बल्हड़वाल : गुरमुख सिंह मुसाफिर

Balharwal : Gurmukh Singh Musafir

पूरा प्रकाश अभी नहीं हुआ था। दिन और रात का मिलाप हो रहा था। करमों ने अपनी खाट घसीट कर मसासिंह की खाट के साथ मारी। मसासिंह चौंक कर उठा, आँखों में गहरी नींद थी। वह करवट बदल कर फिर सो गया। अब करमों ने उसे कंधों से पकड़ कर झकझोरा । वह ऊँघाई लेते हुए एक बार करवट लेकर फिर उलटा लेट गया। “अभी तुझे ढोर के साथ जाना है, हरी की तनिक आँख लगी हुई है, मेरे साथ बात कर ले।"
करमों की बात सुनकर अर्द्ध निद्रा में ही मसासिंह ने हुंकारा भरा, "तनिक सुस्ता तो लेने दे करमों।"

“एक वर्ष और पूरे सात दिन हो गये हैं आज, एक-एक तिथि मैंने गिन रखी है उंगलियों पर, जिस दिन से घर से उजड़ कर ठोकरें खा रहे हैं। अलग बैठकर बात करने का अवसर ही नहीं मिला। प्रातःकाल तुझे इस ढोर के साथ चला जाना हुआ, अँधेरा होने पर आधी रात को आना और आकर थके-टूटे लेट जाना। आज हवा कुछ धीमी थी, सारे लोग एक सिरे से दूसरे सिरे तक सो रहे थे। मेरे दिल में आया, तुझे जगाकर सारी रात बात कर लूँ। बात करने की चिन्ता करके मुझे तो आज नींद भी नहीं आई। परन्तु पहले तुझे नहीं जगाया, मैंने कहा, सारे दिन का थका-टूटा है। अब तनिक मेरी बात सुन ले। हैं, हैं, सुन रहा है, करूँ मैं बात?"

"हाँ, हाँ, कर बात करमों, मेरे कान तेरी बातों की ओर ही हैं।" उलटे लेटे हुए मसासिंह ने कहा। करमों ने मसासिंह का कंधा झकझोर कर कहा, "हमें नहीं ऐसे मजा आता, बात करने का। तू इधर मुँह कर, रोशनी में तेरा चेहरा देखे भी काफी देर हो गयी है।"

"ले देख ले चेहरा, आज फिर सारा दिन देखती रह, आज तो मेरा मन भी बेईमान हो रहा था। हरो को जगा कर ढोर के साथ भेज दो, वहाँ करना ही क्या है? वहाँ पास बैठकर पशुओं को देखती रहेगी, और करना ही क्या है। बाढ़ों ने फसल तो छोड़ी नहीं। जो कुछ बचा भी है वह भी दाना-दाना मिट्टी में लथपथ हो गया है। पशु उन्हें खुशी से खाते ही नहीं। फसल से अधिक यह सूखी घास पशु अधिक पसन्द करते हैं। जा जगा दे हरो को, फिर हम दोनों जी भर कर बात करेंगे। मेरा भी आज जाने का मन नहीं कर रहा है। कितनी देर हो गयी है, मुसीबत पर मुसीबत आ रही है।"

मसासिंह बातें करता-करता अंगड़ाई लेकर पहले खाट पर उठ कर बैठ गया, फिर उसने दाएँ हाथ का सहारा लेकर बाएँ हाथ को करमों के हाथ पर आहिस्ता-आहिस्ता फेरते एक उँगली से पकड़ कर उसको अपनी ओर खींचते हुए कहा, “आ जा, यदि अभी बात करनी है तो आ जा, मेरे पास आ जा।"

मसासिंह समझ गया था कि हरो को ढोर के साथ भेजने की बात करमों को पसंद नहीं थी, इसीलिए उसने अभी बात कर लेने के लिए कहा था।
करमों ने चारों ओर नजर डाली। हरो की खाट के नीचे बैठे कुत्ते के अतिरिक्त अभी सारे लोग सोए पड़े थे। करमों ने अपनी दायीं बाँह आगे की। मसासिंह ने दाएँ हाथ का सहारा दिया। करमों ने कुत्तों की ओर देखा। कुत्ते ने अपना मुँह जमीन पर रखकर आँखें बंद कर ली हुई थीं। एक आवाज़ से करमों के कान खड़े हो गए। वह रस्सा तोड़ कर भागी जा रही भैंस की आवाज़ थी। खेतों में आस-पास की झुग्गियों के बस रहे सारे लोग सो रहे थे।

