बदलू (अतीत के चलचित्र) : महादेवी वर्मा

Badlu (Ateet Ke Chalchitra) : Mahadevi Verma

बदलू अपने बेडौल घड़ों का निर्विकार निर्माता भी था और अष्टावक्र-जैसी रूप-रेखा वाले बच्चों का निश्चित विधाता भी । न कभी निर्जीव मिट्टी की सजीव विषमता ही उसका ध्यान आकर्षित कर सकी और न सजीव रक्त-मांस की निर्जीव कुरूपता ही उसकी समाधि-भंग करने का सामर्थ्य पा सकी।

मैंने उसे सदा एक ओर कच्चे पक्के, टूटे, पूरे बर्तनों के ढेर से और दूसरी ओर मैले-कुचैले, नंगे, दुबले बच्चों की भीड़ से घिरा हुआ ही देखा । जैसे मिट्टी के बर्तन कुछ सुखाने, कुछ पकाने और कुछ उठाने रखने टूटते रहते थे, उसी प्रकार बच्चे भी कुछ जन्म लेते ही, कुछ घुटनों के बल चलते हुए और कुछ टेढ़े-मेढ़े पैरों पर डगमगाकर माता-पिता के काम में सहायता देते हुए चल बसते थे। पर कभी उनके जन्म या मृत्यु के संबंध में बदलू को सुखी या दुःखी देखना संभव न हो सका । बदलू का चित्र खींच देना, किसी भी चित्रकार के लिए सहज नहीं; क्योंकि वह ऐसी परंपरा विरोधी रेखाओं में बँधा था कि एक को स्पष्ट करने में दूसरी लुप्त होने लगती थी ।

उसकी मुखाकृति साँवली और सौम्य थी; पर पिचके गालों से विद्रोह करके नाक के दोनों ओर उभरी हुई हड्डियाँ उसे कंकाल सहोदर बनाए बिना नहीं रहतीं। लंबा इकहरा शरीर भी कभी सुडौल रहा होगा; पर निश्चित आकाशवृत्ति के कारण असमय वृद्धावस्था के भार से झुक आया था। उजली छोटी आँखें स्त्री की आँखों के सामने सलज्ज थीं; पर एकरस उत्साह हीनता से भरी होने के कारण चिकनी काली मिट्टी से गढ़ी मूर्ति में कौड़ियों से बनी आँखों का स्मरण दिलाती रहती थीं । काँपते ओठों में से निकलती हुई गले की खरखराहट सुनने वाले को वैसे ही चौंका देती थी, जैसे बाँसुरी में से निकलता हुआ शंख का स्वर ।

बदलू एक तो स्वभाव से ही मितभाषी था, दूसरे मेरे जैसे नागरिक की श्रवणशक्ति की सीमा से अनभिज्ञ; अतः उससे कुछ कहने-सुनने के अवसर कम ही आ सके।

जब कभी आते-जाते मैं, उसके घूमते हुए चाक पर स्थिर-सी उँगलियों का निर्माण क्रम देखने के लिए रुक जाती, तब वह एकबारगी अस्थिर हो उठता। अपनी घबराहट छिपाने के लिए वह बार-बार खाँसकर गला साफ करता हुआ खरखराते स्वर में खेदन, दुखिया, नत्थू आदि को मचिया निकाल लाने के लिए पुकारने लगता। जब एक चलनी-जैसी झरझरी और साढ़े तीन पायों पर प्रतिष्ठित मचिया का अँधेरी कोठरी से उद्धार करने के लिए वे बच्चे प्रतियोगिता आरंभ कर देते, तब मैं वहाँ से विदा हो जाने ही में भलाई समझती थी। मेरे बैठने से मचिया की कुशल तो संदिग्ध हो ही जाती थी, साथ ही मटके - मटकियों का भविष्य भी खतरे में पड़ सकता था।

बदलू का घर मेरे आने-जाने के रास्ते में पड़ता था, अतः या तो मुझे लौटने की जल्दी रहती थी या पहुँचने की। ऐसा अवकाश निकालना कठिन था, जिसे वहाँ बिता देने से दूसरों के काम में व्याघात न पड़ता हो ।

