बाबर की मौत (नाटक) : सआदत हसन मंटो

Babar Ki Maut (Play) : Saadat Hasan Manto

स्टेज पर हर-रोज़ ड्रामे खेले जाते हैं , मगर उनमें से कितने मअनी के लिहाज़ से मुकम्मल होते हैं । दरअसल ख़ामकारी स्टेज का क़ानून है।अगर किसी ड्रामे का पहला ऐक्ट शानदार है तो उस के आख़िरी ऐक्ट पहले ऐक्ट की जान के क़दमों में दम तोड़ते नज़र आएँगे। अगर किसी ड्रामे का अंजाम अच्छा है तो आग़ाज़ बुरा है।
क्लाइमेक्स है तो सस्पन्स नहीं होगा। अगर सस्पन्स है तो क्लाइमेक्स नज़र नहीं आएगा । ऐसे किरदार नज़र आएँगे जो बड़े बड़े मराहिल आसानी के साथ तै करेंगे । मगर छोटी छोटी मुश्किलात का मुक़ाबला करते वक़्त उनकी पेशानी पसीने से भर जाएगी। मंतिक़ और इस्तिदलाल तैत्तरीइयों के मानिंद आपको उन ड्रामों में उड़ते नज़र आएँगे।
ड्रामा नवीसों में शायद सबसे ज़्यादा ख़ामकारी इन ड्रामों में पाई जाती है जो तारीख़ ने लिखे हैं । तारीख़ ड्रामे के तमाम अवाक़िब-ओ-अवातिफ़ पर बहुत कम ग़ौर करती है । अपने ड्रामों के अबवाब पर भी तारीख़ फ़र्दन फ़र्दन नहीं सोचती लेकिन अगर उस के क़लम से कोई अच्छा ड्रामा निकल जाये तो सदीयों तक उस की धूम मची रहेगी।
ये ड्रामा जो अब आप पढ़ेंगे तारीख़ का एक मुकम्मल ड्रामा है । मंज़र हिन्दोस्तान का है । प्लाट है दुनिया को फ़तह करने का ख़्याल । हीरो है बाबर शेर-ए-फ़र्ग़ाना । एक बहुत बड़ी सलतनत का ख़ालिक़ । मुग़्लिया ख़ानदान का सबसे पहला बादशाह । पर्दा उठता है ।
बाबर: (ख़त लिखवाता है) ख़्वाजा कैलान को लिक्खो अगर माबदौलत की हिदायात पर अमल ना किया गया, अगर हमारे अहकाम का ख़ातिर-ख़्वाह नतीजा बरामद ना हुआ । अगर खज़ाने की हालत दरुस्त ना हुई, अगर किसानों की बदहाली दूर ना हुई तो उसकी सारी ज़िम्मेदारी उस के सिर पर होगी । काबुल में अगर अबतरी फैली हुई है तो उस की सबसे बड़ी वजह ये है कि पाँच छः आदमी बैयकवक़त हुकूमत करना चाहते हैं।
मीर-ए-मुंशी: लिख लिया जहांपनाह !
बाबर: उस को ये भी लिक्खो कि वो शहर को बेहतर बनाने की कोशिश करे। क़िला की चार-दीवारी ही में महल की इमारत समा जानी चाहीए। जो मुअम्मार इस महल को बना रहा है वो यहां आगरे से हमारे भेजे हुए आदमी के साथ महल के नक़्शों की बाबत मुफ़स्सिल गुफ़्तगु करे और इस से मश्वरे ले । शाही बाग़ात में पानी का इंतिज़ाम और अच्छे पैमाने पर होना चाहीए । रो्वशों में यगानगत हो । कियारियों में फूल ऐसे लगाए जाएं जिनमें ख़ुशबू हो।
मीर-ए-मुंशी: लिख लिया ज़ुल-ए-इलाही ।
बाबर: (टहलता है) आह ! काबुल । हमें इस सरज़मीन से कितना प्यार है ! काबुल के सरदे!। उनकी मिठास । उनका रस!! । मीर-ए-मुंशी ।
मीर-ए-मुंशी: इरशाद आलीजाह!
