बाहम (कहानी) : सलाम बिन रज़्जाक़
Baaham (Story in Hindi) : Salam Bin Razzaq
कनीज़ छोटे-छोटे क़दम उठाती चल रही थी। धूप से बचने के लिए उसने पल्लू को सर और गर्दन के गिर्द लपेट लिया था। इसके बावजूद गर्मी से उसका चेहरा तमतमा रहा था। वो बाएं तरफ़ हट कर एक पुरानी शिकस्ता बिल्डिंग के साये में चलने लगी। बिल्डिंग की दीवार पर कुछ पोस्टर चिपके हुए थे। जो अब कहीं-कहीं से फट चुके थे। इन पोस्टरों को वो आते-जाते पहले भी कई बार देख चुकी थी। पोस्टरों में राम, सीता और लक्ष्मण की तस्वीरें बनी थीं और उनकी पेशानी पर ‘जय श्री राम’ लिखा हुआ था।
इतने में उसे कल्लू की दुकान का बोर्ड नज़र आ गया। “हिन्दोस्तान मटन शाप।”
कनीज़ एक हाथ से पन्ना पल्लू सँभालती हुई दूकान में दाख़िल हो गई।
कनीज़ को देखते ही कल्लू क़साई ने हाँक लगाई।
“अरे कनीज़ तू?.... आ जा.... आ जा....”
फिर उसके सीने तक उभरे हुए पेट की तरफ़ देखकर बोला।
“मगर तू इस हाल में क्यों चली आई.... ग़ुलाम कहाँ है?”
“वो काम पर गये हैं...”
“अरे चाली मुहल्ले में लड़के बाले मर गये हैं क्या? किसी लौंडे को भेज देती...”
“कोई दिखाई नहीं दिया...”
“मगर तुझे इस हाल में ज़्यादा चलना फिरना नहीं चाहिए...”
“नहीं कल्लू भय्या! डाक्टर ऐसे में ज़्यादा चलने फिरने को बोलते हैं।” उसने क़दरे शर्माते हुए नज़रें झुका लीं।
“अच्छा... अच्छा.... चल बोल क्या चाहिए...”
“पाव किलो क़ीमा चाहिए....”
“अच्छा इधर फलाट पर बैठ जा। अभी तौल देता हूँ।”
“नहीं। मैं ठीक हूँ.... तुम देदो...”
कल्लू के सामने किलो डेढ़ कालों कुटा हुआ क़ीमा रखा था। उसने इसी में से मुट्ठी भर क़ीमा तराज़ू में डाल कर पाव किलो क़ीमा तौल दिया। कुंदे पर पड़े गोश्त के लोथड़े में से एक कुरकुरी हड्डी छांटी और क़ीमे में डाल दी। और क़ीमा पोलीथीन की थैली में डालता हुआ बोला....
“ले।”
कनीज़ ने हथेली ले ली और मुट्ठी में दबे हुए पैसे कल्लू की तरफ़ बढ़ा दिये।
“रहने दे मैं ग़ुलाम से ले लूँगा।”
“वही दे गये हैं।”
“अच्छा ला।”
कल्लू ने पैसे लेकर गले में डाल दिये.... कनीज़ जाने के लिए मुड़ी तो बोला, “रुक जा... ये ले एक गुर्दा रखा है....ये भी लेती जा।”
उसने गुर्दे के चार टुकड़े कर दिए।
“नहीं कल्लू भय्या.... मैं इतने पैसे नहीं लाई थी...”
“पैसे की बात कौन करता है.... ले हमारी तरफ़ से खा ले...”
“नहीं... नहीं चाहिए।”
“अरे ये गुर्दा हम तुझे थोड़ी दे रहे हैं। ये तो हमारे होने वाले भतीजे के लिए है... ले-ले...”
कल्लू ने शरारत से मुस्कुराते हुए उसके उभरे पेट की तरफ़ एक उचटती सी निगाह डाली।
“तुम बहुत ख़राब हो... कल्लू भय्या।”
कनीज़ का चेहरा शर्म से सुर्ख़ हो गया।
“अब ख़राब क्या और अच्छे क्या। जैसे भी हैं तेरे जेठ हैं।”
कनीज़ ने झिजकते हुए थैली आगे बढ़ाई और कल्लू ने गुर्दा थैली में डाल दिया।
“अच्छा चलती हूँ।” कनीज़ जाने के लिए मुड़ी।
दुकान के एक कोने में ज़बह किया हुआ बकरा टंगा था जिसे एक छोकरा छील रहा था। बकरा पूरा छीला जा चुका था। छोकरे ने छुरी से बकरे का पेट चीर दिया “बक़” से एक बड़ी ओझड़ी बाहर निकल आई। कनीज़ ने एक झुरझुरी सी ली और झट से मुँह फेर लिया और दरवाज़े की तरफ़ बढ़ गई। कल्लू क़साई उसे दरवाज़े से बाहर निकलते हुए देखता रहा। कनीज़ धीरे-धीरे घिसटते हुए क़दम उठा रही थी। पेट के उभर जाने से उसकी कमर पुश्त की जानिब दोहरी हो गई थी। और गर्दन पीछे को तन गई थी। साफ़ लगता था कि उसे चलने में काफ़ी दिक़्क़त हो रही है। उसका दुपट्टा सर से ढलक कर गर्दन में झूल रहा था। और चोटी किसी मरी हुई छछूंदरी की तरह पुश्त पर लटक रही थी। उसने मैक्सी पहन रखी थी इसलिए उसके डील-डौल का सही अंदाज़ लगाना मुश्किल था। लेकिन मैक्सी की आस्तीनों से झाँकती हुई बाँहों से लगता था बस औसत दर्जे की सेहत है उसकी। न बहुत अच्छी न बहुत ख़राब।
कल्लू उसे दरवाज़े से निकल कर सड़क पर पहुंचे तक देखता रहा। फिर एक ठंडी सांस खींच कर बोला, “कैसी छोकरी थी कैसी हो गई।” उसके लहजे में तास्सुफ़ था।