बहू और घोड़ा (गुजराती कहानी) : झवेरचंद मेघाणी
Bahu Aur Ghoda (Gujrati Story) : Jhaverchand Meghani
मेरे पति नाटक देखने गए हैं। अपने बच्ची के लिए रसोई में दूध तैयार करके ढंक ढूंककर नीचे से ऊपर आई हूँ। यहाँ अभी हम केवल दो लोग ही हैं एक मैं और दूसरा ये दीया।
मैं अपना जीभ काट लेती हूँ : भूल हो गई। अभी इस आधी रात को मेरे साथी के रूप में कोई पुरुष का नाम नहीं आना चाहिए। दीया को "दीवों" कहते हुए न जाने क्यों मेरा मन पिछले दिनों में भटक जाता है। न जाने क्यों दीप मेरे अंतर की बातों की साक्षी बन कोई भेदी पुरुष की तरह सजीव बनता जा रहा है – ऐसा लग रहा है। यहाँ इस एकांत में पुरुष की कल्पना करना भी ठीक नहीं है। हंस हंस कर प्रकाश फैलानेवाला, मेरी ओर एकटक ताकते रहनेवाला, तेज के सरोवर में मेरे देह को तरबतर करने वाला और स्वयं मौन रहकर मेरे मन की बातों को समझ जाने वाले पुरुष की कल्पना करना तो सचमुच डरावना ही है। मेरे कहने का मतलब यह है कि अभी इस मंजिल में एक मैं जग रही हूँ और दूजा यह बत्ती जल रहा है।
मुझे मेरा बचपन याद आता है। इस घर के लोग मुझे बेवकूफ कहते हैं। नहाकर या सोकर उठने के बाद मेरे गले के सोने का हार चोकड़ी में या बिस्तर पर ही पड़ा रह जाता है। इसलिए सब मुझे "जंगली गाय", बुद्धू, गंवार कहते हैं। इन सबके बावजूद मुझे मेरे बचपन की एक-एक बातें याद है। उस समय मैं घर की दीवारों से मकड़ी के जाले, भौरे के बील को उखाड़ फेंकती थी। इन सबको करते देख रतन माँ मुझसे कहती रहती, "रहने दे, रहने दे पापन ऐसा मत कर नहीं तो तुझे अगले जनम में प्रतापराय सेठ के घोड़ा गाड़ी का घोड़ा नहीं तो उसके घर की बहू होकर जन्म लेना पड़ेगा।"
उन दिनों मैं नासमझ थी। मेरे मन में दिन रात ये ख्याल आते रहते कि क्यों बूढ़ी रतन माँ ने हमारे घर के सामने पड़ी रहने वाले घर द्वार बीना की बालूदी के अवतार के बदले, या फिर हमारे घर के आँगन पर से लकड़ी से मार खा खाकर भागती हुई कुतिया टीपूड़ी के अवतार के बदले, प्रतापराय सेठ का घोड़ा या उनके घर की बहुओं के जैसे सुख को मेरे पाप के बदले के रूप में बताया?
"तब तो मैं खूब पाप करूंगी"। नाचती कूदती हुई मैं कह उठती। "मरकर तो मुझे प्रतापराय सेठ का घोड़ा ही बनना है। बहुत मजा आएगा, बहुत मजा आएगा। रतन बा आप मुझे वो घोड़ा दिखाओगी ना?"
हमारा घर गाँव के मुख्य रास्ते के किनारे पर ही था। हर रोज शाम को दरवाजा खोलकर मैं रतन माँ के साथ सीढ़ियों पर बैठती थी और उस घोड़े की राह देखती रहती थी।
"वो आया सुन उसके घुंघरूओं की आवाज सुन रही है न?" रतन बा के कहते ही मैं अधीरता से हाँफती हुई खड़ी हो जाती। फिर तो अपनी विशिष्ट अदा के साथ जब चमचमाती गाड़ी को फूल के जैसे खींचता हुआ घोडा अपनी टगबगाती चाल से निकलता, तब उसके कपाल पर की लटकती लट, एक दूसरे को छूते हुए कान के नोक, कमान के जैसी टेड़ी गरदन, देखकर मेरा मन मयूर नाच उठता। मैं कह उठती "ओह हो रतन माँ, इस सुखद अवतार को पाने के लिए तो तुम जितना कहो उतना पाप करने को तैयार हूँ।"
रतन माँ मुझे समझाती "अरे मूरख ! ये उछलना कूदना तो उसका कुछ दिन के लिए ही है, बेचारा मजा कर ले कुछ दिन तक।"
पर मुझे तो ये सब कुछ भी समझ में नहीं आता था। फिर तो मैं सुबह शाम उस घुँघरू के आवाज को सुनने के लिए बेचैन बैठी रहती। आवाज सुनी नहीं कि दौड़कर दरवाजे पर पहुँच जाती। अगर माँ नहला रही होती तो भी उनका हाथ छुड़ाकर साबुन से जलती आँखों से भी घोड़ा देखने दौड़ जाती।
मैं सोचा करती "कितना भाग्यशाली घोड़ा है, उसके पीठ पर कितने सुंदर, हंसमुख, रोबदार लोग सवारी कर रहे हैं।" "चाइनासिल्क" के कोट पतलून से सज्ज मामलतदार साहब, भरे बाजार में सैकड़ो लोगों का सलाम दोनों हाथों से बटोरते हैं और हाथ में बड़े बड़े हुक्का थामे, कमर पर रूपहली मूठवाले तलवार वाले, बड़े तालुकदार उनको "सरकार सरकार" कहते हुए उनके सामने बिछ बिछ जाते हैं। तब तो इन महापुरुषों को देख देखकर सेठ साहब का घोड़ा इतराता होगा।
हर गाड़ी के समय पर स्टेशन जाकर कलेक्टर साहब से लेकर अव्वल दर्जे के कर्मचारी और माननीय पेसेंजरों को चाय नाश्ता पहुंचाने वाला ये घोड़ा दिन भर में जब भी निकलता, तब तभ मैं दरवाजे से बाहर निकालकर जरूर उसे देख लेती और जब रात के बारह या चार बजे की गाड़ी के लिए वह रबर टायरवाला गाड़ी को खींचता हुआ अपनी चाल की प्रतिध्वनि को गलियों में गुंजाता हुआ जोश के साथ निकलता तब मैं नींद में से जग जाती, अगर नींद नहीं खुलती तब तो मेरे सपने में वह घोड़ा जरूर आता।
बजार में भी अनेक बार सेठ साहब को बोलते हुए मैंने सुना। हमारे घर अगर कोई अतिथि आया हुआ होता तो सेठजी तुरंत पिताजी से कहते, "जरूरत पड़ने पर मेहमानों के लिए घोड़ा गाड़ी मँगवा लेना। हमें गैर मत समझना। घोड़ा बंधा बँधाया पड़ा रहे तो किस काम का। जरूरत के वक्त भाईयों के काम नहीं आए तो इसकी क्या सार्थकता है?"
