और विश्वास टूट गया (कहानी) : शंकर दयाल सिंह

Aur Vishwas Toot Gaya (Hindi Story) : Shanker Dayal Singh

प्रहलाद को आग में नहीं जलते देखकर जितना आश्चर्य हिरण्यकशिपु को नहीं हुआ होगा, उससे अधिक आश्चर्य महिला छात्रावास के चौकीदार को कमल और असित को बातें करते देखकर हुआ । अपनी छोटी-छोटी नेपाली आँखों को और और फैलाकर उसने इस मर्म को समझने की चेष्टा की और जब मुसकराहट होंठों के बाहर बरबस झाँकने लगी, तो वह पीछे की ओर देखने लगा। तभी उसके कानों में आवाज आई - "नहीं, असितजी! मेरा आपका मिलना कभी भी ठीक नहीं। जब माँ नहीं चाहती हैं, तो मैं कैसे कुछ कह सकती हूँ ।" कमल कह रही थी।

"मैं इसका प्रतिवाद नहीं करता, आखिर पढ़ने-लिखने के बाद भी अगर मेरी - आपकी मान्यताएँ ज्यों की त्यों रहीं, तब फिर वही जमाना ठीक था, जब पृथ्वीराज अपने बाहुबल से संयोगिता को उठा लाया था।" असित बेसब्री से दलीलें दे रहा था।

कमल के माथे पर पसीने की बूँदें छलछला आई थीं। वह असित को चाहती थी, अपनी संपूर्ण भावनाओं के साथ। उसे अपना सारा जीवन असित पर न्योछावर कर देने के लिए कहा जाता, तो भी शायद वह हिचकिचाती नहीं। फिर भी जब शादी का प्रस्ताव असित रखता, तो वह हिल उठती। कारण, माँ-बाप की सहमति - असहमति का भी तो ध्यान रखना था।

असित की चचेरी बहन मंजुला पढ़ती है महिला कॉलेज में। लिहाजा असित जब यहाँ रहता है, तो हरेक रविवार को अपनी बहन के छात्रावास में हाजिरी बजानी ही पड़ती है, नहीं तो कुशल नहीं । छुट्टियों में असित की जान पर आ जाएगी। चाचा का उलाहना अलग, चाची की फरियाद अलग, भला उसी शहर में तू भी रहता है, किंतु यह नहीं बनता कि छठे - छमासे, मंजुला मरती है या जीती है, यह देख आए। और यह मंजुला ! आफत की पुड़िया है, शैतानी की टिकिया है। दूसरों को बनाने में ही इसे आनंद आता है। मजाक तो ऐसा कर देगी मानो भाई - चाचा किसी का गम ही नहीं। डाँटो-डपटो, पर उस पर झाड़-फूँक का कोई असर नहीं ।

रविवार की संध्या है। असित मंजुला से मिल रहा है। मंजुला की बगल में आज एक और नई लड़की है।

"भैया, यह है कमल । मेरे साथ पढ़ती है, मेरे साथ रहती है, बड़ी भली है । देखते नहीं इसका कट । क्यों, अगर मैं इसे अपनी भाभी बना लूँ तो ?" और मंजुला हँस पड़ती हैं।

कमल लाल हो जाती है। असित को लगता है कि किसी ने खींचकर पाँच तमाचे गालों पर लगाए हों। झेंप जाता है। मंजुला शोख लड़की! जहाँ चाहे बेइज्जत कर दे। शर्म तो मानो इस लड़की से कोसों दूर है। असित अपने मन में प्रण करता है, अब कभी नहीं आएगा मंजुला से मिलने ।

तभी उसकी आँखें उस लड़की की ओर उठती हैं। साँवली सलोनी, छुई-मुई की लता, कजरारे केश - पाश | प्यासी धरती के समान मदमाती आँखें, जिनमें अभाव के स्थान पर भाव की रेखा है। दोनों ओर झूलते बालों के दो लट, जिनमें मौन निमंत्रण का मुखर संदेश है।

