बाँका ज़मींदार (कहानी) : मुंशी प्रेमचंद

Banka Zamindar (Hindi Story) : Munshi Premchand

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ठाकुर प्रद्युम्न सिंह एक प्रतिष्ठित वकील थे और अपने हौसले और हिम्मत के लिए सारे शहर में मश्हूर। उनके दोस्त अकसर कहा करते कि अदालत की इजलास में उनके मर्दाना कमाल ज्यादा साफ तरीके पर जाहिर हुआ करते हैं। इसी की बरकत थी कि बाबजूद इसके कि उन्हें शायद ही कभी किसी मामले में सुर्खरूई हासिल होती थी, उनके मुवक्किलों की भक्ति-भावना में जरा भर भी फर्क नहीं आता था। इन्साफ की कुर्सी पर बैठनेवाले बड़े लोगों की निडर आजादी पर किसी प्रकार का सन्देह करना पाप ही क्यों न हो, मगर शहर के जानकार लोग ऐलानिया कहते थे कि ठाकुर साहब जब किसी मामले में जिद पकड़ लेते हैं तो उनका बदला हुआ तेवर और तमतमाया हुआ चेहरा इन्साफ को भी अपने वश में कर लेता है। एक से ज्यादा मौकों पर उनके जीवट और जिगर ने वे चमत्कार कर दिखाये थे जहाँ कि इन्साफ और कानून के जवाब दे दिया। इसके साथ ही ठाकुर साहब मर्दाना गुणों के सच्चे जौहरी थे। अगर मुवक्किल को कुश्ती में कुछ पैठ हो तो यह जरूरी नहीं था कि वह उनकी सेवाएँ प्राप्त करने के लिए रुपया-पैसा दे। इसीलिए उनके यहाँ शहर के पहलवानों और फेकैतों का हमेशा जमघट रहता था और यही वह जबर्दस्त प्रभावशाली और व्यावहारिक कानूनी बारीकी थी जिसकी काट करने में इन्साफ को भी आगा-पीछा सोचना पड़ता। वे गर्व और सच्चे गर्व की दिल से कदर करते थे। उनके बेतकल्लुफ घर की ड्योढ़ियॉँ बहुत ऊँची थी वहाँ झुकने की जरुरत न थी। इन्सान खूब सिर उठाकर जा सकता था। यह एक विश्वस्त कहानी है कि एक बार उन्होंने किसी मुकदमें को बावजूद बहुत विनती और आग्रह के हाथ में लेने से इनकार किया। मुवक्किल कोई अक्खड़ देहाती था। उसने जब आरजू-मिन्नत से काम निकलते न देखा तो हिम्मत से काम लिया। वकील साहब कुर्सी से नीचे गिर पड़े और बिफरे हुए देहाती को सीने से लगा लिया।

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धन और धरती के बीच आदिकाल से एक आकर्षण है। धरती में साधारण गुरुत्वाकर्षण के अलावा एक खास ताकत होती है, जो हमेशा धन को अपनी तरफ खींचती है। सूद और तमस्सुक और व्यापार, यह दौलत की बीच की मंजिलें हैं, जमीन उसकी आखिरी मंजिल है। ठाकुर प्रद्युम्न सिंह की निगाहें बहुत अर्से से एक बहुत उपजाऊ मौजे पर लगी हुई थीं। लेकिन बैंक का एकाउण्ट कभी हौसले को कदम नहीं बढ़ाने देता था। यहाँ तक कि एक दफा उसी मौजे का जमींदार एक कत्ल के मामले में पकड़ा गया। उसने सिर्फ रस्मों-रिवाज के माफिक एक आसामी को दिन भर धूप और जेठ की जलती हुई धूप में खड़ा रखा था लेकिन अगर सूरज की गर्मी या जिस्म की कमजोरी या प्यास की तेजी उसकी जानलेवा बन जाय तो इसमें जमींदार की क्या खता थी। यह शहर के वकीलों की ज्यादती थी कि कोई उसकी हिमायत पर आमदा न हुआ या मुमकिन है जमींदार के हाथ की तंगी को भी उसमें कुछ दखल हो। बहरहाल, उसने चारों तरफ से ठोकरें खाकर ठाकुर साहब की शरण ली। मुकदमा निहायत कमजोर था। पुलिस ने अपनी पूरी ताकत से धावा किया था और उसकी कुमक के लिए शासन और अधिकार के ताजे से ताजे रिसाले तैयार थे। ठाकुर साहब अनुभवी सँपेरों की तरह साँप के बिल में हाथ नहीं डालते