बाबर: ख़्वाजा कैलान हमारा दोस्त है । इस को कभी कभी हम अपने दिल की बातें भी सुनाया करते हैं । इस को लिक्खो बाबर बादशाह की रूह अपने वतन को देखने के लिए बे-ताब है। ये हिन्दोस्तान का काम हम क़रीब ख़त्म कर चुके हैं। जब पूरी तरह ख़त्म हो जाएगा। तो हम फ़ौरन ही अपने प्यारे वतन काबुल का रुख करेंगे। आह हमें काबुल से कितनी मुहब्बत है । काबुल । काबुल। (टहलता है फिर आह भरता है )
बाबर: काबुल । पिछले दिनों हमें सरदे पेश किए गए। ख़ुदा-गवाह है ये सरदे देखकर हमारी आँखों में आँसू भर आए । तबीयत उदास हो गई । ये भी वाक़िया है कि जब से हमने शराब छोड़ी है हमारी तबीयत अक्सर उदास रहती है । लेकिन ख़ुदा की मेहरबानी है कि इस की तलब दिन-ब-दिन कम होती चली जा रही है। ख़्वाजा कैलान से कहो कि हमारे नक़्श-ए-क़दम पर चले। शराब छोड़ दे।इस हराम शैय को हाथ तक ना लगाए । (टहलता है) । लिख चुके ?
मीर-ए-मुंशी: हाँ आलीजाह!
बाबर: तो आख़िर में इस को ताकीदन लिख दो कि वो हमारे हर्म की तमाम औरतों को और हमारी बहनों को हिफ़ाज़त से यहां भिजवा दे। वो अवाम के हालात से बहुत ज़्यादा दिलचस्पी लेना चाहती हैं जोकि हम औरतों के लिए ज़रूरी समझते हैं ।

(ये ख़त लिखवाने के फ़ौरन बाद ज़हीरउद्दीन बाबर बादशाह को मैदान-ए-जंग में जाना पड़ा। गंगा के इस पार की सलतनत में जो कुछ हो रहा था इस से बाबर अच्छी तरह बाख़बर था । धौलपुर में एक रोज़ संग मर-मर के एक ना-मुकम्मल महल का मुआइना कर रहा था कि एलची आया उसने शहनशाह को ख़बर दी कि महमूद लोधी ने मशरिक़ की तरफ़ से हमला कर दिया है और तमाम अफ़्ग़ान उस की मदद कर रहे हैं । बाबर ने एक दम फ़ैसला किया और अपने तमाम पुराने इरादे बदल कर इस तरफ़ का रुख किया। जहां फ़ित्ना खड़ा किया जा रहा था । दो फरवरी सन पंद्रह सौ उनत्तीस को वो अपनी कमज़ोर सेहत के बावजूद महमूद लोधी के कान लपेटने के लिए रवाना हुआ। कभी घोड़े पर कभी कश्ती में उसने पानी और ख़ुशकी का फ़ासिला तै किया और अपने जरनैल अस्करी से जा मिला जो दुश्मन के मुक़ाबले में पीछे हटता चला आ रहा था । लेकिन बाबर की दहश्त इतनी थी कि वो इलाहाबाद तक भी ना पहुंचा था कि अफ़्ग़ानों के हौसले पस्त हो गए और वो बनारस से उठ भागे।महमूद लोधी बंगालीयों की पनाह में चला गया । बाबर के इंतिक़ामी इरादों और उनकी तकमील के दरमयान दो दरिया बह रहे थे । गंगा और घागरा । ज़ाहिर है कि बाबर की फ़ौजों के लिए दुश्मन पर हमला करना बहुत मुश्किल था। मगर एक-बार फिर तैमूर और चंगेज़ ख़ान का लहू बाबर की रगों में आतश-ए-सैयाल की तरह दौड़ा और महमूद लोधी अपने बंगाली तरफ़दारों समेत बाबर की अस्करी कुव्वतों के सामने झुक गया । इस नामुमकिन फ़तह को मुम्किन बना कर थका मांदा बाबर आगरा वापिस आया । 24 जून जुमेरात को सुब्ह-ए-नौ बजे वो अपने दार-उल-ख़लाफ़ा में दाख़िल हुआ । बारिशों में पच्चास मील रोज़ाना की मुसाफ़त करके ।)

ख़ादिम: जहांपनाह । रोज़ए- हशतबिहिशत के नाज़िम-ए-आला हुज़ूर की ख़िदमत में अंगूर और सरदे पेश करना चाहते हैं।
बाबर: सरदे। अंगूर । (दफ़्फ़ातन चौंक कर) तो फल ले आएं । वो बेलें जो हमने ख़ुद अपने हाथों से अपने बाग़ में उगाई थीं । कहाँ है रोज़ए- हशतबिहिशत का नाज़िम-ए-आला । उस को हमारे हुज़ूर में पेश करो।
ख़ादिम: बहुत अच्छा आली जाह !
