अवगुंठन (कहानी) : सुमित्रानंदन पंत

Avgunthan (Hindi Story) : Sumitranandan Pant

( १ )

अब के एम० ए० की परीक्षा समाप्त कर जब रामकुमार घर आया, तो स्नेह-प्राण मा का एकान्त अनुरोध न टाल सका। अभी दो साल पीछे अचानक हृद्रोग से पिता की मृत्यु हो जाने के कारण सन्तोष- मूर्ति मा के मर्म में जो चिरस्थायी घाव पड़ गया था, उसकी पीड़ा के चिह्नों को थोड़ा-बहुत मिटाने का एक- मात्र उपाय यही था, कि घर में एक नया चाँद का टुकड़ा आकर नई चाँदनी फैलाए । कुमार के पिता अपनी इकलौती सन्तान के लिए प्रचुर धन-सम्पत्ति छोड़ गए थे। केवल एक नवीन वयस नवीन जीवन अपने नवीन उल्लास- उमंग के चंचल, मुखर पद- न्यास से उस जड़ सम्पत्ति को सजीव कर दे, उस विशाल नीरव भवन में स्वर भर दे - इसी की कमी थी ।

रामकुमार शिक्षा प्राप्त युवक था । जात-पाँत, कुल वंश का आडम्बर और विवाह सम्बन्धी पुश्तैनी रीति- रस्म उसे रत्ती भर पसन्द न थे । परदे की प्रथा से तो उसे एकदम घृणा थी । वह उसे आदिम-युग की आँखों पर पड़े हुए अन्धकार का चिह्न कहता था । जैसा कि प्रत्येक शिक्षित युवक सोचता है, रामकुमार भी अविद्या के अँधेरे में पले हुए इन अन्ध रीति-रिवाजों के डैने तोड़- मरोड़ कर समाज के जीर्ण वृक्ष की ठूंठी टहनियों से उनकी उलूक बस्तियों को जड़ से उखाड़ फेंक देना अपना कर्तव्य समझता था, पर समय पर वैसा कुछ भी न हो सका । उन्हीं रीति- रस्मों की प्रसूति, उन्हीं अन्ध संस्कारों में पली हुई, किन्तु उनसे कहीं अधिक सजीव, संस्कृत और शान्तमूर्ति माँ के हाथों से वे पुरानी रीति-नीतियाँ एकदम उतनी भद्दी नहीं लगीं । माँ ने उनकी कुरूपता के ऊपर जैसे अपना चिर-परिचित अंचल डाल दिया । एक दिन बहुत बड़ी धूमधाम, सजधज और बन्धु बान्धवों के उत्सव- कोलाहल के बीच अपनी ही लज्जा की लपेटनों में खोई हुई सी नवबधू ने चुपके उन्हीं पुराने रीति- रस्मों के झरोखे से रामकुमार के पिता शिवकुमार की विशाल अट्टालिका में प्रवेश कर उसे अपने नवीन सुहाग की मौन मधुरिमा से भर दिया। रामकुमार ने देखा, मा के स्नेह और यत्नों से, आज दीर्घकाल के बाद, बिलकुल ही नये ढंग से सजे हुए घर के अन्तःपुर का विशाल कमरा जैसे अपना वास्तविक केन्द्र खो बैठा है, उसकी केन्द्र-वाहिनी नाड़ियाँ आज अपने को सब से अलग किए हुए एक कोने की ओर प्रवाहित हो रही हैं। कमरे की सभी वस्तुएँ, सभी सजावट का सामान, छत, फर्श और दीवारें तक उस कोने से सटे हुए एक लम्बे से घूँघट के भीतर झाँकने के प्रयत्न में संलग्न, किन्तु असफल - प्राय दीख रही हैं ।

बरसात के बादलों में छिपे रहने के कारण चाँद के दर्शन सहज में नहीं होते; किन्तु यह कल्पना कि वह कहीं, इन्हीं बादलों के बीच में है, और यह उत्कंठा कि न जाने कब उनके विरल अन्तराल से उसकी झलक मिल जाय, उसे और भी मोहक बनाए रहती है । रामकुमार को भी जान पड़ा कि छुईमुई के पौधों की तरह, अस्तित्व हीनप्राय, केवल अनुमान मात्र उसकी बहू, अपने संकोच में अत्यधिक सिमट जाने के कारण और भी व्यक्त एवं सर्वव्याप्त हो उठी है । इस अपने को छिपाने की कला ने मानो उसका सौन्दर्य कहीं अधिक प्रस्फुटित कर दिया है । समस्त घर में, बाहर-भीतर, ऊपर-नीचे, न जाने किस माया-बल से उस संकोच में सिमटी हुई, अपने ही भीतर छिप जानेवाली बहू के उपस्थिति की वेलि पुष्पित पल्लवित होकर फैल गई है। सबको उसके आगमन की सूचना मिल गई है, और सभी ओर नई सजधज के चिह्न दिखाई देने लगे हैं ।

देशकाल की आलोचना और जनरव से दूर, अन्तःपुर की चहारदीवार के अन्दर नवीन अनुराग की उत्सुक आँखों से देखने में, भारतीय नारी और समस्त सभ्य संसार के बीच छाया की तरह पड़े हुए और बाहर के प्रकाश को छिपानेवाले उस घूँघट का सौन्दर्य रामकुमार को किसी प्रकार भी अवहेला करने योग्य नहीं जान पड़ा । घूँघट के मुख में - उसमें भी नव वधू के-उन्हें बड़ी ही मधुर कविता जान पड़ने लगी । कला को छिपाना ही —-रहस्य को रहस्य बनाए रखना ही - तो कला है ! संसार मे जहाँ कहीं सौन्दर्य है, वह उन्हें आवरण के ही अन्दर छिपा हुआ दिखाई देने लगा, वही तो उसके लिए उचित स्थान है । केवल तड़के, बहुत ही तड़के, जब कि संसार की आँखों में कोमल झुटपुटे का परदा पड़ा रहता है, छिपते हुए चाँद की छाया में, कली अपने हृदय का गूढ़ रहस्य खोलती है । उषा के कपोलों में, चुपके से, लाज की प्रथम लालिमा दौड़कर छिप जाती है ! दिन के पूर्ण खुले प्रकाश में सौन्दर्य ?

