बहू बेटियां (कहानी) : इस्मत चुग़ताई
Bahu Betiyan (Story in Hindi ) : Ismat Chughtai
ये मेरी सबसे बड़ी भाबी हैं। मेरे सबसे बड़े भाई की सबसे बड़ी बीवी। इस से मेरा मतलब हरगिज़ ये नहीं है कि मेरे भाई की ख़ुदा न करे बहुत सी बीवियाँ हैं। वैसे अगर आप इस तरह से उभर कर सवाल करें तो मेरे भाई की कोई बीवी नहीं, वो अब तक कँवारा है। उसकी रूह कुँवारी है।
वैसे दुनिया की नज़रों में वो बड़ी भाबी का ख़ुदा-ए-मजाज़ी है और पौन दर्जन बच्चों का बाप है। उसकी शादी हुई, दूल्हा बना, घोड़े पर चढ़ा, दुल्हन को घर ला कर पलंग पर बिठाया फिर पास ही ख़ुद भी बैठ गया। और जब से बराबर बैठ रहा है। लेकिन तसव्वुफ़ की बातें समझने वालों ही को मालूम है कि वो कँवारा है और सदा कँवारा रहेगा।
उसका दिल न ब्याह सका और न कभी ब्याह सकेगा, वो न कभी दूल्हा बना, न घोड़े पर चढ़ा, न दुल्हन को लाया न उसके संग उठा बैठा। वो तो उसका बाप था जिसने उसका ब्याह तै किया, ऐरे-ग़ैरे नत्थू खैरे की राय से। वो बग़ावत के बुख़ार में झुलसता रहा मगर चूँ न कर सका। क्योंकि वो जानता था, उसके बाप के हाथ बड़े तगड़े हैं और जूते उससे भी तगड़े। इसलिए उसने बेहतर समझा कि वो शहीद तो हो ही रहा है जूते से शहीद न हो। तब भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। लिहाज़ा वो दूल्हा बना और सहरे के पीछे ताड़ने वालों ने ताड़ लिया कि एक और सहरा बंधा है जो उसके अरमानों के ख़ून में डूबे हुए आँसुओं से गूँधा गया है, जिसमें उसकी न सुनाई देने वाली सिसकियाँ पोरी हुई हैं। जिसमें उसके मसले हुए जज़्बात और कुचली हुई मसर्रतें बंधी हुई हैं। वो घोड़े पर नहीं चढ़ा। उसकी मय्यत माँ-बाप की हट धर्मी के घोड़े पर लटका दी गई। वो अपनी दुल्हन नहीं लाया बल्कि वो माँ-बाप की दुल्हन थी। उन्ही की ब्याहता थी।
मगर एक मजबूर बेटे की तरह बिना आह-ओ-ज़ारी के वो दुल्हन के पास भी गया। उसका घूँघट भी हटाया मगर वो यही इरादा कर चुका था कि वो ख़ुद वहाँ नहीं, ये उसका बाप है जो इस दुल्हन का दूल्हा है मगर चूँकि मेरी भाबी उस वक़्त बड़ी न थी। मेरा मतलब है जिस्मानी तौर पर वो दुबली पतली और नाज़ुक सी छोकरी थी, इसलिए एक लम्हे को मेरे बड़े भाई का जिस्म उससे ब्याह गया लेकिन बहुत जल्द ही वो दुबली-पतली औरत बढ़ना शुरू हुई और चंद साल ही में वो फूल फालकर बेतुके गोश्त का ढेर बन गई। मेरे भाई ने उसके ऊपर चढ़ते हुए गोश्त को न रोका। उसकी जूती रोकती। वो उसकी थी कौन।
लेकिन वो बच्चे... उसके माँ-बाप के बच्चे जिन्हें वो कभी भूले भी न छूता, तादाद में बढ़ते रहे। नाकें सर-सड़ाते, मैली टाँगें उछालते, वावेला मचाते। मगर मेरे भाई के दिल के दरवाज़े वैसे ही बंद रहे, वो वैसा ही कँवारा और बाँझ रहा। मेरी भाबी कुछ ऐसी इन मरहलों में फंसी कि उसने पलट कर भी भइया की तरफ़ न देखा। जैसे कहती हूँ, मैं तो पहले सास-सुसर की बहू हूँ, नंद की भावज हूँ, बच्चों की अम्माँ हूँ, नौकरों की मालिक हूँ, महल्ले-टोले की बहू-बेटी हूँ फिर अगर वक़्त मिला तो तुम्हारी बीवी भी बन जाऊँगी।
