बादलों को तो हटना ही है (नेपाली कहानी) : कर्ण थामी

Badlon Ko To Hatna Hi Hai (Nepali Story) : Karna Thami

उस समय दार्जिलिंग शहर में हाल ही में ' आइसक्रीम' ठेलागाड़ियों में घुमाकर बेची जानी शुरू हुई थी। ऐसी कई ठेलागाड़ियाँ चौराहे के चारों ओर, और बाज़ार में 'प्राय: दौड़ते हुए आज भी हम लोग देखते हैं। स्कूल-कालेज के लड़के-लड़कियाँ उन गाड़ियों को घेरकर आइसक्रीम खरीदते हुए आजकल भी देखने को मिलते हैं। अतः फुटबाल मैच के सीजन में उन ठेलागाड़ियों को आइसक्रीम बेचने से फुर्सत ही नहीं मिलती थी।

हर दिन की तरह आज भी सुबह से शाम तक आइसक्रीम की ठेलागाड़ी शहर- भर में घुमा-घुमाकर बेचकर मालिक का हिसाब चुकता कर थका-हारा रने अब साँझ की झुरमुट में घर के अन्दर घुस जाता है। इस बार दार्जिलिंग में साल के पहले 'सीजन' की शुरुआत है, इसलिए दिनभर के कोलाहल से थके हुए रने को अपने किराये के छोटे पुराने प्राय: बदबूदार कमरे में प्रवेश करते हुए एक अजीब सी खुशी हो आती है और शान्ति की मीठी साँस लेते हुए खटिया के नीचे से एक पुरानी बैठकी (मूढ़ा ) निकालकर बैठ जाता है। कुछ ही दूरी पर एक चूल्हा, है और पास ही बैठकर उसकी घरवाली भात पकाने की तैयारी कर रही है।

पति की ओर देखती हुई किशोरी प्यार से पूछती है, " आज भी मालिक ने कुछ कहा है क्या ?"

‘“साला कंजूस गोजी में बीड़ी पीने के लिए एक पैसा भी न छोड़ा, सब उलटाकर ले गया'- अपनी घरवाली को इस तरह का दुखड़ा बता रहा है, रने।

अपने थके पति को सान्त्वना देने के लिए किशोरी ने एक कप फीकी चाय उसके आगे रखकर कहा, “यह मालिक भी एकदम खून चूसने वाले होते हैं। गरीब का खून चूसकर भी इन जानवरों का पेट नहीं भरता है।'

इधर रने बहुत बड़ा बोझ सिर से उतरा महसूस कर लम्बी साँस लेता है।

उसी वक्त सात-आठ बरस का उसका लड़का घर के अन्दर आ जाता है और अपनी माँ और बाप की ओर देखने लगता है। रने लड़के को अपने पास बुलाकर पूछता है, "क्यों बेटा, स्कूल गया था ?"

"गया था लेकिन कल कापी और किताब खरीदे बगैर सर ने मुझे क्लास के अन्दर नहीं घुसने को कहा है।"

कुछ सोच में पड़ जाता है। फिर कुछ क्षण अपने लड़के के ये शब्द उसके कानों में गूँजते हैं, " पापा, आइसक्रीम खाने में कैसी होती है ? मेरे दोस्त लोग तो कहते हैं बहुत मीठी होती है, है ना पापा ?"

स्वयं रात-दिन आइसक्रीम बेच रहा रने आज तक अपने लड़के को एक टुकड़ा आइसक्रीम खिलाने में लाचार, अपने भीतर एक क्षुब्धता और ग्लानि का अनुभव करने लगा, वह अपने लड़के की ओर अब केवल मायूस नज़रों से देखता रहता है।

बहुत देर बाद। सब बच्चे सो रहे हैं। केवल किशोरी और रने जागे हुए हैं, लेकिन न जाने क्यों अब किशोरी कुछ छटपटाती हुई दिखाई देती है। उसकी यह अवस्था देखकर रने पूछता है, "क्या हो रहा है तुम्हें ?"

अब किशोरी कुछ ढीली होकर कहती है, “सुनो, ऊपर नई बिल्डिंग की दीदी ने कहा है, मैं वहाँ काम करूँ। पकाना, धोना, पोंछना और कमरों की साफ-सफाई करना, काम सिर्फ इतना ही। अच्छी तलब ( तनख्वाह ) दूँगी - ऐसा कहती हैं । "

"तुम्हारा क्या खयाल है ?"

