बचपन की यादें : श्याम सिंह बिष्ट

Bachpan Ki Yaadein : Shyam Singh Bisht

गांव की यादों और बचपन की यादों मैं हमेशा एक ही समानता होती है, जब भी कभी जानें अंजाने याद आती हैं तो ह्रदय और आंखों को एक यादों का गीलापन और कुछ शब्दों मैं ना ब्या होने वाला एहसास दे जाति हैं ।
हर किसी की बचपन के दिनों की यादों की अपनी ही उपयोगिता और खुशनुमा अहसास होती हैं, बचपन मैं जब हम प्रातः उठते थे सर्वप्रथम हमें घर के बाहर, गोरियां (घिनोर), सीटोअ, घुघुत, निरचि काअ, जैसे अनगिनत रंग, बिरंगे पंछी देखने को मील जाते थे ।
उस समय हमारे बुजर्गों का ज्ञान, आज के विज्ञान से कहीं अधिक प्रभाव शाली और ज्ञान वर्धक था । वो प्रकति ऒर मानव को साथ लेकर चलना जानते थे, घरो के छत के नीचे बने बहार की खिड़कीयो क़े ऊपर तिरभुज जैसे छोटे आकार के पछियों कै लिए अधिकतर पहारो के घरों मैं छोटे - छोटे दश - बारह घर बने होते थे, इन पंछियों के घरों को बनाने का एक कारण यह भी हो सकता था कि " यदि रात के समय मैं कोई जंगली जानवर घरों के इर्दगिर्द भी आ जायै तो घरो मैं रहने वाले लोगों को पंछियों की चहचाहट से पता चल जाय ।

बचपन मे हम लोगो ने अधिकतर देखा भी था कि जब कभी घर के आँगन या आस पाश कोई साँप आता था तो "सीटोअ "नाम का पँछी ज़ोर - ज़ोर से सी - सी की आवाज़े निकलता था, जब हम लोग घर वाले से पुछ्ते ये "सीटोअ' ऐसा क्यों कर रहा है तो, घर के बडे लोगों का जवाब होता कि आश / पाश कोई साँप आया होगा ।
पर अब आधुनिक बने मकानों मैं अपने लिए जगह नहीं होती, कहीं पर बैठक रूम होता है, कहीं पर गेस्ट रूम, इन पंछियो की ख़ैर ख़बर भला कौंन लें ।
मैं तो कभी - कभि यह देखकर अचम्भित हो जाता था, की मधुमक्खीयो भी घरो की बाहर की खिड़कियों पर अपना आश्रय बना कर रहती थी, और मजाल हो वो उस घर मैं रहने वालों को काट दे ।
मेरे बचपन के सहपाठी हमेशा मुझसे कहते थे कि इन मधु मखियों मैं एक राजा होता है उसी के निर्देशानुसार ये मधु मखिया चलती हैं,आगे राजा रानी पीछे ये सब ।
जब स्कूल जाने का समय हो जाता, अपना बस्ता उठा कर दो - चार - दोस्त सबसे आगे चले जाते, रास्तों मैं पड़ने वाले दो अलग - अलग खेतों की बालियों को आपश मैं गाँठ लगा देते, शर्दियों की ऋतु मैं सुबह के बाद भी कोहरा सा छाया रहता है, जिस कारणवश कुछ दूरी पर आने वाले लोगों को आगे का रास्ता भली भांति देखने मैं थोड़ा बहुत दिक्कत होती थी ।
जैसे ही पीछे वालै उन बधि हुई गाँठ से टकराते धड़ाम करके गिर जाते, वो गिरने के बाद कि बचपन की मुस्कान ना जानें कहाँ गुम सी हो गई, आज् सोंचते हैं वो समय अच्छा था या यह वक़्त ?

पहले गांव में कपड़े सिलवाने के लिए बाहर बाजार में नहीं जाना पड़ता था, अधिकतर गांव के लोग बाहर से किसी को बुला लिया करते थे, हो सकता है उस समय लोगों को फैशन की जानकारी नहीं हौगी या आज् की तरह शहरौ से आपस में कनेक्शन कम हूआ होगा ।
माँ उस समय दुसरे गांव के रहने वाले बगुना के दर्जी "मोहनी दास" " से ही हमारे कपडे सिलवाने के लिए देती थी, अधिक्तर 'मोहनी दा " ही उस समय पूरे गाँव के लोगों के कपडे सिलते थे । जब भी कपड़े सिलवाने का कार्य होता वो गांव आतै, मोहनी दा से जैसे कपड़े कहते वो सील देते, कपडे सिलवाने की जो भी महेनत मजदूरी लगती वो उनको दे दिया करते थे ।
कभी कभी घर मे पैसा नहीं होता, "मोहनि दा " को गेहूं, धान या अन्य समान दे दिया जाता था, उस वक्त के लोगो का धन्यवाद जो कार्य करने के बदले धन ना मिलने पर खुशी -खुशी और समान ले जाते थे, वो जानते थे कि धन से भी हमने रोज - मरा का ही सामान लाना हैं, यदि आज् के समय ऐसी परिस्थिति हो जाय , तो समझो बोल - चाल तो बन्द होगी ही होगी, धन ना मिलने के बदले कोट,कचहरि, भी देखनी पर जाएगी ।