भइया को इस तरह साजे की हांडी बड़ी फीकी-सीटी और बे-मज़ा लगी और उसने अपना दिल सँभाल कर उठाया। बिखरे रेज़े समेटे और तलाश में निकल खड़ा हुआ। उसने कितने ही आस्तानों पर इस चकना-चूर शीशे के टुकड़े को जा कर रखा, मगर कोई मरहम कोई दवा ऐसी न मिली जो इन रेज़ों को जोड़ देती इसलिए वो अब भी अपना कँवारा दिल लिए फिर रहा है किसी दिल वाली की तलाश में।
उसने दिल वालियों को रन्डियों के कोठे पर ढ़ूँडा। गंदी गलियों में घूमने वाली टकहाईओं में तलाश किया। रेडियो स्टेशनों पर गाने वाली हसीनाओं और आर्टिस्टों में टटोला। हस्पतालों की नर्सों में भी जुस्तजू की। फ़िल्मी परियों की गुफ़ाओं में भी भटका और एक्स्ट्रा लड़कियों के झुरमुट में भी झाँका। जाहिल गाँव की गँवारियों, सड़क की कूटने वालियों, मछेरनों और भटयारियों के आगे भी हाथ फैलाया। ड्रॉइंग रुम में उगने वाली और बॉल रूम में थिरकने वाली शरीफ़ ज़ादियों से भी भीक माँगी मगर उसे दिल वाली कहीं न मिली। लाखों ही घूँघट पलट डाले मगर वही औरत, वही सास-सुसर की बहू, वही उनके ही बाल-बच्चों की माँ दिखाई दी।
मेरी भाबी सबसे बड़ी सही मगर ज़्यादा अक़लमंद हरगिज़ नहीं। उसने मियाँ को झूटे बहलावे कभी न दिए। जैसे पहली ही रात को वो समझ गई कि अपनी जान घुसाना हिमाक़त है, इन तिलों से तेल न निकलेगा। और दुनिया से जी कड़वा कर के काले कलूटे, टेढ़े-भैंगे बच्चे तो ख़ुद ब-ख़ुद उसके पेट में तामीर होते रहे। वो तो उबकाईयाँ लेने और बद-वज़’अ बनने के सिवा कुछ भी न करती रही। और ये बच्चे मेरे भइया से इंतिक़ाम लेने का मुफ़ीद आला साबित हुए। जब नाक चाटते, नंग धड़ंग बिसूरते हुए केंचुवे किसी महफ़िल या पार्टी में मेरे भइया को छू देते हैं तो वो ऐसे उछल पड़ते हैं जैसे बिच्छू ने चटक लिया हो। और जब कभी भूले से कोई अहमक़ मेहमान घर में घिर जाता तो यही तहज़ीब और नफ़ासत के क़ातिल अदब और सलीक़े के दुश्मन उसकी छाती पर कोदों दल कर उसको डूब मरने की तरग़ीबें दिया करते हैं।
उनके इलावा घर के मैले बिछौने, मैले फ़र्श और छिचलान्दे बर्तन एक नफ़ीस दिमाग़ रूह को अबदी मरघट में सुलाने के लिए काफ़ी न पाकर मेरी भाबी ने जुमला तरकीबों और ख़ुश गुफ़तारियों के ज़र्रीं नुस्खे़ इस्तिमाल कर के आने जाने या मुस्तक़िल रहने के शौक़ीन रिश्तेदारों का सिलसिला भी मुनक़ते कर दिया है।
इसी लिए तो बेचारा दिल वाली की तलाश में ज़र ज़मीन लुटाता फिरता है। कभी-कभी कोई महबूबा दिलनवाज़ मौक़ा पाकर उसका फ़र्नीचर फ़रोख़त कर के, मकान पगड़ी पर उठा कर हत्ता के उसके कपड़े भी अपने नए आशिक़ के लिए लेकर भाग जाती है और वो फिर वैसा ही लंडोरा और यतीम रह जाता है।
