बाबू गुलाबराय चिरस्मरणीय व्यक्तित्व (निबंध) : वृंदावनलाल वर्मा

Babu Gulab Rai Chirsmarniya Vyaktitva (Hindi Nibandh) : Vrindavan Lal Verma

मैं एक मुकदमे की पैरवी करके वकील-भवन में आया था कि तार मिला, ‘महाराज आपसे मिलना चाहते हैं। कल सवेरे की गाड़ी से हरपालपुर स्टेशन पर आ जाइए, मोटर तैयार मिलेगी—गुलाब राय।’ तार छत्रपुर से आया था। सन‍् १९२९-३० की बात है। निकट ही एक वकील मित्र खड़े थे। कहने लगे, “महाराज तुम्हें अपना दीवान बनाना चाहते हैं, पहुँचो।”

“अजी, दीवान तो क्या, मैं राजा का चपरासी भी बनने लायक नहीं हूँ।” मैंने उत्तर दिया। हँसी में बात डूबने-उतराने लगी।

उस समय छत्रपुर के महाराज विश्वनाथसिंह थे। हिंदी साहित्य के बड़े प्रेमी। मैं सोचने लगा कि बुलाए जाने का कारण संभव है कानूनी सलाह हो, क्योंकि वकालत अच्छी-खासी चल रही थी। मेरे कुछ उपन्यास—‘गढ़ कुंडार’, ‘प्रेम की भेंट’ इत्यादि प्रकाशित हो चुके थे। परंतु साहित्यिक कारण की ओर मेरा ध्यान नहीं गया।

चल पड़ा दूसरे दिन संध्या की गाड़ी से। हरपालपुर स्टेशन पर गाड़ी मिल गई। दिन भर वहीं बनी रही थी। मैं सवेरे की गाड़ी से नहीं जा सकता था, क्योंकि झाँसी में काम था। रात के समय छत्रपुर पहुँचा। विश्राम-गृह पर एक सज्जन मिले। ठिगना सा कद, गंभीर आकृति, चश्मे के भीतर बारीक दृ‌ष्टि। “तार मैंने भेजा था, दिन में आपकी प्रतीक्षा होती रही।” ये बाबू गुलाबराय थे। नाम सुन रखा था। पहली भेंट उसी क्षण हुई थी।

मैंने क्षमायाचना की। कारण बतलाकर उनसे निवेदन किया, “मैं इसी समय महाराजा साहब से भेंट करने के लिए तैयार हूँ, भोजन लौटकर लूँगा।”

वे मुसकराए। बोले, “महाराजा साहब के मिलने का समय चार बजे प्रातःकाल का होगा।”

“चार बजे प्रातःकाल!”

“जी हाँ, उन्हें यही समय पसंद है।” फिर वही मुसकान। मैंने बुलाए जाने का कारण पूछा।

“मुझे नहीं मालूम। वही बतलाएँगे।”

“सवेरे की गाड़ी से आ जाता तो दिन में मिल लेता।”

“जी नहीं, वे दिन में शायद ही किसी से मिलते हों।”

“पॉलिटिकल एजेंट से भी नहीं?”

“वह और बात है, जिस पर मैं कुछ नहीं कह सकता।” वे फिर मुसकराए। सोच रहा था कि क्या बाबू गुलाबराय कभी खिलखिलाकर भी हँसते होंगे?

उन्होंने भोजन का प्रबंध किया और यह कहकर चले गए, “ठीक साढ़े तीन बजे मोटर आ जाएगी, आप चार बजे महल पहुँच जाएँगे।”

मुझे लगा कि रात भर जागते रहना पड़ेगा। ऐसा कौन सा काम है, जिसके लिए बुलाया गया हूँ? रात भर के जागरण की दलेल की शंका कचोटने लगी। चाहे जिस समय सो जाना और किसी निश्चित घड़ी पर जाग जाना वश की बात नहीं थी। एक पुस्तक और समाचार-पत्र साथ ले गया था। कभी इसे और कभी उसे पढ़ते, लौटते-पलटते रात बीती। मोटर ठीक साढ़े तीन बजे आ गई। रात का सन्नाटा था। मैं तैयार होकर ठीक समय पर महल में पहुँच गया। महाराज जाग रहे थे। शिष्‍टाचार के साथ बिठलाया और उन्होंने जो पहली ही बात की, वह यह प्रश्न था, “आपका उपन्यास ‘प्रेम की भेंट’ मुझे बहुत पसंद आया। उसकी पात्रा उजियारी का अंत में क्या हुआ?”