मैं सोचती, "अरे वाह! कितना लाड़ला और सम्मानित घोड़ा है। खड़े खड़े ही मुंह की लगाम को चबा रहा है और वह भी चांदी का। मक्खी से बचने के लिए पूरे शरीर पर झालरदार जाली लगाया है।"
जिनके घर के घोडे इतना भाग्यवान है, उनके घर की बहुएँ कितनी लाड से रहती होंगी पायल झनकाती सुन्द्र वस्त्राभूषणों से लदी रहती होगी।
उनको देखने की मनोकामना भी मेरी पूरी हो गई एक दिन। हमारे घर के नजदीक वाला रास्ता इतना संकरा है कि आमने सामने से आनेवाले बैल गाडियां अगल-बगल से निकल ही नहीं सकते। उस दिन दोपहर के बारह बजे एक साथ सात बैलगाड़ियों का जमघट उस रास्ते पर लग गया। गाड़ियों पर रूई के गट्ठे लड़े थे। नकाबधारी सातों गाड़ीवालों के चेहरे पर रास्ते के धूल की परत चढ़ गई थी। सातों जन बैल के पुंछ को मरोड़ मरोड़ कर बजार के चढ़ाव को पार करने का प्रयास कर रहे थे। बैलों के कंधे छिलकर लहूलुहान हो रहे थे। एक गाय दबाव में आ जाने के कारण दूकानदार उन सात में से एक गाड़ीवाले को घसीट कर गाली देकर मारपीट करने लगे। दूसरे गाँव के गाड़ावाले इन व्यापारियों के साथ कुछ देर तक मस्ती मज़ाक करते रहे, थोड़ी लाचारी जताते, और कुछ देर तक आपस में अंदर ही अंदर लड़ाई झगड़ा कर रहे थे। उन लोगों को तो पता ही था कि गाय के दबाव में आने का असली जिम्मेदार कौन है, पर इस लड़ाई झगड़े, गाली गलौच से अगर कोई खुश हो रहा था तो वह मैं थी – आठ साल की लड़की, अपने घर के चबूतरे में बैठी थी, वहीं पर फंसे दो मुसलमान किसानों को बात करते हुए सुना कि "अब तो हद हो गई। दूकान के चबूतरे को बढ़ाकर बाजार के रास्ते को संकरा बनाने वाले तो ये व्यापारी ही है – और पीट रहे है परगाँव के गाड़ीवालों को। कोई देखनेवाला नहीं है न ?"
इस तरह से जब ठेले, गाड़ी, मुसाफिरों, पनिहारियों, सब्जीवालों – आदि तमाम लोगों का और वाहनों का जमघट वहाँ हो गया, तभी मैंने मेरी परिचित और प्रिय ध्वनि सुनी। मैं उठी और गर्दन लंबी करके बाजार की ओर नजर दौड़ाई - - -।
आ – हा – हा – सेठ की गाड़ी, नया घोड़ा, सफ़ेद झक्क घोड़ा और अंदर चार औरतें और पाँच लड़के बैठे हुए थे।
आज इतने वर्षों के बाद भी मैं उन दिनों की बातों को भूली नहीं। अंदर तो चारों घूँघट किए हुए बैठे थे, इसलिए पारदर्शी साड़ियों के आर-पार से मैं केवल उनके चेहरे की हल्की झलक ही देख पाई थी। पर कोहनी तक के खुले आठ हाथों पर ही तो मेरे नजर थी, जिस तरह कोई भिखारी का लड़का दीवाली के त्यौहार में हमारे पूनमचंद हलवाई की दुकान की हरेक मिठाई के थक्के की ओर ताकता रहता है उसी लगन के साथ मैं भी उनको ताक रही थी।
उनकी उँगलियों की अंगूठियों से लेकर कोहनी के ऊपर तक के बाजूबंध तक न जाने क्या क्या देखा? उन सबका मैं कैसे वर्णन करूँ? अब तो मेर नजरों में खोट आ गया है। इसलिए उस समय के मेरे आँखों की आतुरता का आज मैं सही न्याय नहीं कर सकती।
और उन पाँच लड़कों के अंगों पर न जाने कितने रंगों के कपड़े शोभा दे रहे थे। सेठ के घर की बहुएँ आज अपने समधियों के घर भोजन करने जा रही थी। इन बेचारों के साथ कैसा किया इन बैल गाड़ीवालों ने।
लोग इस तरह की अनेक बातें करने लगे थे। इतने में कोचमेन ने रास्ता रोकनेवाले गाड़ावालों को दो-चार गालियाँ देकर गाड़ी को पीछे ले लिया। एक गली में से गाड़ी को घुमाकर गाँव के बाहार से जानेवाले रास्ते से सेठ की बहुओं को समधी के घर पहुंचा दिया। ये लोग जहां भोजन करने आए थे वह जगह हमारे घर के नजदीक ही था। माँ को पता न चले इस तरह उनसे छिपकर मैं उस घर में पहुँच गई। मुझे सुंदर रेशमी वस्त्रों से ढंके चेहरों को देखने की तीव्र इच्छा हो रही थी। पर उस बड़े से घर में न जाने कौन से हिस्से में वो भागवंतियाँ घुस गई थी इसे, वहाँ कौन मेरे लिए फुर्सत से वहाँ बैठा था जो मुझे यह बताता। खाने खिलाने की धमा चौकड़ी मची हुई थी। चिल्लाकर रूँधे गले से वे इतनी ज़ोर ज़ोर से बात कर रहे थे और काम कर रहे थे कि कहीं इनमें झगड़ा शुरू हो न जाए इस डर से मैं वहाँ से भाग आई। माँ को जब पता चली कि मैं उनके घर उनके भोजनवाले दिन गई थी तो उन्होंने मेरे गाल को ज़ोर से मरोड़ दिया।
उनके गाल मरोड़ने के बाद भी उस दिन से मैं हर रोज मंदिर में आरती के समय जाकर अकेली ही प्रार्थना करती कि "हे भगवान मुझे उस सेठ के घर की बहू बना दो, नहीं तो मैं उस घोडा गाड़ी में बैठकर भोजन करने कैसा जाऊँगी? मुझे ऐसे फिर कहां मिलेगा?"
बस तब से जब तक मैं बारह-तेरह वर्ष की हुई तब तक के उन पाँच वर्ष के दरमियान मैंने सात एक बार सेठ के घर की बहुओं को घोडा गाड़ी में बैठकर निकलते देखा होगा। दो तीन बार भोजन के लिए और चारेक बार हमारी जाति के कोई वरिष्ठ गुरुदेव के आगमन पर के स्वागत के लिए।
पर इस बात को मैं ठीक से कह नहीं सकती कि वे चारों वही की वही थी या उनमें से किसी की अदला-बदली हुई थी । पर इतना तो मुझे याद रह गया कि कोहनी तक को बाहर झाँकती वो आठ हाथों की कलाइयाँ बारंबार बढ़ती घटती मोटी पतली, लालिमा भरी, तथा बीमार या बीमारियों से निस्तेज होती भिन्न-भिन्न लगती।
फेर-बदल का यह तरीका मुझे उन दिनों समझ में नहीं आता था। पर जब मैं बड़ी हुई मेरे अंतस में इन बातों की कड़ियाँ जुडने लगी। कभी तो रात के दो बजे तो कभी भोर की बेला में हमारे पडोसी अपने कपड़े लत्ते एक पोटली में बांधकर आती और समाचार देती कि सेठ का मझला, छोटा या बड़े लड़के की राजकोट वाली, वढवानवाली, हडमतियावाली या खीजड़ियावाली बहू का अंतिम समय आ गया है। मेरे माँ भी एक छोटी सी पोटली में साडी, कपड़ा और पेटीकोट लपेट कर सबके साथ निकाल पड़ती।
एक बार तो जाते जाते माँ को कहते हुए सुना था "क्या बताऊँ बहन हमारा भाग्य इतना खराब है न, कि ये मेरी तारा अभी तो तीन साल की छोटी है, लड़की अगर तेरह वर्ष की होती तो आज ही मैं इसके सुख के बारे में सोचती। पर ये तो दस वर्ष की है और फिर शरीर से भी दुबली पतली है। दस वर्ष की लड़की को पंद्रह वर्ष की कैसे कह सकते हैं?"
