बादल और बिजली (डोगरी कहानी) : रामनाथ शास्त्री

Badal Aur Bijli (Dogri Story) : Ramnath Shastri

सूरज अभी पूरी तरह पर्वत श्रृंखलाओं के पीछे नहीं छिपा था। अचानक खौरगली नामक गाँव में हलचल-सी मच गई। मर्द-औरतें-बच्चे सभी घरों से बाहर आकर देखने लगे। सूबेदार बदलू और सोमा ने भी पलटकर लोगों को देखा। औरतों में कानाफूसी होने लगी।
“ये तो वैसी ही है। तीन वर्ष हुए, बदलू के घर से भागी थी।”
“ऊह, वैसी कहाँ है? भागने से पहले इसकी देह इतनी गदराई हुई तो न थी! ”
“अरी, वैसे भी चालाक हो गई लगती है। इसकी चाल तो देखो, है इसे तनिक भय कि अब सूबेदार इसके हाड़-गोड़ तोड़ डालेगा! ”
“हाड़ क्यों तोड़ेगा इसके? ये उसके बाप की उम्र का है। मुये को शर्म न आई, इस बच्ची को मोल लेते! ”
“बुआ, देखो तो नीले रेशमी सूट में कैसी फब रही! ”
“अरी, क्‍या मालूम तीन साल कहाँ-कहाँ खज्जल होती रही है। यही रेशमी फहरावों का लालच ही इन्हें भगाकर ले जाता है।”

“देख जानकी, सुत्थन में यह जितनी जँचती थी, वो बात सलवार में कहाँ।” एक बूढ़ी ठकुराइन बोली, “बदलू ने जानबूझकर जिद पीटी है। यह बिजली उससे कहाँ सँभलेगी! ये तो उस वक्‍त भाग गई थी, जब इसने कुछ भी देखा न था, अब तो शहरों की सैकड़ों बदकारियाँ देख आई है। व्यर्थ ही बदलू ने अपने लिए ये मुसीबत छेड़ ली है। इसे तकलीफ है अपने रुपयों की, पर सोमा उसके बस का रोग नहीं। देख लेना, चाहे इसे पीटेगा, पर रात को उससे भी सोया न जाएगा। दिन-रात इसी की पहरेदारी हो जाएगी।"

बदलू सूबेदार आखिर सोमा को ले ही आया। वह खसाली का खुशहाल ठाकुर था--पलटन से सूबेदारी करके पेंशन आया हुआ।

सोमा उसकी तमाम इज्जत मिट्टी में मिलाकर इसी इलाके के ठकरेटे भीमू के संग भाग गई थी। यह तीन वर्ष की बात है। बदलू को लगने लगा था, जैसे अपमान का यह विष उसकी नाड़ियों से निकलकर रक्त में मिलता जा रहा है। इन तीन वर्षों में उसने बेहद बदनामी सही थी। पेंशन पर लौटते हुए उसने क्या कुछ सोचा था!

पहली ब्याहता स्त्री को मरे पाँच-छह वर्ष हो चले थे। उससे कोई बच्चा न हुआ था। बे- औलाद मरकर भूत बनने का डर तो था ही, अपने बुजुर्गों का नाम और थेह बचाने की बलवंती आशा भी थी। इसीलिए सात-आठ सौ रुपए खर्च करके उसने नई गृहस्थी बसाने का प्रबंध किया था। दरअसल, उससे एक भूल हो गई थी। उसने अपनी उम्र का खयाल नहीं किया था। वह थी “यौवन और सौंदर्य में ढली बिजली और वह था--ढलती उम्र का अहंकार। वह एक हिरणी पकड़ लाया था, जो दो ही दिनों में कुलाँचें भरकर गायब हो गई थी।