असित ने पहली बार अनचाहे की भाँति देखा, दूसरी बार देखकर भी न देखा और तीसरी बार देखा तो ऐसा लगा, मानो इसके चले जाने के बाद भी वह सदा इन्हें देखता ही रहेगा। और असित को लगता है, शायद इसीलिए इसके माँ-बाप ने इसका नाम कमल रख दिया हो ।

पास खड़ी कमल जमीन में धँसी जा रही है। एक पुरुष के सामने ऐसी अधोगति कभी नहीं हुई थी। असित जब चलने लगता है तो शिष्टाचार के नाते कमल के हाथ जुड़ जाते हैं - 'नमस्ते !' भई हुई आवाज कंठ से किसी प्रकार बाहर आती है। गेट के बाहर निकलते समय असित के कानों में मंजुला की हँसी तीर के समान लगती है। जी में आता है कि लौटे और उसके गालों पर अनगिनत तमाचे जड़ दे। भला एक शरीफ लड़की को बनाने में उसे कितना आनंद आ रहा है। मंजुला शादीशुदा हैं, कॉलेज में पढ़ती हैं, किंतु शराफत तो उससे कोसों दूर है।

असित धनी बाप का अकेला बेटा है, जिस पर माँ-बाप के न जाने कितने अरमान खड़े हैं। मेडिकल के फाइनल इयर में पढ़ता हैं, अब तक इसकी शादी के कई पैगाम अनेक जगहों से आए, किंतु प्रतिष्ठा के भूखे और धन को तृण समझनेवाले पिता ने सबको टके-सा जवाब दे दिया। लिहाजा असित अब तक कुँवारा लड़का है, जिस पर कितने ही खरीदारों की आँखें जमी हुई हैं।

असित के मन में किसी के प्रति कोई चाह नहीं है। शादी-ब्याह के मामले में वह माता-पिता को ही 'पोर्टफोलियो' समझता है। लड़के को इसकी क्या चिंता ? यह विभाग तो माँ-बाप का है। इसके अंतर्गत भाग लेने का अर्थ है माता-पिता को मानसिक दुख देना, जिसके लिए असित कभी भी तैयार नहीं ।

उस दिन जब वह महिला छात्रावास से लौटा, तो रह-रहकर उसकी आँखों के आगे एक तसवीर खड़ी हो जाती। एक लड़की - साँवली सलोनी, आँखें नीचे किए, छुई-मुईसी। बार-बार उसके कानों में मंजुला की आवाज सुनाई दे जाती - 'भैया, यह है कमल ।' और बार-बार उसे लगता, कोई कह रहा है—'नमस्ते ! '

असित ने प्रण किया था कि अब वह मंजुला से मिलने नहीं जाएगा, किंतु शनिवार आते-आते उसकी चेतना ने उसे झकझोर दिया। केवल मंजुला से मिलने की बात होती तो वह कभी नहीं जाता, किंतु अब तो उसकी बगल में एक और लड़की खड़ी होगी - कमल !

और रविवार की भोर से ही वह वहाँ जाने की तैयारी में ऐसा संलग्न हुआ, मानो कोई छोटे तबके का नेता बड़े अधिवेशन का उद्घाटन करने जा रहा हो। दस दिन पहले ही बाल बनवाए थे, किंतु आज फिर बनाना जरूरी था। शेविंग सुबह कर ली गई, किंतु इससे थोड़े ही काम चलेगा। एक बार फिर तीन बजे शेविंग करनी ही होगी। कल ही धुला हुआ सूट निकाला था, किंतु इसकी क्रीज कहीं-कहीं से दब गई है, अतः दूसरा सूट पहनना ही ठीक होगा।

बड़ी प्रतीक्षा के बाद चार बजे । उसने मंजुला के नाम हॉस्टल के चौकीदार द्वारा स्लिप भेज दी। धक् धक्हृदय से पास की बेंच पर असित बैठ गया। कब मंजुला आकर बगल में बैठ गई, इसका भी भान असित को नहीं हुआ। ध्यान टूटा तब, जब मंजुला की हँसी कानों में भर गई -"भैया, आज तो तुम फिलॉस्फर का मूड लेकर आए हो।"