"माँ, भैंस भाग ली," हरो अपनी खाट से उठकर आवाज देती हुई भैंस की ओर भागी। करमों ने अपनी खाट घसीट कर हरो की खाट के साथ कर ली, जहाँ कि पहले थी। मसासिंह कुछ देर अपनी बाँहों से आँखों और माथे को ढके लेटा रहा। अब उसकी आँखों में कोई नींद नहीं थी। एक बार चोर दृष्टि से उसने करमों की ओर देखा। करमों हरो को देख रही थी जो कि भैंस को कीले से बाँधकर करमों की ओर आ रही थी। अब हरो करमों के पास पहुँची तो करमों मसासिंह को कह रही थी “अब तो बिलकुल ही दिन निकल आया है" और मसासिंह उत्तर दे रहा था, “इस समय रोज़ ही दिन निकल आता है, आज नया थोड़ा ही निकला है।"
"मेरी बात तो बीच में ही रह गयी।" करमों के मुँह से सुन कर मसासिंह ने कहा-"हरो को जाने दे ढोरों के साथ।"
“यह बात नहीं करनी।" करमों की 'न' पर मसासिंह चुप हो गया।

"अच्छा, आज मैं दोपहर ही वापिस आ जाऊँगा। तो फिर कर लेना जो बात करनी चाहे।" मसासिंह ने बाजरे की रोटी का ग्रास लस्सी से अंदर फेंकते हुए कहा। करमों ने सुबह होते ही कुछ बाजरा पीसा, फिर पकाया। हरो ने लस्सी बनाई। अब मसासिंह को सुबह का नाश्ता खिलाते हुए करमों ने पुनः बात की श्रृंखला को जोड़ा। मसासिंह ने दोपहर आने की बात दोहराई। हरो मटकी उठा कर छाया में रखने के लिए उठी तो करमों ने अपना मुँह मसासिंह के कानों के निकट करके जल्दी-जल्दी कोई बात कही। ध्यान करमों का हरो की ओर था। मसासिंह ने करमों की बात का उत्तर देते हुए कहा, “ये औरतों के काम हैं। चली जा-मायके, माँ से सलाह कर ले। शोभी, संती तेरी दोनों भाभियाँ बड़ी समझदार हैं। जिसके घर में दाने उसके पगले भी सयाने। संपन्न घरों की थीं, आगे ब्याह भी सम्पन्न परिवार में हुआ, अपने आप सयानियाँ हो गई। चली जा, आज ही चली जा। रात को उसके पास रहना और सुबह वापिस आ जाना।" करमों ने मसासिंह की बात सुनकर कहा-“बात तनिक आहिस्ता से करो, तुम्हारी तो ढोल पीटने की आदत ही हो गई है।"

"नहीं, नहीं, इसमें भला ढोल पीटने की क्या बात है, तुझे अपनी लड़की के संबंध के लिए मायके सलाह करने के लिए जाना है, इसमें शर्म की बात ही क्या ?"

मसासिंह की बात सुनकर करमों ने कहा, "हरो को पता नहीं लगना चाहिए कि हम उसकी ही बात कर रहे हैं, इसीलिए तो तेरे कान में बात की थी, और इसलिए ही तो मैं मुँह-अंधरे ही उठी बैठी थी। तझे तो किसी बात की समझ ही नहीं।"

हरो झुग्गी के दूसरी ओर कुत्ते के साथ खेल रही थी। मसासिंह ने कहा, "करमों, फिर तू अभी चली जा, रात को वापिस आ जाना, आज फिर जरूर बैठ कर बातें करेंगे, तू उधर से भी सलाह कर आएगी। फिर हरो के हाथ पीले करने के लिए कोई निर्णय करेंगे। रात को काफी देर से, जब हरो सो जाएगी, सभी लोग सो जाएँगे, केवल तू होगी और मैं। सच करमों, आदमी बाहर से होकर आए तो बातें करने और मिलने का मजा भी बड़ा आता है।"

"लो, भला मुझे कहीं विलायत से वापिस आना है। परन्तु अब जाऊँ कैसे? पहले कुछ खर्चे की व्यवस्था तो हो। बापू वाले दिन अब नहीं रहे। हाय राम, चनों का कोठा भरा रहता था, अब तो मुट्ठी भर चने भी नहीं हैं। कितने मोहताज हो गये हैं। रहने को घर नहीं, बैठने को चौकी नहीं, यह भी कोई जिन्दगी है? तनिक जोर की हवा चले तो यह झुग्गी उड़ कर, पता नहीं, कहाँ चली जाय।" बातें करती करमों के आँसू बहने लगे। मायके की भी उसे याद आ गई। कहने लगी. "तुम जिन्हें संपन्न कहते हो, पता नहीं उनका क्या हाल है। वह भी व्यास का किनारा है, सुना है उधर भी बड़ी बातें आई हैं। क्या पता, वे भी हमारी तरह बेघर बैठे हों।"

"करमों, तुझे इस तरह दुःखी देख कर मेरे दिल को कुछ होने लगता है। फिर भी ठीक है, यदि उधर बाढ़ें आई हैं तो राजी-खुशी पूछ आना। हरो की बात का तो उल्लेख बातों में ही करना। आज नाले तक तो तू पैदल भी चली जाएगी, वहाँ से अमृतसर तक आठ आने, आगे गुरदासपुर तक डेढ़। पता लगा है, अब शिवालय तक मोटर जाती है। छः आने वहाँ तक के समझ लो। आगे सैदोवाल तक तो पैदल ही चलना होगा।" मसासिंह ने बात करते-करते अपनी तहमद के किनारे से पाँच का नोट खोला। पता नहीं, कितनी देर से संभाल कर रखा हुआ था। बहुत मैला था और काफी घिस गया था। हरो आ गई। दोनों को फिर चुप होना पड़ा। भैंस पुनः अपना रस्सा तोड़ने का काम कर रही थी। मसासिंह ने रम्बा और दात्री हाथ में उठा कर चलने की करी। करमों ने घास डालने वाली बोरी झुग्गी में से उठा कर मसासिंह को पकड़ाने के बहाने फिर बात करने का अवसर निकाल लिया।

"उमर तो हरो की इतनी नहीं, पर जवान लगती है। मेरी यह चिन्ता अब हट जाए तो अच्छा है। आजकल कोई भरोसा नहीं, घर-घाट जो कोई न हुआ।"

"हाँ, हाँ, मैं तेरी चिंता को समझता हूँ। मेरी बात मानो और अभी चली जाओ, पर वैसे हरो तो अभी मुश्किल से तेरह की होगी। जिस वर्ष बहुत बाढ़ें आई थीं न, वह जब 'अम्ब नंगल' बह गया था, रावी बल्हड़वाल से चार मील दूर बहती थी, हरो तीन साल की होगी उस समय, मुझे यह बात याद है। ऐसे महसूस होता है जैसे कल की बात हो।"
"ठीक है, पर लड़कियों के बढ़ने का पता नहीं लगता, तेरह वर्ष में ही देखता नहीं, मेरे से भी ऊँची लगती है।"

“पर यदि कोई संबंध बन गया तो गुज़ारा कैसे करेंगे? मेरे पास नकद तो यही पाँच ही हैं, जो मैंने तुम्हें दे दिये हैं। या बीस फौजासिंह से लेने हैं। वह कहता था, इस बार मक्की बेच कर तुम्हारा निपटा दूंगा। पर मक्की तो दाना पड़ने से भी पहले समाप्त हो गई। अब उससे भी मिलने की कोई आशा नहीं करमों। ये दिन भी हमें देखने थे। छ:-सात हजार की आबादी। सारे इलाके में सबसे बड़ा गाँव था। अब तो सारी कोई डेढ़ हजार की आबादी रह गई होगी। इस आबादी का भी कोई पता नहीं। ऐसे अभियुक्त वाली हालत है, जिसको फाँसी का आदेश हो चुका हो। नदियों के फेर से बचने के लिए भारी साधनों की आवश्यकता होती है। पर करमों, हमारे वे कुएँ, बाग और कोठे तो अब वापिस नहीं मिलेंगे। पता नहीं कितनी देर इन खेतों के आस-पास झुग्गियों में रहना हमारे भाग्य में लिखा है। करमों, बातों-ही-बातों में मैं किस तरफ चला गया? असल बात सोचने की यह है कि यदि हाथ-पल्ले कुछ न हुआ तो हरो का वक्त कैसे निकलेगा? फसल भी बाढ़ की भेंट हो गई। हरो के नैहर का सहारा भी जैसे तू बता रही है, लगभग टूटा ही पड़ा समझना चाहिए। यह जल ही अब हमारे प्राण निकालने का कारण बन रहा है।"

बातों में लगे मसासिंह और करमों झुग्गी से काफी दूर निकल आए। दात्री, खुरपा रख कर मसासिंह हरी घास पर बैठ गया। धूप चमक रही थी। चारों ओर नज़र दौड़ाई तो आस-पास दूर तक लोगों के ढोर चर रहे थे। बल्हडवाल का यह किनारा जिस ओर रावी बह रही थी, सामने दिखाई दे रहा था। दूर-दूर तक लोग चलते-फिरते दिखाई देते थे। मसासिंह ने चारों ओर देख कर उच्छ्वास लेते हुए कहा, “करमों, इन्हीं स्थानों पर हम कितनी-कितनी देर बैठते थे। माँ तुम्हें रोका करती थी, बापू भी मना करता था, नई बहू आई है, इसे नाश्ता देकर खेतों की ओर मत भेजा करो। करमों, तू कितने जोश और प्यार से भागी हुई आती थी। मैं तेरे लिए अजनाले से जूता लाया था। तू एक दिन पहन कर आ गई। तुझे याद है कि तू पत्थर पर से फिसल कर गिर पड़ी थी। मैंने तुझे उठाया। बापू देखता था, मैं पसीना-पसीना हो गया था। तेरी रेशमी सलवार घुटने पर से फट गई थी करमों, तेरे घुटने पर रगड़ भी लग गई थी। घर गए तो माँ ने मुझे डाँटा था। तीन-चार दिन तुझे खाना देकर नहीं भेजा। एक दिन माँ को साधारण-सा बुखार हो गया, तुझे फिर खाना लेकर आने का अवसर मिल गया। याद है करमों तुझे, अरे मेरी करमों।"

भूली यादों की याद में मसासिंह एक बार अपने-आपको भूल गया। उसने करमों को आलिंगन में लेने के लिए बाँहें फैलाईं, पर उसके अपने ही हाथ फिर वापिस छाती तक आ गये। दूर से आते हुए कुछ व्यक्तियों को देखकर करमों उठ कर खड़ी हो गई थी और दूर निकल गए अपने ढोर की ओर देख रही थी।

“बहुत देर हो गई है, हरो को आजकल कभी इतनी देर मैंने अकेला नहीं छोड़ा। वह भी सोचती होगी, मैं कहाँ चली गई।" करमों की बात सुनकर मसासिंह ने कहा, "हाँ, जा, मैं अभी-अभी थोड़ी-सी घास काटकर आता हूँ। फिर तुझे सैदोवाल भेजूंगा। अब काफी देर हो गई। रात को तो तू वापिस नहीं आ सकेगी। अच्छा, कल ही आ जाना।"
इतनी बात कह मसासिंह ने फिर बात छेड़ दी, "सच, करमों, वह सामने वाला स्थान था, जहाँ से तू फिसल कर गिर पड़ी थी।"
करमों वापिस आकर फिर बैठ गयी। हाँफती हुई बोली, “पर उस समय तो यहाँ आसाढ़ और सावन की धूप भी बड़ी शीतल होती थी। ऊँची-ऊँची फसलों की छाया, नदी की ओर से ठंडा शीतल पवन चलता था, मक्की-बाजरा चारों ओर इतना ऊँचा होता था कि कहीं आदमी को देख भी नहीं सकता था।"

"बापू रोटी के चार ग्रास मार कर लस्सी का कटोरा पीकर दूसरी ओर मकई काटने चला जाता था और हम दोनों कितनी-कितनी देर यहाँ बैठे-बैठे बातें करते रहते थे। एक बार माँ ने पड़ोसियों के लड़के शमी को तेरा पता लाने भेज दिया था कि तू अब तक खाना खिला कर वापिस क्यों नहीं आयी।"
"हाँ, मुझे सब कुछ याद है, पर उस समय हरो की तो चिंता नहीं थी न। साथ ही उस समय आपस की प्यार की बातों में हम घर को भूल जाते थे। अब घर की याद में लटक रहे हैं। बैठकर दुःख-सुख बाँटने के लिए भी न समय है और न स्थान।"
“हाँ, ठीक है करमों, तुझे उस समय कोई चिन्ता नहीं थी। पर, माँ को तेरी चिन्ता थी।"
मसासिंह की बात सुन कर करमों ने कहा, “देर बहुत हो गयी है। आज जरूर जल्दी आना, सैदोवाल की सलाह करेंगे।"

"करमों, चार दिन रुक ही जायें। पता लगा है कि सरकार बाढ़-पीड़ितों के लिए कुछ कर रही है, उस वक्त ही हरो की समस्या हल करने की बात सोचेंगे।" करमों दस कदम दूर जा चुकी थी। वहाँ ही उसने जोर से कह दिया, “घर जरूर जल्दी आना, जैसी सलाह होगी देख लेंगे। सरकार के कुछ करने की बात मैंने भी सुनी है। पर पातशाह के मामले और दरियाओं के फेर, कुछ आप ही हिम्मत करनी चाहिए।"

मसासिंह ने घास काटने के लिए दात्री उठाई, कमर की तहमद खोल कर वह पत्थर पर रखने लगा तो उसे एक किनारे में गाँठ-सी महसूस हुई। पता नहीं, किस समय वह पाँच का नोट करमों ने उसकी तहमद के किनारे में बाँध दिया था। मसासिंह आज शीघ्र ही घर आ गया था, परंतु करमों के सैदोवाल जाने की सलाह अभी स्थगित कर दी गयी थी।