सोमा को बदलू के यहाँ आए हुए अब आठ-दस दिन होने लगे थे, पर वह हैरान थी कि उसने उसे न तो डाँटा-डपटा, न बुरा-भला ही कहा था। उसकी जुबान पर गाली तक न आई थी। उसने सोचा, जवानी में भूलें तो होती रहती हैं। पर बदलू ने दुनिया देखी है। शायद इसीलिए इतना धीरज और शांति है। लेकिन, जल्दी ही बदलू की खामोशी का भेद खुल गया।

जब आई थी तो सोमा स्वस्थ-सानंद थी, पर हफ्ते-भर में उसे लगा, उसकी भूख मिटती जा रही है। बदलू के घर उसने दो ही वक्‍त का खाना खाया था कि भूख से उसकी अँतड़ियाँ व्याकुल होने लगीं। उसने बाड़ी में जाकर चोरी-चोरी नाशपातियाँ खाकर पेट भरा था और फिर पानी पिया था। रात भर उसे हल्का-हल्का पेट दर्द होता रहा था। आठ-दस दिन उसने खुद पकाई और खाई थी। घर में दूध-दही भी था। पर अब यह क्‍या होने लगा है! उसके कलेजे पर जैसे किसी ने पत्थर रख दिया हो!

यह उसकी टाँगों को क्या होता जा रहा है? पिंडलियों में लगातार दर्द होता रहता है। आज तक तो उसे खाँसी-जुकाम तक न हुआ था और अब यह सिरदर्द जाता ही नहीं। चुनरी के सिरे से वह सिर को कसकर बाँधे रखती है। कुछ दिन उसने इस स्थिति को सहा। तब उसे महसूस हुआ, धीरे-धीरे उसकी शक्ति घटती जा रही है। उसके बदन का रंग पांडुरोग के बीमार की तरह पीला होता जा रहा है।

वह बैठती तो उठने को मन न होता। उसका माथा ठनका। सूबेदार ने उससे बदला लेने के लिए उसे कुछ खिला दिया है।

“क्या खिलाया होगा?” वह सोचने लगी--' जड़ियाँ (जादू) या कोई ऐसा विष, जो धीरे-धीरे असर करता है?' लाचार होकर वह खाट पर पड़ गई थी। बदलू ने सोमा की इच्छा के अनुरूप उसकी खाट आँगन की ओर खुलनेवाले दालान में रखवा दी थी। दिन में दो-तीन बार वह उसकी पूछ-गछ करता और साथ ही मुसकरा उठता। आते-जाते वह उसे तड़पते-छटपटाते देखता और गरदन हिलाता भीतर चला जाता। सोमा को याद आया, बापू ने मुझे इसके हाथ बेचते समय यह भेद सुना दिया था कि सामने नाले का भीमू इधर आकर इससे मिलता रहता है। सुनकर बदलू ने 'बड़' हाँकी थी--मेरा नाम बदलू है, बदलू। यह बिजली इस बादल की कैद से कहीं नहीं जा पाएगी। कई बार आदमी अपने अधिकार से अधिक बड़ा हाँक देता है।
“इसने बाँधकर मुझे रखना था।” इस लाचार दशा में भी सोमा के होंठों पर हँसी खिल उठी।

बदलू के घर का सूनापन, जो सोमा के आने से दूर होना था, अब और ज्यादा बढ़ गया था। घर में बदलू और उसके दो नौकर थे। सोमा के चारपाई पकड़ते ही रोटी पकाने का काम चतरू पर आन पड़ा। चतरू इस घर का पुराना नौकर था--बदलू सूबेदार का हमउम्र। कहते हैं, उसने बदलू को समझाया था कि लालच में मत उलझ। कोई विधवा ले आ। वंश भाग्य से चलते हैं। और फिर कद देखकर बोझा उठाना चाहिए। पर बदलू को एक तो पैसे का गुमान था, दूसरे सूबेदारी का घमंड। अंग-अंग पर बुढ़ापा उतर चुका था, पर उसे भ्रम था कि फौजी ओहदेदार कभी बूढ़ा नहीं होता। चतरू को सोमा से सहानुभूति थी। वह अब भी उसे निर्दोष समझता था। पहाड़ी जिंदगी का मरहम जो था। सुबह-साँस वह सोमा से खाने के लिए पूछ जाता। उसे समझाता कि खाना न छोड़ना। थोड़ा-थोड़ा दूध ही पी लिया कर। पर वह कहती, “ताऊ भूख नहीं है। मालूम नहीं, कौन रोग मेरी भली-चंगी जान में आ घुसा है! पर ताऊ, एक बात पूछूँ, बदलू को मेरा पता कैसे चला?”