बाबर: (ख़ुश हो कर) । हिन्दोस्तान की ज़मीन के बतन से पहली बार काबुल के दो फल पैदा हो रहे हैं । (फ़ौरन ही ये सोच कर उसने अच्छा और ज़ू-मअधनी फ़िक़रा कहा है) हिन्दोस्तान की ज़मीन के बतन से पहली बार काबुल के दो फल पैदा हो रहे हैं।
शायद और भी हों । हिन्दोस्तान की वो तमाम वुसअत जो कभी लोधी अपने दामन में लिए फिरता था, आज बाबर के नक़्श-ए-क़दम इस पर फैले हुए हैं। हिमालया से गवालयार और चंदेरी तक और दरयाए जेहूँ से बंगाल तक उस की सलतनत एक वसीअ चांदनी की तरह बिछी हुई है । लेकिन हमारा दिल अभी तक मुतमइन नहीं हुआ । बिरलास ।
बिरलास: आलीजाह !
बाबर: बिरलास। तुम यहां कब के खड़े हो।
बिरलास: जब से आलीजाह ! किताब-ए-दिल की वर्क़ गरदानी में मसरूफ़ हैं।
बाबर: तुम किस नतीजा पर पहुंचे ।
बिरलास: हिन्दोस्तान के शहनशाह का दिल उस की सलतनत से कहीं ज़्यादा वसीअ है।
बाबर: बिरलास ! तुम्हारे इस तारीफ़ी फ़िक़रे ने हमारी बात का जवाब नहीं दिया । तुम हमारे लायक़ वज़ीर और पुर-ख़ुलूस दोस्त हो । हमें ये बताओ कि इतनी फ़ुतूहात हासिल करने पर भी हमारे दिल को चैन क्यों नसीब नहीं हुआ । हम उदास क्यों रहते हैं ।
बिरलास: तैमूर का ख़ून जब हर वक़त जहांपनाह के कानों में सरगोशियाँ करता रहा। तो उदास होना ज़रूरी है । समरक़ंद का सुनहरा ख़्याल ।
बाबर: बिरलास तुमने हमारी दुखती रग पर हाथ रख दिया । आह । समरक़ंद । हिन्दोस्तान बाबर बादशाह की अनथक कोशिशों का शानदार इनाम है । लेकिन हमारी किस क़दर ख़ाहिश है कि वतन की ऊंची ऊंची घाटियाँ एक-बार फिर हमारे तसल्लुत में हूँ । समरक़ंद हमारी जवानी का सुनहरा ख़ाब है।
ख़ादिम: जहांपनाह । रोज़ए- हशतबिहिशत के नाज़िम-ए-आला हाज़िर हैं।
बाबर: (ख़ुश हो कर) माबदौलत उस की आमद से ख़ुश हुए । बिरलास । शहनशाह बाबर की एक कमज़ोरी आज तुमको मालूम हो जाएगी। काबुल के सर्दों पर वो बुरी तरह मरता है। (हँसता है)
नाज़िम: ग़ुलाम कोरनिश बजा लाता है । जहांपनाह !
