बहुरुपिये राक्षस और दो भाइयों की कथा : मृणाल पाण्डे
Bahurupiye Rakshas Aur Do Bhaion Ki Katha : Mrinal Pande
(क्या लोक कथाओं से राज समाज को बदला जा सकता है? यह सवाल पूछनेवालों को मालूम हो कि लोक कथायें कोई एक जन नहीं बनाता। वे एक लंबे मिले जुले जातीय इतिहास की पैदावार होती हैं।उनमें हर अच्छा कथावाचक कुछ कुछ अपना जोडता चलता है। इसलिये श्रोता-पाठकों को कई बार लोककथाओं में छुपे ज्ञान, संयम, अहिंसा और अनासक्ति के संदेश बिना लागलपेट के मिल जाते हैं। 2000 बरस पहले कुछ इसी तरह की कथायें बुद्ध और महावीर ने पहचान कर उनको बोधि ज्ञान से जोड़ा और एक, हिंसक, उजड्ड और जातिवादी राज समाज का मन बदल दिया। बाद में उनके शिष्यों ने इन तमाम बोध कथाओं को लिख कर संकलित किया। इस बार की कथा जैन ग्रंथों में संकलित लोक कथाओं के ऐसे ही एक संकलन (नायाधम्म कहा-9) की है। थोड़े फेरबदल के साथ यही कहानी बौद्ध ग्रंथों (दिव्यावदान और वलाहस्स जातक) में भी मौजूद है।)
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बहुत पहले चंपानगर में माकंदी नाम का एक बडा व्यापारी रहता था। उसके दो बेटे थे: जिनरक्षित और जिनपालित। दोनों चतुर और साहसी थे और बचपन से अपने पिता के जहाज़ों में लवण के समंदर में नावों में माल लाद कर विदेशी वणिज व्यापार से भरपूर धन कमाते रहे थे।
जब घर में बहुत धन आ गया तो कुछ दिन व्यापार का काम छोड माकंदी के परिवार ने सुख से कुछ साल बिताए। पर जवानी दीवानी तो होती ही है।
एक दिन लेटे लेटे दोनों भाई उबासी ले रहे थे। बड़ा जिनरक्षित बोला, ‘यार, बहुत दिन हुए यात्रा पर नहीं निकले। यह भी क्या दिन भर खाना गप्प मारना, रात को उबासी लेते हुए छपरखट पर सो जाना?’
‘सही कहा दादा,’ जिनपालित बोला। मैं भी इस सबसे उकता चुका हूं। चलो माता पिता से पूछ कर हम दोनों फिर से नया माल लदवाना शुरू करें और एक चक्कर और परदेस का लगा आयें।’
माता पिता को कई और माता पिताओं की तरह भाइयों का यह विचार बिलकुल पसंद नहीं आया।
पिता ने कहा, ‘बेटा यह नादानी है।इतना कमा चुके हो, अब तुमको और क्या कमाना? आराम से घर पर रहो, अपनी उम्रवालों के साथ जम कर कुछ दिन मौज मस्ती करो।‘
‘आजकल आयात निर्यात का पर्यावरण पहले की तरह नहीं रहा। समुद्री तूफान तो बढ ही गये हैं, तिस पर पहले परदेस के हर द्वीप का मालिक लंबे समय तक कोई एक होता था। उनमें से कुछ से दोस्ती करके, कुछ को माल का कुछ हिस्सा घूस में चुका कर और कुछ को चकमा दे कर हम अपना काम साधते रहे। पर अब सुनते हैं अधिकतर द्वीपों में कई कई डाकू और लुटेरे शासक राज करते हैं। उन सबने अपने अलग अलग गठजोड़ बना लिये हैं। कभी किसी गठजोड़ का राज निकलता है, तो कभी दूसरे दल का।कल जो व्यापारिक संधि की थी उसे आज जो सत्ता में हैं, वे नहीं मानते।बस हरेक नये गठबंधन में व्यापारियों के प्रति लालच और दबंगई दुगुने होते जाते हैं।
‘हम वणिकों का तो समुद्र की यात्रा से कुशलतापूर्वक लौटना कठिन हो रहा है।ऐसे में इस यात्रा का विचार तो छोड ही दो।’
माता बेटों से रोती हुई बोली, क्यों नाहक नमक के समंदर में यात्रा करो हो? इतना बडा घर है।हर तरह का सुख सुविधा है।शहर में तुम दोनों के इतने हमउम्र दोस्त हैं।सबको छोड़छाड़ कर खतरनाक यात्रा का फितूर कैसा? कुछेक बरस में दो अच्छी लडकियाँ देख कर तुम्हारी शादी कर देंगे, फिर अपनी अपनी गिरस्ती चलाना आराम से।’
‘ठीक है?’