हाँ, जिस दिन रधिया अपने द्वार पर मिट्टी छानती या घर का कोई और काम करते मिल जाती, उस दिन कुछ देर रुकना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य हो उठता। उसे कभी बरसाती आँखों और कभी हँसते ओठों से, अपने एकरस जीवन की गाथा सुनाना अच्छा लगता था। उसकी आँखें, उसके ओठ, उसके हाथ-पैर सब मानो अपनी-अपनी कथा सुनाने को आतुर थे, इसी से शब्दों में उसे थोड़ा ही कहना पड़ता था; पर वह थोड़ा इतना मार्मिक रहता कि सुनाने वाला शीघ्र ही अपने-आपको प्रकृतिस्थ नहीं कर पाता । किसी करुण रागिनी के समान उसकी कथा जितना उसके हृदय का मंथन करती, उतना ही दूसरे के हृदय का, अतः अनेक बार उस कुम्हार- वधू से अपने आवेग को छिपा लेना मेरे लिए भी कठिन हो जाता था ।

रधिया को मूर्तिमती दीनता कहना चाहिए। किसी पुरानी धोती की मैली कोर फाड़कर कसे हुए रूखे उलझे बाल पर्व-त्योहार पर काली मिट्टी से धो भले ही लिए जाएँ, पर उन्हें कडुए तेल की चिकनाहट से भी अपरिचित रहना पड़ता था । धोती और उसके किनारे को धूल एकाकार कर देती थी, उस पर उसकी जर्जरता इतनी बढ़ी चढ़ी थी कि घूँघट खींचने पर किनारी ही उँगलियों के साथ नाक तक खिंची चली आती थी ।

दुःख एक प्रकार शृंगार भी बन जाता है, इसी कारण दुःखी व्यक्तियों के मुख, देखने वाले की दृष्टि को बाँधे बिना नहीं रहते ।

रधिया के मुख का आकर्षण भी उसकी व्यथा ही जान पड़ती थी वैसे एक-एक करके देखने से, मुख कुछ विशेष चौड़ा था। नाक आँखों के बीच में एक तीखी रेखा खींचती हुई ओठ के ऊपर गोल हो गई थी। गहरे काले घेरे से घिरी हुई आँखें ऐसी लगती थीं, जैसे किसी ने उँगली से दबाकर उन्हें काजल में गाड़ दिया हो। ओठों पर पड़ी हुई सिकुड़न ऐसी जान पड़ती थी, मानो किसी तिक्त दवा की प्याली से निरंतर स्पर्श का चिह्न हो। इन सब विषमताओं की समष्टि में जो एक सामंजस्यपूर्ण आकर्षण मिलता था, वह अवश्य ही रधिया के दुःख विगलित हृदय से उत्पन्न हुआ होगा । वह जीवन - रस से जितनी निचुड़ी हुई थी, दुःख में उतनी ही भीगकर भारी हो उठी, इसी कारण उसमें न वह शून्यता थी, जो दृष्टि को रोक नहीं पाती और न वह हल्कापन, जो हृदय को स्पर्श करने की शक्ति नहीं रखता ।

घिसकर गोल-से चपटे हो जाने वाले काँसे के कड़े और मैल से रूप-रेखाहीन लाख की चूड़ियों के अतिरिक्त और किसी आभूषण से रधिया का परिचय नहीं; पर वह इस परिचयहीनता पर खिन्न होती नहीं देखी गई। गठे हुए शरीर और भरे अंगोंवाली वह स्त्री संतान की अटूट श्रृंखला और दरिद्रता की अघट छाया के कारण ऐसा ढाँचा - मात्र रह गई थी, जिसे चलता-फिरता देखना भी विस्मय का कारण हो सकता था।

इस वर्ग की स्त्रियों में जो एक प्रकार की कर्कश प्रगल्भता मिलती है, उसका रधिया में सर्वथा अभाव रहा। संभवतः इसी कारण मेरी उदासीनता का कुतूहल में और कुतूहल का सम्मान में रूपांतरित होना अनिवार्य हो गया । बदलू के प्रति उसका स्नेह गंभीर और इसी से कोलाहलहीन था । न वह कभी घर की, बच्चों की और स्वयं उसकी चिंता करता देखा गया और न रधिया के मुख से उसके गोबरगणेश पति की निंदा सुनने का किसी को सौभाग्य प्राप्त हो सका। रधिया को विश्वास था कि उसका पति कुंभकार - शिरोमणि और अच्छा कलावंत है; केवल लोग उसकी महानता से परिचित नहीं ।

