बाघ की खाल (कहानी) : मुंशी प्रेमचंद
Bagh Ki Khal (Hindi Story) : Munshi Premchand
राँची से लेकर चक्रधरपुर तक घना जंगल है। उसकी लम्बाई
कोई ७५ मील होगी । इस जंगल में तरह-तरह के जानवर रहते हैं,
उनमें बाघ सबसे खौफ़नाक होता है। कई साल हुए मेरा एक दोस्त
और मैं रांची के एक दफ़्तर में काम करते थे। हम दोनों चक्रधरपुर के
रहनेवाले थे। जब दफ्तर में छुट्टियाँ हो जातीं, तो हम दोनों घर चले
जाते थे। वहाँ रेलवे लाइन है, एक मोटर-बस चला करती है। एकबार
हम दोनों को एक बड़े ज़रूरी काम से घर जाना पड़ा । संयोग से उस
दिन मोटर-बस भी न मिली । आखिर यह तै किया कि पैरगाड़ी पर
चलें। हिसाब लगाकर देखा कि अगर बीच में कहीं न ठहरें तो नौ-दस
घण्टों में पहुंच जायेंगे । आखिर कुछ खाने-पीने का सामान लेकर हम
दोनों साइकिल पर सवार होकर शाम को छः बजे निकल खड़े हुए ।
उजाली रात थी। मील भर जाने के बद चाँद निकल आया।
आस-पास की पहाड़ियाँ दिखाई देने लगीं। चारों ओर सन्नाटा छाया
हुआ था और उस सन्नाटे को चीरती हुई हमारी साइकिलें सन-सन
चली जा रही थीं। थोड़ी-थोड़ी दूर पर जंगली आदमियों की बस्तियाँ
मिल जाती थीं। उनकी झोपडियों से ढोल झौर बाँसुरी की मीठी-मीठी
आवाज़ें आ जाती थीं। दम दोनों इस दृश्य का आनन्द उठाते चले
जा रहे थे।
अचानक मेरे दोस्त को कै आ गई और वह साइकिल पर से
गिर पड़ा। उसका यह हाल देखकर मेरी जान सूख गई । उसे तो
हैज़ा हो गया था; अब क्या करूँ । न कोई बस्ती न गाँव, उसे कहाँ
ले जाऊँ। कुछ समझ में न आता था। मैंने अपने दोस्त का नाम लेकर
पुकारा, मगर उसके मुँह से कोई आवाज़ न निकली । वह दर्द-भरी
आँखों से मेरी तरफ़ देखने लगा। उसकी यह दशा देखकर मुझे भी
रोना आ गया। फिर सोचा, रोने से क्या होगा, देखूँ, यहां नज़दीक
कोई गाँव है या नहीं। शायद किसी से कुछ मदद मिल जाय । मैंने अपने
दोस्त से फिर पूछा, भाई तुम्हारा जी कैसा है। कुछ तो बताओ; फिर भी
कोई जवाब नहीं । मैंने उसकी नाड़ी पर हाथ रखा, नाड़ी का कहीं पता
नहीं, हां, साँस चल रही थी ! सोचने लगा, इसे छोड़कर कैसे जाऊँ? कोई
जंगली जानवर आ पहुँचे, तो लाश का भी पता न चले। आखिर मैंने
दोनों पैरगाड़ियों को एक पेड़ फे सहारे खड़ा किया और अपने दोस्त को
उस पर लिटाकर किसी गाँव की तलाश में निकला। रास्ते में बार-बार
अपने दोस्त का खयाल आने लगा । चारों ओर घना जंगल, पेड़ों के नीचे
बड़ी मुश्किल से रोशनी पहुँचती थी। रास्ता न दिखाई देता था।
अचानक मैं एक पत्थर से ठोकर खाकर गिर पड़ा । चोट तो ज्यादा न
आई, मगर हाथ-पाँव कुछ छिल गये। मैं फिर उठा कि एकाएक कुछ
आहट पाकर पीछे की ओर ताका। क्या देखता हूँ कि कोई १५ गज
की दूरी पर एक बाघ खड़ा है। मेरे होश उड़ गये। ऐसा जान पड़ा
जैसे बदन में खून नहीं है । साँस तक बन्द हो गई । मुझे खड़ा देखकर
वह भी रुक गया। फिर मैंने सोचा कि शायद मुझे भ्रम हो गया है,
शायद मैं किसी पेड़ की परछाई को बाघ समझ रहा हूँ । यह सोचकर
मैं फिर आगे बढ़ा, मगर आंखें पीछे ही लगी रहीं। अबकी बार
सचमुच मुझे; पत्तों की खड़खड़ाहट सुनाई दी । मैंने फिर पीछे की ओर
देखा । बाघ मेरे पीछे-पीछे चला आ रहा था। मेरे रोयें खड़े हो गये