घर के नजदीक की नौकरी करना ही चाहती हूँ। दो-चार पैसे भी तो घर में आएँगे।” किशोरी अपने दिल की बात कह देती है। 'मौन सहमतिलक्षणम्' जैसा रने भी चुप रहकर अनुमति देता है।

अगले दिन से किशोरी उन कॉलेज में पढ़ने वाले युवकों के लिए पकाने और खिलाने के काम पर चली जाती है। नया काम और नये व अपरिचित चुवकों को देखकर पहले-पहल तो कुछ कठिनाई महसूस करती है लेकिन बाद में वह अभ्यस्त होती जाती है । इसी तरह कई महीने बीत जाते हैं।

इन युवाओं में एक युवक के प्रति किशोरी का ध्यान आहिस्ता-आहिस्ता आकर्षित होता जाता है। किशोरी को उस युवक का आचार-व्यवहार, साथ ही उसका चेहरा बचपन में देखा हुआ, जाना-पहचाना सा लगता है। इन्हीं शंकाओं में किशोरी कई दिन बिता देती है।

एक दिन वह युवक अपने कमरे में अकेला पढ़ रहा था। उसके दोस्त लोग उस समय बाहर गये थे। उस समय किशोरी युवक के कमरे में आहिस्ता से चली जाती है। ध्यानमग्न होकर पढ़ रहे उस युवक को बुलाने का साहस अभी उसमें नहीं है, वह वापस बाहर चली आना चाहती है। इसी समय युवक किशोरी को देख लेता है। झट से प्रश्न कर देता है वह युवक, "क्यों बहन, कुछ काम है ?"

किशोरी कुछ देर के लिए हतप्रभ हो जाती है, यह मिठास भरी आवाज उसे पहले भी बहुत बरस पहले सुनी हुई लगती है। फिर भी अपने को सँभालकर उसने कुछ जिज्ञासापूर्ण आवाज में पूछा, "बाबूजी, आप पढ़ने के लिए कहाँ से आये हैं ?"

" सिक्किम, गेजिंग से।" किशोर नाम के उस युवक का छोटा-सा उत्तर । अचानक चमक उठती है किशोरी । किशोरी का इस तरह चमक उठना उस युवक की आँखों से छिपता नहीं है। अब फिर किशोरी अपने को सँभालकर दूसरा प्रश्न पूछती है, "आपके घर में माँ, बाप, भैया, बहनें सभी हैं ना ?"

" सभी हैं।...लेकिन..." युवक और आगे बोल नहीं सका।

"लेकिन...लेकिन क्या बाबूजी ? कहिए न... " किशोरी तड़प उठती है ।

"कहता हूँ, एक शर्त पर..." युवक अब कुछ कहने के लिए राजी हो जाता है।

"कहिए, कहिए ना।"

“मैं जो कहता हूँ और किसी से तो आप नहीं कहेंगी ?"

"किसी से नहीं। यकीन रखिए।"

अब किशोर ने कमरे की दीवार की ओर देखते हुए कहना शुरू किया, मानो वहाँ किसी का चित्र उतारना चाहता हो- "मेरी एक बड़ी बहन थी, आप ही की तरह । उसका नाम भी किशोरी ही था, लेकिन मेरे बचपन में ही वह सबको छोड़कर हमारे घर के चरवाहे के साथ भाग गई। "

अकस्मात् मर्माहत हो जाती है किशोरी। उसे अपनी छाती में चुभे हुए काँटों की पीड़ा महसूस होती है। व्यथित स्वर में किशोर की ओर देखती हुई फिर प्रश्न करती है, "आप लोगों ने आज तक अपनी बड़ी बहन की कोई खोज-खबर नहीं ली ?"

