आज़ादी का शताब्दी-समारोह (कहानी) : भीष्म साहनी
Azadi Ka Shatabdi Samaroh (Hindi Story) : Bhisham Sahni
[सन् 2047. आज़ादी के शताब्दी-समारोह की तैयारियाँ. सत्तारूढ़ पार्टी इस अवसर पर उपलब्धियों का घोषणा-पत्र तैयार कर रही है. सदस्यों की बैठक में आधार-पत्र पर विचार किया जा रहा है.]
[संयोजक हाथ में आधार-पत्र उठाए हुए मेज़ के पीछे खड़े हैं.]
संयोजक : इस अवसर से पूरा-पूरा लाभ उठाते हुए हमें अपनी उपलब्धियों का विशेष रूप से प्रचार-प्रसार करना होगा. मैं सबसे पहले कुछेक सांस्कृतिक उपलब्धियों की चर्चा करना चाहूँगा.
आज़ादी के बाद की पहली अर्द्धशताब्दी में केवल तीन प्रमुख शहरों के नाम बदले गए थे- बम्बई, मद्रास आदि। कुछ के केवल हिज्जे बदले गए थे, जैसे- कानपुर. उनके हिज्जों में से अंग्रेजि़यत निकाल दी गई थी. आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि उसके बाद अर्द्धशताब्दी में सत्रह नगरों के नामों का भारतीय-करण किया गया है, जैसे- दिल्ली का हस्तिनापुर, पटना का पाटलिपुत्र, आदि.
[तालियों की गड़गड़ाहट]
एक सदस्य : माफ़ कीजिए, यह कोई उपलब्धि नहीं है. यह मात्र काग़ज़ी कार्रवाई है.
संयोजक: मुझे यह देखकर बड़ा दु:ख होता है, जब हमारी ही पार्टी के सदस्य इसे काग़ज़ी कार्रवाई कहते हैं. क्या नामों का भारतीयकरण मात्र काग़ज़ी कार्रवाई है? (गर्मजोशी से) हम पूर्वजों का मज़ाक नहीं उड़ा सकते.
सदस्य: आप देश की अर्थव्यवस्था की बात करें, बढ़ती आबादी की बात करें....
संयोजक: इन बातों की भी चर्चा होगी. मैंने सोचा, आरम्भ में सांस्कृतिक उपलब्धियों की चर्चा की जाए.
सदस्य: नहीं-नहीं, आप मुख्य मुद्दों पर आइए.
[संयोजक आधार-पत्र के पन्ने पलटता है.]
संयोजक: पचास साल पहले जब आज़ादी की पचासवीं सालगिरह मनाई जा रही थी, 35 लाख भारतीय नागरिक अन्य देशों में जाकर बस गए थे. आज 2047 में, प्रवासियों की संख्या 15 करोड़ हो गई है. (तालियाँ)
सदस्य: इसमें हमारी क्या उपलब्धि है? वे लोग मजबूर होकर गए.
संयोजक: (गर्मजोशी से) हमने ऐसे हालात पैदा किए...जिनसे उन्हें बाहर जाने की प्रेरणा मिली. इससे देश की आबादी भी कम होती है और देश को आर्थिक लाभ भी होता है.
सदस्य: क्या आबादी कम करने का यही एक उपाय है?
संयोजक: यही एक उपाय नहीं है. आबादी कम करने में प्रकृति और दैवी शक्तियाँ ज़्यादा मददगार रही हैं. इसकी चर्चा मैं अलग से करूँगा.
सदस्य: कृपया विस्तार से बताइए।
संयोजक: उत्तरपूर्वी क्षेत्र में भूचाल आया, पन्द्रह हजार लोग दबकर मर गए. उत्तर-दक्षिण में महामारी फूटी, कहीं-कहीं पर क़हर की नौबत आई. और मैं विशेष रूप से आपका ध्यान एक तथ्य की ओर आकृष्ट करना चाहता हूँ. आपको जानकर सन्तोष होगा कि एड्स की बीमारी ने भारत में जड़ें जमा ली हैं, मृतकों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ रही है. (तालियाँ) पर इस तथ्य की चर्चा हम अपने घोषणा-पत्र में नहीं करेंगे. हाँ, दैवी शक्तियों के योगदान के प्रति नतमस्तक हो आभार प्रकट किया जाएगा और प्रार्थना-सभाएँ की जाएँगी कि भविष्य में भी वे अपनी कृपादृष्टि बनाए रखें.
सदस्य: पर इसमें आपने क्या किया?
संयोजक: दैवी शक्तियों ने हमें इसका अधिकारी समझा तभी हम पर कृपा की. और हमने नतमस्तक हो दैवी शक्तियों की देन को स्वीकारा.