सवेरे उठकर कभी मक्का, कभी जुन्हरी, कभी बाजरा और कभी जौ चना पीसकर रधिया जिस कठोर कर्तव्य का आरंभ करती, उसका उपसंहार तब होता था, जब टिमटिमाते दीए के धुँधले प्रकाश में या फुलझड़ी के समान पलभर जलकर बुझ जाने वाली सिरकियों के उजाले के सहारे, कुछ उनींदे और कुछ रोते बच्चों में सवेरे की रोटी बँट चुकती।

बच्चे जीवित थे पाँच; पर उनकी संख्या बताते समय रधिया उन्हें भी गिनाए बिना नहीं रहती, जो स्मृतिशेष रह गए थे। मृत तीन बच्चों की चर्चा जीवितों के साथ इस प्रकार घुली मिली रहती थी कि सुननेवाला उन्हें जीवित मानने के लिए बाध्य हो जाता। अंतर केवल इतना ही था कि मृत तो कहानी के नायकों के समान केवल कहने-सुनने योग्य वायवी स्थिति में जीवित थे और जीवित, अपने कलावंत पिता और मजदूरन माँ के काम में सहायता देते-देते मर जाते थे। मिट्टी खोदने से लेकर हाट में बर्तन पहुँचाने तक वे अपने दुर्बल नग्न शरीरों का उतना ही उपयोग करते थे जितने से उनके प्राणों को शरीर से संबंध-विच्छेद न करने का बहाना मिलता रहे। सबसे छोटा चार-पाँच वर्ष का नत्थू भी जब अपने बढ़े पेट से दस गुनी बड़ी मटकी को सर पर लादकर टेढ़े-मेढ़े सूखे पैरों पर अकड़ता हुआ हटिया जाने का उत्साह दिखाता, तब न उसके पुरुषार्थ पर हँसी आती थी न रोना ।

बर्तनों के बेचने से पूरा नहीं पड़ता, अतः अपने जन्म-जात व्यवसाय से जीविका की समस्या हल न होती देख, रधिया आस-पास के खेतों में काम करने चली जाती थी। कभी-कभी उसके खेत से और बदलू के हाट से लौटने तक छोटे-छोटे जीव बाहर के कच्चे चबूतरे पर या उसके नीचे धूल में जहाँ-तहाँ लेटकर बेसुध हो जाते। रधिया जब लौटती, तब उन्हें भीतर पुरानी मैली धोती के बिछौने पर एक पंक्ति में सुला देती। उस परिवर्तन-क्रम में जो जाग उठता था, उसे छींके पर धरी हँडिया में से निकालकर मोटी रोटी का टुकड़ा भेंट किया जाता था और जो सोता रहता, उसे स्नेह भरी थपकियों पर ही रात बितानी पड़ती।

बदलू भी उस हँड़िया के प्रसाद का अधिकारी था; पर इस सीमित अन्नकोष की अन्नपूर्णा को, कब नींद से अपने एकादशी व्रत का पारायण नहीं करना पड़ता, यह जान लेना कठिन होगा।

विचित्र ही थे वे दोनों। पति भोजन नहीं जुटा पाता, वस्त्र का प्रबंध नहीं कर सकता और बच्चों के भविष्य या वर्तमान की चिंता नहीं करता; पर पत्नी को उसके दुर्गुण ही नहीं जान पड़ते, असंतोष का कोई कारण ही नहीं मिलता।

रधिया के किसी बच्चे के जन्म के समय कोई कोलाहल नहीं होता। छोटे लक्खी का जिस रात को जन्म हुआ, उसकी संध्या तक मैंने रधिया को बड़ा घड़ा भरकर लाते देखा । घड़ा रखकर उसने मेरे लिए वही चिर-परिचित साढ़े तीन पायों वाली मचिया निकाल दी। उस पर बहुत सतर्कता से अपना संतुलन करती हुई मैं जब बच्चों से इधर-उधर की बातें करने लगी, तब रधिया ने अपने धारहीन हँसिये को चबूतरे के नीचे पड़े पत्थर के टुकड़े पर घिस - घिसकर धोना आरंभ किया। मैंने कुछ हँसी और कुछ विस्मय भरे स्वर में पूछा - "रात में इसका क्या काम है! क्या किसी का गला काटेगी ?” उत्तर में रधिया बहुत मलिन भाव से मुस्करा दी।