"माँ-बाप ने तो बहुत खोज-खबर ली थी। बाद में सुनने में आया कि वे लोग इसी दार्जिलिंग में ही आये हैं, लेकिन उसके बाद कुछ पता नहीं चला।"

'ओह ! वह अभागन तुम्हारी दीदी आजकल इधर दार्जिलिंग में ही हो सकती है।" एक रहस्य यहाँ छोड़ देती है किशोरी ।

युवक कुछ अपनत्व के भाव से कहता है, "हाँ, बहन, मैं उस खोई हुई अपनी बड़ी बहन को ढूँढ़ना चाहता हूँ। मेरी दीदी मुझे बहुत प्यार करती थी इसलिए हो सके तो आप भी उसे ढूँढ़ने में मेरी मदद कीजिएगा । "

विस्फारित आँखों से उस युवक की ओर किशोरी कुछ देर तक देखती ही रहती है, उसके हृदय में ज्वालामुखी फट रहा था।

"बाबूजी, मैं तो यहाँ कुछ कहने के लिए आई थी..." भीतर ही भीतर बहुत जोर से ऐंठ जाता है किशोरी का हृदय, फिर भी सँभलकर कहती है, "कल से मैं यहाँ काम करने नहीं आ सकूँगी।"

“क्यों ? किसी ने कुछ कहा है ?" किशोर गरज उठता है।

“किसी ने कुछ भी नहीं कहा है, लेकिन मैं कुछ बीमार हूँ।" किशोरी सरासर झूठ बोलकर अपने घर की ओर चली जाती है।

इसी रात में...

रने और किशोरी चुपचाप चारपाई पर लेटे हुए थे। एकाएक रने पूछ बैठता है, ‘“ये पढ़ने वाले लड़के सिक्किम की किस जगह से आए हुए हैं। "

"कोई गांगतोक, कोई तुरूक, कोई गेजिंग से...." गम्भीर आवाज़ में जवाब देती है किशोरी ।

"गेजिंग से भी ?" अचानक कुछ उतावला हो जाता है रने ।

सब बच्चे सो रहे थे और किशोरी बार-बार करवटें ले रही थी। पास में सो रहा ने मिट्टी के तेल की बती के क्षीण लिपलिपाते प्रकाश में अपनी आँखों में काली धुँधली-सी पुरानी सड़ी हुई बोरों से छाई हुई छत की ओर एकटक देखते हुए अपने अतीत के जीवन को चलचित्र की तरह अपने स्मरणपट पर सजीव कर रहा था...

उन दिनों...

रने था उस समय का हट्टा-कट्टा युवक, देखने में भी अच्छा-खासा लेकिन था गेजिंग के एक गाँव के जमींदार का चरवाहा । सुबह मुर्गे के बाँग देते ही उठना, गाय- बकरियों को दाना-पानी देना, दूध निकालना और फिर उन सभी को चराने हाँककर ले जाना, बाद में संध्या के समय भरपेट उन गाय-बकरियों को गोठ में वापस लाना और फिर दाना-पानी देना, दूध निकालना...ऐसी ही थी उसकी दिनचर्या ।

जंगल की वह खुली हुई जगह और पहाड़ियाँ, चाँप और गुराँस फूल रही हैं डालों पर भरपूर। चिड़ियाँ आनन्द में कलरव कर रही हैं- चारों ओर । ऐसी ऋतु में रने के हृदय की गहराई से गाने की चाह उभरकर आती है। वह अब सारे जंगलों को प्रतिध्वनित करते हुए गाता है-

"लेक लेक हिड़ने लेक मृग
कसले पो हेर्ला भोक तिर्खा..."

(हिमालय की गोद में फुदकते मृग की तरह हूँ मैं और अब कौन मुझ जैसे भूखे- प्यासे की देखभाल करेगा।)

किशोरी जमींदार की बड़ी लड़की है। प्रेमपूर्ण स्वभाव वाली । रने पर उसका अव्यक्त आकर्षण है। मन ही मन रने को बहुत चाहती है, प्यार करती है वह । लेकिन एक चरवाहे से उसका प्रेम यह समाज व्यवस्था तो स्वीकार नहीं करेगी, उसके घर छोटों - बड़ों में से कोई भी इसे नहीं मानेगा। इन विकट बातों को जानते हुए भी वह रने की ओर खिंचती चली जा रही है, झुकती जा रही है।

वह घर के लोगों से किसी न किसी प्रकार का बहाना बनाकर जंगल में गाय- बकरियों को चराते रने के पास आती है और साथ में लाती है भूखे-प्यासे अपने रने को खिलाने के लिए रोटी, नमक और मिर्च । पत्तों में लपेटकर ।

" गाते-गाते, साथ ही बाँसुरी बजाते हुए लगता है, तुम्हारे पेट में सिर्फ हवा भर गयी है। यह ले लो रने भैया । अपने पेट के अन्दर भूख से चिल्ला रहे मृग को ये रोटियाँ दे दो..."

