बालकों का चोर (बांग्ला कहानी) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

Balakon Ka Chor (Bangla Story in Hindi) : Sarat Chandra Chattopadhyay

उन दिनों चारों ओर यह खबर फैल गई कि रूपनारायण-नद के ऊपर रेल का पुल बनेगा, परंतु पुल का काम रुका पड़ा है, इसका कारण यह है कि पुल की देवी तीन बच्चों की बलि चाहती है, बलिदान दिए बिना पुल नहीं बन सकता। तत्पश्चात्‌ खबर फैली कि दो बच्चे पकड़कर जीवित ही पुल के खंभे के नीचे गाड़ दिए गए. हैं, अब केवल एक लड़के की खोज है, उसके मिल जाने पर पुल तैयार हो जाएगा। यह भी सुना गया कि रेलवे-कंपनी के आदमी लड़के की खोज में शहर तथा गाँवों में चक्कर लगा रहे हैं। कोई नहीं कह सकता कि वे कब कहाँ जा पहुँचेंगे, उन्हें पहचानना कठिन है, क्योंकि उनमें से कोई भिखारी के वेश में है, कोई साधु- संन्‍यासी का बाना धारण किए हुए है और कोई गुंडों-डकैतों की भाँति लाठी बाँधे घूम रहा है। यह अफवाह बहुत दिनों से फैली हुई थी, अत: आसपास के ग्राम-निवासी अत्यधिक भयभीत थे एवं संदेह का यह हाल था कि वे हर किसी को रेलवे-कंपनी का लड़का पकड़नेवाला आदमी ही समझ बैठते थे। प्रत्येक यही समझता था कि अबकी बार उसकी ही बारी है, संभवत: उसी का बच्चा पकड़कर पुल के नीचे गाड़ दिया जाएगा।

किसी के मन में शांति नहीं थी, सभी घरों में सनसनी फैली हुई थी। इस सबके ऊपर अखबारों की भी खबरें थीं। जो लोग कलकत्ता में नौकर थे, वे आकर बतलाया करते थे कि उस दिन बहू बाजार में एक लड़का पकड़नेवाला आदमी गया था। कल की ही तो बात है, कलकत्ता की गली में एक और आदमी पकड़ा गया है --वह एक छोटे से बच्चे को पकड़कर अपनी झोली में डाल रहा था। इसी प्रकार नित्य कई कितनी ही खबरें सुनने को मिलती थीं। कलकत्ता के गली-कूचों में संदेह के शिकार बेचारे कितने ही निरपराध व्यक्ति पकड़े और पीटे गए, किसी प्रकार बड़ी कठिनाई से उनके प्राण बचे और इस अत्याचार की खबरें लोगों के मुँह से अत्याचार की खबरें लोगों के मुँह से हमारे देश में, हमारे गाँव में भी पहुँचने लगीं। ऐसे ही समय में एक दिन अचानक एक घटना हमारे गाँव में भी घट गई।

गाँव की सड़क के पास ही थोड़ी दूरी पर, एक बाग के भीतर एक बूढ़ा ब्राह्मण और उसकी ब्राह्मणी दोनों रहते थे। वे मुखर्जी थे। उनके बाल-बच्चा कोई नहीं था; परंतु दुनिया में और दुनिया के सभी मामलों में उनकी आसक्ति सोलह आने के स्थान पर अठारह आने थी। उनका एक सगा भतीजा था। उसे उन्होंने अलग कर दिया, परंतु उसका हिस्सा नहीं दिया। देने की कल्पना भी उन्होंने कभी नहीं की। भतीजा कभी-कभी आकर कहा-सुनी करता, लड़ता-झगड़ता और अपने हिस्से के कपड़े, बरतन तथा गृहस्थी की अन्य सामग्री पर दावा करता था। 'मैं कोई भीख नहीं माँगता। सब मेरे पुरुषों की कमाई है, तुम मेरे पिता का हिस्सा हजम करनेवाले कौन होते हो? '

यह सुनकर उसकी चाची हो-हल्ला मचा, चिल्ला-चिल्लाकर लोगों की भीड़ जमा कर लेती और कहती, 'हीरू हमें मारने आया है। यह गुंडा है, हमें मारने आया है, यह गुंडा हमें मार डालने की धमकी देता है।'
हीरालाल कहता, 'अच्छी बात है, किसी दिन तुम्हें मारकर ही सब वसूल करूँगा।'
इसी प्रकार दिन बीत रहे थे।