दूसरे दिन सोमवती अमावस्या होने के कारण मुझे अवकाश था, इसी से वहाँ पहुँचना संभव हो सका। बदलू का चाक सदा के समान उदासीनता में गतिशील था; पर बच्चे घर के द्वार को घेरकर कोलाहल मचा रहे थे। मैंने सकुचाये हुए बदलू की ओर न देखकर दुखिया से उसकी माँ के संबंध में प्रश्न किया। वह अपने भाई-बहिनों में सबसे अधिक बातूनी होने के कारण एक-एक साँस में अनेक कथाएँ कह चली। उसके नया भइया हुआ है। माई ने चमारिन काकी को नहीं बुलाने दिया एक रुपया माँगती थीं। दराती से अपने-आप नार काट दिया- उसारे के कोने में गड़ा है। भइया टिटहरी की तरह पाँव सिकोड़े, आँखें मूँदे पड़ा है। बप्पा ने माई को बाजरे की रोटी दी है, इत्यादि महत्त्वपूर्ण समाचार मुझे कुछ क्षणों में ही मिल गए। तब भीतर झाँककर देखने का निष्फल प्रयत्न किया; क्योंकि मलिन वस्त्रों में लिपटी श्यामांगिनी रधिया तो मिट्टी की धूमिल दीवारों से अंधकार में घुलमिल - सी गई थी। अपने भावी कुंभकार को निकट आकर देखने का आमंत्रण पाकर मैंने भीतर पाँव रखा।

कोठरी में व्याप्त धुएँ और तम्बाकू की गंध हर साँस को एक विचित्र रूप से बोझिल किए दे रही थी। पिंडोर से पुती; पर दीमकों से चेचक रू दीवारें खड़े-खड़े भारी छप्पर सँभालने में असमर्थ होकर मानो अब बैठ कर थकावट दूर कर लेना चाहती थीं। चूल्हे के निकटवर्ती कोने में नाज रखने की मटमैली और काली मटकियों के साथ चमकते हुए लोटा-थाली आदि, जेल की कठिन प्राचीर के भीतर एकत्र बी. क्लास और ए. क्लास के बंदी हो रहे थे। घर के बीच में गृहस्वामी के लिए पड़ी हुई झूले- जैसी खटिया की लंबाई सोने वाले के पैरों को स्थान देना अस्वीकार कर रही थी। दीवार में बने गड्ढे जैसे आले में न जाने कब से उपेक्षित पड़ा हुआ धूल-धूसरित दीया मानो अपने नाम की लज्जा रखने के लिए ही एक इंच भर बत्ती और दो बूँद तेल बचाए हुए था।

ऐसे ही घर के पश्चिम वाले खाली कोने में रधिया अपने नवजात शिशु का, जीवन के साथ-साथ दरिद्रता से परिचय करा रही थी। आँखें मूँदे हुए वह ऐसा लगता था, मानो किसी बड़े पक्षी के अंडे से तुरंत निकला हुआ बिना परों का बच्चा हो । नाल जहाँ से काटा गया था, वहाँ कुछ सूजन भी आ गई थी और रक्त भी जम गया था।

मालूम हुआ चमारिन एक रुपए से कम में राजी नहीं हुई, इसी से फिजूलखर्ची उचित न समझ कर उसने स्वयं सब ठीक कर लिया।

पीड़ा के मारे उठा ही नहीं जाता था - लेटे-लेटे दराती से नाल काटना पड़ा, इसी से ठीक से नहीं कट सका; पर चिंता की बात नहीं है, क्योंकि तेल लगा देने से दो-चार दिन में सूख जाएगा। मैंने आश्चर्य से उस विचित्र माता के मलिन मुख की प्रशांत और सौम्य मुद्रा को देखा ।