‘नहीं’, जिनरक्षित और जिनपालित बोले।
अगले ही दिन अपनी नाव में बहुत सारा माल लदवा कर दोनो भाई दूसरे व्यापारियों के साथ विदेश यात्रा को निकल गये।
उनकी नाव कुछ ही दूर पहुंची थे कि हाय, ज़ोरदार समुद्री अंधड़ शुरू हो गया। सर पर कडकते बादल, कौंधती बिजलियाँ मूसलाधार पानी, और पैर तले हवा के प्रचंड प्रहार से पछाड़ें खाता नमक का समंदर! नाव गेंद की तरह ऊपर नीचे उछलने लगी। लहरों के थपेडों से नाव की कीलें निकल आईं, जोड़ खुल गये, तख्ते टूट कर गिरने लगे ।जब रस्सियाँ, पाल, पतवारें, मस्तूल एक एक कर समुद्र में समाने लगे तो क्या यात्री, क्या अनुभवी मल्लाह सब घबरा उठे। फिर एक हवा का बड़ा सा झोंका आया और नाव एक बडी समुद्री चट्टान से टकरा कर टुकड़े टुकड़े बन गई। सारा माल डूब गया और जिनपालित और जिनरक्षित को छोड कर बाकी सब जाने कहां गये पता न चला।
सौभाग्य से भाइयों के हाथ दो लकड़ी के तख्ते लग गये थे। उनकी मदद से वे तैरते हुए पास के एक हरे भरे द्वीप में आ लगे। जाने कितनी देर तकरीबन बेहोश दोनों भाई तट की बालू में चित्त पडे रहे। फिर उठ कर चलने लगे। तूफान जैसे उठा गया, वैसे ही बिला चुका था। खिली धूप में नीले आसमान के नीचे फ़ैला द्वीप बडा ही सुंदर दिखता था। दूर पेडों के झुरमुट से घिरा एक बागीचा और महल भी दिखाई दिया। नारियल के पेड़ों तले दोनो भाइयों ने एक मीठे झरने का पानी पिया, कुछ फल खाये, नारियल के तेल से अपने बदन की मालिश की, और महल की तरफ बात करते हुए चले कि उनके साथ घर छोड़ने के बाद क्या कुछ हुआ था।
महल के सामने वे खडे हुए ही थे कि भगवा रंग के महल की मालिक लाल साड़ी पहने बहुत सुंदर नेत्रों वाली एक देवी त्रिशूल लिये बाहर आई और कहने लगी, ‘ओ सुंदर युवाओ, चलो तुम दोनो अब मेरे साथ मेरे महल में मेरे बन कर रहो।मेरे साथ रहोगे तो ऐश करोगे।वरना इसी त्रिशूल से अभी तुम्हारे पेट फाड देती हूं।’
दोनो भाई डर से कांपते हुए महल के भीतर जा घुसे, और देवी का दिया भगवा पट्टा गले में डाल कर उसके दल के सदस्य बन कर उसके महल में बारी बारी से उसे सुख देते हुए रहने लगे।
एक दिन देवी बोली, ‘मुझे खबर मिली है कि समुद्र बहुत गंदा हो गया है और वह तमाम सारी गंदगी तट पर छोड रहा है। मैं समुद्र तट स्वच्छता अभियान के लिये जा रही हूं, कुछ दिन में वापिस आऊंगी।तुम लोग यहीं रहना।
‘यह सारा द्वीप हमारा ही है, सो मन ऊबने लगे तो तुम बीच में सदा बरखा- बहार के मौसम वाली फूलों से भरी पूर्व दिशा में जा सकते हो।वहाँ से ऊब गये तो उत्तर दिशा को निकल जाना, जहाँ हिम से भरे पर्वतों के बीच घाटियों में हमेशा शरद् और हेमंत का सुगंधित मौसम रहता है।और कहीं जाना चाहो तो पश्चिम के वन में भी सैर सपाटे को जा सकते हो।वहाँ हमेशा वसंत और ग्रीष्म ॠतु रहती है।और तैराकी के साथ तरह तरह के आम, जामुन जैसे फलों का आनंद लिया जा सकता है।इस तरह कुछ दिन मन बहला कर फिर महल में वापिस आ जाना।
‘पर खबरदार दक्षिण की तरफ बिलकुल न जाना। वहाँ का पर्यावरण बिगड चुका है।वजह यह, कि वहाँ एक बडा ज़हरीला अजगर रहता है।वह हमारे दल के कई आज्ञा न माननेवालों की तरह तुमको भी देखते ही मार डालेगा।’
जी, दोनो भाई बोले।
देवी के जाने के बाद दोनो भाइयों ने थोडा समय तो भगवा महल में बिताया, फिर बाहर निकल गये। दिनों से महल में रह कर उकता गये थे, सो पूर्वी और उत्तरी वन की सैर कर पश्चिमी जंगल तक भी घूम आये।
फिर उन्होने सोचा भला इतनी निरापद जगह में भी देवी ने हमको दक्षिण की तरफ जाने को मना काहे किया होगा बे?
