बागी की बेटी : गुरमुखसिंह मुसाफिर

Baagi Ki Beti : Gurmukh Singh Musafir

किशनसिंह ने पुलिस को देखते ही कह तो दिया, "लो खालसा तैयार-वर-तैयार हैं," लेकिन उसका चेहरा उसके दिल के डर को छिपा न पाया।

"यदि देर हो गई तो रात उन्हें थाने की हवालात में काटनी पड़ेगी। जेल और थाने के हवालात के अंतर से तो तुम परिचित ही हो।" पुलिस इंस्पेक्टर की यह बात सुनकर किशनसिंह ने कहा, "मेरे लिए एक ही बात है। थानों की हवालातों में भी तो भरपूर पसलियाँ घिसाई हैं।"
"नहीं-नहीं, मेरा मतलब...।"
किशनसिंह ने बीच में ही कहा, "तुम्हारा अभिप्राय जल्दी से है न? चलो, मेरी ओर से कोई ढील नहीं।"

मुँह से तो किशनसिंह ने ये बातें कीं, कर दीं, मगर उसका मन कहीं और था। यों प्रतीत होता है, मानो उसकी कोई चीज खो गई हो। जेल जाने से पहले वह मिल जाए तो सही तसल्ली के साथ इस सफर में पड़ सकता है। इस ओर चल सकता है।
"सरन!" किशनसिंह ने अपनी पत्नी को बुलाया।
"भराजी, भरजाई तो मीटिंग में गई हुई है।" अंदर से किशनसिंह की बहन वीराँवाली ने उत्तर दिया।
इंस्पेक्टर के कान खड़े हो गए। किशनसिंह ने कहा, "वीराँ! लाज के बुखार-वाला कागज तो ला।"

वीराँवाली ने कागज किशनसिंह के हाथ में पकड़ाते हुए कहा, "भरजाई जाते समय कह रही थी कि अभी 102 है, यदि बढ़ जाए तो बर्फ की पट्टी रखना।"

किशनसिंह पहली बार तो जेल जा नहीं रहा। इंस्पेक्टर उसके दृढ निश्चय से बखूबी परिचित है। इंस्पेक्टर को किशनसिंह की मामूली परेशानी का कारण भी अब मालूम हो गया है। मीटिंग का शब्द इंस्पेक्टर के कानों में काँच के टुकड़े सा बज उठा। साइकिल पर लात लगाते ही उसने अपने सिपाहियों को आँख के संकेत से कुछ समझाया और फिर किशनसिंह से कहा, "सरदारजी, भले आराम से तैयारी करो, मैं आ रहा हूँ।"

इंस्पेक्टर सड़क के पार सामने कारखाने के बड़े दरवाजे में से भीतर चला गया। बैठे सिपाहियों में से एक ने कहा, "इंस्पेक्टर साहिब शायद कहीं टेलीफोन करने गए हैं।"

वीराँवाली की आँखों से स्रोत फूटने को ही था। किशनसिंह की कुछ गुस्सैली संकेत-मुद्रा को पहचानकर वह लाज की खाट के पीछे पड़ी चौकी पर बैठ गई। किशनसिंह ने अपनी उँगलियों के साथ लाज के केशों (बालों) को ठीक करते हुए कहा, "बेटी, अब तो तुम ठीक हो। आज तो बुखार कम है, कल शायद टूट जाए। यदि तुम्हें बुखार न होता तो अब तक मैं जेल जा चुका होता। साथी तो सभी जा चुके हैं!"
लाडो लाज ने मद्धम-सी आवाज में कहा, "पिताजी, मैं एक कमजोर लड़की हूँ न, जिसने आपके भले काम में रुकावट डाली है।"