मंजुला से बातें करने में भला क्या रखा है, और वह लड़की आई ही नहीं। मंजुला से पूछना भी खतरे से खाली नहीं। पूछा नहीं कि बँधा - बँधाया शिकार उसके हाथों में फँसा । पर असित से रहा नहीं गया-

"मंजू, तुम कभी भी इनसान नहीं हो सकतीं, उस दिन बेचारी उस लड़की को तो पानी-पानी कर दिया । "

असित को विश्वास हुआ कि अब पकड़ने की कहीं भी गुंजायश नहीं है।

“तो तुम ही उसका पानी रख लो न ?" मंजुला छूटते ही बोली।

असित हँस पड़ा - " तुमसे बातें करके भला कोई जीत कैसे सकता है ? क्या बताया था उसका नाम ... क्या ? हाँ, शायद कमल, तो उसकी और अपनी तुलना कर देख | वह कितनी शांत और सुशील दिखती है।"

अब भला मंजुला क्यों छोड़ती - " तो इसका अर्थ यह है कि तुमने आखिर पसंद कर ही लिया उसे!"

अब तो असित पसोपेश में पड़ गया। कुछ कहने को सोच ही रहा था कि कमल भीतरी बरामदे पर बाहर से झलक गई और मंजुला ने उसे इशारे से बुला लिया । असित ने चालाकी से काम लिया-

" तो अब मैं चला। और भी कितने काम हैं।"

"ऐसी क्या जल्दबाजी पड़ी है ? उस समय तो कमल की सभ्यता और इनसानियत का बखान कर रहे थे और यह आई नहीं कि तुम चले ।" मंजुला बोली ।

भीतर से असित को लगा कि मानो नस-नस में खून की जगह खुशी दौड़ रही है, पर बाहर से बोला, “मंजू, तू कभी भी सभ्य नहीं हो सकती, बराबर बस वही शोखी ! "

कमल ने बड़े गौर से असित को देखा - गौरवर्ण आँखों में संतोष की आभा । बोली में मिठास, आवेश नहीं। आक्रोश नहीं, करुणा । तिरस्कार नहीं, स्नेह । वह आपसे आप झुक गई।

***

कई रविवार आए, गए। मंजुला एक बहाना रही और असित मिलने आता रहा। मंजुला के पिता दशहरे की छुट्टी के चार दिन पहले ही आ गए थे, इसीलिए प्रिंसिपल ने मंजुला को घर जाने की छुट्टी दे दी।

असित तभी मंजुला को स्टेशन पर चढ़ा आया था, किंतु फिर भी तीसरे दिन आनेवाले रविवार को वह महिला - छात्रावास के गेट पर हाजिर हो गया। छात्रावास की दाई ने रजिस्टर जब उसके सामने रख दिया, तो वह पसोपेश में पड़ गया - 'किससे मिलना है ?' के खाने में काँपते हाथों से उसने लिखा- कमल कुमारी। नाते का खाना कैसे भरा जाए, प्रश्नचिह्न उसके सामने खड़ा हो गया। मंजुला थी, तो 'भाई' लिखा जाता था, किंतु कमल के लिए 'भाई' लिख देना कभी उचित नहीं होगा और उसने घबराकर उस खाने को रिक्त छोड़ दिया और अपना नाम लिखकर रजिस्टर बंद कर दाई के हाथों में थमा दिया।

कमल घबराई हुई छात्रावास से निकली तो नमस्ते करना भी भूल गई - "यह आपने क्या किया, असितजी ? सुपरिंटेंडेंट ने बुलाकर पूछा कि ये आपके कौन लगते हैं, मेरे मुँह से अनायास निकल गया 'भाई', और मैं कहती भी क्या ?"