अब दोनो भाई दक्षिणी वन की तरफ चल पडे।
कुछ पास जाने पर उनको दुर्गंध आई।और पास गये, तो किसी की हल्की कराहने की आवाज़ भी कानों में पडने लगी।नाक को अपने भगवा पटके से लपेट कर वे उस तरफ चले जो देखा वह बडा डरावना था ।एक वधस्थान था जहां चारों तरफ चबाई अधखाई हड्डियों और चमडे की ढेरियाँ थीं, उनके बीच एक बुरी तरह घायल उनकी ही आयु का आदमी करुण स्वर में कराहता था।
जिनपालित और जिनरक्षित डरते हुए पुरुष के पास पहुंचे। मालूम हुआ कि वह सुंदरी तो देवी नहीं, एक मांसभक्षी राक्षस है। देवी के रूप में वह पहले राह भटकों को आकर्षित कर पहले अपने भगवा महल ले जाकर जबरन अपने दल की सदस्यता शपथ दिला देता है। पर फिर मन भर गया, तो कोई छोटा मोटा अपराध निकाल कर रात को अपने शिकार को अपना असली रूप दिखाते हुए यहाँ ला पटकता है। और उसका कलेजा निकाल कर बलि दे देता है।
‘ मैं काकंदी का व्यापारी हूं।’ पुरुष बोला।‘ नाव पर काफी माल लदवा कर परदेस को निकला था, कि द्वीप के पास भारी तूफान आया और मेरी नाव समुद्र में डूब गई।एक तख्ते के सहारे तीन दिन तक बहता हुआ मैं इस द्वीप में आ लगा।भगवा महल की यही सुंदरी मुझे भी अपने महल में ले गई और यही भगवा पटका पहना कर मुझे अपना आदमी बना लिया। फिर कुछ दिन बाद एक साधारण से अपराध हो जाने की कहते हुए उसने रात को राक्षस रूप दिखाया और खींचते हुए मुझको यहां लाकर मेरा जिगर नोच खाया। हाय अब न बचूंगा। पर तुम दोनो बच सको तो भाग जाओ।‘
दोनो भाई यह कथा सुन कर डर से कांपते हुए बोले ‘हम तो ठहरे महल के कैदी परदेसी, मरने से पहले तू ही हमको ही बचने की कोई राह बता जा।’
कराहता व्यापारी बोला, ‘देखो पूर्व के वन में हर चतुर्दशी, अष्टमी, अमावास्या और पूर्णिमा को अश्वक नाम का एक बचावनहार यक्ष आसमान से उतरता है।समुद्र के पास से चिल्ला कर वह पूछता है, ‘किसको बचाना है? किसको पार उतारना है?’ तुम दोनो भाई दौड़ कर उसके पास जाना और हाथ जोड़ कर विनती करना कि, ‘भैये हमको किसी तरह इस स्त्री- पुरुष- इन- वन राक्षस से बचाओ। हम दल की सदस्यता छोड आये हैं। इस अपराध में वह तो भगवा महल लौटने पर हमको अब जीता न छोड़ेगा।’ विनयपूर्वक कहना, ‘हे यक्ष, हम पर कृपा कर, हमारी रक्षा कर।’
इतना कह कर पुरुष ने अंतिम सांस ले ली और दोनो भाई तेज़ी से पूर्वी वन की तरफ भागे।
पूर्वी वन जाकर दोनो ने सरोवर में नहाया और कमल के फूल हाथ में ले कर तट पर खड़े डर से कांपते हुए बचावनहार यक्ष का इंतज़ार करने लगे। गरुड़ के पंखों जैसी फटफटाहट के साथ यथासमय यक्ष उतरा। विशाल शरीर, लाल लाल आंखें। भाइयों ने उसको कमल के फूल चढाये और प्रार्थना करने लगे कि उनको इस सुंदरी रूपधारी राक्षस से बचाये।
यक्ष बोला, ‘देखो माकंदीपुत्रो, मैं तुमको बचा सकता हूं, लेकिन एक चेतावनी है। जब तुमको अपनी पीठ पर बिठा कर मैं उड़ता होऊंगा, वह देवी के रूपवाला राक्षस नीचे से तुमको काफी डरायेगा, तरह तरह के लालच भी दिखायेगा।पर तुम न डरना, न लालच में पलट कर उधर देखना।तुम तनिक भी विचलित हुए तो मैं तुमको सीधे नीचे फेंक दूंगा, जैसे तुम्हारे देस के एक हाथी ने अपनी पीठ पर योगासन करते एक ढोंगी बाबा को पटक दिया था। फिर भगवा देवी तुम्हारी भारी जो दुरगत करेगी, उसका दोष मुझे मत देना। क्या समझे?’
