बड़ी बेगम (कहानी) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री
Badi Begum (Hindi Story) : Acharya Chatursen Shastri
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दिन ढल गया था और ढलते हुए सूरज की सुनहरी किरणें दिल्ली के बाज़ार में एक नयी रौनक पैदा कर रही थीं। अभी दिल्ली नयी बस रही थी। आगरे की गर्मी से घबराकर बादशाह शाहजहाँ ने जमुना के किनारे अर्द्धचन्द्राकार यह नया नगर बसाया था। लाल किला और जामा मस्जिद बन चुकी थी और उनकी भव्य छवि दर्शकों के मन पर स्थायी प्रभाव डालती थी। फैज़ बाज़ार में सभी अमीर-उमरावों की हवेलियाँ खड़ी हो गयी थीं। इस नये शहर का नाम शाहजहानाबाद रखा गया था, परन्तु पठानों की पुरानी दिल्ली की बस्ती अभी तक बिल्कुल उजड़ नहीं चुकी थी बल्कि कहना चाहिए कि इस शाहजहानाबाद के लिए बहुत-सा मलबा और समान पुरानी दिल्ली के महलात के खण्डहरों से लिया गया था, जो पुराने किले से हौज़ खास और कुतुबमीनार तक फैले हुए थे।
नदी की दिशा को छोड़कर बाकी तीनों ओर सुरक्षा के लिए पक्की पत्थर की शहरपनाह बन चुकी थी, जिसमें बारह द्वार और सौ-सौ कदमों पर बुर्ज बने हुए थे। शहरपनाह के बाहर 5-6 फुट ऊँचा कच्चा पुरवा था। सलीमगढ़ का किला बीच जमुना में था जो एक विशाल टापू प्रतीत होता था और जिसे बारह खम्भों वाला पुख्ता पुल लाल किले से जोड़ता था। अभी इस नगर को बने तीस ही बरस हुए थे, फिर भी यह मुगल साम्राज्य की राजधानी के अनुरूप शोभायमान नगरी की सुषमा धारण करता था।
शहरपनाह नगर और किले दोनों को घेरे थी। यदि शहर की उन बाहरी बस्तियों को-जो दूर तक लाहौरी दरवाजे तक चली गयी थीं और उस पुरानी दिल्ली की बस्तियों को, जो चारों ओर दक्षिण-पश्चिम भाग में फैली थीं-मिला लिया जाए तो जो रेखा शहर के बीचो-बीच खींची जाती, वह साढ़े चार या पाँच मील लम्बी होती। बागात का विवरण पृथक् है, जो सब शहज़ादों, अमीरों और शहज़ादियों ने पृथक्-पृथक् लगाये थे।
शाही महलसरा और मकान किले में थे। किला भी लगभग अर्द्धचन्द्राकार था, इसकी तली में जमुना नदी बह रही थी। परन्तु किले की दीवार और जमुना नदी के बीच बड़ा रेतीला मैदान था जिसमें हाथियों की लड़ाई दिखाई जाती। यहीं खड़े होकर सरदार, अमीर और हिन्दू राजाओं की फौजें झरोखे में खड़े बादशाह के दर्शन किया करते थे। किले की चहारदीवारी भी पुराने ढंग के गोल बुर्जों की वैसी ही थी जैसी शहरपनाह की दीवार थी। यह ईंटों और लाल पत्थर की बनी हुई थी इस कारण शहरपनाह की अपेक्षा इसकी शोभा अधिक थी। शहरपनाह की अपेक्षा यह ऊँची और मज़बूत भी थी; उस पर छोटी-छोटी तोपें चढ़ी हुई थीं, जिनका मुँह शहर की ओर था। नदी की ओर छोड़कर किले के सब ओर गहरी खाईं थी जो जमुना के पानी से भरी हुई थी। इसके बाँध खूब मज़बूत थे और पत्थर के बने थे। खाईं के जल में मछलियाँ बहुत थीं।
खाईं के पास ही एक भारी बाग था, जिसमें भाँति-भाँति के फूल लगे थे। किले की सुन्दर इमारत के आगे सुशोभित यह बाग अपूर्व शोभा-विस्तार करता था। इसके सामने एक शाही चौक था जिसके एक ओर किले का दरवाजा था, दूसरी ओर शहर के दो बड़े-बड़े बाज़ार आकर समाप्त होते थे।
किले पर जो राजा, रज़वाड़े और अमीर पहरा-चौकी देते थे, उनके डेरे-तम्बू-खेमे इसी मैदान में लगे हुए थे। इनका पहरा केवल किले के बाहर ही था। किले के भीतर उमरा और मनसबदारों का पहरा होता था। इसके सामने ही शाही अस्तबल था, जिसके अनेक कोतल घोड़े मैदान में फिराये जा रहे थे। इसी मैदान के सामने ही तनिक हटकर ‘गूजरी’ लगती थी, जिसमें अनेक हिन्दू और ज्योतिषी नजूमी अपनी-अपनी किताबें खोले और धूप में अपनी मैली शतरंजी बिछाये बैठे थे। ग्रहों के चित्र और रमल फेंकने के पासे उनके सामने पड़े रहते थे। बहुत-सी मूर्ख स्त्रियाँ सिर से पैर तब बुरका ओढ़े या चादर में शरीर को लपेटे, उनके निकट खड़ी थीं और वे उनके हाथ-मुँह को भली भाँति देख पाटी पर लकीरें खींचते तथा उंगलियों की पोर पर गिनते उनका भविष्य बताकर पैसे ठग रहे थे। इन्हीं ठगों में एक दोगला पोर्चुगीज़ बड़ी ही शान्त मुद्रा में कालीन बिछाये बैठा था; इसके पास स्त्री-पुरुषों की भारी भीड़ लगी थी, पर वास्तव में यह गोरा धूर्त बिल्कुल अनपढ़ था। उसके पास एक पुराना जहाजी दिग्दर्शक यन्त्र था और एक रोमन कैथोलिक की सचित्र प्रार्थना-पुस्तक थी। वह बड़े ही इत्मीनान से कह रहा था, “यूरोप में ऐसे ही ग्रहों के चित्र होते हैं!”