असित चौंका। भूल से एक ऐसी बात हो गई है, जो कभी भी सभ्यता के लिहाज से ठीक नहीं है, किंतु वह हार माने कैसे ? बोला, "कमलजी, महीनों से जिन सपनों को मैं सँजोए आ रहा हूँ, उन्हें आज साकार कर दीजिए। आपके बिना मेरा जीवन सूना रहेगा, बिल्कुल सूना ।"

उत्तर के लिए व्यग्रता से उसने कमल की आँखों में झाँका । कमल हिली - " असितजी, मेरी सारी सहानुभूति आपके साथ है। किंतु अपने परिवारवालों की इच्छा को ठुकराना मेरे बूते के बाहर की बात हैं। आखिर जिनकी संतान हूँ, उनका भी तो मेरे ऊपर कुछ ऋण है। "

असित अब अपने को नहीं सँभाल सका- 'अब तक आपने मुझे क्योंकर अपने पास आने का मौका दिया, कमलजी ? मैं अपने आप ठीक था । मैंने आपसे कोई भीख तो चाही नहीं थी । आज आपका यह उत्तर है !" क्रोध की रेखा उसके कपोलों पर खिंच गई थी।

" असितजी, मरदों की जाति ही ऐसी होती है। आप आज तक मेरे पीछे स्वयं दौड़ते रहे । हड्डी का टुकड़ा किसी कुत्ते के गले में फँस जाए तो इसमें हड्डी का नहीं, कुत्ते का ही दोष है । "

असित का पारा अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया - " शर्म नहीं आती तुमको ये बातें बोलते हुए । मैं क्या जानता था कि तुम इतनी जहर हो ?"

" शर्म तो आपको आनी चाहिए। मैं आपकी बहन की मित्र थी, आपकी नहीं। क्या आपने सम..." और इसके पहले ही असित का दायाँ हाथ बड़े जोर से कमल के दाएँ गाल पर पड़ा, पास ही बैठे नेपाली दरबान ने दौड़कर असित को थाम लिया । असित ने हाथ छुड़ाया और बाहर निकल पड़ा।

कमल ने नेपाली के हाथों में पाँच रुपए का नोट थमाते हुए अनुनयपूर्ण शब्दों में कहा, " दरबानजी, यह बात किसी और से मत कहना । "

***

मंजुला छुट्टियों के बाद छात्रावास लौटी, किंतु कई महीने तक असित उससे मिलने नहीं आया । कई लोकल चिट्ठियाँ मंजुला की असित को मिलीं, चाचा-चाची ने भी बहुत लिखा, पर उसके कानों पर जूँ तक नहीं रेंगी। अंत में जब मंजुला का धमकी से भरा पत्र आया कि अगर असित नहीं आया तो वही उसके पास छात्रावास में आ जाएगी, तो असित हार मानकर अगले रविवार को मिलने चला गया। मंजुला तो मिली ही, साथ ही कमल भी मिल गई। असित ने देखा, इन चार महीनों में कमल की जवानी में और भी निखार आ गया है।

मंजुला अपनी किताबों की लिस्ट लेने हॉस्टल में चली गई तो पास खड़ी कमल को देखकर असित अपने को नहीं रोक सका - "कहिए कमलजी, अब मिलने में तो कोई हर्ज नहीं है ! "

कमल नहीं समझ सकी, आखिर यह प्रश्न क्या है ? उलाहना, प्रेम, विद्वेष, घृणा या व्यंग्य ? वह बोली, "नहीं, असितजी ! मेरा आपका मिलना कभी भी ठीक नहीं। जब माँ ने नहीं चाहा है, तो मैं कैसे कुछ कह सकती हूँ !"

असित अवाक् देख रहा था कि कमल वहीं की वहीं थी और पास बैठा नेपाली दरबान इस पुनः मिलन को आश्चर्य से देख रहा था और साथ ही इसकी प्रतिक्रिया के लिए भी तैयार था । और मंजुला आ जाए उसके पहले ही असित छात्रावास के गेट से बाहर हो चुका था। अब वह कभी भी इस निर्दयी गेट के भीतर प्रवेश नहीं करेगा। इस फाटक के अंदर आत्मा की सिसक है, व्यथा है, तृष्णा है, जलन है, पीड़ा है और भस्म कर देनेवाली दावाग्नि हैं ।

उसके पाँव अति वेग से बाहर की सड़क को नाप रहे थे, जहाँ के कोलाहल में भी वह असीम शांति की खोज में आगे बढ़ रहा था।

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