माकंदीपुत्रों ने यक्ष की बात मान ली। अब यक्ष एक पंखों वाला घोड़ा बन कर दोनों भाइयों को पीठ पर बिठा उनके देश को ले उड़ा।
उधर कामरूप कमच्छा के इंदरजाल की मदद से देवी बना राक्षस महल लौटा, तो समझ गया कि दोनों भाई फरार हो गये हैं। वह तट पर देवी रूप में त्रिशूल तथा सोने के सिक्कों की पोटली बारी बारी से लहराते हुए मधुरता से कहने लगा, ‘हे माकंदी पुत्रो, तुम भगवा महल की सदस्यता छोड कर इस भद्दे से यक्ष की पार्टी में शामिल काहे हो गये? इतने सारे राज सुख त्याग कर कहाँ उडे जा रहे हो? वापिस आओ तो इससे दूना धन पाओगे। जो मांगोगे वही मिलेगा।’
फिर भी बात न बनती देखी तो राक्षस ने फटाक से सुंदरी देवी का बाना छोडा और एक गंजा और भयानक मोटे गले से चिल्लानेवाला राक्षस बन गया। त्रिशूल लहराता हुआ अब वह जोर जोर से चीखने लगा, ‘साले दलबदलू माकंदी की औलादो! तुम दोनों ने दुश्मनों से हमारे बारे में अफवाहें सुन सुन कर दल बदल लिया, बुरा किया, पर वणिक हो कर भी सोने का मोह छोड़ कर दूसरे दल मे शामिल हो गये, और भी बुरा किया!’
राक्षस को सुन कर छोटे जिनपालित को बडी उत्सुकता हुई कि वह देख तो ले, कि राक्षस की थैली है कितनी बड़ी?
देख तो लें, उसने जिनरक्षित से कहा। पर वह बोला, ‘सुना नहीं कि यक्ष ने क्या कहा? खबरदार, जो तू तनिक भी हिला।’
‘यार दादा, तुम रहे बुद्धू के बुद्धू ही,’ जिनपालित बोला, ‘माल तो गया पानी में सोना लेकर फिर भाग चलेंगे।’ यह कह कर उसने अपनी गर्दन मोड़ी। पर यह होते ही घोड़े रूपी यक्ष ने पीठ झटक कर उसको नीचे समुद्र में गिरा दिया।
बस अब देवी का बाना बदल कर राक्षस तुरत जिनपालित पर झपटा और अट्टहास करते हुए उसने तुरत उसका सर धड से अलग कर उसकी देह के टुकड़े टुकड़े कर दिये।
भाई की चीखें सुन कर भी जिनरक्षित बिन हिलेडुले यक्ष की पीठ पर सवार रहा। छोटे भाई के गिरने और चिल्लाने की आवाज़ सुन कर भी उसने कोई हरकत नहीं की।
राक्षस अगले समुद्री हादसे के शिकार की प्रतीक्षा में अपने भगवा महल वापिस लौट गया।
जान बची तो लाखों पायें, लौट के बुद्धू घर को आयें।
चतुर सयाने दल बदल बदल के अंत में गच्चा खायें।।