बड़े घर की बात (कहानी) : सुभद्रा कुमारी चौहान

Bade Ghar Ki Baat (Hindi Story) : Subhadra Kumari Chauhan

फूलशय्या के ही दिन फूल और मनोहर में तनातनी हो गई। फूल स्वभाव से ही कम बोलनेवाली और लजीली थी। उधर मनोहर एंग्लो इंडियन छोकरियों के साथ सिनेमा थिएटर देख चुके थे, उनकी उच्छृखलता और उदंडता के आदी थे। वे सपना देख रहे थे कि उनके कमरे में पैर रखते ही नववधू मुसकराती हुई 'हल्लो डार्लिंग' कहकर उन्हें बिठाएगी, उनसे घुल-घुलकर प्रेम की बातें करेगी और उन्हें जबरन अपने पास बिठाए रखेगी, वे उठना चाहेंगे तो वह उठने न देगी, लच्छेदार बातों से उन्हें उलझा रखेगी, घड़ी के जाते हुए समय को 'एनिमी' (दुश्मन) कहकर अफसोस करेगी! ये आशाएँ उन्होंने नववधू से इसलिए की थीं कि वह मैट्रिक पास थी और उसने अपने छोटे से जीवन के अधिकांश दिन बोर्डिंग हाउस में ही बिताए थे।

जिस समय मनोहर फूलों का हार गले में डाले, इतर में बसे-बसाए अपने कमरे में आए, नववधू फूल लैंप के पास खड़ी चुपचाप एक पुस्तक के पन्ने उलट रही थी। किसी अज्ञात आशंका से वह रह-रहकर काँप-सी उठती थी। उसके पति होते हुए भी मनोहर आज तो उसके लिए पर-पुरुष ही थे। उनसे कैसे बोलूँगी, क्या कहूँगी, कहीं कोई बेवकूफी न हो जाए? फूल मन-ही-मन बहुत घबरा रही थी। अचानक किसी के हल्के पैरों की आहट होते ही वह पुस्तक छोड़कर एक कोने में सिमटकर खड़ी हो गई। मनोहर बाबू अपना यह अपमान न सह सके। एक क्षण तो वह चुपचाप खड़े रहे, फिर तिरस्कार भरे स्वर में बोले, "क्या स्कूल और घर में यही शिक्षा मिली है कि आए हुए पति की तरफ पीठ करके खड़ी हो जाओ?"

फूल सिहर उठी, किंतु कुछ बोली नहीं। मनोहर का पारा और गरम हो गया। कठोर स्वर में बोले, "मैंने तो समझा था, पढ़ी-लिखी है तो कुछ अक्ल भी होगी, लेकिन वही गँवार की गँवार!"

इस पर भी जब वह कुछ न बोली तो वह झल्लाए हुए उठे और फूल का घूघट जोर से पीछे से खींच लिया। रेशमी साड़ी थी। मुँह के साथ उसका सिर भी खुल गया, पल्ला पीठ पर आ रहा। फूल बोली तो कुछ भी नहीं, मगर फौरन ही अपना सिर ढककर कमरे से बाहर हो गई। मनोहर गुस्से से 'शक्ल चुडैलों की, नखरे परियों के' कहते-कहते सीढ़ियों से नीचे उतर गए। फूल चुपचाप आँसू बहाती हुई खड़ी रही। अचानक मनोहर को बाहर जाते देख उनकी बहन यशोदा ने आकर पूछा, “क्या हुआ भौजी? भैया क्यों चला गया?"

फूल ने कोई उत्तर न दिया। वह अपनी ननद से, जो उसकी सास की जगह पर थी, कुछ सहानुभूति की आशा रखती थी, मगर यहाँ उल्टा ही हुआ। यशोदा ने फूल को झकझोरकर कहा, "बोलती क्यों नहीं चंडालिन? दो बात भैया से कर लेती तो क्या तेरी जबान घिस जाती! एक वह थी, जिसने उसके जी को जलाजलाकर उसे आधा कर दिया। अब तू आई है, तो तेरे ये लच्छन ! आदमी का मिजाज भी देखना पड़ता है। जिसमें खुश रहे, वही करना चाहिए, पर आजकल की छोकरियों का मिजाज भी तो सातवें आसमान पर रहता है।"