तो क्या इसी के लिए इन्होंने मुझे झाँसी से बुलाया है? तुरंत मन में कौंधा, हँसी उमड़ी और जहाँ‌-की-तहाँ दबा दी गई। सूर्योदय के पहले तक उसी पुस्तक के कई प्रसंगों पर चर्चा होती रही। अंत में महाराज बोले, “कभी आप खजुराहो गए?”

“नहीं महाराज, कभी नहीं गया।”

“असफलता में सफलता मिल जाती है”, उसी मुसकान के साथ यह व्यंग्य। और भी, “लिख डालिए, कभी खजुराहो, मनियागढ़ इत्यादि पर। उजियारी तो उसमें आएगी नहीं।”

“अँधियारी को ले आऊँ?”

“तार भी संभवतः पहुँचेगा, परंतु दिन की गाड़ी से नहीं, रात की गाड़ी से बुलाए जाएँगे।”

“तो आज अवश्य देख लीजिए। निकट ही मनियागढ़ है, उसे भी देख लेना। चंदेले वहीं से चले थे।”

मैं सोचता-विचारता चला आया—‘कानूनी सलाह के लिए नहीं बुलाया गया तो कोई बात नहीं, प्रसिद्ध ऐतिहासिक सुंदर कलाकेंद्र खजुराहो तो देखने को मिल जाएगा, सारा परिश्रम वसूल हो जाएगा।’

यात्रा करने के पहले मैं बाबू गुलाबराय से मिला और उन्हें सारी कहानी सुना डाली। मुझे हँसी आ जाती थी और वे केवल मुसकराते रहे, गंभीरता में घुली मुसकान और आँखों में सूक्ष्म व्यंग्य।

मैंने कहा, “मैंने समझा था कि शायद किसी कानूनी मामले की सलाह के लिए बुलाया हो।”

“असफलता में सफलता मिल जाती है”, उसी मुसकान के साथ यह व्यंग्य। और भी, “लिख डालिए, कभी खजुराहो, मनियागढ़ इत्यादि पर। उजियारी तो उसमें आएगी नहीं।”

“अँधियारी को ले आऊँ?”

“तार भी संभवतः पहुँचेगा, परंतु दिन की गाड़ी से नहीं, रात की गाड़ी से बुलाए जाएँगे।”

बाबू गुलाबराय तब छत्रपुर महाराज के निजी सचिव थे। गंभीर विचारक, सूक्ष्मदर्शी और बारीक व्यंग्यकार। मेरे ध्यान में यही आया।

इसके उपरांत छत्रपुर में एक बार और थोड़े से क्षणों के लिए भेंट हुई। फिर आगरा में अनेक बार।

उनकी विख्यात रचना—‘मेरी असफलताएँ’ प्रकाशित होते ही मुझे भेंटस्वरूप मिल गई थी। अपने ढंग की अद्वितीय रचना। उनकी साहित्यिक गहराई और सूक्ष्म व्यंजना सब उसमें।

जब सन‍् १९५७ में आगरा विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट्. की उपाधि दी तो मुझे बहुत हर्ष हुआ था। समारोह में मैं भी गया। तब वे कुछ अस्वस्‍थ थे, परंतु उस गंभीर मुसकान में कमी नहीं आई थी।

उसके बाद भी भेंट होती रही। मैं जब कभी भी आगरा जाता, उनके निवास-स्‍थान पर अवश्य पहुँचता।

उनका रहन-सहन सीधा-सादा, बातचीत गंभीर और कभी-कभी किसी-न-किसी सूक्ष्म दूरदर्शी व्यंग्य का पुट।

हिंदी साहित्य के लिए बाबू गुलाबराय की देन अमर है। उनका व्यक्तित्व मिलनेवालों को कभी नहीं भूलेगा।

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