बाल्य-स्मृति (बांग्ला कहानी) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

Balya-Smriti (Bangla Story in Hindi) : Sarat Chandra Chattopadhyay

अन्नप्राशन के समय जब मेरा नामकरण हुआ था तब मैं ठीक मैं नहीं बन सका था या फिर बाबा का ज्योतिषशास्त्र में विशेष दख़ल न था। किसी भी कारण से हो, मेरा नाम 'सुकुमार' रखा गया। बहुत दिन न लगे, दो ही चार साल में बाबा समझ गए कि नाम के साथ मेरा कोई मेल नहीं खाता। अब मैं बारह-तेरह वर्ष की बात कहता हूँ। हालांकि मेरे आत्म-परिचय की सब बातें कोई अच्छी तरह समझ नहीं सकेगा, फिर भी ----
देखिए, हम गाँव के रहने वाले हैं। बचपन से मैं वहीं रहता आया हूँ। पिताजी पछांह में नौकरी करते थे। मेरा वहाँ बहुत कम जाना होता था, नहीं के बराबर। मैं दादी के पास गाँव में ही रहा करता। घर में मेरे ऊधम की कोई सीमा न थी। एक वाक्य में कहा जाए तो यों कहना चाहिए कि मैं एक छोटा-सा रावण था। बूढ़े बाबा जब कहते, "तू कैसा हो गया है? किसी की बात ही नहीं मानता! अब तेरे बाप को चिट्ठी लिखता हूँ।" तो मैं ज़रा हंस कर कहता, "बाबा, वे दिन अब लद गए, बाप की तो चलाई क्या, अब मैं बाप के बाप से भी नहीं डरता।" और कहीं दादी मौजूद रहती तो फिर डरने ही क्यों लगा? बाबा को वे ही कहतीं, "क्यों, कैसा जवाब मिला? और छेड़ोगे उसे?"
बाबा अगर नाराज़ होकर बाबू जी को चिट्ठी भी लिखते तो उसी वक्त उनकी अफीम की डिबिया छिपा देता। फिर जब तक उनसे चिट्ठी फड़वा कर फिकवा न देता तब तक अफ़ीम की डिबिया न निकालता। इन सब उपद्रवों के डर से ख़ासकर नशे की तलब में खलल पड़ जाने से, फिर वे मुझसे कुछ नहीं कहते। मैं भी मौज करता।
पर, सभी सुखों की आख़िर एक सीमा है। मेरे लिए भी वही हुआ। बाबा के चचेरे भाई गोबिन्द बाबू इलाहाबाद में नौकरी करते और वहीं रहते थे! अब वे पेंशन लेकर गाँव में आकर रहने लगे। उनके नाती श्रीमान रजनीकांत भी बी.ए. पास करके उनके साथ आए। मैं उन्हें 'मझले भैया' कहता। पहले मुझसे विशेष परिचय नहीं था। वे इस तरफ़ बहुत कम आते थे औए उनका मकान भी अलग था। कभी आते भी तो मेरी ओर ज्यादा ध्यान नहीं देते। कभी सामना हो जाता तो- "क्यों रे ,क्या करता है, क्या पढ़ता है|" के सिवा और कुछ नहीं कहते।
इस बार जो आए तो गाँव में जमकर बैठे और मेरी ओर ज़्यादा ध्यान देने लगे। दो-चार दिन की बातचीत से ही उन्होंने मुझे वश में कर लिया कि उन्हें देखते ही मुझे डर-सा हो जाता, मुंह सुखा जाता, छाती धड़कने लगती -जैसे मैंने कोई भारी कसूर किया हो और उसकी न जाने कितनी सज़ा मिलेगी। और उसमें तो कोई शक नहीं की उन दिनों मुझ से अकसर कसूर हुआ करता। हर वक्त कुछ न कुछ शरारत मुझ से होती ही रहती। दो-चार अकर्म, दो-चार उपद्रव करना मेरा नित्य का काम था। डरने पर भी भैया को मैं चाहता ख़ूब था। भाई-भाई को इतना मान सकता है, यह मुझे पहले नहीं मालूम था, वे भी मुझे ख़ूब प्यार करते थे। उनके साथ भी मैं कितनी ही शरारतें, कितने ही कसूर करता था, किन्तु वे कुछ कहते नहीं थे, और कुछ कहते भी, तो मैं समझता कि बड़े भैया ठहरे, थोड़ी देर बाद भूल जाएंगे, उन्हें याद थोड़े ही रहता है।