उस दिन झगड़े की हद हो गई। दोनों ओर से गरमा-गरमी बढ़ चली। हीरू ने आँगन में खड़े होकर कहा, 'यह अंतिम बार कहे देता हूँ चाचा। मेरा हिस्सा मुझे मिलना चाहिए। दोगे या नहीं?'
चाचा ने झिड़कते हुए कहा, 'जा जा, तेरा कुछ नहीं है।'
हीरू भी तमककर बोला, 'नहीं है?'
चाचा ने कहा, 'हाँ, हाँ, नहीं है।'
हीरू ने कहा, 'तुम झूठ कहते हो। मैं अपना हिस्सा लेकर ही छोड़ूँगा।'
चाची रसोईघर में थीं। बाहर निकलकर बोलीं, 'तो फिर जा, अपने बाप को बुला ला।'

हीरालाल बोला, “मेरे पिता तो स्वर्ग में चले गए, वे अब नहीं आ सकेंगे। मैं जाकर तुम्हारे बाप-दादों को बुला लाऊँगा, उनमें शायद अभी कोई जीवित है। वही आकर मेरा रत्ती-रत्ती हिस्सा बाँट देगा।'

इसके पश्चात्‌ कई मिनटों तक दोनों ओर से जिस भाषा का प्रयोग किया गया, उसे यहाँ लिखा नहीं जा सकता।

जाने से पूर्व हीरालाल कह गया था, 'आज ही इसका निबटारा करके रहूँगा, यह तुमसे कहे जाता हूँ। सावधान रहना।'

रसोईघर के भीतर से चाची गरजती हुई बोली, 'तू बड़ा तीसमारखाँ है न! जा, जो किया जाए, सो कर लेना।'

हीरालाल वहाँ से सीधा राहीपुर गाँव में जा पहुँचा। इस गाँव में कुछ गरीब मुसलमान रहते थे। वे मुहर्रम में ताजिये निकालते, उनके आगे बड़ी-बड़ी लाठियाँ लेकर चलते एवं अपनी कसरत और करतब दिखाते थे। उनकी लाठियों ने सेरों तेल पिया था तथा उनकी गाँठों में खूबसूरती के लिए पीतल की कड़ियाँ जड़ी हुई थीं। इसी से बहुत लोग यह समझते थे कि उन जैसा लाठी चलानेवाला इस अंचल में और कोई नहीं है। ऐसा कोई कार्य नहीं था, जिसे वे न कर सकते हों। केवल पुलिस के भय से ही शांत बने रहते थे।

हीरालाल ने लतीफ मियाँ के पास पहुँचकर कहा, 'ये दो रुपए पेशगी लो, एक तुम्हारा और दूसरा तुम्हारे भाई का। काम पूरा कर दो, तब और भी इनाम मिलेगा।'
दोनों रुपए हाथ में लेते हुए लतीफ मियाँ ने हँसकर कहा, 'क्या काम करना है बाबू?'

हीरालाल बोला, 'इस देश में तुम दोनों भाइयों को कौन नहीं जानता। तुम लोगों की लाठी के जोर से विश्वास-वंश के बाबुओं ने कितनी जर्मीदारी पर अपना अधिकार कर लिया है। तुम यदि चाहो तो क्या नहीं कर सकते।'

लतीफ मियाँ आँख का इशारा करते हुए बोले, 'चुप रहो बाबू, थाने का दरोगा सुन लेगा तो फिर हमारी जान नहीं बचेगी। पुलिस को यह पता है कि वीरनगर गाँव पर हम दोनों भाइयों ने ही लाठी के जोर से विश्वास बाबू का कब्जा कराया है, परंतु मौके पर हमें कोई पहचान नहीं सका, इसी से उस बार हम लोग बच गए।'
हीरालाल ने अत्यंत आश्चर्य से कहा, 'कोई पहचान नहीं सका?'