( २ )

रामकुमार की मा पुरखिन का कर्तव्य जानती थी । बेटे के, एक पढ़े-लिखे लड़के की तरह, बारबार स्पष्ट कह देने पर भी मा ने अपने मन में शिक्षित बधू से ऊँचा स्थान सुन्दरी बधू को ही दिया । बहू पढ़ी-लिखी न हो, तो फिर भी पढ़ाई जा सकती है, अंगों में दुबारा लावण्य तो भरा नहीं जा सकता । मनश्चक्षुओं को कुछ भी पसन्द हो, चर्म-चक्षुओं को जो अच्छा नहीं लगता, उसका सुन्दर लगना और नई उम्र में, असम्भव न होने पर भी कठिन ही है । कल्याणी इस बारबार परखी हुई बात को कैसे भुला देती ? शिक्षा का सौन्दर्य देखने के लिए समय चाहिए, धीरज चाहिए, - शरीर की सुन्दरता तो आते ही बोल उठती है- 'देखो, मैं हूँ !'

मूक सौन्दर्य और स्वरित सौन्दर्य के अधिक जाँच पड़ताल करने की आवश्यकता कल्याणी को नहीं थी । एक तो स्त्री, मा, उस पर प्रौढ़ अनुभव प्राप्त । जो एक सर्वसम्मत, सर्वनिर्दिष्ट संसार है, उसकी वह कैसे उपेक्षा करती ? नब्बे प्रतिशत पुरुष और निन्यानवे सैंकड़ा स्त्रियाँ संसार का एक ही अर्थ समझती हैं। उनकी धारणा ही नहीं, पक्का विश्वास है कि चिरकाल से इस संसार शब्द को मनुष्य ने अपने अनुभव के तराजू में तोल, मन के खरल में घोंट, बुद्धि की कपड़छान कर, उससे जो अर्थ, जो निचोड़ निकाला है, उसका एक शब्द में सारांश है - चर्मजगत । यह त्वचा की सृष्टि हैं, इसमें शरीर का प्रथम स्थान है । मोटी आवश्यकताओं की पूर्ति पहले होनी चाहिए। मिट्टी के बदन को सूँघ चाटकर ही इस मिट्टी के मनुष्य की तृप्ति होती है - यही सनातन रीति चली आई है। घर-द्वार, जमीन-जानवर सन्तान- सम्पत्ति और सुन्दर स्त्री - यह सब है, तो भगवान की कृपा है। जो इससे बाहर कुछ कल्पना भी करता है, वह संसार से ऊपर उठ गया । उसे श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं, स्नेह-दृष्टि से नहीं । ठीक भी है, माया कहते हैं; इस सुन्दरता के माया पाश से मुक्त होना क्या आसान है ? विदुषी से विदुषी स्त्री को अपने सुन्दर न होने की कमी खटकती रहती है, और सुन्दर स्त्री बिना विद्या के सहज ही निभ जाती है। लोग कहते हैं—'भई मानसिक सौन्दर्य को हम ऊँचा स्थान भले ही दें, परितृप्ति सुन्दर अंग ही देते हैं ।'

एक रोज बेटे के सिर में तेल लगाते हुए माता कल्याणी ने पूछा- "क्यों रे राम, मेरी चाँद-सी बहू तेरे पसन्द आई कि नहीं ?"

स्पष्ट भाषी लड़के ने कहा- "आई क्यों नहीं, मा, अपने राम के लिए तुमने जो सीता खोज कर ला दी ।"

बहू के रूप लावण्य की बात को प्रश्नातीत समझ कर, लग्गे से लड़के के हृदय की थाह लेने के लिए मा ने सहज ढंग से कहा- "कैसा मधुर स्वभाव पाया है, जैसे चाँदनी छिटक रही हो - सभी कुछ जिसमें खिल उठता है । जैसा तू है, वैसी ही बहू भी मिल गई। पानी की तरह खुद दब जाती है, दबाना किसी को नहीं चाहती ।"

माता की प्रसन्नता से मन ही मन प्रसन्न हो कर बेटे ने श्लेष से कहा - " कह तो चुका हूँ मा, एकदम सीता है, हर समय जमीन ही में गड़ी रहती है । केवल इस परदे के रावण से उसका उद्धार करना है, जिसने उसे पाँच आदमियों की पंचवटी से हटा कर दूर अन्ध-संस्कारों की लंका में छिपा रक्खा है। इस अग्नि परीक्षा में तुम्हीं उसे उत्तीर्ण करवा सकती हो, मा !"