बाबर: रोज़ए- हशतबिहिशत का नाज़िम-ए-आला मुक़र्रर करके माबदौलत ने ग़लत इंतिख़ाब नहीं किया था । बिरलास । काबुल के सरदे और अंगूर आगरे की मिट्टी भी पाल सकती है। हमारे मुँह में पानी भर आया । सरदे की एक क़ाश नमूने के तौर पर हम अभी चखना पसंद करेंगे। और अंगूर के चंद दाने भी।
नाज़िम: अभी हाज़िर करता हूँ जहांपनाह !
बाबर: बिरलास हमने काबुल पैग़ाम भिजवाया था कि हमारी हमशीरा ख़ातून ज़ादा और हमारी चहेती बेगम माहिम काबुल से फ़ौरन यहां चली आएं। वहां से कोई इत्तिला आई ?
बिरलास: अभी तक कोई इत्तिला नहीं आई आलीजाह । बारिशें बहुत ज़ोरों पर हो रही हैं । इस लिए पैग़ामरसानी में बड़ी मुश्किलात पैदा हो गई हैं। यूं भी आगरे से काबुल पहुंचने में पाँच महीने सर्फ होते हैं।
बाबर: हमने तै ये किया था कि जब माहिम की आमद की इत्तिला हमें मिलेगी तो हम आगरे से साठ मील दूर अलीगढ़ में इस के इस्तिक़बाल के लिए जाऐंगे।
(सत्ताईस जून सन पंद्रह सौ उनत्तीस को मूसलाधार बारिश हो रही थी। मनों पानी बरस रहा था।)
ख़ादिम: जहांपनाह काबुल से एलची आया है।
बाबर: (चौंक कर) । काबुल से। उसे फ़ौरन हमारी ख़िदमत में हाज़िर करो।
ख़ादिम: बहुत अच्छा जहांपनाह !
बाबर: ठहरो हम ख़ुद उसे मिलते हैं । वो ज़रूर हमारी चहेती बेगम माहिम की ख़बर लाया है।
ख़ादिम: जी हाँ आलीजाह ! वो हुज़ूर की क़दम-बोसी के लिए इतनी बे-ताब थीं कि आगरे में हुज़ूर का इंतिज़ार किए बग़ैर आगरे तशरीफ़ ले आई हैं। उनकी सवारी यहां से सिर्फ चंद मील दूर होगी।
बाबर: (मुज़्तरिब हो कर) उस का शौक-ए-मुलाक़ात हमारे शौक-ए-दीद से ज़्यादा तेज़ साबित हुआ । हमें मालूम ना था कि वो इतनी जल्दी पहुंच जाएगी। अफ़सोस कि हम वाअदा के मुताबिक़ अलीगढ़ जाकर उस का इस्तिक़बाल ना करसके। हमारी नन्ही गुल-बदन भी इस के हमराह होगी । नन्ही गुलू। देखो हमारी सवारी तैयार करो । नहीं । हम इतनी देर नहीं कर सकेंगे । उफ़ । एक ज़माना हो गया है । हमें माहिम को देखे हुए । लेकिन अब । लेकिन अब तो सिर्फ चंद लमहात का सवाल । हम पैदल जाऐंगे।
ख़ादिम: जहांपनाह! बाहर बारिश हो रही है । पानी की नहरें बह रही हैं।
बाबर: कोई हर्ज नहीं । हमारा फ़र्ग़ुल । हमारा फ़र्ग़ुल हाज़िर करो।
ख़ादिम: जहांपनाह । बारिश मामूली नहीं । तूफ़ान है।
बाबर: (हँसता है) तुम्हारा बादशाह बूढ्ढा हो गया है कमज़ोर हुआ। अभी पिछले दिनों उसने गंगा तेंतीस हाथों में पार की है । तूफ़ान ? हमने अपनी ज़िंदगी में कई तूफ़ान देखे हैं । बारिश और कीचड़ (हँसता है) माहिम हमारा रास्ता देख रही होगी। हम जाते हैं।

(बारिश के तूफ़ान में बाबर कीचड़ से अटी हुई सड़क पर दौड़ता चला गया । हत्ता कि वो अपनी महबूबा के पास पहुंच गया जो घोड़े पर सवार इस तूफ़ान में अपने मालिक से मिलने आरही थी।)

माहिम: (हैरत-ज़दा हो कर) । जहांपनाह । आप ! मेरी आँखें मुझे धोका तो नहीं दे रहीं।
बाबर: ओह । माहिम तुमसे मिलकर हमें कितनी ख़ुशी हुई। ये क्या कर रही हो। बैठी रहो । घोड़े पर से उतरने की तकलीफ़ ना करो।
माहिम: जहांपनाह मैं अदब कैसे बजा लाऊँ ।
बाबर: ख़ुदा के लिए ऐसे मौके़ पर तकल्लुफ़ात ना बरतो। तुम्हारा बादशाह इन्सान भी है और मुहब्बत तो हर तकल्लुफ़ से बेनयाज़ होती है।
माहिम: (ख़ुश हो कर ) जहांपनाह । मैं कैसे ! मैं कैसे !