उसके लिए मैं अभी हरीरा, दूध आदि का प्रबंध करने जा रही हूँ, सुन कर वह और भी करुण भाव से मुस्कराने लगी। जो कहा, उसका अर्थ था कि मैं कहाँ तक ऐसा प्रबंध करती रहूँगी; यह तो उसके जीवन भर लगा रहेगा।

चाक के पास निर्विकार भाव से बैठे हुए बदलू को पुकारकर जब मैंने बनिये के यहाँ से गुड़, सोंठ, घी आदि लाने का आदेश दिया, तो वह मानो आकाश से नीचे गिर पड़ा। उसकी दुखिया की माई तो कहती थी कि गुड़ देखकर उसे उबकाई आती है, घी खाने से उसके पेट में शूल उठता है - इसी से तो वह बाजरे की रोटी देकर निश्चित हो जाता है।

बदलू के सरल मुख को देखकर जब मैंने अपने मिथ्यापवाद के भार से सिकुड़ी-सी रधिया पर दृष्टि डाली, तब उस दंपति से कुछ और पूछने की आवश्यकता नहीं रही। बदलू जिस वस्तु का प्रबंध नहीं कर सकता, वह रधिया के लिए हानिकारक हो उठती है - यह समझते देर नहीं लगी। पर, अपने इस दिव्य ज्ञान को छिपाकर मैंने सहज भाव से कहा- जो सब स्त्रियाँ खाती हैं, वह दुखिया की माई को भी खाना पड़ेगा, चाहे उबकाई आवे चाहे शूल उठे।

उस घर में संतान का जन्म जैसा आडंबरहीन था, मृत्यु भी वैसी ही कोलाहलहीन आती थी ।

मुलिया तेज बुखार में इधर-इधर घूमती ही रही। जब चेचक के दाने उभर आए, तब भाई ने पकड़कर घर के अँधेरे कोने में टूटी खटिया पर डाल दिया। लट से घर बुहारना, नीम पर देवी के नाम से जल चढ़ाना आदि जो कर्तव्य रधिया के विश्वास और शक्ति के भीतर थे, उनके पालन में कोई त्रुटि नहीं हुई; पर चौथे दिन उसने परम धाम की राह ली। उस बालिका पर बदलू की विशेष ममता थी, इसी से जब वह उसे यमुना के गंभीर जल में विसर्जित कर लौटा, तब उसके शांत मौन में छिपी मर्म-व्यथा का अनुमान कर रधिया ने एक सपने की कथा गढ़ डाली। सपने में देवी मइया उससे कह रही थीं कि इस कन्या को- मैंने इतने ही दिन के लिए भेजा था, अब इसे मुझे लौटा दो। बदलू जैसे बुद्ध व्यक्ति का इस सपने से प्रभावित हो जाना अवश्यंभावी था। जब स्वयं देवी मइया उसकी मुलिया को ले जाने को उत्सुक थीं, तब कोई दवा न करना अच्छा ही हुआ। दवा-दारू से लड़की तो बच ही नहीं सकती थी - उस पर देवी मइया का कोप सहना पड़ता । फिर उस लड़की का इससे अच्छा भाग्य क्या हो सकता था कि स्वयं माता उसके लिए हाथ पसारें ।

एक बार मैंने रधिया को उसके झूठ बोलने के संबंध में सारगर्भित उपदेश दिया; पर उसने अपने मैले फटे अंचल से आँखें पोंछते हुए जो सफाई दी, वह भी कुछ कम सारगर्भित न थी । उसका आदमी बहुत भोला है। उसका हृदय इतना कोमल है कि छोटी-छोटी चोटों से भी धीरज खो बैठता है। घर की दशा ऐसी नहीं कि उतने जीवों को दोनों समय भोजन भी मिल सके, इसी से वह अपने और बच्चों के छोटे-मोटे दुख को छिपा जाती है। अब भगवान् उसे परलोक में जो चाहे दंड दें; पर किसी का कुछ छीन लेने के लिए वह झूठ नहीं बोलती ।

रधिया का उत्तर ही मेरे लिए एक प्रश्न बन गया। उसके असत्य को असत्य भी कैसे कहा जाए और न कहें, तो उसे दूसरा नाम ही क्या दिया जाए !