चतरू ने एक भोंडी-सी गाली मथरे गोजर को दी। “उसी बेटी...का बेड़ा गर्क हुआ था। तुझे वो शहर देख आया था कहीं। यहाँ आकर सूबेदार से कहने लगा, 'ये तैने क्या सूरत बना रखी है, सूबेदारा! भाई, तुम हिंदू लोग औरतों का बड़ा अफसोस करते हो। पर, थारी सोमा का पता मैं दूँगा।' उसी की करतूत थी, वरना सूबेदार ठंडा होकर बैठ चुका था। उसी बूढ़े ने बुझी आग को फूँककर सुलगाया था। अनाथ स्त्री से बदला लेने में क्या बहादुरी है बेटी? पर शायद तूने ही पिछले जन्म में कोई पाप किए थे, जो ऐसे कसाई के बस में पड़ी। बदलू क्‍या है और तेरा बाप त्रलोकू क्या था! इसके पास धन था और उसे धन की जरूरत थी। तू बलि पर चढ़ा दी गई बेटी! अच्छा, मैं बाड़ी से लकड़ियाँ ले आऊँ। आज शायद सूबेदार सामने पहाड़ पर चौधरियों के यहाँ गया है।”

चतरू ने दहलीज पार की कि इतने में सहन में बदलू के खाँसने की आवाज गूँज उठी। सोमा ने खाट पर करवट बदल ली और सामने दीवार पर देखने लग पड़ी। नहीं चाहती कि सूबेदार उसकी आँखों में आँसू देख ले। न जाने कब दीवार पर सफेद मिट्टी फेरी गई थी। इस मैली चादर-सी दीवार पर उसकी नजरें ऐसे खुभी हैं कि अचानक हवा के झोंकों में सर-सर हिलती सचमुच की चादर लगने लगती है। सोमा सोच रही थी--'तीन सालों में क्या से क्या हो गया है। लेकिन, क्यों हुआ यह सब?'

“सोमा, होश कर, यह घर-गृहस्थी सँभाल। महारानी बनकर रह। ये क्या भेस बना रखा है? ” बदलू उसे समझा रहा है।

“तेरा घर सँभालूँ! तू मेरे बाप के बराबर है, मैं तेरी बेटी हुई कि नहीं? तू मेरे संग 'चन्न गीत' गा सकता है? वैसे अलगोजे बजा सकता है? मेरे शरीर का मोल देकर ले आए हो तो नौकर बनाकर रखो, पर किसी से यह न कहना मैं तेरी पत्नी हूँ।इन कोठों को आग लगाकर, खुद ही जल मरूँगी।” बदलू सोटी लेकर उसके जिस्म पर पिल पड़ा था। शरीर पर नीले दागों के चित्र छप गए थे। भागती नहीं तो क्या करती? दोष किसका था? मेरा? सामने दीवार पर उसे अपनी ही तसवीर दिखाई देने लगी...

पनघट के पास पहाड़ी मैदान में गायें चराती, गालों पर हाथ धरे, “चन्न' और “कुंजू' गाती सोमा की तसवीर। उसके कानों में अलगोजों के मधुर स्वर गूँजने लगे। भीमू का क्या दोष था? यही कि वह बाँका जवान था, अलगोजे और बाँसुरी बजाता था। सामने पहाड़ से चलकर मुझे मिलने आता था! वह गरीब अब न जाने कहाँ की ठोकरें खा रहा होगा! हम कब इन जंगलों- पहाड़ों को छोड़कर उन कपट भरे शहरों में जाना चाहते थे। लेकिन क्या करते और विकल्प ही क्या था?