रने के आगे अपने हाथों में रोटियाँ लेकर खड़ी किशोरी कुछ मजाक में कहती हुई हँस देती है-जंगलों के चारों ओर आनन्द बिखेरकर। इधर रने भावुकतावश कुछ शरमाकर किशोरी के शरीर के सम्पूर्ण अंगों और सुन्दर रूप को निहारता रहता है।

"क्या हो गया ? खाओ न। अभी यहाँ किसी ने हम दोनों को कहीं देख लिया और घर में जाकर बापू को चुगली लगा दी तो ..." अचानक संत्रस्त होकर कहती है किशोरी । साथ ही कई रोटियाँ रने के हाथों में रख देती है।

इसी तरह दिन बीतते जाते हैं। पवित्र प्रेम की सुखद गोद में ये दोनों आपस में अपने-अपने शिकवे-शिकायत करते रहते हैं, चूँकि रने और किशोरी की ज़िन्दगी किसी भी समय फाँसी पर झूलने वाले कैदी की तरह अनिश्चित है। किशोरी बगैर रने के जिन्दा नहीं रह सकती जैसे बगैर पानी के मछली । इधर रने भी जब-तब मन में संत्रास लेकर चल रहा है, चूँकि अपने अन्नदाता की लड़की के साथ प्रेम-प्रणय सम्बन्ध रखना वह एक धृष्टता समझता था । इसीलिए रने किशोरी से कुछ दूर-दूर रहता था लेकिन किशोरी छाया की तरह उसका पीछा किया करती थी। सच कहा है-नारी एक छाया की तरह है, इससे जितनी दूर भागो उतना ही नजदीक आती है।

एक दिन रने एकान्त में किशोरी को पूछता है, "क्या तुम अपना सब कुछ छोड़कर मेरे साथ भाग सकती हो ?"

किशोरी चकित साथ ही मलिन आँखों से रने के चेहरे पर कुछ क्षण टकटकी लगाए देखती रही फिर अपना सिर झुका दिया।

अब रने और किशोरी के बारे में गाँववालों के बीच तरह-तरह की कानाफूसी और टीका-टिप्पणी भी होने लगी थी।

एक दिन रने गोठ की ओर जा रहा था। उसी समय उसके कानों में जमींदार का कठोर स्वर सुनाई पड़ा - "रने ?"

रने चुपचाप खड़ा होकर जमींदार का रौद्र रूप देख मीठी आवाज में बोला, "हुजूर !"

“आज यह बात सच हुई लगती है कि अपनी पाली हुई चिड़िया ही अपने मालिक की आँखों में चोंच मारती है। साले, कुत्ते, तू एक अदना सा चरवाहा मेरी बेटी को ब्याहकर मेरा दामाद होने की ख्वाहिश रखता है- कुत्ते कहीं के!" कहकर जमींदार ने दो भरपूर थप्पड़ रने के गालों पर मार दिये। गरीब, दीन रने के मन में जमींदार द्वारा किए गए इस अपमान ने स्वाभिमान जगा दिया। वह अब एक शब्द भी न बोलकर एक विपरीत पगडण्डी की ओर जाने लगा। चलते-चलते अब वह जमींदार की हवेली से कुछ दूर आ चुका है। पास ही के पहाड़ की चढ़ाई चढ़ते चढ़ते उसे अकस्मात् एक नारी-स्वर अपने पीछे से आता सुनाई पड़ा। मुड़कर उसने नीचे की ओर देखा- हाँफती हुई किशोरी भी उस पहाड़ की चढ़ाई पर रने के पीछे-पीछे आ रही थी । रने वहीं ठहरकर असीम प्यार की आँखों से देखते हुए अपनी ओर आती किशोरी का इन्तज़ार करने लगा। किशोरी अब आँधी की तरह सरसराती हुई रने की छाती से चिपकने के लिए चली आई।

अपने सिर को रने की छाती में छुपाने की कोशिश करती हुई रोते-रोते किशोरी कहती है, “पापी, कैसे मुझे इस तरह छोड़कर जा रहे हो ! निष्ठुर !"