"नहीं, मेरी लाज बेटी, तेरा इसमें क्या दोष है। बुखार कोई तुम्हारे हाथ की बात तो नहीं है। तुम्हें इस तरह छोड़कर जाने का तो मेरा पहले मन ही नहीं, साहस ही नहीं। जिस दिन बंबई में हमारे नेता पकड़े गए थे, उस दिन मैं उन्हें बधाई देनेवाले प्रस्ताव पर पाँचेक मिनट बोला था। फिर मैं तुम्हारी दवाई-दारू में लगा रहा। कहीं बाहर जाने का समय ही नहीं मिला। वैसे भी पहले लीडरों को ही पकड़ेंगे। हमारी, सेवकों की बारी बाद में ही आएगी, लेकिन हमें फर्क ही क्या पड़ता है, भले अभी पकड़ लें।"
'किशनसिंह के मुँह से ये शब्द अभी निकले ही थे कि लाज ने साथ ही कह दिया, "भले पकड़ लें।"

किशनसिंह अपनी इकलौती लाड़ली से जैसे-जैसे बातें करता गया, उसका मन हल्का होता गया। अब वह बेसब्री से सरनकौर की प्रतीक्षा में था। बरामदे की ओर देखकर वह संतुष्ट हो जाता है कि इंस्पेक्टर भी अभी नहीं लौटा।

पास बैठी वीराँवाली पहले तो आँखें भर आने के भय से नहीं बोलती थी, लेकिन अब उसे भी कुछ साहस सा हो गया। उसने कहा, "लाज! यदि तेरे पिताजी पकड़ लिये गए तो तुम्हारी दवाई कौन करेगा। तू उदास तो न हो जाएगी?"

"बुआजी, दवा-दारू के लिए मेरे पास माताजी हैं। बाकी जो उदासी की बात है, मैं तो इस बार ठीक होकर खुद जेल जाना चाहती हूँ।" लाज की बात सुनकर वीराँवाली की अनियंत्रित हँसी निकल गई।
लाज ने कहा, "नहीं बुआजी, हँसी की बात नहीं। अपने देश के लिए जेल जाना कोई बुरी बात तो नहीं। मैं इस बार जरूर जाऊँगी।"

"लाज! तू तो अभी बारह साल की भी नहीं हुई!" बुआ की बात सुनकर लाज ने कहा, “पिताजी! सुन लो बात बुआजी की। जान पड़ता है, बुआजी कभी गुरुद्वारे नहीं गए। इन्होंने कभी कथा नहीं सुनी। पिताजी, बुआजी को बताना, साहिबजादों की उम्र कितनी थी भला! वे तो इस आयु में शहीद हो गए थे। मैं जेल भी नहीं जा सकती!"

वीराँवाली की तो बात ही क्या, अब तो किशनसिंह की आँखें भी अनियंत्रित हो गई। ये तसल्ली भरे खुशी के आँसू थे। किशनसिंह ने लाज के सिरहाने से चाबियाँ उठाई। सामानवाले कमरे में ही उसने कपड़े बदले और फिर लाज के पास आ गया। लाज के इस प्रश्न पर कि 'पिताजी, इस समय कपड़े क्यों बदल लिये, कहीं जा रहे हो?' किशनसिंह का बड़ा काम आसान हो गया। किशनसिंह को अब यही चिंता थी कि अपने अभी गिरफ्तार होने की खबर बीमार लाज से वह किन शब्दों में कहे। वीराँवाली की विशेष बेचैनी ने भी बहुत कुछ प्रकट कर दिया। किशनसिंह ने शब्दार्थ की पोथियाँ और नित्य नेम का गुटका लाज के कमरे में ही अलमारी में से निकालकर अपने छोटे से बक्से में रख लिया। बरामदे में जूतों की पदचाप भरी। किशनसिंह ने ताप में सुलग रहे लाज के माथे को चूमा। 'मेरी लाज' का भावपूर्ण शब्द उसके मुंह से निकला। उसकी आँखों में जमे मोती एक बार फिर पिघल पड़े। अनजान लाज ने खूब सियानी आवाज में कहा, "पिताजी, मेरी चिंता न करें।"

घर के गलीवाले दरवाजे में से एक नौजवान भीतर आया और पुलिस की आँख बचाकर उसने किशनसिंह के कान में कोई बात की। युवक लौट गया। किशनसिंह के चेहरे पर फिर गहरी गंभीरता छा गई। इसी अवस्था में वीराँवली को लाज के संबंध में कुछ बातें समझाकर पुलिस के साथ ताँगे में बैठ गया।