अगर वे चाहते, तो शायद मुझे सुधार सकते, पर उन्होंने कुछ भी नहीं किया। उनके गाँव में आ जाने से मैं पहले की तरह स्वाधीन तो न रहा, पर फिर भी जैसा हूँ, मज़े में हूँ।
रोज़ बाबा की तमाखू पी जाता। बूढ़े बाबा बेचारे कभी खाट के सिरहाने, कभी तकिए की खोली के भीतर, कभी कहीं, कभी कहीं तमाखू छिपा रखते, पर बन्दा ढूँढ-ढांढ कर निकाल ही लेता और पी जाता। खाता-पीता मस्त रहता, मौज से कटती। कोई झंझट नहीं, बला नहीं। पढ़ना-लिखना तो एक तरह से छोड़ ही दिया समझो। बाग़ में जाकर चिड़ियाँ मारता, गिलहरियाँ मारकर भूनकर खाता, जंगल में जाकर गड्डों में खरगोश ढूँढता फिरता, यही मेरा काम था। न किसी का कोई डर न कोई फ़िक्र।
पिताजी बक्सर में नौकरी करते थे। वहां से न मुझे वे देखने आते और न मारने आते। बाबा और दादी का हाल मैं पहले ही कह चुका हूँ। एक वाक्य में यूं कहना चाहिए कि मैं मजे में था।
एक दिन दोपहर को घर आकर दादी के मुंह से सुना कि मुझे मझले भैया के साथ कलकत्ते में रहकर पढ़ना-लिखना पड़ेगा?' बाबा ने कहा, "हाँ।" मैंने पहले से ही सोच रखा था कि यह सब बाबा की चालाकी है, इसलिए कहा, "यदि जाऊँगा तो आज ही जाऊँगा।" बाबा ने हंसते हुए कहा, "इसके लिए चिंता क्यों करते हो बेटा? रजनी आज ही कलकत्ते जाएगा। मकान ठीक हो गया है, सो आज ही तो जाना होगा।"
मैं आग-बबूला हो उठा। एक तो उस दिन बाबा की छिपाई हुई तमाखू ढूँढने पर भी नहीं मिली,जो एक चिलम मिली थी, वह मेरी एक फूंक के लिए भी नहीं थी, तिस पर चालाकी! परन्तु, मैं ठगा गया था अपने-आप कबूल करके, फिर पीछे कैसे हटूं? लिहाज़ा, उसी दिन मुझे कलकत्ते के लिए रवाना होना पड़ा। चलते वक्त बाबा के पैर छूए और मैं मन ही मन बोल- 'भगवान करे कल ही तुम्हारे श्राद्ध के लिए घर लौट आऊँ। उसके बाद फिर मुझे कौन कलकत्ते भेजता, देख लूँगा।'
कलकत्ते मैं पहले ही पहल आया। इतना बड़ा शहर मैंने पहले कभी नहीं देखा था। मैंने मन ही मन सोचा- 'अगर मैं गंगा की छाती पर तैरते हुए इस लकड़ी-लोहे के पुल पर ऐसी भीड़ में, या वहां-जहाँ झुण्ड के झुण्ड मस्तूल वाले बड़े-बड़े जहाज खड़े हैं, खो गया तो फिर कभी घर नहीं पहुँच सकूंगा। कलकत्ता मुझे ज़रा भी अच्छा नहीं लगेगा, इतनी दहशत में भला कोई चीज़ अच्छी लग सकती है? आगे कभी लगेगी, इसका भी भरोसा नहीं कर सका। कहाँ गया हमारा वह नदी का किनारा, वे बांसों के झुरमुट, बेल की झाडी, मित्र परिवार के बगीचे के कोने का अमरूद, कुछ भी तो नहीं! यहाँ तो सिर्फ़ बड़े-बड़े ऊंचे मकान, गाडी-घोड़े, आदमियों का भीड़-भड़क्का, लम्बी-चौड़ी सड़कें ही दिखाई देती हैं। मकान के पीछे ऐसा एक बाग़-बगीचा भी तो नहीं, जहाँ छिप कर एक चिलम तमाखू पी सकूँ। मुझे रोना आ गया। आंसू पोंछ कर मन ही मन कहने लगा- "भगवान् ने जीवन दिया है तो भोजन भी वे ही देंगे। कलकत्ते आया हूँ, स्कूल में भर्ती किया गया हूँ, अच्छी तरह पढ़ता-लिखता हूँ, लिहाज़ा आजकल मैं 'अच्छा लड़का' हो गया हूँ। गाँव में ज़रूर मेरा नाम ज़ाहिर हो गया था। ख़ैर उस बात को जाने दो।