पीछे जिन दो बाजारों की यहाँ चर्चा हुई है, जो किले के सामने मैदान में आकर मिले थे, वहीं एक सीधा और प्रशस्त बाज़ार चाँदनी चौक था, जो किले से लगभग पच्चीस तीस कदम के अन्तर से आरम्भ होकर पश्चिम दिशा में लाहौरी दरवाजे तक चला जाता था। बाज़ार के दोनों ओर मेहराबदार दुकानें थीं, जो ईंटों की बनी थीं तथा एक मंजिला ही थीं। इन दुकानों के बरामदे अलग-अलग थे, और इनके बीच में दीवारें थीं। यहीं बैठकर व्यापारी अपने-अपने ग्राहकों को पटाते थे, और माल-असबाब दिखाते थे। बरामदों के पीछे दुकान के भीतरी भाग में माल-असबाब रखा था तथा रात को बरामदे का सामान भी उठाकर वहीं रख दिया जाता था। इनके ऊपर व्यापारियों के रहने के घर थे, जो सुन्दर प्रतीत होते थे।
नगर के गली-कूचे में मनसबदारों, हकीमों और धनी व्यापारियों की हवेलियाँ थीं, जो बड़े-बड़े मुहल्लों में बँटी हुई थीं। बहुत-सी हवेलियों में चौक और बागीचे थे। बड़े-बड़े मकानों के आस-पास बहुत मकान घास-फूस के थे जिनमें खिदमतगार, नानबाई आदि रहते थे।
बड़े-बड़े अमीरों के मकान नदी के किनारे शहर के बाहर थे, जो खूब कुशादा, ठण्डे, हवादार और आरामदेह थे। उनमें बाग, पेड़, हौज और दालान थे तथा छोटे-छोटे फव्वारे और तहखाने भी थे, जिनमें बड़े-बड़े पंखे लगे हुए थे। और खस की टट्टियाँ लगी थीं। उन पर गुलाम-नौकर पानी छिड़क रहे थे।
बाज़ार की दुकानों में जिन्सें भरी थीं; पश्मीना, कमख़ाब, जरीदार मण्डीले और रेशमी कपड़े भरे थे। एक बाज़ार तो सिर्फ मेवों ही का था, जिसमें ईरान, समरकन्द, बलख, बुखारा के मेवे-बादाम, पिस्ता, किशमिश, बेर, शफतालू, और भाँति-भाँति के सूखे फल और रूई की तहों में लिपटे बढ़िया अंगूर, नाशपाती, सेब और सर्दे भरे पड़े थे। नानबाई, हलवाई, कसाइयों की दुकानें गली-गली थीं। चिड़िया बाज़ार में भाँति-भाँति की चिड़ियाँ-मुर्गी, कबूतर, तीतर, मुर्गाबियाँ बहुतायत से बिक रही थीं। मछली बाज़ार में मछलियों की भरमार थी। अमीरों के गुलाम-ख्वाजासरा व्यस्त भाव से अपने-अपने मालिकों के लिए सौदे खरीदे रहे थे। बाज़ार में ऊँट, घोड़े, बहली, रथ, तामझाम, पालकी और मियानों पर अमीर लोग आ-जा रहे थे। चित्रकार, नक्काश, जड़िये, मीनाकार, रंगरेज़ और मनिहार अपने-अपने कामों में लगे थे।
इस वक्त चाँदनी चौक में एक खास चहल-पहल नज़र आ रही थी। इस समय बहुत-से बरकन्दाज, प्यादे, भिश्ती और झाड़ बरदार फुर्ती से अपने काम में लगे हुए थे। बरकन्दाज और सवार लोगों की भीड़ को हटाकर रास्ता साफ कर रहे थे। झाड़ बरदार सड़कों का कूड़ा-कर्कट हटा रहे थे। दुकानदार चौकन्ने होकर अपनी-अपनी दुकानों को आकर्षक रीति पर सजाये उत्सुक बैठे थे। इसका कारण यह था कि आज बड़ी बेगम की सवारी किले से इसी राह आ रही थी।
:: 2 :: बादशाह की बड़ी लड़की जहाँआरा, शाही हल्कों में बड़ी बेगम के नाम से प्रसिद्ध थी। वह विदुषी, बुद्धिमती और रूपसी स्त्री थी। वह बड़े प्रेमी स्वभाव की थी, साथ ही दयालु और उदार थी। बादशाह ने उसके जेब खर्च के लिए तीस लाख रुपये साल नियत किये थे तथा उसके पानदान के खर्चे के लिए सूरत का इलाका दे रखा था, जिसकी आमदनी भी तीस लाख रुपये सालाना थी। इसके सिवा उसके पिता और बड़े भाई अपनी गर्ज के लिए उसे बहुमूल्य प्रेम-भेंट देते रहते थे। उसके पास धन-रत्न बहुत एकत्रित हो गया था और वह खूब सज-धज कर ठाठ से रहती थी। वह अंगूरी शराब की बहुत शौकीन थी, जो काबुल, फारस और काश्मीर से मँगाई जाती थी। वह अपनी निगरानी में भी बढ़िया शराब बनवाती-जो अंगूरों में गुलाब और मेवाणात डालकर बनायी जाती थी। रात को वह कभी-कभी नशे में इतनी डूब जाती थी कि उसका खड़ा होना भी सम्भव न रहता और उसे उठाकर शय्या पर-डाला जाता था। शाहजहाँ के शासन-काल में वही तमाम साम्राज्य पर शासन करती थी, इससे उसका नाम बड़ी बेगम प्रसिद्ध हो गया था। शाही मुहर इसी के ताबे रहती थी।