शहर कोतवाली में टेलीफोन की घंटी बजते ही गार्ड को तैयार होने का हुकुम तो हो गया, लेकिन चलने का आदेश एक घंटे की प्रतीक्षा के बाद मिला। छोटे बाजार के साथ लगती पुरानी हवेली पर ज्यों ही पुलिस ने घेरा डाला, हवेली के बाएँ नुक्कड़वाले कमरे के गली में खुलनेवाले दरवाजे में से एक खद्दरपोश महिला दौड़कर बाहर आई। इसके हाथ में एक राष्ट्रीय झंडा और गातरेवाली किरपाण थी, तुरंत इसके पीछे-पीछे कौमी नारे लगाती खद्दर की साड़ीवाली अन्य भी अनेक महिलाएँ निकल आई। गली के द्वार पर खड़ा सिपाही देखता ही रह गया और ये बीबियाँ बाजार में पहुच गई। 'भारत माता दी जय' के नारों के साथ आसमान गूंजने लगा। थोड़ी देर में ही इतनी भीड़ हो गई कि छोटे बाजार का रास्ता ही बंद हो गया। कौमी झंडेवाली बीबी ने झंडा ऊपर उठाते हुए कहा, 'कौमी झंडा!' उत्तर में लोगों ने कहा, 'सदा उच्चा रहे!' एक पुलिसवाले ने आगे बढ़कर झंडा छीनने की कोशिश की। झंडेवाली बीबी आगे बढ़ती जा रही थी।

पुलिसवाले का हाथ 'गातरे वाली किरपाण' पर जा पड़ा। धू-घड़ीस (खींचतान) में मियान उतर गई और पुलिसकर्मी के हाथ पर खरोंच उभर आई। थोड़ा खून भी बहने लगा। पुलिस ने हड़बड़ी में लाठीचार्ज किया। बहुत सी भीड़ बिखर भी गई, मगर झंडेवाली बीबी ने कौमी झंडे को दोनों हाथों में कसकर थाम लिया और एक दुकान के सामने तख्त पर धरना देकर बैठ गई। बाकी बीबियाँ भी जमीन पर बैठ गई। भीड़ के बिखरने पर पुलिस गार्ड-इनचार्ज ने पहले पूरे रौब से और फिर नरमाई के साथ झंडा लेने की कोशिश की, पर बीबी के गहरे विश्वास के सम्मुख उसकी एक नहीं चल पाई। बीबी ने कहा, "यह झंडा हमारी जान के साथ ही जाएगा।"

आखिर बीबियों के पूरे जत्थे को गिरफ्तार करके ताँगों में बिठा लिया गया। जेल के दरवाजे पर आकर फिर झंडे का झगड़ा शुरू हुआ। बीबियाँ कहती थीं कि हम जेल की बैरक पर लगाने के लिए कौमी झंडा अंदर साथ ले जाएँगी। यह झगड़ा हो ही रहा था कि किशनसिंह को भी लेकर पुलिस जेल-द्वार तक आ गई। बीबियों के जत्थे में झंडा हाथ में थामे बैठी पत्नी सरनकौर को देखकर किशनसिंह को कोई हैरानी नहीं हुई। यों लगा कि पहले से ही किशनसिंह को इस घटना की खबर थी। किशनसिंह ने बीबियों को समझाया, "तुम लोगों ने झंडे के प्रति अपना पर्याप्त विश्वास व्यक्त कर दिया है। छूट की हालत में तुमने इसकी बेअदबी नहीं होने दी। अब तुम कैद हो। यदि एक बार तुने बैरक पर झंडा लगा भी लिया तो जेल कर्मचारी तुम्हें बैरक के भीतर बंद करके झंडा फाड़ देंगे। इसलिए इसका कोई लाभ नहीं।"

आखिर फैसला हुआ कि झंडे को बाअदब कांग्रेस दफ्तर में पहुँचा दिया जाए। जेल में दाखिल होकर सरनकौर ने अपने पति से लाज के बारे में जानकारी ली, लेकिन कोई उत्तर सुनने से पहले ही जनाना-बार्डर का द्वार खुलकर बंद हो गया।