अनेक बार मैंने बदलू को समझाया कि यदि वह बेडौल मटकों के स्थान में सुंदर नक्काशीदार झज्झर और सुराहियाँ बनावे, तो वे शहर में भी बिक सकेंगे। पर उसने चाक पर दृष्टि जमाकर खरखराते गले से जो उत्तर दिया, उसका अर्थ था कि उसके बाप-दादा, परदादा सब ऐसे ही घड़े बनाते रहे हैं-वह गँवाई- गाँव का कुम्हार ठहरा - उससे शहराती बर्तन न बन सकेंगे। फिर मैंने अधिक कहना सुनना व्यर्थ समझा ।

एक दिन मैं, पढ़नेवाले बच्चों को कुछ पौराणिक कथाएँ समझाने के लिए कई चित्र ले गई। वे कलात्मक तो नहीं; पर बाज़ार में बिकने वाली शिव, पार्वती, सरस्वती आदि की असफल प्रतिकृतियों से अच्छे कहे जा सकते थे।

बदलू के बच्चों में दुखिया ही पढ़ने आ सकती थी। संभवतः वही अपने बप्पा को वह सूचना दे आई। पर जब अपनी सारी गंभीरता भूलकर बदलू दौड़ता हुआ वहाँ आ पहुँचा, तब मेरे विस्मय की सीमा नहीं रही। मैंने उसे सब चित्र दिखा दिए और उनका अर्थ भी यथासंभव सरल करके समझा दिया, फिर भी बदलू बच्चों में बैठा ही रहा। सरस्वती के चित्र पर उसकी टकटकी बँधी देखकर मुझे पूछना ही पड़ा- 'क्या इसे तुम अपने पास रखना चाहते हो ?' बदलू की दृष्टि में संकोच था- इतनी सुंदर तस्वीर कैसे माँगी जाए ! उसके मन का भाव समझ कर जब मैंने उसे वह चित्र सौंप दिया, तब वह बालकों के समान आनंदातिरेक से अस्थिर हो उठा।

कई दिनों के बाद मैंने बदलू के अँधेरे घर के जर्जर द्वार पर चित्र को लेई से चिपका हुआ देखा और सत्य कहूँ, तो कहना होगा कि मुझे उस चित्र के दुर्भाग्य पर खेद हुआ ।

दीवाली के दिन बहुत-से मिट्टी के खिलौने खरीदने का मेरा स्वभाव है। वास्तव में वह ऐसा पर्व है, जब मिट्टी के शिल्पियों की कारीगरी का अच्छा प्रदर्शन हो जाता है और उस दिन प्रोत्साहन पाकर वे वर्ष भर अपनी कला के विकास की ओर प्रयत्नशील रह सकते हैं। आधुनिक सभ्य युग ने हमारे उत्सवों का उत्साह छीन ही नहीं लिया, वरन् इन शिल्पियों का विकास भी रोक दिया है। विचारों में उलझी हुई मैं खिलौने सजाने के लिए जैसे ही बड़े कमरे में पहुँची, वैसे ही बाहर बदलू का खरखराता हुआ कंठ सुनाई दिया। वह तो कभी मेरे यहाँ आया ही नहीं था, इसी से आश्चर्य भी हुआ और चिंता भी। क्या उसके घर कोई बीमार है, किसी प्रकार की आपत्ति आई है ? बरामदे में आकर देखा मैले कपड़ों में सकुचाया-सा बदलू एक टूटी डलिया लिए खड़ा है।

कुछ आगे बढ़कर जब उसने डलिया सामने रख कर उस पर ढका हुआ फटे कपड़े का टुकड़ा हटा दिया, तब मैं अवाक् हो रही । बदलू एक सरस्वती की मूर्ति लाया था - सफेद और सुनहले रंगों से चित्रित। मूर्ति की प्रशांत मुद्रा को उसके शुभ्र वस्त्र, सुनहले बाल, सुनहली वीणा और लाल चोंच और पैर वाले सफेद हंस ने और भी सौम्य कर दिया था। एक-एक बाल की लट, जितनी कला से बनाई गई थी, उससे तो बनाने वाला बहुत कुशल शिल्पी जान पड़ा। पूछा- किस से बनवा लाए हो इसे ?' जो उत्तर मिला उसके लिए मैं किसी प्रकार भी प्रस्तुत नहीं थी। बदलू ने सलज्ज आँखें नीची कर और सूखे बेडौल हाथ फैलाकर बताया कि उसने अपने ही हाथों से बनाई है। विश्वास करना सहज न होने के कारण मैं कभी मूर्ति और कभी बदलू की ओर देखती रह गई। क्या यह वही कुम्हार है, जिसने एक वर्ष पहले सुंदर घड़े बनाने में भी असमर्थता प्रकट की थी ? मुख से निकल गया- 'तुम तो गाँव के गँवार कुम्हार हो; जब नक्काशीदार घड़ा बनाना असंभव लगता था, तब ऐसी मूर्ति बनाने की कल्पना कैसे कर सके !"