रने का पुरुष - हृदय भी मोम की तरह पिघल गया। उसने किशोरी की माँग को चूमते हुए कहा, "मैंने तुम्हें छोड़ा नहीं है, लेकिन तुम्हारे पिताजी के उस कठोर वचन की पीड़ा के कारण मैं मूक बन गया था। चलो, अब किसी दूसरे ही देश में चलें, जहाँ रहकर दुःख-सुख की जिन्दगी गुजार सकें।"

किशोरी ने आँसू भरी आँखों से सुदूर देहात में स्थित अपने मायके की ओर सिर उठाकर देखा। उस समय उसके हृदय स्थल में एक वीभत्स भूस्खलन हो रहा था । वह कुछ बोल न सकी।

अब रने किशोरी की बाँह थाम अपनी ओर तान लेता है। रोती हुई किशोरी रने के साथ-साथ आगे बढ़ चली और कुछ देर पश्चात् वह दोनों धीरे-धीरे उसी पहाड़ी की गोद में विलीन हो गए।

इस दार्जिलिंग शहर में रहते हुए रने और किशोरी ने कुछ बरस बिताये हैं। सिक्किम से यहाँ आते समय इस स्थान पर उन लोगों का कोई भी जान पहचान वाला नहीं था। किशोरी के गहनों को बेचकर वे दोनों एक पुराना घर ढूँढ़कर उसी में किराये पर रहने लगे। दोनों ने बोझे ढोए, कुली का काम किया और एक दिन यह आइसक्रीम बेचने की नौकरी मिली और आज तक इसी नौकरी को करते हुए रने अपना खून-पसीना सुखा रहा है...

रने ने अपने सो रहे बच्चों की ओर देखा। किशोरी भी अभी तक सोई थी। उसके मानसपट पर अपना बिछुड़ा मायका, माँ-बाप और भाई-बहनों की यादें चलचित्र की तरह एक-एक करके सजीव होकर आती-जाती रही हैं। आज ये यादें दोनों पति-पत्नी की नींद की दुश्मन बन गयी हैं।

कई हफ्ते बीत गये। किशोरी सचमुच ही किशोर के यहाँ नहीं आई। लेकिन उसका मन है कि मानता ही नहीं। रह-रहकर उसके हृदय में किशोर का चित्र अंकित होता जा रहा है। एक अव्यक्त प्यास से वह तड़पती जा रही थी। कभी-कभी वह खूब साहस करती थी- किशोर के यहाँ जाना, किशोर से मुलाकात भी करना और चाहती थी उस रहस्य को खोल दे, लेकिन डरती भी थी-कहीं उस रहस्य को खोल देने से यह सुषुप्त ज्वालामुखी फट तो नहीं जाएगा। वह मन के अन्दर ही अन्दर एक मानसिक दर्द को पाले हुए जीने लगी। इसी तरह दिन बीत रहे थे ।

आज त्योहार है। युग-युग से चले आ रहे भाई-बहनों के पवित्र प्यार का प्रदर्शन। कई बार झंझटपूर्ण, साथ-साथ ही अनचाहे रीति-रिवाजों का परित्याग कर देने से ये दशहरा जैसे त्योहार हमारे समाज के लिए प्रगति की सीढ़ी बन सकते हैं। हमारे समाज, देश और संसार में मानव-मानव के बीच सच्चे प्रेम के कई मजबूत सम्बन्ध इस दशहरा के समानतापूर्ण व्यवहार और आचार में हम लोग प्राप्त कर सकते हैं। इसीलिए दशहरा के त्योहार को सार्वजनिक उपकारी बनाना है, तो इसको धर्मिक पाखंड के रंगों में न रंगकर, इससे सामाजिक उपयोगिता का कार्य लेने से इसका महत्त्व और अधिक होगा।

इधर किशोर अपने कमरे की खिड़की से इस त्योहार की सामाजिक असमानता को देख रहा है : 'कोई फूलों की माला और कीमती कपड़े पहनकर मदमस्त चाल से चल रहा है तो कोई वहाँ पर चिथड़े, मैले कपड़े पहनकर भूख से शुष्क मुँह लेकर गुमसुम चल रहा है और इन लोगों की ही बहुतायत देखने को मिलती है...' विचारशील किशोर हमारे समाज की दूसरी कुरीतियों के बारे में भी सोच रहा है।