थे लेकिन इस मौके पर उन्हें सूखी मसलहत के मुकाबले में अपनी मुरादों का पल्ला झुकता हुआ नजर आया। जमींदार को इत्मीनान दिलाया और वकालतनामा दाखिल कर दिया और फिर इस तरह जी-जान से मुकदमे की पैरवी की, कुछ इस तरह जान लड़ायी कि मैदान से जीत का डंका बजाते हुए निकले। जनता की जबान इस जीत का सेहरा उनकी कानूनी पैठ के सर नहीं, उनके मर्दाना गुणों के सर रखती है क्योंकि उन दिनों वकील साहब नजीरों और दफाओं की हिम्मततोड़ पेचीदगियों में उलझने के बजाय दंगल की उत्साहवर्द्धक दिलचस्पियों में ज्यादा लगे रहते थे लेकिन यह बात जरा भी यकीन करने के काबिल नहीं मालूम होती। ज्यादा जानकान लोग कहते हैं कि अनार के बमगोलों और सेब और अंगूर की गोलियों ने पुलिस के, इस पुरशोर हमले को तोड़कर बिखेर दिया गरज कि मैदान हमारे ठाकुर साहब के हाथ रहा। जमींदार की जान बची। मौत के मुँह से निकल आया उनके पैरों पर गिर पड़ा और बोला—ठाकुर साहब, मैं इस काबिल तो नहीं कि आपकी खिदमत कर सकूँ। ईश्वर ने आपको बहुत कुछ दिया है लेकिन कृष्ण भगवान् ने गरीब सुदामा के सूखे चावल खुशी से कबूल किए थे। मेरे पास बुजुर्गों की यादगार छोटा-सा वीरान मौजा है उसे आपकी भेंट करता हूँ। आपके लायक तो नहीं लेकिन मेरी खातिर इसे कबूल कीजिए। मैं आपका जस कभी न भूलूँगा। वकील साहब फड़क उठे। दो-चार बार निस्पृह बैरागियों की तरह इन्कार करने के बाद इस भेंट को कबूल कर लिया। मुंह-मॉँगी मुराद मिली।

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इस मौजे के लोग बेहद सरदश और झगड़ालू थे, जिन्हें इस बात का गर्व था कि कभी कोई जमींदार उन्हें बस में नहीं कर सका। लेकिन जब उन्होंने अपनी बागडोर प्रद्युम्न सिंह के हाथों में जाते देखी तो चौकड़ियॉँ भूल गये, एक बदलगाम घोड़े की तरह सवार को कनखियों से देखा, कनौतियॉँ खड़ी कीं, कुछ हिनहिनाये और तब गर्दनें झुका दीं। समझ गये कि यह जिगर का मजबूत आसन का पक्का शहसवार है।
असाढ़ का महीना था। किसान गहने और बर्तन बेच-बेचकर बैलों की तलाश में दर-ब-दर फिरते थे। गाँवों की बूढ़ी बनियाइन नवेली दुलहन बनी हुई थी और फाका करने वाला कुम्हार बरात का दूल्हा था मजदूर मौके के बादशाह बने हुए थे। टपकती हुई छतें उनकी कृपादृष्टि की राह देख रही थी। घास से ढके हुए खेत उनके ममतापूर्ण हाथों के मुहताज। जिसे चाहते थे बसाते थे, जिस चाहते थे उजाड़ते थे। आम और जामुन के पेड़ों पर आठों पहर निशानेबाज मनचले लड़कों का धावा रहता था। बूढ़े गर्दनों में झोलियॉँ लटकाये पहर रात से टपके की खोज में घूमते नजर आते थे जो बुढ़ापे के बावजूद भोजन और जाप से ज्यादा दिलचस्प और मज़ेदार काम था। नाले पुरशोर, नदियॉँ अथाह, चारों तरफ हरियाली और खुशहाली। इन्हीं दिनों ठाकुर साहब मौत की तरह, जिसके आने की पहले से कोई सूचना नहीं होती, गाँव में आये। एक सजी हुई बरात थी, हाथी और घोड़े, और साज-सामान, लठैतों का एक रिसाला-सा था। गाँव ने यह तूमतड़ाक और आन-बान देखी तो रहे-सहे होश उड़ गये। घोड़े खेतों में ऐंड़ने लगे और गुंडे गलियों में। शाम के वक्त ठाकुर साहब ने अपने असामियों को बुलाया और बुलन्द आवाज में बोले—मैंने सुना है कि तुम लोग सरकश हो और मेरी सरकशी का हाल तुमको मालूम ही है। अब ईंट और पत्थर का सामना है। बोलो क्या मंजूरहै?