बड़ी बेगम पालकी पर सवार थी, जिस पर एक कीमती जरवफ्त का परदा पड़ा था, जिसमें जगह-जगह जवाहरात टंके थे। पालकी के चारों ओर ख्वाजासरा मोरछल और चंवर डुलाते पालकी का घेरा डाले चल रहे थे। वे जिसे सामने पाते उसी को धकेलकर एक ओर कर देते थे। बहुत-से जार्जियाना गुलाम सुनहरे-रुपहले डंडे हाथों में लिये ज़ोर-ज़ोर से ‘हटो बचो, हटो बचो’ चिल्लाते जा रहे थे। उनके आगे भिश्ती तेजी से दौड़ते हुए सड़क पर पानी का छिड़काव करते जाते थे। मोरछलों और चंवरों की मूठ सोने-चाँदी की जड़ाऊ थी। पालकी के साथ सैकड़ों बांदियाँ सुनहरी पात्रों में जलती हुई सुगन्ध लिये चल रही थीं। सबसे आगे दो सौ तातारी बांदियाँ नंगी तलवारें हाथ में लिये, तीर-कमान कन्धे पर कसे, सीना उभारे, सफ बाँधे चल रही थीं और सबके पीछे एक मनसबदार घुड़सवार रिसाले के साथ बढ़ रहा था। यह मनसबदार एक अति सुन्दर युवक था। उसका रंग अत्यन्त गोरा, आँख काली और चमकदार तथा बाल घुंघराले थे। वह बहुमूल्य रत्नजटित पोशाक पहने था-और इतराता हुआ-सा अपने रिसाले के आगे-आगे चल रहा था। उसका घोड़ा भी अत्यन्त चंचल और बहुमूल्य था। यह तेजस्वी सुन्दर मनसबदार नजावत खाँ था, जो शाहे-बलख का भतीजा और बुखारे का शहज़ादा मशहूर था और बादशाह शाहजहाँ का कृपापात्र मनसबदार था।
इस समय बहुत-से अमीर-उमरा चाँदनी चौक की सैर को निकले थे। इन अमीरों के ठाठ भी निराले थे। किन्हीं के साथ दस-बीस, किन्हीं के साथ इससे भी अधिक नौकर-चाकर-गुलाम पैदल दौड़ रहे थे। अमीर घोड़े पर सवार ठुमकते, धीरे-धीरे पान कचरते हुए अकड़कर चल रहे थे। कुछ चलते-चलते ही पेचवान पर अम्बरी तम्बाकू का कश खींच रहे थे। साथ-साथ खवास गंगाजमनी काम की फर्शी हाथों हाथ लिये दौड़ रहे थे। गुलामों में किसी के पास पानदान, किसी के पास उगलदान, किसी के पास इत्रदान। कोई सरदार की जड़ाऊ तलवार लिये चल रहा था और इस प्रकार अमीर का बोझ हल्का कर रहा था। परन्तु ये अमीर चाहे जिस शान से जा रहे हों, ज्योंही बेगम की पालकी उनकी नज़र में पड़ती उनकी सब शान हवा हो जाती। जो जहाँ होता तुरन्त घोड़े से उतरकर सड़क के एक कोने में अपने आदमियों सहित हाथ जोड़कर अदब से खड़ा हो जाता और पालकी की ओर मुँह करके तीन बार कोर्निश करता जिसकी सूचना तुरन्त बेगम को पालकी के भीतर दे दी जाती।
इस प्रकार सूचना देने के लिए जो तरुण सरदार पालकी के साथ चल रहा था, वह एक प्रकार से किशोर वय का था। अभी पूरा तारुण्य उसके मुख पर प्रकट नहीं हुआ था। वह एक सुकुमार-सुन्दर, और सजीला किशोर था। वास्तव में यह शहज़ादी की उस्तानी का बेटा था जिसका बचपन शहज़ादी के साथ महल-सरा में बीता था और जिसे प्यार से शाही हरम में ‘दूल्हा भाई’ कहते थे। यद्यपि इसकी हैसियत एक सेवक ही की थी, पर शहज़ादी की कृपादृष्टि से यह ढीठ हो गया था और अपने को किसी शहज़ादे से कम न समझता था। उसके सब ठाठ-बाठ भी शहज़ादों ही के समान थे।
धीरे-धीरे सवारी आगे बढ़ती जा रही थी। इसी समय सामने से एक हिन्दू सरदार की सवारी आ गयी। यह हिन्दू सरदार बून्दी का हाड़ा राजा राव छत्रसाल था। इसकी अवस्था छब्बीस से अधिक न होगी। उसका उज्ज्वल श्यामल मुख, मूंछों की पतली ऐंठी हुई रेखा, बड़ी-बड़ी काली आँखें, गठीला शरीर, बाँकी छटा देखते ही बनती थी। वह कमर में दो तलवारें बाँधे था और उसके साथ पचासों सवार, पैदल सिपाही और नौकर-चाकर-सेवक और मुसाहिब चल रहे थे। दिल्ली में रहने वाले दरबारी उमरावों से इसकी छटा ही निराली थी। ज्योंही बेगम की