बाबर: छोड़ो इन बातों को ये बताओ रास्ते में तुम्हें कोई तकलीफ़ तो नहीं हुई । सफ़र कैसे कटा। आह ! माहिम तुम्हें देखने के लिए हम कितने बे-ताब थे ।ख़ुदा के लिए घोड़े पर बैठी रहो । बाग हमें दे दो। ये झिजक कैसी ?
माहिम: (झिजक के साथ) । जहांपनाह ।
बाबर: (हंसकर) इतनी बड़ी सलतनत की अनान हमारे हाथ में है । क्या हम एक घोड़े की बाग नहीं थाम सकते । (हँसता है) और फिर उस घोड़े पर तो हमारी महबूबा सवार है।
माहिम: जहांपनाह ! मैं इस इज़्ज़त-अफ़ज़ाई का शुक्रिया कैसे अदा करूँ।
बाबर: बाग हमारे हाथ में दो । हम तुम्हें बताएँगे ।

(बाबर की सेहत दिन-ब-दिन गिरने लगी। सन पंद्रह सौ छब्बीस में पानीपत की लड़ाई के बाद इस को ज़हर देने की नाकाम कोशिश की गई थी। ये ज़हर उस को हलाक ना कर सका मगर उस का असर बाबर के जिस्म में तादम-ए-आख़िर मौजूद रहा। कहते हैं कि सुलतान इबराहीम की वफ़ात के बाद उस की माँ ने शाही महल के बुकावुलों को ज़हरीला सफ़ूफ़ दिया और उनसे कहा कि बाबर के ख़ासे पर छिड़क दें ये ख़ासे खाने के बाद जैसा कि बयान किया जाता है बाबर बहुत देर तक बीमार रहा ।) शेर-ए-फ़र्ग़ाना अब थक कर चूर चूर हो गया था । वो क़ुव्वत जिसने हिन्दोस्तान पर इस का सिक्का बिठा दिया था अब इस में नहीं रही थी । अब जहाँबानी का ख़्याल उस के दिल-ओ-दिमाग़ में नहीं रहा था ।

बाबर: माहिम ।
माहिम: जहांपनाह !
बाबर: माहिम ! जहांपनाह ना कहो । ये जहान हमारी पनाह में नहीं । हम ख़ुद उस की पनाह के तालिब हैं । अब जी चाहता है कि ऐसी जगह जाएं जहां अमन और चैन हो । सुकून हो । शहनशाही दर्द-ए-सर है। ख़ुदा की क़सम दर्द-ए-सर है । हम अब दरवेशों की ज़िंदगी बसर करना चाहते हैं । तमाम हंगामों से आज़ाद हो कर हम किसी ऐसे मुक़ाम की तलाश में हैं जहां हम अपने काँधों पर से शहंशाहियत का बोझ उतार कर एक तरफ़ रख दें और आराम कर सकें । (लहजे में ज़्यादा संजीदगी पैदा हो जाती है) । माहिम जी चाहता है । ज़रअफ़शाँ चला जाऊं । वहां के बाग़ों में एक छोटा सा झोंपड़ा बनवा लूं। अब ये महल काटने को दौड़ता है । जहां क़दम क़दम पर कोरनिश बजा लाई जाती है । जहां हज़ारों ख़ुद्दाम का जमघटा लगा रहता है । ज़रअफ़शाँ के बाग़ हों । एक छोटा सा झोंपड़ा हो। और सिर्फ एक ख़ादिम हो।
माहिम: जहांपनाह को अगर यही कुछ करना था तो मुझे यहां बुलवाने की क्या ज़रूरत थी ।
बाबर: आह तुम नहीं समझ सकीं । माहिम तुम औरत हो । तुम्हारी मुहब्बत बाबर से है । लेकिन बाबर बादशाह से ज़्यादा है । ये औरत कमज़ोरी है । बाबर बादशाह को अपनी अज़मत और अपने जलाल का इतना ख़ुमार नहीं होगा जितना तुम्हें है ।(गुल-बदन जो पास ही बैठी है रोना शुरू कर देती है) । गुल-बदन। ये तुम रो क्यों रही हो।
गुल-बदन: मैं ! मैं ! मैं झोंपड़े में नहीं रहूंगी।
बाबर: (हँसता है) गुलू । तू झोंपड़े में नहीं रहेगी। अच्छा बता कहाँ रहेगी?
गुल-बदन: (सिसकियों के साथ ) । इस महल में ।
इस महल में जहांपनाह !
बाबर: ये महल तुझे पसंद आ गया !
गुल-बदन: (सिसकियों के साथ ) हाँ ।
बाबर: (हँसता है) । अच्छा तो हमने सिर्फ़ तेरे लिए अपना इरादा तर्क कर दिया। ले अब मुस्कुरा दे।

(बाबर दरहक़ीक़त सलतनत के काम से दस्त-बरदार हो जाना चाहता था । मगर वो बहुत होशयार, दक़ीक़ारस और सच्चा सिपाही था । वो उस वक़्त तक तख़्त छोड़ने के लिए तैयार ना था जब तक उस का बदल ना मिल जाये। बाबर की जगह कौन ले सकता था । उस का बेटा हुमायूँ बे-शक बहादुर था और बाबर को इस से मुहब्बत भी थी । मगर वो बे परवाह और ग़ैर ज़िम्मेदार था। मलतोन तबीयत के बाइस भी वो इतनी बड़ी सलतनत का इंतिज़ाम करने का अहल नहीं था उस के इलावा उसने ताज़ा-ताज़ा समरक़ंद के मुआमले में अपने आपको नाकारा साबित किया था । बाबर का हुक्म ये था कि वो फ़ौरन बदख़शान जाये और उज़बेकों की सरकूबी करे जो दिन-ब-दिन ताक़त पकड़ रहे थे। हुमायूँ ने इस हुक्म के मुताबिक़ समरक़ंद पर चढ़ाई की और हिसार पर क़बज़ा भी कर लिया। मगर जब उस को अपनी माँ का ये पैग़ाम मिला कि बाबर हिन्दोस्तान का तख़्त अपने दामाद मुहम्मद मह्दी ख़्वाजा को देने वाला है तो वो झटपट बदख़शाँ से काबुल पहुंचा और अपने छोटे भाई हँदाल को जिसकी उम्र सिर्फ दस साल थी इस बात पर आमादा कर लिया कि वो उस की जगह