एक बूढ़े किसान ने बेद के पेड़ की तरह काँपते हुए जवाब दिया—सरकार, आप हमारे राजा हैं। हम आपसे ऐंठकर कहाँ जायेंगे।
ठाकुर साहब तेवर बदलकर बोले—तो तुम लोग सब के सब कल सुबह तक तीन साल का पेशगी लगान दाखिल कर दो और खूब ध्यान देकर सुन लो कि मैं हुक्म को दुहराना नहीं जानता वर्ना मैं गाँव में हल चलवा दूँगा और घरों को खेत बना दूँगा।
सारे गाँव में कोहराम मच गया। तीन साल का पेशगी लगान और इतनी जल्दी जुटाना असम्भव था। रात इसी हैस-बैस में कटी। अभी तक आरजू-मिन्नत के बिजली जैसे असर की उम्मीद बाकी थी। सुबह बड़ी इन्तजार के बाद आई तो प्रलय बनकर आई। एक तरफ तो जोर जबर्दस्ती और अन्याय-अत्याचार का बाजार गर्म था, दूसरी तरफ रोती हुई आँखों, सर्द आहों और चीख-पुकार का, जिन्हें सुननेवाला कोई न था। गरीब किसान अपनी-अपनी पोटलियॉँ लादे, बेकस अन्दाज से ताकते, ऑंखें में याचना भरे बीवी-बच्चों को साथ लिये रोते-बिलखते किसी अज्ञात देश को चले जाते थे। शाम हुई तो गाँव उजड़ गया।

4
यह खबर बहुत जल्द चारों तरफ फैल गयी। लोगों को ठाकुर साहब के इन्सान होने पर सन्देह होने लगा। गाँव वीरान पड़ा हुआ था। कौन उसे आबाद करे। किसके बच्चे उसकी गलियों में खेलें। किसकी औरतें कुओं पर पानी भरें। राह चलते मुसाफिर तबाही का यह दृश्य आँखों से देखते और अफसोस करते। नहीं मालूम उन वीराने देश में पड़े हुए गरीबों पर क्या गुजरी। आह, जो मेहनत की कमाई खाते थे और सर उठाकर चलते थे, अब दूसरों की गुलामी कर रहे हैं।
इस तरह पूरा साल गुजर गया। तब गाँव के नसीब जागे। जमीन उपजाऊ थी। मकान मौजूद। धीरे-धीरे जुल्म की यह दास्तान फीकी पड़ गयी। मनचले किसानों की लोभ-दृष्टि उस पर पड़ने लगी। बला से जमींदार जालिम हैं, बेरहम हैं, सख्तियॉँ करता है, हम उसे मना लेंगे। तीन साल की पेशगी लगान का क्या जिक्र वह जैसे खुश होगा, खुश करेंगे। उसकी गालियों को दुआ समझेंगे, उसके जूते अपने सर-आँखों पर रक्खेंगे। वह राजा हैं, हम उनके चाकर हैं। जिन्दगी की कशमकश और लड़ाई में आत्मसम्मान को निबाहना कैसा मुश्किल काम है! दूसरा अषाढ़ आया तो वह गाँव फिर बगीचा बना हुआ था। बच्चे फिर अपने दरवाजों पर घरौंदे बनाने लगे, मर्दों के बुलन्द आवाज के गाने खेतों में सुनाई दिये व औरतों के सुहाने गीत चक्कियों पर। जिन्दगी के मोहक दृश्य दिखाईं देने लगे।
