बास (कहानी) : गुलज़ार

Baas (Hindi Story) : Gulzar

पार्टी वाला बोला : ''नौ साल तक लड़ लड़ के हमने, तूम लोगों के लिए ये कोलोनी बनवा के दी। तूम लोगों को झोंपड़पट्टी से निकाला, सिमेंट के पक्के घर बना के दिए हैं। और अब तुम बोलता है...डब्बे-बोतल में बंद कर दिया।''

मेरे घर वाला, हमेशा पार्टी वाले से बहस करता था : ''तू इसे बस्ती बोलता है। आदमीयों का गोदाम लगता है। सबको पार्सल में पैक कर के रख दिया है!''

मैं दांतों में दुपट्टा दबाये सब सुनती रहती हूं। मेरे को क्या लेना इन लोग की पालिटिक्स से? वो भी लगा रहता है। मेरा आदमी!

''अरे साला, दो बिल्डिंग के बीच में दो हाथ गाड़ी की जगह तो होनी चाहिए। इधार से जाता आदमी, उधार से आते आदमी से टकरा जाता है।''

''क्या बात करता है मैथ्यू : पुलिस का दो जीप गुज़र सकता है। तू नाप के देख ले।''

''अबे छोड़...दो चारपाई बिछा के ताश खैल सकता है क्या?''

''अब बम्बई की गलियां चारपाई बिछाने के लिए तो नहीं है, दोस्त!''

मैं भी सोचती हूं, सारा रंग-रूप ही बदल गया इस ज़मीन का। पहले आधा साल दलदल की तरह कीचड़ रहता था यहां। कुछ खाड़ी का पानी आ जाता था। और आधा साल सूखे कीचड़ की काली मट्टी उड़ती थी। नंग धड़ंग बच्चे, कुत्ते, कतुरे जानी की मुर्गियां और मुर्ग़े सब पल जाते थे। बच्चे, पिल्लों को रस्सी बांधा के घसीटते रहते थे। बड़े होते होते उन सब कुत्तों की गर्दनें लंबी हो जाती थीं।

सरकार ने अब इसकी आधी ज़मीन पर, सिमेंट की तीनमंज़िला पक्की बिल्डिंग बना दी हैं। और एक-एक मंज़िल पर चोबीस-चोबीस फ्लैट हैं। हर एक फ्लैट में एक कमरा, एक रसोईघर, जिसमें धुआँ ऊन के गोले की तरह लिपटा चला जाता है। एक नल ख़ना! और एक-एक बिल्डिंग में, हर मंज़िल पर दो पाखाने बना दिए हैं। ताकि पानी के डब्बे उठा कर दूर ना जाना पड़े। लाईन अब भी लगती है। लेकिन पहले ये लाईन खुले में लगती थीं। अब दीवार से लगे-लगे सीढ़ियां चढ़ जाती हैं।

जब ये बिल्डिंग बननी शुरू हुई थीं तो सारी झोंपड़ियां घसीट के, मैदान के एक तरफ़ रख दी गई थीं। जैसे ग़फ्फ़ार मंडी में अपनी ख़ाली टोकरियों का झोपड़ियां तो फिर भी काफ़ी सब्ज़ रहती थीं।

हमारी झोंपड़ी के सामने थोड़ी-सी खुली जगह थी, जहां संतोष ने करैले की बेल लगा दी थी। और खपचियों से बांध के दीवार सी खड़ी कर ली थी। उससे साथ की झोंपड़ी भी अलग हो गई थी। लेकिन बेल तो बेल ही थी। जहां साथ वाले को (पड़ोसी को) दो करैले लटकते नज़र आए, वहीं कपड़े धोने के बहाने बाल्टी पानी की रखी और मौक़ा पाते ही हाथ डालकर करैले चुरा लिए और पानी की बाल्टी में ही कपड़ों के नीचे रखके अंदर ले आए। चार आलू और 'तुलसी' तो थी ही जिस पर रोज़ शाम को दिए जल जाते थे। किसी को पता ही नहीं वो क्यों लगाई जाती है। बत्ती क्यों जलाते हैं। अमीना के यहां भी, करीमा के यहां भी, शान्ती और पूरो के यहां भी, सभी कहती थीं, ''जब भी बुढ़ा खांसे, मैं तो तुलसी डाल के काढ़ा पीला देती हूं।''...कद्दु की बेल तो झोंपड़ी की छत पर भी फैल जाती थी।