हमारे आत्मीय मित्रों ने मिलकर 'मैस' बना लिया है, जिसमें हम चार आदमी रहते हैं- भैया, मैं, रामबाबू और जगन्नाथ बाबू। राम बाबू और जगन्नाथ बाबू मझले भैया के मित्र हैं। इनके सिवा एक नौकर और एक ब्राहमण रसोइया भी है।
गदाधर रसोइया मुझ से तीन-चार वर्ष बड़ा था। ऐसा भला आदमी मैंने पहले कभी नहीं देखा। मुहल्ले के किसी भी लड़के से मेरी बात-चीत नहीं हुई और न किसी से मेल-जोल ही हुआ। मगर गदाधर बिलकुल भिन्न प्रकृति का आदमी होने पर भी मेरा अन्तरंग मित्र हो गया। मेरे साथ उसकी ख़ूब घुटती, कितनी गप्प-शप्प उड़ती, इसका कोई ठिकाना नहीं। वह मेदिनीपुर ज़िले के एक गाँव का रहने वाला था। वहां की बातें और उसका बाल्य-इतिहास आदि मुझे बड़ा अच्छा लगता था। उसके गाँव की बातें मैंने इतनी बार सुनी हैं कि मुझे अगर उसके गाँव में आँखों पर पट्टी बाँध कर अकेला छोड़ दिया जाए तो शायद मैं तमाम गाँव में और उसके आस-पास मज़े में घूम-फिर सकता हूँ। रविवार को मैं उसके साथ किले के मैदान में घूमने जाया करता। शाम को रसोई-घर में बैठ कर ताश खेला करता। रोटी खाने के बाद चौक उठ जाने पर उसके छोटे हुक्के से दोनों मिलकर तमाखू भी पी लिया करते। सभी काम हम दोनों मिलकर एक साथ करते। मुहल्ले-पड़ोस में और किसी से मेरी जान-पहिचान नहीं हुई। मेरा तो साथी-संगी यार-दोस्त, मोची टोले का भूलो, केलो, खोका, खांदा सब कुछ वही है। उसके मुंह से मैंने कभी बड़ी बात नहीं सुनी। झूठमूठ ही सब उसका निरादर करते। इससे मेरा जी जलने लगता, पर वह अपनी ज़बान से कभो किसी को जवाब न देता, जैसे वास्तव में वह दोषी ही हो।
सब को खिला-पिलाकर सबसे पीछे जब वह रसोईघर के एक कोने में छिपकर छोटी-सी पीतल की थाली में खाने बैठता तो मैं हज़ार काम छोड़कर वहां पहुँच जाता। बेचारे की तकदीर ही ऐसी थी कि पीछे से उसके लिए कुछ बचता न था, और तो क्या भात तक कम पड़ जाता और किसी के खाने के समय मैं कभी उपस्थित नहीं रहा, परन्तु ऐसा तो मैंने कभी नहीं देखा कि मुझे खाते वक्त कभी रोटी, दाल, भात, घी, तरकारी, कम पड़ी हों। इससे मुझे बड़ा बुरा मालूम होता था।
छोटेपन में मैंने अपनी दादी के मुँह से सुना है, वे मेरे लिए कहा करती थीं--'लड़का आधे पेट खा-खाकर सूख के काँटा हो गया है, कैसे बचेगा?' मगर मैं दादी कथित 'भरपेट' कभी नहीं खा सकता था, सूख जाऊँ चाहे कांटा हो जाऊँ, मुझे 'आधे-पेट' खाना ही अच्छा लगता था। अब कलकत्ते आने के बाद समझा कि उस आधे-पेट और इस आधे-पेट में कितना अंतर है! इस बात का मुझे कभी अनुभव नहीं हुआ कि किसी को भर-पेट खाना न मिले तो आँखों में आँसू आ जाते हैं! पहले मैंने न जाने कितनी बार बाबा की थाली में पानी डालकर उन्हें खाने नहीं दिया है, दादी के ऊपर कुत्ते के बच्चे को छोड़कर उन्हें नहाने-धोने के लिए बाध्य किया है। फिर उनका खाना नहीं हुआ, मगर उनकी आँखों में आंसू कभी नहीं आये। दादी, बाबा, अपने घर के लोग--मेरे पूज्य, जो मुझे ख़ूब प्यार करते थे, उनके लिए मुझे कभी दुःख नहीं हुआ, बल्कि जान-बूझकर उन्हें आधा-भूखा और बिल्कुल भूखा रखकर मुझे परम संतोष हुआ है। और इस गदाधर को देखो, न जाने कहाँ का कौन, इसके लिए मेरी आँखों में बिना बुलाए पानी आ जाता है।