वैसे भी उसे इश्क़ रास नहीं आता जहाँ के लोग आवारगी करते हैं पर घंटियाँ किसी के गले में नहीं लटक जातीं। वो तो अगर भूले से किसी की तरफ़ मुस्कुरा कर भी देख लिया तो वो औरत फ़ौरन हामिला हो जाती है। और उसकी जान पर एक अदद तोहफ़ा नाज़िल कर देती है जिसे वो बिल्ली के गू की तरह छुपाता फिरता है। वो अपने जायज़ बच्चों से ज़रा नहीं शरमाता मगर उसकी इल्लतों से उसकी इज़्ज़त पर हर्फ़ आने का ख़ौफ़ है, वो बड़ा बा-इज़्ज़त है ना।
वो अपनी इस मुसीबत को दुनिया की सबसे बड़ी आफ़त समझता है। जब उसके दिल की दुनिया उजाड़ पड़ी है तो लोगों को भूक, महंगाई और बेकारी जैसी बे-मसरफ़ चीज़ों के बारे में कुछ सोचने का क्या हक़ है। दिल है तो सब कुछ है।
आप समझेंगे कि वो कोई जिन्सी मरीज़ है। औरत का भूका है। जी नहीं, उस ज़ालिम औरत की वजह से तो उसे बारहा शदीद किस्म की बदहज़्मी भी हो चुकी है। तो बात दर-अस्ल ये है कि वो ऐसे माहौल की पैदाइश है, जहाँ ग़म-ए-दुनिया को ग़म-ए-उक़बा की आड़ में छुपाना सिखाया जाता है। जहाँ हर जिस्मानी महरूमी का इल्ज़ाम नसीब के सर और रुहानी तिश्नगी का ठेका माशूक़ के ज़िम्मे। वो क़िस्मत के पीछे डंडा लेकर पड़ा हुआ है। एक दिन उसे नसीब कहीं दुबका हुआ मिल जाएगा और वो उसका सर पाश-पाश कर देगा। फिर वो होगा और उसकी महबूबा। लेकिन उसे इतना भी नहीं मालूम कि उसका नसीब उसकी पीठ पर बैठा है और उसकी चर्बी चढ़ी आँखों को कभी नज़र न आएगा।
और उन कड़वे कुसैले माँ-बाप और फ़र्सूदा निज़ाम के साए में पौन दर्जन बच्चे परवान चढ़ रहे हैं। आने वाली पौद उग रही है और ज़िंदगीयाँ साँचों में ढल रही हैं। ना-मालूम मंज़िल तक घिसटने के लिए, दुनिया में तल्ख़ी और अफ़्लास की पाल पोस करने के लिए।
ये मेरी दूसरी भाबी है। मेरे भाई की अनमोल दुल्हन। इसकी क़िस्मत का चमकता दमकता सूरज उसकी मशअल-ए-राह। मेरा भाई बड़ा ही तक़दीर वाला है। उसने एक ग़रीब घर में जन्म लिया, सर्दियों की अधमरी रौशनी में पढ़-पढ़ कर एक दिन जब रौशन सितारे की तरह जगमगाया तो एक बड़ी सी मछली आई और उसे साबित निगल गई।
जूँ ही उसने अव्वल नंबरों से बी. ए. पास किया नवाब घुम्मन की नज़र-ए-इलतिफ़ात उस पर पड़ गई। न जाने किधर के रिश्ते-नाते जोड़-तोड़ कर प्रोफ़ेसरों के ज़रिये कांटा मारा और देखते ही एक छोड़ हज़ार जान से उस पर फ़रेफ़्ता हो गए। फिर उसे अपनी सबसे चहेती बाँदी की सबसे लाडली बेटी को बख़्श दिया। बादा बहुतेरा फुदके मगर एक तरफ़ तो थी नवाब ज़ादी और इंगलैंड जाने का ख़र्चा और दूसरी तरफ़ खूसट बाप और अपाहिज माँ और बिन ब्याही बहनों की पलटन की पलटन। और अध-पढ़े भाईयों की फ़ौज। ज़ाहिर है कि बाज़ी बड़े हल्क़ वाली मछली के हाथ रही और बक़ीया जोंकें मुँह देखती रह गईं। चट मंगनी पट ब्याह। अम्माँ को समधन बनने का शौक़, बहनों की नेग उड़ाने की तमन्ना दिल की दिल ही में रह गई और पूत पतंगा बन कर सात-समुंदर पार उड़ गया।
