बकरा और मेड़ा : यूक्रेन लोक-कथा
Bakra Aur Medha : Lok-Katha (Ukraine)
पुराने जमाने की बात है । एक था बूढ़ा, एक थी बुढ़िया । उन्होंने अपने घर में बकरा और मेड़ा पाल रखा था । बकरे और मेड़े में बड़ी पक्की दोस्ती थी । उन दोनों की खूब पटती थी जहां जाए बकरा, वहीं जाए मेड़ा। बकरा साग- बाड़ी में पत्तागोभी खाने के लिए घुसा नहीं कि मेड़ा भी झट वहीं पहुंच जाता इसी तरह बकरा बग़ीचे में पहुंचता तो मेड़ा भी उसके पीछे-पीछे बगीचे में जा पहुंचता ।
"अरे, बुढ़िया, इन दोनों ने नाक में दम कर रखा है," बूढ़े ने कहा । "बेहतर हो कि हम लोग बकरे और मेड़े को घर से भगा कर छुट्टी पा लें | नहीं तो इनकी वजह से न साग- बाड़ी बचेगी और न बाग़ बगीचा । चलो बे, निकलो यहां से दफ़ा हो जाओ !"
बकरे और मेड़े ने अपने लिए सफ़री झोला सिलकर तैयार किया, उसे गले में लटकाया और चल दिए ।
वे दोनों चलते जा रहे थे, चलते जा रहे थे कि अचानक उन्हें खेत के बीचों- बीच भेड़िये का एक कटा हुआ सिर दिखाई पड़ा । मेड़ा ताक़तवर तो था, पर साहसी नहीं और बकरा साहसी तो था, पर ताक़तवर नहीं ।
"मेड़े भाई, सिर को उठा लो, तुम तो ताक़तवर हो ।"
"नहीं, भाई, तुम्हीं इसे उठा लो, तुम तो साहसी हो । "
उन दोनों ने मिलकर भेड़िये का कटा हुआ सिर उठाया और झोले में डाल दिया । फिर वे अपनी राह चलने लगे। चलते-चलते अचानक उन्हें आग जलती हुई दिखाई दी।
"चलो, हम लोग उस ओर चलते हैं। वहीं ठहरकर रात बिता लेंगे, ताकि हमें भेड़िये न खा जाएं।
वे दोनों आग के क़रीब आए। पर वहां तो माजरा ही कुछ और था । उन्होंने देखा कि भेड़िये दलिया पका रहे हैं।
"नमस्ते, जवानो !"
"नमस्ते नमस्ते ! जब तक दलिया उबल रहा है, तब तक तुम्हारे मांस का जायका ही ले लें ।
"मेड़ा भयभीत हो गया। लेकिन बकरा भय के बावजूद हिम्मत से काम ले रहा था । उसने कहा :
"मेड़े भाई, झोले में से जरा भेड़िये का सिर तो निकालो !"
मेड़े ने कटा हुआ सिर निकाला ।
"अरे, यह नहीं, बड़ावाला निकालो!" बकरे ने कहा ।
मेड़े ने फिर वही सिर बाहर निकाला ।
"नहीं ! यह किस काम का ! सबसे बड़ावाला निकालो!"
अब तो भेड़िये डर गए। सोचने लगे, कैसे जान बचाकर यहां से खिसका जाए । जरा देखो तो - एक के बाद एक भेड़ियों के सिर निकाले जा रहे हैं !
आखिर एक भेड़िये ने चुप्पी तोड़ी, बोला :
"भाइयो, यहां बैठकर हम लोग मजे से बातें कर रहे हैं, पर जरा पानी कम पड़ गया है। मैं पानी लेने जा रहा हूं।"
थोड़ा हटकर सोचने लगा :
"भाड़ में जाए यह दलिया !" और वह रफ़ू-चक्कर हो गया ।
दूसरा भेड़िया भी निकल भागने की तरकीब सोचने लगा :
"यह लो, दुश्मन की औलाद न जाने कहां मर-खप गया । दलिया जला जा रहा है, मैं चला, अभी इस छड़ी से हांककर उसे झट से लिए आता हूं ।"
यह भी खिसक गया और पहलेवाले भेड़िये की तरह वापस नहीं लौटा। और तीसरे ने भी बैठे-बैठे युक्ति सोचते हुए कहा :
“ठहरो, अभी मैं उन्हें देखकर आता हूं । दोनों को इधर लाता हूं।"
वह भी जान बचाकर निकल भागा। वह खुश था कि जिन्दा बच गया । मौक़ा देखकर बकरा अपने दोस्त मेड़े से बोला :
"लो भाई, अब क्या देखते हो ? सोचने का वक़्त नहीं है आओ, दलिया खा जाएं और झटपट कहीं छुप जाएं ।"
"लेकिन इतने में पहलेवाले भेड़िये ने जरा ठंडे दिमाग़ से सोचा :
"हम लोग भी कितने अजीब हैं, जो बकरे और मेड़े से डर गए। भाइयो, हमें तुरन्त चलकर इन दुश्मन की औलादों को खा डालना चाहिए ! "
वे सब वहां पहुंचे तो दलिया सफाचट था, अलाव बुझाया जा चुका था, बकरा और मेड़ा ऊंचे बलूत के पेड़ पर चढ़ बैठे थे । भेड़िये बलूत के नीचे बैठकर सोचने लगे कि बकरे और मेड़े को कैसे पकड़ा जाए। सिर उठाकर ऊपर देखा - दोनों बलूत पर बैठे हैं। बकरा हिम्मती था - वह सबसे ऊपरी डाल पर चढ़ गया था और मेड़ा डरपोक था - वह नीचे ही था ।
"सुनो," भेड़ियों ने सबसे लम्बे, घने बालोंवाले एक अनुभवी भेड़िये से कहा,"तुम हमारे बीच में एकमात्र बुजुर्ग हो, तुम्हीं कोई रास्ता बताओ, जिससे कि उन्हें ऊपर पहुंचकर पकड़ा जा सके । "
लम्बे, घने बालोंवाला भेड़िया पेड़ के नीचे पसरके सोचने लगा। उधर मेड़ा पेड़ की डाल पर बैठा डर के मारे थर-थर कांपता जा रहा था । वह अपने भय पर क़ाबू न पा सका और सीधे उस भेड़िये के ऊपर धड़ाम से गिर पड़ा। बकरे ने आव देखा न ताव लगा चिल्लाने :
"पकड़ ले इस झबरे भेड़िये को ! इधर ला मेरे पास, भागने न पाए !" और वह खुद भी बलूत वृक्ष से कलाबाजी खाता हुआ भेड़ियों पर कूद पड़ा ।
भेड़िये सिर पर पांव रखकर भाग खड़े हुए।
बकरे ने अपने दोस्त मेड़े के साथ मिलकर एक झोंपड़ी बनाई और तब से वे दोनों उसमें मजे से जिंदगी के दिन गुजार रहे हैं, धन-दौलत कमा रहे हैं।