साल भर गुजरा। जब रबी की दूसरी फसल आयी तो सुनहरी बालों को खेतों में लहराते देखकर किसानों के दिल लहराने लगते थे। साल भर परती जमीन ने सोना उगल दिया थां औरतें खुश थीं कि अब के नये-नये गहने बनवायेंगे, मर्द खुश थे कि अच्छे-अच्छे बैल मोल लेंगे और दारोगा जी की खुशी का तो अन्त ही न था। ठाकुर साहब ने यह खुशखबरी सुनी तो देहात की सैर को चले। वही शानशौकत, वही लठैतों का रिसाला, वही गुंडों की फौज! गाँववालों ने उनके आदर सत्कार की तैयारियॉँ करनी शुरू कीं। मोटे-ताजे बकरों का एक पूरा गला चौपाल के दरवाज पर बाँधां लकड़ी के अम्बार लगा दिये, दूध के हौज भर दिये। ठाकुर साहब गाँव की मेड़ पर पहुँचे तो पूरे एक सौ आदमी उनकी अगवानी के लिए हाथ बाँधे खड़े थे। लेकिन पहली चीज जिसकी फरमाइश हुई वह लेमनेड और बर्फ थी। असामियों के हाथों के तोते उड़ गये। यह पानी की बोतल इस वक्त वहाँ अम़ृत के दामों बिक सकती थी। मगर बेचारे देहाती अमीरों के चोचले क्या जानें। मुजरिमों की तरह सिर झुकाये भौंचक खड़े थे। चेहरे पर झेंप और शर्म थी। दिलों में धड़कन और भय। ईश्वर! बात बिगड़ गई है, अब तुम्हीं सम्हालो।’
बर्फ की ठण्डक न मिली तो ठाकुर साहब की प्यास की आग और भी तेज हुई, गुस्सा भड़क उठा, कड़ककर बोले—मैं शैतान नहीं हूँ कि बकरों के खून से प्यास बुझाऊँ, मुझे ठंडा बर्फ चाहिए और यह प्यास तुम्हारे और तुम्हारी औरतों के आँसुओं से ही बुझेगी। एहसानफरामोश, नीच मैंने तुम्हें जमीन दी, मकान दिये और हैसियत दी और इसके बदले में तुम ये दे रहे हो कि मैं खड़ा पानी को तरसता हूँ! तुम इस काबिल नहीं हो कि तुम्हारे साथ कोई रियायत की जाय। कल शाम तक मैं तुममें से किसी आदमी की सूरत इस गाँव में न देखूँ वर्ना प्रलय हो जायेगा। तुम जानते हो कि मुझे अपना हुक्म दुहराने की आदत नहीं है। रात तुम्हारी है, जो कुछ ले जा सको, ले जाओ। लेकिन शाम को मैं किसी की मनहूस सूरत न देखूँ। यह रोना और चीखना फिजू है, मेरा दिल पत्थर का है और कलेजा लोहे का, आँसुओं से नहीं पसीजता।
और ऐसा ही हुआ। दूसरी रात को सारे गाँव कोई दिया जलानेवाला तक न रहा। फूलता-फलता गाँव भूत का डेरा बन गया।

5
बहुत दिनों तक यह घटना आस-पास के मनचले किस्सागोयों के लिए दिलचस्पियों का खजाना बनी रही। एक साहब ने उस पर अपनी कलम। भी चलायी। बेचारे ठाकुर साहब ऐसे बदनाम हुए कि घर से निकलना मुश्किल हो गया। बहुत कोशिश की गाँव आबाद हो जाय लेकिन किसकी जान भारी थी कि इस अंधेर नगरी में कदम रखता जहाँ मोटापे की सजा फॉँसी थी। कुछ मजदूर-पेशा लोग किस्मत का जुआ खेलने आये मगर कुछ महीनों से ज्यादा न जम सके। उजड़ा हुआ गाँव खोया हुआ एतबार है जो बहुत मुश्किल से जमता है। आखिर जब कोई बस न चला तो ठाकुर साहब ने मजबूर होकर आराजी माफ करने का काम आम ऐलान कर दिया लेकिन इस रियासत से रही-सही साख भी खो दी। इस तरह तीन साल गुजर जाने के बाद एक रोज वहाँ बंजारों का काफिला आया। शाम हो गयी थी और पूरब तरफ से अंधेरे की लहर बढ़ती चली आती थी। बंजारों ने देखा तो सारा गाँव वीरान पड़ा हुआ है।