सवारी उसकी दृष्टि में पड़ी, वह रास्ते से एक ओर हटकर घोड़े से उतरकर सड़क के एक कोने में दो सौ कदम के अन्तर से खड़ा हो गया और ज्योंही बेगम की सवारी उसके निकट आयी, उसने ज़मीन तक झुककर तीन बार कोर्निश की। नकीब ने पुकार लगायी और दूल्हा भाई ने बेगम को इसकी सूचना दी। शहज़ादी ने तुरन्त अपनी सवारी आगे बढ़ना रोक दिया और एक रत्नजड़ित कमखाब की थैली में रखकर पान का बीड़ा उसके पास भेजकर कहलाया कि वह भी सवारी के साथ रहकर उसे रौनक बख्शे। राव छत्रसाल ने फिर पालकी की ओर रुख करके सलाम किया, पान का बीड़ा आदरपूर्वक लिया और दो कदम पीछे हटकर खड़ा हो गया।
सवारी आगे बढ़ी और यह हिन्दू सरदार भी पालकी के पीछे-पीछे अपने सवारों के साथ चला। दुल्हा भाई ने बेगम को इस बात की इत्तला दे दी।
जो मनसबदार पालकी के साथ-साथ चल रहा था उसकी आँखों में इस हिन्दू सरदार को देखते ही खून उतर आया। परन्तु इस तरुण राजा ने उसकी तनिक भी परवाह नहीं की। अपने घोड़े को एड़ देकर और चार कदम आगे बढ़ वह पालकी के पीछे चलने लगा।
किला और शहर के बीच-आज जहाँ दिल्ली का रेलवे स्टेशन और कम्पनी बाग है, वहाँ इस बेगम ने एक सराय बनवायी थी। यह सराय उस समय भारतवर्ष-भर में श्रेष्ठ इमारत थी। इसकी सारी इमारतें दुमंज़िली थीं और ऊपर बड़े-बड़े आलीशान सुसज्जित कमरे बने थे, जिनमें देश-देश के लोग ठहरते और तफरीह करते थे। सराय में नहाने के लिए पक्के हौज, नल और बड़े-बड़े बावर्ची खाने बने थे। इस सराय के इन्तज़ाम के लिए बेगम ने योग्य कर्मचारी नियुक्त किये थे। इस समय तक भी सराय समूची बनकर तैयार नहीं हो पायी थी और हज़ारों कारीगर-मिस्त्री उसमें चित्र-विचित्र काम कर रहे थे।
इस वक्त बेगम की सवारी इसी सराय की ओर जा रही थी। इसकी सूचना सराय के दारोगा को भी मिल चुकी थी और वहाँ बेगम की अवाई की धूमधाम मची थी। सब राह-बाट साफ करके छिड़काव किया गया था। बहुत-से खोजे, दास-दासी अपने-अपने काम में लगे थे। इस समय सराय का वह भाग जहाँ बेगम तशरीफ़ रखने वाली थीं और जहाँ एक खूबसूरत छोटा-सा बगीचा था, भली भाँति सजाया गया था। बगीचे के बीच संगमरमर की बारहदरी थी, वहीं बेगम की सवारी उतरी।
शाम की भीनी सुगन्ध हवा में भर रही थी। बाग के माली ने सारी बारहदरी को फलों से सजाया था। हुज़ूर शहज़ादी आज रात इसी बारहदरी में आराम और तफरीह करना चाहती थीं। ख्वाजासरा और बांदियों ने मसनद, चाँदनी और गांव तकिये लगा दिये। बेगम मसनद पर लुढ़क गयीं। कुछ देर आराम करने पर बेगम ने दूल्हा भाई को हुक्म दिया, “वह हिन्दू राजा, जो सवारी के साथ है, उसे हुक्म दो कि हमारे यहाँ मुकीम रहने तक अपने पहरे-चौकी रखे और अमीर नजावत खाँ सराय के बाहरी हिस्से में अपने सिपाहियों सहित चला जाए!”
शहज़ादी का हुक्म दोनों उमरावों को पहुँचा दिया गया। दोनों ने भेद-भरी निगाहों से एक-दूसरे को देखा। तलवार की मूठ पर दोनों का हाथ गया और क्षण-भर दोनों एक-दूसरे को खूनी नजरों से देखने लगे। नजावत खाँ ने बालिश्त-भर तलवार म्यान से खींच ली और गुस्से-भरी आवाज़ में शेर की तरह गुर्राकर कहा, “खुदा की कसम, मैं यह हरगिज बर्दाश्त नहीं कर सकता कि एक काफ़िर को मुसलमान के बराबर रुतबा दिया जाए। मैं चाहता हूँ कि इसी वक्त तेरे दो टुकड़े करके तेरा गोश्त कुत्तों को खिला दूं।”
“चाहता तो मैं भी यही हूँ कि इसी वक्त तुम्हारा सर भुट्टे-सा उड़ा दूँ। मगर बेहतर यही है कि अभी आप जनाब शहज़ादा नजावतअली खाँ बहादुर, चुपचाप अपनी नौकरी ठण्डे-ठण्डे बजा लाएँ, जैसा कि हुज़ूर शहज़ादी का हुक्म हुआ है और सुबह तक भी आपके यही इरादे और दमखम रहे, तो फिर हम दोनों को अपने-अपने इरादे पूरे करने की बहुत गुंजाइश है!”