कलकत्ता आकर यह हो गया, मेरी कुछ समझ में नहीं आता। आख़िर आँखों में इतना पानी आता कहाँ से है, कुछ पता नहीं। मुझे किसी ने रोते कभी नहीं देखा। किसी बात पर ज़िद्द पकड़ जाने पर पाठशाला के पंडित जी ने मेरी पीठ पर साबुत की साबुत खजूर की छड़ियाँ तोड़ दी है, फिर भी वे मुझे कभी रुला नहीं सके। लड़के कहते, सुकुमार की देह पत्थर की है। मैं मन ही मन कहता- देह नहीं बल्कि मन पत्थर का है। मैं नन्हे बच्चों की तरह रोने नहीं लगता। दर-असल रोने में मुझे बड़ी शर्म मालूम होती थी। अब भी होती है, पर अब संभाले संभालता नहीं। छिपकर,जहाँ कोई देख न सके, रो लिया करता हूँ। ज़रा रोकर चटपट आँखें पोंछ-पांछ के सम्हाल जाता हूँ। जब स्कूल जाता हूँ तो रास्ते में सैंकड़ों भिखारी भीख मांगते नज़र आते हैं। किसी के हाथ नहीं, किसी के पैर नहीं हैं, कोई अँधा है, इस तरह न जाने कितने तरह के दुखी देखता हूँ। मैं तो तिलक लगाकर खंजरी बजा कर जो-जय राधे कह कर भीख माँगते हैं उन्हें ही जानता था। फिर भी ये भिखारी किस तरह के हैं, मैं भीतर ही भीतर बहुत ही दुखी होकर कहता- "भगवान् इन्हें मेरे गाँव भेज दो!" खैर, अभागे भिखारियों की बात जाने दो, अब मैं अपनी बात कहता हूँ। देखते-देखते आँखें इसकी आदी हो गई, पर मैं 'विद्यासागर' नहीं बन सका। बीच-बीच में हमारे देश की माता सरस्वती न जाने कहाँ से आकर मेरे कंधे पर सवार हो जाती, मैं नहीं कह सकता। उसकी आज्ञा से कभी-कभी मैं ऐसा सत्कर्म कर डालता था कि जब भी मुझे उन सरस्वतीजी से घृणा हो जाया करती है। डेरे पर किसका कौन-सा अनिष्ट किया जा सकता है, रात-दिन मैं इसी फ़िक्र में रहता। एक दिन की बात है, बाबू ने घंटे-भर मेहनत करके अपनी धोती चुनकर रखी, वे शाम को घूमने जाएंगे। मैंने मौका पाकर उसे खोलकर सीधा करके रख दिया। शाम को आकर धोती की हालत देखते ही बेचारे तकदीर ठोककर बैठ गये। मैं फूला नहीं समाया। जगन्नाथ बाबू का ऑफ़िस जाने का समय हो गया है, जल्दी-जल्दी खा-पीकर अच्छी तरह ऑफ़िस तक पहुँचना चाहते हैं। मैंने ठीक मौके से उसकी अचकन के बटन काटकर फेंक दिये। स्कूल जाने से पहले ज़रा झांककर देखा गया, बेचारे चिल्लाकर रोने की तैयारी कर रहे हैं। मैं ख़ुशी से रास्ते-भर हँसता रहा। शाम को ऑफ़िस से लौटकर बोले, "मेरे बटन कमबख्त गदाधर ने चुराकर बेच डाले हैं, निकाल दो नालायक को।" जगन्नाथ बाबू के बटन-हरण के मामले पर भैया और राम बाबू भीतर ही भीतर ख़ूब हंसाने लगे। भैया ने कहा, 'कितने तरह के चोर होते हैं, कोई ठीक है, पर बटन तोड़कर बेच खाने वाला चोर तो आज ही सुना।" जगन्नाथ बाबू भैया की इस चुटकी से और भी आग-बबूला हो गये। बोले, "नालायक ने सवेरे नहीं लिये, शाम को नहीं लिये, रात को नहीं लिए, ठीक ऑफ़िस जाते वक्त, बदमाशी तो देखो? दुर्गति की हद कर दी।" उन्हें एक काला फटा कुरता पहन कर ऑफ़िस जाना पड़ा।
सब हंस पड़े, जगन्नाथ बाबू को भी हँसाना पड़ा। पर मैं नहीं हंस सका। मुझे डर हो गया, कहीं गदाधर को सचमुच ही न निकाल दें। वह बेचारा बिलकुल निर्बोध है, शायद कुछ कहेगा भी नहीं, चुपचाप सार कसूर अपने ऊपर ले लेगा। अब?