बेटे ने मा को समझाने के लिए उस राम-रावण की चिर-परिचित तुलना को और भी आगे बढ़ा कर परदे और रावण में पूरा - पूरा सादृश्य दिखला दिया। कहा-"मा, यह परदा और रावण । एक ही पक्षी के दो पंख हैं। दोनों मनुष्य की पाशविक आकांक्षाओं के चिह्न स्वरूप हैं । जिस स्थूल लालसाओं के दशमुख से, विश्व- माता का आसन देने के लिए, सीता के उद्धार की आवश्यकता समझी गई थी, उन्हीं वासनाओं की दृष्टि से स्त्री को बचाने के लिए इस परदे का भी जन्म हुआ है। जिस तरह कबूतर आँखें मूँदकर बिल्ली के मुँह से नहीं बच सकता, उसी प्रकार इस परदे की अन्ध- दीवार के भीतर प्रकाश नहीं पल सकता । समस्त सभ्य संसार सौन्दर्य को अनिलातप की उपज, प्रकाश की प्रसूति मानता है । "

कल्याणी को यह समझने में देर न लगी कि केवल उसी की सम्मति न पा सकने के कारण बहू अपने स्वामी की आज्ञा पालन करने में आनाकानी कर रही है। उसके केवल संकेत कर देने से ही, राम, इस चिरकाल से अलंघ्य नारी-लज्जा के समुद्र में, बाहर- भीतर आने-जाने के लिए, अनायास ही पुल बाँध सकेगा - इसी- लिए मानो वह उसकी सहायता का प्रार्थी हो रहा है। कल्याणी, स्नेहशील मा की तरह, बहू के मामले में अपनी इच्छा से लड़के की इच्छाओं का अधिक मूल्य समझती थी । अतएव एक रोज बहू की ठोड़ी पकड़ कर सास ने बड़े ही स्नेह से कहा - " तू अपने इस लावण्य में इतनी अधिक लाज कहाँ से लिपटा लाई बहू ! इस बड़े से घर में बाहर-भीतर - सर्वत्र तुझे देख सकूँ, यही तो मैं चाहती हूँ री ।" सास ने सखी वन कर चुपके से यह भी संकेत कर दिया कि उसका स्वामी अपनी स्त्री की इस अतुल सौन्दर्य - राशि को इस अकेले से घर में समा सकने के लिए बहुत ही बड़ी समझ, अपने इस पार्थिव लाभ की प्रसन्नता और अधिकार के गर्व को जैसे सर्वत्र फैला देना चाहता है । चकित-संसार की आँखों से प्रशंसा का और कृतज्ञ मुग्ध अन्तःकरण से स्नेह आदर का पुरस्कार न प्राप्त करना वह नवीन दम्पति के प्रति इन अन्ध-रूढ़ियों का अन्याय और अत्याचार समझता है ।

सरला संकोच के मारे मर- सी गई, और मन-ही-मन अपनी इस देवी स्वरूपा सास की भूरि-भूरि स्तुति करने लगी ।

( ३ )

रामकुमार की शिक्षा को सौन्दर्य का सम्मोहन अधिक समय तक परास्त नहीं कर सका था । प्रथम मिलन की स्वप्नमयी सन्ध्या में, देश-काल की आवश्यकता से परे, प्रेम के प्रथमोच्छ्वास की सतृष्ण-दृष्टि से देखने में घूँघट के आवरण में जो सुन्दरता दिखलाई दी थी, इन्हीं चार-पाँच महीनों में, धीरे-धीरे, नवीनता के माधुर्य के मिटते ही वह भी लुप्त होने लगी थी । रामकुमार को सरला का मुख घुली हुई मिश्री की डली-सा, चिकना चुपड़ा और मधुर दिखाई देता — उसमें रूप, रंग, रेखाएँ - सब रहतीं, केवल भाव, केवल व्यंजना, केवल स्वर नहीं मिलता ; या रामकुमार उसे देख न पाता हो । बादलों के परदे से प्रभात की तरह उस लावण्य ग्रह से एक प्रकार का मानसिक तेज फूट नहीं पड़ता था । सरला तो पत्थर की प्रतिमा न थी, तब रामकुमार कैसे सन्तुष्ट रहता ?

हमारे समाज ने अपनी अबला स्त्री के चारों ओर जो सूक्ष्म-स्पष्ट रेखाएँ खींच कर उसके लिए जो स्थान नियत कर दिया है, जो दृढ़ मर्यादा चिरकाल से बाँध दी है, उसे हम जिस प्रकार दूर से देख सकते हैं, हमारी नारी, उस तरह अपने को उससे अलग- कर, नहीं देख सकती - वह शिक्षित हो अथवा अशिक्षित । उस संकीर्ण कारा में रहते-रहते उसे अपनी संकीर्णता का अनुभव नहीं होता । वे यम-नियम चिर- अभ्यास के कारण उसका स्वभाव बन गए हैं। उसकी आत्मा समाज के लिए अपने इस आत्म-समर्पण में खो गई है । केवल हमारे नियम-बन्धन उसके भीतर से हाथ- पाँव बढ़ा कर उसके विचार व्यवहार, मान-मर्यादा शील तथा स्वभाव के रूप में प्रकट होकर, हम से मिलते-जुलते और परस्पर, एक-दूसरे से, सम्बन्ध बनाए रखते हैं; इसी लिए हमारी नारी सबसे अधिक वस्तु जगत में रहती है। वह केवल सब कुछ मानकर चलती है । सभी नियम, सभी आचार, सभी संस्कार, सभी अन्ध-विश्वास उसके लिए स्पष्ट हैं, सत्य हैं। उन्हीं का संसार उसका संसार हैं ।

रामकुमार सरला को केवल अपने आदर्शों की प्रतिमा बना देना चाहता था । उसके भीतर समाज के आदर्शो की जो चिरकाल से प्रतिष्ठित प्रतिमूर्ति यन्त्र की तरह हँसती, बोलती और काम-काज चलाती थी, रामकुमार की आँखों में उसका असामयिक छाया-रूप अत्यन्त खटकता था । सरला यह कभी नहीं भूलती थी कि वह ससुराल में है । यह बात घर में ताई ने उसके हृदय में पीड़ा होने तक पहुँचा दी थी। वह अधिक समय सास के पास बैठने, घर का काम-काज सीखने और सास की छोटी-मोटी सेवाओं में बिता देती थी, यद्यपि कल्याणी को बहू से सेवा लेना पसन्द न था । रामकुमार को इन सब कारणों से, पत्नी को इच्छानुकूल शिक्षा देने और बाहर के आकाश में शोभित होने योग्य मुख-चन्द्र को घूँघट के घन-रोध से मुक्त करने का अवकाश नहीं मिलता था । सरला धीरे-धीरे चलती, धीरे उठती, धीरे बैठती और बहुत ही धीरे से बोलती थी । रामकुमार को इस मन्द गति, मन्थर-विलास अथवा अवकाश- चेष्टा में रत्ती भर सौन्दर्य या मधुरिमा नहीं मिलती थी । वह उसे मन-ही-मन सरला की मानसिक निर्जीवता, जड़ता, दीर्घसूत्रता, और न जाने क्या क्या समझता था ।

