और नदी शांत हो गई : कश्मीरी लोक-कथा
Aur Nadi Shant Ho Gai : Lok-Katha (Kashmir)
बहुत समय पहले कश्मीर में एक राजा राज करता था। वह बड़ा दयालु और दानी था। प्रजा की भलाई के लिए नित नई योजनाएं बनाता रहता। मगर पिछले कई वर्षों से एक ऐसी समस्या उनके सामने आ गई थी कि जितना भी वह उसके बारे में सोचता, उतनी ही वह उलझती जाती। समस्या भी बाढ़ की। कश्मीर घाटी के बीच एक नदी बहती थी, आज भी बहती है- झेलम, किंतु तब इसका नाम था वितस्ता। वितस्ता कश्मीर के खेतों और बागों को सींचती थी, मनुष्यों की प्यास बुझाती थी और यहां तक कि लोगों को अपनी छाती के ऊपर से दूर दूर तक ले भी जाती थी। तब बहुत सा व्यापार नावों द्धारा ही होता था। वास्तव में कश्मीर की खुशहाली इसी वितस्ता नदी के कारण थी। पर कुछ सालों से वितस्ता भयंकर रूप धारण करने लगी थी। वर्षा ऋतु आती तो नदी उमड़ कर अपने किनारों को तोड़ती हुई मदमस्त हाथी की तरह बस्तियां उजाड़ती हुई, पेड़ पौधे रौंदती मनुष्यों और पक्षियों को बहा ले जाती, हर साल अनेक गांव बरबाद होते और बहुत सारे लहलहाते धान को नष्ट कर जाती।
राजा को कुछ भी सूझ नहीं रहा था। उसने दरबार बुलाया और समस्या अपने मंत्रियों और विद्वानों के सामने रखी। किसी ने सुझाव दिया, ”महाराज लगता है प्रकृति ही हम पर नाराज है, ईश्वर हमें दण्ड दे रहा है। इसीलिए माता समान वितस्ता नदी हमारा विनाश करने पर तुली है। उसे प्रसन्न करने के लिए महायज्ञ किया जाना चाहिए।"
राजा ने सोचा कि हो न हो यह मेरे ही किसी पाप की सजा मेरी प्रजा को मिल रही है। नहीं तो क्या कारण है कि मेरे पिता के समय कभी ऐसी बाढ़ नहीं आई। उसने वितस्ता नदी के किनारे दूर दूर से ब्राहमणों और विद्वानों को बुलाकर बड़ी धूमधाम से यज्ञ कराया। अपनी ओर से कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।
मगर वितस्ता को मानना था नहीं, सो नहीं मानी। पहले की तरह भयानक रूप से तबाही मचाती चली गई। किसी ने कहा कि नदी माता को बलि दो। इस पर कई बकरों की बलि चढ़ाई गई। मगर वितस्ता जैसे इससे और भी क्रोध में आ गई। उसमें पिछले साल से भी अधिक भयंकर बाढ़ आई। एक दिन राजा अपने दरबार में बैठा इसी सोच में डूबा था। तभी द्धारपाल ने आकर बताया कि एक युवक महाराज के दर्शन करना चाहता है। वह कहता है कि मैं वितस्ता को शांत करने की कला जानता हूं।
राजा चौंक पड़ा। एक बार तो सोचा कि कहीं कोई ठग तो नहीं जो धोखा देकर धन ले जाना चाहता हो। पर फिर यह सोचकर बुला भेजा कि मिल लेने में क्या हर्ज है। हो सकता है कि उसके पास सचमुच कोई मंत्र हो। युवक उसके सामने आया तो उसे देखकर राजा एकदम निराश हो गया। उसने सोचा कि कोई जटाधारी सन्यासी होगा, पर उसके सामने खड़ा था एक सुंदर स्वस्थ और पढ़ा लिखा नौजवान। नदी को वश में करने की शक्ति उसमें होगी, यह सोचना भी मूर्खता थी। बेमन से राजा ने पूछा, ”युवक तुमने जो दावा किया है, क्या वह सच है?"
युवक ने गंभीरता से जवाब दिया, ”राजन, इस कठिन समय में आप जैसे राजा के साथ मजाक करने की मूर्खता मैं कैसे कर सकता हूं। मैं सचमुच वितस्ता नदी के क्रोध को शांत कर सकता हूं। मुझे केवल दस हजार रूपये चाहिए।"
सबको हैरानी हुई की युवक बिना किसी तपस्या, बिना किसी यज्ञ, बलि अथवा पूजा के ही नदी को वश में करेगा। किसी भी मंत्री या पुरोहित को इस पर विश्वास नहीं हुआ। मंत्री ने कहा, ”महाराज, इस धोखेबाज की बातों में न आएं। लगता है कि धन लेकर यह देश से बाहर चला जाएगा।"
राज पुरोहित ने भी कहा, ”राजन, मेरे विचार से इस युवक का दिमाग खराब है। नहीं तो जहां बड़े बड़े पंडित कुछ न कर सके, वहां यह पागल क्या कर सकेगा?"