अम्माँ ने जी पर पत्थर रख लिया था कि बला से हड्डी नीची है तो जहेज़ ही से आँसू बुझ जाऐंगे। माशा अल्लाह इतने सामान से पलटन के दो-चार सिपाही तो लैस हो जाऐंगे। दूल्हे की सलामी से ही दो तीन भाईयों की नाव पार उतर जाएगी। मगर सारे अरमान, सारे हौसले फिर से उड़ गए। जब नवाब की एक कोठी दुल्हन का मायका और दूसरी ससुराल बनी और बहू एक कोठी से दूसरी कोठी को ब्याह दी गई।
इंगलैंड से लौट कर दूल्हा ब्याह कर ससुराल चला गया और अम्माँ बावा नए सिरे से दूसरा पौदा सींचने पर जुट गए। फिर किसी दिन इस पौदे के चिकने-चिकने पात किसी बाग़बान को नज़र आ गए तो वो उसे भी इस घूरे से समेट कर अपने 'सर हाऊस' में ले जा कर रख देगा और अम्माँ-बावा एड़ियाँ रगड़ते आख़िरी मंज़िल को जा कर पकड़ लेंगे।
अब ये पहला पौदा अपने सुसर की रियासत में किसी मुफ़्त ख़ोरों वाले ओहदे पर फ़ाइज़ है। इलावा तनख़्वाह के मोटर, घोड़ागाड़ी, कोठी, बंगला, नौकर-चाकर और एक अदद नवाब ज़ादी उसे मिली हुई है। सुबह उठकर दरबार में तीन सलाम झाड़ चुकने के बाद वो दिन-भर पड़ा कोठी में ऐंडता है। कभी-कभी उसे ऐसा मालूम होता है जैसे उसकी हैसियत अफ़्ज़ाइश-ए-नस्ल के लिए इस्तिमाल किए जाने वाले साँड से ज़्यादा नहीं जो थान पर बंधा उगली हुई क़ै की जुगाली किए जा रहा है।
उसकी बीवी यानी नवाब ज़ादी कभी उसके ग़लीज़ घर न आती मगर जब बूढ़े बाप ने दुनिया की जंग से आजिज़ आकर हथियार डाल दिए तो वो मैं अपने पूरे ताम-झाम के दो-घड़ी को आई। उस वक़्त बेचारे नवाबी दामाद की शर्म के मारे बुरी हालत हो गई जैसे गवर्नर वायसराए की सवारी आ रही हो तो एक साफ़ सी सड़क चुन कर झंडियाँ लगा दी जाती हैं ताकि वायसराए समझे कि सारा मुल़्क ऐसा ही साफ़ और झंडियों से सजा हुआ है।
इस तरह घर का सारा कूड़ा करकट नज़रों से ओझल रख दिया गया। मय्यत उठने से पहले ही नवाब ज़ादी उठकर चल दीं और साथ-साथ वो दामाद भी। मगर बड़े हस्सास दिल का मालिक है। वो सब कुछ समझता है और उसके दिल पर बर्फ़ के घूँसे हर-दम लगा करते हैं। इसलिए वो जल्द अज़ जल्द इस माहौल में समोने की कोशिश करता रहता है और ख़ुद-फ़रामोशी के लिए शराब पीता है। तब वो सब कुछ भूल जाता है। ये भी भूल जाता है कि सुहाने मौसम आगे हैं और आस-पास की रियासतों के रंगीन मिज़ाज सैर-ओ-शिकार को आ जा रहे हैं। उसकी बीवी दूसरी नवाब ज़ादियों की तरह हिरनी बन कर चौकड़ीयाँ भर रही है। वो ख़ुद तीन सलाम झाड़ रहा है। आराम देह कमरे में सर-ओ-पैर से बे-ख़बर पड़ा है। अब तो उसे अपनी रफ़ीक़-ए-ज़िंदगी की आँखों में से गुज़रते हुए सवाल भी नहीं जगा सकते। वो यही तो कहती है कि “तुम्हारा मसरफ़ क्या है? मेरे बाप की जल्द-बाज़ी ने तुम्हें इस जन्नत अर्ज़ी में ला डाला है उसे ग़नीमत जानो। जो ये ना होता तो जूतीयाँ चटख़ाते फिरते।” ऐसे मौक़े पर उसका जी चाहता है कि वो दुनिया को दोनों हाथों से उठा कर दे पटख़े और...