उस समय तो मुझे बहुत कुछ समझ में नहीं आया था, अब सब कुछ स्पष्ट है कि सेठ के घोड़े के रंग में इतना बदलाव कैसे और इन घोड़े गाड़ी में बैठकर भोजन करने जानेवालियों के आठ-आठ हाथ की कलाईयों को इतना रूपांतर इसका अर्थ यह था कि घोड़े और बहुओं की अक्सर मौत हो जाती और उसके बदले नए घोड़े और नई बहुएँ फटाफट आ जाती हैं।
ग्यारह, बारह और तेरह वर्ष की होने को आई तो मेरे माता पिता को मेरी चिंता सताने लगी। उस दिन हमारे घर के नजदीक के संकरी बाजार में जो बैल गाड़ियों का जमघट हुआ था वैसा ही अकुलाहट भरा वातावरण मेरे माता-पिता के छोटे से संसार में छा गया। न जाने क्या हुआ कि अचानक मेरा शरीर निखारने लगा, कितने गुप्त झरने रोम-रोम से फुटने लगे । मेरी माँ पिताजी से कहने लगी, "जिस दिन इसे सही में निखरकर सामने आना था उस दिन तक तो वो अकाल के भुक्खड़ जैसी दिखती रही। और आज इस करमजली में निखार आया है अब इसको कैसे हम पार लगाएगें और कहाँ पार लगाएंगे।
बापू कहते, "हम क्या कर सकते हैं। सेठ के घर में हमारी बेटी के लिए कोई बीमार थोड़े न पड सकता है - - -।"
सुनकर तो माँ दुगुने गुस्से से भर जाती, "मुझ पर व्यंग करने का आपको सही मौका मिला है। शर्म तो आती नहीं उल्टे गरज रहे हो। मैंने कब ऐसा कहा कि सेठ की बहुओं को मौत आ जाए।"
"तुम कह तो नहीं रही हो पर अंदर ही अंदर हम दोनों इस बात के लिए प्रार्थना तो कर ही रहे है न. . . ।
"होता होगा ये तो आप ही जाने" माँ नाराज होकर कहती। बापा बोलते, "पर इसमें हम गलत कहाँ हैं? विवाह के लायक लड़की के लिए तो सभी माँ बाप यही कर रहे हैं। आबरूदार घर की लड़की अपनी बीमारी के अंतिम दिनों में तकलीफ भोग रही हो तो क्या तभी से सब तैयारी में नहीं जुट जाते क्या? तो फिर हम कहाँ ब्राह्मण से उसके मरण का जाप करवा रहे हैं कि यदि सेठ के बहू के बीमार पडने का योग है तो जरा जल्दी जल्दी क्यों न आए?"
"मेरी किस्मत - ! अब जरा मेहेरबानी करके राजकोट, अमरेली का चक्कर तो लगा आओ!"
"पर चक्कर में किसके घर का लगाऊँ"
"बोर्डिंग में जाकर तो देखो पाँच सौ लड़के वहाँ पढ़ रहे हैं।"
"पर हमने तो बेटी को तीसरी के बाद से ही स्कूल छुड़वा दिया है और ढूँढना है बोर्डिंग रहकर पढ़नेवाला लड़का!"
"तब फिर किससे ब्याह रचाएंगे?"
"स्टेशन में अखबार बेचता है बड़ी चाची का बेटा रसिकलाल, उसमें क्या खराबी है?"
माँ की आँखों में पानी भर आया। उसका गला रूँध गया, वो फफक फफक कर रोने लगी। फिर तो बापा माँ को पटाने लग गए "पगली मैं तो मज़ाक कर रहा था। क्या लगा तुम्हें हमारी तारा जैसी बेटी को मैं अखबार बेचनेवाले के हाथों सौंप दूंगा? कदापि नहीं।
"ऐसा कहकर बापा प्याले में पानी लाकर माँ का मुंह धुलवाने लगे। माँ रोते-रोते हंसने लगी।
मैं तेरह वर्ष की तारा चोरी-चोरी कमरे के दरवाजे के दरार से सब देख रही थी। स्टेशन के अखबार वाले का नाम सुनकर तो मैं भी घबरा गई। कभी-कभार तो वो हमारे घर भी अखबार बेचने आता है। मेरे पिता तो पैसा खर्च करके अखबार खरीदने के पक्ष में ही नहीं हैं। इसके बावजूद रसिकलाल की वाक पटुता में फँसकर दो पैसे का अखबार खरीद ही लेते हॅं। शाम होते तक तो चार अखबार बीस जनों को पढ़वाकर रसीक दस आना कमा लेता था। हर रोज बीस जगहों पर भटकने के लिए बने उसके लंबे लंबे डग भरते पाँव की पिंडलियों को मैं ताकती ही रहती थी। न जाने क्यों मेरे नजर उसके शरीर के अन्य अंगों पर न जाकर केवल पाँव के पेशीदार पिंडलियों पर ही चिपके रहते : ऐसा लगता जैसे नजरों से मैं रसिक की पिंडलियों को अपनी अंगलियों से दबाती हूँ। अरे बाप रे! मुझे ऐसा लगता कि सूर्यदेव ने जैसे कर्ण को वरदान में वज्र का देह दिया था उसी प्रकार से रसिक को श्रमदेवता ने लोहे के पाँवों का वरदान दिया है।
हाय रे ! ऐसे दाग वाले पाँववाले अखबार वाले के साथ मेरे विवाह की बात! मैं थरथरा उठती। तेरह वर्ष की तारा को अब देहरी के बाहर निकलने की मनाई हो गई। किसी भी आने जाने वाले के नजर के सामने जाने पर पाबंदी लगा दी गई। उन दिनों मेरे संसार में एक मात्र पुरुष था ये अखबार वाला रसिकलाल और दूसरे थे मेरे बापाजी। मैं अपनी कल्पना के जाल सेठ के सुंदर घोडा को घेरकर बुनती रहती, जिसमें कि मैं चार बहुओं में से एक बनकर बैठी हूँ। मेरा संकल्प उस गाड़ी में चढ़कर उन चारों में से एक आध को धक्का मारकर खासेड़ रहा था। सेठ के सबसे छोटे बेटे दूसरी बार की ध्रांगध्रा वाली बहू को जैसे मैं आँखें दिखाकर कह रही थी "चलो, अब उठो तो सही, तीन वर्ष तो हो गए तुम्हें आए हुए। सर्दी ने तो तुम्हें जकड़ रखा है। रात को हल्का हल्का बुखार भी चढ़ता है, तो फिर अब सीधे तरीके से उठो, उठकर मेरे लिए जगह बना दो। मुझे उस दागदार पैर वाले रसिक से शादी नहीं करना है। कभी कभी तो जब ये रसिक अपनी बूढ़ी अंधी विधवा माँ को लेकर दवाखाने जाता था, तब मैं (जब मैं दस वर्ष की थी तब की बात है) दरवाजा बंद करके अंदर घुस जाती थे। ओ मेरी माँ! मैं इतना डर जाती । "मुझे उसके घर रोटी बनाने नहीं जाना है।"
दो वर्ष और बीत गए। मैं पंद्रह की हो गई थी और घर की चार दीवारों में बंदी बनकर रहने लगी थी। उन्हीं दिनों मेरे माँ की और शायद मेरे बापा की भी संयुक्त प्रार्थना के प्रताप से सेठ के घर में आटकोट वाली बहू के अंतिम समय का समाचार आया।
छ: महीने तक रोज-रोज पंद्रह-पंद्रह दिनों तक लोग बीमार की खबर पूछने आने लगे। लगातार रेलगाड़ी के समयानुसार घोड़ेगाड़ी के घुँघरूओं की आवाज सुनाई देने लगी। आधी रात को या भोर की बेला के थरथराती ठंड में जब मैं कमरे के बिस्तर में सो रही होती तब मेरे कान मेरे प्रिय घोड़े की चाल पर लगे रहते। खट . . . खट . . . खट . . . जैसे कोई भूत गलियों में चहल कदमी कर रहा हो। जैसे आटकोट वाली बहू का काल उसके अंतिम समय के लिए टहल रहा हो। घोड़े के शरीर पर चाबुक की मार पड़ती और उसकी सनसनाहट मेरे कंबल को भेदकर मुझे सुनाई देती।
बीमार के लिए मुंबई फ्रूट की टोकरियाँ आती, उसे लाने के लिए भी गाड़ी ही जाती। वैद्य-डाक्टरों को लेने छोड़ने के लिए परी-तालाब के सैर कराने शहर में घूमने घामने के लिए गाड़ी ही खड़ी रहती। ये छ: महीने तो सेठ के घर में मधुमास के उत्सव जैसा माहौल रहा।
एक दिन इन सब जद्दोजहद से आटकोटवाली मुक्त हो गई। मैं अपनी उपरी मंजिल की दरार से सेठ के दूसरे नम्बर के बेटे को अपनी पत्नी की मौत के पांचवें दिन ही पान चबाकर जाते हुए देखा। उसी क्षण मुझे पीछे से क्या पता किसने धक्का दिया और खिड़की का आधा पल्ला खुल गया। पल्ले के खुलने की उस आवाज से सेठ के बेटे ने नजर उठाकर ऊपर देखा और और नजरों से मुझे पूरे का पूरा निगल गया।
घबराकर मैंने पीछे मुड़कर देखा तो : धीरी बुआ खड़ी थी। मेरा चेहरा लाल हो गया "बुआ! आपने मेरे साथ ऐसा क्यों किया?"