उसने देखा, दीवार पर दो छिपकलियाँ आमने-सामने आकर ठहर गईं। एक रंग-बिरंगी, सुंदर तितली दीवार और उसके आसपास उड़ने-फुदकने लगी। उई माँ, कितनी सुंदर तितली है, पर फूलों को छोड़कर यहाँ क्या लेने चली आई!

अचानक एक छिपकली ने उसे अपने जबड़े में पकड़ लिया। वह बहुत छटपटाई, लेकिन छिपकली ने धीरे-धीरे उसे निगल लिया।

उसे याद आया वह दिन, जिस दिन वह बिकी थी। एक ओर उसका शराबी बाबुल त्रलोकू और दूसरी ओर बदलू सूबेदार कैसी शादी थी! बदलू के संग आए इलाके के पटवारी, चौकीदार, पंडित और शाह के इलावा कोई अपना-पराया वहाँ न था...कोई औरत तक नहीं। सूबेदार रेशमी-प्याजी कपड़े लाया था मेरे लिए। कभी पहन लेती तो मुझमें और तितली में भला क्या अंतर रहता!

सोमा ने वो कपड़े उठाकर दूर फेंक दिए थे। 'कितने रुपयों में मेरा सौदा किया बापू? उन रुपयों से कब तक तेरा नशा बना रहेगा? पैसों का लोभ था तो मुझसे पूछ लेता बापू! इतने तो शायद बेचारा भीमू भी कहीं से पकड़कर दे देता। वह सूबेदार तो तेरी उम्र का है बापू! बेटी का सौदा करते लाज न आई बापू? रुपए लेकर अपना धर्म तो तूने बेच डाला बापू, पर मेरा...।' चादर के सिरे से आँखें पोंछ डालीं सोमा ने और करवट बदल ली। दीवार की ओर देखते-देखते जैसे उसका दम घुटने लगा था।

दोपहर को चतरू ने सूबेदार से कहा, “सोमा की हालत दिन-दिन बद-से-बदतर होती जा रही है। किसी को दिखाइए इसे। जब शहर की गंदगी से इसे निकाल लाए हैं तो कोई दवा-दारू भी करवाइए। अब इसकी बदसीसों से अपना परलोक न बिगाड़िए मालिक!”

“इसकी आहों से कौन मेरे लड़के मर जाएँगे चतरू! इतनी सती-सावित्री कहाँ से आई शाप और बदसीसें देनेवाली! यह तो इसी के पापों का फल है चतरू! तुझे मेरे पर संदेह है?” बदलू ने अपनी मुसकान पर नियंत्रण करते हुए कहा, “अच्छा, जा चिलम में तंबाकू भर ला। तू भी तो झाड़-फूँक करता है, तू ही कोई उपाय करके देख।”
उधर सोमा कल्पना के पंखों पर सवार उसी पनघट पर जा पहुँची।

'सोमा, कैसा जादू है तेरी सूरत में! देख-देखकर जी नहीं भरता।' आँखों और गालों के करीब गरम-सुगंधित श्वास महसूस हो रहे हैं। उसने छाती पर हाथ रखा, दिल जोर-जोर से धड़क रहा था। पानी के निर्मल दर्पण में उसे अपनी सूरत दिखाई दी, 'प्रभु, इतना सौंदर्य क्यों दे दिया? '
आकाश में जोर से बादल गरजे।

'शुकर है!' सोमा ने कहा, “जी खोल के बरस जा, मेरे पहाड़ों के बादल। जलते कलेजे में ठंडक घोल जा।” बिजली कड़की। सोमा खुश हुई, 'जरूर बरसेगा, उस दिन भी कितने जोर से बरसा था।' वह और भीमू अखरोट के एक पेड़ तले खड़े भीगते रहे थे।
'सारी दुनिया हमारी बैरिन हो गई है सोमा, यह बदली भी।'

'नहीं, यह बात नहीं, यह बरसात न होती तो हम भागते कैसे? इसी की आड़ में हम मजे से चले जा रहे हैं। सभी इधर-उधर व्यस्त हैं। न कोई देखेगा, न मिलेगा। ये इन बादलों की मेहरबानी है, चन्नजी!'