जब रामकुमार का अभिन्न- हृदय मित्र सतीश सभ्य संसार और उन्नत देशों की उर्वरा भूमि में प्रस्फुटित, विकसित और उनकी दीर्घ आयास अनुभूति से परिपुष्ट, आधुनिक नारी का परिकृत आदर्श रूप अपने मित्र के सामने रखता तो उसके रूप-रंग की तुलना में कुमार को सरला का सौन्दर्य बिलकुल फोका, नीरस और निस्सार लगने लगता था। सतीश साधारण कम्यूनिस्टिक- टेम्परामेन्ट (स्वभाव) के अनुरूप अधिक से अधिक पक्षपात और घृणा व्यंजक शब्दों में मध्यश्रेणी की सभ्यता का जैसा खंडन करता, इन भद्दी बर्बर प्रथाओं की जैसी ऐतिहासिक व्याख्या देता, संसार के भविष्य का जो स्वर्ण-चित्र खींचता और श्रमजीवी रूस की स्त्रियों के स्वतंत्र - जीवन का जैसा अतिरंजित दृश्य आँखों के सामने खड़ा कर देता, उसे कुमार बड़े ही ध्यानपूर्वक और कभी-कभी मुग्ध-भाव से सुनता था ।

वाह, वह उन्मुक्त अनिल और उज्ज्वल आतप में पली हुई स्वतन्त्र नारी - मूर्ति ! निर्मल आकाश जिसके नयनों को नित्य नवीन नीलिमा प्रदान करता है; सद्य-स्फुट सुमनों का सौरभ जिसकी साँसों में बसता है ; पक्षियों का कलरव कण्ठ में कूक भरता है; उषा जिसके कपोलों में गुलाब बन जाती है; बार-बार स्वच्छ जल में तैरने से जिसके अंगों की तनिमा और सुकुमारिता में सजीवता आ गई है ; छहों ऋतुएँ जिसके सौन्दर्य को प्रस्फुटित करने के लिए अपना सर्वस्व निछावर करती रहती हैं--- वह सबल, स्वस्थ, सुन्दर स्त्री के रूप का आदर्श ! जिसका मानसिक सौन्दर्य अपनी ही अधिकता में फूटकर उसके स्त्रीत्व को अपनी उज्ज्वलता में छिपा लेता है; उस स्वतन्त्रता के आलोक में देह - ज्ञान जैसे छाया की तरह बिलकुल पीछे पड़ जाता है, वह प्रशस्त आदर्श इन अन्ध-रूढ़ियों की संकीर्णता से परे हैं ।

( ४ )

एक दिन, तीसरे पहर के समय, जब दोनों मित्र बैठे हुए आपस में बातें कर रहे थे, सरला ने अपने नित्य के अभ्यास के विपरीत, मानो अपने जन्म-जन्मान्तर के दुविधा संकोच को एक ही क्षण में भगा, जिस सहज संयतभाव से स्वामी के कमरे में प्रवेश कर, छोटी सी मेज़ पर सुन्दर ढंग से चाय का सामान सजा दिया, उसे देख कर रामकुमार मानो विस्मय और आनन्द के मारे अवाक् हो गया। मानो रोज़ ही का अभ्यास हो, पास से अपने लिए कुर्सी खिसका, उस पर बैठ, बात की बात में चाय तैयार कर और बड़ी ही स्वभाविक सरल मुसकुराहट से मुख को मंडित कर, उसने दोनों मित्रों के सामने दो प्याले तथा कुछ फल और मेवे रख दिए ।

"तुम्हें भी साथ देना होगा, भाभी, जब देवता ने दर्शन दे ही दिए, तो इतना सा बरदान भी दे जाय ।" भेंट को परिचय में बदलने के लिए सतीश ने हँसते हुए अपना प्याला सरला की ओर बढ़ा दिया । सरला ने बड़े ही निःसंकोच भाव से चाय का प्याला सतीश को लौटा दिया, और तश्तरी से कुछ मेवे उठा कर मुँह में डाल लिए ।

"यह तो साथ देने का अभिनय भर हुआ ।” -सतीश ने अनुरोध किया ।

"देवता मृत्युलोक की सुरा पीने के आदी नहीं होते, फल-फूल ही ग्रहण कर सन्तुष्ट रहते हैं ।" -- बेहला की तरह बज कर, हँसी से छलकती हुई भाभी, अपने को न रोक सकने के कारण, अपनी ही नवीन वयस के कूलों से उमड़ते हुए सौन्दर्य की लहर की तरह, एक क्षण में, कमरे से बाहर हो गई ।

"बरदान पाने के लिए अभी बहुत बड़ी तपस्या की आवश्यकता है । " -- उमड़ते हुए हृदय को मानो स्रोत देकर, हास्य से कमरे को भरते हुए कुमार ने प्रसन्नता की अतिशयता के कारण प्याले में और भी चाय उड़ेल ली ।

सरला का वह सहज संयत साहस रामकुमार के लिए वास्तव में बहुत बड़ी प्रसन्नता का कारण हो गया था। जिस बात को वह अपने ही अस्तित्त्व से सहमी रहनेवाली अपनी पत्री के लिए दुरूह ही नहीं, एक प्रकार से असम्भव भी समझने लगा था, उसी को सरला ने चिर- अभ्यस्त की तरह जिस आसानी से कर दिखला दिया, वह कोई साधारण बात न थी । रामकुमार विस्मित ही नहीं, चकित हो गया था कि उस अपनी ही दृष्टि की लाज से कुम्हला से जानेवाले प्राणों में इतना साहस, स्वतन्त्रता कहाँ से, कैसे आ गई !