"इसलिए तो तुम्हें ऊपर लेकर आई थी।"
"पर क्यों भला?"
"बदमाश अब भी पूछ रही है क्यों?" कहते हुए बुआ ने मेरे गाल पर चपत लगाई, चार साल से ताप कर रही है. . ."
मैं समझ गई ये तो वर-कन्या को परस्पर मिलाकर संबंध जोड़ने का संकेत था। पर इसमें तो मुद्देवाली बात यह थी कि वर कन्यों को देख ले बस। मेरे लिए तो देखनेवाली कोई बात ही नहीं थी। इस बाबत मेरे कोई उत्कंठा नहीं थी। मेरा सपना तो बस यही था कि घुंघरूदार घोड़ेगाड़ी में बैठनेवाली चार बहुओं के बीच रेशम की साड़ी पहनकर घूँघट काढ़े, कोहनी तक सोने के गहने पहनकर बैठना।
मेरे सपने को सच में पूरा होने का वक्त आ गया था। एक दिन मेरे सर पर सेठ-परिवार की चुंदड़ी डाल दी गई।
इस शहर में तो हम बापू के धंधे की वजह से ही आए हैं। हमारा वतन तो राजकोट है। बापू की इच्छा तो मेरा विवाह यहीं पर करने की थी। पर सेठ के घर वालों ने जिद की कि "इसमें हमारी तौहीन होगी। राजकोट शहर क्या कहेगा? कहेगा कि रेल भाड़े के डर से, अथवा तो राजकोट के महाजनों का कर चुकाना पड़ेगा इसी डर से या लालच में पड़कर वहीं के वहीं निबटा दिया। ऐसी दो-तीन घरों मैं बैठी हुई औरत जैसे नहीं करना है हमें। हम अपनी शान के साथ बारात लेकर आएंगे। अगर इससे आपका खर्चा ज्यादा हो रहा हो तो आप खुशी से हमारी ओर से 500/- खर्च कर लीजिएगा।
इन सब बातों को सुनकर बापू का सर फटने लगा, पर माँ के दिए गए तानों से डरकर मौन हो गए। थोड़े में कहना हो तो हम राजकोट आ गए, वहाँ बड़े धूमधाम के साथ बारात का आगमन हुआ। शहर के चारों बेण्ड बुलाए गए। बारातियों के लिए मोला शाक, घी के मोनवाली रोटी, गला भात, तंडलिया की भाजी, काली मिर्च का भूकका, सुंठ, दूधवाली चाय आदि विशिष्ट स्वादवाले व्यंजन बनाए गए। सभी के शौक और तबीयत का ख्याल रखने में मेरे माँ तीन दिन तक अकेले ही सब संभालती रही। पर एक दिन तुरई की सब्जी ने सब किए कराए पर पानी फेर दिया। वह न मिली तो न मिली। जामनगर तक भी नहीं मिली। और इस बात ने पूरे कार्यक्रम का सत्यानाश कर दिया। यह मेरे पिताजी की "कंजूसाई" और "बेपरवाही" मानी गई और जी खोलकर इस बात का तिरस्कार हुआ।
"आप से तो कह रखा था ना कि अगर खर्चा न उठा सके तो हमसे ले लेना।" मेरे जेठ चिड़कर बोले उठे। "फिर भी तुम्हारा स्वभाव तुम्हारे जात पर चढ़कर बोला, सेठ। जो छ: बेला हमारा सत्कार न कर सके उनकी बेटी हमारे घर आकार क्या सुख देगी?"
"जुबान संभालकर बात करो सेठ।" मेरे पिताजी का मिजाज छिटक गया। ’आपकी साहूकारी आपके घर में रखिए।"
"अरे!अरे!अरे! करते हुए कुटुंबजन संबंधी गाँव के लोग और खासकर जिनकी बेटियों के बदले में मे इस सौभाग्य की भागीदार बनी थी, वो सबने आकार मेरे पिताजी के जुबान पर हाथ रख दिया ।" बेटी के बाप को ऐसा नहीं कहना चाहिए। बेटी के बाप को तो पाँव में गिरकर गिड़गिड़ाना चाहिए। जिस बेटी का बाप अडचन डालता है तो उसका फल तो उसके संतानों को भोगना पड़ता है न।"
"ऐसा है तो फिर मैं अभी तुरंत बेटी के गले में से वरमाला को निकाल फेंकता हूँ। मुझे इसका कोई रंज नहीं।"
"अरे ऐसा नहीं कहते . . . सेठ।" मेरे पिताजी को सब समझाने लगे "विवाहित कन्या तो सडे हुए अनाज के जैसी है। भाई। पगड़ी उतार कर समधी से माफी मांगो।"
"मुझे पगड़ी नहीं उतारना है।"
"फिर तो उसकी ओर से हम सब उतारते हैं सेठ।" गाँव के लोग खासकर वो लोग जिनकी पिता के बेटियों का भाग्य मैंने छीना। अपनी अपनी पगड़ी उतारकर सेठ जी के पाँव पड़ गए। बोले "ये तो छोटा है, पर हम। बड़े बूढ़े बैठे हैं न। राजकोट की लाज हम ऐसे नहीं जाने देंगे। हम माफी मांग रहे हैं।"
ये सब देखकर मेरे पिताजी आपे से बाहर हो रहे थे।
सेठजी ने उदार बनकर जवाब दिया मेरे मन में तो इस बात का कोई मेल नहीं है। पर हमने कुल का ध्यान नहीं रखा, हमारी बराबरी का ख्याल नहीं रखा बस केवल कन्या की तारीफ सुनकर ही हम बहक गए। इसलिए हमें शुरू से ही ये सब झेलना पड़ रहा है। हमें इस बात का कोई गम नहीं। अगर हम अपना मन खुला न रखें तो व्यवहार कैसे करेंगे? हमारे पिछले जन्म के कर्म, पर इस बात का कोई गम नहीं। इंसान अपने बराबर के लोगों में, खानदान देखकर बात चलाते हैं तो वो अकारण नाही न? फिर भी कोई बात नहीं. . .। ये तो सोने की थाली में लोहे की कील जैसी बात हुई। ठीक है। हमें इस बात से कोई फरक नहीं पड़ता।"
भोजन के बाद मैं और माँ ने भीतर के कमरे में बैठकर इस झगड़े को सुना। मेरे माँ रोती रही। मैं रोने-रोने को हो गई। पर मुझे तो जैसे तैसे ये तीन दिन निकालने थे फिर ससुराल जाने की जल्दी पड़ी थी। जिससे कि बापू का अपमानित होना उस समय इतना चुभा नहीं।
फिर तो मेरी माँ बाहर निकली और समधी के सामने आँचल फैला दिया फिर मुंह में चपटी धूल लेकर माफी मांगी। शाम को लगभग बीस प्रकार के अलग-अलग व्यंजन बनाकर कब्ज से पीड़ित, बीमार हरस के रोगी, गर्मी से लाचार लोगों की सार संभाल की। देर रात को डॉक्टर की जरूरत महसूस हुई। माँ ने हमारे संबंधी लल्लुभाई डॉक्टर को गाड़ी भेजकर बुलाया। पर मेरे जेठजी लल्लुभाई डॉक्टर को खादी के कपड़ों में देखकर चीढ गए। बीमार को देखकर लल्लुभाई डॉक्टर ने मुस्कुराकर कहा "इन्हें कुछ भी नहीं हुआ है।" आप नाहक घबरा गए, पेट में गैस बन गया है। उनकी बातों को सुनकर बाराती नाराज हो गए। "ये आपके बस की बात नहीं हैं।" कहकर लल्लुभाई को उन्होंने वापस लौटा दिया।
इतने में जेठजी चिल्लाए "क्या राजकोट में कोई गोरा डॉक्टर नहीं हैं?"