, जहाँ आदमियों के घरों में गिद्ध और गीदड़ रहते थे। इस तिलिस्म का भेद समझ में न आया। मकान मौजूद हैं, जमीन उपजाऊ है, हरियाली से लहराते हुए खेत हैं और इन्सान का नाम नहीं! कोई और गाँव पास न था वहीं पड़ाव डाल दिया। जब सुबह हुई, बैलों के गलों की घंटियों ने फिर अपना रजत-संगीत अलापना शुरू किया और काफिला गाँव से कुछ दूर निकल गया तो एक चरवाहे ने जोर-जबर्दस्ती की यह लम्बी कहानी उन्हें सुनायी। दुनिया भर में घूमते फिरने ने उन्हें मुश्किलों का आदी बना दिया था। आपस में कुद मशविरा किया और फैसला हो गया। ठाकुर साहब की ड्योढ़ी पर जा पहुँचे और नजराने दाखिल कर दिये। गाँव फिर आबाद हुआ। यह बंजारे बला के चीमड़, लोहे की-सी हिम्मत और इरादे के लोग थे जिनके आते ही गाँव में लक्ष्मी का राज हो गया। फिर घरों में से धुएं के बादल उठे, कोल्हाड़ों ने फिर धुएँ ओर भाप की चादरें पहनीं, तुलसी के चबूतरे पर फिर से चिराग जले। रात को रंगीन तबियत नौजवानों की अलापें सुनायी देने लगीं। चरागाहों में फिर मवेशियों के गल्ले दिखाई दिये और किसी पेड़ के नीचे बैठे हुए चरवाहे की बाँसुरी की मद्धिम और रसीली आवाज दर्द और असर में डूबी हुई इस प्राकृतिक दृश्य में जादू का आकर्षण पैदा करने लगी।
भादों का महीना था। कपास के फूलों की सुर्ख और सफेद चिकनाई, तिल की ऊदी बहार और सन का शोख पीलापन अपने रूप का जलवा दिखाता था। किसानों की मड़ैया और छप्परों पर भी फल-फूल की रंगीनी दिखायी देती थी। उस पर पानी की हलकी-हलकी फुहारें प्रकृति के सौंदर्य के लिए सिंगार करनेवाली का कमा दे रही थीं। जिस तरह साधुओं के दिल सत्य की ज्योति से भरे होते हैं, उसी तरह सागर और तालाब साफ-शफ़्फ़ाफ़ पानी से भरे थे। शायद राजा इन्द्र कैलाश की तरावट भरी ऊँचाइयों से उतरकर अब मैदानों में आनेवाले थे। इसीलिए प्रकृति ने सौन्दर्य और सिद्धियों और आशाओं के भी भण्डार खोल दिये थे। वकील साहब को भी सैर की तमन्ना ने गुदगुदाया। हमेशा की तरह अपने रईंसाना ठाट-बाट के साथ गाँव में आ पहुँचे। देखा तो संतोष और निश्चिन्तता के वरदान चारों तरफ स्पष्ट थे।

6
गाँववालों ने उनके शुभागमन का समाचार सुना, सलाम को हाजिर हुए। वकील साहब ने उन्हें अच्छे-अच्छे कपड़े पहने, स्वाभिमान के साथ कदम मिलाते हुए देखा। उनसे बहुत मुस्कराकर मिले। फसल का हाल-चाल पूछा। बूढ़े हरदास ने एक ऐसे लहजे में जिससे पूरी जिम्मेदारी और चौधरापे की शान टपकती थी, जवाब दिया—हुजूर के कदमों की बरकत से सब चैन है। किसी तरह की तकलीफ नहीं आपकी दी हुई नेमत खाते हैं और आपका जस गाते हैं। हमारे राजा और सरकार जो कुछ हैं, आप हैं और आपके लिए जान तक हाजिर है।