पर सरला के लिए वह सब उतना कठिन न था, नई बात तो बिलकुल भी न थी । छुटपन में ही मा की मृत्यु ने उसे पिता की गोद में दे दिया था । सरला के पिता उन लोगों में से थे- जिनमें सभी को अपनी ओर खींच लेने की क्षमता होती है ! उन्हें देख कर मन में वही आनन्द-भाव उठता है, जो पूस के महीने में साँझ की स्निग्ध धूप से मंडित पहाड़ की चोटी पर दृष्टि पड़ने से । नगर के प्रायः सभी प्रतिष्ठित लोग उनके सौजन्य का उपभोग करने, शाम के वक्त उनकी बैठक में एकत्रित हो जाया करते थे । उनके आदर-सत्कार का भार सरला के ही ऊपर रहता था। इस प्रकार पुरुष समाज में बरती जानेवाली शिष्टता सभ्यता से वह अच्छी तरह परिचित थी । और, लोगों के सामने निकलने में उसे झिझक या संकोच नाम को भी न था; लेकिन सरला को जहाँ एक ओर इतनी स्वतन्त्रता थी दूसरी ओर उसे वैसे ही कड़े शासन में भी रहना पड़ता था । गृहस्थी की शिक्षा उसे अपनी ताई से मिली थी। ससुराल शब्द का जिस सँकरी-से-सँकरी जगह से अभिप्राय है, और स्त्री- जगत् में ही क्या जन-साधारण में भी जो फूँक-फूँककर पाँव रखने का अर्थ प्रचलित है, उसे अनुभव की पीड़ा से असमय में ही प्रौढ़ ताई ने छोटी-सी बालिका सरला के मन में बैठाने में किसी प्रकार की कोर कसर नहीं रक्खी थी । सास के शासन में जिस तरह बिलकुल सिकुड़कर कांटे की नोक पर रहना होता है, उसका अभ्यास भी भावी वधू को घर ही में करा दिया गया था । सास की भौहों के उठने-गिरने के साथ जिस तरह उठना-बैठना पड़ता, इशारे पर जिस तरह रहना होता और उसकी उच्चारणहीन चुप्पी के जिस तरह भिन्न-भिन्न अर्थ लगाने पड़ते हैं, उन सब को लड़की के कानों में इतनी बार डाल दिया गया था कि रेल की यात्रा के बाद उसके घर-घर शब्द की तरह वे बातें सरला के मस्तिक में अपने आप चक्कर खाती रहती थीं ।

ससुराल में आकर सरला ने देख लिया था कि उसके यहाँ सास के शासन का पानी बिलकुल ही गहरा नहीं है। स्वामी के स्वभाव से भी धीरे-धीरे वह अच्छी तरह परिचित हो गई थी । आरम्भ में उसे जिस अतिरंजित शील-संकोच का अभिनय करना पड़ा वह नव- बधू का था, उसका अपना नहीं; लेकिन रामकुमार को तो बहू बनना नहीं था, इसलिए वह इस गुप्त सीख की बात नहीं जानता था । अस्तु, सास की अनुमति पाने के बाद सरला ने सहसा अपने जिस व्यवहार से स्वामी को प्रसन्न करने के साथ-साथ चकित भी कर दिया था, उसका यही रहस्य था ।

( ५ )

कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो पहले से ही चिरपरिचित से लगते हैं; उनके हृदय में सभी कुछ समा सकता है ! अन्तःपुर की संकीर्णता में अपनी ही सुविधा के सामान होता है । बैठक का कमरा सभी के लिए खुला रहता है, उसके भीतर आने-जाने में किसी को असुविधा नहीं मालूम पड़ती । इसी प्रकार की एक उदार सार्वजनिकता, एक सर्वदेशीय संस्कृति नवयुवक के स्वभाव में प्राय: देखने को मिलती है । इसका कारण शायद यह हो कि उनके पाँव अभी सांसारिकता की स्थूल मिट्टी में नहीं गड़े होते । जो हो सतीश में यह बात एक स्पष्ट और प्रत्यक्ष मात्रा तक थी । उसका उज्ज्वल हास्यमंडित मुख, उसके हृदय का दर्पण था । सभी देख लेते थे, वह साफ-सुथरा स्फटिक का बना हुआ है । फलतः नई भाभी सरला भी थोड़े ही समय में सतीश से आत्मीय की तरह परिचित हो गई थी। घंटों तक बैठ कर दोनों आपस में बातें करते । सतीश की रसिकता बीच- बीच में अपना रंग देती रहती । उसकी परिहास-प्रियता को अशिष्टता छू तक नहीं गई थी । राजकुमार, कार्य न रहने पर भी, कभी-कभी उन दोनों को कमरे में छोड़ स्वयं बाहर चला जाता था। इस तरह वह सतीश के प्रति अपने विश्वास का प्रमाण देना चाहता हो, यह नहीं, वह इस प्रकार की स्वतन्त्रता को स्वाभाविक अथवा अनुचित न मान कर मनुष्य के हृदय की संकीर्णता और क्षुद्रता को मिटा देने में अपना गौरव समझता था । मानव स्वभाव की दुरूहता के कारण संसार ने स्त्री-पुरुष के बीच जो छोटी-बड़ी रेखाएँ खींच दी हैं, सीमाएँ बाँध दी हैं, उन पर विश्वास करना वह अपनी दुर्बलता समझता था । रामकुमार यह नहीं सोचता था कि यदि संकीर्णता सचमुच ही मनुष्य के भीतर हो, तो वह इस तरह नहीं मिटाई जा सकती । हाँ, भुलाई छिपाई अवश्य जा सकती है ।