अकस्मात् उसके कमरे का दरवाजा आहिस्ता से खुल जाता है। साधारण वस्त्र पहने एक नारी - मूर्ति विचारमग्न किशोर के कमरे में प्रवेश करती है। उस नारी मूर्ति के दोनों हाथों में एक थाल, उसमें जल रहा एक दीपक, फूलों की एक सुन्दर माला, टीका लगाने की सामग्री और भोजन है।

कुछ धीमी आहट पाकर किशोर ने अपना मस्तक उठाकर उस ओर देखा, एकाएक उसके मुँह से निकलता है-" ओ ! आप यहाँ, क्यों ? यह सब क्या है ?"

किशोरी कुछ त्रस्त होकर कुछ-कुछ हँसती हुई कहती है, ‘“ आपको ‘भाई- टीका' लगाने आई हूँ।"

''लेकिन''''' किशोर को और कुछ कहने का मौका नहीं मिला। अबकी बार किशोरी ने कुछ आदेश की सी आवाज़ में कहा, "किशोर, आज तुम्हें ही मेरे घर में आना चाहिए था लेकिन...लेकिन...मुझे ही यहाँ आना पड़ा। अब तुम बैठो।"

किशोर को पास ही की एक चौकी में बिठाना चाहती है किशोरी, लेकिन किशोर बैठने के लिए कुछ अनमना-सा है। उसका यह अनचाहा व्यवहार देखकर कुछ भर्राये स्वर में किशोरी एक ब्रह्माण्ड-सा रहस्य खोल देती है, "भैया, मैं वही भागकर आई हुई, तुम्हारी बड़ी बहन हूँ।"

यह वाक्य सुनते ही किशोर गहरी नींद से अचानक जाग उठा-सा होता है और इधर उसका दिल भी सीने से बाहर निकलने को तड़प उठता है। अब वह मूक होकर किशोरी को विस्फारित नेत्रों से देखता रह गया।

इधर किशोरी की दोनों आँखों से आँसू बहते जा रहे थे। वह कह रही थी, "किशोर, मैं आज अपने माँ-बाप और भाई बहनों से मुलाकात न कर सकी फिर भी तुम मिल गये हो। एक बात पूछती हूँ-जवाब दोगे ?"

" क्या ?"

" इस बार त्योहार पर तुम घर क्यों नहीं गये ?"

व्यथित स्वर सुनाई पड़ता है किशोर का -"दिल ही न किया। माँ-बाप कुछ बरस पहले गुजर चुके हैं। घर में केवल भैया और भाभियाँ हैं। मझली बहन की भी इस त्योहार में न आने की खबर मिली है...।"

किशोरी अपने माँ-बाप के इस दुनिया में न रहने की खबर से मर्माहत हो गई। लेकिन यह ऐसी बातों पर चिन्ता करने का समय नहीं था। इसलिए बातों के सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए किशोरी ने एक प्रश्न किया, “किशोर, तुम्हें अविश्वास...।"

किशोरी का वाक्य पूरा होने से पहले ही किशोर आर्तनाद कर उठता है - " दीदी, इसी कारण तुम मुझे शुरू से ही असीम प्यार और मेरी देखभाल करती आ रही हो । है ना ?"

किशोरी की दोनों आँखें आँसू और आनन्द से भरी दिखाई दे रही थीं।

कुछ क्षण पश्चात् उसके ललाट पर किशोरी ' भाई दूज का टीका' लगा देती है, माला पहना देती है, भोजन खिला देती है।

बाहर आँगन में कई मादल1 वाले मादलों को बजाते हुए 'मारुनी'2 का नाच नचाकर एक ताल से गाते जा रहे थे-

"कोरी बाटी चुल्ठी त
लट्टै पर्यो नानी को केश
फाटी देउ न बादलु
हेरी जान्छु माइती को देश ।"

( सँवार देना बालों को
कई दिन से ऐसे हैं
दूर चला जा ए बादल
मुझे मायके को देखना है ।)

1. मादल - नेपालियों की सुप्रसिद्ध ढोलक ।

2. मारुनी - मादल के गीतों पर नाचने वाले नर्तक । ये प्रायः पुरुष ही होते हैं।

अनुवादक- स्वयं लेखक

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