सदस्य: इस तरह तो आतंकवाद, जातिवाद, साम्प्रदायिकता के फलस्वरूप जो दंगे हुए, उनमें भी लोग मारे गए. उनसे भी आबादी कम हुई?
संयोजक: हम इस पहलू को भूले नहीं हैं. हम इसकी भी चर्चा करेंगे. माफिया की भी. भुखमरी की भी. आपको जानकर सन्तोष होगा कि सड़क के हादसों में मरनेवालों की संख्या गत पचास वर्षों में स्विट्जरलैंड की पूरी आबादी से अधिक हुई है. हम इस पर भी रोक लगा सकते थे, पर ध्यान रहे कि जो हादसे घर-परिवारवालों के लिए दुखद होते हैं, वे देश और जाति के लिए हितकर होते हैं. आप विचार कीजिए, यदि इनके कारण आबादी में कमी नहीं हुई होती तो हमारे यहाँ कैसी विस्फोटक स्थिति पैदा हो जाती. हमने हर मुमकिन कोशिश की है कि आबादी को विस्फोटक स्तर तक न पहुँचने दिया जाए.
सदस्य: यदि इस प्रकार आप आबादी कम करने का प्रयास कर रहे हैं तो क्यों नहीं ज़हर की गोलियाँ लोगों में बाँट देते?
संयोजक: यह कैसा बेहूदा सुझाव आपने दिया है! ऐसी गोलियों को खाएगा कौन? क्या आप खाएँगे?
(श्रोताओं से) लेकिन हमने विदेशों में बननेवाली दवाइयों का आयात आसान कर दिया है, जो ज़ाहिरा तौर पर तो इलाज के लिए बनी हैं, पर जो बीमार की जान लेने में सहायक होती हैं....आबादी का मसला सचमुच बड़ा टेढ़ा मसला होता है. सरकार के लिए दूरंदेश होना बहुत ज़रूरी है.
[गम्भीरता से, आगे बढ़कर]
आप जानते हैं कि अर्द्धशताब्दी की समाप्ति पर हमारे देश ने आणविक हथियार बनाने की दिशा में ठोस क़दम उठाए थे. आप यह भी जानते हैं कि ऐसे क़दम हमारे पड़ोसी देश ने भी उठाए थे....यह दोनों देशों की दूरंदेशी का ही प्रमाण है. परस्पर सहयोग की दिशा में यह बड़ा ठोस क़दम है. इससे आबादी की समस्या का दोनों ओर से सन्तोषजनक हल होगा. केवल इस बात को सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि दोनों का संकल्प बराबर बना रहे.
[एक आदमी पास आकर संयोजक को काग़ज़ का पुर्जा देता है.]
(पढ़कर) क्षमा कीजिए, अभी-अभी किसी सज्जन ने आपत्ति की है कि हम विष की गोलियाँ बाँटने जा रहे हैं कि हम अपने देशवासियों को ज़हर देंगे.
[हाथ ऊँचा उठाकर]
ऐसा जघन्य अपराध हम नहीं करेंगे. वास्तव में आबादी कम करने की दिशा में अनेक सुझाव समिति के सामने रखे गए थे. भ्रूण-हत्या को लेकर भी एक सुझाव था कि ऐसी गोलियाँ मुफ़्त बाँटी जाएँ, जिनसे अपने-आप ही गर्भपात हो जाए; परन्तु इसे भी मान्यता नहीं मिली. एक और सुझाव को अपना लिया गया, बल्कि एक उद्योगपति के साथ करारनामा भी हो गया है. एक विदेशी कम्पनी हमारी भारतीय कम्पनी के साथ मिलकर ऐसी गोलियाँ तैयार करेगी, जिसका सेवन केवल हमारे पुरुष करेंगे. (धीमे स्वर में, गोपनीय लहज़े में) जिससे कुछ ही समय में उनका पुंसत्व जाता रहेगा, वे नपुंसक होते चले जाएँगे. (उत्साह के साथ) बढ़ती आबादी को रोकने का इससे बेहतर कोई इलाज नहीं है. एक पन्थ, दो काज. (तालियाँ)
(हाथ उठाकर) वास्तव में इन गोलियों का प्रचार काम-वासना बढ़ाने के लिए किया जाएगा. एक ही पीढ़ी की कालावधि में आबादी की बढ़ती एक-चौथाई कम हो जाएगी. (तालियाँ)
[एक और आदमी पुर्जा दे जाता है.]
(पढ़कर) माँग की गई है कि दैवी शक्तियों के योगदान की बात विस्तार से बताई जाए.