बड़ा घोर तप और माँ-बाप की गिरफ्तारी से सब दुःख और देशसेवा के लिए जेलयात्रा की प्रबल इच्छा जाग्रत् हो उठी। लाज कुछ दिनों में ही चलने-फिरने योग्य हो उठी। बुआ ने लाज की देखभाल में कोई कसर नहीं रखी। लाज को उठवाकर वह घर ले गई थी।

वीराँवाली के पति जमादार हुशनाकसिंह को अपने साले और सलहज की गिरफ्तारी की खबर गाड़ी में ही किसी यात्री से मिली, जब वह घर छुट्टी पर आ रहा था। छावनी में कोई अखबार तो जाता नहीं था। हुशनाकसिंह का ताँगा जब द्वार पर पहुँचा तो लाज दरवाजे में खड़ी थी। उसने पहले फूफाजी के आने की खबर बुआ को अंदर जाकर दी। फिर लौटकर ताँगे में से उतर रहे फूफा के वह गले लग गई। वीराँवाली ने पहले दरवाजे पर आकर अपने पति को सत्श्री अकाल कहा। फिर तुरंत अंदर आकर शीशे के सामने अपने बाल बाँधे, सँवारे, ठीक किए। दुपट्टा बदला और भरपूर चाव में वापस बाहर आकर सामान सँभालने लगी। लाज भी छोटीछोटी चीजें सँभालने में अपनी बुआ की मदद करने लगी। पड़ोस में से सज्जन-मित्तर हुशनाकसिंह को पूछने, खोजने आए। वीराँवाली को चूल्हे पर चाय रखकर, पड़ोसियों के लौट जाने पर अपने पति की कुशल-क्षेम पूछने का मौका मिला। उसने चाय में मीठा मिलाते पूछा, "जी, बल राजीबाजी रहे ओ?"

"अगे तां वल्ल (चंगे) ही रहे हाँ, पर मलूम हुंदा ऐ तू वल्ल रहिण नहीं देणा।" वीराँवाली को ऐसे ही उत्तर की आशा थी। वह अपने पति के चेहरे से उनके मन की अवस्था को तो पढ़ चुकी थी, लेकिन नाराजगी के कारण की पूरी समझ उसे अभी नहीं आई थी। वीराँवाली ने बात यहीं दबा दी। हुशनाकसिंह ने न-नुच करते हुए चाय की प्याली ले ली। रात की रोटी तक वीराँवाली ने कोई बात छिड़ने का मौका ही नहीं दिया। हुशनाकसिंह ने भरे पिए ही दो रोटियाँ नीचे हलक से उतारी। वीराँवाली ने तो खाना ही क्या था, रात के कपड़े पहनकर हुशनाकसिंह लेट गया। वीराँवाली लाज को रोटी खिला, भांडे-बरतन सँभालकर टाँगें दबाने के बहाने अपने पति के पास खाट पर बैठ गई। दस-पंद्रह मिनट दोनों ओर खामोशी रही।

हुशनाकसिंह ने करवट ली, यों उबासी ली, मानो वह पहले सो गया था और अभी उसे वीराँवाली के पास बैठी हुई होने का पता चला है। वीराँवाली ने कहा, "जी ऐधर मुँह तो करो, तुहानू ते जग रखणा वी नहीं औंदा। उडीक-उडीक के साडीआ अक्खां वी पक्क गईआं ने ते एहसिद्दे मुँह गल्ल वी नहीं करदे। छुट्टी कितनी मिली जे?"

हुशनाकसिंह ने पुनः करवट ली और आँखों पर हाथ टिकाकर कहने लगा, "तुम अब लंबी छुट्टी ही समझो। तुम्हें सुख पचता नहीं। अभी तरक्की के दिन थे, लेकिन तुम मुझे कुछ बनने नहीं दोगी।" "जी, गल्ल ते दस्सो।"