मगर वो इस ख़्याल को अपने दिमाग़ में जड़ पकड़ने से पहले ही उखाड़ फेंकता है। दुनिया जानती है कि वो इंगलैंड से कोई डिग्री या डिप्लोमा तो ला न सका। उसके जाते ही साहबज़ादी साहिबा को दिल के दौरे पड़ने लगे और उन्होंने रो-रो कर उसे वापिस बुलवा लिया, इसलिए बेचारे की हालत ऐसी नीम पुख़्त रोटी जैसी है जो क़ब्ल-अज़-वक़्त तवे से फिसल कर घी में आन गिरी हो, ऊपर से काहिली और बेकारी की फफूँद ने उसे और भी बे-मसरफ़ बना दिया। वो एअर कंडीशन कमरों में सो-सो कर अपनी पुरानी कच्ची खपरैल से काँपने लगा है। फ्लश का आदी हो कर उसे ग़लीज़ कच्चे संडास के ख़्याल से बुख़ार चढ़ता है। इसकी क़िस्मत का सितारा बुलंदियों पर टिमटिमाता है। जिसे पकड़ने के लिए वो आवारा बगूले की तरह सरगर्दां है और जब वो बहुत थक जाता है तो ग़ुस्से में आकर व्हिस्की की मिक़दार पैग में दोगुनी कर के पुर-सुकून जमाइयाँ लेने लगता है। यही उसकी कश-मकश है और यही ज़िंदगी की जद्द-ओ-जहद। नमक की कान में जा कर वो भी तो नमक का खंबा बन चुका है।
जब इन नमक की कानों पर फावड़ों की चोट पड़ेगी और उनके परख़चे उड़कर रोटियों में गूँध डाले जाऐंगे तो इस ख़ालिस नमक के तोदे की रोटी नमकीन नहीं बल्कि किरकरी होगी, फिर उसकी किरकरी रोटी का निवाला भी थूक दिया जाएगा।
मेरी एक भाबी और भी है। ये तालीम याफ़ता कहलाती है, उसे एक कामयाब बीवी बनने की मुकम्मल तालीम मिली है। वो सितार बजा सकती है। पेंटिंग कर सकती है। टेनिस खेलने, मोटर चलाने और घोड़े की सवारी में मश्शाक़ी है। बच्चों की परवरिश आया से बख़ैर-ओ-ख़ूबी करवा सकती है। ब-यक वक़्त सौ डेढ़ सौ मेहमानों की आओ-भगत कर सकती है। मेरा मतलब है बैरा लोग को अपनी निगरानी में लेकर। बड़े लाड प्यार से उसकी कॉन्वेंट में तर्बीयत हुई और जब ख़ुदा रखे सिन-ए-बलूग़ को पहुँची तो उसके रौशन ख़्याल वालदैन ने उसके हुज़ूर में होनहार उम्मीदवारों की एक रेजिमेंट को पेश होने की इजाज़त दे दी। उनमें आई. सी. ऐस. भी थे और पी. सी. ऐस. भी थे। हसीन और तालीम याफ़ता भी थे, बदसूरत और दुधारी गाएँ भी, अशर्फ़ियों के थैलों के साथ-साथ मुँह का मज़ा बदलने को कुछ अदीब भी और शायर भी और फिर उससे कह दिया कि बेटी तेरे आँखें भी हैं और नाक भी, ख़ूब ठोक बजा कर एक बकरा छाँट ले।
सो उसने ख़ूब जाँच पड़ताल कर एक अपने ही पल्ले का भारी भरकम चुन लिया और उस पर आशिक़ हो गई जिसकी दाद उसके वालदैन ने अज़ीमुश्शान जहेज़ की सूरत में दी।