कल्पना का यह सूत्र यहीं पर टूट गया। अब दो वर्षों की दुर्दशा के चित्र मानसपटल पर उभरने लगे। पहला साल वह भीमू के साथ कांगड़ा, पालमपुर और फिर मनाली जाकर मजूरी करती रही थी। उन दिनों की मधुर स्मृतियाँ अब भी कल्पना में रस घोल जाती हैं।

लेकिन बाद के दो साल उसने जिस नरक में काटे थे, उनकी याद करके उसका बदन काँप जाता था। डरावने चेहरे, भयंकर मूँछें, शराब की बदबू, सिगरेट-बीड़ियों का धुआँ और गालियाँ। हे राम, कैसा नरक था वह! गरदन झटककर उसने यादों के मकड़जाले में उलझे अपने श्वासों को छुड़ाने की कोशिश की।

एक धक्‍का-सा लगा तो उसने देखा, ठेकेदार दुनीचंद उसकी बाँह पकड़कर उसे सहारा दे रहा है।
“सँभलकर चल सोमा! ठोकरें क्‍यों खाती है?”
नया पिंजरा, नए मालिक!

कव्वों-गिद्धों से भयभीत चिड़िया को शुरू-शुरू में वो पिंजरा बेहद आराम की जगह मालूम हुई थी। ठेकेदार भी बदलू की उम्र का था। वह हर सप्ताह अपनी मूँछों और कनपटियों को काला करता था। मर्द की इन कमजोरियों पर सोमा हँस पड़ी। ठेकेदार की पत्नी जीवित थी, लड़के भी थे। लेकिन, वे बाप से अलग हो चुके थे। माँ बेटों के साथ रहती थी।
सोमा सोचती, जाने भीमू कहाँ होगा!

ठेकेदार ने उसे अनेक रेशमी सूट सिला दिए थे। जाने इन कपड़ों पर एक छोटी सी शीशी से वह कौन सी दवा लगाता था, सारा दिन उनसे भीनी-भीनी गंध आती रहती। कुछ दिनों बाद उसे यह सुगंध बेहद घिनौनी लगने लगी थी। यह नकली खुशबू क्यों? भीमू कहा करता था-- 'तेरे बदन से फूलों की खुशबू आती है।' कैसी थी वह खुशबू? और कहाँ चली गई?
“कैसी है तू?” बदलू ने पूछा।
सोमा खामोश रही।
“आज फिर बादल गरज रहे हैं, बिजली चमक रही है।”
अच्छी तरह समझ गई यह व्यंग्य। जिस दिन वह भागी थी, उस दिन भी ऐसे ही बादल थे।

“हाँ, थे तो...पकड़ लेना था तूने।” उसके मुँह से यह बोल निकलते-निकलते रह गए। याद आया, भागते समय रास्ते में बिजली इतने जोर से कड़की थी कि डरकर वह भीमू से लिपट गई थी।

“तू भी तो बिजली से कम नहीं है, मुई! क्‍यों डरती है इससे? तेरे लिए मेरी प्रीत इसी बदली की भाँति पवित्र है, तभी तो मेरे कलेजे में समा रही है तू।”
“खाट अंदर रखवा दूँ?" बदलू ने दयाद्र स्वर में पूछा।
“न, यहीं ठीक हूँ। ठंडी हवा का झोंका तो आता है।"

बदलू दालान के साथ लगते कमरे में बैठकर दोनाली साफ करने लगा। जाने क्‍या सोचकर उसने कहकहा लगाया और कहने लगा--“अंबर पर यह खेल देख रही हो सोमा! कैसे बदकार बिजली बादल को तड़पा रही है! वह बेचारा सौ-सौ दुहाइयाँ दे रहा है, गिड़गिड़ा रहा है, रो रहा है, पीछे भाग रहा है, पर वह कभी इधर चमकती है और कभी उस कोने में। पकड़ ले कैसे पकड़ेगा! और वह बावला उसकी खुशामदें कर रहा है, जैसे इसके बिना जी न सकेगा।”

बदलू ने बादल को कोसना जारी रखा--“साले, हमारे पास आकर सीख जा, कड़कती बिजली को कैसे काबू में किया जाता है!”