नजावत खाँ ने इसका कोई जवाब नहीं दिया। वह गुस्से से होंठ चबाता हुआ चला गया। राव छत्रसाल तनिक हटकर अपने घोड़े पर बैठ गया।
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चाँदनी रात थी और बारहदरी के बाहरी चमन में शहज़ादी अपनी खास लौंडियों के बीच मसनद पर पड़ी अपनी प्रिय अंगूरी शराब पी रही थीं। यों तो उसके लिए फ़ारस, काश्मीर और काबुल से कीमती शीराजी और इस्तम्बोल मँगायी जाती थी, परन्तु उसकी अपने शौक की प्रिय वस्तु वह थी, जो खास उसी की नजरों के सामने अंगूर में गुलाब और बहुत-सी मेवे डालकर बनायी जाती थी। यह अति सुगन्धित और स्वादिष्ट होती थी और बेगम जब खुश होती-इस शराब के जाम पर जाम चढ़ाती थी।
आज वह खुश तो न थी; बहुत-सी चिन्ताएँ उसके मस्तिष्क को परेशान कर रही थीं-इतनी बड़ी मुगल सल्तनत की राजनीति में वह सक्रिय भाग लेती थी, उसी का सरदर्द थोड़ा न था, परन्तु इस समय तो उसे अपनी ही चिन्ता ने आ घेरा था। इसी से मुक्त होने के लिए वह किले के भारी वातावरण को छोड़ यहाँ चली आयी थी।
अकबर बादशाह के समय ही से यह दस्तूर चला आ रहा था कि मुगल बादशाहों के खानदान की शहज़ादियाँ शादी नहीं कर पाती थीं; इससे इनके गुप्त प्रेम होते रहते और मुगल हरम का वातावरण हमेशा दूषित रहता था।
परन्तु दारा शहज़ादी का विवाह नजावत खाँ से करने की इच्छा प्रकट कर चुका था। वह शहज़ादी को प्रेम करता था। बहुत दिन से बल्ख-बुखारा और मुगल खानदान में चख-चख चल रही थी। वह चाहता था कि यदि दोनों खानदानों में रिश्ता हो जाए तो यह पुरानी शत्रुता भी जाती रहे। परन्तु इस शादी में बहुत बाधाएँ थीं। प्रथम तो बादशाह ही यह शादी करने को राजी नहीं होते थे। उन्हें उनके साले शाइश्ता खाँ ने समझा दिया था कि यदि यह शादी कर दी गयी तो अवश्य ही नजावत खाँ को शहज़ादों का रुतबा देना पड़ेगा, जब कि इस समय वे चाकर से अधिक दर्जा नहीं रखते हैं। फिर शाहे-बलख के लड़ने के मंसूबे भी अभी थे और इसके राजनीतिक कारण बने ही हुए थे।
दूसरी बड़ी बाधा यह थी कि शहज़ादी हिन्दू राजा बून्दी के छत्रसाल को चाहती थी। उन दिनों राजपूतों से मुगल खानदान में रिश्ते होते थे। अभी तक अनेक राजाओं की बेटियाँ मुगल हरम में आयी थीं, परन्तु कोई मुगल शहज़ादी किसी राजपूत के घर नहीं गयी थी। अब तक किसी राजपूत सरदार का खुल्लमखुल्ला शादी करके रनिवास में एक शहज़ादी को ले जाना बहुत ही कठिन और अव्यवहार्य था, फिर मुगल अदब-कायदे तो ऐसे थे कि बड़े से बड़े हिन्दू राजा को मुगल शहज़ादियों के सामने भी उसी तरह झुकना पड़ता था, जैसे बादशाह के सामने। ऐसी हालत में इन शादियों से मुगल रुआब में भी कमी आने को थी। परन्तु प्रीति की कटारी का घाव जब खा लिया जाता है तो फिर इन सब बातों पर विचार नहीं किया जाता। शहज़ादी इस राजपूत के प्रेम में दीवानी थी और यह बात नजावत खाँ और छत्रसाल दोनों ही जानते थे, इसी से वे एक-दूसरे को खूनी आँखों से देखते थे।
इसी मामले में एक तीसरा शिगूफा भी था दूल्हा भाई, जो शायद अभी बेगम से उम्र में कुछ ही कम था, परन्तु बेगम की मुहब्बत का दम भरता था। वह इतना मूर्ख था कि शहज़ादी के विनोद और कृपाओं को प्यार की नज़र से देखता था। वह सोचा करता था कि बेगम से शादी कर लेने पर सम्भव है वही बादशाह बन जाए। कभी-कभी वह डींगें भी हाँकता और उसकी हँसी भी बहुत होती थी।
एक बार शहज़ादी ने उसे खानज़ादा का खिताब दिया और उसकी ज़िद से उसे इलम और शाही मरातिब रखने का अधिकार भी दिया तथा उसे शाही सिपहसालारों की भाँति पदवी देकर सवारों का सरदार बना दिया था। एक दिन वह बेगम के महल को जा रहा था कि सामने से महावत खाँ सिपहसालार आते मिल गये। जब वे दोनों पास-पास से गुजरे, तो जुलूस के सैनिकों में झगड़ा हो गया। उधर महावत खाँ ने उसके झण्डे को देखा तो अपना इलम तह कर लिया और बिना झण्डे के शाही हुज़ूर में जा पहुँचा। जब बादशाह को इसकी सूचना मिली, तो उसने इसका कारण पूछा। महावत खाँ ने कहा, “हुज़ूर जहाँपनाह, हमारा समय तो बीत चुका। अब तो मरतब इलम उड़ाते हैं।” जब बादशाह को सब बातें मालूम हुईं, तो क्रोध में आकर उन्होंने खानजादा साहब का इलम तुड़वा दिया। खानज़ादा ने शहज़ादी के सामने बहुत रोना रोया पर उसका कोई फल न निकला। फिर भी वह शहज़ादी का प्रिय पार्षद बना हुआ था और शहज़ादी उस सुन्दर मूर्ख को अपनी इच्छाओं की पूर्ति का माध्यम बनाये हुए थी। वह शहज़ादी के खानगी मामलों का दारोगा अफ़सर था।
दैवयोग ही कहिए कि इस समय शहज़ादी के ये तीनों चाहने वाले एक ही स्थान पर हाज़िर थे। तीनों ही इस समय शहज़ादी की विशेष कृपा के इच्छुक थे।
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बारहदरी समूची संगमरमर की बनी थी। उसका फर्श काले और सफेद पत्थर का बना था। दीवारों पर रंग-बिरंगे पत्थरों की सुन्दर पच्चीकारी की गयी थी। थोड़ी ऊँचाई पर कदे-आदम आईने लगे थे। फर्श पर नर्म ईरानी कालीन बिछे थे। उन पर हाथी दाँत के काम का छपरखट था, जिसके ऊपर, जरवफ्त का चंदोवा तना था, जिसमें मोतियों की झालर टँगी थी। पलंग पर मखमली गद्दा, तोशक और मसनदें लगी थीं, जिन पर गिहायत नफीस जरदोजी को काम हो रहा था। सामने करीने से चौकियों पर ढेर के ढेर फूल, इत्र और अनेक प्रकार की सुगन्ध तथा श्रृंगार की वस्तुएँ रखी हुई थीं।
मसनद पर अलसायी देह लिये शहज़ादी अकेली बैठी थी। बाहर नंगी तलवार लिये तातारी बांदियों का पहरा था। इसी समय हँसते हुए दूल्हा भाई ने आकर सोने के प्याले में शीराजी पेश की।
बेगम ने आँखें तरेरकर कहा, “यह क्या? वह हमारी पसन्द की चीज़ अंगूरी शराब कहाँ है?”