लोग उस हंस-हंसिनी के जोड़े को रश्क की निगाहों से देखते हैं और वो भी शिद्दत-ए-उलफ़त में बेताब हो कर एक दूसरे को 'डार्लिंग' कहते हैं।
दोनों मियाँ बीवी एक ही फर्मे के बने हुए हैं। उनके मिज़ाज यकसाँ, पसंद और नापसंद यकसाँ, ग़रज़ हर बात यकसाँ है। दोनों एक ही कल्ब के मेंबर हैं, दोनों एक ही सोसाइटी के चहीते फ़र्द... एक ही थाली के चट्टे-बट्टे। यही वजह है कि उन्हें एक दूसरे से इतनी शदीद किस्म की नफ़रत है, वो महीनों एक दूसरे की सूरत नहीं देखते। फ़ुर्सत ही नहीं मिलती।
मियाँ का एक दूसरे आला अफ़्सर की बीवी से मशहूर-ओ-मारूफ़ किस्म का इश्क़ चल रहा है और बीवी उसके एक हमअस्र से मानूस है, जिसकी बीवी अपनी सहेली के मियाँ से अटकी हुई है ये सहेली एक सार्जेंट के दाम-ए-उलफ़त में गिरफ़्तार है जिसकी अपनी बीवी एक बोझल से सेठ के पास रहती है, जिसकी पुरानी चेचक-रू बीवी मैनेजर से उलझी हुई है जो ऐंगलो इंडियन लड़कियों के चक्कर में पड़ा हुआ है। जो मिल्ट्री के नौ-उम्र... उन्हें छोड़िए भी, क्या फ़ायदा दख़्ल दर माक़ूलात से। मेरे बाल नाई के पास, नाई का उस्तरा मेरे पास। मेरा उस्तरा घसियारे के पास। इस तरह ये ज़ंजीर एक हलक़े के मुँह में दूसरे की दुम लिए दुनिया के गर्द चक्कर काट रही है। मेरी भाबी भी इस ज़ंजीर का एक हलक़ा है और वहाँ जब तक लटकी रहेगी जब तक ज़ंजीर कुर्रा-ए-अर्ज़ को जकड़े रहेगी।
और मेरी तीसरी भाबी तो जग की दुल्हन है। वो उस सड़क के मानिंद है जिस पर सब चलते हैं। उस छाओं की तरह है जो हर थके-माँदे को अपनी आग़ोश में थपकियाँ देकर ख़ुद-फ़रामोशी के अस्बाब मुहय्या करती है। वो साझे की हाँडी है जो आख़िर में चौराहे पर फूटेगी, वो जिन्हें मुँह का मज़ा बदलने के लिए नेअमत ख़ाने में माल मसाला रखने की तौफ़ीक़ नहीं वो इस सिला-ए-आम से फ़ायदा उठाते हैं।
वो रोज़ शाम को नए दूल्हा की दुल्हन बनती है और सुबह को बेवा हो जाती है। वो अपनी उन बहनों से ख़ुशनसीब है जो अल्लाह की देन से एक शब में दस-बारह बार दुल्हन बनती हैं। दस बरातें चढ़ती हैं और दस बार राँड होती हैं। बा’ज़ लोग नकचढ़ी पड़ोसनों की तरह उस पर टेढ़ी टेढ़ी नज़रें डालते हैं, उनका ख़्याल है कि वो कुछ नीच है। कोई गुनाह कर रही है।