ठाकुर साहब ने तेबर बदलकर कहा—मैं अपनी खुशामद सुनने का आदी नहीं हूँ।
बूढ़े हरदास के माथे पर बल पड़े, अभिमान को चोट लगी। बोला—मुझे भी खुशामद करने की आदत नहीं है।
ठाकुर साहब ने ऐंठकर जवाब दिया—तुम्हें रईसों से बात करने की तमीज नहीं। ताकत की तरह तुम्हारी अक्ल भी बुढ़ापे की भेंट चढ़ गई।
हरदास ने अपने साथियों की तरफ देखा। गुस्से की गर्मी से सब की आँख फैली हुई और धीरज की सर्दी से माथे सिकुड़े हुए थे। बोला—हम आपकी रैयत हैं लेकिन हमको अपनी आबरू प्यारी है और चाहे आप जमींदार को अपना सिर दे दें आबरू नहीं दे सकते।
हरदास के कई मनचले साथियों ने बुलन्द आवाज में ताईद की—आबरू जान के पीछे है।
ठाकुर साहब के गुस्से की आग भड़क उठी और चेहरा लाल हो गया, और जोर से बोले—तुम लोग जबान सम्हालकर बातें करो वर्ना जिस तरह गले में झोलियॉँ लटकाये आये थे उसी तरह निकाल दिये जाओगे। मैं प्रद्युम्न सिंह हूँ, जिसने तुम जैसे कितने ही हेकड़ों को इसी जगह कुचलवा डाला है। यह कहकर उन्होंने अपने रिसाले के सरदार अर्जुनसिंह को बुलाकर कहा—ठाकुर, अब इन चीटियों के पर निकल आये हैं, कल शाम तक इन लोगों से मेरा गाँव साफ हो जाए।
हरदास खड़ा हो गया। गुस्सा अब चिनगारी बनकर आँखों से निकल रहा था। बोला—हमने इस गाँव को छोड़ने के लिए नहीं बसाया है। जब तक जियेंगे इसी गाँव में रहेंगे, यहीं पैदा होंगे और यहीं मरेंगे। आप बड़े आदमी हैं और बड़ों की समझ भी बड़ी होती है। हम लोग अक्खड़ गंवार हैं। नाहक गरीबों की जान के पीछ मत पड़िए। खून-खराबा हो जायेगा। लेकिन आपको यही मंजूर है तो हमारी तरफ से आपके सिपाहियों को चुनौती है, जब चाहे दिल के अरमान निकाल लें।
इतना कहकर ठाकुर साहब को सलाम किया और चल दिया। उसके साथी गर्व के साथ अकड़ते हुए चले। अर्जुनसिंह ने उनके तेवर देखे। समझ गया कि यह लोहे के चने हैं लेकिन शोहदों का सरदार था, कुछ अपने नाम की लाज थी। दूसरे दिन शाम के वक्त जब रात और दिन में मुठभेड़ हो रही थी, इन दोनों जमातों का सामना हुआ। फिर वह धौल-धप्पा हुआ कि जमीन थर्रा गयी। जबानों ने मुंह के अन्दर वह मार्के दिखाये कि सूरज डर के मारे पश्छिम में जा छिपा। तब लाठियों ने सिर उठाया लेकिन इससे पहले कि वह डाक्टर साहब की दुआ और शुक्रिये की मुस्तहक हों अर्जुनसिंह ने समझदारी से काम लिया। ताहम उनके चन्द आदमियों के लिए गुड़ और हल्दी पीने का सामान हो चुका था।