मेरे माँ ने तब पंद्रह रुपए फीस देकर मेजर फेन फेनी को बुलवाया। उन्होंने रोगी की जांच की। आधे घंटे तक कभी उल्टी लिटायी तो कभी सीधी, कभी दाहिनी ओर तो कभी बाईं ओर फिर पेट, आँख, कान, नाखून, गला, शरीर के सभी अंगों की जांच की, फिर गंभीर मुद्रा में जानकारी दी कि"पूरी रात यहाँ पर एक नर्स को रखना पड़ेगा अगर ध्यान नहीं रखा गया तो ये केस अंतड़ियों के सड़न का रूप ले लेगा।
"दोष तो इसमें खुराक का ही है न साहब?" जेठजी ने पूछा।
"बेशक : "खुराक और पानी।"
फिर जब मेजर फिन फेनी की मोटर लौट गई तब सभी उल्लासित हो उठे। पूरी रात एक ख्रीसती नर्स को वहाँ रखा गया – बेशक हमारे खर्चे पर।
इस पूरे समय के दरमियान मेरे बापू एक कमरे में सोए रहे।
अंतत: मैं ससुराल पहुंची। रास्ते भर मेरे बापू की नालायकी पर बातें होती रही। ठट्टा-मसकारी रोष और धिक्कार ही मुख्य विषय था। मेरा चेहरा घूँघट में होने के कारण वे लोग और ज़ोर ज़ोर से मेरे अभिमान पर चोट कर रहे थे।
और सब तो ठीक है पर हम जिनको दु:खी करके पराए घर में ले आते हैं, उनकी क्या दशा होती होगी? उनके दर्द आँखों का दर्द बन जाय तो हमारे लिए डूब मरनेवाली बात है न?"
ये मुझे दिलासा देने वाली बात थी। इन लोगों को दूसरों को रक्षा करने की कितनी चिंता है। मैं कितनी स्नेहशील परिवार में जा रही हूँ।
विवाह की पहली रात :
उनदिनों की बातों को मैं अपनी प्रिय सहेली से एक शब्द भी नहीं कह सकती, पर आज ऐसा लग रहा है कि इस पर एक पूरी पुस्तक लिख लूँ। पर नहीं नहीं उस रात के तीन प्रहारों को तो शब्दों में उकेरने जैसा नहीं है। मेरा पूरा शरीर पानी में शक्कर की तरह पिघल कर एकाकार हो जाएगा। जैसे रूई का फाहा बनकर हवा के बहाव में उड़ जाऊँगी। अगरबत्ती की तरह मेरा अंग अंग जलकर सुगंधीदार धुएँ का लच्छा बन घूमता हुआ आकाश पर चढ़ रहा था। मेरा हृदय धूपदानी बन रहा था। मैंने न कहीं पढा हो, न सुना हो – न सपने में कभी अनुभव किया हो ऐसा गुंजन मेरे शरीर के पोर-पोर से उठ रहा था। माँ को मैंने कपूर के टुकड़े को लेकर अंगार पर रखते देखा है यह मुझे याद है : मैं जैसे कपूर की जलती हुई पुतली बन गई थी। मेरे जैसी अनपढ़, अज्ञानी, नासमझ जो कल तक कंचे खेलने वाली थी को ये कौन चुपके-चुपके छुप छुप कर जीवन की अजब कहानी कह रहा है? मेरी जैसी करोड़ों कन्याओं को क्या ये एक ही अदृश्य मित्र सदा से यही रहस्य सिखाता आ रहा है?
देर रात को सेठ का बेटा आया। उसके चेहरे पर नजर डालते ही न जाने क्यों मैं स्तंभित रह गई। उसे मैं पसंद आउँगी या नहीं सोचते ही उसने मुझ पर कब्जा कर लिया। उसके मुंह से शराब की दुर्गंध के बगैर भी वह नशे में है ऐसा लगा।
उसकी आंखे रूवाब की ज्वाला से जल रही थे। कबूतर को अपने जबड़े में भींचती किसी बिल्ली की तरह उसने अपनी बेहोश इच्छाओं को मुझ पर उड़ेल दिया। कपूर की पुड़िया को जैसे किसी ने भरभराकर भट्टी में झोंक दिया। जरा भी सुगंध फैलाए बगैर मेरा यौवन भस्म हो गया। मैं कुछ कह भी नहीं सकी। वह कुछ सुनने कहने जैसा नहीं रहा था।
सुबह जब मैं नीचे उतर रही थी तब उन्होने कहा, "बड़े भैया तेरे बापू से बहुत नाराज हैं संभाल कर रहना। अपने को घर के लायक बनाने की कोशीश करना नहीं तो तेरा यहाँ टिकना मुश्किल है। तेरे जैसी तो इस घर को बुहारने में निकाल फेंके जाते हैं। ध्यान रहे।
कोशिश करने के बावजूद आज मैंने पहली बार तीनों देवरानी – जेठानी का चेहरा देखा – देखा तो देखती ही रही। ओह हो कितनी गोरी! पर लाली की एक हल्की झलक भी नहीं। सोने के चूड़िया हाथों पर ऊपर नीचे खनकती हुई सरक रही थी। पाँव के छड़े मुंबई से गढ़कर आए हुए, जैसे पाँवों पर से अभी-अभी सरक पड़ेगी। बाजूबंध न जाने क्यों इतने बड़े हैं, उसे धागे से बांधकर दबा लिया गया हे। कनपट्टी पर लटों की शोभा क्यों नही हैं?
इन सुंदर चेहरों पर तो मुस्कान खेलते रहनी चाहिए। पर तीसरे दिन से ही मेरे लिए इनके चेहरे पर नाराजगी झलकने लगी। मैं कमरे से जरा देर से निकली क्योंकि मेरा पूरा शरीर मरोड़ रहा था और सर भी चकरा रहा था बस यही कारण था। पर न जाने क्यों कोई पूछता ही नहीं कि तुझे क्या तकलीफ है तारा? मैं आलसी भी नहीं, कामकाज से जी भी नहीं चुराती हूँ। पर मेरे शरीर के जोड़, न जाने क्यों टूट रहे हैं, रात को इनके भी शरीर के सांधे टूट रहे थे। उन्होने मुझसे चंपी कराई। ऐसे में रतजगा हो गया। ये बात मैं अपनी देवरानी जेठानी को कैसे समझाऊँ कि इसलिए उठने में देर हो गई।
सब लोग नाराज होने लगे,"कि हमने सोचा था कि तुम्हारे आने से हमें रसोई के कामकाज में थोड़ी राहत मिलेगी। पर तुम तो तुम्हारे बाप के घर से कुछ खा-पीकर आई ही नहीं। हमारी किस्मत ह्में ऐसी ही मिली।
मेरी देवरानी बोली, "मेरे चीका को पीने के लिए जरा भी दूध नहीं मिलता, क्योंकि मैं दिन रात खटती ही रहती हूँ। क्या मुझे अकेली को ही बाप की आबरू को बचना है। जो मैं अकेली ही जूटी रहूँ?"
