहदी लगी हथेलियाँ उसके कोमल करतलों से तुलना नहीं पा सकतीं, पर उनकी मादक सौरभ से उसके भावोच्छ्वासों का सादृश्य है । हरसिंगार के पुष्प भर-भर कर उसके केशों, कन्धों, उरोजों और पैरों के नीचे बिखर गए हैं, वह मानो पावस की देवी है ।
अपनी भावनाओं के उद्रेक में तल्लीन हो कला भूल गई कि वह कानू की खोज में निकली है। उसका साथी तब तक भटकता हुआ वन में पहुँच गया था। जैसे वह भीतर ही भीतर समझता हो कि उसकी प्यारी सखी को वास्तव में किसकी खोज है । बन्नू उस समय वन और मिट्टी को भीनी गंध से भरे पावस की सन्ध्या के भारी विषाद को मिटाने के लिए पुल के पास खुली जगह में घूम रहा था । सहसा कानू को देखकर उसका उद्विग्न हृदय जैसे उस हिरन के बच्चे से भी अधिक चपल हो उठा । उस पावस के अवसाद में बन्नू का अपना अवसाद भी मिला हुआ था । उसका जीवन कुछ समय से वन की आत्मा के वृन्त से जंगली पुल की तरह विच्छिन्न हो चुका था। जिस त्याग, विराग एवं अनासक्ति की सार्थकता केवल भोग की रागात्मक प्रवृत्तियों से सामंजस्य प्राप्त करने में हो सकती है, अपने देश की संस्कृति के मूल में पैठे हुए उस निष्काम त्याग को जीवन का निरपेक्ष सत्य मान कर, उसकी भित्ति पर इन्द्रिय - निग्रह के नियमों से निर्मित बन्नू का अब तक का जीवन जैसे सर्वभूतों में व्याप्त नैसर्गिक प्रवृत्तियों से बनी हुई, प्राणियों के सहजात संस्कारों से सँवारी हुई एक सरल बालिका के अस्तित्व के आघात से चूर्ण-चूर्ण हो गया था । भाव ने शून्य पर, कला ने प्राकृत पर विजय पाई थी । अपने और वन-देवता के बीच अज्ञात रूप से आ जाने वाली उस देवी के चरणों में वह उस छिन्नपुष्प को सदैव के लिए समर्पित कर कृतार्थ हो जाना चाहता था ।
बन्नू जानता था कि कानू किसका लाड़ला है । जब उस मृग-छौने ने अपनी भीत चकित दृष्टि से उसकी ओर देखा तब बन्नू के अभ्यन्तर में जिस दूसरी ही स्तिमित, विस्मित दृष्टि ने उदित होकर उसका ध्यान बलपूर्वक अपनी ओर खींच लिया वही जैसे वास्तविक दृष्टि थी, यह दृष्टि उसकी उपमा, दूतिका, छाया थी । कानू के शरीर पर साँझ की स्वर्णाभा पड़ रही थी । एक बार ऐसे ही तो मायावी मृग से एक दानव का स्वरूप प्रकट हुआ था, पर इस बार इस चकित चितवन, चञ्चल ग्रीवा- भंगी, सुकुमार कृश अंगोंवाले मृग- शावक से जिस दिव्य सौन्दर्य मूर्ति का आविर्भाव हुआ वह दानवी नहीं थी, मानवी भी न थी । वह स्वर्ग की देवी थी कि पंचवटी की पुण्य-स्मृति इसे समझने में बन्नू को देर न लगी ।
उसके जड़ीभूत सशक्त टाँगों में इस छोटे से छौने ने अपनी छलांगों का वेग भर दिया । बन्नू ने उसे पुचकार कर गोद में -ले लिया, उसके पाँव अपने आप रेउती के पुल के उस पार को बढ़ने लगे । उसे पहुँचाने के बहाने मानो अपनी चंचल अबोध लालसा को, उस उद्धत हिरनौटे के स्वरूप में, अपनी देवी को भेंट करने के लिए वह धीरे धीरे वास के अन्दर पहुँच गया ।
मौलसिरी की आड़ से उसने देखा कि कला पास ही हर-सिंगार के पेड़ के नीचे खड़ी है। उसका हृदय किसी अज्ञात कारणवश वेग से धड़कने लगा, वह वहीं पर खड़ा रह गया । अभी-अभी उदित हुए, लालिमा से पूर्ण चंद्रमा की तरह कला का मुख डाली के सहारे हथेली पर रक्खा हुआ था । पावस सन्ध्या के कोमल नील अँधियाले की तरह फैले हुए उसके सघन कुन्तलों में हरसिंगार के फूल छोटे-छोटे तारों के समान हँस रहे थे । बन्नू कला के इस समय के अपूर्व सौन्दर्य को मुग्ध, अतृप्त दृष्टि से देखता रह गया । वह आत्मा-विस्मृत की तरह, हिरन के बच्चे को छाती से चिपकाए, चुपचाप कब कला के पास पहुँच गया उसे यह स्वयं नहीं मालूम हो सका । कला को भी उसके आने का पता न चला । बन्नू एकटक उसके मुख की ओर देख रहा था, कला चुपचाप सिर झुकाए ध्यान में मग्न थी ।