मझले भैया शायद समझ गए कि किसने बटन लिए हैं। गरीब गजाधर पर कोई ज़ुल्म नहीं किया गया। पर मैंने भी उस दिन से प्रतिज्ञा कर ली कि अब ऐसा काम कभी न करूंगा जिससे मेरे बदले दूसरे पर कोई आफ़त आवे।
ऐसी प्रतिज्ञा मैंने पहले कभी नहीं की, और कभी करता भी या नहीं, नहीं कह सकता। सिर्फ गदाधर के कारण ही मुझे अपने मार्ग से विचलित होना पड़ा। मुझे उसने मिटटी कर दिया।
किस तरह किसका चरित्र सुधर जाता है इस बात को कोई नहीं कह सकता। पंडित जी, बाबा --और भी कितने ही महाशयों के लाख कोशिश करने पर भी जिस बात की प्रतिज्ञा मैंने कभी नहीं की और न शायद करता, एक गदाधर महाराज का चेहरा देख कर उस बात की प्रतिज्ञा कर बैठा। उसके बाद इतने दिन बीत गए, इस बीच में कभी मेरी प्रतिज्ञा भंग हुई या नहीं, मैं नहीं कह सकता। मगर, इतना ज़रूर है कि मैंने कभी जान-बूझकर कोई प्रतिज्ञा भंग नहीं की।
अब, एक और आदमी की बात कहता हूँ। वह था हम लोगों का नौकर रामा। रामा जाति का कायस्थ या ग्वाल ऐसा ही कुछ था। कहाँ का रहने वाला था, सो मैं भी नहीं कह सकता। उस जैसा फुर्तीला और होशियार नौकर मेरे देखने में नहीं आया। अगर फिर कभी उससे भेंट हो गई तो उसके गाँव का पता ज़रूर पूछ लूंगा।
सभी कामों में रामा चरखे की तरह घूमता रहता। अभी देखा कि रामा कपड़े धो रहा है, परन्तु देखता हूँ की भैया नहाने बैठे हैं तो वह उनकी पीठ रगड़ रहा है। उसके बाद ही देख की पान लगाने में व्यस्त है। इस तरह, वह हर वक्त दौड़-धूप करता रहता। भैया का वह 'फेवरिट', बड़ा काम का , प्यार नौकर था। पर मुझे वह देखे न सुहाता। उस नालायक के लिए अक्सर मुझे भैया से खरी-खोटी सुनानी पड़ती। खासकर गदाधर को वह अकसर तंग किया करता। मैं उससे बहुत चिढ़ गया थ। मगर इससे क्या होता, वह ठहरा भैया का 'फेवरिट'! राम बाबू भी उसे फूटी आँखों न देख सकारे थे। वे उसे 'रूज' (रंग सियार) कहा करते थे। उस समय इस शब्द की व्याख्या वे ख़ुद न कर सकते थे, मगर हम यह ख़ूब समझते थे कि रामा दरअसल 'रूज' है। उनके चिढ़ने के कारण थे। मुख्य कारण यह था कि रामा अपने को 'राम बाबू' कहा करता था। भैया कभी-कभी उसे 'राम बाबू' कह कर पुकारा करते थे। मगर राम बाबू को यह सब अच्छा न लगता था। ख़ैर, जाने दो इन व्यर्थ की बातों को --
एक दिन शाम को भैया एक नया लैम्प खरीद लाए। बहुत बढ़िया चीज़ थी, करीब पचास-साठ रुपये दाम होंगे। शाम को जब सब घूमने चले गए, तब मैंने गदाधर को बुला कर उसे दिखाया। गदाधर ने ऐसी 'बत्ती' कभी नहीं देखी थी। वह बहुत ही खुश हुआ, और दो-एक बार इसने उसे इधर-उधर कर के देखा-भाला। इसके बाद वह अपने काम से चला गया। पर मेरी 'क्यूरियासिटी' शांत नहीं हुई। मैं उसकी चिमनी