छोटी भाभी भी मेरे हाथ से पानी की देगची को छीनकर बोले, "लाओ जी तुमसे नहीं उठेगा। आप को इतना भी पता नहीं है कि मेहमानों को मुंह धोने के लिए पहले पानी देना है फिर झटपट चाय बनाना है? बाप के भर तो मेहमान आने पर बेचैन हो जाती होगी. . ."
ऊपरी मंजिल से पुरुषों के पुकारने की आवाज लगातार आ रही थी, "गरम पानी अब तक क्यों नहीं आया? सब के सब कहाँ मर गए? खाते वक्त तो थाली भर भर के खाते हो और काम के वक्त. . .। चाय कब तक मिलेगी? मेहमानों को गाड़ी पकडनी है। अरे ओ भगा ! जोड़ जल्दी।"
"चिट्ठी लाने कोई गया कि नहीं?"
"ये बत्ती अब तक क्यों जल रही है?"
"ये लड़का अब तक गंदगी में लिथड़ा क्यों पड़ा है? इसे साफ तो करो कोई।"
"दोपहर की गाड़ी से चत्रभुज होमाशावाला आ रहे हैं उनकी रोटी के लिए आटा बचा कर रखना।"
"कल दही-चटनी में धनिया की पत्ती क्यों नहीं डाली? किसी का ध्यान रहता है कि नहीं इस ओर? सब के सब साले अंधे. . .।"
पुरुषों की जुबान से ऐसी और अनेक बाते लगातार सुनने में आ रही थी।
तुरंत मुझे भाभी ने याद दिला दिया कि "तारा दही, चटनी तो कल तुमने बनाया था न? इतना भी ध्यान नहीं रखा. . .? धनिया पत्ती जैसी चीज़ आप चटनी में डालना भूल गई? पुरुषों के स्वभाव के बारे में तुम नहीं जानती क्या? या बाप के घर में कभी दही चटनी. . ."
"आपके पाँव पड़ती हूँ भाभीजी" मैं बोल उठी। आप मुझे जो चाहें कह लें पर मेरे बापू को क्यों हर समय हर वक्त बात में लाती है? उन्होने आप लोगों का क्या बिगाड़ा है। जैसे और सभी के बापू है वैसे मेरे भी बापू है. . ."
मेरे आंखे लाल हो गई, फिर आँसू भर आए। मेरे नजरों के सामने मेरे बापू का चेहरा उभर आया। और मैं उठकर रसोईघर से बाहर निकाल आई – मेरे आंसुओं को छुपाने। देवरानी जेठानी को लगा कि मैं नाराज हो गई। पीछे से उन्होने क्या कहा मैंने सुना नाही।
मैं बरामदे के खंभे की आड़ में खड़ी थी। गाड़ी में जोता हुआ घोड़ा भी खड़ा था। वह मूक पशु बड़ी देगची पर पड़ी रात के चिपके दानों की ओर अपनी गार्डन बढ़ा रहा था। कुंडे में पानी पड़ा था उसे पीने के लिए हिनहिना रहा था। रात को बहुत सर्दी पड़ी थी इसलिए सईस उसे धार देने के लिए उठ न सका – ऐसा मुझे लग रहा था। मुझे लगा एक गट्ठी लाकर उसके मुंह के पास रख दूँ इतने में ही मेहमानों का दल धड़ाधड़ ऊपर से नीचे उतारने लगा और घोड़े को गरदन लंबते हुए देखकर बोले, "ये सातवाँ बाला घोडा तो एकदम निकम्मा निकला। इसकी माँ तो थी असली चोटीला की, मस्त थी, पर बाप शायद मरियल था।"
घोड़े की बाप की नींन्दा सुनने के बाद मुझे सुख का अनुभव हुआ। सुख इस बात का कि इस घर में मेरा एक सगा भाई है। अब मुझे मेरे बचपन की बात याद आने लगी कि हर रोज बरामदे में बैठकर मैं जिसकी नसीबदारी की तारीफ करती थी वो घोडा ये घोडा नहीं है। हर दो-एक साल में बदले जानेवाले घोड़े एक के मरने के बाद दूसरा आ जाता है।
चोरी छुपे न जाने कितनी बार मैं घोड़े को चना खिलाकर आती थी। चौकीदार के न होने पर पानी भी पीला आती थी। एक साथ पाँच गट्ठे घास के भी रख आती। एक बार मेरे छोटे देवर नाराज होने लगे कि इस तरह से घोड़े को खड़ देकर कौन खड़ का नुकसान कर रहा है? मैं कांप रही थी। पर गुस्सा सईस पर उतारा गया। और घोड़े के साथ मेरे भाई वाला संबंध गुप्त ही रहा।
इस तरह से बारह महीने गुजर गए। एक बार रात की गाड़ी से पाँच मेहमान आए थे। जामनगर से बेटी की सगाई के लिए एक दूजवर दूल्हे को देखने आए थे। घोडा स्टेशन जाकर उनको लेकर आया।
शाम को हमारे घर में, मामलतदार साहब के बेटे की शादी की खुशी में, गाँव के अधिकारियों का चाय नाश्ता का कार्यक्रम रखा गया। उन सबसे निबटते ही, अपने थके हुए शरीर के साथ नए मेहमानों के लिए आटा गूँथकर, चूल्हे में कंडे डालकर मेहमानों के उतरकर भोजन करने की राह देख रही थी।
पर आते ही मेंमानों ने चाय पी ली थी इसलिए भोजन करने के लिए उतरने में थोड़ी देर हो रही थी। बड़ी जेठानी पीयर गई थी। छोटी भाभी चीका को लेकर व्यस्त थी, उसे सर्दी ख़ासी हो गई थी और लगातार रो रहा था इसलिए उसे लेकर दूध पिलाने कमरे में बैठी थी। देवरानी की एक चूड़ी खो गई थी इसलिए बत्ती जलाकर ढूंढ रही थी और नौकरों से पूछ परछ भी कर रही थी।
चूल्हे के पास बैठे बैठे मेरी आँख लाग गई और अचानक कनपट्टी पर ताप लगते ही मैं जग गई। देखा तो चूल्हे की आग से मेरे एक तरफ की लट जल गई थी। अच्छा ये हुआ कि लट जलकर गिर गई। पर अगर मैं जल गई होती तो क्या होता? इसी डर से रोटियाँ अच्छी बनी न्हीं बिगड़ गई। मेरे पति को ऐसा लगा कि मेहमानों को भोजन में मजा नहीं आया। मेरे लट जलने की बात को सुनकर तो उन्होने कुछ नही कहा पर संबंधियों की पत्नियाँ इस बात को सुनकर हंसने लगी। "वाह रे, बहू तुम तो गज़ब की निकली तुम्हें तो जरा भी होश नहीं रहता। अच्छा हुआ बात इतने में ही निपट गई, घर बड़ा पुण्यावान है अगर और ज्यादा हो जाता तो दुनियावाले तो ऐसे ही बात बनाते न कि, पसंद नही थी न इसलिए जला दिया।"
फिर तो मुझे ऐसा लगने लगा कि अच्छा हुआ मैं बच गई। कुछ उल्टा सीधा हो जाता तो। गाँव के फौजदार मेरे पति को कुछ उल्टा सीधा होने पर (लोग उल्टा सीधा होने पर अपनी दुश्मनी निकालते हैं।) पोलिस इनको बहुत हैरान करती।
जैसे जैसे लोग घर में आते गई वैसे वैसे जेठजी सबसे कहने लगे, "कल तो भई तारा बहू की दाहिनी कनपट्टी की लट जल गई चुल्हे में।" सब जान गए कि मुझे झौंका आने के कारण ऐसा हुआ। सभी का यह कहना था कि ऐसे कुंभकर्ण जैसी सोनेवाली के बारे में तो हमने कभी नहीं सुना। तो कोई मज़ाक करते हुए मेरे पति से कहते... भई जवानी क्या भाग जानेवाली है जो रात रात भर जागते हो। इतनी क्या बातें होती है जो रात रात भर जागते हो। इतनी क्या बातें होती है? शादी को तो बहुत दिन हो गए अभी तक बातें खत्म नहीं हुई। वगैरे वगैरे।
यहाँ तो ठीक है पर हर एक की जुबान पर एक ही बात रह रह कर आती रही कि "यह घर के पूर्वजों का पुण्य है कि "घर की बहु बच गई। ये घर तो पुण्य का स्तम्भ है।"
मेरे मन में ये बात घुमड़ती रहती कि "मेरे बापू का पुण्य या मेरे अपना पुण्य कहीं कुछ होगा भी या नहीं?