इस पर युवक बोला, ”महाराज, आप पहले तो अपने राजवैद्य से मेरी जांच करा लें कि मैं पागल हूं या नहीं, फिर मेरे साथ अपने किसी कर्मचारी को लगा दें। ताकि मैं देश छोड़कर न जा सकूं। एक सप्ताह के भीतर यदि वितस्ता नदी अपनी सीमाओं में न बहने लगे तो जो आपके मन में आए वह दण्ड मैं भोगने को तैयार हूं।"
अगले दिन राजधानी श्रीनगर में यह समाचार आग की तरह फैल गया कि एक पागल नदी को वश में करने वाला है। सुबह से ही बहुत से लोग नदी के किनारों पर तमाशा देखने आ गए। क्योंकि वह युवक नाव में बैठकर नगर के एक छोर से दूसरे छोर तक जाने वाला था।
नदी जहां श्रीनगर में प्रवेश करती है वहां से युवक की नाव चल पड़ी। उसके साथ कई मटके थे। नाव कुछ ही आगे बढ़ी होगी कि युवक ने एक मटके में हाथ डाला और मुट्टी भर सिक्के निकाले, यह देखकर सबको अचंभा हुआ कि इस पागल युवक ने सिक्के नदी में फेंक दिए। युवक ने फिर कुछ सिक्के निकाले और लोगों को दिखाते हुए फिर पानी में इस तरह फेंके जैसे खेत में बीज बो रहा हो। पहले तो लोगों ने सोचा कि शायद यह कोई पूजा हो मगर जल्दी ही वे समझ गए कि युवक बेमतलब पैसे फेंक रहा है, जैसे पैसे न हों कंकड़ हों।
अचानक दूसरे किनारे पर कुछ शोर सा हुआ, कुछ मनचले लड़के पानी में कूद पड़े और गोता लगाकर पैसे निकालने की कोशिश करने लगे। पहले तो लोग उन पर हंसे, मगर जब कई लड़कों को नदी तल से सचमुच सिक्के मिल गए तो हंसी बंद हो गई। लोगों में नदी तल से पैसे निकालने का जोश से उमड़ पड़ा। दोनों किनारों पर जबरदस्त भगदड़ मच गई। लोग नदी में कूद रहे थे, कोई दोनों हथेलियों में नीचे से कीचड़ निकाल रहा था तो किसी ने छोटी सी टोकरी साथ ले रखी थी। जिसमें कीचड़ भरकर वह किनारे पर लाकर उसमें से सिक्के खोजता। कुछ लोगों को इससे भी अच्छी तरकीब सूझी, वे दल बनाकर नदी तल से कीचड़ निकालकर नावों में भरने लगे। एक दल किनारे पर कीचड़ डाल आता तो दूसरा उसमें से सिक्के निकालता।
और वह युवक लगातार मटकों में से पैसे निकालकर लोगों को दिखा दिखाकर नदी में फेंकता रहा। जैसे कह रहा हो और गहराई में जाओ और जितने सिक्के बटोर सको, बटोरो, नदी के बीच में पहुंचकर तो उसने सिक्कों से भरा हुआ मटका ही पानी में उलट दिया। ज्यों ज्यों उसकी नाव आगे चलती त्यों त्यों सिक्के खोजने वालों की संख्या भी बढ़ती जाती। राजा के कर्मचारी इस युवक की हरकतों से बड़े परेशान हो रहे थे। इस पगले ने तो सारे शहर को ही पागल बना दिया। चंद सिक्कों के लिए लोग मिटृी नदी से निकालकर किनारे पर डालने के लिए उतावले हो रहे थे।
मगर युवक किसी की चिंता किए बिना अपना काम करता गया। शाम हो गई तो वह घर चला गया। अगले दिन उसने देखा कि सूरज निकलने से पहले ही लोग फिर नदी में गोते लगाने निकल पड़े थे। दूसरे दिन भर यही क्रम चला। किनारों पर मिटृी के अंबार लग गए पर लोगों का उत्साह कम नहीं हुआ।
तीसरे दिन सुबह लोगों ने चमत्कार देखा- वितस्ता का पानी कई हाथ नीचे चला गया था और किनारे कई हाथ ऊंचे हो गए थे। उस दिन राजा ने नदी पर आकर सारा दृष्य देखा तो उसकी समझ में आया कि नदी क्रोध में क्यों थी। बरसों से नगर की गदंगी बहकर उसी में चली जाती थी। जिससे उसका तल ऊपर उठ गया था और पानी के बहाव में बाधा आ जाती थी। इस सच्चाई को समझने के लिए यज्ञ और बलि की नहीं, प्रकृति के स्वभाव की जानकारी जरूरी थी।
उस दिन के बाद नदी में बरसों तक बाढ़ नहीं आई और कई दलदलों से पानी निकल गया। ऐसे ही एक स्थान पर एक नगर बस गया। जिसे आज सोहोर कहते हैं। तब उसका नाम सूर्यापुर था क्योंकि वह उसी युवक की याद में बसाया गया, जिसका नाम सूर्या था।
(आमिर)