खोल कर देखना चाहता था कि कैसे खुलती है। देखूं कि उसके भीतर कैसी मशीन है। बहुत खोल कर हिलाया डुलाया, इधर-उधर किया, घुमाने-फिराने की कोशिश की, पर खोल न सका। बहुत 'आब्ज़र्वेशन' के बाद मैंने देखा कि नीचे एक स्क्रू है, लिहाज़ा मैंने घुमाया। घुमा ही रहा था कि चाट से उसका नीचे का हिस्सा अलग हो गया और जल्दी में मैं उसे थाम न सका। नतीजा यह हुआ कि उसका शीशा टेबिल से नीचे गिर कर चकनाचूर हो गया।
उस दिन बहुत रात बीते मैं घूमकर लौटा। घर आकर देखा वहां बड़ी हायतोबा मची हुई है। गदाधर को चारों तरफ से घेर कर सब लोग बैठे हैं। गदाधर से जिरह की जा रही है। भैया ख़ूब बिगड़ रहे हैं।
गदाधर की आँखों से टपटप आंसू गिर रहे थे। वह कह रहा था- "बाबू जी, मैंने इसको ज़रा छुआ ज़रूर था, पर तोड़ा नहीं, सुकुमार बाबू ने मुझे दिखाया, मैंने सिर्फ देखा, उसके बाद ये घूमने चले गए, मैं भी रसोई बनाने चला गया।

किसी ने उसकी बात पर विश्वास नहीं किया। प्रमाणित हो गया कि उसी ने चिमनी तोड़ी है। उअसकी तन्खाह बाकी थी, उसमें से साढ़े तीन रूपया कट कर नयी चमनी मंगाई गई। शाम को जब बत्ती जलाई गई, तो सब बहुत खुश हुए, सिर्फ मेरी दोनों आँखें जलने लगी। हर वक्त मन में यही ख़्याल आने लगा- मानो, मैंने उसकी माँ के साढ़े तीन रुपये चुरा लिए।
मुझसे वहां रहा नहीं गया। रो-बिलखकर किसी तरह भैया को राजी करके मैं गाँव पहुँच गया। सोचा था, दादी से रुपये लाकर चुपके से साढ़े तीन की जगह सात रुपये गदाधर को दे दूंगा। मेरे पास उस वक्त रुपये बिल्कुल न थे। सब रुपये भैया के पास थे, इसलिए रुपयों के लिए मुझे देश आना पड़ा। सोचा था कि एक दिन से अधिक नहीं ठहरूंगा मगर सात-आठ दिन वहां बीत ही गए।
सात-आठ दिन बाद फिर कलकत्ते पहुँचा। मकान में पैर रखते ही पुकारा, "गदा!" पर किसी ने जवाब नहीं दिया। फिर बुलाया,"गदाधर महाराज!" अब की बार भी जवाब नदारद! फिर कहा, "गदा!" कि रामा चरण ने आकर कहा, "छोटे बाबू, अभी आ रहे हैं क्या?"
"हाँ, हाँ अभी चला ही आ रहा हूँ। महाराज कहाँ है?"
"महाराज तो नहीं हैं।"
"कहाँ गया है?"
"बाबू ने उसे निकाल दिया।"
"निकाल दिया?---क्यों?"
"चोरी की थी इसलिए।"
पहले बात मेरी ठीक से समझ में नहीं आई, इसी से कुछ देर तक मैं रामा का मुंह देखता रहा। रामा मेरे मन का भाव ताड़ गया, ज़रा मुस्करा कर बोल- "छोटे बाबू, आप ताज्जुब कर रहे हैं! मगर उसे आप लोग पहचानते न थे, इसी से इतना चाहते थे। वह छिपा रूस्तम था बाबू, उस भीगी बिल्ली को मैं ही अच्छी तरह जानता था।"
किस तरह छिपा रूस्तम था और क्यों मैं उस भीगी बिल्ली को नहीं पहचान सका, यह मेरी समझ में कुछ न आया। मैंने पूछा, "किसके रुपये चुराए थे उसने?"
