बड़े घर की बड़ी बात : ओड़िआ/ओड़िशा की लोक-कथा
Bade Ghar Ki Badi Baat : Lok-Katha (Oriya/Odisha)
एक साधव के चार कन्या थीं। एक से बढ़कर एक सुंदर। एक दिन चारों नदी पर नहाने गई थीं। तभी देखा, एक राजा घोड़े पर बैठ नदी किनारे से जा रहा था। जाते-जाते कुछ सुन वह कौतूहल में भर गया। बकुल पेड़ की ओट में हो गया।
बड़ी कन्या बोली, “राजा के रसोइए से ब्याह करती। अच्छी-अच्छी चीजें खाती।”
मँझली बोली, “मंत्री से ब्याह करती तो अच्छी साड़ी पहनती।”
उससे छोटी बोली, “कोतवाल से ब्याह करती तो किसी से न डरती।”
सबसे छोटी, सबसे सुंदर बोली, “राजा से विवाह करती, राजा पटरानी कर रखता, कभी दूर न करता।”
राजा ने सब सुना। महल में लौटकर साधु (बनिया) को बुलाया। सब बताया। जिसकी जो इच्छा, उसे वही विवाह कर दिया। खुद छोटी से विवाह कर पटरानी बना चैन से रखा। अन्य विवाह कर वहाँ दासी बन रहीं।
कहा है—
यह मन सोचता जो
समय पर पाता है सो॥
सबकी मन की इच्छा पूरी हुई, पर तीनों बहनों का मन फीका पड़ गया। छोटी बनी सबसे बड़ी। पटरानी, हम उसकी नौकरानी! जले हमारी बुद्धि, तब इतना पता था। जितना भी पछताए क्या होगा।
जिसका मन जितना।
उसका प्रभु उतना॥
यह तो देवों का विधान है। इसे कौन बदल सके? फिर भी छोटी बहन पर सबने रोष रखा। इधर विधाता ने ऐसा किया; बड़ी
को अभी तक कोई बच्चा नहीं, छोटी को बच्चा होने की आस हुई। जो कुछ गुस्सा था, अब और बढ़ गया। तीनों ने मिल कहा, “हम बड़ी होकर बाँझ, खाली बैठी। ये इतनी छोटी होकर भी बनेगी बेटी-बेटे की माँ। अब मौका है, देख लेंगी।”
तीनों रोज आतीं। बहन को मीठी-मीठी बात कहकर फुसलातीं। कोई वेश करती, कोई जूड़ा गूँथ देती। कोई पान बना देती। कोई पाँव सहला देती। यों सब मिल सेवा करती। छोटी इतना छल-कपट नहीं जानती। बड़ी बहनों के भाव-स्नेह में बह जाती। उन्हें छोड़ती नहीं। कहते हैं दुश्मन कहाँ। माँ के पेट से। छोटी उनके नेह में पागल हो रहे। बैठ चिंता करती—कैसे इस महल से इसे विदा कराएँ।
देखते-देखते रानी को पूरा दस मास हो गया। रानी को कष्ट हुआ। बहनों ने ठीक कर लिया। पहले जाकर जच्चाघर पहुँचीं। वहाँ से दाई को विदा किया। बहन ने कहा, “हम देख लेंगी। हम से अधिक कौन है?” किवाड़ बंद कर लिये। रानी की आँख पर पट्टी बाँध दी।
रानी, “बहन, पट्टी क्यों बाँध रही?”