मगर ख़ुद उसकी समझ में नहीं आता कि वो कौन सा पाप कर रही है। दुनिया में क्या नहीं बिकता और क्या नहीं ख़रीदा जाता। जो लोग उसे जिस्म बेचता देखकर इतना बिलबिला उठते हैं। क्या लोग पैसे के इवज़ अपने दिमाग़ नहीं बेचते। अपने तख़य्युलात का सौदा नहीं करते। अपना ज़मीर नहीं बेचते। मासूमों का ख़ून भी तो आटे में गुंध कर बिकता है। कारीगर का गाढ़ा पसीना भी तो कपड़े के थान रंग कर फ़रोख़त किया जाता है। एक क्लर्क की पूरी ज़िंदगी चालीस रुपया महीने पर बिक जाती है। एक टीचर की पूरी उम्र का सौदा उतने ही दामों पर हो जाता है। तो फिर उस जिस्म-ए-ख़ाकी के लिए क्यों इतनी ले दे।
और उसका बाप काले बाज़ार का मुअज़्ज़िज़ सुतून था। उसका भाई नाजायज़ ज़राए से नाजायज़ लोगों तक पहुँचता था। उसका दूसरा भाई पुलिस का ज़िम्मेदार फ़र्द होते हुए भी ग़ैर ज़िम्मेदाराना हरकतें किया करता था। और दुनिया इन सबको जानते हुए भी इन्हें गले से लगाए बैठी है। वो भी तो आख़िर इन्हीं में से एक है जहाँ आवे का आवा टेढ़ा है वहाँ उसकी भी खपत होनी चाहीए।
वैसे वो कोई पुश्त-हा पुश्त की रंडी नहीं। उसमें इसका क्या क़सूर, वो आर्ट की ख़िदमत करने फ़िल्म लाईन में गई और वहाँ से लोग न जाने कब और कैसे उसे धीरे-धीरे इस कोने में खींच लाए। उसने यही तो किया फ़िल्म स्टार बनने की ख़ातिर हर आस्ताने पर सर टिकाया। फ़नाइंसर से लेकर ऐक्टर तक के घर की ख़ाक छानते-छानते वो ख़ुद छलनी बन गई। इस गड़-बड़ में वो न जाने कौन सा रीहर्सल ग़लत कर गई जो बजाय आसमान फ़िल्म का दरख़शां सितारा बनने के वो यहाँ सड़क के किनारे टिमटिमाने लगी।
यही नहीं कि उसने शादी न की हो, उसने उस कूचे की भी दश्त-पैमाई कर के देख ली, मगर शादी के चंद ही महीने बाद उसका मियाँ, हस्ब-ए-मामूल इधर-उधर जाने लगा। वो शायद तंगी तुरशी में भी गुज़र कर लेती, मगर वो तो जितने पैर सिकोड़ती गई उतनी ही वो चादर कतरता गया।
सिवाए बीवी बनने के उसे और कोई हुनर न आता था, वो चाहती तो तीस पैंतीस की उस्तानी गिरी कर लेती मगर इतने रुपय से तो उसे शम्पू का ख़र्च चलाने की भी आदत न थी, या हस्पताल में नर्स बनने की कोशिश करती, और साठ रुपय के इवज़ ख़ून, पीप, खाँसी, बुख़ार, क़ै, दस्त में क़लाबाज़ियाँ खाती, लेकिन वो अच्छी तरह जानती थी कि इस किस्म की हिमाक़तों में जान खपाने का शौक़ उसके ख़मीर में हुलूल नहीं। मजबूरन उसे फ़िल्म के दरवाज़े पर दस्तक देनी पड़ी।