मगर आन्टी तो आन्टी है ना, उस ने भट्ठी लगा रखी थी छोटी सी। अपनी झोंपड़ी के पीछे, बख्शी की तरह नहीं। जिसने मैदान के एक कोने में जगह बना रखी थी। पन्द्रह-बीस रोज़ में एक ही बार भट्ठी चढ़ाता था। दारू के डरम भर के एक झग्गी में, महफ़ूज़ कर लिया करता था। जिस रोज़ उसकी भट्टी लगनी होती थी, उस रोज़ सुबह ही से कुछ हवलदार उसके घर की तरफ़ घूमते नज़र आने लगते थे। उसकी दो झोंपड़ियां और भी थीं। इज्ज्तदार लोग अंदर बैठ के पीते थे। और मामुली इज्ज्त वाले, जो ना ऊतरती थी, ना चढ़ती थी, वो बाहर बैठ कर ठर्रा पीते थे। और सामने प्लेट में रखा नमक चाटते रहते थे। लेकिन आंटी तो आंटी थी। वो बड़ी नफ़ासत से दारू बनाती थी। सड़े गले फल भी डालती थी। और 'नोसादर' तो बहुत ही कम! उसकी दारू में रंग भी होता था। लेकिन बोतल में भर के बेचती थी। ऊधर बैठ के कोई नहीं पीता था। और जो कोई ख़ाली बोतल साथ ले आए, एक रुपया बोतल का कम कर देती थी। उसके अपने बंधे हुए ग्राहक थे। वही आते थे और दस बजे के बाद कोई नहीं। फिर वो खुद पी के धुत्त हो जाती थी और बड़े का गोश्त खा के सो जाती थी। कोई जगा दे तो ऐसी झंकारती गालियां पढ़ती थीं कि सारी बस्ती में रस टपक जाता था।

अब तो वो भी दीवारों में बंद हो गई है। उसका तो गला ही घुट गया है। पहले वो इतनी अकेली नहीं लगती थी।

जानी भी कहता है, अब होटल की नौकरी चलती नहीं। उसकी मुर्ग़ीयां, कुछ बिक गईं, कुछ खा गए, कुछ मर गईं। अब दूसरे और तीसरे माले पर मुर्ग़ीयां कहां से पाले? ग़फ्फ़ार ने भी इस साल बकरा नहीं लिया। कुरबानी में अपनी बकरी काट डाली। कहता है, पहले खोल देते थे तो कचरापट्टी में अपना चारा ढूंढ लेती थी।

मेरा घर वाला भी पहले कुछ दोस्तों यारों को साथ ले आता था। झोंपड़ी के बाहर, चारपाई डाल के सब पीते थे। हुलड़ करते थे। और लो लुढ़क जाता था, रात वहीं पड़ जाता। सुबह डयूटी से पहले उठ के चला जाता। अब उसने भी दोस्तों को लाना छोड़ दिया। एक ही कमरे में सारे मरद और औरतें क्या करें? तब बच्चे फ़र्श पर पड़ रहते थे। मरद बाहर सो जाते थे। औरतें रात को पानी भर के, अपने-अपने मिमियाते बच्चों को छाती से लिपटा के सो जाती थीं। अब क्या करें? बड़े बच्चे आंखें फाड़े सब देखते रहते हैं।

मैं तो कई बार अपने मरद से कह चुकी हूं। ये भी साली कोई ज़न्दगी है? दरबों में बंद कर दिया है सरकार ने। पता है क्यों? ताकि ग़रीबी की बास बाहर ना जाए। चल मकान बेच के, कहीं और चलते हैं। किसी और झोंपड़पट्टी में जगह मिल जाएगी...!!

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