दूसरे दिन मेरे जेठजी ने कुत्ते को एक मन आते की रोटी, कबूतरों को एक गुण जुवार और बकरी को दस सेर दूध की खैरात बांटकर गाँव भर में जय जय कार कराया।
मेरे कान के जले हुए भाग पर जो फोफ्ले पड गए थे वह रात को पति की असावधानी के कारण फूट गए। दर्द से मेरा बुरा हाल था। सुबह दवाखाने जाने के लिए घोडा गाड़ी नहीं मिली। फेरे में गई थी।
तीसरे दिन मैं दवाखाने गई तब डॉक्टर साहब ने बड़े ध्यान से मेरा निरीक्षण किया। डॉक्टर के व्यवहार से मैं धन्य हो गई। मुझे ऐसा लगा कि मैं भी ध्यान देने लायक, नाजूक स्पर्श की हकदार कोमल शब्दों से पूछने बात करने के योग्य हूँ। मुझे देखकर किसी की आँखों में स्नेह के भाव उभर कर आ सकते हैं। ये मैंने पहली बार जाना और इसी दिन जाना। मेरे कनपट्टी के घाव को देखकर "ऐसी बेवकूफी" और "बड़ों के पुण्य से बची" ऐसा न कहनेवाले ये पहले इंसान थे। "कोई फिकर की बात नहीं बहन ठीक हो जाएगा, थोड़ा सा ही है। मीट जाएगा। पर हुआ क्या था? पर तुम तो बड़ी सचेत रही, सावधान रही कि सुधबुध खोए बगैर एकदम से उठ खड़ी हो गई। और घबराए बगैर बालों को मसल डाला - - - शाबाश! वाह मैं अब तुम्हारे जख्म पर दावा लगाता हूँ। तुम कितनी सहनशील हो। दर्द के मारे सीसकार भी नहीं भर रही हो। दूसरा कोई होता तो चीखना चिल्लाना शुरू कर देता, जले का दर्द ऐसा ही होता है।"
इस तरह से मुझे बातों में लगाए रखकर मेरे जली हुई तमाम चमड़ियों को चिमटे से उखाड़कर कैंची से काट दिया। फिर मलम लगा दिया। मुझे दर्द तो बहुत हो रहा था पर डॉक्टर के स्नेहसिक्त शब्दों ने मेरी हिम्मत बढ़ाई। "बस बहना अब तुम जा सकती हो, कल फिर आना।"
फिर भी मैं खड़ी रही।
"और कुछ कहना है क्या?"
मैंने चोर नज़रों से चारों ओर देखा। हमारी गाड़ी का सईस दूर रास्ते पर खड़ा था। उसकी नजरों से भी मैं डर रही थी।
"आओ इधर आओ," कहकर डॉक्टर साहब मुझे बरामदे में ले गए। "अब कहो"
मैंने कहा, "मेरे शरीर के जोड़ दर्द से टूटते रहते हैं। इतना तेल मलती हूँ फिर भी कोई फर्क नहीं पड़ता है।"
"तुम्हारा पियर यहाँ पर है। या ससुराल?"
"किस घर की हो?"
मैंने अपना परिचय दिया। और डॉक्टर बोले उठे, "कौन? अरे तू तारा है? अरे तारा तुझे ये क्या हो गया? पहचान में ही नहीं आ रही है तू तो? तुझे मैंने पांच वर्ष पहले देखा था। फिर तो तेरा बापा तुझे बाहर निकालने ही नहीं देता था। तू तो एकदम से - ---- मैंने यंत्रवत फिर उनके कहा, "मेरे जोड़ बहुत दर्द करते हैं।" खूब तेल मलती हूँ। फिर भी . . . ।"
गहरी सांस भरते हुए डॉक्टर साहब बोले, "तेल मलने पर भी जोड़ों का दर्द नहीं मिटने वाला। ये संधी बात नहीं है। तेरा वर . . . ।" कुछ कहते कहते रूक गए।" कहाँ हैं तेरा वर? एक बार उसको साथ में लेकर आना – दोपहर को।"
इतने में सईस आकार खड़ा हो गया।" अब तो चलिए। देर हो रही है। मुझे गाड़ी को दूसरे फेरे के लिए लेकर जाना है। . . . दल्ला सेठ के घर बारात में। बड़े भैया नाराज हो जाएंगे।"
लौटते हुए मैंने अपने पीछे गहरी सांस लेने की आवाज सुनी। डॉक्टर साहब की ये गहरी साँसे, कम्पाउंडर के मरीजों को पुकारनेवाले बुलंद आवाज में खो गए। गाड़ी में चड़ते हुए मैंने पीछे मुड़कर देखा, अभी तक डॉक्टर साहब बरामदे पर खड़े थे। मरीज उनको ऐसे ताक रहे थे जैसे कोई अनहोनी हो गई हो।
गाड़ी में बैठकर एकदम से ठीक उसी जगह से गुजरी जहां से मैं, नन्ही तारा ने इस घोड़े को चार बहुओं के सद्भाग्य को देखा और चाहा था। आज एक बार फिर से मेरे आत्मा मेरे देह से छलांग मार कर उस चबूतरे पर बैठ गया। घाघरा चोली वाली तारा।
छोटी तारा, बड़ी तारा से पूछने लगी : "बड़ी तारा! तेरे कोहनी तक के गहने क्यों ढीले पड रहे हैं। तेरी हाथ पर बैठी रहनेवाली चुड़ियाँ कहाँ उतार गई। तेरे बाजूबंध को धागे से बांधकर क्यों छोटा कर देना पड़ा। तारा दी घूँघट खोल।"
मैं छोटी तारा – चींखती ही रही और तारा दी को लेकर गाड़ीवाला कोई चोर के जैसे भागने लगा। घोड़े की पीठ पर चाबुक का हरेक प्रहार मुझे मेरे पीठ पर पड़ता हुआ लग रहा था।
"डॉक्टर को तो और कुछ काम होते ही नहीं।" मेरे पति ने उस दिन की बात को सुनकर कहा, "हर किसी का इलाज करके प्रैक्टिस चलाना है। बड़े घर की औरतों को इंजेक्शन लगाना है। हमें ऐसे जाल में नहीं फंसना है।
मेरे साथ वो आए हे नहीं। दूसरी बार जब मैं डॉक्टर के पास गई तब डॉक्टर साहब ने मेरे पति की अनइच्छा को भाँप लिया। उन्होने कहा, कोई बात नहीं उनकी कोई खास जरूरत नहीं थी। हो सके तो बस इतना करना कि प्रसव के तुरंत बाद बच्चे की आँखों को, तुम्हारे कोई समझदार वैद्य या डॉक्टर से धुलवाकर अंदर दवा डलवा देना। गफलत मत करना – नहीं तो बच्चे का भविष्य बिगड़ेगा बहन।
इन सभी का अर्थ मुझे कुछ भी समझ में नहीं आया। मैंने कभी ऐसे बातें न सुनी थी न जाना था। मुझे संदेह होने लगा कि शायद डॉक्टर को "विजिट" चाहिए थी। पर मैंने किसी से कुछ कहा नहीं।
उस दिन रात के दो बजे ससुर प्रताप नारायण सेठ की आलीशान हवेली के कोने के अंधेरे कमरे में मैं बेहोशी की हालत में पड़ी थी। मेरे आँखें फट रही थी, एक साथ जैसे सौ काले नाग मेरे शरीर को जकड़ रहे थे। मेरे पेट में से गिद्ध मांस के लोथड़ों को नोच नोचकर खा रही थी। मैं चीख रही थी।, "मेरे डॉक्टर को कोई बुलाओ। कोई मेरे डॉक्टर से कहो कि तारा मर रही है. . . "
"चुपचाप पड़ी रह . . ." कहकर दाई मा खटीया पर बैठी थी।
मेरे पति बरामदे में खड़े थे। मीरी चीखें उन्हें बेचैन कर रही थी। अपनी बातों में मिठास भरकर उन्होने कहा, "जीवी माँ। डॉक्टर की जरूरत है?"