और मैं लकड़ी-सा तन गया। कुछ सोचने की मुझमें शक्ति ही नहीं
रही। मुझे खड़ा होते देखकर वह ज़मीन पर हाथ-पाँव फैलाकर बैठ
गया। मुझे अब जान की कोई आशा न रही। न ता मेरे पास कोई
पिस्टल था और न चाकू। न मालुम क्या सोचकर मैं बड़े ज़ोर से
चिल्ला उठा । बाघ मेरी आवाज सुनते ही उठा भौर चुपचाप जंगल की
ओर चला गया।
बाघ को जाते देख कर मैं इतना खुश हुआ कि क्या कहूँ। मेरी
हिम्मत भी लौट आई । सोचने लगा, घर पहुँचकर सबको यह किस्सा
सुनाऊंगा और कहूँगा कि अगर कोई इसी तरह बाघ के सामने पड़
जाय तो उसे खूब चिल्लाना चाहिए। यही सोचता हुआ मैं तेजी से
चला जाता था ।
अभी थोड़ी ही दूर गया था कि फिर कुछ आहट मिली । देखा तो
सामने बाघ ! मैंने तो अपनी समझ में बाघ को भगाने का मंत्र पा
लिया था । लगा ज़ोर से चिल्लाने। मगर अब की बाघ वहां से हिला
भी नहीं । उसका जवाब उसने यह दिया कि मुझसे आठ-दस गज़ पर
मारे खुशी के अपनी दुम हिलाने लगा। अब तो मेरी हिम्मत छूट
गई। कह नहीं सकता कि मैं कितनी देर तक वहाँ खड़ा रहा! एका-
एक मोटर के हार्न की आवाज़ कान में आई। फिर सोचा, शायद यह
भी भ्रम हो। फिर भी मुझे कुछ हिम्मत हुई। मैं धीरे धीरे पीछे हटने
लगा । कोई आठ-दस कदम पीछे हटा था कि अचानक बाघ उठा ।
मेरा कलेज़ा मानो सिमटकर एड़ियों में धंस गया । बस, वह मुझ पर
फांदा ! मैंने झट आंखें बन्द कर लीं और दोनों हाथों से सिर पकड़
लिया। मगर बाघ मुझ पर फांदा नहीं, बल्कि जितनी दूर मैं पीछे हट
गया था, उतना ही वह आगे बढ़ आया और फिर बैठ गया।
फिर हार्न की आवाज़ सुनाई दी । शायद कोई लारी राँची से आ
रही थी। फिर मुझे होश नहीं कि क्या हुआ । सिर्फ, इतना याद है कि
मैं एक मर्तबा बड़े ज़ोर से चिल्लाया था -मार डाला! मार!
जब मुझे होश आया तो मैंने देखा कि मेरा सिर किसी की जाँघ
पर रखा हुआ है और आस-पास कई आदमी खड़े हैं। मेरा दोस्त भी
वहीं बैठा हुआ है। मैंने उनसे थोड़ा पानी माँगा, उन्होंने मुझे गर्म दूध
निकालकर पिलाया ।
बाद को मुझे मालूम हुआ कि यह साहब इंजीनियर थे, अपने
तीन-चार दोस्तों के साथ टाटानगर जा रहे थे। रास्ते में उन्हें दिखाई
दिया कि पक पेड़ के नीचे दो आंखें-सी चमक रही हैं। उन्होंने बाघ
समझकर बन्दूक उठाई । अचानक उस पर मोटर की रोशनी पड़ते ही
उन्होंने देखा कि वह आंखें नहीं हैं, बल्कि दो पैरगाड़ियों की बत्तियाँ
जल रही हैं। उन्होंने फौरन मोटर रोक लिया और उतरकर पेड़ के नीचे
आये, तो देखा कि एक आदमी बेहोश पड़ा हुआ है । उनके पास कुछ
दवाएँ थीं। दवाएँ पिलाने से उस आदमी की हालत कुछ संभल गई ।
उन्होंने उसे मोटर में बैठाया और चले ही आ रहे थे कि फिर देखा कि
एक बाघ मेरी छाती पर दोनों अगले पंजे रखकर बैठा हुआ है । मोटर
के करीब आते ही बाघ ने मुझे छोड़ दिया और भागा, मगर इंजीनियर
साहब की बन्दूक ने उसे वहीं ठंढा कर दिया।
उन्हीं की मदद से हम दोनों घर पहुँचे । मेरे सारे कपड़े खून से तर
थे। छाती में ज़ख्म हो गया था। कई दिन मरहमपट्टी करने के बाद
मैं अच्छा होकर फिर रांची लौटा। उसके थोड़े हो दिन बाद इंजीनियर
साहब ने मुझे एक बाघ की खाल भेज दी और लिखा कि वह
उसी बाघ की खाल है।
यह खाल अभी तक मेरे पास मौजूद है ।