वकील साहब ने अपनी फौज की यह बुरी हालतें देखीं, किसी के कपड़े फटे हुए, किसी के जिस्म पर गर्द जमी हुई, कोई हाँफते-हाँफते बेदम (खून बहुत कम नजर आया क्योंकि यह एक अनमोल चीज है और इसे डंडों की मार से बचा लिया गया) तो उन्होंने अर्जुनसिंह की पीठ ठोकी और उसकी बहादुरी और जॉँबाजी की खूब तारीफ की। रात को उनके सामने लड्डू और इमरतियों की ऐसी वर्षा हुई कि यह सब गर्द-गुबार धुल गया। सुबह को इस रिसाले ने ठंडे-ठंडे घर की राह ली और कसम खा गए कि अब भूलकर भी इस गाँव का रूख न करेंगे।
तब ठाकुर साहब ने गाँव के आदमियों को चौपाल में तलब किया। उनके इशारे की देर थी। सब लोग इकट्ठे हो गए। अख्तियार और हुकूमत अगर घमंड की मसनद से उतर आए तो दुश्मनों को भी दोस्त बना सकती है। जब सब आदमी आ गये तो ठाकुर साहब एक-एक करके उनसे बगलगीर हुए ओर बोले—मैं ईश्वर का बहु ऋणी हूँ कि मुझे गाँव के लिए जिन आदमियों की तलाश थी, वह लोग मिल गये। आपको मालूम है कि यह गाँव कई बार उजड़ा और कई बार बसा। उसका कारण यही था कि वे लोग मेरी कसौटी पर पूरे न उतरते थे। मैं उनका दुश्मन नहीं था लेकिन मेरी दिली आरजू यह थी कि इस गाँव में वे लोग आबाद हों जो जुल्म का मर्दों की तरह सामना करें, जो अपने अधिकारों और रिआयतों की मर्दों की तरह हिफाजत करें, जो हुकूमत के गुलाम न हों, जो रोब और अख्तियार की तेज निगाह देखकर बच्चों की तरह डर से सहम न जाऍं। मुझे इत्मीनान है कि बहुत नुकसान और शर्मिंदगी और बदनामी के बाद मेरी तमन्नाएँ पूरी हो गयीं। मुझे इत्मीनान है कि आप उल्टी हवाओं और ऊँची-ऊँची उठनेवाली लहरों का मुकाबला कामयाबी से करेंगे। मैं आज इस गाँव से अपना हाथ खींचता हूँ। आज से यह आपकी मिल्कियत है। आपही इसके जमींदार और मालिक हैं। ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है कि आप फलें-फूलें ओर सरसब्ज हों।
इन शब्दों ने दिलों पर जादू का काम किया। लोग स्वामिभक्ति के आवेश से मस्त हो-होकर ठाकुर साहब के पैरों से लिपट गये और कहने लगे—हम आपके, कदमों से जीते-जी जुदा न होंगे। आपका-सा कद्रदान और रिआया-परवर बुजुर्ग हम कहाँ पायेंगे। वीरों की भक्ति और सहनुभूति, वफादारी और एहसान का एक बड़ा दर्दनाक और असर पैदा करने वाला दृश्य आँखों के सामने पेश हो गया। लेकिन ठाकुर साहब अपने उदार निश्चय पर दृढ़ रहे और गो पचास साल से ज्यादा गुजर गये हैं। लेकिन उन्हीं बंजारों के वारिस अभी तक मौजा साहषगंज के माफीदार हैं। औरतें अभी तक ठाकुर प्रद्युम्न सिंह की पूजा और मन्नतें करती हैं और गो अब इस मौजे के कई नौजवान दौलत और हुकूमत की बुलंदी पर पहुँच गये हैं लेकिन गूढ़े और अक्खड़ हरदास के नाम पर अब भी गर्व करते हैं। और भादों सुदी एकादशी के दिन अभी उसी मुबारक फतेह की यादगार में जश्न मनाये जाते हैं।
(जमाना, अक्तूबर १९१३)

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