“हजरत, एक प्याला इस शीराजी का भी तो पहले नोश फर्मा कर ईरान के बादशाह को ममनून की जिए जिसने यह कीमती शराब बड़े शौक से काबुल के अमलदार के मार्फत हुज़ूर की खिदमत में भेजी है।”
“यह क्या हमारी उस नियामत से बढ़कर है जिसे खास हमारे हकीम अंगूर में गुलाब डालकर और मुकब्बी अदबियात मिलाकर तैयार करते हैं? तुम तो उस नियामत को चख चुके हो दूल्हा मियाँ!”
“हुज़ूर के तुफैल से, वह नायाब शराब मैंने पी है। बेशक उसका मुकाबला तो आबेहयात भी नहीं कर सकता। मगर हुज़ूर शहज़ादी, ज़रा उस कमबख्त शाहे-ईरान का भी तो दिल रखिए। बड़ी-बड़ी उम्मीदें बाँधकर उस मरदूद ने यह कीमती तोहफा भेजा है।”
शहज़ादी ने हँसकर कहा, “शाहे-अब्बास ऐसा बादशाह नहीं है जिसे मरदूद कहा जाए। बस, हमें उसकी खातिर बसरोचश्म मंजूर है! इसके अलावा हम तुम्हें भी ममनून किया चाहती हैं। इसी से बखुशी यह प्याला मंजूर करती हैं!”
“शुक्र है खुदा का कि शहज़ादी को इस गुलाम का भी इस कदर ख़याल है, मैं तो एकदम नाउम्मीद हो गया था!”
“किस अम्र में?”
“जांबख्शी पाऊँ, तो अर्ज़ करूँ कि हुज़ूर शहज़ादी की नजरें-इनायत इस कमनसीब पर अब पहले जैसी नहीं हैं।”
“तो दूल्हा मियाँ, अब तुम बड़े भी हो गये, बच्चे नहीं हो! फिर हम तो तुमसे खुश हैं!”
शहज़ादी ने प्याला खाली किया और दूल्हा मियाँ ने उसे दुबारा भरकर शहज़ादी के आगे बढ़ाते हुए कहा, “बेअदबी माफ हो बेगम, गुलाम बड़ा हो तो यह खुदा की कारस्तानी है, कुछ गुलाम की तकसीर नहीं! और अब तो गुलाम को यह समझ भी आ गयी है कि हुज़ूर जो इस नाचीज पर खुश होने की इनायत करती हैं, वह बहुत नाकाफी है! जांनिसार ज्यादा की उम्मीद रखता है।”
शहज़ादी खिलखिलाकर हँस पड़ी। उसने कहा, “तो बेहतर है... तुम अपने दिल का इजहार खुलकर करो, हम उस पर गौर करेंगी।”
“तो अर्ज़ करता हूँ हुज़ूर शहज़ादी, कि उस तुर्क मरदूद नजावत खाँ की आँखें मुझे कतई पसन्द नहीं हैं, और न वह काफ़िर हिन्दू राजा मुझे पसन्द है जिसे आज सवारी के वक्त बीड़ा शाही इनायत करके और सवारी के साथ रहने का हक देकर सरफराज किया है। उसने तीसरा प्याला शहज़ादी की ओर बढ़ाया।
शहज़ादी ने हँसती हई आँखों से उसकी ओर देखकर कहा, “वल्लाह, तो तुम इन दोनों नापसन्द आदमियों के साथ किस तरह पेश आना चाहते हो?”
“मैं दोनों से दो-दो हाथ करना चाहता हूँ। इश्क के मैदान में एक-दो-तीन नहीं रह सकते शहज़ादी!”
“बेहतर! तुम्हारी तजवीज़ हम पसन्द करती हैं और इस अम्र में उन दोनों बदबख्तों को जरूरी हुक्म देना चाहती हैं। बस, तुम अमीर नजावत खाँ को इसी वक्त हमारे हुज़ूर में भेज दो और खुद बइत्मीनान आराम करो!”
शहज़ादी ने मुस्कराकर दूल्हे मियाँ की ओर देखा। दूल्हा मियाँ, जो शहज़ादी की विनोद-वस्तु था और अपने को शहज़ादी के प्रेमियों में समझता था, इस बात से खुश नहीं हुआ। उसने धीरे से कहा, “क्या हुज़ूर शहज़ादी को एक प्याला अंगूरी शराब का पेश करूँ, जिसकी कि हुज़ूर हद दर्जे शौकीन हैं?”
“यकीनन वह प्याला दूल्हा मियाँ तुम्हारे हाथ से हम नोश फर्मायेंगे।”
दूल्हा खुश हो गया। उसने प्याला शहज़ादी को पेश किया और शहज़ादी ने प्याला हाथ में लेकर इशारे ही से उसे कह दिया कि हुक्म की तामील हो।
विवश दूल्हा मियाँ उस आनन्ददायक सोहबत को छोड़कर उठे और जाकर अमीर नजावत खाँ को बेगम का हुक्म सुना दिया। बेगम ने धीरे-धीरे प्याला खाली किया और मसनद पर लुढ़क गयी। इस वक्त वह मौज में थी और अच्छे-अच्छे विचार उसके हृदय को आनन्दित कर रहे थे। वह सोच रही थी, नम्बर एक रुख सत हुए और नम्बर दो की आमद है।
इसी समय नजावत खाँ ने आकर शहज़ादी को कोर्निश की और दोजानू होकर शहज़ादी के सामने बैठ गया। यद्यपि यह मुगल दस्तूर और अदब के विपरीत था, लेकिन प्यार-मुहब्बत के मामलों में अदब का लिहाज चलता नहीं है।
शहज़ादी ने अमीर को पान देकर कहा, “अमीर खुशवख्त, इत्मीनान से बैठिए।”
नजावत खाँ उसी तरह दोजानू बैठा रहा। उसने पान लेकर शहज़ादी को सलाम किया और कहा, “शहज़ादी, अब कब तक मैं जलता रहूँ?”