(आगे बढ़कर) अच्छा सवाल है. प्रकृति कह लीजिए अथवा दैवी शक्तियाँ, इनकी ओर से अनेक संकट आया करते थे: बाढ़, दुर्भिक्ष, भूचाल, महामारी आदि-आदि; पर पहले हम इन्हें मुसीबतें समझते थे और इनसे बचने की कोशिश करते थे. वह हमारी अज्ञानता थी. वास्तव में वे प्रकृति की देन थे, दैवी शक्तियों का वरदान था, हमारे प्रयासों को सफल बनाने में उनका योगदान था. अब हम उनसे अपना बचाव करने की चेष्टा नहीं करते, अब हम इन्हें वरदान मानकर उनका स्वागत करते हैं. वास्तव में यह हमारी परम्परा के अनुरूप ही है. पहले ज़माने में हमारे पुरखा प्रकृति के प्रकोप को यह कहकर स्वीकार कर लिया करते थे कि इसके पीछे कोई भलाई छिपी होगी, अब हम उस भलाई को अपनी आँखों से देख सकते हैं कि ऐसे वरदानों के लिए ज़मीन तैयार करें. और हम किसी हद तक सफल भी हुए हैं. विशेष रूप से महामारी और भुखमरी की दिशा में. पहले केवल गाहे-बगाहे महामारी फूटती थी, अब आए-दिन फूटने लगी है. पहले हम इन्हें प्राकृतिक विस्फोट कहते थे, वास्तव में वे दैवी वरदान थे. हमें इस बात का गर्व है कि इस प्राचीन देश में, प्रकृति के साथ हमारा सहयोग उत्तरोत्तर बढ़ता जा रहा है. इस सहयोग ने दुनिया के सामने एक मिसाल- कायम कर दी है. (देर तक करतल ध्वनि) अब मैं आपका ध्यान विचारधारा और सिद्धान्त के क्षेत्र में प्राप्त उपलब्धियों की ओर दिलाना चाहता हूँ. कृपया ध्यान से सुनें.
आज़ादी के बाद की पहली अर्द्धशताब्दी में चिन्तन के स्तर पर एक बहुत बड़ा भ्रम पाया जाता था. पिछले पचास वर्षों में हम इस भ्रम को दूर करने में बहुत हद तक सफल हुए हैं कि व्यक्ति का आचरण व्यक्तिगत जीवन और सार्वजनिक जीवन में एक जैसा है, कि दोनों में तालमेल होना चाहिए. इस मिथ्या अवधारणा से देश की प्रगति में बहुत बड़ी बाधा पड़ती थी. वास्तव में जीवन के हर क्षेत्र के अपने नियम होते हैं. एक क्षेत्र के नियम दूसरे क्षेत्र पर लागू नहीं किए जा सकते.
यदि व्यापार में रिश्वत दी जाती है तो मैं एक व्यापारी के नाते रिश्वत दूँगा, दूध में पानी मिलाऊँगा, सीमेंट में रेत मिलाऊँगा. पहले वे काम किए तो जाते थे पर इन्हें बुरा माना जाता था. अब हमने यह द्वन्द्व हटा दिया है. आप समझने की कोशिश कीजिए, यह बहुत बड़ी उपलब्धि है. विचार और व्यवहार के स्तर पर हमने दुविधा की भावना को दूर कर दिया है.
इससे पिछली अर्द्धशताब्दी में विचार के स्तर पर एक बहुत बड़ी कमज़ोरी पाई जाती थी: नैतिक नियमों को समान रूप से जीवन के सभी क्षेत्रों पर लागू किया जाता था, जैसे- सच बोलना, धर्मपरायण होना, सहिष्णुता आदि. नैतिक नियम प्रत्येक कार्यक्षेत्र पर समान रूप से लागू नहीं किए जा सकते. प्रत्येक क्षेत्र के अपने नियम हैं. पिछले ज़माने में यही सबसे बड़ी भूल रही थी. इसी कारण हम उन्नति नहीं कर पाए, सदाचार के नियमों को सभी क्षेत्रों पर लागू करते रहे. पश्चिमी देशों ने शताब्दियों पहले यह गुर सीख लिया था, क्या मैं ग़लत कह रहा हूँ? इंग्लैंड ने हम पर दो सौ साल तक राज किया. अपने लोगों को मालामाल किया, हमें भूखों मारा. अपने लोगों को जनतंत्र दिया, हमें तानाशाही दी. यह नीति है. नीति इसी को कहते हैं. हमें भी नीतिवान बनना होगा. एक क्षेत्र की नियमावली को दूसरे क्षेत्र की नियमावली से अलग रखना होगा.