"अरे बेटा, ये तो पहली जचकी है, इसमें तो ऐसा ही होता है। आप नाहक परेशान हो रहे हैं।"
बारह घंटे मैं बेहोश रही। कहते हैं कि मेरे मुंह से बार-बार झाग निकल रहा था।
अंतत: थककर मेरे पति ने डॉक्टर काका को तो नहीं पर एक नीम हकीम ज्ञानवाले एक वैद्य को लेकर आए। उनकी फीस कम थी।
जब मैं पहली बार होश में आई तब मेरे कानों में मेरे बेटी की तेज चीखें गरम शीशे की तरह पड़ने लगी। मैंने कहने की बहुत कोशिश की कि डॉक्टर काका ने कहा है – इसकी आँखों को जाँचकर धुलवाओ. . . पर कोई आवाज ही नहीं निकली।
चार घंटे लगातार चीखने के बाद बच्चे की थकावट से भरा स्वर रूक रूक कर आने लगी। उसे मेरे पास पिलाने के लिए ले आए। ओ मेरे बेटी! मेरे पहली संतान। मेरा फूल। उसकी आँखें सूज गई थी। उस पर मांस के लोथड़े बन गए थे। आँखें रह ही कहाँ गई थी? मांस के लोथड़े की गहराई से आँसू झर रहे थे।
"डॉक्टर काका को बुलाओ। इसकी आँखें चली जाएगी, कोई मेरे सुनो न। मैं चीख उठी।
मेरे पति ने भी स्थिति की गंभीरता को समझा। डॉक्टर काका आए। पहले तो उन्होने बच्ची की आँखों को धोया, दवाई डाला, रूई पट्टी बांधी। फिर उन्होने मेरे पति को दूसरे कमरे में ले जाकर क्या कहा? अरे रे मेरे कानों को ईश्वर ने किसलिए इतना तेज बनाया?
"नवनीत राय। काका ने कहा, "ये दोनों आपके लगाए रोग के रोगी हैं। बेटी की आँखें चली गई है। फिर से कोई प्रसव न हो इसका ध्यान रखना नहीं तो आप विशेष हत्या के भागीदार बनेंगे। तारा अपंग बन जाएगी – पागल हो जाएगी। ये रोग आप कहाँ से लेकर आए हैं मुझे मालूम है।"
मेरे पति जड़ हो गए। "आप यहाँ कुछ देर इंतजार कीजिए" कहकर ऊपरी मंजिल पर चले गए। वहाँ से आकार न जाने क्या डॉक्टर को पकड़ाने लगे।" कृपा करके बात को यहीं दफन कर दीजिए डॉक्टर।" मेहरबानी कीजिए।
डॉक्टर चाचा की आवाज आई, "एक हजार दोगे फिर भी नहीं ये तो मेरा फर्ज है। तारा मेरी बेटी है। पर दफनाने वाली बात तो मेरे हाथ में है। अगर दूसरी बार तारा की ऐसी हालत करोगे तो मैं चीख चीखकर गलियों में कहता फिरूँगा।"
डॉक्टर चाचा चले गए। उनकी दवाई से मेरी नन्ही सूरज की पीड़ा कम हुई है। पर उसकी आँखें तो चली गई। वो तो फिर नहीं आनेवाली।
ये मेरी सूरज सो रही है, मेरे चेहरे पर अपना हाथ फेरकर वह देख रही है, जैसे उसकी उँगलियों के पोर-पोर पर नेत्र उग आएँ हैं। उस कोमल उँगलियों के स्पर्श से मुझसे गुप्त भाषा में बात करती है। आँख बिना की मेरी सूरज अपनी उँगलियों के स्पर्श से मेरे गाल पर, स्तन और पेट पर, जो संगीत बाजा रही है, उसकी बराबरी किसी गवैये की रागिनी, किसी दिलरूबा का सूर किसी श्री कृष्ण की बांसुरी से आ सकती है क्या? जब वो मेरा दूध पिति है तो मुझे ऐसा लगता है जैसे मेरे अंतर को वह तृप्त कर रही है।
लोग चर्चा करते हें कि "बहन ये ससुराल बहुत पुण्य वाला है, माँ बेटी दोनों बच गई। इन दोनों ने तो भरपूर पाप किए पर पूर्वजों के पुण्य से बच गए।"
दूसरे ने कहा, "देखो न जेठ ने तुरंत कसम खाई कि जब तक बहू का प्रसव कर्म पूरा नहीं होगा तब तक चाय नहीं पीऊँगा। जेठानी ने कुलदेवी से मन्नत मांगी है कि जब तक बच्ची को तुम्हारे चरणों का स्पर्श नहीं कराऊँ तब तक उड़द नहीं खाऊँगी।"
"बड़े बूढ़ों के पुण्य के कारण इन सबसे उबर गए। आप भाग्य शाली हो, बहू, कि ऐसा ससुराल मिला।"
मैं स्तब्ध होकर उन सबकी बातों को सुन रही थी।
आज सुबह ही भोजन करते समय जेठ जी ने मेरे पति को खुश खबर सुनाई कि विट्ठल गाड़ीवाले के माथे सौ रुपये में घोड़े को मढ रहा हूँ। घोड़े में जो कमी है वह उसे समझ में नही आया।
"अच्छा किया बड़े भैया।" खुश होकर मेरे पति ने कहा, स्टेशन का फेरा लेने लायक ही है ये हारामी। इन दिनों बहुत हठी बन गया था। अब सीधा हो जाएगा।"
"विट्ठल आए तो उसे घोडा दे देना। पर इसकी लगाम मत देना। उससे बात कर ली है लगाम वह अपना ही लाएगा।"
गाड़ीवाला विट्ठल दोपहर को घोड़े को लेकर चला गया।
जेठानी ने कहा, "अच्छा हुआ चला गया। अपशुकनीय था, बच्ची अंधी हो गई, व्यापार में घाटा हुआ, घर में बीमार ही बीमार, जब से इस घोड़े के पाँव इस घर में पड़े तब से घर में शांति है ही नहीं।
मैं ऊपरी मंजिल पर चली गई। अंधी सूरज को गोद में उठाकर खिड़की पर खड़ी रही। जब तक घोडा दिखाता रहा तब तक देखती रही। मेरे आंखें छलछला आई। सोचने लगी, "घोड़े के जैसे इंसान क्यों नहीं निकाल बाहर करते ये लोग? घोडा तो नसीबदार निकाला। पर ऐसा नसीब इंसान का क्यों नहीं होता?"
उसी समय अख़बारवाला रसिकलाल लंबे-लंबे डग भरता हुआ चला आ रहा था। क्षण भर के लिए तो मुझे ऐसा लगा जैसे मुझे भी घर से निकाल बाहर किया गया है और मुझे ले जाने के लिए रसिक आया हुआ है। हाय! अखबार डालकर तो वो चला गया। मेरे आँखें उसके पाँव की पत्थर जैसी पिंडलियों से चिपकी लटकती लटकती न जाने कहाँ तक चली गई।
(अनुवादक: डॉ. रानू मुखर्जी)