“तुम्हें तकलीफ क्या है दिलवर?”
“अब वादा पूरा होना चाहिए और शरअ की रू से इस नाचीज़ को शहज़ादी को प्यार करने का हक मिलना चाहिए।”
“ओह, तुम्हारा मकसद निकाह से है?” शहज़ादी ने एक फूल के गुच्छे से खेलते हुए कहा।
“बेशक, हुज़ूर शहज़ादी और वालिदे-अहद ने मुझसे वादे किये हैं।”
“लेकिन ये सब तो पुरानी बातें हैं जानेमन! मुगल शहज़ादियों की शादी नहीं होती है।”
“क्यों नहीं होती है?”
“क्या आपने नहीं सुना कि मामू शाइस्ता खाँ ने जहाँपनाह को इसकी वजह बताते हुए कहा था कि
अगर ऐसा हुआ तो जिस अमीर से शादी की जाएगी उसे शहज़ादों की बराबरी का रुतबा देना पड़ेगा?”
“लेकिन ख़ुदा के फजल से मैं भी बल्ख का शहज़ादा हूँ।”
“तो शहज़ादा साहेब, हमें इससे कब इन्कार है? हमारी नजरें-इनायत पर आप शाकी न हों।”
“शाकी नहीं।”
“मगर जो बात हो ही नहीं सकती उसके लिए हम बादशाह सलामत से अर्ज़ भी कैसे कर सकती हैं”
“लेकिन शहज़ादी, आप तो सल्तनत की मालिक हैं; जहाँपनाह क्या आपकी बात टाल सकते हैं?”
“फिर भी एक मनसबदार से हिन्दुस्तान के बादशाह की लड़की की शादी गैर मुमकिन है।”
“तो फिर गुनाह से फायदा?”
“क्या तमाम हिन्दुस्तान के बादशाह की शहज़ादी भी गुनाह कर सकती है?”
“शहज़ादी, हिन्दुस्तान के बादशाह के ऊपर एक दीनो-दुनिया का बादशाह है।”
“वह आम लोगों के लिए है-क्या यह भी कभी मुमकिन है कि मुगल शहज़ादी एक अदना मनसबदार की ताउम्र लौंडी बनकर रहे?”
“लेकिन शहज़ादी...”
“बस खामोश, हम ऐसी बात सुनने के आदी नहीं। बस, हम अपनी खुशी से जिस कदर इनायत तुम पर करें, उतने ही में आसूदा रहो।”
“मगर मेरी भी कुछ ख्वाहिशात हैं।”
“होंगी, हम फिलहाल इस अम्र पर गौर नहीं कर सकतीं। तुम्हारी इल्तजा से हमने आज यहाँ बारहदरी में मुकाम किया और तुमसे मुलाकात की। हम चाहती हैं कि आइन्दा अपने इरादों को काबू में रखो।”
“तो हुज़ूर, मेरी एक अर्ज़ है।”
“अर्ज़ करो।”
“मुझे भी अमीर मीरजुमला के साथ दकन भेज दीजिये। ताकि अपनी आँखों से मैं वह सब न देख सकूँ जिसे देखने का मैं आदी नहीं हूँ।”
“तुम्हारा मकसद क्या है?”
“शहज़ादी, वह काफ़िर हिन्दू राजा, जिसमें हुज़ूर खास दिलचस्पी ले रही हैं, मैं उसे कल कत्ल करूँगा और दकन चला जाऊँगा और फिर आपको मुँह न दिखाऊँगा।” नजावत खाँ तेजी से उठकर चल दिया।
बाहर आकर उसने देखा-खानज़ादा साहेब सामने हाज़िर हैं। खानज़ादा ने आगे बढ़कर कहा, “आदाब अर्ज़ है मनसबदार साहेब, कहिए शहज़ादी से शादी तय हो गयी?”
नजावत खाँ ने घृणा और क्रोध में भरकर कहा, “मरदूद, नामाकूल, तेरा सर धड़ से अलहदा करूँगा।”
“बखुशी, मनसबदार साहेब, मगर शादी का जुलूस देख लेने के बाद।” वह हँसता हुआ एक ओर चला गया और नजावत खाँ ताव-पेंच खाता दूसरी ओर।
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शहज़ादी कुछ देर फूलों के एक गुलदस्ते को उछालती रही। कुछ देर बाद उसने दस्तक दी।
चाँदनी खूब चटख रही थी और बेगम अंगूरी शराब के नशे में मस्त थी। उसका शरीर मसनद पर अस्तव्यस्त पड़ा था। आँखें नशे में झूम रही थीं। उसकी प्यारी विश्वासिनी बांदी हुस्नबानू और खास ख्वाजासरा रुस्तम उसकी खिदमत में हाज़िर थे। इस समय आधी रात बीत रही थी और ठण्डी सुगन्धित हवा चल रही थी। उसने एक बार घूर्णित नेत्रों से इधर-उधर देखा और रुस्तम की ओर रुख कर कहा :
“वह हिन्दू राजा चौकी पर मुस्तैद है न?”
“जी हाँ खुदावन्द!”
“तो उसे हमारे रू-ब-रू हाज़िर कर। अपनी मेहरबानियों से हम उसे सरफराज किया चाहती हैं।”
रुस्तम सिर झुकाकर चला गया। बेगम ने गर्दन झुकाकर हुस्नबानू की ओर तिरछी नज़र से देखा और कहा, “क्या तू उस हिन्दू राजा की बाबत कुछ जानती है?”
“सिर्फ इतना ही कि वह एक दयानतदार और नेक रईस है।”
“बस?”