"बड़े बाबू के।"
"कहाँ थे रुपये?"
"कोट की जेब में।"
"कितने रुपये थे?"
"चार रुपये।"
"देखा किसने था?"
"आँखों से तो किसी ने नहीं देखा, पर देखा ही समझिए।"
"क्यों?"
"इसमें पूछने की कौन-सी बात है? आप घर में थे नहीं, रामबाबू ने लिए नहीं, जगन्नाथ बाबू ले नहीं सकते, मैंने लिए नहीं, तो फिर गए कहाँ? लिए किसने?"
"अच्छा तो तूने उसे पकड़ा है?"
रामा ने हंसते हुए कहा, "और नहीं तो कौन पकड़ता।"
ठनठनिया का जूता आप आसानी से खरीद सकते हैं। ऐसा मज़बूत जूता शायद और कहीं नहीं बनता। उसी से मैंने उसकी ख़ूब......
मैं रसोई में जाकर रो पड़ा। उसका वह छोटा-सा काल हुक्का एक कोने में पड़ा था, उस पर धूल जम गई थी। आज चार-पांच रोज से उसको किसी ने छुआ भी नहीं, किसी ने पानी तक नहीं बदला। दीवार पर एक जगह कोयले से लिखा था -"सुकुमार बाबू, मैंने चोरी की है। अब मैं यहाँ से जाता हूँ। अगर जिंदा रहा तो फिर कभी आऊंगा।"
मैं तब लड़का ही तो था। बिलकुल बच्चे की तरह उस हुक्के को छाती से लगा कर फूट-फूट कर रोने लगा। क्यों? इसकी वजह मुझे नहीं मालूम।
फिर मुझे उस मकान में अच्छा नहीं लगा। शाम को घूम-फिर कर एक बार रसोई में जाता और दूसरे रसोया को खाना बनाते देख चुपचाप लौट आता। अपने कमरे में आकर किताब खोलकर पढ़ने बैठ जाता। कभी-कभी मुझे मझले भाई भी देखे नहीं सुहाते। रोटी तक मुझे कड़वी मालूम होने लगती।
बहुत दिनों बाद एक रोज़ मैंने भैया से कहा, "बड़े भैया, क्या किया तुमने?"
"किसका, क्या किया?"
"गदा ने तुम्हारे रुपये कभी नहीं चुराए। सभी जानते हैं, मैं गदाधर महाराज को बहुत चाहता था।"
भैया ने कहा, "हाँ, काम तो अच्छा नहीं हुआ, सुकुमार। पर, अब तो जो होना था सो हो गया। लेकिन, रामा को तूने इतना मार क्यों था?"
"अच्छा मारा था, क्या मुझे भी निकाल दोगे?"
भैया ने मेरे मुँह से कभी ऐसी बात नहीं सुनी। मैंने फिर पूछा, "तुम्हारे कितने रुपये वसूल हो गए?"
भैया बड़े दुखित हुए। बोले, "काम्थीक नहीं हुआ। तन्ख्वाह के ढाई रुपये हुए थे, सो सब काट लिए। मेरी इतनी इच्छा नहीं थी।"
मैं जब-तब सड़कों पर घूमा करता। दूर पर अगर किसी को मैली चादर ओढ़े और फटी चट्टी चमकाते हुए जाते देखता तो मैं फ़ौरन दौड़ा-दौड़ा उसके पास पहुँच जाता, पर मेरे मन का अरमान पूरा न होता, मेरी आशा नित्य निराश में परिणत होने लगी। मैं अपने मन की बात किससे कहूं?
करीब पांच महीने बाद भैया के नाम एक मनिआर्डर आया- डेढ रुपये का। भैया को मैंने उसी रोज़ आंसू पोंछते देखा। उसकी कूपन अभी तक मेरे पास मौजूद है।
कितने वर्ष बीत गए, कोई ठीक है! मगर आज भी गदाधर महाराज मेरे हृदय में आधी जगह घेरे बैठे हैं।

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