फूल आँसू बहाती रही। ननद की बातों का भी उसने कोई जवाब न दिया।

इस घटना के बाद कई दिन बीत गए, मनोहर ने पत्नी की तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखा। वे अपने राग-रंग में मस्त थे, विवाह तो उनकी बहन ने जबरदस्ती करवाया था। पहली स्त्री से एक बच्चा था। बच्चा जब तक जीता रहा, तब तक तो विवाह की जरूरत न जान पड़ी, लेकिन एक दिन जब वह बच्चा भी माँ का अनुगामी हुआ तो इतनी बड़ी जायदाद का कोई वारिस तो होना चाहिए, इस खयाल से यशोदा ने भाई के सामने रो-धोकर उन्हें जबरदस्ती विवाह के लिए मजबूर किया। यशोदा विधवा थी। यह सब जायदाद भी उसी की थी। मनोहर को छह महीने की उमर से पाला था, मनोहर ही उसका पुत्र या भाई सबकुछ था, किंतु दोनों भाई-बहन एक-से रूखे स्वभाव के, तुनुकमिजाज, बाहर अच्छे और भीतर खट्टे थे। मनोहर की पहली स्त्री कुमुद ने भी जिस दिन से इस देहली के भीतर पैर रखा था, एक दिन भी बिना रोए रोटी न खाई थी और इसी प्रकार छह महीने के बच्चे को छोड़कर एक दिन वह जहर खाकर अपनी जीवन-लीला समाप्त करके चली गई। बड़े घर की बात बाहर कहाँ जाती है ? हार्ट फेल हो जाने से मृत्यु हो गई कहकर मामला रफा-दफा कर दिया गया।

फूल ने भी ये सब बातें सुन लीं, मगर अब क्या हो सकता था? उससे सोचा, खैर, जैसा जो कुछ है, मुझे तो निभाना ही है, अब तो यही मेरे परमेश्वर, मेरे आराध्य और देवता हैं, किसी तरह उन्हें मनाना चाहिए। मुँह से तो कुछ बोलते हुए उसे लज्जा आती थी और बोलने का कोई अवसर भी न मिलता था, इसलिए उसने सोचा, एक पत्र लिखू, शायद देवता सीधे हो जाएँ, वह कागज, कलम लेकर बैठी। बहुत सोचने-समझने के बाद उसने एक पत्र लिखा-

"मेरे देवता,

कई दिनों से सोच रही हूँ कि आपको एक पत्र लिखू, परंतु क्या लिखू, कैसे लिखू, मेरी समझ में नहीं आता। माना कि मैं अपराधिनी हूँ, फिर भी क्या आप मुझे क्षमा नहीं कर सकते? भूल तो मनुष्य से हो ही जाती है। मुझसे भूल हुई और बड़ी भारी भूल हुई, मैंने आपके कोमल हृदय को दुखाया, आपका अपमान किया, आपकी पूजा में त्रुटि की, देवता का सम्मान न कर सकी, न जाने किस अहंकार में, किस मद में बावली हो गई। किंतु आप तो क्षमा कर सकते हैं। मुझे अपने चरणों की सेवा का अवसर दीजिए। मेरी त्रुटियों को भूल जाइए। मैं आपके चरणों पर सिर झुका, आपसे यही वरदान माँगती हूँ, मेरे स्वामी!

आपकी अपराधिनी
फूल"

पत्र समाप्त कर ज्यों ही फूल ने पीछे देखा, मनोहर खड़े थे। फिर उसी लज्जा और संकोच ने मामला बिगाड़ा। झट से पत्र के टुकड़े-टुकड़े कर फूल दूसरी तरफ खड़ी हो गई। मनोहर की त्योरियाँ चढ़ गईं। उनके सिर से पैर तक आग सी लग गई। फूल के पास पहुँचकर उसे घसीटकर उन्होंने उसका मुँह सामने कर दिया। बोले, “किसे पत्र लिख रही थीं? सच कहो।"

फूल का सारा शरीर काँप रहा था, वह कुछ भी न बोल सकी।

मनोहर ने उसके कान ऐंठते हुए कहा, “बोलो, नहीं तो अभी तुम्हारी हड्डी पसली तोड़ दूंगा।"

फूल को भी क्रोध आ गया। उसकी मुद्रा कठोर हो गई, बोली, "मैं नहीं बतला सकूँगी, जो कुछ आपको करना हो, कर लीजिए।"

फूल का यह कहना था कि बस मनोहर उसको पीटते चले गए। फूल ने जबान न हिलाई, मगर वह जब तक बेहोश न हो गई, मनोहर उसे मारते ही रहे।

दूसरे दिन अचानक मुहल्ले भर में यह हवा फैल गई कि मनोहर की दूसरी स्त्री का भी हार्ट फेल हो गया। अरथी के साथ बहुत से लोग थे, जो असली वाकये से वाकिफ थे। मगर शहर के इतने बड़े और पायेदार आदमी के खिलाफ जबान खोलने की किसकी हिम्मत थी- 'ऊँह, मर गई तो मर भी जाने दो, स्त्री ही तो थी। कल तीसरी आ जाएगी।'

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