स्कूल पहुंचने के बाद सर्वप्रथम प्रातः प्रार्थना होती थी, आगे की पंक्तियों पर लड़कियां और पीछे की पंक्ति पर हमेशा लड़के ही खड़े होते थे ।
अध्यापक बाद में स्कूल कार्य जांचना व प्रतिदिन की तरह पाठन का कार्य शुरु हो जाता, ग्रीष्म ऋतु में स्कूल प्रातः ही खुल जाता था, वह इसके विपरीत शीतऋतु में दो पहर का स्कूल लगता था, इन अलग - अलग एक ही वर्ष काल में लगने वाले स्कूलों को "अरण खै "व" खै बैर " स्कूल के नाम से संबोधित करते थे ।

अवकाश के दौरान हम सभी गांव के सहपाठी गाय बैल या अन्य जानवर को चारा खिलाने के लिए जंगल छोड़ने के लिए चले जाते थे, अधिकतर ग्रीष्मकाल में नदियों में नहाने के लिए हम सभी दोस्त लोग पहले "खाव "बनाते दिन भर नहाने के उपरांत बड़े से पत्थरों पर सो जाते, व चिलचिलाती हुई धूप का आनंद लेते, जब कभी भी "खाव "बनता तो सबके लिए निर्देश एक समान होते, बने हुए "खाव "मैं वही नहाता जो खाव बनाने के लिए गीली ,घास, और मिट्टी से बने हुए छोटे - बड़े हल्की गीली ढेरी को लाता, जिसे हम अपनी पहाड़ी भाषा में "जिगात " कह कर संबोधित करते थे ।
कभी साथ मिलकर खो - खो का खेल खेलते, कभी पहाड़ो का चर्चित खेल "आजा मेरा गदु" व "पीठु " जब कभी गिरी डंडा का खेल - खेलना होता तो, खलने के लिए गांव के किसी अधिक लम्बे खेत का चूनाव करना होता था, गिरि बनाने के लिए अधिकतर अमरूद के पेड़ का ही उपयोग करते थे ।
बचपन का एक बंदूक वाला खेल और था जिसे हम अपनी भाषा मैं " अटलू बंदूक जटालू गोय: कहते थे, जैसे - जैसे उम्र बरती गई तो क्रिकेट खलने का शौक लग गया ।
पता ही नही चला कि ओ बचपन का "छुपम छुपायी " लौहे की गाड़ी वालै खेल, ना जानें कहाँ हवा के लहरों के साथ बिना अहसास कराये, बचपन की यादौ का पिटारा कब समय के जादूगर के जादू की तरह आंखों से छू : मंत्र हो गया ।
आज सिर्फ वो यादे ही रह गई हैं, बचपन के वो कुछ खेल तो अब सिर्फ आने वाली पीढ़ी को किस्सों,कहानियां, या किताबों में मिलेगी ।

अभी भी पहाड तो वही ज्यो क़े त्यो अपने स्थान पर खड़े हैं, हरयाली वहीं है,कोहरे से लिपटे हूऐ, आधे दूध की तरह आवरण से ढखे गांव ,सर्दियों की दाँतो को कट -कटाति ठंड़ की कंपन, ग्रीष्म काल के हवाओं के झोंके के रूख अभी भी नही बदले, तारो और जुगनू का टिमटिमाना अभी भी कायम है, घरो के बारिश की "बंधार: कायम है, कभी - कभी मंदिरों का शंख नाद बज जाता है, पंछियों की अनगिनत मधुर संगीत जैसी आवाजे, घरों, खेतों, जंगलों मैं रंग बिरँगे फूल, तितलियाँ, बादलों मैं उड़ते हूऐ पंछियों, वर्षा काल मैं इंद्रधनुष्यि सप्त रंगो से रँगे गांव अभी भी वहीं कायम हैँ, रिश्तों की महक का मीठापन, अभी भी कायम है, जरूरत है तो सिर्फ उन रिश्तौ को समझने की ।

समय के साथ जैसे - जैसे आवश्यकताऐ बरती गई, पहाड़ हमसे पीछे छूट ता गया, यह हमारी कमज़ोर है या इन पहाड़ो की विडम्बना की आज़ादी के इतने वर्ष बीत जानें के बाद भी, शिक्षा, रोजगार, चिकित्सालय, का आभव अभी भी "ढाक के तीन पात " जैसा बना है ।
लोगों ने हरे -भरे गांव खेत, छोर दिये हैं, जहाँ पहले एक अपने पन का शोर हूआ करता था, वहाँ अधिकतर गावं मैं अब सिर्फ मूठी भर लोग ही रह गए है, इन सुनसान बन्द हुए घरों, देवी थानों, अरमूद, आम, के आँगनों, बिताये हुए बचपन, के रास्तों, दोस्तों, आश -पड़ोस के लोगों को, शहरौ मैं बसें लोगों के आने की हमेशा आश लगी रहेगी ।
कभी तो वो दिन आएगा जब घर के आँगन के बाहर पेड़ पर कौआ बैठकर "कांव - कांव" की आवाज फिर लगाएगा !!

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