बाग़ से घर को लौटते हुए दीनानाथ ने आम के पेड़ों की अन्तराल से जब यह दृश्य देखा तो वृद्ध की आँखों में एक आनन्द नाचने लगा । उसने पीछे से आती हुई कामना को संकेत कर धीरे से कहा- 'तुम्हारी लड़की के लिए वर मिल गया है ।' कामना इस अपूर्व मिलन एवं चिर-इच्छित समाचार को अभिनय रूप से देख-सुन कर अवाक् रह गई । उसकी आँखों से हर्ष के आँसू टप्-टप् टपक पड़े ।
कानू अधिक देर तक इस मौन व्यापार का साक्षी न रह सका। वह चंचल पशु यकायक बन्नू की गोद से कूद कर कला के सामने खड़ा हो गया, और उसकी ओर विजय एवं उल्लास की दृष्टि से देखने लगा । कला भी जैसे उसके साथ ही स्वर्ग से पृथ्वी पर आ पड़ी। अपने ध्यान के स्वर्ग के देवता को अपने सामने साक्षात् खड़ा देख कर वह सिर से पाँव तक लज्जा और भय के ऊष्ण- शीतल झकोरों से लाल हो गई। बन्नू की मुग्ध - दृष्टि उसकी अपनी दृष्टि बनकर जैसे उसे देखने लगी। वह क्षण भर के लिए अपने में समा गई । हरसिंगार के पेड़ की तरह जैसे वह भी पृथ्वी में गड़ गई हो । आज उसे पहली बार जैसे अपने सौन्दर्य और यौवन की अनुभूति हुई ।
सोलह वसन्त और सोलह शरद अब उसके जीवन में प्रवेश कर चुके थे । वसन्त ने उसके अंगों को सौन्दर्य, विकास और सौकुमार्य प्रदान किया था। शरद ने उसके स्वभाव को निर्मलता, स्निग्धता एवं पवित्रता दी थी। आकाश ने उसकी आँखों में नीलिमा, गुलाब ने गालों में लालिमा, पक्षियों ने वाणी में कलरव, पल्लवों ने अधरों में रंग, फूलों ने साँसों में सौरभ, शशि-किरणों ने दाँतों में मधुर हास भर दिया था। उसके कदंब के गेंद से उठे उरोज जुही की दो कोमल ढेरियाँ थे । उसकी बाँहों को लताओं ने आलिङ्गन की अभिलाषा से, अँगुलियों को पीपल ने रूपहली सुनहली कलियों से, जंघाओं को कदली ने अपने पीन लावण्य से निर्माण किया था । उसकी चंचल गति रेउती की लहरियों का नृत्य-संगीत थी । कला प्रकृति की सजीव कला थी ।
वृक्षों के झुरमुट से कामना को आते देख कर बन्नू चुपचाप वहाँ से चला गया । मा ने पास आकर लड़की को छाती से लगा लिया और उसे अपने साथ घर लिवा ले गई।
( ८ )
कुछ समय तक दीनानाथ की बातों पर विचार करने पर एकलिंग स्वामी ने वृद्ध का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। दीनानाथ के सक्रिय जीवन के सत्य ने विजय पाई । एकलिंग के पुजारियों के आजन्म अविवाहित जीवन व्यतीत करने की प्रथा बदल गई । वन के शिव को घर की पार्वती मिल गई । त्याग और भोग, प्रवृत्ति और निवृत्ति परस्पर आलिंगन पाश में बँध गए ।
निष्क्रिय ज्ञान द्वारा आत्मा को, व्यक्ति को, प्रकृति के बन्धनों से मुक्त करने के बदले सक्रिय ज्ञान के सदुपयोग से मानवात्मा के लिए प्राकृतिक सत्यों के बन्धनों को सुव्यवस्थित, सार्वलौकिक स्वरूप देकर मनुष्य जीवन की सामूहिक मुक्ति के लिए उद्योग करना कहीं श्रेयस्कर है - वृद्ध एकलिंग स्वामी के मन में यह भाव स्पष्ट हो गया था ।
विवाह के बाद वर-वधू को आशीर्वाद देते हुए दीनानाथ ने कहा - 'एक दिन यह सारा वन हरे-भरे, लहलहे फल-फूलों से लदे हुए बाग़ में बदल जाय, मनुष्य के बाहुओं का श्रम और प्रकृति की शक्तियाँ वर-वधू की तरह मिल कर संसार के पारिवारिक सुख और शान्ति के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहें - यही मेरी एकान्त कामना है ।
एकलिंग स्वामी ने प्रसन्न होकर कहा - 'तथास्तु ।'