"गल्ल क्या बताऊँ? मालूम नहीं कि आजकल लड़ाई के दिन हैं। किसी सैनिक के बागियों के साथ मेलजोल को सरकार पसंद नहीं करती। पहले तो सरकार को पता ही नहीं लगने देना चाहिए कि कोई बागी (क्रांतिकारी) हमारे संबंधी भी हैं। यदि पता चल ही जाए तो हम कह सकते हैं कि वे हमारे कहने से बाहर हैं, लेकिन तूने यह बला जानबूझकर क्यों अपने गले डाल ली? बागी की बेटी को घर रखना। तू जानती नहीं कितना बड़ा जुर्म है।"

अपने पति की बात सुनकर वीराँवाली को कँपकँपी सी आ गई। उसे यह खयाल भी नहीं था कि लाज को इस अवस्था में यहाँ लाना उसके पति के लिए इतना ज्यादा दुःखदायी हो सकता है। उसकी जान पसीना छोड़ने लगी। हशनाकसिंह ने पुनः दाँत पीसते हुए कहा, "तुम इस लड़की को मेरे घर में क्यों लाई?"

वीराँवाली ने भरे मन से पूरी व्यथा यों कह सुनाई, ज्यों कोई पुजारिन देवी से किसी मनौती का तरला ले रही हो। लेकिन तुरंत उसे अनुभव हुआ कि पतिदेव तो पत्थर की मूर्ति हैं। उसके मन में पति के छुट्टी आने की कित्ती उमंगें थी। उसके सारे अरमान बिखरकर उसकी आँखों के सामने परछाई से बनकर बुझ गए, पायताने लेटे ही उसने रात गुजार दी। आँसुओं के मूल्यवान मोतियों की सौगात। लेकिन पत्थर की प्रतिमा में कोई अनुभूति ही नहीं। पति ने वीराँवाली को भी अपने अपराधी होने का संदेह सा डाल दिया। घबराया हुआ आदमी अपनी घबराहट के कारण को छिपाने के जो साधन उपयोग करता है, वे उसकी घबराहट को ज्यादा अभिव्यक्त ही करते हैं। सज्जनों-मित्तरों तक बात पहुँच गई। सयानों की दलीलें-मिसालें हुशनाकसिंह को कायल न करवा सकीं कि तुम्हारे साले और सलहज की जिम्मेदारी किसी तरह भी तुम पर नहीं आती। लाज को अपने पास रखना वह अपनी सब आशाओं की समाप्ति का प्रमाण-परवाना समझता था। अधिक नहीं तो सूबेदार मेजर तो वह इसी जंग में हो जाता। लाज के कानों तक भी कोई-न-कोई बात पहुँचती ही रही।

छुट्टी पूरी हो गई। हुशनाकसिंह ने ताँगा दरवाजे पर ला खड़ा किया। वीराँवाली को बाँह से खींचकर ताँगे में बिठाया और मकान की चाबियाँ जेब में डाल लीं। दरवाजे में लड़कियों संग खेलती लाज ताँगे में बैठी बुआ की ओर तथा बुआ आँसू भरी आँखों के साथ लाज की तरफ देख रही थी। ताँगा नजर से ओझल हो गया।
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"भराजी लाज दा की बणियाँ!"
"वीराँ, असी ताँ तेरे पास अमानत छड्ड आए साँ।" मुलाकात करवानेवाले अधिकारी ने समय समाप्त होने की घंटी बजाई। दोनों बहन-भाई एक-दूसरे को खामोशी में देखते हुए अलग हो गए। माँ-बाप जायी के साथ यह अंतिम भेंट है, किशनसिंह को इस बात का क्या पता था।

जेलों में कैदियों का आना-जाना लगा रहता है। किशनसिंह को यह तो पता चल चुका है कि शव अब लाहौर के टी.बी. अस्पताल में है, लेकिन वीराँवाली उससे भी कठोर कैद में है। किशनसिंह को यह बात किसी ने नहीं बताई थी। छावनी में तो पंछी पंख नहीं खोल सकता था। बागी भरा-भरजाई और क्रांतिकारियों की बेटी के बारे में वीराँवाली को कौन खबर देता! वीराँवाली जेल तक मुलाकात के लिए कैसे पहुँच गई, इस भेद का आज तक किसी को पता नहीं चल सका। उसने अपनी जान खतरे में डाली। अपने पति हुशनाकसिंह से यह भेद छिपाने में उसे सफलता मिली। लेकिन भराजी की अमानत में मजबूरी खयानत हो जाने का सदमा वह नहीं सह पाई। हुशनाकसिंह ने असल रोग की ओर तो ध्यान नहीं दिया। दवाएँ फिर क्या सँवारती?
सरनकौर की कैद पूरी हो गई। वीराँवाली ने अमानत में खयानत की दोषधारी होकर भरजाई के सामने पेश होने से पहले ही सदा के लिए रिहाई प्राप्त कर ली।
सरनकौर सीधी अस्पताल में पहुँची। बड़ा दरवाजा बंद था। दरबान ने कहा, "यह मरीजों के आराम का समय है। इस समय अंदर जाना मना है।"