इसीलिए हमारी कोशिश रही है कि प्रत्येक कार्यक्षेत्र के नियम अलग रखे जाएँ. दूसरे, सत्ताधारी बात भले ही मानवीय मूल्यों की करें, पर व्यवहार में उन्हें अपने से दूर रखें. एक मिसाल लीजिए. सच बोलना बड़ी अच्छी बात है, पर क्या एक मंत्री सच बोल सकता है? क्या उसे अपने काम में झूठ का सहारा नहीं लेना पड़ता? क्या उसके हाथ में झूठ एक हथियार नहीं है? इसीलिए समिति ने सि$फारिश की है कि मंत्री सच की दुहाई तो दे, पर व्यवहार में उसे नज़दीक नहीं फटकने दे. (तालियाँ)
देश की प्रगति के लिए सिद्धान्त और व्यवहार को एक-दूसरे से अलग रखना नितान्त आवश्यक है. यदि एक आदमी ठेका लेने के लिए रिश्वत देता है और मन्दिर में सत्यवादिता पर भाषण देता है, तो दोनों में कोई अन्तर्विरोध नहीं है. (तालियाँ)
इसी तरह विचार और भावना को भी एक-दूसरे से अलग रखना होगा. यह गुर भी हमने पश्चिमी देशों से सीखा है. व्यवहार में भावना का दखल नहीं होना चाहिए। पर सत्ताधारी के लिए क्या उसूल है? यह बात तो इन्साफ एवं हमदर्दी को लेकर करेगा पर व्यवहार में अपने निर्णय शंका, अविश्वास, द्वेष और निर्ममता के आधार पर करेगा. पत्र-पत्रिकाओं में सौहार्द, सहयोग की बात करे, परन्तु सत्ता का उपयोग करते समय मानव प्रेम, सौहार्द, सहयोग को ताक पर रख दे. इसी कारण हम पिछले पचास वर्ष में प्रगति की राह पर तेज़ी से आगे बढ़े हैं. बड़े-बड़े जोखिम उठाए हैं. बड़ी-बड़ी क़ुर्बानियाँ दी हैं.
[घड़ी की ओर देखता है।]
माफ़ कीजिए, मुझे एक दूतावास के रिसेप्शन में पहुँचना है. घोषणा-पत्र के शेष भाग पर अगली बैठक में विचार करेंगे.
[एक सदस्य उठकर]
सदस्य: साहब, हम लोग ध्यान से सुनते रहे हैं. यह सब ठीक है पर हम सियासतदानों को क्या मिला? देश को तो बहुत-कुछ मिला. आज लोकसभा के कुछ सदस्यों को आपने सिक्युरिटी गार्ड दे रखे हैं. उन लोगों को यह विशेष सुविधा क्यों? क्या हम जोखिम नहीं उठाते?
संयोजक : (मेज़ पर रखे हुए अपने काग़ज़ सँभालते हुए) अच्छा किया, आपने याद दिला दिया. इस सम्बन्ध में एक शुभ सूचना आपको दे दूँ. कार्यकारिणी की सिफ़ारिशों में से एक सिफ़ारिश यह भी है कि लोकसभा और राज्यसभा के गिने-चुने सदस्यों को ही नहीं, बल्कि सभी सदस्यों को सुरक्षा गार्ड दिये जाएँगे. हम जानते हैं कि सुरक्षागार्ड संसद सदस्य की प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया है और जनतंत्र में सभी को प्रतिष्ठा का समान अधिकार है. इतना ही नहीं, यदि किसी संसद सदस्य के विरुद्ध क़ानूनी कार्रवाई चल रही है तो मुक़दमे के दौरान भी उसे सुरक्षा गार्ड उपलब्ध होगा और यदि उसे जेलख़ाने में भेजा जाता है तो वहाँ भी उसे सुरक्षागार्ड की सुविधा प्राप्त होगी, ताकि जेल के अन्दर भी साधारण क़ैदियों के मुकाबले में उसकी प्रतिष्ठा बराबर बनी रहे, ताकि जेल के अन्दर बैठे क़ैदियों को पता चले कि कोठरी के अन्दर कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति बैठा है. (तालियाँ)
समिति ने सदस्यों के भत्ते पर भी पुन: विचार किया है. सुझाव है कि आजीवन भत्ता मिलता रहे, इतना ही नहीं, मरणोपरान्त भी दो पीढ़ियों तक उनके परिवारवालों को भत्ता मिलता रहे. सिफ़ारिश इस बात की भी की गई है कि जिस सरकारी घर में वे रहते रहे हैं, वह उन्हीं के नाम कर दिया जाए. (देर तक तालियाँ)
इसके अतिरिक्त और अनेक महत्त्वपूर्ण सुझाव हैं जिनकी चर्चा अगली बैठक में की जाएगी.
अब जन-गण-मन के बाद...
[सभी सदस्य उठ खड़े होते हैं. जन-गण-मन की धुन बजाई जाती है.]