बाढ़ : सिक्किम की लोक-कथा

Baarh : Lok-Katha (Sikkim)

बात बहुत पहले की है, उस समय सिक्किम में केवल लेपचा समुदाय ही निवास करता था। उस समय एक भयानक तूफान आया, जो अपने साथ मूसलधार वर्षा साथ लेकर आया। तालाब, नदी, नाले, झरनों में पानी का स्तर बहुत बढ़ गया। जल का स्तर इतना ज्यादा बढ़ा कि बाढ़ की सी स्थिति बन गई। घर, गाँव में पानी जहाँ-तहाँ बहने लगा। ऐसे में भोले-भाले लेपचा जन बड़े भयभीत हुए और अपनी तथा अपने जान-माल की रक्षा के लिए उन्होंने तेंदोंग पर्वत को अपना आश्रय बनाया। बारिश रुकने का नाम नहीं ले रही थी। भूमि पर जल का स्तर बढ़ने से पेड़-पौधे, छोटे पहाड़, वर्षा के पानी में छिपकर अपना अस्तित्व खो रहे थे। जो लोग तेंदोंग पर्वत पर थे, उन्होंने अपने आसपास की स्थिति को देखा तो वे और ज्यादा भयग्रस्त हुए। दो पर्वत तेंदोंग और मोट्नोम को छोड़कर ऐसा कोई क्षेत्र अब नहीं था, जो जल से ढका नहीं था। वे दोनों पर्वत भाई-बहन थे। उन्होंने जल के स्तर के बढ़ने के साथ अपना कद बढ़ाना शुरू कर दिया था, ताकि उनके आश्रय में आए लोगों की सुरक्षा हो सके।

ऐसे ही जल का स्तर बना रहा। दोनों पर्वत अपने आश्रय में आए लोगों की रक्षा में मग्न थे। अचानक मोट्नोम का जी चाहा कि भाई तेंदोंग की ओर देखे, इसके लिए वह थोड़ा सा आगे की ओर झुका। झुकने से जल का स्तर उसकी चोटी को लाँघकर आगे बढ़ गया, जिसके कारण उस पर बैठे लोग पानी में डूब गए। तेंदोंग पर्वत पर बसे लोगों ने जब उनकी यह हालत देखी तो वे बहुत भयभीत हुए। बारिश रुकने की स्थिति में नहीं थी, भूमि में जल का स्तर उसी वेग से बढ़ रहा था। अपनी हालत भी ऐसे ही होने की आशंका से उनका हृदय काँप रहा था। ‘अब हम भी डूब जाएँगे!’ डर से सब हाहाकार करने लगे। अब बचने की कोई संभावना नहीं थी, ईश्वर का नाम ले-लेकर वे रोने लगे। अब उनके पास ईश्वर के सिवा दूसरा कोई उपाय नहीं था। उन्होंने पीड़ित अवस्था में याचना आरंभ की, “हे ईश्वर! यह तुम्हारी नाराजगी का प्रतीक है। तुम अपनी संतान से किस बात पर खफा हो, जिसके लिए उसके नाश पर तुले हो? हमारे ऊपर रहम करो। हमारी रक्षा करो।”

अपनी संतानों की आर्त पुकार से ईश्वर का हृदय द्रवित हुआ और उनकी रक्षा हेतु एक कबूतर को भेजा। जब लेपचा जन ने उसे देखा तो वे समझ गए कि यह ईश्वर का भेजा हुआ है। उनमें आशा जगी कि अब उन्हें कुछ नहीं हो सकता। कबूतर शांति का दूत है, वहीं वह ईश्वर की दया-कृपा का प्रतीक भी है। कबूतर क्षमा और आशा का संदेश लेकर उनके समक्ष आया था। लेपचा जन के हृदय में आशा का संचार होने लगा। कबूतर पर्वत की चोटी पर चढ़कर नीचे लोगों को देखने लगा। पर्वत पर चढ़े लोगों ने ईश्वर के उस दूत को नमन किया और प्रार्थना की। उन्हें पारंपरिक तरीके से निर्मित ची (शराब) पिलाया, जिसको पीकर कबूतर की प्यास जगी। प्यास से बेहाल कबूतर ने जल पीना शुरू किया, जिससे जल का स्तर धीरे-धीरे घटने लगा। कुछ समय बाद लोगों को, अपने घर-बार, जमीन, खेत आदि दिखाई देने लगे। स्थिति को सामान्य होने में सप्ताह भर का समय लगा। तब से अपने रक्षक की भूमिका में आए तेंदोंग पर लेपचा जन बहुत श्रद्धा रखते हैं। तेंदोंग ने अपने डूबते मोट्नोम को देखकर भी स्थिर चित्त रहकर लोगों की रक्षा के भाव को ज्यादा श्रेय दिया, जिसके प्रति लेपचा जन उनके सदैव ऋणी हैं।

हर साल वे तेंदोंग की पूजा करते हैं। कहा जाता है, तेंदोंग से आसानी से मोट्नोम को कभी भी, किसी भी ऋतु में आसानी से देख सकते हैं, जो हमेशा काले बादलों से ढका हुआ रहता है। लेपचाओं की मान्यता है कि आज भी वे मोट्नोम की चोटी से डूबे लोगों की आर्त कराहों को सुन सकते हैं, जो बाढ़ के समय मोट्नोम की चोटी से गिरकर जान गँवा बैठे थे। वे आज भी ईश्वर के दूत को नहीं भूले हैं, जिसके आने से उनका जीवन बचा था। आज भी तेंदोंग पर्वत और कबूतर की पूजा प्रत्येक लेपचा करते हैं। वे उनकी आस्था में अहम जगह बनाए हुए हैं। वे उनकी पूजा-अर्चना कर उनके प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं।

(साभार : डॉ. चुकी भूटिया)

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