बड़ी बहन ने कहा, “चुप रह। दर्द हो, तब पट्टी बाँधते हैं। यह राज की प्रथा है।”
रानी को दिव्य सुंदर पुत्र हुआ। कुँआ-कुँआ करने से पहले बक्सा में बंद कर नदी में बहा दिया। बक्सा में से बंदर का बच्चा निकाल रानी के पास रख दिया। दासियों ने हुलु ध्वनि की। कहा, “अरी देखो, रानी ने बंदर के बच्चे को जन्म दिया है।”
सब अवाक्, आदमी कभी बंदर को जन्म दे सके? सब खुसर-फुसर करें। पर बड़ों की बात का उत्तर नहीं कि स्वर्ग को सीढ़ी नहीं।
राजमहल की बात मुँह खोले सिर कटे।
राजा ने सुना...रानी ने बंदर का बच्चा जन्म किया, जानकर शरम से राजा का सिर झुक गया। चुप रह गए। फिर रानी को दुबारा आस हुई। बहनों ने आकर दर्द सँभाला, धाय विदा कर दी। रानी को दिव्य सुंदर पुत्र हुआ। एक बहन ने बक्सा में रख उसे भी नदी में बहा दिया। बिल्ली के बच्चे को नाड़ लगा रख दिया।
राजा चिंचित। भाग्य मान रहे।
फिर तीसरी बार रानी को आस हुई। अबकी सुंदर बेटी ने जन्म दिया। कूटनीति कर बहनों ने उसे भी बहा दिया। अबकी कुत्ते के पिल्ले को सुला दिया। चारों ओर बात फैला दी, “अब आदमी के भी जीव-जंतु पैदा होने लगे?”
राजा के कान में बात गई, “ये असुरनी है। इसे पटरानी बना रखा। इतने ठाठ-बाट से रखा।” राजा ने सोचा—सच, असुरनी न हो तो कुत्ते-बंदर-बिल्ली पैदा करती? रानी को कारागार में बंदी बना रखा। राजा की पटरानी, सोने के गहने भारी लगते। आज पहने, कल फेंक देती। अब लोहे की कड़ी पड़ी। आज खूब मोटे कपड़े पहने हैं। दूध-घी में रहनेवाली, मोटे-भात को तरस रही। उसकी आँख से आँसू सूखते नहीं। क्या करे, क्या न करे? भाग्य तो सहना होगा।
रानी के बेटी-बेटे को किसने रख बड़ा किया? बक्सा जाकर किनारे लगा। वहीं राजा के माली का घर है। भाग्य या करम से तीनों बच्चे मिले। अपने बच्चे सम उनका लालन-पालन किया। राजा के कुँवर चाँद-सा चेहरा। माली के घर में चंद्रकला की तरह बढ़े।
तीनों भाई-बहन घूमते-घूमते एक पहाड़ी पर चढ़े। एक झरना बह रहा था। वन कहाँ से कहाँ तक फैला है। झरने के किनारे घना बरगद का पेड़। उसके नीचे ऋषि तप कर रहे थे। उनकी बारह हाथ की जटा। पाँच हाथ का नख, चार हाथ की नाक। गले तक ऊँची बाँबी। तरह-तरह के फल, लता खिलकर झर रहे। कई जीव-जंतु फिर रहे। तरह-तरह की चिड़ियाँ। एक सात वर्ण पक्षी ऋषि के पास बैठा। देखकर बड़े भाई को पसंद आ गया। जाकर पक्षी को पकड़ा, वह पत्थर हो गया।
छोटे भाई ने भी वैसे ही किया। वह भी पत्थर का हो गया।
अब कुँवरि अवाक्! अकेली। वन में डर लगा। कोई उपाय न देख ऋषि के पास जा चरणों में गिरी। रोने लगी। विकल देखकर ऋषि ने कहा, “जा झरने से अंजुरी पानी लाकर उन पर डाल दे। बच जाएँगे। सब जाकर पक्षी के पाँव में गिरना। वह तुम्हारा बहुत उपकार करेगा।”
कुँवरि ने वही किया।