सोमा ने द्वार की दहलीज पर बैठे बदलू को देखा। फिर उसकी बात पर खीझकर बोल उठी --“आपको भ्रम है, सूबेदारजी! आपने लाचार बिजली को साँप समझ लिया है। कड़कती बिजली को ये रसहीन बादल क्या बाँधेंगे! बिजली हवा में तो नहीं चमकती, सूबेदारजी, बादलों के सीने में कड़कती है। वह तो उस कलेजे को ढूँढ़ती है, जहाँ वह कल्लोल कर सके, समा सके, ताकि उसकी सुलगती आत्मा को ठंडक पहुँचे। कोई ऐसी जगह है दुनिया में, जो अंबर की बिजली को थाम ले? आपने इसे कहीं गिरते नहीं देखा न!” बोलते-बोलते वह हाँफने लगी थी। किंतु उसे खुशी हुई कि वह करारा जवाब दे पाई है।

उठकर बदलू भीतर चला गया और गुस्से से दालान वाले किवाड़ बंद कर दिए। सोमा ने जान लिया, बदलू को उबासी आने पर खूब नींद आती है। अब वह जमकर सोएगा।

कोई नौकर-चाकर घर में न था, वह उठकर खाट पर बैठ गई। यही दिन था; जब वह सूबेदार की दोनाली की मार से निकल भागी थी। उस दिन भी एक बलवती इच्छा उसे नया संसार दिखाने ले जा रही थी। आज भी वैसा ही दिन है। आज फिर एक आस उसे आवाजें दे रही है।

तोड़ डाल इस पिंजरे को! उड़ जा इस कारावास से! अभी तेरे पंखों में शक्ति है, कल को यह भी न रहेगी। तब तू आवाजें देगी, खुशामदें करेगी, तो भी ये बादल लौटकर न आएँगे। ऐसा अवसर फिर नहीं आएगा। अपने भीतर की जवान सोमा को इस गली-सड़ी लाश से मुक्त करवा। कहाँ वह सच्ची प्रीत, कहाँ ये आठों पहर की घुटन भरी कैद!

दीप पल-पल मद्धिम होता जा रहा है। अभी इसकी रोशनी में तू वहाँ तक पहुँच सकती है, जहाँ नए सवेरे, नए गीत, नई जवानियाँ, नए रूप तेरा इंतजार कर रहे हैं। इस नरक से छूटने का यही एक मौका है। प्रति की पेंगें सजाने की यही एक मंगल घड़ी है। उठ चल, भाग यहाँ से।

मन की गहराई से उठती हूकों ने उसे अपने पैरों पर खड़ा कर दिया। आँखों के आगे अँधेरा- सा छा गया। उसने दालान के स्तून का सहारा लिया। दो पल रुककर उसने आँगन में पड़ी छड़ी उठा ली और इसे टेकते-टेकते वह बाहर निकल पड़ी। वर्षा जोर पकड़ रही थी। क्षण भर में उसका पूरा बदन भीग गया--उसी तरह जैसे उस दिन भीमू के संग भीगा था। शरीर को ठंड पड़ गई। मन हलका होने लगा।

रास्ते में कीचड़ हो रहा था। आगे चार पैड़ियाँ थीं, यहाँ बैठकर वह आगे सरकी और नीचे उतर गई। अभी फर्लांग भर का रास्ता और था। जिधर से वह जा रही थी, वहाँ पिछवाड़े से भी एक पगडंडी आगे जाती थी, यहाँ से फासला भी कम था, पर खेत की मेंड़ के साथ-साथ रास्ता इतना तंग था कि उसकी हिम्मत न हुई इधर से चली जाए।