“खूबसूरत और बाँका भी एक ही है।”
“हरामज़ादी, क्या तेरी तबीयत उस पर मायल है?” बेगम ने उत्तेजित होकर हाथ का गुलदस्ता बांदी पर दे मारा।
“बांदी ने ज़मीन तक झुककर बेगम को सलाम किया और कहा, “एक प्याला शीराजी दूँ सरकार?”
“दे। गुलाब और इस्तम्बोल भी मिला।”
बांदी ने स्वादिष्ट शराब का प्याला तैयार कर बेगम के हाथ में दिया।
शराब पीकर बेगम ने कहा, “तू किसी ऐसे मुसब्बिर को जानती है जिसने इस तेरे बांके हिन्दू छैला की तस्वीर बनायी हो?”
“जानती हूँ ख़ुदावन्द।”
“तो सुबह गुस्ल के बाद उसे मय तस्वीर के हाज़िर करना, जा भाग।”
बेगम ने प्याला फिर उस पर फेंका और मसनद पर उठंग गयी। इसी समय रुस्तम ने राव छत्रसाल के साथ आकर सलाम किया। छत्रसाल ने आगे बढ़कर बेगम को कोर्निश की।
बेगम ने तिरछी नज़र से ख्वाजासरा की ओर देखा। ख्वाजासरा चुपचाप सलाम करके वहाँ से खिसक गया। अब एकदम एकान्त पाकर बेगम ने कहा, “खुदा का शुक्र है, बैठ जाइये।” उसने मसनद की ओर इशारा किया। पर यह तरुण राजपूत एक कदम आगे बढ़कर ठिठककर खड़ा रह गया। उसने कहा, “शहज़ादी, बेहतर हो मुझे अपनी नौकरी बजाने का हुक्म हो जाए।”
“मेरे प्यारे राजा, यह तुम क्या कह रहे हो! तुम्हारी ऐसी ही बातों से मेरा दिल टुकड़े-टुकड़े हो जाता है।” शहज़ादी ने अपनी बड़ी-बड़ी आँखें उठाकर राजा की ओर देखा और मीठे स्वर में कहा, “आज हम बहुत खुश हैं और उम्मीद है, उस चमेली-सी चटखती चाँदनी का लुत्फ़ उठाने में राव छत्रसाल दरेग न करेंगे।”
तरुण राजा अपनी जगह पर ही खड़ा रहा। शहज़ादी की शराब से लाल आँखें और भी लाल हो गयीं, परन्तु उसने मन के गुस्से को रोककर कहा, “जानेमन, हमारे पास यहाँ मसनद पर बैठकर हमें सेहत बख्शो।”
“मुझे अफसोस है शहज़ादी, मैं ऐसा नहीं कर सकता।”
“क्यों नहीं कर सकते दिलवर?”
“यह मेरे दीनो-ईमान के खिलाफ है।”
“लेकिन हमारी खुशी है, हम तुम्हें दिल से चाहती हैं।”
“मैं नाचीज राजपूत हुज़ूर शहज़ादी की इस इनायत का हकदार नहीं हैं।”
“तो तुम हमारी हुक्मउदूली की जुर्रत करते हो?”
“हुक्म दीजिए कि मैं चला जाऊँ।”
“इस चाँदनी रात में, इस फूलों से महकती फिजा में प्यारे राजा, क्या तुम नहीं जानते कि हम दिल से तुम्हें चाहती हैं, तुमसे दिली मुहब्बत रखती हैं? तुम्हें डर किस बात का है, जानेमन? कहो हम वही करें जिसमें तुम्हें खुशी हो।”
“शहज़ादी, मुझे चले जाने की इजाजत दीजिये और फिर कभी ऐसा कलमा जबान पर न लाइए-मैं यही चाहता हूँ।”
“और हमारी मोहब्बत?”
“उस पर शायद मनसबदार नजावत खाँ का हक है।”
“ओह, समझ गयीं। तुम्हें रश्क हो सकता है दिलवर, लेकिन हम तुम्हें चाहती हैं, सिर्फ तुम्हें । तुम मेरे दिलवर हो। जिस दिन मैंने पहली बार झरोखे से तुम्हें घोड़े पर सवार आते देखा-जिसकी टाप ज़मीन पर नहीं पड़ती थी और तुम उस पर पत्थर की मूर्ति की तरह अचल बैठे थे-तभी से तुम्हारी वह मूर्ति हमारे मन में बस गयी है दिलवर। उस दिन तुम्हें देख हम अपने को भूल गयीं। तभी से हमारा दिल बेचैन है। हम तुम्हें अपने आगोश में बैठाकर खुशहाल होना चाहती हैं। हरचन्द हमने तुम्हें बुलाया और तुमने इन्कार कर दिया मेरे खतूत और तोहफे तुमने लौटा दिये। आज हमने तुम्हें पाया है। अब हमारे पास आकर बैठो। हम अपने हाथ से तुम्हें इत्र लगाएँ, तुम्हें प्यार करें और अपने दिल की आग को बुझाएँ।”
“हज़रत बेगम साहिबा, इस वक्त आपकी तबीयत नासाज है, मैं जाता हूँ।”
बेगम शेरनी की तरह गरज उठी।
“तुम्हारी यह हिमाकत, हमारी आरजू और मुहब्बत को ठुकराओ! क्या तुम नहीं जानते कि हमारे गुस्से में पड़कर बड़ी से बड़ी ताकत को दोज़ख की आग में जलना पड़ता है।”
लेकिन राजा पर इस बात का भी कोई असर नहीं हुआ। उसने बेगम की किसी बात का जवाब नहीं दिया। उसने मस्तक झुकाकर बेगम का अभिवादन किया और तेजी से चल दिया बेगम पैर से कुचली हुई नागिन की भाँति फुफकारती हुई मसनद पर छटपटाने लगी।
राजा के बाहर आते ही दूल्हा ने सलाम करके हँसते हुए कहा, “मुबारक राजा साहेब, मुबाकर, शहज़ादी का प्रेम मुबारक।” राजा का हाथ तलवार की मूठ पर गया और दूल्हा भाई हँसता हुआ भाग गया।