भाई जाकर पक्षी के पाँव में पड़े। पक्षी उड़कर कुँवरि के हाथ पर पड़ा।
कुँवरि ने सहला दिया।
पक्षी ने कहा, “तुम इस वन में रहो। मैं सहायता करूँगा। कोई विपद न हो। यहाँ के सारे जंतु मेरे कहने में हैं। बुलाकर समझा दूँगा। वो देखो बरगद के पेड़ के नीचे घर है, वहाँ तुम रहना। वहाँ कोई अभाव नहीं। जब जो इच्छा हो, खाना, पहनना। कुँवर-कुँवरि मजे में रहते। पक्षी उनका ध्यान रखता। बाघ, सिंह, सियार, सदा घेरे रहते। पक्षी ऐसे वश में किए कि वहाँ बाघ-सियार एक घाट पानी पीते।
वन में फल वगैरह खाते। हँसी-खुशी फिरते। बच्चों के दिन चैन से कटते।
एक दिन राजा पारधी पर वन में आए। फिर रहे, पर कहीं खरगोश तक न दिखा। चिड़िया की बोली तक न सुनी। राजा थककर पेड़ तले बैठ गए।
तभी कुँवर खेलते उधर निकले। वन में ऐसे सुंदर बालक कहाँ से आए। राजा अचंभे में भर गया। देखते-देखते राजा को रोमांच हो गया। आँखें बह चलीं। दोनों को पास बुलाया। गोद में बिठाया।
“किसके बेटे हो?” पूछा तो कहा, “हम माली की संतान हैं। वन में एक पक्षी हमारा साथी है। उसने घर-बार देकर सुख से रखा है।”
माली के चाँद से बेटे, पर मेरे भाग्य में कुत्ता-बिल्ली! सोचकर राजा दुःखी हो रो पड़े। राजा का दुःख देख उन्होंने समझाया। पूछा, “किधर आए?”
“राजा, पारिधी पर। वन में खरगोश भी न मिला।” दोनों ने सब कह दिया।
राजा, “तुम घर चलो, तुम्हारी बहन को देखूँगा। साँझ ढल रही। आज तुम्हारा मेहमान होऊँगा।”
बच्चे राजा का हाथ पकड़ घर ले आए। उधर बहन छह तरकारी नौ भाजी बना भाइयों की बाट देख रही थी। आज इतनी देर कहाँ की? तो भाइयों ने राजा को दिखा सब बताया। बहन ने पानी लाकर रखा, पाँव धोए। जगह ठीक कर खाने पर बुलाया।
राजा वह अद्भुत बना भोजन खाकर बोले, “ऐसा स्वादिष्ट खाना कभी न खाया।”
पक्षी, “ये कैसा पकाना। एक बार लंका के राजा ने निमंत्रण दिया। वहाँ माणिक-मोती की तरकारी बनाई। वह चखते तो इसे हटा देते।” पक्षी की बात सुन राजा हँसे।
कहा, “तुमने पसंद की बात नहीं कही। माणिक-मोती की तरकारी होती है?”
पक्षी, “कुत्ते, बिल्ली, बंदर आदमी जन्म कर सके, यह तो मान गए, मेरी बात हँसी में उड़ा दी?”
सुनकर राजा अवाक्! मेरे घर की खबर पक्षी ने जानी कैसे? सब जानता, पक्षी के पाँव पड़ विनती की। पक्षी ने सब खोल बताया। राजा अपने बेटी-बेटों को लेकर घर गए।
बंदीशाला से छोटी रानी को छुड़ाया। तीनों बहनों के आगे उसे गहने, पाट वस्त्र पहनाए, सोने की डोली पर बिठाया। गोद में चाँद से बेटे-बेटी को लिया। उनकी चोटी काट तीनों बहनों का मुँह काला कर गाँव में ढिंढोरा पीट घुमाया। डायन घोषणा कर दी।
आखिर खाने के गड्ढे में नीचे काँटे डाल गाड़ ऊपर काँटे लगा दिए।
रानी सुख-सौभाग्य में रही।
(साभार : डॉ. शंकरलाल पुरोहित)