चला जाये। जल्दी जल्दी ये काम करने के बाद हुमायूँ अपने बाप की इजाज़त लिए बग़ैर आगरे चला आया। बाबर को जब इस नामाक़ूल हरकत का इलम हुआ तो उसे बहुत तैश आया चुनांचे सज़ा के तौर पर उसने हुमायूँ को आगरे से सौ मील दूर संबल में नज़रबंद कर दिया । माहिम ने अपने बेटे को माफ़ कराने की बहुत कोशिश की मगर शहनशाह बाबर के नज़दीक हुमायूँ का वहां से चले जाना बहुत बड़ी ग़लती थी क्योंकि काबिल उस की ग़ैरमौजूदगी में हुकमरान के बग़ैर रह गया था ।
बाबर का अंदेशा सही साबित हुआ । हुमायूँ की ग़ैरमौजूदगी में सईद ख़ां नामी एक मंगोल सरदार ने बदख़शाँ में फ़ित्ना बरपा करने की ठान ली मगर बाबर की दहश्त एक-बार फिर काम आई । जब सईद ख़ां को मालूम हुआ कि शेर-ए-फ़र्ग़ाना ख़ुद उस की सरकूबी के लिए आ रहा है। तो वो फ़ौरन पनाह तालिब हुआ । इस सिलसिले में बाबर चार मार्च सन पंद्रह सौ तीस तक लाहौर में रहा यहां से जब वो दिल्ली में दो महीने शिकार खेलने के लिए आया तो उस की सेहत और ज़्यादा ख़राब हो गई। चुनांचे वो वापिस आगरे चला आया।)

माहिम: जहांपनाह । आपको मालूम है मेरा नसीरउद्दीन छः महीने से संबल में नज़रबंद है और ।
बाबर: उसने जो हमाक़त की थी ।
माहिम: जहांपनाह वो सख़्त बीमार है । ऩजरबंदी की हालत में उस की बीमारी दिन-ब-दिन बढ़ती चली जा रही है । और ! और । अब मैं जहांपनाह से किया अर्ज़ करूँ । मैं उस की माँ हूँ ।
बाबर: और ! और हम उस के बाप हैं ।
माहिम: मेरा लड़का एक सिरफ हुमायूँ है । आपकी और भी औलाद है । और फिर जहांपनाह की इतनी बड़ी रियाया है । वो दुख जो मुझे हो सकता है हिन्दोस्तान के बादशाह को नहीं हो सकता ।
बाबर: बाबर हिन्दोस्तान का बादशाह कम है हुमायूँ का बाप ज़्यादा है । तुम्हारी ममता का मुक़ाबला हम अपनी शफ़क़त से नहीं करना चाहते। मगर ये वाक़िया है कि हमारी सख़्तगीरी में हुमायूँ का मुस्तक़बिल पोशीदा है । हम उस की इस्लाह करना चाहते हैं । वो ग़ायत दर्जा बे परवाह और ग़ैर ज़िम्मेदार है। ऐसी तबीयत लेकर वो हिन्दोस्तान का तख़्त नहीं सँभाल सकता उस को जफ़ा कुशी सीखना चाहीए।
माहिम: जहांपनाह । छः महीने से वो ऩजरबंदी की ज़िल्लत बर्दाश्त कर रहा है । उतनी सज़ा क्या उस के लिए काफ़ी नहीं । वो यक़ीनन नादिम होगा । जहांपनाह मैं इल्तिजा करती हूँ कि उसे माफ़ कर दिया जाये ।वो बीमार है । ख़तरनाक तौर पर अलील है ।
बाबर: ख़ुदा उस को सेहत दे।
माहिम: तो उसे आगरा से बुलवा लीजीए । कनीज़ से जहांपनाह को जो मुहब्बत है इस में हुमायूँ से अपनी शफ़क़त को भी शामिल फ़र्मा लीजिए।
(जवाँ-साल शहज़ादा हुमायूँ को आगरे से एक पालकी में लाया गया । क्योंकि वो सख़्त बीमार था । बहुत ईलाज मुआलिजा हुआ। मगर कोई इफ़ाक़ा ना हुआ। आख़िर एक रोज़ । बाबर उस कमरे में दाख़िल हुआ । जहां उस की चहेती बेगम माहिम का लड़का हुमायूँ बिस्तर अलालत पर पड़ा था।)