लेकिन सब कुछ होने पर भी, सतीश जिस प्रकार सरला से एकदम हिल-मिल गया था, सरला उस तरह अपने को नहीं दे सकी थी । उसने एक सूक्ष्म रेखा अपने बीच बनी रहने दी, जिसे सतीश नहीं देख सकता था। सतीश का स्फटिक बिलकुल स्वच्छ था, इसमें उसे रत्ती भर सन्देह न था - और यही कारण था कि वह अपने स्वामी से उनके मित्र की प्रशंसा करने में कभी न थकती थी; यहाँ तक कि कभी-कभी रामकुमार, अपनी असावधानी के क्षणों में, उस प्रशंसा के उद्गम के बारे में सन्दिग्ध हो उठता था लेकिन सतीश के स्फटिक में एक चकाचौंध भी थी, जिसे सरला नहीं समझती थी, और समझने का प्रयत्न करने में उसका हृदय - न जाने क्यों डर जाता था। सतीश की स्वतन्त्रता में सीमा न थी, या वह इतने आगे बढ़कर थी कि सरला के लिए उसे देख सकना असम्भव था । वह निर्मल थी, पर उसका कूल न मिलने के कारण सरला को उसमें केवल दूर तक चमकता हुआ प्रसार-ही-प्रसार दिखाई देता था, जिसमें सरला के उचित - अनुचित की दोनों सीमाएँ बीच ही में डूब जाती थीं । इसीलिए उस चौंधिया देनेवाले प्रवाह में वह आँखें मूंदकर नहीं कूद सकी थी ।

पर रामकुमार जो सतीश को इतनी अधिक स्वतन्त्रता दे रहा था, उसका एक और भी कारण था । जब कुमार के सुधार- प्रिय हृदय में पहले-पहल अपनी पत्नी को अपनी मित्र मंडली के सामने उपस्थित करने और खासकर सतीश से मिलाने की बालोचित उत्सुकता पैदा हुई थी, तब उसने बाहर की बैठक में, मित्रों के आस-पास, सरला के लिए कोई स्थान निश्चित रूप से स्थिर नहीं कर लिया था । उसने कुछ भी नहीं सोचा था कि इस स्वाधीनता की सीमा कहाँ पर रखनी चाहिए । और इसकी आवश्यकता भी नहीं, लोकाचार को, लोक-रीति को सभी जानते, सभी समझते हैं । सरला सनातन मर्यादा से बँधी हुई अन्तःपुर की देहली से बहुत आगे बढ़ आई हो, यह बात न थी; स्वयं व्यवहारज्ञान- शून्य सतीश उनके बहुत समीप खिसक आया था । यह बात असुन्दर न लगने पर भी भीतर-ही-भीतर कुमार को स्पृहणीय नहीं जान पड़ती थी । पर इस सन्देह- जनक भाव-परिवर्तन का कारण कहीं उसकी मानसिक संकीर्णता न हो, इसलिए कुमार उस पर कोई मत भी नहीं निर्धारित करना चाहता था; बल्कि उस द्विधा-भाव को अपने भीतर दबा देने के लिए वह सतीश की स्वतन्त्रता को सीमित करने के बदले और भी ढील देता जा रहा था ।

सतीश क्यों इस तरह की स्वतन्त्रता ले रहा था ? - हमें सतीश के मनोविकास को समझना होगा । कालेज के विद्यार्थी सतीश ने संसार का ज्ञान केवल इतिहास के पृष्ठों से संचित किया था, पर उसका ठीक-ठीक ऐतिहासिक दृष्टिकोण भी न था । हृदय के संस्कार प्रबल होने के कारण उसने इतिहास द्वारा सत्य के आदर्श स्वरूप का दर्शन करना चाहा था, फलतः उसका भावुक हृदय बड़े वेग से साम्यवाद की ओर झुक पड़ा। साम्यवाद ने केवल ऐतिहासिक तत्त्वों का मनन कर संसार के कल्याण का मार्ग निश्चत किया है। उसने मनोविज्ञान को भी इतिहास के तीस डिग्री के कोण से देखा है, इसलिए उसका आदर्श साम्राज्य अथवा स्वर्ण-स्थिति की कल्पना भी केवल इतिहास के मनुष्य के लिए है । पूर्ण मनुष्य को देखने का उसने प्रयत्न ही नहीं किया । कहानी के संक्षेप - शब्दों में साम्यवाद केवल ऐतिहासिक आदर्शवाद है ।

सतीश सुदूर भविष्य के अनिश्चित अन्धकार में टिमटिमाते हुए उस आदर्श - आलोक मधुरिमा की ओर आँखें गड़ाए, अपने चारों ओर व्याप्त, कठिन सामाजिक बन्धनों में बँधे हुए इस हँसते-बोलते, काम-काज करते हुए सत्य के प्रत्यक्ष रूप को मानो देख ही नहीं पाता था । इसीलिए जब वह अपनी बालोचित सरलता से अनायास सरला के सामने ही कह बैठता था कि संसार में साम्यवाद और स्त्री के सिवा रक्खा क्या है, तो वह अनर्गल होने पर भी उसके मुँह से बुरा नहीं लगता था। वह बार बार दुहराता -- मानव जाति के कल्याण के लिए कोई सत्य, सरल, संगत और साध्य पथ है तो वह साम्यवाद; मनष्यों के सुख, स्नेह, सौहार्द्य और सहवास के लिए कोई सामग्री है तो स्त्री ।