रंगीन फ़िल्म हिन्दुस्तान में बनती तो शायद उसका मैदा शहाब रंग कुछ बर्क़ पाशीयाँ कर सकता। लेकिन इन काली सफ़ेद फिल्मों में उसकी चौड़ी चकली नाक और चुंधी आँखों ने उसकी लुटिया डुबो दी। दो-चार थकी हारी फिल्में बना कर वो फ़नाइंसर की आग़ोश से गिर कर डायरेक्टर के पास आई। वहाँ से फिसली तो हीरो और साईड हीरो के हत्थे चढ़ी। उसके बाद एक कैमरा मैन लपका... वहाँ से जो टपकी तो क़ा’र गुमनामी में खिसक गई और जब आँख खुली तो उसने ख़ुद को इस बाज़ार-ए-हुस्न में मुअल्लक़ पाया मगर वो अब बड़ी समझदार हो गई है। अपने ग्राहकों को बड़ी होशयारी से नापती-तौलती। अगर किसी दिन कोई मोटी मुर्ग़ी, बदसूरत बीवी और ग़लीज़ बच्चों की हंकाली हाथ आ गई तो वो उसे अपना मुस्तक़िल गाहक बना डालेगी और सरकार से इस इस्तिक़लाल का सर्टीफ़िकेट हासिल कर के काले बाज़ार के आइन्दा सुतून तामीर करना शुरू कर देगी।
ये हैं आदम-ओ-हव्वा के जाँनशीन। तख़लीक़ के अलमबरदार और दुनिया की गाड़ी को चलाने वाले जो बजाय चलाने के उसे लात घूँसे से आगे पीछे ढकेल रहे हैं।
मगर ठहरिए मेरी एक और भाबी है। पर वो ना जाने कहाँ है। मैंने एक-आध बार सिर्फ उसकी झलक देखी है। कभी उसके माथे पर ढलके हुए ज़रतार आँचल को देखा है। मगर उसे पर्चम बनते नहीं देखा। उनकी दूध ऐसी पेशानी पर मेहनत की अफ़्शाँ चुन्नी देखी है। मगर इस अफ़्शाँ में ऊदा, पीले, नीले सब रंग हैं और सुहाग की सुर्ख़ी की झलक नज़र नहीं आती। मैंने उसकी हसीन उंगलियाँ तो देखी हैं मगर उन्हें उलझे बालों का पेच-ओ-ख़म सुलझाते नहीं देखा। उसकी साँवली शाम को शरमाने वाली ज़ुल्फ़ों की घटाऐं देखी हैं मगर उन्हें किसी के थके हुए शानों पर परेशान होते नहीं देखा। मैंने उसका चिकना मैदे की लोई जैसा पेट तो देखा है मगर उसमें अभी नई उम्मीद के पौदे को परवान चढ़ते नहीं देखा। मैंने उसकी चितवनें देखी हैं मगर उन्हें शमशीर बनते नहीं देखा।
सुनते हैं सुनहरे देसों में वो आन बसी है और माथे की अफ़्शाँ अमर सुहाग का सिंदूर बन चुकी है... उसकी महकती ज़ुल्फ़ें चौड़े चकले शानों पर बिखर रही हैं... उसकी पतली-पतली उंगलियाँ उलझे बाल ही नहीं सुलझा रही हैं बल्कि बंदूक़ो में कारतूस भर रही हैं और तलवारों की धार पर अपनी तीखी चितवनों से सान रख रही हैं।
दूर जाने की ज़रूरत नहीं। यहीं बहुत क़रीब मेरे पड़ोस में तेलंगाना की अलबेलियाँ जी वार जवानों की आरतीयाँ उतार रही हैं। और उनके हथियारों पर अक़ीदत के फूल चढ़ा कर सींदूर के टीके लगा रही हैं।
मेरा इरादा है कि एक दिन मैं भी उस सरज़मीन पर जाऊँगी और उन सुहागनों के माथे का थोड़ा सा सींदूर माँग लाऊँगी... और उसे अपनी माँग में रचाउंगी।
और फिर वो मेरी चहेती भाबी मेरे देस के कोने-कोने में आन बसेगी। अगर इन सास-ननदों के डर से मेरी भाबी बन कर न आ सकी तो मैं दावे से कहती हूँ, कि वो मेरी बहू बन कर तो ज़रूर आएगी।