बाबर: हुमायूँ । हुमायूँ बेटा।
(हुमायूँ बिस्तर पर ख़ामोश पड़ा रहता है )
बाबर: कुछ मुँह से बोलो बेटा । तुम्हारा बाप तुम्हारे पास खड़ा है ।
(हुमायूँ बेहोश पड़ा रहता है )
बाबर: तुम्हारी माँ ने मुझे ताना दिया था कि मैं अपनी ज़ात के सिवा और किसी से मुहब्बत नहीं करता । अपनी ज़ात के सिवा शहनशाह बाबर को और कोई अज़ीज़ नहीं । लो सुनो! । मेरी दुआ सुनो! ।(आवाज़ में दुआइया कैफ़ीयत पैदा हो जाती है )। ऐ ख़ुदा मैं सिदक़ दिल से दुआ करता हूँ कि मेरे बेटे हुमायूँ की बीमारी मुझे लग जाये और वो तंदरुस्त हो जाए और इस के बदले मैं अलील होजाऊं । ऐ ख़ुदा मेरी दुआ क़बूल कर और मेरी चहेती बेगम के लख़्त-ए-जिगर को हर आफ़त से महफ़ूज़ रख।
(ख़ुदा ने बाबर की दुआ क़बूल की । हुमायूँ सेहत याब हो गया और उस की जगह बाबर ख़तरनाक तौर पर बीमार हो गया ।
बाबर बिस्तर-ए-मृग पर पड़ा था उस की हड्डियां इन तमाम जंगों के बोझ के नीचे कड़कड़ा रही थीं जो वो अपनी ज़िंदगी में लड़ चुका था । आँखों में ग़नूदगी थी। दफ़्फ़ातन लाल रेशमी चादर में सरसराहाट पैदा हुई जो शहनशाह ने ओढ़ रखी थी। आँखें नीम-वा हुईं। बिस्तर के पास किसी को खड़ा देखकर बाबर के होंट खुले ।)
बाबर: (कमज़ोर आवाज़ में) । तुम यहां कब से खड़े हो।
हुमायूँ: जब से जहांपनाह ने मेरी हाज़िरी का हुक्म दिया था । एक घंटे से ।
बाबर: हमें याद नहीं कि हमने तुम्हें बुलाया था।
हुमायूँ: जहांपनाह क्या मुझसे डर गए थे।
(चंद लमहात के लिए बाबर बिलकुल ख़ामोश रहता है। फिर एक लंबा सांस लेता है )
बाबर: अगर ख़ुदा ने मेरे बाद तुम्हें तख़्त बख़्शा तो अपने भाईयों को हलाक ना करना । उनकी निगहदारी करना । बस अब जाओ हुमायूँ । जाओ मेरे बेटे जाओ
(छब्बीस दिसंबर सन पंद्रह सौ तीस को शहनशाह बाबर अपना आख़िरी इजलास करता है और हुमायूँ के हक़ में तख़्त से दस्त-बरदार हो जाता है । शेर-ए-फ़र्ग़ाना बिस्तर पर आख़िरी करवट बदलता है और खिड़की में से आगरे की तरफ़ देखता है ।हद-ए-नज़र तक बाबर को अपने लगाए हुए बाग़ात की हरियाली दिखाई देती है । इन दरख़्तों के अक़ब में मस्जिद का मीनार आसमान की तरफ़ सर उठाए नज़र आता है।)
बाबर: (एक लंबा सांस लेता है) । आगरा । आगरा । (थोड़ी देर ख़ामोशी तारी रहती है। फिर अज़ान की आवाज़ आती है । ये आवाज़ कभी उभरती है कभी डूबती है)
बाबर: (आख़िरी बार जब मोअज़्ज़िन अल्लाहु-अकबर कहता है । तो बाबर भी इस का साथ देता है)
अल्लाहु-अकबर । अल्लाहु-अकबर ।
बाबर बादशाह की रूह परवाज़ कर जाती है। उस की ख़ाहिश के मुताबिक़ उस को काबुल में दफ़न किया जाता है जिससे उस को नाक़ाबिल-ए-बयान मुहब्बत थी । उस की आख़िरी आरामगाह फ़व्वारों के पास है जिनका शफ़्फ़ाफ़ और मुज़्तरिब पानी उस की ज़िंदगी का नक़्शा पेश करता है।

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