बणिये की तराजू : हरियाणवी लोक-कथा
Baniye Ki Taraju : Lok-Katha (Haryana)
एक था राजा, अब राजा था, तो दरबार होगा ही, सो राजा का दरबार था, दरबार में दरबारी थे। दरबारी मंत्री से लेकर चोबदार तक थे। सेनापति भी थे और कोषाध्यक्ष भी। अब आप कहेंगे कि हिसाब से तो राजा, राजा के बाद मंत्री फिर कोषाध्यक्ष, सेनापति, उसके बाद अन्य ओहदेदार तथा फिर चोबदार का नाम आना चाहिए, न कि कोषाध्यक्ष जैसे अहम व्यक्ति का नाम सबसे बाद में यानी चोबदार के भी बाद में आया। ये तो कोई सलीका नहीं हुआ। जनाब, मैं कोषाध्यक्ष के पद की तौहीन नहीं करना चाहता। इतनी तमीज, इतना सलीका मुझ में भी है कि किस का नाम पहले और किस का नाम बाद में आए? यह तो इस कहानी की मजबूरी की वजह से कोषाध्यक्ष का नाम सबसे बाद में लेना पड़ा। क्योंकि हमारी कहानी के नायक, सेठ धनीराम ही राजा के कोषाध्यक्ष थे। जाति के बणिये थे। इसलिए बड़े सुघड़ तथा चतुर थे। बल्कि यूँ कहें कि चालाकी की हद तक चतुर थे तो ठीक रहेगा। सेठ धनीराम के पास अकत धन था तथा धनाढ्य होने के साथ-साथ. धनीराम बात का भी धनी था। लोगों का कहना था कि धनीराम के पास राजा से भी ज्यादा धन था। शायद यह बात सच भी थी इसलिए धनीराम थोड़ा अकड़ में रहता था। राजा को उसका धन और उसकी अकड़ फूटी आँख न सुहाती थी।
एक दिन भरे दरबार में बातों-बात धनीराम के बड़बोले मुँह से निकल गया कि बणिये की तराजू चलती रहे तो वह भूखा नहीं मर सकता। राजा तो जैसे ताक में ही बैठा था, उसने बात पकड़ ली और कहने लगा “धनीराम! क्या तुम अपनी बात को सच सिद्ध कर सकते हो? धनीराम ने अकड़ कर कहा “हाँ महाराज! बणिये की तराजू चलती रहे तो वह भूखा मर ही नहीं सकता।
बस आनन फानन में, राजा ने हुक्म सुना दिया कि धनीराम को एक तराजू व बाट दे दिए जाएँ और वह घुड़साल में घोड़ों की लीद तोलता रहेगा। उसका परिवार भी घुड़साल में ही रहेगा तथा उसे कोई वेतन नहीं मिलेगा और उसे अपना पेट बिना तनख्वाह के, बिना उधार के भरना पड़ेगा। धनीराम ने शर्त मान ली। राजा ने सोचा था कि धनीराम कुछ दिनों में ही दुःखी होकर पाँव पडेगा, क्योंकि कोई भूखा कितने दिन रह सकता है? वह भी परिवार के साथ और फिर तो शर्त के मुताबिक धनीराम को आधी सम्पत्ति भी राजकोष में देनी पड़ेगी।
दस दिन बीते, बीस दिन बीते, राजा पता करवाता रहा कि धनीराम का क्या हाल है? पता लगता रहा कि धनी राम मस्ती में लीद तोलता है तथा परिवार भी सुख से खाना खाता है। जब उसका घुड़साल से बाहर निकलना बन्द था तो खाना कहाँ से आता था? राजा ताज्जुब में था, उसने जासूसों को काम सौंपा कि यह पता लगाएँ कि धनीराम को सब सामान कहाँ से मिलता है?
जासूसों ने पता लगाया कि धनीराम के लीद तोलने से घोड़ों से साईस असमंजस में पड़ गए थे कि यह क्या अनहोनी हो रही है? वे परेशान थे कि ऐसा न देखा, न सुना कि घोड़ों की लीद तोली जाए। धनीराम, हर रोज हर घोड़े की लीद तोलता और ब्यौरे को अपनी बही में लिख देता, साइसों में धनीराम के काम से खलबली मची हुई थी।
एक दिन हाथ जोड़ कर धनीराम से पूछ ही लिया कि “सेठ जी! आखिर इसका मतलब क्या है? सेठ जी ने मुस्कराते हुए कहा, “बच्चू इससे पता चलता है, कौन साईस घोड़े का कितना दाना हजम कर जाता है? बस फिर क्या था, सारे साईस धनीराम के पाँव पड़ गए तथा उसके व उसके परिवार के खाने-पीने, ऐशो-आराम की खबर रखने लगे।
राजा को धनीराम की चालाकी पर गुस्सा तो बहुत आया मगर उसने हार नहीं मानी। धनीराम का तबादला नदी के सुनसान किनारे पर कर दिया गया तथा एक कोस पर घेरा डाल दिया। जिससे कोई धनीराम तक कुछ ना पहुँचा सके। धनीराम को तराजू तथा बट्टे देकर पानी तोलते रहने को कहा। उसी तरह दस दिन बीते राजा ने पाया, धनीराम की मस्ती में कोई फर्क नहीं पड़ा। राजा ने जासूस भेजे तो पता लगा कि धनीराम के पानी तोलने से माल वाहक नाविकों में कौतूहल जगा, उन्हें पहले तो लगा कि कोई पागल है, परन्तु कौतूहल वश जब उन्होंने धनीराम से पूछा कि वह क्या कर रहा है?
तो धनीराम ने बतलाया कि वह राजाज्ञा से पानी तोलकर पता लगा रहा है कि कोई नौका निर्धारित वजन से ज्यादा माल ठोककर यात्रियों की जान-माल को मुसीबत में तो नहीं डाल रही? साथ ही राज कोष को सही-सही कर न देकर राज कोष को चूना तो नहीं लगा रहे?
बस फिर क्या था, जो भी नाविक अधिक भार लादे था। वह लगा धनीराम की खुशामद करने और धनीराम का काम चल निकला। राजा को मजबूर होकर धनीराम का लोहा मानना पड़ा।
लोक कथाएँ बरसों-सदियों का सफर कर जीवित रहती हैं। हम तक पहुँचती हूँ। ये मात्र चकलस, दिल बहलाने का साधन नहीं होती बल्कि उनके भीतर जीवन का गहरा मर्म छुपा होता है। अब आप पूछेगे कि धनीराम की कहानी में क्या मर्म छुपा था। तो जनाब कहानी कहती है कि अगर आदमी धैर्य न छोड़े और अपना काम बखूबी करता रहे तो कोई न कोई रास्ता निकल ही आता है।
(डॉ श्याम सखा)