दरवाजे के बाएँ नुक्कड़ में भंगियों का घर था। नेगानी, अपरिचित खद्दरपोश जनानी को देखकर जमादारिन पास आ गई। उसने पूछा, "आपने किससे मिलना है?"

सरन कौर चाहती ही थी कि उस पर कोई सवाल करे। उसने कहा, "मेरी बेटी यहाँ बीमार है, लाज।"
जमादारिन ने वार्ड और कमरे का नंबर पूछा और साथ ही कहा, "हमने तो इस नाम की कोई बीमार नहीं सुनी। मैं प्रतिदिन हरेक वार्ड में सफाई के लिए जाती हूँ।" सरन कौर ने कहा, "मुझे वार्ड का तो पता नहीं। न कमरे का नंबर ही मालूम है। सुना है कि मेरी लाज इस अस्पताल में है।"

"सुना है। आपने उसे यहाँ दाखिल नहीं करवाया था?" जमादारिन ने हैरान होकर पूछा। "नहीं। हम जेल में थे, पीछे वह बीमार हो गई।" "ओह, बागी की बेटी होगी।" जेल का नाम सुनकर जमादारिन ने कहा, यहाँ उसे लाज नाम से कोई नहीं जानता। पतली, गोरी-सी, बारह-तेरह साल की छोकरी है। बहुत मीठी बातें करती है। उसकी बातें सुनकर कभी हँसी आ जाती है, तो कभी रोना। वह अपनी बुआ के पास थी?"
सरनकौर ने 'हाँ' में सिर हिलाया, स्वीकारोक्ति दी।

"बस, वही है। जब वह पहले यहाँ आई तो उसने किसी लड़की से पूछा, बागी किसे कहते हैं? और फिर खुद ही बताया कि मेरा फूफा मेरी बुआ से कहता था-तुम बागियों की 'धी' को क्यों घर लाई हो? उसी दिन से उसका नाम बागी की बेटी हो गया। जब भी डॉक्टर आता है, वह कहती है, मुझे मेरे माता-पिता के पास जेल में ले चलो। डॉक्टर हँस देता है।"

जमादारिन की बात को सरनकौर बुत्त बनी सुनती रही। जमादारिन ने पूछा, "सरदारजी नहीं आए?"
"उनकी कैद अभी आधी भी नहीं गुजरी। उन्हें तीन साल की कैद मिली थी।"

सरन कौर की बात सुनकर जमादारिन ने ठंडी साँस ली और कहा, "बेटी बहुत सयानी है। बताती है कि मेरा फूफा बुआ को लेकर चला गया। मैं बाहर दरवाजे पर बैठी दहलीज में ही सो गई। सर्दी के कारण मुझे बुखार हो गया। फिर मेरे पिताजी का एक दोस्त मुझे अपने घर ले गया। जब मैं बहुत बीमार हो गई तो वे यहाँ छोड़ गए। मैंने बहुत कहा, मुझे जेल ले चलो, लेकिन वे नहीं ले जा पाए।" इतनी बात सुनाकर जमादारिन ने कहा, "अब तो बस, वह आप ही की प्रतीक्षा में है।"

जमादारिन के आखिरी वाक्य का भाव सरन कौर समझ गई थी। लाज के कमरे में पहुँचने तक उसके आँसू बह चुके थे।

अपनी माँ को देखकर लाज की आँखें खुली की खुली रह गई। सुबह के दीपक की यह आखरी झलक थी।

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