लतीफ बोला, “कोई पहचानता कैसे! सिर पर बहुत बड़ा पग्गड़ बँधा था, गालों पर गलपट्टे लगे थे, माथे पर बड़ा सा सिंदूर का टीका था और हाथ में छह हाथ की लाठी थी। लोगों ने समझा, हिंदुओं की यमराजपुरी से साक्षात्‌ यमदूत आ उपस्थित हुए हैं। पहचानते क्या, सब लोग अपनी-अपनी जान लेकर न जाने कहाँ भाग छिपे रहे।'

हीरालाल ने उसका हाथ पकड़ लिया। बोला, 'ऐसा ही एक काम एक बार और करना होगा तुम्हें लतीफ मियाँ! मेरे चाचा तो मेरा थोड़ा-बहुत हिस्सा देने को फिर भी तैयार हो सकते हैं, परंतु हरामजादी चाची ऐसी शैतान है कि वह फूटी हाँडी से भी हाथ नहीं लगाने देना चाहती। वही पग्गड़, वही गलपट्टा, वही सिंदूर का टीका और वहीं हाथ में लंबी लाठी लिए एक बार चाचा के आँगन में जा खड़े हो और वही डाकुओं जैसी घुड़की दिखा दो। बस, फिर मैं देख लूँगा, ठीक संध्या होने से पहले झुटपुटे में चलो। बस, कार्य सिद्ध हो जाएगा।'

लतीफ मियाँ तैयार हो गए। निश्चित हुआ, लतीफ और महमूद दोनों भाई वही पोशाक पहनकर, वैसा ही वेश बनाकर आज दीया जलने से पहले ही चाचा के घर जा धमकेंगे। उनके पीछे हीरालाल रहेगा।

एकादशी का दिन था। दिनभर व्रत रखने के बाद हीरू की चाची जगदंबा ने अपने पति को भोजन कराने के लिए आँगन से मिले हुए चबूतरे पर आसन बिछाया एवं थाली लगाकर सामने रख दी। मुखर्जी चाचा फलाहार करने के लिए बैठे। सामान्य कंद-मूल और दूध, यही फलाहार का सामान था। मुखर्जी बादी प्रकृतिवाले मनुष्य थे, अत: अन्न का आहार करने से उनकी तबीयत खराब हो जाने का भय था। पत्थर के पात्र में डाब का पानी रखा था, उसे पीने के लिए जैसे ही पात्र उठाया, वैसे ही ठीक उसी समय दरवाजा ठेलते हुए लतीफ तथा महमूद, दोनों भाई सामने आ खड़े हुए। वही सिर पर बड़ा सा पग्गड़, वही भयानक गलपट्टा, वही संपूर्ण माथे पर लगा हुआ सिंदूर का बड़ा टीका और हाथ में वही छह-छह हाथ की ऊँची, मोटी लाठियाँ। चाचा के हाथ से पत्थर का वहीं पात्र धमाक्‌ से नीचे गिर पड़ा। जगदम्बा जोर से चीख पड़ी, “अरे मोहल्लेवाले दौड़ो, आओ, बच्चे पकड़नेवाले आए हैं, बालकों के चोर, बालकों के चोर!''

सामनेवाले छोटे से मैदान में प्रतिदिन मोहल्ले के गाँव के छोटे-छोटे बालक इकट्ठे होकर भाँति-भाँति के खेल खेला करते थे, आज भी खेल रहे थे। वे भी चिल्लाते हुए इधर-उधर भाग खड़े हुए, “बालकों को पकड़नेवाले आए हैं! बच्चों को चुरानेवाले आए हैं। लड़कों को पकड़े लिये जा रहे हैं!"

घर बताने के लिए हीरू भी लतीफ और महमूद के साथ आया था तथा दरवाजे की आड़ में छिपा हुआ था। उसने ढंग देखा तो धीरे से कहा, 'मियाँ, देखते क्या हो, जान बचाकर भागो। मोहल्ले के लोगों ने घेरकर पकड़ लिया तो जान बचाना मुश्किल हो जाएगा।'
इतना कहकर वह वहाँ से भाग गया।

लतीफ मियाँ ने शहर की ओर कोई खबर चाहे सुनी हो या न सुनी हो, परंतु बालकों को पकड़े जाने का हंगामा, उन्हें गायब करने की अफवाह उसके कानों तक भी पहुँच चुकी थी। क्षणभर में ही उसकी समझ में आ गया कि उस अपरिचित अनजाने स्थान में ऐसे वेश में विशेषकर सिंदूर का लंबा-चौड़ा टीका लगाए हुए, यदि उन दोनों को पकड़ लिया गया तो एक की भी हड्डी साबुत नहीं बचेगी।