प्रत्येक युग के सामने सत्य का जो आदर्श स्वरूप प्रस्फुटित और विकसित होता है, वह वर्तमान की दृष्टि से केवल कल्पना मात्र है । वह केवल भविष्य में ही कार्यरूप में पुष्पित, पल्लवित हो सकता है, क्योंकि परिवर्तन का अर्थ विकास है, और विकास कार्यरूप, स्वतः प्रवर्तित होता है । हमारे दैनिक जीवन के आचार-विचार में छना हुआ जो सत्य बरता जाता है, उसकी उपेक्षा एक व्यक्ति कर सकता हो, समाज समष्टि रूप से नहीं कर सकता ; क्योंकि समाज के रूप में ही सत्य का विकास होता है, वह उसे नष्ट नहीं कर सकता । यही सामयिक सत्य समाज के कलेवर के भीतर वृहत् चुम्बक की तरह छिपा हुआ, उसकी कार्यकारिणी नाड़ियों को अपनी ओर प्रवाहित कर उन्हें एक सार्वलौकिक रूप देता रहता है ।

सरला के जीवन में चाहे कोई सिद्धान्त ज्ञान रूप से कार्य न करता हो, वह समाज के अन्तर्व्यापी इस चुम्बक के दर्शन भी भले ही न पाती हो, पर बाहर बरते जानेवाले सत्य के इस प्रत्यक्ष रूप का उसे अन्तःप्रेरणा से सहज ही में आभास मिल जाता था । सत्य को सार रूप में समझना उसके लिए जितना कठिन था, शब्द-रूप में देखना-सुनना उतना ही आसान भी था । यह लोकाचार में बँटा हुआ सर्वसम्मत सत्य, उसके सामने अज्ञात - रूप से खड़ा होकर उसके सतीश के साथ अच्छी तरह घुल-मिल जाने में बाधा उपस्थित करता था । सरला सतीश की स्वच्छता से एकदम तिलमिलाकर, उसे अपनी समझ से बाहर समझ, उससे सदैव अपनी रक्षा करती रहती थी । उसने दो-चार ही रोज़ के भीतर बाहर के कमरे में अपने लिए अपना स्थान अपने आप नियत कर लिया था ।

( ६ )

सतीश आज सुबह गुलाब का एक बड़ा-सा लाल फूल लेकर रामकुमार के यहाँ आ गया था। यह गुलाब उसे रास्ते में मिल गया हो, सो नहीं; उसने खास तौर पर कल शाम से हो माली से कहकर इसे मँगवाया था। आज सरला का जन्म दिन था । गहरे लाल रेशम की साड़ी पहने हुए, आकांक्षा से प्रदीप्त, उन्मुख ज्वाला की तरह, सरला ने ज्यों ही कमरे में प्रवेश किया, सतीश क्षण भर के लिए उस नवीन सौन्दर्य के आलोक से जैसे अभिभूत हो गया। वह उस समय बराबर बैठा तो कुर्सी पर ही रहा, लेकिन उसे ऐसा मालूम पड़ा कि वह एकाएक, भीतर ही भीतर अपने स्थान से उठ कर कुछ दूर आगे बढ़, फिर जैसे लौट कर बैठा हो ।

आधुनिक बंगाल स्कूल के चित्रों ने स्त्रियों के पहनावे के सम्बन्ध मे जिस हल्के रंग का आदर्श सतीश के मन में स्थापित कर दिया था, उसके ठीक विपरीत सिर से पाँव तक गहरे, चटकीले रंग के परिधान से भी सौन्दर्य की छटा इस तरह दसगुनी हो कर छिटक सकती है, यह सतीश ने पहले कभी नहीं सोचा था । इस लिए जन्म-दिन के उपहार स्वरूप उस लाल गुलाब को भाभी के हाथ में न देकर, सतीश ने सरला के सिर पर से साड़ी को सरका कर, काले काले बालों के सघन अँधियाले में उषालोक की तरह उस लाल फूल को उसकी चोटी में खोंस दिया । सरला का मुख सङ्कोच के मारे गुलाब से भी अधिक लाल हो, क्षण-भर के लिए सफेद हो गया । उजड्ड सतीश रंग के इस चढ़ाव उतार पर ध्यान न दे सकने के कारण, परिहास के ढंग से भाभी को, नीचे तक झुक कर सलाम कर अपनी कुर्सी पर बैठ गया ।

रामकुमार को पहले तो ऐसा मालूम हुआ, जैसे धुएँ के भीतर से आग की लपट ने निकल कर उसके हृदय को झुलसा दिया है, पर वह शीघ्र ही सम्हल गया, और जब सरला ने गुलाब के फूल को चोटी से निकाल कर मेज पर रख दिया और बाएँ हाथ से साड़ी को सिर पर डालते हुए करुण, पर संयंत स्वर में कहा - "सतीश बाबू, आपके हाथ से कोई काम बुरा न लगने पर भी आपको इस तरह सहसा, बिना सोचे-समझे कोई काम नहीं कर डालना चाहिए" - उस समय कुमार ने जैसे मन ही मन पत्नी के इस निर्देश का पूर्णरूप से समर्थन किया, यहाँ तक कि उसका सिर भी अपने आप हिल कर उसकी सम्मति जताने में नहीं रुक सका ।