यही ठीक है। कम-से-कम इस रास्ते से वहाँ पहुँच तो जाऊँगी। अज्ञात-सी खुशी उसके मन में उत्साह भरने लगी। जी में आया, जोर से कोई पहाड़ी गीत छेड़, पर हाय, छाती बेहद अशक्त हो रही है।

गले से लिपटा गीला आँचल फंदा-सा मालूम हो रहा था। उसे उतारकर उसने खेत में फेंक दिया। कुछ आगे एक झरना था, इससे दो घूँट पानी पीकर उसने अपने खुश्क गले को तर किया। फिर झरने के पानी से आँखें भिगोई। काया को अजीब सुखद अनुभूति हुई।
वह आगे चल पड़ी। सामने वह ऊँचा टीला दिखाई दे रहा था, जहाँ उसे पहुँचना था...

घास का गट्ठर उठाए चतरू जब घर लौटा तो रास्ते में उसे सोमा की चादर मिली। पैर के अँगूठे से उसने उसे उठा लिया और घबराया हुआ जल्दी-जल्दी घर पहुँचा। देखा, दालान में खाट खाली पड़ी हुई है। उसने सूबेदार को आवाज दी, दरवाजा झकझोरा।
“कौन है? ” सूबेदार के स्वर में तलखी मिली हुई थी।
“मैं हूँ चतरू। सूबेदारनी दालान में नहीं है। ये चादर नीचे उस खेत में जाने कैसे पहुँच गई!"

बदलू का माथा ठनका। घबराया हुआ दालान में पहुँचा। खाट खाली थी। “चतरू, सोमा गई, सोमा चली गई टीले पर। आओ मेरे साथ।” इतना कहकर बह नंगे सिर, नंगे पाँव, बिना लोई- फड़की लिये बाहर को लपका।
“क्या बताया, चादर कहाँ मिली थी?"
“आगे चलिए, बतलाता हूँ। उस खेत से।”
“चतरू, तो सोमा गई। गई उस टीले से छलाँग मारने, जहाँ परसू की बहन गंगी कूदकर मरी थी।”
“वो कौन है रे? वह तो ऊपर वाली चट्टान पर जा चढ़ी है। पर वहाँ पहुँची कैसे?”
विचलित स्वर में वह पुकारने लगा--“सोमा! सोमा!!”
“इधर मेरे पास पहुँचने का हठ न कर सूबेदारा! तेरे यहाँ पहुँचने से पहले मैं दस बार नीचे कूद सकती हूँ।"

“सोमा, मुझे क्षमा कर दे। मैं देख इस उम्र में हाथ जोड़कर माफी माँगता हूँ। सोमा, मुझे हत्या का भागीदार मत बना, मुझ पर दया कर। त्रलोकू के थेह इन बारिशों में ढह गए हैं। मेरे वाले भी गिर जाएँगे, पर ये सजा मत दे मुझे। मैं अपना दोष मानता हूँ सोमा, मैं अपना दोष मानता हूँ।"

जोर से बिजली कड़की। ऐसे लगा, जैसे सिर पर गिरी हो! डरकर सूबेदार बैठ गया। दोनों हाथों से आँखों को ढाँप लिया।

अगले पल उसने आँखें खोलीं तो केवल स्याह दैत्याकार-सी चट्टान खड़ी दिखाई दी।

(रामनाय शास्त्री (1974-2009) का डोगरी भाषा के पुनरुद्धार और पुनरुत्थान में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। इसीलिए इन्हें 'डोगरी के जनक' के नाम से जाना जाता है। इन्होंने नाटक, निबंध, कहानियाँ तथा शोघ-ग्रंथ लिखे हैं। इन्हें कहानी-संग्रह 'बदनामी दी छाँ' के लिए सन्‌ 1976 में 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' से सम्मानित किया गया।)

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