यह विचार आते ही दोनों भाई जान लेकर भागे, परंतु भागने से अब क्‍या हो सकता था? रास्ता पहचाना हुआ नहीं था। दिन का उजाला समाप्त हो चुका था--संध्या का अंधकार मुँह बाए हुए उसे निगलता चला जा रहा था। चारों ओर से बहुत से लोगों की सम्मिलित एक पुकार सुनाई पड़ रही थी, 'पकड़ो! मार डालो साले को!'

छोटा भाई महमूद किधर भाग गया, कुछ पता नहीं, परंतु बड़े भाई लतीफ को लोगों ने चारों ओर से घेर लिया। वह अपने प्राण बचाने के लिए काँटों से भरे जंगल को रौंदता हुआ एक पानी से भरे गड्ढे में कूद पड़ा। इसके पश्चात्‌ सब लोग उस गड्ढे के चारों ओर किनारे पर खड़े हो उसे ताक-ताककर ईंट-कंकड़ मारने लगे। लतीफ जब भी सिर ऊपर उठाता, उसके सिर पर ढेला पड़ता था। वह फिर पानी के भीतर अपना सिर कर लेता। ऊबकर जब फिर सिर निकालता तभी दूसरा ढेला आ लगता था।

लतीफ मियाँ इस प्रकार ईंट और ढेले खाकर तथा पानी पीकर अधमरे हो गए। वे जितना ही हाथ जोड़कर कहना चाहते कि वह लड़का पकड़नेवाला चोर नहीं है, लड़का पकड़ने नहीं आया है, उतना ही लोगों का क्रोध तथा संदेह बढ़ता जाता था। सोचते और कहते, 'तो यह गलपट्टा क्यों लगाए है? यह पग्गड़ क्यों बाँधे है? इसके मुँह पर सिंदूर कहाँ से आया?'

लतीफ का पग्गड़ खुल गया था, गलपट्टा भी खुलकर एक ओर झूल रहा था, और माथे का सिंदूर भी धुलकर सारे मुँह पर फैल गया था।
लतीफ बेचारा क्या कैफियत देता और उसकी बात सुनता भी कौन?

इसी बीच कुछ अधिक उत्साही लोग पानी में उतरकर लतीफ को किनारे पर घसीट लाए। वह रो-रोकर केवल यही कह रहा था कि वह लतीफ मियाँ है और उसका दूसरा भाई महमूद मियाँ है। वे लोग बच्चे पकड़नेवाले नहीं हैं, वे लड़कों को चुरानेवाले नहीं हैं।

इसी समय मैं भी उसी मार्ग से निकला, उधर एक काम से जा रहा था। हो-हल्ला सुनकर उस गड्ढे के किनारे जा पहुँचा। मुझे देखते ही उत्तेजित भीड़ आपे से बाहर हो गई। सब लोग एक स्वर से चिल्ला उठे, 'हमने बच्चों का एक चोर पकड़ लिया है।'

बेचारे लतीफ मियाँ की वह दुर्दशा देखकर मेरी आँखों में आँसू आ गए। उसमें बोलने तक की शक्ति नहीं रही थी। गलपट्टा, पग्गड़, सिंदूर और रक्‍त; सबने मिलकर उसकी विचित्र शक्ल बना रखी थी। वह केवल सबके हाथ जोड़ता हुआ रो रहा था।

मैंने लोगों से पूछा, 'इसने किसी का लड़का चुराया है क्या? किसने अपने लड़के को इसके द्वारा चुराए जाने की नालिश की है?'
उन लोगों ने कहा, 'इसे कौन जाने? '
मैं बोला, 'अच्छा, वह लड़का कहाँ है, जिसे इसने पकड़ा था?'
लोगों ने कहा, 'हम लोग यह नहीं जानते।'
मैंने कहा, 'तब फिर तुम लोग इसे क्यों मार रहे हो?'