धीरे-धीरे सत्य स्पष्ट हुआ । सरस्वती के चित्र को देखते-देखते, बदलू के मन में कलाकार बनने की इच्छा जाग उठी। जहाँ तक संभव हो सका, उसने सारी शक्ति लगाकर उस चित्रगत सौंदर्य को मिट्टी में साकार करने का प्रयत्न किया। कई बार असफल रहा; पर निरंतर अभ्यास से आज वह सरस्वती की ऐसी प्रतिमा बना पाया, जो मुझे उपहार में देने योग्य हो सकी।

तब से कितनी ही दीवालियाँ आईं, बदलू ने कितनी ही सुंदर-सुंदर मूर्तियाँ बनाईं और उनमें से कितनी ही संपन्न घरों में अलंकार बन कर रहीं।

सरला रधिया तो मानो अपने पति को कलावंत बनाने के लिए ही जीवित थी। जैसे ही उसके बेडौल मटकों का स्थान सुंदर मूर्तियों ने लिया, वैसे ही वह अपनी ममता समेट कर किसी अज्ञात लोक की ओर प्रस्थान कर गई।

बदलू तो ऐसा रह गया, मानो चकवा चकवी के जोड़े में से एक हो। सवेरे से साँझ तक और साँझ से सवेरे तक वह रधिया के लौट आने की प्रतीक्षा करता रहता था। प्रतीक्षा वैसे ही करुण है; पर जब एक जीवित मनुष्य उस मृत की प्रतीक्षा करने बैठता है, जो कभी नहीं लौटेगा, तब वह करुणतम हो उठती है। मिथ्यावादिन रधिया उस उदासीन ग्रामीण के जीवन में कौन-सा स्थान रिक्त कर गई है, यह तब ज्ञात हुआ, जब उसने घर बसाने की चर्चा चलाने वाले के सर पर एक मटकी दे मारी।

स्त्री में माँ का रूप ही सत्य, वात्सल्य ही शिव और ममता ही सुंदर है जब वह इन विशेषताओं के साथ पुरुष के जीवन में प्रतिष्ठित होती है, तब उसका रिक्त स्थान भर लेना अंसभव नहीं तो कठिन अवश्य हो जाता है।

अंत में तेरह वर्ष की दुखिया ने छोटा-सा अंचल फैला कर अपने बप्पा और भाई-बहनों को उसकी छाया में समेट लिया। रधिया का प्रतिरूप बन कर वह उसी के समान सबकी व्यवस्था में अपने-आपको गला - गलाकर बड़ा करने लगी ।

दो वर्ष हो चुके, जब बदलू की कला पर मुग्ध होकर उसका एक ममेरा भाई उसे बच्चों के साथ फैजाबाद ले गया था; परंतु दीवाली के दिन वह एक न एक मूर्ति लेकर उपस्थित होना नहीं भूलता। केवल इसी वर्ष उसके नियम में व्यतिक्रम हो रहा है, क्योंकि दीवाली आकर चली गई; पर बदलू अब तक कोई मूर्ति नहीं लाया । कदाचित् वह रधिया की खोज में चल दिया हो; पर मेरे घर के हर कोने में प्रतिष्ठित बुद्ध, कृष्ण, सरस्वती आदि की मूर्तियाँ, पुराने चाक पर बेडौल घड़े गढ़ने वाले ग्रामीण कुंभकार का स्मरण दिलाकर मानो कहती ही रहती हैं- कला तुम्हारा ही पैतृक अधिकार नहीं, कल्पना तुम्हारी ही क्रीतदासी नहीं ।

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