सतीश के मुख की हँसी, कटी हुई पतंग की तरह, हृदय की डोर से अलग हो, होठों पर चक्कर खाती हुई, जैसे वहीं की वहीं निःस्पन्द हो गई । उसे मालूम पड़ा कि उसके सिद्धान्तों और सत्य- ज्ञान के प्रतिकूल कुछ न होने पर भी उसके चारों ओर व्याप्त अँधेरे में आज तक छिपा हुआ कोई छाया - सत्य सहसा अपना स्पष्ट हाथ उसकी ओर बढ़ा कर जैसे उसका गला दबा रहा है। उसे जान पड़ा, सत्य - मिथ्या होने से ही कोई काम अच्छा-बुरा नहीं लगता, उसके और भी कारण हो सकते हैं । वह जैसे किंकर्तव्यविमूढ़ हो, अपने स्थान पर, पत्थर की मूर्ति तरह, ज्यों का त्यों बैठा रहा ।

माली को खास तौर से हुक्म देकर उस लाल गुलाब के फूल को मँगवाने में सतीश का अभिप्राय केवल उपहार देने की प्रथा को निभाना था, अथवा उसमें और भी अन्तःकरण में छिपी हुई किसी व्यक्त आकांक्षा की प्रेरणा मिली हुई थी - इसकी आलोचना करना हास्यप्रद हैं। संभव है कि सतीश के स्वभाव का नवयुवक सभी काम सोच-विचार कर नहीं कर सकता, तो क्या सरला में इतनी उदारता न थी ? थी, पर नारी की मर्यादा ! एक बार तो उसके जी में आया कि उस फूल को नोच-नोचकर फर्श पर बखेर दे, यह नारी स्वभाव की प्ररेणा थी; लेकिन सरला के शील ने नारी के उद्वेग को दबा कर उसे फूल नोंचने से ही नहीं, मेज़ पर पटकने अथवा फेंकने से भी रोक दिया। उसने अपनी मधुर संस्कृति से फूल को केवल धीरे से मेज पर रख दिया था । सरला को केवल अपने पत्नी होने की मर्यादा की रक्षा करनी थी ।

स्त्री को और भी कई काम होते हैं, पर उसके जीवन का मुख्य काम - जहाँ पर उसे अपने स्त्रीत्व का सब से अधिक अनुभव होता है - अपने अन्तःकरण में लबालब भरे हुए स्नेह को ठीक-ठीक, यथारीति से बाँटना है, इसमें वह सब से निपुण होती वह अपने प्रति किए गए समस्त उपकारों को स्नेह ही से पुरस्कृत करती है । पर उसके स्नेह में मात्राओं का भेद होता है । वह साथ ही कई आदमियों को अपना स्नेह दे सकती है; पर किसी को कम, किसी को अधिक । उसका मानदंड, उसका नापने का गिलास कैसा होता है, इसे कोई नहीं कह सकता ।

सरला सतीश से कम स्नेह नहीं रखती थी। जब उसने सतीश के चिर- हास्य- मंडित मुँह की हँसी को, वृन्तच्युत पुष्प की तरह, उसके सम्पूर्ण मुख-मंडल से अलग होकर केवल होठों के बीच मुरझाते हुए देखा, तो उसे अपने स्नेहार्द्र हृदय में असीम व्यथा का अनुभव होने लगा । यहाँ तक कि वह अपने उमड़ते हुए आँसुओं के वेग को न रोक सकने के कारण चुपचाप कमरे से बाहर चली गई ।

किन्तु सबसे अधिक क्षुब्ध और आहत हुआ रामकुमार ! अपनी जिस दुर्बलता के ऊपर राख डाल कर वह भीतर-ही-भीतर दबा देना चाहता था, वह आज उस लाल गुलाब के रूप में अंगारे की तरह सुलग कर उसे सन्ताप पहुँचाने लगी । रामकुमार ने देखा कि जन्म-जन्मान्तर से संचित अपने इस पति होने के संस्कार को जैसे वह किसी तरह नहीं मिटा सकता। यही नहीं, उसका यह संस्कार अपने इस अधिकार का उससे अधिक से अधिक उपभोग करवाना चाहता है । उसे प्रतीत होने लगा कि सरला को बाहर के संसार में ले जाने की आकांक्षा में भी उसके इसी संस्कार की प्रेरणा छिपी थी कि चार आदमियों के सामने उसका यह अधिकार गर्व सार्थक और अधिकार तृष्णा सन्तुष्ट हो सके । रामकुमार ने देखा कि सब से बड़ा अवगुंठन उसकी आत्मा के ऊपर पड़ा हुआ है, पत्नी का वह अवगुंठन केवल उसकी छाया- मात्र है । अपने हृदय के अवगुंठन को हटाए बिना वह पत्नी के सुख-स्वाधीनता का उपभोग नहीं कर सकता। उसने उठ कर सतीश को गले लगा लिया, और बड़े ही व्यथित भाव से कहा- "मुझे क्षमा करो सतीश !"

सतीश इस क्षमा-याचना का ठीक-ठीक अर्थ नहीं समझ सका। उसने मुसकुराते हुए बाधा दी- "स्त्रियों की तरह बर्ताव मत करो कुमार !"

सरला जब चाय का सामान लेकर अन्दर आई, तो दोनों मित्रों को प्रसन्न देख कर उसके हृदय का भार हलका हो गया । उसे प्रतीत हुआ कि उसके भीतर छिपे हुए कुमार को ही मानो वह चोटी छूने का व्यापार बुरा लगा था, उसे नहीं ; और सतीश का फूल सन्देह के काँटे से सर्वथा ही शून्य है, यह बात अपने-आप ही उसकी अनुपस्थिति में मानो सिद्ध हो गई है ।

सरला ने जल्दी से उस लाल फूल के ऊपर चा-पोची डाल कर चाय तय्यार कर दी। तीनों मित्र नित्य की तरह चाय पीने लगे । उस बिना नशे के प्याले में परिहास का रंग खासा रहा ।

  • मुख्य पृष्ठ : सुमित्रानंदन पंत की कहानियाँ, निबंध, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण काव्य रचनाएँ ; सुमित्रानंदन पंत
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां