बनारस का सूर्यग्रहण : ऐल्डस हक्सले
(ऐल्डस हक्सले का जन्म 1894 में हुआ। पहले पत्रकारिता की और फिर आलोचना लिखने लगे। ‘लिम्बो’ (कहानी संग्रह) ‘क्रीम मेलो’ (उपन्यास), ‘प्वाइण्टकाउण्टर प्वाइण्ट’ उनकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं। उन्होंने कई देशों की यात्राएँ कीं। यह यात्रा-वृत्त उनकी कृति ‘दि जेस्टिंग प्लेट’ से लिया गया है।)
सुना था कि बनारस में सूर्यग्रहण दिखाई देगा। पर उसे देखने के लिए धुँधले काँच से भी ज्यादा आस्था की पैनी आँखों की जरूरत थी। चूँकि ये हमारे पास नहीं थीं, इसलिए ग्रहण अनदेखा ही रह गया। हमें इस बात का अफसोस रहा हो, ऐसा भी नहीं। दरअसल उस दिन सुबह-सुबह नाव लेकर निकलने के पीछे हमारा उद्देश्य सूर्य पर पड़ती चन्द्रमा की छाया को देखना नहीं, बल्कि ग्रहण देखते हुए हिन्दुओं को देखना था, और सचमुच यह दृश्य कहीं ज्यादा दिलचस्प था।
वे लोग संख्या में दस लाख के आसपास रहे होंगे। किनारे पर बने घाटों के इर्द-गिर्द, सड़क की धूल में नंगे पाँव चलते हुए, कन्धों पर खाने के सामान और बर्तनों की गठरियाँ लटकाये, नये कपड़ों में सजे सैकड़ों, हजारों, लाखों हिन्दू उनमें से कई बहुत दूर से आ रहे थे, अनेक पर बुढ़ापा लदा था, और कई एक की पीठों पर बच्चे थे। वे सब ग्रहण लगे सूर्य के सम्मान में स्नान करने आये थे।
कुछ ही देर में अजगर सूर्य को निगल जानेवाला था। या यों कहें कि निगल जाने की कोशिश करने वाला था। इस खौफनाक दुश्मन के विरुद्ध भगवान की मदद करने के लिए बनारस में दस लाख हिन्दू औरतें और आदमी इकट्ठे हुए थे।
लगभग फर्लांग भर तक फैली सीढ़ियों के रूप में ये घाट गंगा में उतर जाते हैं। सारी सीढ़ियाँ खचाखच भर गयी थीं। मँझधार में आहिस्ता-आहिस्ता बहते हुए हम किनारे की ढलान पर बिखरे उस लम्बे-चौड़े जनसमूह को देखते रहे।
छोटे और अपेक्षाकृत अपवित्र घाटों पर भीड़ कुछ कम थी। ऐसे ही एक घाट पर हमने एक राजकुमारी को गंगा में उतरते देखा। सुनहरी झालरों और परदों से सजी एक पालकी लाल पगड़ी वाले छह कहारों के कन्धों पर सवार होकर भीड़ को काटती हुई सामने आयी। पानी के किनारे पर एक बजरा था, जिसकी खिड़कियों पर सुर्ख पर्दे टँगे थे। तेज चिल्लाहट के साथ छड़ी को हवा में हिलाते हुए एक खानसामानुमा नौकर रास्ता बनाता गया और आखिरकार डगमगाती हुई वह पालकी धीरे से जमीन पर उतरी। देखते-ही-देखते पालकी से लेकर बजरे के दरवाजे तक कैनवस की दीवारों का एक रास्ता तैयार हो गया। और तब अश्लील निगाहों से अपने आपको बचाते हुए वह राजकुमारी और उसकी सहेलियाँ पालकी से निकलकर बजरे तक पहुँचीं। पर जब बजरा नदी में धकेल दिया गया तो वे ही महिलाएँ उन सुर्ख परदों को हटाकर बेबाक नजरों से गुजरती नावों और हमारे कौतूहल भरे कैमरे को देखती रहीं। बेचारी राजकुमारियाँ। वे अपनी साधारण और आजाद बहनों के साथ गंगा में नहा भी नहीं सकती थीं। उन्हें बजरे के गन्दे पानी में ही डुबकी लगानी थी। खुले आसमान के नीचे बहती हुई पवित्र धाराएँ ही काफी मैली थीं। एक पुराने बजरे की अँधेरी तलहटी में जमा रहकर वह पानी और कितना गन्दा हो गया होगा।
हम लोग जलते हुए घाटों की ओर बढ़ चले, साफ-सुथरी चिताओं पर फैली तीन-चार लाशें आहिस्ता-आहिस्ता जल रही थीं, उनके इर्द-गिर्द सिर्फ सुलगती हुई लकड़ियाँ थीं। उनके पैर चिता से बाहर निकले हुए थे, गोया वे अपनी लम्बाई से छोटे बिस्तरों पर मैले-कुचैले कम्बल ओढ़े सोयी हों।
कुछ आगे चलकर हमने साधुओं की एक कतार देखी। वे पानी के नजदीक एक चट्टान पर समाधि लगाकर बैठे थे। जिस मुद्रा में वे बैठे थे, उसे भगवान कृष्ण ने भगवद्गीता में सुझाया था। शायद भगवान कृष्ण को आत्मसाधना की कला के बारे में सभी कुछ पता था। उनके द्वारा सुझाये गये आसन को किसी भी तरह सुधारा नहीं जा सकता था। इकट्ठे हुए लाखों लोगों का शोर हवा में था, पर कोई भी आवाज उन ध्यानमग्न योगियों की साधना को तोड़ नहीं सकती थी।
तभी एकाएक शायद आस्था की आँख ने उस दैत्याकार अजगर द्वारा सूर्य का कुतरा जाना देख लिया, पानी के नजदीक खड़े हुए सभी लोग एक साथ डुबकी लगाने, कुल्ले करने, नाक साफ करने और मन्त्र उच्चारित करने में जुट गये। पुलिसवालों का एक दल निश्चित समय बाद उन्हें पानी से बाहर निकालने की कोशिश करने लगा ताकि दूसरे लोगों को भी स्नान करने का अवसर मिल सके। सामने के लोगों की कतार हजारों गज लम्बी रही होगी, और फिर भी उनके पीछे लाखों व्यक्ति इन्तजार कर रहे थे।
वक्त गुजरता गया। अजगर धीरे-धीरे सूर्य को कुतरता रहा। हम नाव में से तस्वीरें खींचते गये। उस अजगर के बावजूद हमारी गरदनों पर सूरज की तेज धूप पड़ रही थी। जब थकान और धूप बर्दाश्त से बाहर हो गयी तो हम आखिरकार किनारे पर लौट आये। घाटों को मुख्य सड़कों से जोड़नेवाली सभी सँकरी गलियाँ भिखमंगों से भरी हुई थीं। वे सब अपनी झोलियाँ और बर्तन सामने फैलाये जमीन पर बैठे थे। हर आने-जाने वाला उनके बरतनों में एक-एक मुट्ठी चावल डाल रहा था। भीड़ को धकेलते हुए हम लोग धीरे-धीरे आगे बढ़ते रहे, तभी सामने के दरवाजे से एक साँड़ बाहर निकल आया। शायद वह कोई पवित्र साँड़ था। बाहर निकलकर उसने नजदीक ही ऊँघते हुए एक भिखारी के बर्तन में मुँह डाला और सारी भीख हड़प ली। भिखारी बेखबर ऊँघता रहा, गम्भीरता से मुँह चलाता हुआ वह पवित्र हिन्दू जानवर वापस मुड़ा और जिधर से आया था, उधर ही गायब हो गया।
बेवकूफ और कल्पनाहीन होने के बावजूद जानवर कभी-कभी इनसानों से ज्यादा समझदारी दिखाते हैं। स्वभावतः वे सही वक्त पर सही काम करते हैं। भूख लगने पर खाते हैं, प्यास लगने पर पानी पीते हैं और मौसम आने पर काम-क्रीड़ा में जुटते हैं। इनसान चूँकि समझदार और कल्पनाशील हैं, इसलिए हर काम को करने से पहले आगे और पीछे देखते हैं, देखी हुई हर चीज के लिए वे कोई-न-कोई तर्कसंगत कारण हमेशा ढूँढ़ निकालते हैं। उनकी समझदारी कभी-कभी उन्हें खासा बेवकूफ भी बना देती है। उदाहरण के तौर पर कोई भी जानवर इतना समझदार और कल्पनाशील नहीं हो सकता कि सूर्यग्रहण को देखकर समझे या कहे कि अजगर सूर्य को निगलने की कोशिश कर रहा है। ऐसे, अद्भुत स्पष्टीकरण सिर्फ इनसान को सूझ सकते हैं, और सिर्फ इनसान ही अपने स्वयं के लाभ के लिए धार्मिक क्रियाओं द्वारा बाहर की दुनिया को प्रभावित करने की बात सोच सकता है।
साँड़ को भिखारी के कटोरे में से चावल साफ करते देखकर मैं यही सब सोचता रहा। एक तरफ दस लाख लोग दूर-दूर से चलकर तकलीफें, भूख और असुविधाएँ झेलते हुए कमरे तक के गन्दे पानी में नहाने सिर्फ इसलिए आये थे कि नौ करोड़ मील दूर स्थित नक्षत्र का भला हो सके, और दूसरी तरफ एक साँड़ आराम से विचरता हुआ सामने दीख पड़ने वाली पहली चीज से अपना पेट भर रहा था। शायद अपनी बुद्धिहीनता के कारण ही वह साँड़ अपने मालिकों से ज्यादा समझदारी दिखा रहा था।
मेरे ख्याल से अगर सूर्य को अपने हाल पर भी छोड़ दिया जाए तो कोई हर्ज नहीं है। पर फिर भी उसकी रक्षा करने के लिए गंगा के किनारे दस लाख हिन्दू इकट्ठे हुए थे। गलियों में फैली भीड़ को कन्धों से धकेलते हुए मैं सोचता रहा कि अगर भारत की रक्षा करने की नौबत आ पड़े, तो इनमें से कितने लोग इकट्ठे होंगे?