उसमें से एक व्यक्ति, जो संभवत: अधिक बुद्धि रखता था, कहने लगा, 'लगता है, इसने रात में किसी लड़के को इस गड्ढे के भीतर कीचड़ में गाड़ रखा है।'

दूसरे ने कहा, 'हाँ, हाँ, अवसर मिलते ही वहाँ से निकाल ले जाएगा और बलि देने के लिए पुल के खंभे के नीचे गाड़ देगा।'
मैंने कहा, 'जरा सोचो तो सही, कहीं मरे हुए प्राणी की भी बलि दी जाती है?'
वे बोले, 'मरा क्यों होगा, अब तक जीवित होगा।'
मैं बोला, 'भला, लड़के को दलदल में गाड़ देने से वह कभी जीवित बच सकता है?'

तब मेरी युक्ति तथा बात उनमें से बहुत लोगों को ठीक जान पड़ी। पहले तो जोश में रहने के कारण किसी को यह सोचने का अवसर ही नहीं मिला था।

मैंने कहा, 'इसे छोड़ दो।' फिर उस आदमी से पूछा, 'लतीफ मियाँ, बात क्या है, सब सच्चा-सच्चा हाल बताओ।'

अब अभय-दान पाकर लतीफ रो-रोकर सब सच्चा हाल कह सुनाया। हीरू के चाचा मुखर्जी और उसकी स्त्री के साथ किसी को सहानुभूति नहीं थी। सुनकर कुछ लोगों को लतीफ मियाँ पर भी तरस आ गया।
मैंने कहा, 'लतीफ मियाँ, अब अपने घर जाओ, आइंदा कभी ऐसा काम मत करना।'

लतीफ मियाँ ने कान पकड़े, नाक रगड़ी, तदुपरांत कहा, 'खुदा की कसम बाबूजी, अब ऐसा काम कभी नहीं करूँगा, मगर मेरा भाई कहाँ गया?'

मैंने कहा, 'भाई की फिक्र घर जाकर करना लतीफ मियाँ। अभी तो यही बहुत समझो कि तुम्हारी अपनी जान बच गई।'
लतीफ किसी प्रकार लँगड़ाता-लड़खड़ाता हुआ अपने घर जा पहुँचा।

बहुत रात बीते एक बार फिर समीप के ही दूसरे मुहल्ले घोषालटोला में जोर का हल्ला और शोरगुल सुनाई दिया। घोषाल बाबू के घर की नौकरानी गौशाला में गौ की सानी करने गई हुई थी। उसने गौ की कर्बी काटने के लिए हरी ज्वार का गट्ठा खींचा तो वह उससे खींचा नहीं जा सका। अचानक उसके भीतर से एक भयानक शक्लवाला आदमी निकला और उसने शीघ्रता से झुककर उस नौकरानी के दोनों पाँव पकड़ लिए।

नौकरानी जितना ही चिल्लाती कि अरे दौड़ो, भूत मुझे खाए लेता है, भूत उतना ही अपने हाथ से उसका मुँह बंद करते हुए कहता, 'भैया चिल्लाओ नहीं, मुझे बचाओ, मैं भूत-प्रेत नहीं हूँ, मैं आदमी हूँ! '

नौकरानी का चिल्लाना सुनकर गृहस्वामी घोषाल बाबू हाथ में लालटेन तथा साथ में अन्य नौकर-चाकरों को लिए गौशाला में दौड़े चले आए।

इसके पूर्व जो घटना घट चुकी थी, उसे गाँव के सब लोग जान चुके थे, अत: बड़े भाई के समान छोटे भाई की दुर्गति नहीं हुई। सबने सहज ही समझ लिया कि वह लतीफ का भाई महमूद है, भूत नहीं है।

घोषाल बाबू ने उसे छोड़ दिया, केवल उसकी उस पके बाँस की खूबसूरत लाठी को अपने लिए छीनकर रखते हुए कहा, 'छोटे मियाँ, तुम्हें जीवनभर याद रहे, इसीलिए इसे रखे लेता हूँ। मुँह का यह सब रंग-वंग धो डालो और चुपचाप घर भाग जाओ! '
अहसान मानकर, कृतज्ञ होकर तथा सैकड़ों सलाम झुकाकर महमूद वहाँ से चल दिया।
यह कोई मनगढ़ंत कहानी नहीं, अपितु हमारे गाँव में घटी एक सच्ची घटना है।

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